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________________ फोसणपरूवणा १६५ ३५६. पुढ०-आउ० पंचणा०-णवदंस-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरि०-एइंदि०-हुंडसंठा०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० लो० असं० सव्वलो०, अणु० सव्वलो० । सेसाणं उ० लो. असं०, अणु० सव्वलो० । णवरि मणुसाउ० तिरिक्खोघं ।। ३६०. बादरपुढ०--आउ० पंचणाणावरणादीणं थावरपगदीणं पुढविभंगों'। सादा०-ओरा०--तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-पज्जत्त-पत्ते०-थिर- सुभ-णिमि० उ० खेत्त०, अणु० सव्वलो० । उज्जो०-बादर०-जस० उ० खेत०, अणु० सत्त चौद्द० । सेसाणं उ० अणु० खेत्तभंगो । आगे त्रस आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उनमें पश्चन्द्रियोंकी ही प्रधानता है, अतएव उनकी प्ररूपणा पश्चन्द्रियद्विकके समान जाननेकी सूचना की है। ३६. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्वोंके समान है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध बादर पर्याप्त जीव करते हैं, किन्तु इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक है । इन दोनों अवस्थाओंमें पाँच ज्ञानावरणादि का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वत्र सम्भव है, क्योंकि पृथिवीकायिक और जलकायिक जीव सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एक तो मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता, जिनका होता भी है वे द्वीन्द्रियादि तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ मनुष्यायु का भङ्ग सामान्य तियश्चोंके समान कहनेका कारण यह है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता । सामान्य तिर्यञ्चोंके यह इतना ही बतलाया है। ३६०. बादर पृथिवीकायिक और बादर जल कायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि और स्थावर प्रकृतियों का भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सर्वलोकका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश-कीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीबोंका १. ता० प्रतौ णाणावरणादोणं पुढविभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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