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________________ बंधसण्णियासपरूवणा तस०४-दूभग--दुस्सर--अणादें--णिमि०--णीचा०--पंचंत० णिय. अणंतगुणहीणं० । सादासाद०--चदुणोक०-दोगदि-तिण्णिसंठा०-तिण्णिसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिरादितिण्णियुग० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं पुरिस० । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ० । १७४. हस्स० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु-तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा.-क-हुंड० - पसत्यापसत्य०४तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-थिरादिपंच०-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि. अणंतगुणहीणं० । रदी णि० । तं तु० । एवं रदीए । दोआउँ० णिरयभंगो। १७५. बेइं०-तेइं०-चदुरिं० उ० बं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणही । सादासाद०-चदुणोक० सिया० अणंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो। १७६. चदुसंठा० उ० वं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-णीचा०--पंचंत० णि० अणंतगुणहीणं० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० अणंतअसचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ तीन संस्थान और तीन संहननके स्थानमें पाँच संस्थान और पाँच संहनन कहने चाहिए। १७४. हास्य प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकोन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर. हण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतष्क. अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार रति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। दो आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नारकियोंके समान है। १७५. द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। १७६. चार संस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो वेद और १. श्रा० प्रतौ सोलसक० भयतु० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ दोश्राणु० इति पाठः । ३. ता० प्रतौ णवदंसणा• मिच्छ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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