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________________ ३३४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवरि उजो० सत्तमभंगो । आहार० सव्वट्ठभंगो । ५७१. कम्मइ० पंचणा०-णवदं०-असादा'.-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक० तिरिक्ख'०-एइंदि०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्य०थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्ढी क० ? यो जहण्णगादो संकिलेसादो उक० संकिलेसं गदो तदो उक० अणुभा० पबंधो तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हा० क० ? यो उक्क० अणुबंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उक्क० हाणी। उक्क० अवट्ठाणं क० ? अण्ण० बादरएइंदियस्स उक्कस्सिया हाणि कादण अवट्ठिदस्स तस्स उ० अवट्ठाणं । सादादीणं पसत्थाणं पगदीणं मणुसगदिपंचग० उक्कस्सवढि-हाणी देवोघं । उक्क० अवट्ठाणं णाणावरणभंगो। देवगदिपंचग० अवट्ठाणं णत्थि । सेसाणं तप्पाऑग्गसंकिलिट्ठाणं तप्पाओग्गविसुद्धाणं च एसेव आलावो कादव्यो। णवरि तप्पाऑग्यसंकिलिट्ठ-तप्पाओग्गविसुद्ध त्ति भाणिदव्वं । एवं अणाहार । ५७२. इत्थिवेदे पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०णिरय-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-अप्पस०४-दोआणु उप०-अप्पसत्थ०-थावर०अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्ढी हाणी अवहाणं ओघं णिरयगदिभंगो। सादा०-जस०-उच्चा० उक्क० वड्ढी क० ? अण्ण० खवग० अणियट्टिबादरसांपराइगस्स काययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग सातवीं पृथिवीके समान है। आहारककाययोगी जीवोंका भंग सर्वार्थसिद्धिके समान है। ५७५. कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट हानि करके अवस्थित है वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके और मनुष्यगतिपञ्चककी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। उत्कृष्ट अवस्थानका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। देवगतिपश्चकका अवस्थानपद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवोंके यही आलाप करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य विशुद्ध ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । ५७२. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग ओघसे नरकगतिके समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक जीव १. ता. प्रतौ णवदंस० सादा० इति पाठः । २. श्रा. प्रतौ सोलसक० तिरिक्ख० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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