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________________ ३४८ महाबंचे अणुभागबंधाहियारे भागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एकद० अवट्ठा० । सादासाद० - दोगदि-पंचजा०छस्संठा० - छस्संघ० - दोआणु ० दोविहा० - तसादिदसयुग ० - दोगो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० परिय० मज्झिम० अनंतभागेण वड्ढिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । इत्थि ०-० - अरदि- सोग० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० सण्णि० सागा० तप्पा० विसु० अभागेण वडिदू वड्ढी हाइदुण हाणी एक० अवद्वाणं । दोआउ० ओघं । ओरा०तेजा ० क ० -[ ओरालि० अंगो० - ] पसत्थ०४- अगु० - णिमि० ज० वड्ढी क० ? अण्ण पंचिं० सण्णि० सागा० णिय० उक्क० संकि० अणंतभागेण वड्ढिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एक्क० अवट्ठा० । पर०-उस्सा० आदाउजो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० सण्णि० सागा० ० संकि० अनंतभागेण तिष्णव । एवं सव्वअपज ० - [ सव्व एइंदि० - ] सव्वविगलिं० - पंचकायाणं च । णवरि एइंदिएसु तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु ० -णीचा० तिरिक्खोघं । तेउ-वाऊणं पि तिरिक्खगदितिगं णाणा० भंगो । तप्पा० । ५९०. मणुस ० ३ खविगाणं ओघं । सेसं पंचिं० तिरि०भंगो । तित्थ० ओघं० । ५९१. देवेसु पढमदंडओ थीणगिद्धिदंडओ साददंडओ इत्थि० णवुंस ० -अरदिसोग० - [ दो ] आउ० णिरयभंगो । दोगदि एइंदि० छस्संठा० छस्संघ ० दोआणु० - दोविहा० अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल और दो गोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धि का, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक स्थानमें जघ य अवस्थानका स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति और शोककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी, साकार - जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्यवृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक अवस्थित स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतरसंज्ञी पचेन्द्रिय, साकार जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक अवस्थित स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। परघात, उच्छ्रास, आतप और उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी, साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट जीव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवस्थितरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में भी तिर्यश्वगतित्रिकका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । ५९०. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष भंग पचेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग ओघके समान है । ५९१. देवोंमें प्रथम दण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक, सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक और दो आयुओंका भंग नारकियोंके समान है । दो गति, एकेन्द्रियजाति, छह For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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