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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओरालि०- तेजा०- क०- पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं। हुड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्रवाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु. छटाणपदिदं० । उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ । १६. मणुसगदि० उ० बं० पंचिदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि०--पसत्थ०४-- मणुसाणु०--अगु०३- तस०४-पसत्यवि०-थिरादिछ०णिमि० णिय० । तं तु० छटाणपदिदं । अप्पसत्थ०४-उप० णिय० अणंतगुणहीणं बं० । तित्थ० सिया० । तं तु० छहाणपदिदं । एवं पसत्थाओ ऍकमेक्केण सह । तं तु० तित्थयरेण सह कादव्वं । चदुसंठा०-चदुसंघ०-उज्जो० ओघं । एवं छसु पुढवीसु । णवरि उज्जोवं उ० वं० तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४ बन्धक जीव पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्तवर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करता है तो वह हह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हए होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगल्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहकी मुख्यता से सन्निकर्प जानना चाहिए। १६. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका वध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर. कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाड. बनर्यभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे एक दूसरेके साथ सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ कहना चाहिए। चार संस्थान, चार संहनन, और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। अर्थात इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान कहना चाहिए। इसी प्रकार प्रथमादि छह पृथिवियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, १ श्रा० प्रतौ सिया० । छहाणपदिदं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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