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________________ १६० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णीचा०-पंचंत० उ० अणु० लो० असंखें. अह-णव० । सादा-ओरा-तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०३-उज्जो०-बादर-पज्जत्त-पत्ते-थिर-सुभ--जस-णिमि० उ. अहः । अणुक्क० अह-णव० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुस-पंचिं०-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदो०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसर-आदें-तित्थ०-उच्चा० उ० अणु० अहचौँ । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं । ३५५. एइंदिएसु पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरिक्ख०--एइंदि०-हुंड०--अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० अणु० सव्वलो० । तिरिक्खाउ० ओघं । मणुसाउं० तिरि mmmmmmmmmmmm उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पश्चद्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन करना चाहिए । विशेषार्थ-जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं,उनके भी पाच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ व नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि देव करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहा है और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू कहनेका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि देवोंके इससे अधिक स्पर्शन नहीं उपलब्ध होता। स्त्रीवेद आदि कुछ त्रससम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं। इनमें से कुछका सम्यग्दृष्टि देव बन्ध करते हैं, आयुका मारणान्तिक समुद्घातके समय बन्ध नहीं होता और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवालेके आतपका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इन विशेषताओंके साथ सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन ले आना चाहिए। ३५५. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, सात नोकपाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यश्चायुका १. श्रा. प्रतौ छस्संघ० श्रादा० इति पाठः । २. तर० श्रा० प्रत्योः मणुसाणु० ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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