Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१८] श्री जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः ।
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः] ।
[आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।।
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) |
15/02/2015, रविवार, २०७१ महा कृष्ण ११
jain_e_library's Net Publications
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८], उपांग सूत्र-[७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्रविहित वृत्तिः
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-पन्थाङ्कः ५२. श्रीमद्धीरविजयसूरीश्वरशिष्योत्तमश्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमज्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः।
(पूर्वभागः.) प्रसिद्धिकर्ता-श्रेष्ठि नगीनभाई घेलाभाई जढेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं.मोहमयां शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणागारे कोलभाटवीध्या २३ तमे निलये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
श्रीवीरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. काइष्टसन् १९२०. प्रथमसंस्कारे प्रतयः १०.०] वेतनम् १०४-०-० - [Ra4-0-0]
अनुक्रम
T
जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
~1~
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलाका १७८+१३१
मूलांक :
००१
०२२
विषय:
वक्षस्कार: १
जंबूद्वीपस्य प्रमाण, संस्थान, स्वरुप, जगति, गवाक्ष. पद्मवरवेदिका, वनखंड, विजयद्वार एवं राजधानी, भरतक्षेत्रस्य स्थान, प्रमाण, विभाग, दक्षिणार्धभरत
वैताद्यपर्व
सिद्धायतनवर्णन उत्तरार्धभरत.
वक्षस्कारः २
काल अवसर्पिणि, उत्सर्पिणि, औपमिककाल- पल्योपम, सागरोपम, कल्पवृक्षवर्णन. कालस्य षड्विधत्व व तस्मिन तस्मिन्काले वास्तव्या मनुष्या कलकर वक्तव्यता,
| रुषभदेवस्य वर्णन,
| नन्दीश्वरद्वीपे अष्टानिका
-महोत्सव, पंचभेदे मेघवर्षा
KAA
पृष्ठांक:
००४
१८०
जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
विषय:
पृष्ठांकः
३६०
मूलांक
०५४
१२७
वक्षस्कारः ३
भरतनाम्नस्य हेतु, विनीतानगरी भरतचक्रवर्ती-वक्तव्यता, चक्ररत्नस्य उत्पत्ति, षटखंडयात्रा मागध प्रभास - वरदानानां कथनं चतुर्दश-रत्नानि रत्नानाम् कार्य -एवं उत्पतिस्थानानि भरतचक्रवर्त्याः निधयः, देवा: राजानः, सेना, ग्रामादय: इत्यादि वर्णनं
वक्षस्कारः ४
चुल्लहिमवंत-वर्षधरपर्वत-वर्णनं, पद्मद्रहवर्णनं, पद्मस्य कथनं, गंगा-सिंधु आदि नद्यानां वर्णनं, सिद्धायतन आदि कुटा:, हेमवन्त हरिवर्ष - महाविदेह कुरु
- रम्यक आदि क्षेत्राणां वर्णनं, निषध- नीलवंत रुक्मि-हिमवंतादि -पर्वतानां वक्तव्यता.
मेरुपर्वतस्य वर्णनं.
५६५
~2~
मूलांक:
२१२
२४५
२५०
-३६५
दीप- अनुक्रमाः ३६५
विषय:
वक्षस्कारः ५
जिनजन्माभिषेकस्य वर्णनं, दिक्कुमार्याणां वक्तव्यता,
इन्द्राणां आगमनम्, पण्डकवनं - एवं अभिषेकशीला सुघोषाघंटा
वक्षस्कारः ६
जम्बूद्वीपगता पदार्थाः, जम्बूद्वीपे स्थिताः वर्षक्षेत्राः, -पर्वताः, कूटा:, तीर्थानि गुफ़ा, द्रहाः, नदयः आदि वक्तव्यता
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
-
वक्षस्कारः ७
जम्बूद्वीपे अवस्थित चन्द्र -सूर्य-नक्षत्र तारादि वक्तव्यता, सूर्यमंडल एवं तस्य आयाम, विष्कंभ:, परिधि, अंतर आदि. चंद्रमंडल एवं तस्य आयामादि -वर्णनं, नक्षत्रमंडल वक्तव्यता, संवत्सराणां भेदा:, तिर्थंकरआदि उत्तम पुरुषाणाम् वक्तव्यता
पृष्ठांक:
७६८
८५२
८६८
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
['जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्रम्” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में 'देवचन्द्र-लालभाइ-जैनपुस्तकोद्धार' द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पूरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर वक्षस्कार और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा वक्षस्कार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है ।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक वक्षस्कार और मूलसूत्र लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ........मुनि दीपरत्नसागर.
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
~3~
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [-],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भी. १
श्रेष्ठिदेवचन्द्र- लालभाई - जैनपुस्तकोद्वार - प्रन्थाअर्हम् ।
श्रीमत्पूर्व धरस्थविरव्यवस्थापितं ।
श्रीमच्छान्तिचन्द्रवाच केन्द्रविहितविवरणयुतं ।
श्रीमज्जम्बूद्वीपप्रज्ञत्युपाङ्गम् ।
जयति जिनः सिद्धार्थः सिद्धार्थनरेन्द्रनन्दनो विजयी । अनुपहतज्ञानवचाः सुरेन्द्रशतसेव्यमानाज्ञः ॥ १ ॥ सर्वानुयोगसिद्धान् वृद्धान् प्रणिदध्महे महिमऋद्धान् । प्रवचनकाश्चननिकषान् सूरीन श्रीगन्धहस्तिमुखान् ॥ २ ॥ यजात वृत्तिमलयजराजिजिनागमरहस्यरसनिवहः । संशयतापमपोहति जयति स सत्योत्र मलयगिरिः ॥ ३ ॥ श्रीमद्गुरोर्विजयदान सहस्रभानोः, सिद्धान्तधामधरणात् समवाप्तदीप्तिः ।
यो दुष्पमारज निजातमपास्तपारं प्राणाशयद् भरतभूमिगतं तमिस्रम् ॥ ४ ॥
वृत्तिकार - रचिता मंगलिक-गाथा:
Fur Fate &PO
~4~
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्मू
प्रस्तावना.
