________________
३५४
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे छेदो०-परिहार०-संजदासंज० । णवरि किंचि विसेसो णादव्यो ।
६००. असंजदेसु पढमदंडओ मणुसस्स असंजदसम्मादिहिस्स । सेसं मदिभंगो ओपो व । चक्खु. तसपञ्जत्तभंगो । अचक्खु० ओघं । ___६०१. किण्णाए पढमदंडओ णिरयोघं । एवं विदियदंडओ । सादादिदंडओ तिगदिय० । इत्थि०-णवूस० तिगदिय० । अरदि-सोग० णेरइगस्स सम्मादि० । चदु०आउ० ओघं। दोगदि-चदुजा०-दोआणु०-थावरादि०४दंडओ णqसगभंगो । तिरिक्खगदितियं ओघं । मणुसगदिदंडओ तिगदियस्स । पंचिं०दंडओ तिगदियस्स संकिलेसं० । ओरा०-ओरा०अंगो०-उजो० रइ० मिच्छादि० सव्वसंकि० । वेउ.वेउ अंगो० दुगदियस्स मिच्छा० उक्क०संकि० । आदावं दुगदिय० तप्पा०संकि० । तित्थ० ओघं । णील-काऊणं किण्णभंगो। णवरि तिरिक्खगदितिय० एइंदियभंगो। पंचिंदियदंडओ णिरयभंगो। वेउवि०-वेउव्वि०अंगो०-आदाव० ज. दुगदिय० तप्पा०संकि०। दोगदि-चदुजादि-दोआणु०-थावर०४-णqसग-मणुसगदिदंडओ तिगदियस्स कादव्वं ।
६०२. तेउले० पढमदंडओ परिहारभंगो। विदियदंडगादिसंजमाभिमुहाणं है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इनमें जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए।
६००. असंयतोंमें प्रथम दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य है। शेष भङ्ग मत्यज्ञानी जीवों और ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । अचक्षुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
६०१. कृष्ण लेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार दसरे दण्डकका भङ्ग जानना चाहिए। सातावेदनीय आदि दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके तीनों पदोंका स्वामी तीनों गतिका जीव है। अरति और शोकके तीनों पदोंका स्वामी सम्यग्दृष्टि नारकी है । चारों आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी और स्थावर आदि चार दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। तिर्यश्वगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है । पञ्चन्द्रियजातिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी संक्लिष्ट तीनों गतिका जीव है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और उद्योतके तीनों पदोंका स्वामी सर्वसंच्छिष्ट मिथ्यादृष्टि नारकी है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके तीनों पदोंका स्वामी उत्कृष्ट संकेशयुक्त मिथ्यादृष्टि दो गतिका जीव है। आतपके तीनों पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट दो गतिका जीव हैं। तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। नील और कापोत लेश्यामें कृष्णलेश्याके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। पश्चेन्द्रियजातिदण्डकका भंग नारकियोंके समान है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआंगोपांग और आतपके तीनों पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट दो गतिका जीव
। दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, स्थावर चतुष्क, नपुंसकवेददण्डक और मनुष्यगतिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामित्व तीन गतिके जीवोंके कहना चाहिए ।
६०२. पीतलेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान है। द्वितीय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org