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बंधसण्णियासपरूवणा ४. तिरिक्खगदि० उ० बं० एइंदि०-अप्पसत्थवि'०-थावर-दुस्सर सिया तं तु० छहाणपदिदं बं० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त-आदाउजो०-तस० सिया अणंतगुणहीणं बं० । ओरालिय०-तेजा०-क-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच णिय० तं तु० छहाणपदिदं० । एवं तिरिक्रवाणु० ।
५. मणुसग० उ० बं० पंचिंदि-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थवण्ण ४अगु०४-पसत्थ०-तम०-४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । ओरालि०ओरालि०अंगो-बज्जरिस०-मणुसाणु० णिय० ब० तं तु० छहाणपदिदं० । तित्थ सिया० अणंतगुण० बं०। एवं ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।।
६. देवगदि० उ० बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क०-समचदु०-बेउब्विय
४. तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह उनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग,असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन,तप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह इनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वणचतुष्क, अगुरुलघु तीन, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो उनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुकृष्ट अनुभागका बन्ध करता है । हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तियञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका सन्ध करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिए हुए बन्ध करता है। इसी प्रकार तियश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए बन्ध करता है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्द करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है । तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचिन् नहीं करता। यदि वन्ध करता है तो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका वध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर,
१. ता० श्रा० प्रत्यो० एइंदि० अप्पसत्थ. अप्पसत्थवि० इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ पदिदं । श्राहारदुगं तित्थ० इति पाठः।
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