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________________ २९० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे चदु०-दोआणु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आदे०-उच्चा०तिण्णिप० छच्चों। अवत्त० खेत्तः । चत्तारिआउ०-मणुसगदि-तिण्णिजा०-चदुसंठा-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०आदाव० चत्तारिप० खेत्त० । पंचिं०-वेउ०-वेउ०अंगो-तस० तिण्णिप०' बारहों । अवत्त० खेत० । उजो०-जस० सव्वप० सत्तचों । बादर० तिण्णिप० तेरह० । अवत्त० खेत्तः। है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। पुरुषवेद, दो गति, समचतुरस्रसंस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। चार आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतपके चार पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे.चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत और यश कीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होनेसे इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण अन्तकी आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रकारसे ही घटित कर लेना चाहिए। तथा यहाँ स्त्यानगृद्धि आदि प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्धातके समय और उपपाद पदके समय सम्भव न होनेसे इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सातावेदनीय आदिके चारों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार मिथ्यात्व आदि दो प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। तथा इन दो प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद जिस प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंके मिथ्यात्व पदकी अपेक्षा बतला आये हैं, उस अवस्थामें ही सम्भव है। इसलिए इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी स्त्रीवेदका बन्ध होता है, इसलिए इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है, पर ऐसी अवस्थामें इसका अवक्तव्यपद नहीं होता; इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी पुरुषवेद आदिका यथायोग्य बन्ध होता है, अतः इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है, पर ऐसी अवस्थामें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता। इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। चार आयु आदिके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एक तो चार आयओंके सब पद और शेष प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समद्धातके समय नहीं होते। और शेष प्रकृतियोंके तीन पद मारणान्तिक समुद्घातके समय होकर भी स्पर्शन लोकके असंख्या १. ता० आ० प्रत्योः तस०४ तिण्णिप० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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