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________________ बंधसण्णियासपरूवणा अंगो०-पसत्थापसत्थवण्ण०४-[ तिरिक्खाणु०- ] अगु०४-तस०४-अथिरादिपच०णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं। उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं । अप्पसत्थ०दुस्सर० णिय० । तं तु० । एवं अप्पसत्थवि०-दुस्सर० । सेसं देवोघं । ३२. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । आणद याव णवगेवज्जा त्ति सो चेव भंगो। वरि तिरिक्खगदिदुगं उज्जोवं वज्ज । अणुदिस याव सबह त्ति छएणं कम्माणं ओघं। अप्पचक्खाणकोप. उ. बं० ऍकारसकसाय-पुरिस०अरदि-सोग -भय-दु० णिय० । तं तु छटाणपदिदं० । एवमएणमण्णाणं । तं तु० । ___३३. हस्स० उ० बं० बारसक-पुरिसवे०-भय-दु० णिय० अणंतगुणहीणं० । रदि० णि । तं तु०। एवं रदीए । मणुसगदि. देवोघं । एवं पसत्याओ सव्वाओ। maana आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके समान अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। ३२. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें वही भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतिद्विक और उद्योतको छोड़कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छह कर्मोंका भंग अोधके समान है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनत्कृष्ट अनभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है जो उत्कृष्ट अनुभाग बन्धरूप भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धरूप भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धरूप होता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। ३३. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् हास्यके समान रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंमें जिस प्रकार कह आये हैं,उस प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिके समान सब प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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