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________________ कोसपरूवणा २०६ ४०१. सुक्काए खविगाणं ज० खेत०, अज० छ० | साददंडओ इत्थि० णवुंस०मणुसाउ०- मणुस० पंचिंदियादि याव णीचुच्चा० देवगदि०४ - तित्थ० ज० अज० छच्चों ० । देवाउ० - आहारदुगं खेत्तं ० । ० ४०२. अब्भवसि० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० - पंचिं ०ओरा • अंगो ० - अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० ज० अ - बारह०, अज० सव्वलो ० । अजघन्य या दोनों अनुभागबन्ध सम्भव है, उनके बन्धक जीवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। जिनका जघन्य या अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात के समय नहीं होता और स्वस्थान-विहारादिके समय सम्भव है, उनके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। प्रथम दण्डक की प्रकृतियों, पुरुषवेद, देवायु और आहारकद्विकके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका तथा देवायु और आहारकद्विकके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान कहा है, यह स्पष्ट ही है । देवों में नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर देव करता है । यही स्वामित्व यहाँ पीतलेश्या में भी कहा है, इसलिए यहाँ नपुंसकवेदका भङ्ग सौधर्मकल्प के समान कहा है । तिर्यन और मनुष्य ऊपर डेढ़ राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी देवगतिचतुष्कका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके दोनों प्रकारके अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पद्मलेश्या में देवगतिचतुष्कका यह स्पर्शन कुछ कम पाँच राजू है, क्योंकि पद्मलेश्या के साथ तिर्यञ्च और मनुष्यों का स्पर्शन बारहवें कल्प तक देखा जाता है। शेष सब कथन पीतलेश्या के समान है। मात्र पद्मलेश्या में कुछ कम चौदह राजू नहीं कहने चाहिए, क्योंकि इस लेश्यावाले एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते। ४०१ शुक्ललेश्या में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति व पच ेन्द्रिय जाति से लेकर नीच व उच्चगोत्र तक तथा देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्करके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ - यहाँ क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । तथा यहाँ शुक्ललेश्याका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ पचन्द्रियजाति से नीचगोत्रके मध्यकी प्रकृतियाँ, अर्थात् क्षपकप्रकृतियाँ, आहारकद्विक, देवगतिचतुष्क व तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा नामकर्मकी शुक्ललेश्या में बँधनेवाली सब प्रकृतियाँ ली गई हैं। इनका यथा सम्भव जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध देवों में व देवों और मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घातके समय होता है। अतः इनके जघन्य और अन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा भी स्पर्शन जान लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है । ४०२. अभव्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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