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________________ २१६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे विसेसो साधेदव्वं । बादरअपज्जत्तएमु ज० अज० सव्वदा। एवं कालो समत्तो। २२ अंतरपरूवणा ४१०. अंतरं दुविधं-जह० उक्क । उक्क० पगदं। दुवि०--ओघे० आदे। ओघे० सादा०-जस०-उच्चा० उ० अणुभागबंधंतरं जे० ए०, उ० छम्मासं० । अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं सव्वेसिं उ० ज० ए०, उ. असंखेंजा लोगा । अणुक्क० पत्थि अंतरं । णवरि तिण्णं आउगाणं अणुक्क० ज० ए०, उ० चदुवीसं मुहुत्तं ।। ४११. एइंदिएमु सव्वपगदीणं उ० अणु० जत्यि अंतरं। दोआउ०-उज्जो. ओघं । एवं बादरपज्जत्तापजत्त० । सव्वमुहुम--सव्ववणप्फदि-णियोद०-बादरपुढ०कुछ विशेष साध लेना चाहिए । बादर अपर्याप्तकों में जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का काल सर्वदा है। इस प्रकार काल समाप्त हुआ। २२ अंतरप्ररूपणा ४१०. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सातावेदनीय, यशाकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि तीन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। विशेषार्थ-सातावेदनीय श्रादिका उत्कृष्ट अनभागबन्ध क्षपकौणिमें होता है। अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। यद्यपि देवगति आदि अन्य प्रकृतियोंका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है,पर सातावेदनीय आदिके समान सब जीवोंके उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। इसलिए उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर परिणामोंके अनुसार कहा है। अनुभागबन्धके योग्य कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। जिनमेंसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य परिणाम एक समय के अन्तरसे भी हो सकते हैं और क्रमसे सब परिणामोंका अन्तर देकर भी हो सकते हैं। इसलिए यहाँ शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इन तीन आयुओंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध अन्य प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके समान निरन्तर नहीं होता। उस-उस गतिमें उत्पन्न होनेका जो अन्तर है, वही यहाँ इन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर है। यही देखकर यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त कहा है। ४११. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। दो आयु और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार बादर, पादर पर्याप्त और बादर अप. १. ता. प्रतौ अणुभागं तं ज० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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