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________________ बंधसण्णियासपरूवणा तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०' णिय० अणतगुणहीणं० । छस्संठा-छस्संघ०दोविहा०-छयुगल. सिया अणंतगुणहीणं । सत्तमाए णिरयोघं । णवरि दोसंठा०दोसंघ० उ० बै० तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिय. अणंतगुणहीणं । १७. तिरिक्खेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदि० उ० बं० पचिंदि०वेउन्वि०-वेउव्वि०-अंगो०-पसत्य ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० अणतगुणहीणं० । हुंड-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पस०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु० छहाणपदिदं । एवं णिरयगदिभंगो अप्पसत्याणं । १८. तिरिक्खग० उ० बं० एइंदि०-तिरिक्रवाणु०-थावरादि०४ णिय० । तं तु० छहाणपदिदं० । ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०-पसत्यापसत्य ०४-अगु०-उप०अथिरादिपंच०--णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि०तिरिक्रवाणु०-थावरादि०४ । १६. मणुसग० उ० बं० पंचिंदि०-तेजा०-क-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि दो संस्थान और दो संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। १७. तिर्यश्चोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १८. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान एकेन्द्रिय जाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकष जानना चाहिए। १६. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट श्रानुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, तैजस शरीर, २ श्रा० प्रती अगु० ४ तस० णिमि इति पाठः। २० प्रती तेजाक० पसत्यापसत्य० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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