सूत्राक
दीप
दीपः स रसमय एष परानपेक्षं, मोदीपयन् विशदयन स्वपसमाभिः । द्वीपशा
गौरैर्गुणैरिह निदर्शितपूर्वसूरिः, श्रीसूरिहीरविजयो विजयाप बोलु ॥५॥ युग्मम् ॥ न्तिचन्द्रीया वृत्ति
परमभाषावश्मनोऽपि, मम पाणीरसोऽभवत् । ते श्रीसफलचन्द्राख्या, जीयासुर्षाचकोत्तमाः॥
जम्मूढीपाविप्रवेष्टशास्त्रानुसारतः। प्रमेयरत्नमञ्जूषा, नामा वृत्तिषिधीयते ॥ ७॥ || ह तावविकटभवाढवीपर्यटनसमापतितशारीराद्यनेकदुःखादितो देही अकामनिर्जरायोगतः समाप्तकर्मलाघवस्तजि
शहासया सकलकर्मक्षयलक्षणं परमपदमाकासति, तच्च परमपुरुषार्थत्वेन सम्यग्ज्ञानादिरशत्रयगोचरपरमपुरुषकारोपार्ज-18 Iनीयं, स चेष्टसाधनताजातीयज्ञानजन्यः, तचाप्तोपदेशमूलकं, आप्तश्च परमः केवलालोकावलोकितलोकालोकनिष्कारण
परोपकारकप्रवृत्त्यनुभूयमानतीर्थकृन्नामका पुरुष एव, तदुपदेशश्च गणपरस्थविरादिभिरङ्गोपाङ्गादिशानेषु प्रपश्चितः,
तत्र अङ्गानि द्वादश, उपाङ्गान्यपि अङ्गैकदेशप्रपश्वरूपाणि प्रायः प्रत्यङ्गमेकैकभावात् तावन्त्येव, तत्राङ्गानि आचाराKजादीनि प्रतीतानि, तेषामुपाङ्गानि क्रमेणामूनि-आचाराङ्गस्यौपपासिकं १ सूत्रकृदङ्गास्य राजप्रश्नीयं २ स्थानाङ्गस्य ।
जीवाभिगमः ३ समवायाङ्गस्य प्रज्ञापना ४ भगवत्याः सूर्यप्रज्ञप्तिः ५शाप्ताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः ६ उपास- || कदशाङ्गस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिः ७ अन्तकृद्दशाङ्गादीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां पश्चानामप्यङ्गानां निरयावलिकाश्रुतस्कन्धगतकRI ' पाक्षिकाती महाप्रथापनापि, परमेकार्थता द्वयोः (हीर०) २ प्रकीर्णकरूति स्थानानि (हीर.)
अनुक्रम
॥१॥
Nimbine
वृत्तिकार-रचिता मंगलिक-गाथा:, 'आचार' अंगसूत्रादेः उपांगसूत्रस्य नाम-कथनं
~5~
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार -.---..............--.
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
स्पिकादिपञ्चवर्गाः पञ्चोपानानि, स्थाहि-अम्तकृदशांगख कस्पिका भनुत्तरोपपातिकशास्त्र कल्पावतंपिका प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिता १० विपाकश्रुतस्य पुष्पचूलिका ११ दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा १२ इति । भरखपाङ्गको
सामाचार्यादौ कश्चि रोऽप्यस्लि, अंगानां च मध्ये दे माघे अङ्गे श्रीशीलांकाचाबिते ला, शेषाणि नवाजानि 18 श्रीमभयदेवसरिपादेर्विरतानि सन्ति, रष्टिवादस्तु धीरनिर्वाणात् वर्षसहने ववच्छिन इति न तद्विवरणमयोजन, पा.
शानां च मध्ये प्रथममुपाङ्गं श्रीअभयदेवसूरिभिषिवृतं, राजप्रश्नीयादीनि पद् श्रीमलयगिरिपादेविवृतानि, पत्रीपाङ्गमयी |8||निरयावलिका च श्रीचन्द्र [प्रभ] सूरिभिर्विवृता, तत्र प्रस्तुतोपामस्य इतिः श्रीमलगिरिकताऽपि संप्रति कासदोषण॥
पच्छिन्ना, इदं च गम्भीरार्थतयाऽतिगहनं तेनानुयोगरहितं मुद्रितराजकीयकमनीयकोशगृहमिव सदार्थिनां हतातिसिद्धिकं सञ्जायत इति कस्सितार्थकल्पनकल्पगुमायमाणबुगमधानसमामसम्पतिविजयमानगच्छनायकपरमगुरुत्रीहीरविजयसूरीश्वरनिर्देशेन कोशाध्यक्षाज्ञया प्रेष्येणेवोन्मुद्रणमिष मया सदमुयोगः मारभ्यते, स च चतुर्दा-धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनादिका गणिसानुयोगः सूर्यप्रज्ञत्यादिकः द्रव्यामुयोगः पूर्वाणि समस्यादिकच चरणकरणानुयोगवा | आचाराङ्गादिकः, प्रस्तुतशास्त्रस्य क्षेत्रप्ररूपणात्मकत्वात् तस्याश्च गणितसाध्यस्याद् गणितानुयोगेऽन्तर्भावः, मन्ये चरणकरणात्मकाचारादिशात्राणामिव नास्य मुक्त्यङ्गता, साक्षात् मोक्षमार्गभूतरक्षयानुपदेशकत्वात् इति चेन, १ समुद्रातपरे परिधिपरिमामानयनं गणितं च जमदीपप्रवत्यादायकशो भावित क्षेत्रसमावटीकातो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिीकातो वा वैदितम्चेति जीवा. (हीर
दीप
ceneceicestaceaesesences
अनुक्रम
वृत्तिकारस्य मतानुसार 'आचार' अंगसूत्रादेः उपांगसूत्रस्य नाम-कथनं एवं एतत्कथनस्य सामाचारी-भेदोल्लेख:, अंग-उपांगस्य वृत्तिकारस्य नाम-कथनं
~6~
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
18 साक्षादुपदेशकत्वाभावेऽपि तदुपकारितया शेषाणामपि त्रयाणामनुयोगानां मुक्त्यङ्गत्वाविरोधात् , तथा चोकम्-"चर-1 प्रस्तावना. द्वीपशा-हाणपदिवत्तिहेऊ धम्मकहा कालि दिक्खमादीया । दविए दंसणसोही सणसुद्धस्स चरणं तु ॥१॥" अत्र व्याख्या-||
18 अत्र वृत्तावतिदेशोक्तसम्मत्युक्तग्रन्थयोर्दुर्गपदव्याख्याने आपरिसमाप्ति अत्र व्याख्या इति संकेतो बोध्यः । परणप्रति-18
18पसिहेतुर्धर्मकथानुयोगः काले-गणितानुयोगे दीक्षादीनि व्रतानि, कोऽर्थः-शुद्धगणितसिद्धे प्रशस्ते काले गृहीतानि प्रश-18 ॥२॥ स्तफलानि स्युः, कालश्च ज्योतिश्चाराधीनः, स च जम्बूद्वीपादिक्षेत्राधीनव्यवस्थस्तेनायं कालापरपर्यायो गणितानुयोग
