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________________ २८८ महाबंधे अणुभागवाहिवारे वेद-तिरिक्व०-छस्संठा०-छस्संघ०-तिरिक्खाणु०-दोविहा०-तिषिणमझिल्लयुग०-णीचा. तिषिणप० छच्चों। अवत्त० खेत। सादासाद०-चदुणोक०-उज्जो०-थिरादितिएणयु. सव्वप० छच्चों । दोआउ०-मणुसगदितिय-तित्थ. सव्वपदा खेतं । मिच्छ० तिण्णिपदा छच्चों । अक्त्त० पंचचों । एवं सव्वणेरडगाणं अप्पप्पणो फोसणो णेदव्यो। ५१५. तिरिक्खेसु पंचणाo--छदस०-अहक०--भय-दु०-तेजा.-क०-वएण०४-- अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. तिण्णिप० सव्वलो० । थीणगिदि०३--अहक०-ओरा० तिण्णिप० सव्वलो० । अवच. खेत्त० । साददंडओ ओघो। दोआउ०-वेउब्धियछ. चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तीन वेद, तिर्यश्चगति, छह संस्थान, छह संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, मध्यके तीन युगल और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदेनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, उद्योत, और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतित्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अवक्तव्यपदके वन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकियों में अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकियोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पद ही होते हैं। अन्यत्र भी जहाँ जो ध्रुव प्रकृतियाँ हैं, उनके यथासम्भव तीन पद ही होते हैं। और नारकियोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है, इसलिए ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा यह उक्तप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा और सातावेदनीय आदिक तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा भी यही स्पर्शन प्राप्त होता है, क्योंकि इन प्रकृतियों के यथायोग्य पद नारकियोंके मारणान्तिक समुद्घातके समय और उपपाद पदके समय भी सम्भव हैं । मात्र दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातके समय या उपपादपदके समय इनमें से जो जहाँ बंधती हैं, उनका वहाँ अवक्तव्यबन्ध नहीं होता। मनुष्यगतित्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका मारणान्तिक समुद्घातके समय भी बन्ध होकर मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय ही होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है। मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद छठे नरक तकके नारकियों के मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, अतः इस अपेक्षासे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । सब नारकियोंमें अपने-अपने स्पर्शनका विचारकर इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। ५१५. तिर्यश्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदों के बन्धक जीवो ने सब लोकका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, आठ कषाय, और औदारिकशरीरके तीन पदो के बन्धक जीवों ने सब लोकका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीय दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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