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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणंतगुणब्भ० । तस० णि । तं तु.। एवं पंचिंदियभंगो चदुसंठा०--चदुसंघ०दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आदें । ११६. हुंड० ज० बं० दोगदि-दोजादि-छस्संघ०-दोआणु०दोविहा०-तस-थावरथिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सेसं तिरिक्खगदिभंगो । एवं हुंड भंगो भगअणादें । एवं चेव थिराथिर--सुभासुभ--जस०-अजस० । णवरि तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । ११७. ओरालि० ज० बं० तिरिक्व०-एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०-थावर--अथिरादिपंच० णि० अणंतगुणब्भ० । तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु०। आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । ११८, ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०हुंडसंठा०--असंप०--पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०--अगु०४-अप्पसत्य०---तस०४होता है । त्रसका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान चार संस्थान, चार संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ११६. हुण्ड संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। इस प्रकार हुण्ड संस्थानके समान दुर्भग और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। ११७. औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभाग का बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियों का परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए,किन्तु वह उसी प्रकारका होता है। ११८. औदारिक प्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्च. न्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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