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________________ ३६८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हाणि सव्वद्धा । एवं तित्थय । णवरि अवत्त० ज० ए०, उ० संखेंज। आहार०२ पंचवड्डि-पंचहा० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें । अणंतगुणवड्डि-हाणि० सव्वद्धा । अवढि०-अवत्त० ज० ए०, उ० संखेजः । एवं भुजगारभंगो याव अणाहारए ति णेदव्वं । काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार तीर्थङ्करकी अपेक्षासे भी काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। आहारकद्विककी पाँच वृद्धि और पाँच हानिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार भुजगारके समान अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका एकेन्द्रियादि सब जीव तेरह पदोंके साथ बन्ध करते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्वदा काल कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल सर्वदा कहा है,वहाँ भी यही समझना चाहिए कि उन प्रकृतियोंके विवक्षित पदोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा बन्ध होता रहता है। अतः यहाँ इस कालको छोड़कर शेष कालका खुलासा करते हैं-पाँच ज्ञानावरणादिका अवक्तव्यबन्ध उपशमश्रेणिसे गिरते समय होता है और प्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यबन्ध विरतसे विरताविरत या अविरत होते समय होता है। ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक या लगातार संख्यात समय तक ही यह क्रिया करते हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि आठ प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद गुणस्थान प्रतिपन्न जीव नीचे उतरते समय यथायोग्य करते है और औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद असंज्ञी आदि जीव करते हैं। ये असंख्यात होते हैं, इसलिए यह भी सम्भव है कि इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद एक समय तक करें और दूसरे समयमें कोई भी जीव अवक्तव्यपद करनेवाले न हों और यह भी सम्भव है कि असंख्यात समय तक क्रमसे नाना जीव इस पदको प्राप्त होते रहें। यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असख्यातवं भागप्रमाण कहा है। किन्तु अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और क्रमसे व्यवधान रहित होकर अन्तर्मुहूर्तके बाद निरन्तर नाना जीव इन पदोंको असंख्यात बार प्राप्त हो सकते हैं, इसलिए इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकछहके बारह पदोंका जघन्य काल एक समय तो स्पष्ट ही है, क्योकि प्रत्येक पद एक समय तक होकर दूसरे समयमै न हो। किन्तु इनका उत्कृष्ट काल जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो उसका कारण यह है कि अवक्तव्यपदका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल तो एक ही समय है और अवस्थितपदका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है, इसलिए लगातार असंख्यात समय तक भी इन पदोंके होने पर उस सब कालका जोड़ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, परन्तु शेष दस पदों में से प्रत्येक पढ़का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भी यह काल उतना ही कहा है सो इसका भाव यही है कि आवलिके असंख्यातवें भागको भी असंख्यातसे गुणा करने पर जो उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है वह भी आवलिके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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