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________________ भुजगारबंधे फोसणं २९१ ५१७. पंचिं०तिरिक्ख०अपज० पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०ओरा०-तेजा०-०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि-पंचंत० तिण्णिप०लो०असं० सव्वलो। सादासाद०-चदुणोक०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० लो० असंखें सव्वलो० । इथि०पुरिस०-दोआउ०-मणुस०-चदुजा०-पंचसंठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०आदाव०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आर्दै०-उच्चा० सव्वप० लो० असं० । णस०तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-पर०-उस्सा०-थावर०-सुहुम०-पजत्तापज्ज०-पत्ते०साधा०-दूभ०-अणा०-णीचा० तिण्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० खेत्तः । उज्जो०-जस० चत्तारिप० सत्तचों । पादर० तिण्णिप० सत्तचों । अवत्त० खेत्त० । अज० तिण्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० सत्तचों । एवं' सव्वअपज०-सव्वतवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। देवोंमें और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी पञ्चेन्द्रियजाति आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इन पदोंकी अपेक्षा इनका स्पर्शन कुछ कम वारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पर ऐसे समयमें इनका अवक्तव्य पद नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुदातके समय भी उद्योत और यश-कीर्तिके सब पद सम्भव हैं, इसलिए इनके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। ऊपर सात और नीचे छह इस प्रकार कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूका स्पर्शन करते समय बादर प्रकृतिके तीन पद सम्भव होनेसे इसका तीन पदाको अपेक्षा स्पशन उक्तप्रमाण कहा है। पर ऐसी अवस्थामें इसका अवक्तव्य पद सम्भव नहीं है, इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ५१७. पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति , चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत आर यश-कीतिके चार पदाके बन्धक जीवान कुछ कम सात बट चादह राजूप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयश कीर्ति के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक १. ता० प्रतौ सव्वलो० । एवं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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