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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अचक्खु०-ओधिदं०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मा०-खइग०-उवसम०-सण्णि-आहारए ति । ६१२. णिरएसु धुविगाणं अत्थि छवडि० छहाणि अवहि० । सेसं ओघमंगो। णवरि पढमाए तित्थ० अवत्त० णस्थि । एवं सव्वणेरइय-पंचिं०तिरि०अपज०-देवा०, तित्थ० धुवभंगो, सव्वएइंदि०-विगलिं०-पंचका०-ओरा०मि०-वेउ०-वेउ०मि० आहार'-आहारमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-विभंग-परिहा.-संजदासंज०-असंज०. पंचले -अब्भव०-सासण-सम्मामि०-असण्णि-अणाहारि त्ति । ओरालि मि०-कम्मई'.अणाहार० देवगदिपंचग० अवत्त० णत्थि १३ । वेउव्वियमि०-किण्ण. -णील. तित्थय० १३ अवत्त० णत्थि । ६१३. इत्थि०-पुरिस०-णस०-कोघे पंचणा०-चदुदं०-चदुसंज०-पंचंत० अत्थि० छवड्डि. छहाणि० अवहि० । सेसाणं ओघं । माणे तिण्णिसंज० मायाए दोसंज० लोमे पंचणा०- चदुदंस०-पंचंत० अत्थि छवड्डि• छहाणि० अवढि० । सेसं ओषं । अवगदवेदे सव्वाणं अत्थि अणंतगुणवड्ढि० हाणि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं सुहुमसंप० । णवरि दर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेइयावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । ६१२. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें तीर्थक्कर प्रकृतिका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और देवोंमें जानना चाहिये ।, मात्र देवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। तथा इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, पाँच लेश्यावाले, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका अवक्तव्यपद नहीं है, तेरह पद हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कृष्णलेश्या और नीललेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके तेरह पद हैं, अवक्तव्यपद नहीं है। ६१३. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और क्रोध कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है । मानकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायकी, माया कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तथा लोभकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि. अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता १. ता. प्रतौ ओरा० वेउब्वियका. वेउव्विय. आहार० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ ओरालि. कम्मइ० इति पाठः। ३. आ० प्रतौ वेउब्विय० किण्ण० इति पाठः। ४. ता. प्रतौ अवगदवेदेवेद (१) सव्वाणं इति पाठः। Jain Education International : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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