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________________ ५६ __ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे आणदभंगो। णवरि अप्पसत्य०४-उप०--अथिर०--असुभ०--अजस० णिय० अणंतगुणब्भ० । समचदु०-वज्जरि० -पसत्थवि० - सुभग - सुस्सर० - आदें णि । तं तु० । तित्थ० सिया। तं तु० । एवं तं तु० पदिदाओ ऍक्कमेक्तस्स । तं तु० । अप्पसत्थ०४उप० देवोघं। १२२. थिर० ज० बं० सुभासुभ-जस०-अजस० सिया०। तं तु० । तित्थय० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं तिण्णियुग० । १२३. पंचिंदि०--तस०२-पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियका०कोधादि०४-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छादि०-मदि०-सुद०-विभंग०-असंजद०. सण्णि-असण्णि-आहारग ति ओघभंगो । णवरि किंचि विसेसो णादव्यो । ओरालियका० मणुसोघं । णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० तिरिक्खोघं। कोधे कोधसंज० ज० बं० तिण्णं संज० णि० जहण्णा । माणे माणसंज० ज० बं० दोसंज० णि० जहण्णा। और नीचगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाले देवका भङ्ग आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वुद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार 'तं तुः पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका यथासम्भव बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघात प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जैसा इनकी मुख्यतासे सामान्य देवोंके कह आये हैं,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए। १२२. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश:कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन युगलोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १२३. पञ्चन्दियद्विक. त्रसद्रिक. पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, मत्यज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, संज्ञी, असंज्ञी और आहारक जीवोंके ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि कुछ विशेषता जाननी चाहिए। औदारिककाययोगी जीवों में सामान्य मनुष्यों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँ तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। क्रोधकषायमें क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलनोंका - १, ता. प्रतौ तिरिक्ख.तिरिक्खोघं इति पाठः। २. ता. प्रतौ माणसंज. बं० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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