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________________ १५० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० लो० असं०, अज० सव्वलो० । सादासाद-तिरि०-एइंदि०-ओरा०-तेजा०-क०-हुंड-पसत्थ०४[तिरिक्वाणु०-] अगुं०३-थावर-सुहुम-पज्ज०-अपज्ज०-पत्ते०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-अजस-णिमि०-णीचा० ज० अज० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०दोआउ०--मणुस०--चदुजा०-पंचसंठा०--ओरालि०अंगों०-छस्संघ०--मणुसाणु०--आदाउज्जो०-दोविहा०--तस-बादर-सुभग-दोसर-आर्दे०-जस०-उच्चा० ज० अज० लो० असंखे० । एवं बादरवणप्फदिका०-वादरणियोद-पज्जत्तापज्जत्त-बादरपत्तेयअपज्जत्ताणंच । तेउ० पुढविभंगो। णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० आभिणिभंगो । एवं चेव वाउका० । गवरि यम्हि लोग० असंखें० तम्हि० लोग० संखेंजो कादव्यो । ३४७. वणप्फदि-णियोदेसु पंचणा०--णवदसणा०--मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-ओरालि०अंगो०-अप्पसत्थ०४-उप०-आदाउज्जो०-पंचंत. ज. लो० असंखे, अज० सव्वलो० । सादासाद०-तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-तेजा०-क०छस्संठा०-छस्संघ०-पसत्थव०४-दोआणु०-अगु०३-दोविहा०-तस०-थावरादिदसयुग०अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त और बादर जलकायिक अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सन लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह सहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक जीवों में पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों के समान है। इसी प्रकार वायुकायिक जीवा में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकके असंख्यातवें भागामाण क्षेत्र कहा है वहाँ पर लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहना चाहिए। ३४७. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, आतप, उद्योत और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, छह १. ता० श्रा० प्रत्योः अप्पसत्थ४ अगु३ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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