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________________ ७८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे गुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो। णवरि णग्गोद०-सांदि० उक्कस्सं बंधतो दोवेद० सिया० अणंतगुणहीणं० । खुज०-वामण. णबुंस० णि० अणंतगुणहीणं०। एवं चदुसंघ०। असंपत्त० बेइंदियभंगों। १७७. अप्पसत्थ०-दुस्सर० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु०-णीचा०--पंचंत. णि. अणंतगुणहीणं० । सादासाद०-चदुणोक. सिया० अणंतगुणहीणं । णाम० सत्थाणभंगो। आदाउज्जो० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। एवं सव्वअपज्जत्त-सव्वविगलिंदियाणं पुढ०-आउ०-वणप्फदिपत्तेय-णियोदाणं च । तेउ०-वाऊणं पि तं चेव । णवरि मणुसायु०-मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० वज० । १७८. मणुसेसु खविगाणं ओघं । सेसं पंचिंदियतिरिक्वभंगो। एवं मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु । १७६. देवेसु आभिणिबो० उ० बं० चदुणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०-अथिरादि चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नार भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और स्वाति संस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो वेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अनत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तथा कुब्जक संस्थान और वामन संस्थानके उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव नपुंसकवेदका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता ती प्रकार चार संहननोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। असम्प्राप्तामृपादिकासंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष द्वीन्द्रियजातिके समान है। १७७, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पश्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चोन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पति प्रत्येक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी यही सन्निकर्ष है। इतनी विशेषता है कि इनके मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानपूर्वी और उच्चगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। १७८. मनुष्योंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंके जानना चाहिए । १७६. देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र १. श्रा० प्रतौ चदुसंघ० अप्पसत्थ० बेइंदियभंगो इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ सोलसक० भयदु० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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