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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हुंड०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०अथिरादिपंच० । मणुसगदिसंजुत्ताओ पसत्याओ णिरयभंगो । एइंदि०-आदाव-थावरं ओघं । चदुसंठा०-चदुसंघ० ओघं । २६. असंप उ. बं० तिरिक्ख०-हुंडस०-अप्पस०४-तिरिक्खाणु०--उप०अप्पस०-अथिरादिछ० णि । तं तु०। पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०-ओरालिअंगो०-पसत्य०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि० अणंतगुणहीण। उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं अप्पसत्यविहायगदी। दुस्सर०-उज्जोव० पढमपुढविभंगो । ३०. भवणवासिय-वाण-०-जोदिसि०-सोधम्मीसाणं सत्तं ओघं । तिरिक्ख गदि० उ० बं० एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-थावर०-अथिरादिपंच णियमा । तं तु० । ओरालि०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्तपत्तेग०णिमि० णि. अणंतगु० । आदाउ० सिया० अणंतगुणहीणं० ।। ३१. असंप० उ० ब० तिरिक्व०-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०-ओरालि०शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है या अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। मनुष्यगति संयुक्त प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग जिस प्रकार नरकगतिमें कह पाये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। २६. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुंडसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुकृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त विहायोगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । दुःस्वर और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष प्रथम पृथिवीके समान जानना चाहिए। ३०. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान तकके देवोंमें सात कर्मोंका भंग ओघके समान है । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनभागको लिये हुए होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणहीन अनभागको लिये हुए होता है। ३१. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक १. ता० प्रती सोधम्मी० तस्स श्रोध, श्रा० प्रतौ सोधम्मीसाणंतस्स श्रोघं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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