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________________ ३९५ हिदिसमुदाहारो अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले विसमउत्तराए अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि विसमउत्तराए ट्ठिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । एवं याव असादस्स उक्कसिया हिदि त्ति । णिरय०एइंदि०-बीइं०-तीइं०-चदुरिं०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-णिरयाणु०-अप्पसत्थ० -थावर०सुहुम-अपज०-साधार०-अथिर-असुभ-दूभग-दुस्सर-अणादे-अजस० एवं असादभंगो। ६५६. एत्तो तिरिक्खगदिणामाए अणुकडिं वत्तइस्सामो। तं जहा-सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स सव्वजहणियं हिदि बंधमाणयस्स याणि अणुभागवंधज्झवसाणहाणाणि तदो विदियाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो तदियाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागो' तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो जहणियाए द्विदीए अणुक्कड्डी छिज्जदि । जम्हि जहणियाए द्विदीए अणुक्कड्डी च्छिण्णा तदो से काले समउत्तराए द्विदीए अणुक्कड्डी छिजदि। जम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी छिण्णा तदो से काले विसमउत्तराए द्विदीए अणुक्कड्डी छिजदि । एवं याव अब्भवसिद्धिपाऑग्गजहण्णहिदिचरिभसमयं अपत्ता ति । तदो अब्भवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं हिदि बंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि विदियाए द्विदीए ताणि च अण्णाणि च । तदियाए हिदीए ताणि च अण्णाणि अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है , उससे अनन्तर समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है उससे अगले समयमें तीन समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इसी प्रकार असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए। नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीतिका भङ्ग इसी प्रकार असातावेदनीयके समान है। ६५६. आगे तिर्यश्चगतिनामकर्मकी अनुकृष्टि बतलाते हैं । यथा-सातवीं पृथिवीमें सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकीके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उनसे द्वितीय स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें। अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान प्राप्त होते हैं। तब जाकर जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ जघन्य स्थितिकी अनुष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । इस प्रकार अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिका अन्तिम समय जब तक न प्राप्त होतब तक जानना चाहिए । अनन्तर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उनसे द्वितीय स्थिति में वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। तीसरी स्थितिमें वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येकमें वे और अन्य १. ता० प्रतौ असंखेजादेभागे इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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