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________________ ४०३ तिव्वमंदपरूवणा ६६१. ऍतो असादस्स तिव्वमंदं वत्तइस्सामो । तं जहा - असादस्स जहण्णियाए द्विदीए जह० पदे जह० अणु० थोवो। विदियाए ट्ठि० जह० अणुभा० तत्तियो चेव । तदियाए डि० जह० अणु० तत्तियो चेव । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताव जह० अणु० तत्तियो चेव । तदो याओ द्विदीओ बंधमाणो असादस्स जह० अणु० बंदि तासि द्विदी ० या उक्कस्सिया हिंदी तिस्से समउत्तराए द्विदीए जह० अणु० अनंत समय कम उत्कृष्ट स्थितिमें जघन्य अनुभाग उतना ही है । इस प्रकार असातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्ध समान सातावेदनीयका स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक जितने स्थितिविकल्प हैं, उन सबका जघन्य अनुभागबन्ध समान है । फिर इससे आगे निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । फिर यहाँ अन्तकी स्थिति में जो जघन्य अनुभाग प्राप्त हुआ है, उससे उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति से लेकर निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियों में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा है । फिर जहाँ जघन्य अनुभाग छोड़ा था, उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर इससे उत्कृष्ट स्थितिसे एक निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंके बाद दूसरे निर्वर्गेणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरितन निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा तब तक कहना चाहिए, जब तक असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदनीयके बन्धमें एक निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थिति शेष रह जाय । अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है और उससे उपरितन निर्वर्गणा arush प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा होकर यहाँ अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागसे असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदनीयका स्थितिबन्ध प्राप्त हो जाता है । फिर यहाँ असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदीयका जो स्थितिबन्ध प्राप्त हुआ है, उसकी स्थिति से निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थिति हटकर जो अधस्तन स्थिति है,उसका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है और इससे असातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्ध के समान सातावेदनीयके स्थितिबन्ध में एक समय कम करके प्राप्त हुए स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर अधस्तन एक-एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरिम एक-एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा कहते हुए वहाँ तक जाना चाहिए, जब जाकर सातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा प्राप्त हो जावे । पुनः इससे एक निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियाँ ऊपर जाकर वहाँ स्थित स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहना चाहिए । पुनः एक-एक स्थिति कम करते हुए जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा कहना चाहिए । यह सातावेदनीयका तीश्रमन्द है । इसी प्रकार यहाँ मूलमें गिनाई गई अन्य प्रकृतियों का जानना चाहिए । ६६१. इससे आगे असातावेदनीयका तीव्रमन्द बतलाते हैं । यथा - असातावेदनीयकी जघन्य स्थिति जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है । द्वितीय स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। तीसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है । इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितियोंके प्राप्त होने तक जघन्य अनुभाग उतना ही है। इससे आगे जिन स्थितियोंको बाँधता हुआ असातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करता है उन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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