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________________ बंधसणियासपरूवणा अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस४-णिमि० णि०. अणंत०ही० । एत्थ एदाओ तं तु. पदिदाओ अण्णमण्णस्स आभिणिभंगो । १६८. साद० उ० बं० पंचणा-छदंसणा०-अढक०-पंचणोक०-अप्पसत्य०४उप०--पंचंत० णि. अणंतगुणही। देवगदिसत्तावीस-उच्चा० णि । तं तु०। एदाओ सादभंगो। चदुणोक० चदुआयु० ओघं । १६६. तिरिक्वग० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-णीचा०-पंचंत णि० अणंत ही० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं चदुजादिअसंप०-तिरिक्रवाणु०-थावरादि४०। १७०. मणुसग० उ० बं० पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०भय-दु०-उच्चा०-पंचत० णि० अणंतगु०ही० । सादासाद०-चदुणोक० सिया० अणंत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं मणुसगदिपंच० । चदुसंठा०--चदुसंघ०--आदाव० ओघ । उज्जो० पढमपुढविभंगो। अथवा बादर-तेउ०-वाउ० उक्कस्सयं करेदि । सव्वभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, तीन शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। यहाँ ये तं तु पतित जितनी प्रकृतियों हैं, उनका परस्पर आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान भङ्ग है। १६८. सातावेदनीयके उत्कुष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। देवगति आदि सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। यहाँ देवगति आदि प्रकृतियोंका भंग सातावेदनीयके समान है। चार नोकषाय और चार आयुका भंग ओघके समान है। १६६. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। . १७०. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार मनुष्यगति पञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार संस्थान, चार संहनन और आतपका भंग ओघके समान है। उद्योतका भंग पहली पृथिवीके समान है। अथवा बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव उत्कृष्ट करते हैं। १. ता० प्रती आदाधु• ओघं, श्रा० प्रती आदाउजो अोघं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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