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________________ भुजगारवंधे परिमाणाणुगमो २७६ कोधादि०४ -मदि०--सुद०--असंज०--अचक्खु०--तिएिणले०-भवसि०-अब्भवसि०-- मिच्छादि०-असएिण-आहार०-अणाहारग त्ति । एदेसि किंचि. विसेसो णादव्वो। ओरालि. तित्थ० ओरालिमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंच० आहारसभंगो। अवत्त० णत्थि। सेसाणंणेरइगादीणं याव सणिण ति याओ असंखेंज-अणंतजीविगाओ पगदीनो ताओ ओघ सादभंगो। याव संखेंजजीविगाओ पगदीओ ताओ ओघं आहारसरीरभंगो। एवं भागाभागं समतं । परिमाणाणुगमो ४६६. परिमाणाणु० दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-छदंस०-अहक०भय-दु०-तेमा०-क०-वएण०४-अगु०-उप-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवहिबंधगा कत्तिया ? अयंता । अवत्त० के० ?संखेंज्जा ।थीणगि०३-मिच्छ०-अहक०-ओरालि. भुज-अप्प०-अवहि के ? अणंता। अवत्त० के ? असंखें। दोवेदणी०-सत्तणोक०तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजा०--छस्संठा०-ओरालि०अंगो०--छस्संघ०-दोआणु०-पर०उस्सा०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुग०-दोगो० भुज०-अप्प०-अवहि-अवत्त. के०१ अणंता । तिएिणपाउ०-वेउ०छ० भुज-अप्प०-अवहि-अवत्त केत्ति ? असंकाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इन मार्गणाओं में जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए । औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भंग आहारकशरीरके समान है। तथा अवक्तव्यपद नहीं है। शेष नरक आदिसे लेकर संज्ञी तक जो असंख्यात और अनन्त जीवोंके बंधनेवाली प्रकृतियाँ हैं,उनका भङ्ग ओघसे सातावेदनीयके समान है। तथा जो संख्यात जीवोंके बंधनेवाली प्रकृतियाँ हैं,उनका भंग ओघसे आहारकशरीरके समान है। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। परिमाणानुगम ४६६. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीरके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। प्रवक्तव्यपदके बन्धक नीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । दो वेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यश्वायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकाङ्गो. पाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दे गोत्रके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव अनन्त हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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