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________________ भुजगारे खेत्ताणुगमो २८५ असंखें । तिरिक्ख०३ तिषिणप० केवडि० १ सव्वलो० । अवत्त० लो० असं०। ५१२. बादरपुढ० तस्सेव अपज्ज. पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ०--सोलसक०भय०-दुगुं०-ओरा०-तेजा.-क०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० तिणिप के ? सबलो० । सादासाद०-चदुणांक ०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० सव्वलो। इत्यिकपुरिस०-दोआउ०-मणुसग०--चदुजा०-पंचसंठा--ओरा०अंगो०-छस्संघ-मणुसाणु०आदा७०-दोविहा०-तस-बादर--सुभग-दोसर-आदें-[जस०]-उच्चागो. चत्तारिप० लो. असं० । णस-तिरिक्व०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु० पर०--उस्सा०-थावर०-मुहुमपज्जत्तापज०-पत्ते-साधार०--दूभग०-अणा०-अजस०--णीचा० तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० लो० असंखें । एवं बादरआउ०--तेउ०--वाउ० तेसिं चेव अपज्ज० बादर०पत्ते तस्सेव अपज्ज० । गवरि बादरवाउ० जम्हि लोग० असंखें तम्हि लो० संखें। सेसाणं णेरइगादीणं याव सण्णि ति संखेज--असंखेज्जजीविगाणं सव्वपदा के ? लो० असंखेंजदिभागे। एवं खेतं समत्तं । त्रिकके चार पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। तिर्यश्चगतित्रिकके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। ५१२. बादर पृथिवीकायिक और उसके अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय,स्थिर,अस्थिर, शुभ और अशुभके चार पदोंके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर, श्रादेच, यश:कीर्ति और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार बादर जल. कायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और उनके अपर्याप्त तथा बादर प्रत्येकशरीर और उनके अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है. वहाँ पर बादर वायुकायिक जीवोंमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिए । शेष नारकीआदिसे लेकर संज्ञी तकके संख्यात और असंख्यात संख्याक जीवोंमें सब पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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