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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे किंचि० विसेसो जाणिदव्यो। एवं वेउव्वि०अंगो० । [सम्मामि० वेदगभंगो । विसेसो जाणिदव्यो । ] मिच्छादिडी० मदि०भंगो। अणाहार० कम्मइगभंगो। एवं जहण्णसण्णियासो समत्तो। एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो । १४६. परत्थाणसण्णियासे दुवि०-जह० उक्क । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० आभि. उक० अणुभार्ग' बंधतो चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०मिच्छ०-सोलसक-पंचणोक-हंड०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंतक णिय० बंध० । तं तु० छहाणपदिदं बंधदि । अणंतभागहीणं वा०५। णिरय०तिरिक्ख०-एइंदि०-असंप०-दोआणु०-अप्पसत्थ०-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० अणंतगुणहीणं० । तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०-पर०-उस्सा०--बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णि. अणंतगुणहीणं० । एवं आभिणिभंगो चदुणा०-णवदसणा-असादा० - मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंतरा।। जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए। इसी प्रकार वैक्रियिक प्रांगोपांग की मुख्यतासे सन्निकर्ष है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । किन्तु कुछ विशेषता जाननी चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीवोंका भंग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। अनाहारक जीवोंका भंग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ। इस प्रकार स्वस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ। १४६. परस्थान सन्निकर्षकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानि रूप बाँधता है । अर्थात् या अनन्तभागहीन बाँधता है, या असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन बाँधता है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो अानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तप, उद्योत और वसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड १. ता. प्रतौ अणंतभागं इति पाठः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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