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________________ अंतरपरूवणा २१९ सुद०-ओधि०-मणपज्ज०-संजद--सामाइ०-छेदोव०-चक्खु०-ओधिदं०-सुकले०-सम्मादि०खइय०-उवसम०-सण्णीसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पुरिसे०-पंचंत० ज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं पगदीणं उक्कस्सभंगो । अवगद.. सुहुमसं० पंचणा०--चदुदंस०--चदुसंज०-पुरिसवेद-पंचते. ज. अज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । [णवरि सुहुमसं० चदुसंज०-पुरिसवे. वज्ज० । ] सादा०-जस०उच्चा० ज० ज० ए०, उ० वासपुध० । अज० ज० ए०, उ० छम्मासं०। ४१४. एइंदिएसु मणुसाउ०-तिरिक्ख०३ ओघं । सेसाणं ज. अज. पत्थि अंतरं । बादरएइंदिय-पज्जतापज्जत्त-सव्वसुहमाणं मणुसाउ० ओघं । सेसाणं ज० अज० णत्यि अंतरं । एवं पंचण्णं कायाणं अप्पज्जतगाणं वणप्फदि-णियोदाणं च । अवसेसाणं णिरय-तिरिक्खादीणं जासिं दोण्हं पदा सव्वद्धा तासिं णत्थि अंतरं । एसिं ण सव्वदा तेसिं उक्कस्सभंगो। एदेण बीजेण णेदव्वं याव अणाहारए ति । गवरि ओधिणाइत्थि०-णवूस०-ओधिदं०-उवसम० वासपुधत्तं । एवं अंतरं समत्तं । पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें चार संज्वलन और पुरुषवेदको छोड़कर कहना चाहिए। सातावेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। ४१४. एकेन्द्रियोंमें मनुष्यायु और तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त और सब सूक्ष्म जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार पाँच स्थावरकाय, उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अवशेष नरक और तिर्यश्चगति आदिमें जिनके दोनों पदोंका काल सर्वदा है,उनका अन्तर काल नहीं है और जिनका सर्वदा काल नहीं है,उनका उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, अवधिदर्शनी १. श्रा० प्रती चदुदंस० पुरिस• इति पाठः। २. ता. प्रतौ चदुदंस० पुरितवेद० चदुसवेद० [१] चदुसंज. पंचंत०, श्रा० प्रती चदुदंस० पुरिसवेद चदुसवेद० चदुसंज. पंचंत० इति पाठः । १. ता. प्रतो एवं अंतरं समत्त इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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