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________________ भुजगारबंधे फोसणं ३०७ तिष्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत्तभंगो। देवाउ०-आहार०२ सव्वपदा ओघं । सेसाणं सव्वपदा छच्चों । ५३३. अब्भवसि० मदि॰भंगो । णवरि मिच्छत्तं अवत्तव्वं गत्थि ।। ५३४. खइग०-उवसम० ओधि भंगो । णवरि अपञ्चक्खाण०४ अवत्त० खेत्तभंगो' । देवगदि०४-आहार०२ सव्वप० खेत । मणुसगदिपंचगस्स य अवत्त० खेतभंगो । उवसमे तित्थकरं सव्वपदा खेत्तं ।। कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमें से चार प्रत्याख्यानावरणको व देवगतिचतुष्कको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें प्राप्त होता है, प्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यपद संयत मनुष्यके संयतासंयत होने पर प्राप्त होता है और देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यपद संज्ञी तिर्यश्च और मनुष्य जीवोंके प्राप्त होता है, अतः इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। यद्यपि संज्ञी जीवोंका स्पर्शन अधिक है, परन्तु इनके देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यपद स्वस्थानमें ही बनता है और इस अपेक्षासे इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। अतः यह भी क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ५३३. अभव्योंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद उन जीवोंके होता है जो ऊपरके गुणस्थानोंसे उतरकर मिथ्यात्वमें आते हैं । किन्तु अभव्य सदा मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अतः इनके मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका निषेध किया है। ५३४. क्षायिकसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्र समान है । तथा उपशमसम्यक्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-उक्त दोनों सम्यक्त्वोंमें अप्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यपद उन्हीं जीवों के होता है जो ऊपरके गुणस्थानवाले मनुष्य अविरतसम्यग्दृष्टि होते हैं। अतः इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यों या तिर्यञ्चोंके देव होने पर प्रथम समयमें मनुष्यगति पञ्चकका अवक्तव्यपद होता है और उपशमश्रेणिसे मरकर देव होने पर उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके प्रथम समयमें मनुष्यगतिपञ्चकका अवक्तव्यपद होता है। यतः इन जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः इन दोनों सम्यक्त्वोंमें मनुष्यगति पञ्चकके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातसे अधिक नहीं होते। अतः इसके सब पदोंका भङ्ग भी क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन सुगम है। १. आ० प्रतौ अपञ्चकवाण०४ खेत्तभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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