SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधसण्णियासपरूवणा मिच्छ०--सोलसक०--पंचणोक०-णीचा०--पंचंत० णिय० अणंत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो। १६४. णिरएमआभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदसणा०-असादा-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०--हुंड०-असंप०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उपघा०अप्पसत्यवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । पंचिंदि०-ओरालि०तेजा.-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि. अणंत०ही। उज्जो० सिया० अणंत०ही । एवं णाणावरणादि० तं तु. पदिदाओ ताओ अण्णमण्णस्स । तं तु०। १६५. सादा० उ० बं० पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० णि० अणंत०ही० । मणुस-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-समचदु०-ओरालि०अंगो० - वज्जरि० - पसत्थ०४-मणुसाणु० - अगु०३-पसत्यवि० - तस०४-थिरादिछ०णिमि०-उच्चा०णि । तं तु० । तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो तं तु० पदिदाणं० । ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। १६४. नारकियोंमें आभिनियोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह, कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति. हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आंगोपांग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु-पतित ज्ञानावरणादि जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु आभिनिबोधिक ज्ञानावरण को मुख्य करके जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है,उसी प्रकार तं तु पतित शेष सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे कहना चाहिए। १६५. मातावेदनीयके वक अनभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. लह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपधात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy