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________________ २०२ महाधे अणुभाग धाहियारे अह-तेरह ० | सुहुम ० - अपज्ज० - साधार० ज० अज० लो० असं० सव्वलो० । राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके व छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग है, अतः यह क्षेत्र के समान कहा है, तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है। अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदी जीवों का स्वस्थानविहार आदिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण है । इन दोनों अवस्थाओं में सातावेदनीय आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियों और नारकियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं हो सकता मात्र आतप इसका अपवाद है । वह भी मारणान्तिक समुद्घातके समय यदि हो, तो बादर पृथिवीकायिकों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय ही सम्भव है। इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है। तथा तिर्यवायु और मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता व तिर्यच और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । नारकियों और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमारण कहा है। तथा स्वस्थान विहारादिके समय व नपुंसकों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी इसका बन्ध होता है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम श्राठ नटे चौदह राजू व सब लोकप्रमाण कहा है। नरकायु आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवांका स्पर्शन क्षेत्र के समान है, यह स्पष्ट ही है। जो नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी नरकगतिद्विकका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध होता है। अतः इनके दोनों प्रकारके अनुभाग के बन्धक जीवो का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवो में सहस्रार कल्पतक मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवों के देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध और सब देवों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवों के इनका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्रमसे कुछ कम पाँच और कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । तिर्यों और मनुष्यों के देवो में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी पचेन्द्रियजाति और त्रसका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा स्वस्थानविहार आदिके समय व नीचे और ऊपर कुछ कम छह-छह राजूप्रमाण क्षेत्र के भीतर यथायोग्य मरणान्तिक समुद्घात करते समय भी इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिये इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। श्रदारिकशरीरका जघन्य अनुभागबन्ध देव करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार उद्योत व यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का यह स्पर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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