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________________ २९४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदा०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसर०-आदें -उच्चा० सव्वप० अट्ठचौ । तित्थय. तिण्णिप० अट्टचों । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं । ५२०. एइंदि०-पुढ०-आउ०'-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव बादर-बादरपत्ते० तेसिं चेव अपज. सव्ववणप्फदि-णियोद० सबसुहुमाणं च खेत्तभंगो । णवरि मणसाउ० सव्वाणं तिरिक्खोघं । उजो०-जस० सव्वप० सत्तचों । एवं बादर० । णवरि अवत्त० खेतः । अजस० तिण्णिपदा सव्वलो० । अवत्त० सत्तचो। वेदनीय, मिथ्यात्व, चार नोकषाय, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कस आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब देवोंके अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिये। विशेषार्थ-देवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू व कुछ कस नौ बटे चौदह राजूप्रमाण है । ध्रुवबन्धवाली और स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा तथा सातावेदनीय आदि के चार पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। मान स्त्यानगृद्धि आदिका अवक्तव्य पद एकेद्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव न होनेसे इसकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। यहाँ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय। स्त्रीवेद आदि के चारों पदोंकी अपेक्षा और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । यहाँ जो अन्य शेषता है,वह अलगसे जान लेनी चाहिए । सब देवोंका जो अलग-अलग स्पशेन है.उसे समझ कर तदनुसार उनमें भी यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । ५२०. एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इनके बादर, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक और इन सबके अपर्याप्त, सव वनस्पतिकायिक, निगोद और सब सूक्ष्म जीवोंमें क्षेत्र के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इन सबमें मनुष्यायुका भङ्ग समान्य तिर्यञ्चोंके समान है। उद्योत और यश-कीर्ति के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर प्रकृतिका जानना । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पशेन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—यहाँ एकेन्द्रिय और पृथिवीकाय आदिके जितने प्रकार बतलाये हैं,उनमें सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन और क्षेत्र में अन्तर नहीं होनेसे वह क्षेत्रकेसमान कहा है । मात्र मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीव थोड़े होते हैं। इसलिए यहाँ इसके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है । उद्योत और यशःकीर्तिके सब पद तथा बादर १. ता० आ प्रत्योः एइंदि० हुंड० आउ० इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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