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बंधसण्णियास परूषणा
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११३. भवण०-० -- वाणवेंतर-- जोदिसि० सोधम्मीसाणं सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । तिरिक्खग० ज० बं० दोजादि --छस्संठाण - वस्संघ०--- दोविहा०--तस - थावर--थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि० - तेजा ०० -- क ०-- पसत्थाप सत्थ०४ - बादर -- पज्जतपत्ते ० - णिमि० णि० अनंतगु० । ओरालि० अंगो० --- आदाउज्जो० सिया० अणतगु० । तिरिक्खाणु० णिय० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु० ।
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११४. मणुसग० ज० बं० तिरिक्खगदिभंगो । णवरि पंचि ० - मणुसाणु० -तस० णि० । तं तु० । एवं मणुसाणु० । एइंदि० - थावर० देवोघं ।
०--पसत्था
११५. पंचिदि० ज० बं० दोगदि - इस्संठा ० - इस्संघ० -- दोआणु० - दोविहा०थिरादियुग० सिया० । तं तु० । ओरालि ० – तेजा०-- क० - - ओरालि० अंगो०पसत्थ०४- अगु०४ - बादर - पज्जत - पत्ते ० - णिमि० णि० अनंतगुणग्भ० । उज्जो० सिया० प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान 1
११३. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशान कल्पके देवों में सात कर्मों का भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
दारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
११४. मनुष्यगति के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । इतनी विशेषता है कि पचन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और त्रसका नियमसे बन्ध होता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता सन्निकर्ष जानना चाहिए । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवों के समान है ।
११५. पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक
१. ता० प्रा० प्रस्योः थावरादि इति पाठः ।
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