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महाबंधे अणुभागवंधाहियारे अणंतभागेण तिण्णि वि० । छस्संठा-छस्संघ०-दोविहा० मज्झिमाणि तिष्णियुगलाणि दोगोदस्स च ज० वड्ढी कस्स ? अण्ण० मिच्छा० परिय०मज्झिम० अणंतभागेण तिण्णि वि० [तित्थ० देवोघं ।]
५९३. अणुदिस याव सव्वढ० त्ति पढमदंडओ साददंडओ अरदि-सोगमणुसाउ० देवोघं । मणुस-पंचिं०-ओरा०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरा०अंगो०वजरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमितित्थ०-उच्चा० ज० वड्डी क० ? अण्ण० सागा० सव्वसंकि० अणंतभागेण तिण्णि वि० ।
५९४. पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० ओघं । ओरालि० ओघं । णवरि तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं । ओरालि०मि० पढमदंडओ सम्मादिहिस्स । थीणगिद्धिदंडओ पंचिं० सण्णि० सव्वविसु० । तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं । एवं सेसा०
ओघभंगो। णवरि से काले सरीरपज्जत्ति' जाहिदि ति भाणिदव्वं । वेउव्वि० देवोघं । णवरि तिरिक्खगदितिगं ओघं । वेउब्वियमि० पढमदंडओ सम्मादिहिस्स। थीणगिद्धिदंडओ मिच्छादि० सागा० सव्वविसु० से काले सरीरपजत्तिं जाहिदि त्ति अणतस्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि, साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर देव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, मध्यके तीन युगल और दो गोत्रकी जघन्य दृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला देव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है। तीर्थङ्करप्रकृतिका भंग सामान्य देवोंके समान है।
५९३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवा में प्रथम दण्डक, सातावेदनीय दण्डक, अरति, शोक और मनुष्यायुका भंग सामान्य देवोंके समान है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरार, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकआंगोपांग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त देव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है।
५९४. पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंमें ओघके समान भंग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें औषके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डकका स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका स्वामी पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और सर्वविशुद्ध जीव है। तिर्यश्चगतित्रिकका भंग तिर्यश्चोंके समान है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भंग भोघके समान है। इतनी विशेषता है कि जो अनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा वह स्वामी है ऐसा कहना चाहिए । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डकका स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव है। जो मिथ्यादृष्टि, साकार-जागृत और सर्वविशुद्धि जीव अनन्तर
१. ता• प्रतौ सेसा० । अोधि० श्रोघं णवरि सेस (से ) काल (ले) सरीरपजत्ति, आ० प्रतौ सेसा. श्रोधिभंगो । णवरि से काले सरीरपजत्तिं इति पाठः ।
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