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________________ १६२ महापंधे अणुभागबंधाहियारे ३५७. सव्वसहुमाणं मणुसाउ० उ० अणु'० लो० असं० सन्चलो । तिरिक्खाउ० उ० लो० असंखें सव्वलो०, अणुक० सव्वलो । सेसाणं उ० अणु० सव्वलो०। ३५८. पंचिंदि०२ पंचणा०-णवदंस० [ असादा०-] मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-तिरि०-हुंड०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०--अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत. उ. अह-तेरह०, अणु० अह चॉ० सव्वलो० । सादा-तेजा०-क०-पसत्य०४अगु०३-पज्जा-पचे०-थिर-सुभ-णिमि. उक्क० खेत०, अणु० अह चॉ. सव्वलो। इत्यि०-पुरिस०-चदुसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दुस्सर० उक्क० अणु० अह-पारह० । समुद्घात करते हैं, उनके इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। सातावेदनीय आदिका मारणान्तिक समुद्घातके समय भी अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ३५७. सब सूक्ष्म जीवोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है । तियञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-सूक्ष्म जीवोंका सब लोक आवास है, इसलिए दो आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंके स्पर्शनको छोड़कर शेष सब स्पर्शन सर्वलोक है,यह स्पष्ट ही है। रहीं दो आयु सो इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामों से होता है, और ऐसे परिणाम बहुत ही कम जीवों के होते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है। तथा मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले जीव थोड़े ही होते हैं, क्योंकि मनुष्यों का प्रमाण भी स्वल्प है, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है । परन्तु तिर्यश्वायुका बन्ध करनेवाले अनन्त जीव होते हैं और ये वर्तमानमें भी सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का दोनों प्रकारका स्पर्शन सब लोक कहा है। ३५८. पञ्चन्द्रियद्विकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायो १. श्रा० प्रतौ मणुसाउ० अणु० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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