इति, द्रव्ये-द्रव्यानुयोगे शुद्धे दर्शनशुद्धिर्भवति, कोऽर्थः-धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां द्रव्यानुयोगतः सिद्धौ सत्यां तदा-18 |स्तिक्ये प्रतिपन्ने दर्शनशुद्धिर्भवतीति, दर्शनशुद्धस्य चरणानुयोगो भवतीति । इह यद्यपि श्रीमलयगिरिपादानां क च | परकृताक्षेपपरिहारप्रभविष्णुवचनरचनाचातुर्य क च तथाविधसम्प्रदायसाचिव्यं क च तत्तनिवन्धवन्धुरतानैपुण्यं || क कुशाग्रसमः प्रतिभाविभवश्च क च मे तत्तत्पूर्वपक्षोत्तरपक्षरचनास्वकुशलत्वं, कच ताहसंप्रदायराहिल्यं कच कठोरग्रन्थग्रथनकर्मठत्वं क च मुशलायमतित्वमिति महति हेति (तु) संहतिविभेदेऽपि प्रवृत्तिरपि रामसिकी प्रवृत्तिरहो । महती धृष्टतावृत्तिः कटरिकठिनः कुण्ठजनहग्रह इत्युपहासपात्रतामात्रफलतया चन्द्राकर्षकमृगेन्द्रानुयायिनः शृगाल-IN स्येव ममानौचितीमश्चति, तथापि लोहशालाविकीर्णानां लोहसारकणानां चुम्बकाश्मप्रयोगेणैव महता प्रयलेन प्रायस्तचित्याचीनजीवाभिगमादिवृत्तिषु दृष्टानामेव व्याख्यालवानामेकत्र मीलनमनुविचिन्त्य अन्याख्यानरूपमेवेदं व्याख्यान
अनुक्रम
प्रास्ताविक-कथनं
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
वक्षस्कार [-],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
June(im
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
प्रास्ताविक कथनं
विधीयत इति नानौचितीलेशोऽपीति सर्वं सुस्थं इति शास्त्रप्रस्तावना ॥
तस्य चानुयोगस्य फलादिद्वारप्ररूपणतः प्रवृत्तिर्भवति, यत उक्तम्- " तस्स फलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई । तम्भेयनिरुत्तिकमपओयणाई च वच्चाई ॥१॥” ति, तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये तस्य - अनुयोगस्य फलमवश्यं वाच्यं, अन्यवाऽस्य निष्फलत्वमाकलय्य व्याख्यातारः श्रोतारश्च कण्टकशाखामर्द्दन इव नात्र प्रवर्त्तेरनिति, तच्च द्विधा- कर्तुः श्रोतुश्च, | एकैकमपि द्विधा - अनन्तरं परम्परं च तत्र कर्तुरनन्तरं द्वीपसमुद्रादिसंस्थानपरिज्ञानेऽतिपरिकर्मितमतिकत्वेन स्पष्टतया यथासंभवं संस्मरणात् स्वात्मनः सुखेनैव संस्थानविचयाभिधान धर्मध्यानसमवाप्तिर्मन्दमेधसामनुग्रहश्व, श्रोतुः पुनर्जम्बूद्वीपवर्त्तिपदार्थपरिज्ञानं, परम्परं तु द्वयोरपि मुक्त्यवातिः, यदाह - "सर्वज्ञोतोपदेशेन यः सत्त्वानामनुग्रहम् करोति | दुःखतष्ठानां, स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् ॥ १॥” तथा “सम्यग्भावपरिज्ञानाद्विरक्ता भवतो जनाः । क्रियासक्ता ह्यविज्ञेन, गच्छन्ति परमां गतिम् ॥२॥” १, तथा योगः-सम्बन्धो वाच्यः, तेन हि ज्ञातेन फलव्यभिचारमनाशङ्कमानाः प्रेक्षावन्तः प्रवर्त्तन्त इति, स द्विधा - उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च तत्र आद्यस्तर्कानुसारिणः प्रति, अनुयोग उपायोऽर्थावगमादि चोपेयं, स च फलाभिधानादेवाभिहितः, अन्यश्च केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति, स चैवम्-अर्थतो भगवता वर्द्धमानस्वामिना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरुक्ता सूत्रतो गणधरैर्द्वादशायामुपनिबद्धा, ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रहाय सातिशयश्रुतधारिभिः षष्ठादङ्गादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापिता, अमुमेव च सम्बन्धमनुविचिन्त्य सूत्रकृदुपोद्घातमाधास्यति
Fur Fate & Cy
~8~
Patient ९८१६९०९६esesenesecseene
maryay
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
या चिः
दीप
श्रीजम्बू- अथवा 'शास्तुः प्रामाण्ये शास्त्रप्रामाण्य मिलि आधसम्बन्धस्यैव प्रामाण्यमहार्थमपरसम्बन्धनिरूपणं, बहि विरितपरम-18 अनुयोग
। तस्याः सत्त्वानुग्रहैकमवृत्तिमन्तो भगवन्तो जातूपेयानुपयोगि भाषन्ते, भगवचाभलादिति, अथवा योगा-अवसर, ततः फलादि. न्तिचन्द्री
प्रस्तुतोपाङ्गस दाने कोऽवसर इति !, उच्यते, उपाङ्गस्याङ्गार्थानुवादकतयाऽङ्गस्य सामीप्येन वर्चमानाब एवैतदीयानस्याबसरः स एवास्थापीति, तत्रावसरसूचिका इमा गाथा:-"तिवरिसपरियायस्स र भाचारपकप्पनाममजावणं । किसस्स य सम्म सूअगडं नाम अंगति ॥१॥दसकष्पव्यवहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्लेव । वाणं समवाजोविना अंगे । बहवासस्स ॥२॥दसषासस्स विवाहो एगारसवासगस्स य इमे छ । खुद्धियविमाणमाई अमायणा पंच नावका ESI बारसवासस्स सहा अरुणोवायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्त्र तहा उहाणवाया बरोचजसवासास बहा जासीविसभावणं जिणा विति ॥ पण्णरसवासगस्स व विडीविसमावर्ण तहव ॥५॥ सोलसवालाईसु य एत्तरवृद्धि जहसंखं । चारणभावणमहसुविणभावणा तेअगनिसग्गा ॥६॥ एणवीसगस्स विडीवाओ तुषार बनण्यबीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स ॥७॥" ईति, अन पचवस्तुकसूत्रे दशवर्षपर्यायस्य साधोः भगवन्यमहाडक्सरख
