________________
महाघे अणुमागवंघाहियारे अवहिल-अवत० णाणा भंगो । सेसं ओपं । समचदुदंडओ ओघ । भवहि० णाणा. भंगो । सेसं ओघं । अवहि० गाणाभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं अंतरं समत्त ।
पाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो ४६२. गाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुवि०-ओघे० आदे०। प्रोघेण पंचणा०णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०--तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०णिमि०-पंचंत. भुज०-अप्पद०--अवहिदबंधगा णियमा अस्थि । सिया एदे य अवत्तगे य। सिया एदे य अवत्तगा य । सादासाद०-सत्तणोक०--तिरिक्खाउ-दुगदि-पंचजादिछस्संठा०-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०--पर०-उस्सा०--आदाउज्जो दोविहा०तसादिदसयु०-दोगोद० भुज० अप्प० अवढि० अवत्तव्वबंधगा य णियमा अस्थि । तिण्णिभाउ० सव्वपदा भयणिज्जा। वेउब्वियछ०-आहारदुग-तित्य० मुज०--अप्प. णियमा अत्यि । अवहि०-अवत्त० भयणिज्जा । एवं ओघभंगो कायजोगि०-ओरालि.. अचक्खु०-भवसि०-आहारग ति ।
४६३. णिरएमुधुविगाणं भुज०-अप्पणिय० अत्थिः । सिया एदे य अवहिदगे अवस्थितपदका भङ्ग शानावरणके समान है। शेष पदोंका भङ्ग पोषके समान है । औदारिकशरीरके अवस्थित और प्रवक्तव्यपदका भा ज्ञानावरणके समान है। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समा समचतुरस्त्रसंस्थानदण्डकका भङ्ग अोषके समान है। मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मात्र अवस्थितपदका भंग ज्ञानावरणके समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी नीवोंके समान भंग है।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भजविचयानुगम ४६२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषय दो प्रकारका है-श्रोष और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जगप्सा, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये अनेक जीव हैं और एक अवक्तव्यपदका बन्धक जीव है । कदाचित् ये अनेक जीव हैं और अनेक अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्र के भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और श्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। तीन आयुओं के सब पद भजनीय हैं। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। अवस्थित और अवक्तव्यपद भजनीय हैं । इस प्रकार अोधके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवामें जानना चाहिए।
४६३. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org