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________________ महाधे अणुभागबंधाहियारे ३५२. पंचि०तिरि० अप० पंचणा०-- णवदंस ० -- असादा० - मिच्छ०- - सोलसक०सत्तणोक० - तिरि० - एइंदि ० - हुंड० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु ० -उप ० - थावरादि० ०४-३ - अथिरादिपंच० णीचा ० - पंचंत० उक्क० अणु० लो० असंखें० सव्वलो० । सादा०-ओरा०तेजा ० क०-पसत्यापसत्थ ०४ - अगु०३ - पज्जत्त - पत्ते ०-थिर - सुभ- णिमि० उ० र्खेत्तं० । अणु० लो० असं० सव्वलो० । उज्जो०- बादर० - जस० उ० खेत्तं ० । अणु० सत्तचों६० । सेसाणं उ० अणु० खेत्तभंगो । एवं सव्वअपज्ज० - सव्वविगलिंदि ० -- बादर पुढ०-आउ०तेज ० ० वाउ ० -- बादरवणप्फदिपत्ते ० ०पज्ज० । णवरि बादरवाज० पज्जत्त० जम्हि लोग० असं० तम्हि लोग० संखे० कादव्वा । णवरि आउ० वट्टमाणखैत्तं ० । । १५८ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध तिर्यख के होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा प्रकृतिबन्धमें इसके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजू कहा है, वह ही यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंके बन जाता है। बादर यशका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयतासंयत के होता है, अतः इन दोनोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है तथा इनके बन्धक जीवोंका स्पर्शन प्रकृतिबन्ध में क्रमशः कुछ कम तेरह राजू व सात राजू कहा है, वह ही यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धक जीवों का स्पर्शन बतलाया है । ३५२. पच ेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि वादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों में जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ लोकका संख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि आयु का स्पर्शन वर्तमान क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुघातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। उद्योत, बादर और यशस्कीर्ति प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका मारणान्तिक समुद्यात के समय उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता । यही कारण है कि इनके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । १. श्रा० प्रतौ तिरिक्खाणु० थावरादि४ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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