IAT॥३॥ ... ......... १२ व १ व 14.19 whawa
(०० स्था० स० व्या इतिसत्यामाशी. हि चार महास. जो. रहिवाच, सर्वभुतं |
अनुक्रम
အအအအအေး
Jintenmitin
प्रास्ताविक-कथनं, आगम-अन्ज्ञा एवं दीक्षा-पर्याय
~9~
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-1, ---------
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
प्रतिपादनात् षष्ठाङ्गतया ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य प्रदाने तदनन्तरमवसरः, कारणविशेषे गुर्वाज्ञावशायंगवि, बबलदुपा-11 अत्वादस्य तदनन्तरमवसर इति संभाव्यते, बोगविधानसामाचाामपि अङ्गयोगोहनानन्तरमेवोपाङ्गयोगोद्वहन | विधिप्राप्तत्वादिति २। तभेदमुपागमपि प्रायः सकलजम्बूद्वीपवर्तिपदार्थानुशासनाच्छावं, तस्त्र च सम्यग्ज्ञानस्य | परमपदप्रापकत्वेन श्रेयोभूतता, अतो भा भूदत्र विघ्न इति तदपोहाय मङ्गलमुपदर्शनीयं, यत:-"बहुचिग्याई बाई 1 तेण कयमंगलोवयारेहिं । घेसको सो सुमहानिहिब जह वा महाविजा ॥१॥" इति, वच्च विविध-आदिमध्यावधानभेदातू, तत्र आदिमङ्गलं णमो अरिहंताण' मित्यविनतया शाखस्य परिसमाप्त्यर्थ, मध्यमङ्गलं 'जया णं पक्षमा चावहिविजए भगवंतो तित्थगरा समुपजति'त्ति तस्यैव स्वैर्याय, अस्य च द्वितीयाधिकारादिसूत्रस्य विभुवनोतजिन-11 बन्मकल्याणकसूचकत्वेन परममङ्गलत्वात्, अन्त्यमङ्गलं तु 'समणे भगवं महावीरे मिहिलाए अगरीए' इत्यादिनिगमजसूत्रे श्रीमन्महावीरनाममहणमिति, तस्यैव शिष्यप्रशिष्यादिपरम्परया अव्यवच्छेदार्थ, नन्विदं सम्यग्ज्ञानरूपत्वेन निर्जरार्थ- ॥1
त्वात् अथवा "जी जंपसत्यमत्थं पुच्छइ तस्सत्थसंपत्ती" इति निमित्ताने द्वीपसमुद्राभिधामग्रहणस्य परममालत्वेन ||| निवेदनादस्य द्वीपप्ररूपणात्मकत्वात् स्वयमेव सर्वात्मना मङ्गलं (लता) किं मालान्तरोपम्यासेन , बनबस्थाप्रसङ्गात्,181 मैवं, मङ्गलतया हि परिगृहीतं शारखं मङ्गलमिति व्यवहियते फलदं च भवति, साधुवत् , अन्यथोपहासनमस्कारादेरपि १ बहुविनानि श्रेयांनि तेन तमलोपचारैः। महीतम्यः सः (अनुयोगः) मुमहानिपिरिव गया वा महाविद्या ॥१॥ २ मो में प्रभासमर्थ पृच्छति तरूपार्थनपत्तिः।।
दीप
अनुक्रम
weeeeeeeरररर
प्रास्ताविक-कथनं, 'मंगल स्य निरूपणं
~ 10~
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
वक्षस्कार [-],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृत्तिः
॥ ४ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
J Emitim
मङ्गलत्वं स्यात्, न हि लोकेऽपि स्वरूपसता दधिदूर्वादीनां द्रव्यमङ्गलत्वं किन्तु मङ्गलाभिप्रायेण प्रयुक्तानाम्, अन्यथा | तद्विषयकदर्शनस्पर्शनादीनां निर्मूलकतापातात्, इह अस्य शास्त्रस्य फलादि निरूपितं तदनुयोगस्य द्रष्टव्यं तयोः कथचिदभेदादिति ३ । अथेदानीं समुदायार्थश्चिन्त्यते, तत्र समुदायः सामान्यतः शास्त्रसङ्ग्रहणीयः पिण्डस्तद्रूपोऽर्थो वक्तव्यः, | किमुक्तं भवति ? - अवयवविभागनिरपेक्षतया शास्त्रगतं प्रमेयं प्रकटनीयं तच्च वर्द्धमानादिवत् यथार्थनामतो भवति, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, न तु पलाशादिवदयथार्थनामतो डित्थादिवदर्थशून्यनामतश्च प्रस्तुते च जम्बूद्वीपप्रज्ञ| तिरितिनाम्नः कः शब्दार्थ इति १, उच्यते, जम्ब्वा-सुदर्शनापरनान्याऽनादृतदेवावासभूतयोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वी| पस्तस्य प्रकर्षेण- निःशेषकुतीर्थिकसार्थागम्ययथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन शतिः - ज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धती ज्ञष्टिर्ज्ञानं वा यस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, अथवा जम्बूद्वीपं प्रान्ति पूरयन्ति स्वस्थित्येति जम्बूद्वीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराद्यास्तेषां ज्ञप्तिर्यस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति सान्वर्थशास्त्रनामप्रतिपादनेन जम्बूद्वीपप्रज्ञयाः | पिण्डार्थो दर्शितः, अत एवाभिधेयशून्यतामाकलयन्तस्सन्तोऽत्र प्रवृत्तौ मा मन्दायन्तामित्यभिधेयसूचापि कृतैव, नामनिक्षेपचिन्ता तु द्वितीयानुयोग योजनायां करिष्यत इति समुदायार्थः ४ । तथैवानुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तथाहिप्रस्तुताध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वारि अनुयोगद्वाराणि भवन्ति - उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयश्च तत्र अनुयोजनमनुयोगः - सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनं, अथवाऽनुरूपोऽनुकूलो वा योगो-व्यापारः सूत्रस्थार्थप्रतिपादनरूपोऽनुयोगः, आह
Fur Fate &PO
प्रास्ताविक -कथनं, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' शब्दस्य अर्थकथनं, अनुयोग-कथनं
~ 11~
अनुयोगफलादि.
