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________________ ३९६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे - च । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताव ताणि च अण्णाणि च । एसा परूवणा कदमासिं ? तिरिक्खगदिणामाए यासिं बंधट्ठिदीणं' इमासिं एसा परूवणा । तं जहायाओ हिदीओ बंधमाणो तिरिक्खगदिणामाए जहण्णयं अणुभागं बंधदि तासिं हिदीगं एसा परूवणा । एदासिं ट्ठिदीणं या उक्कस्सिया ट्ठिदी तिस्से याणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि तदो समउत्तराए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । विसम उत्तराए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदो ० असंखैज्जदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो अब्भवसिद्धि पाओग्गजह० अणुभाग० जह० बंधुकस्सियाए हिदीए अणुकड्डी झीयादि । जहि अब्भवसि० जह० अणुक्कड्डी झीणा तदो जा समउत्तरा हिदी तिस्से अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले विसमउत्तराए हिदी अणुक्कड्डी झीयदि । यहि विसमउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमउत्तराए ट्ठिदीए अणुकड्डी झीयदि । एवं याव तिरिक्खर्गादिणामा उक्कस्सियाए हिदीए ति । तिरिक्खाणु० - णीचागो० तिरिक्खगदिभंगो । ६५७. एत्तो ओरालियसरीरणामाए अणुक्कडिं वत्तइस्साम । तं जहा - ओरालियसरीरणामा उक्कस्सियं द्विदिं बंधमाणस्स याणि अणुभागबं० तदो सयऊणाए दिए तदेगदेसो च अण्णाणि च । विसमऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तिसमऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदो ० असंखेज दिभागो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । यह प्ररूपणा किन स्थितियोंकी है ? तिर्यञ्चगतिनामकर्म - की इन बन्धस्थितियोंकी यह प्ररूपणा है । यथा - जिन स्थितियोंको बाँधते हुए तिर्यगति नामकर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, उन स्थितियोंकी यह प्ररूपणा है । इन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं, उससे एक समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। दो समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमेंसे प्रत्येक स्थितिके पूर्व - पूर्वका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । अनन्तर अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान युक्त जघन्य बन्धोत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जिस स्थानमें अभव्यसिद्धप्रायोग्य जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उसके बाद जो एक समय अधिक स्थिति है उसकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समयमें तीन समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इस प्रकार तिर्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । ६५७. आगे औदारिकशरीर नामकर्मकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं । यथा — औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उससे एक समय कम स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । दो समय कम स्थिति के उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। तीन समय कम स्थिति उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार १. ता० आ० प्रत्योः यादि बंधहि दीणं इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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