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________________ १७६ महाबंधे अणुभागवधाहियारे ३७०. किणे०-णील०--काउ० पंचणा० --णवदंस०--असादा०-मिच्छ०-सोलसक०--सत्तणोक०-तिरिक्ख०--पंचसंठा०--पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०अप्पसत्य-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उ० छच्चों चत्तारि-बेचोद०, अणु० सव्वलो। सादा०-तिरिक्वाउ०-मणुसग०--चदुजा०-ओरा०-तेजा.-क०-समचदु०-ओरा०अंगो०वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-आदाउ०--पसत्य०--तस०४-थिरादिछ०-- णिमि०-उच्चा० उ० खेतभंगो। अणु० सव्वलो० । हस्स-रदि-एइंदि०-थावरादि०४ उ० लो० असंखे० सव्वलो०, अणु० सव्वलो। णवरि-णील-काऊणं हस्स-रदि. असादभंगो। [णिरयाउ-] देवाउ०-देवगदि० [२-] तित्थ० खेतभंगो । मणुसाउ० गईंसगभंगों। णिरय-णिरयाणु० उ० अणु० छ-चत्तारि-बेचोद० । वेउव्वि०-वेउव्वि०. अंगो० उ० खेतभंगो । अणु० छ-चत्तारि-बेचौं । विशेषार्थ-संयतासंयत जीवोंका मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन होता है। हास्यद्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तथा देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष प्रकृत्तियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध ऐसी अवस्थामें सम्भव है, अतः हास्यद्विकके दोनों प्रकारके अनुभागके और शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है।। ३७०. कृष्ण, नील और कापोतलेश्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राज, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, तिर्यञ्चायु,मनुष्यगति,चार जाति,औदारिकशरीर, तैजसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। हास्य, रति, एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि नील और कापोत लेश्यामें हास्य और रतिका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। नरकायु, देवायु, देवगतिद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ठ अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो वटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १. ता. प्रा. प्रत्योः असंजद० ओघं । चक्खु० तसभंगो । किण्ण• इति पाठः । २. ता. प्रतौ हस्सरदि ४ श्रसादभंगो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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