॥ ४ ॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
बापुंजोजणमणुजोगो सुअस्स णियएण जमभिहेएण । वावारो पा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥१॥" इति, बदा अर्थापेक्षया अणोः-लघोः पश्चाज्जाततयां वाऽनुशब्दवाच्यस्य योऽभिधेयो योगो-व्यापारस्तत्सम्बन्धो वाऽणुबोगोऽनुयोगो वेति, आह च-"अहेवा जमत्थओ थोवपच्छभावेहिं सुअमणुं तस्स । अभिधेये वाबारो जोगो तेणं व संबंधो ॥१॥"सि, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि-प्रवेशमुखानि, अस्याध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः, पुरदृष्टान्तश्चात्र, यथा हि अकृतद्वारकं पुरमपुरमेव, कृतैकद्वारमपि दुरधिगम कार्यातिपत्तये च स्यात् , चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगत | सुखाधिगर्म कार्यानतिपत्तये च, एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञध्यध्ययनपुरमप्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगर्म भवति एक-1 द्वारानुगतमपि च दुरधिगर्म समभेदचतुर्दारानुगतं तु सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च स्यादतः फलेपहिरोपन्यास इति ५। तानि च द्वित्रिद्विद्विभेदानि क्रमेण भवन्तीति तनेदाः ६ । निरुक्तिस्तु उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः ||व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपानयनेन निक्षेपावसरप्रापणं, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, ISI
उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रमणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधना, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनेयविनया| दित्युपक्रमः इत्यपादानसाधन इति, एवं निक्षेपणं निक्षेप्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः-उपक्रमानीतव्याचि
१ अनुयोजनमनुयोगः श्रुतस्य (सूत्रस्य ) निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा बोगो योऽनुरूपोऽनुकूलो वा ।। १ ॥ २ अथवा मदर्थतः स्तोकपश्चाद्भावाभ्यां | | सूत्रमा (अनु) तस्य । भनिधेये व्यापारी योगस्तेन वा संबन्धः॥१॥
दीप
Roces0000000
Bass9900000says:095
अनुक्रम
अनुयोग-कथनं एवं फलादि, उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदाः इत्यादिः
~ 12~
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
दीप
श्रीजम्-शख्यासितशास्त्रस्य नामादिभिसनमित्यर्थः निक्षेपो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः, एवमनुगमनमनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मा-1 उपक्रमा
पिना- दिति वाऽनुगम:-निक्षिप्तसूत्रस्थानुकूलः परिच्छेदोऽर्धकथन मितियावत् , एवं नयनं नीयतेऽनेनास्मिनस्मादिति वा नपा- दीन न्तिचन्द्री
अनम्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, एकेनैव धर्मेण पुरस्कृतेन वस्त्वङ्गीकार इत्यर्थः । उपक्रमावितासगादिया वृत्ति:
शल्यंन्यासे किं प्रयोजनमिति !, उच्यते, न ह्यनुपक्रान्तमसमीपीभूतं निक्षिप्यते न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽमुनग्यवे, ॥५॥शन चार्थतोऽननुगतं नयैर्विचार्यते इतीदमेव क्रमप्रयोजन, उक्तं च-"दारकमोऽयमेष र निक्खिम्पा जेण मासपीवस्थं ।
अणुगम्मइ नाणत्थं नाणुगमो मयमयविहूणो ॥१॥"ति। तदेवं फलाही युकानि, साम्प्रतमनुयोगद्वारभेदभावन-1 पुरस्सरमिदमेवाध्ययनमनुर्विचिन्त्यते, तत्रोपक्रमो द्विधा-लौकिका शाखीयश्च, सत्र आयः पोटा-मामलामाइन्योवकालभावभेदात्, नामस्थापने सुप्रतीते, द्रव्योपक्रमो द्विधा-आगमतो मोआगमतच, आगमत उपक्रमब्दार्थव ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात् , नोआगमतखिविधो-शशरीरभवशारीरतव्यतिरिक्तमेतद, तत्र यदुपक्रमशब्दार्थज्ञस्य शरीरं जीवविप्रमुक्त सिद्धशिलातलादिगतं तद्भूतभावत्वात् शरीरच्योपक्रमी, यस्तु पाल-18 को नेदानीमुपक्रमशब्दार्थमवबुध्यते अथ चावश्यमावस्या भोत्स्यते स भाविभावनिबन्धमत्त्वात् भव्यशरीरद्रव्योषकमा
शरीरभव्यशरीरव्यतिरिकत्रिविधः-सचित्ताचित्तमिश्वमेदात् , तत्र सचित्तव्योपक्रमो द्विपदरतुष्पदापदोपाधि-181 दभिन्नविविधः, पुनरेकैको द्विविधः-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्रावस्थितस्यैव द्रव्यस्य गुणविशेषापादनं परिकर्म
अनुक्रम
2080sa
T
JinElemnitiniane
उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः
~ 13~
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम [-]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [-],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
तस्मिन् परिकर्मणि, सचित्तद्विपदद्रव्योपक्रमो वथा मनुष्याणां वर्णकर्णस्कन्धनवृद्ध्यादिकरणं, सच्चिचच्चतुष्पदद्रन्योपक्रमो यथा हस्त्यादीनां शिक्षाद्यापादनं सचित्तापदद्रव्योपक्रमो यथा वृक्षादेर्वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वृद्ध्यादिगुणकरणं, वस्तुविनाशे पुनस्त्रिविधोऽपि सचित्तद्रव्योपक्रमस्तेषामेव मनुष्यादीनां खड्गादिभिर्विनाशकरणं, अचिचद्रव्योपको | द्विविध: - परिकर्मणि वस्तुविनाशे च सत्र परिकर्मणि यथा पद्मरागमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना नैर्मस्यांपादनं, बस्तु | विनाशे च तेषामेव विनाशनं, मिश्रन्वोपक्रमोऽपि द्विविधः परिकर्मणि वस्तुविनाशे च तत्र परिकर्मणि कटकादिभूषितपुरुषादिद्रव्यस्य गुणविशेषकरणं, वस्तुविनाशे विवक्षितपर्यायोच्छेदः, तथा क्षेत्रकालोपक्रमाषपि द्विविधः-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च तत्र क्षेत्रम्-आकाशं तथामूर्त नित्यं चेति न तस्य परिकर्मरूपो विनाशरूपो या उपक्रनो घटले तथापि मंचाः क्रोशन्तीत्यादिन्यायादुपचारेण तदाश्रितस्येक्षुक्षेत्रादेर्हलादिभिः परिकर्म गजबन्धनादिभिस्तु विनाश इति, एवं कालस्थापि पूर्वीकन्यायेन उपक्रमासम्भवेऽपि शंकादिच्छायादिभिर्वद्यथार्यपरिज्ञामं स परिकर्मणि कालोपक्रमः, यच ग्रहनक्षत्रादिचारैरनिष्टफलदायकतया परिणमनं स विनाशे कालोपक्रमः तथा च लौकिकी वागपि-मकेम ग्रहेण नक्षत्रेण वा इत्थमित्थं गच्छता विनाशितः काल इति, भावोपक्रमो द्विधा-आगमतो नोआगमत शह उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः 'उपयोगो भाषनिक्षेप' इति वचनादिति, नोआगमतो द्विधा-अचान्तः नमः स्तन, सत्राचो जामातृपरीक्षकब्राह्मणीषेश्यामात्यानामिष संसाराभिवर्धिनाऽध्यवसायेन परभावोपकमप्यक्र
