________________
२४४
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिगिणपदा अण्णदर० । अवत्त० कस्स० १ अएण. पढमस० देवस्स । एवं पम्माए वि । सुक्कलेस्साए तिएिणवेदाणं अवत्त० कस्स० ? अण्ण० देवस्स ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
कालाणुगमो ४५७. कालाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं भुज०-अप्प०वंधगा केवचिरं कालादो होदि ? जह एगसम०, उ. अंतो० । अवहि. केव० १ ज. ए०, उ० सतह सम० । णवरि चदुआउ० अवहि० ज० ए०, उ० सत्त सम० । अवत्त० सव्वपगदीणं एग०, एवं अणाहारए ति णेदव्वं । एवं णिरयादिसु अवहिदकालो अहसमया भवंति । कम्मइ०-अणाहारएस तिएिण समया भवंति ।
एवं कालं समत्तं'।
अन्यतर देव अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। औदारिकशरीरके तीन पदोंका अन्यतर देव स्वामी है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती देव स्वामी है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । शुक्ललेश्यामें तीन वेदोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव स्वामी है।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
कालानुगम ४५७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अवस्थित पदके बन्धक जीवको कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात व आठ समय है। इतनी विशेषता है कि चार आयुके अवस्थित पदके बन्धक जीवका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है। सब प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार नरकादिमें अवस्थितबन्धका काल आठ समय होता है। मात्र कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें तीन समय होता है ।
विशेषार्थ-अनुभागबन्धमें वृद्धि और हानिके छह-छह स्थान हैं। उनमेंसे यद्यपि पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पर अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसीसे यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। अवस्थित अनुभागबन्धके कारणभूत परिणाम कम से कम एक समय तक और अधिकसे अधिक सात-आठ समय तक होते है, इसलिए अवस्थित अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय कहा है। पर आयु कमेके अवस्थित अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सात समय ही है, क्योकि आयुकर्मके अवस्थित अनुभागबन्धके योग्य परिणाम इतने कालसे अधिक समय तक नहीं होते । सब
१. ता. प्रती एवं कालं समत्तं इति पाठो नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org