Fur Prate&P Cy
उपक्रम- 'निक्षेप' - 'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्था:, भेदाः इत्यादिः
~ 14~
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
[-]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [-],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ६ ॥
श्रुतादिनिमित्तमाचार्य भावावधारणरूपः अनेनेहाधिकारः, अथानुयोगाङ्गप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थकम् अतदङ्गत्वात्, तदसम्यक् तस्याप्यनुयोगाङ्गत्वाद्, यद्भाष्यकारः - "गुरुंचित्तायत्ताई वक्खाणंगाई जेण | सवाई । तेण जह सुप्पसनं होइ तयं तं तहा कजं ॥ १ ॥" आह-यद्येवं तर्हि गुरुभावोपक्रम एव दर्शनीयः न शेषाः, निष्प्रयोजक (न) त्वादिति, न, गुरुचित्तप्रसादनार्थं तेषामप्युपयोगित्वात्, तथाहि - वाढग्लानादिसाधून् पथ्यान्नपानादिना प्रतिजाग्रति वैयावृत्त्यनियुक्ते साधौ द्रव्योपक्रमात् गुर्वासनशयनाद्युपभोगिभूतलप्रमार्जनादिना संस्कुर्वति क्षेत्रोपक्रमात् भव्यस्य छायालग्नादिना दीक्षादिसमयं सम्यक् साधयति कालोपक्रमाच्च गुरुः प्रसीदति, नामस्थापनोपक्रमी तु प्रस्तुतेऽनुपयोगिनाविति, अथवा उपक्रमसाम्यात् ये केचन संभविन उपक्रमभेदास्ते सर्वेऽपि दर्शनीयाः, यतोऽनुपयोगिनिरासेनोपयोगिनि निष्प्रतिपक्षा प्रतिपत्तिरुपजायते, तथा चाप्रस्तुतार्थापाकरणं प्रस्तुतार्थव्याकरणं च नामादिन्यासव्याख्यायाः फलमुपवर्णयन्ति महाधियः । उक्तः लौकिक उपक्रमः, अथ शास्त्रीय उच्यते-सोऽपि षोढेव, आनुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवतारभेदात् एतव्यक्त्यर्थिना तु अनुयोगद्वारसूत्रं विलोक्यं ग्रन्थविस्तरभयात्तु नेह तन्यते, केवढं आनुपूर्व्यादिषु पंचसूपक्रमभेदेषु षष्ठे समवतारभेदे विचार्यमाणे इदमध्ययनं समवतारयेत्, ततश्चानुपूर्व्यादिरुपक्रमः पद्विधोऽप्यभिहितो भवति, तथाहि - दशविधायामप्यानुपूर्व्यामस्याध्ययनस्योत्कीर्तनगणनानुपूर्व्योः
१] गुरुचितायानि व्याख्याशानि येन सर्वानि । तेन यथा तरतुप्रसन्नं भवति तत्तथा कार्यम् ॥ १ ॥
Fur Fate & Use Cy
उपक्रम- 'निक्षेप' - 'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध अर्था:, भेदाः इत्यादिः
~ 15~
उपक्रमा
दीनि.
॥६॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
समतारः, तत्रोत्कीर्तन-संशब्दनं नामकथनमात्रं यथा द्वादशाङ्गोपाङ्गानां मध्ये औपपातिकं राजप्रश्नीय जीवाभिग-18 माध्ययन प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्तिः चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरित्यादि, गणनं-परिसंख्यानं एक द्वे त्रीणीत्यादि सा च गणनानुपूर्वी त्रिधा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी चेति, तत्र पूर्वानुपूर्व्या इदं षष्ठं पश्चानुपूा सप्तमं अनानुपूर्व्या अनियतं, नाम च एकनामादिदशनामपर्यन्तं, तत्र पडनाम्न्यस्यावतारः, तत्र च षट् भावा श्रीदयिकादयो निरूप्यन्ते, तवास्थ क्षायोपशमिके भावेऽवतारः, सर्वश्रुतस्य क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् , प्रमाणं चतुओं-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, । तत्रेदमध्ययनं क्षायोपशमिकभावात्मकत्वाद् भावप्रमाणविषयं, तदपि भावप्रमाणं त्रिधा-गुणनयप्रमाणसंख्याभेदात्, तत्राय जीवाजीवगुणप्रमाणभेदात् द्विधा, तत्र जीवोपयोगरूपत्वाजम्बूद्वीपप्रज्ञत्यध्ययनस्य जीवगुणप्रमाणे समवतारः,161 तदपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् विधा, तत्र बोधात्मकत्वादप ज्ञानगुणप्रमाणे, तदपि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदाचतुष्पकारं, तत्रास्य आप्तोपदेशरूपत्वादागमे, सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद द्विविधः, तत्र परममुनिप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे, सोऽपि द्विधा-आवश्यकमावश्यकव्यतिरिक्तश्च, तत्रेदमावश्यकव्यतिरिक्त, आवश्यकव्यतिरिक्को द्विधा-अङ्गप्रविष्टानङ्ग-18 प्रविष्टभेदात् , तत्रेदमनङ्गप्रविष्टे, सोऽपि द्विधा-कालिकोत्कालिकभेदात् , तवेदं कालिके, सोऽपि सूत्रार्थोभयभेदात् । विधा, तत्रेदं सूत्रार्थरूपत्वात् तदुभये, सोऽपि आत्मानन्तरपरम्परागमभेदात् त्रिविधः, तत्र चेदं गणभृतां सूत्रत || आत्मागमस्तच्छिष्याणामनन्तरागमः तत्प्रशिष्याणां तु परम्परागमः, अर्थतोऽहतामात्मागमः गणधराणामनन्तरागमः
अनुक्रम
29999999900
उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः, 'प्रमाण'स्य भेद-प्रभेदस्य कथनं
~16~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
दीप
श्रीजम्यू- ततः परम्परागम इति त्रिवप्यागमेष्वस्याध्ययनस्यावतार इति, ननु अङ्गप्रविष्टसूत्रं गणधरप्रणीतमिति भवतु तेषामा- प्रस्तावना. द्वीपशा-1 मागमः, इदं तूपाङ्गत्वेनानङ्गप्रविष्टत्वात् स्थविरकृतं, यदाह-"गणधरकयमंगसुअंजं कथ थेरेहिं बाहिरं तं तु । निययं । न्तिचन्दः अंगपविहं मणियबसुय बाहिरं तं तु ॥१॥" ततः कथं गणधराणामात्मागमत्वेम भाव्यते !, उच्यते, गणधरैर्वादशाङ्गी-18 या वृत्तिः
विरचने परमार्थतस्तदेकदेशरूपोपाङ्गानामपि विरचनमाख्यातमिति तेषामपीदमुपाङ्गं सूत्रत आत्मागम इति न कश्चि-18 ॥७॥ द्विरोधः, व्यवहारतस्तु स्थविरकृतत्वेनेदमुपाङ्गं स्थविराणामेव सूत्रत आत्मागमः, "सुत्तं थेराण अत्तागमोत्ति" इति
इ) श्रीउत्तराध्ययनबृहद्वृत्तिवचनादिति, अयमेव शास्त्रप्रामाण्यसूचकोऽर्थः पूर्व गुरुपर्वक्रमरूपसम्बन्धावसरे निरूपित इति ।
नयप्रमाणे तु नास्थ सम्प्रत्यवतारो, मूढनयत्वात् आगमस्य, उक्तं च-"मूढनइयं सुर्य कालियं च (तु)" इत्यादि। | संख्या नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालौपम्यपरिमाणभावभेदात् अष्टप्रकारा, तत्र चास्य परिमाणसंख्यायामवतारः, तत्रापि
कालिकश्रुतपरिमाणसंख्यायां समवतारः, साऽपि द्विधा-सूत्रतोऽर्धतश्च, तत्र सूत्रतः परिमितपरिमाणं (अर्थतोऽनन्तागर्थत्वात् सर्वेषां सूत्राणामपरिमाणं)।सम्पति वक्तव्यता, सा च त्रिधा-स्वपरोभयसमयवक्तव्यताभेदात्, तत्र स्वसम-18 | यवक्तव्यतायामस्यावतारः, तथाऽर्थाधिकारो वक्तव्यताविशेष एव, स चेह जम्बूद्वीपषतव्यतालक्षणः समुदायार्थंकव-हा नादेव उक्तः, उक्त उपक्रमः । अथ निक्षेपः, स च त्रिधा-ओपनामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् , तत्रीयो यत् सामान्यमध्य-18 १ गणधरकृतमझधुतं यत् कृतं स्थपिरांतां तत्तु । नियमित प्रविष्टमनियतश्रुतं बाती तत् ।। र अविभागस्थनयं श्रुतं कालिकं ॥1॥
अनुक्रम
उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्था:, भेदा: इत्यादिः, 'प्रमाण'स्य भेद-प्रभेदस्य कथनं
~ 17~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार - -------.........--.
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
Zeecscenceaeeseseseae
यनादि नाम, तन्निक्षेपोऽनुयोगद्वारादिभ्योऽवसेयः, तत्रेह भावाध्ययनादिनाऽधिकारः, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम, ततो जम्बूशब्दस्य प्रज्ञप्तिशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र जम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामजम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा जम्बूरन्तिमकेवली जम्ब्बा अभिधानं वा, स्थापना-18 | जम्बूर्या जम्बूरिति स्थापना क्रियते यथा चित्रलिखितजम्बूवृक्षादिः, द्रव्यजम्बूद्धिधा-आगमतो नोआगमतश्च, आग-18 मतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा, तत्राद्यौ भेदी सुप्रतीतो, उभयव्यतिरिक्तद्रव्यजम्बूरपि त्रिधा-एकभविकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रजन्तुभेदात् , तत्रैकमविको नाम य एकभवान-18 न्तरं जम्बूवेनोत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन जम्ब्वायुबद्धं, अभिमुखनामगोत्रस्तु यस्य जम्ब्वा नामगोत्रकर्मणी अन्तर्मुहूतोनन्तरमुदयमायावत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाद्र्व्यजम्बूरिति, भावजम्बूरपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु जम्बूद्रुम एव जम्बूदुमनामगोत्रकर्मणी वेदयन्निति, आह-यथा अभिमुखजम्बूभावस्य जीवस्य द्रव्यजम्बूत्वं 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् तथा आसन्नपश्चात्कृतजम्बूभावस्थापि 'भूतपूर्वकस्तबदुपचार' इति न्यायात् कथं न द्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टं !, उच्यते, इदमुपलक्षणं, तेन तस्यापि द्रव्यनिक्षेप
एवान्तर्भावः 'भूतस्य भाविनो 'स्याविद्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् , अत्रानिर्देशकारणं तु श्रीउत्तराध्ययनदुमपत्रीयाध्ययन-17 || नियुक्ती श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः दुमनिक्षेपेऽविवक्षणं, तत्तुल्यन्यायवादस्य निक्षेपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो भावज-18
दीप
अनुक्रम
T
'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
~ 18~
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
श्रीजम्बू-18म्ब्वा अधिकारः। द्वीपोऽपि पूर्ववञ्चतुर्दा, तत्र नामद्वीपो यस्य द्वीप इति नाम, स्थापनाद्वीपो या द्वीपस्य स्थापना, यथा दीपशा- चित्रलिखितजम्बूद्वीपादिः, द्रव्यद्वीपो द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमन्तिचन्द्री
तस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यद्वीपी सुबोधी, तद्व्यतिरिक्तद्रव्यद्वीपो द्विधा-सन्दीनोऽसन्दीनश्च, तत्र यो हि संदीयते-जलया चिः
प्लावनात् पक्षमासादावुदकेन प्लाव्यते स सन्दीनो विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपादिः, भाषद्वीपोऽपि द्विधा-आगमतो ॥८॥
नोआगमतश्च, तत्रागमतस्तदर्थज्ञानोपयुक्तः, नोआगमतस्तु साधुः, कथमित्याह-यथा हि नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे सांयात्रिका द्रव्यद्वीपमवाप्याऽऽश्वसन्ति तथा पारातीतसंसारपारावारान्तरचारसेदमेदस्विनो देहिनः परमपरोपकारैकप्रवृत्तं साधु समवाप्याऽऽश्वसन्ति अतो भावतः-परमार्थतो द्वीपो भावद्वीप उच्यते, सोऽपि सन्दीनासन्दीनभेदाद द्विधा, तत्र परीपहो-18 पसर्गाद्यैः क्षोभ्यः सन्दीनः तदितरस्त्वसन्दीनः, अथवा भावद्वीपः सम्यक्त्वं, तच्च प्रतिपातित्यादौपशमिकं क्षायोपशमिक च सन्दीनो भावद्वीपः, क्षायिक चासन्दीन इति । ननु कचित्तत्पर्यायापन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते यथाऽत्रैव जम्बूपर्यायमनुभवन् भावजम्बूत्वेन निक्षिप्तः, कचित्तदन्यपर्यायापन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यथाऽत्रैव भावद्वीपपर्यायमनुभवन् साधुः सम्यक्त्वं चेति परस्परमुदाहरणवैषम्यं कथं युक्तिमदिति ?, अत्रोच्यते, वस्तुगत्या तत्पर्यायाधारतया भवनं भाव इतिकृत्वा तत्पर्यायधार्येव वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यत्तु तदन्यद्वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते तत्तद्गत-8nc॥ [भावगत ] गुणारोपादौपचारिकमिति न दोषः, विवक्षाया विचित्रत्वादिति, प्रस्तुते च द्विधा गता लवणोदस्य आपो
seekeeseseseseaeae
अनुक्रम
'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
~ 19~
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].---...............--
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
दीप
यनादि नाम, तन्निक्षेपोऽनुयोगद्वारादिभ्योऽवसेयः, तत्रेह भावाध्ययनादिनाऽधिकारः, नामनिष्पने तु निक्षेपेऽस्य जम्बू-| द्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम, ततो जम्बूशब्दस्य प्रज्ञप्तिशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र जम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभाव9 भेदात् चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामजम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा जम्बूरन्तिमकेवली जम्बा अभिधानं वा, स्थापना
जम्बूर्या जम्यूरिति स्थापना क्रियते यथा चित्रलिखितजम्बूवृक्षादिः, द्रव्यजम्बूद्धिधा-आगमतो नोआगमतच, आग-18 मतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा, तत्राद्यौ भेदी सुप्रतीती, उभयव्यतिरिक्तद्रव्यजम्बूरपि त्रिधा-एकभविकवद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रजन्तुभेदात् , तत्रैकभविको नाम य एकभवान-1॥ न्तरं जम्बूत्वेनोत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन जम्ब्वायुर्वद्धं, अभिमुखनामगोत्रस्तु यस्य जम्ब्वा नामगोत्रकर्मणी अन्तर्मुहनिन्तरमुदयमायास्यत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाइव्यजम्यूरिति, भावजम्बूरपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु जम्बूदुम एव जम्बूदुमनामगोत्रकर्मणी वेदयन्निति, आह-यथा | | अभिमुखजम्बूभावस्य जीवस्य द्रव्यजम्बूत्वं 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् तथा आसन्नपश्चात्कृतजम्बूभावस्यापि 'भूतपूर्वकस्तबदुपचार' इति न्यायात् कथं न द्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टं १, उच्यते, इदमुपलक्षणं, तेन तखापि न्यनिक्षेप एवान्तर्भावः 'भूतस्य भाविनो'त्यादिद्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् , अनानिर्देशकारणं तु श्रीउत्तराध्ययनद्रुमपत्रीयाध्ययननिर्युक्तौ श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः द्रुमनिक्षेपेऽविवक्षणं, तत्तुल्यन्यायवादस्य निक्षेपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो भावज
अनुक्रम
'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
~ 20~
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१]
दीप
अनुक्रम
[8]
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥९॥
Jan Ebeitin
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
-
धा-प्रशस्ताप्रशस्तभावमज्ञतिभेदात्, तत्राप्रशस्तभावप्रज्ञप्तिर्यथा ब्राह्मण्याः स्वसुताः प्रति जामातृभावनिवेदनं, प्रशस्तभावप्रज्ञसिरियमेव अर्थतोऽर्हतां गणधरान् सूत्रतो गणधराणां स्वशिष्यान् प्रति, उक्तावोधनामनिष्पक्ष निक्षेपौ, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पक्षः, स चावसरप्राप्तोऽपि न निक्षिप्यते, तस्य सूत्रपदाविनाभावित्वात्, सूत्रं च सूत्रानुगमे समयप्राप्तं भवति, ततो लाघवार्थ सूत्रानुगमसमय एव निक्षेप्यते, निक्षेपसाम्यमात्रत्वाच्चोपदर्शनं, अथानुगमो व्याख्यानरूपः, स च | द्विधा - नियुक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च तत्र आद्यस्त्रिधा - निक्षेपनिर्युक्तिउपोद्घातनिर्युक्ति सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमभेदात्, तत्र निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमो जम्ब्वादिशब्दानां निक्षेपप्रतिपादनादनुगत एव) उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु 'उसे निहेसे अ' | इत्यादिगाथाद्वयादवसेयः, सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगमस्तु संहितादौ षड्विधे व्याख्यालक्षणे पदार्थपदविग्रह चालनाप्रत्यवस्थानलक्षणव्याख्यानभेदचतुष्टयस्वरूपः, स च सूत्रानुगमे संहितापदलक्षणव्याख्यानभेदद्वयलक्षणे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगम एवोच्यते, तत्र चाल्पग्रन्थं महार्थं द्वात्रिंशद्दोषविरहितमष्टगुणोपेतं स्खलितादिदोषवर्जितं सूत्रमुचारणीयं तच्चेदम्, -
ॐॐॐ नमः ॥ णमो अरिहंताणं ते णं काळेणं ते णं समए णं मिहिला णामं णयरी होत्या, रिद्धत्थिमियसमिद्धा वण्णओ, तीसे जं महिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरछिमे दिसीभाए एत्य णं माणिभद्दे णामं बेहए होत्या, वण्णओ। जियसत्तु राया, धारिणी देवी, वण्णम । ते णं काले णं ते णं समय णं सामी समोसढो, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पचिगया ( सू० १)
'जम्बू द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप आदेः कथनं
Fur Fate &PO
अत्र प्रथम वक्षस्कार: आरभ्यते
~ 21~
Ratatata
प्रस्तावना.
॥ ९ ॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(१)
णमो अरिहंताण'मित्यादि, अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेण, तत्रास्खलितसूत्रपाठः संहिता, सूत्रे चास्खलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो व्याख्याभेदाः प्रवर्तन्त इति, तत्र पदानि नमः अहन्यः इति, एवं पदकरणे सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपावसरः, तत्र नमस्कारस्य नामादिभिश्चतुर्दा निक्षेपः, तत्र नामनमस्कारो नम इत्यभिधानं, स्थापनानमस्कारो नमस्कारकरणप्रवृत्तख संकोचितकरचरणस्य काठपुस्तचित्रादिगतः साध्वादेराकारः, द्रव्यनमस्कार आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतस्तदर्थ|ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतो शरीरभव्यशरीरनमस्कारौ प्रतीतो, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यनमस्कारो निह-18 वादीनां, तेषां मिथ्याष्टित्वेनाप्रधानत्वात् , सम्यग्दृष्टेरप्यनुपयुक्ततया नमस्कुर्वतो द्रव्यनमस्कारः, राजादेव्यार्थ वा नमस्करणं तस्यैव वा भयादिना द्रमकादेमस्करणं बलवन्नरपुरुषाक्रान्तस्य धनुरादेवीभावो वा द्रव्यनमस्कारः, भाव-18 नमस्कारोऽपि आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतस्तदर्थज्ञातोपयुक्तो, यदा तु मनसोपयुक्तो वचनेन नमोऽहंध इति ।
ब्रुवाणः कायेन तु सङ्कोचितकरचरणो नमस्कारं करोति तदा नोआगमतो भावनमस्कारः, अनेन चानाधिकारः, अथ ॥ अर्हन-जिनः सोऽपि नामादिभेदैश्चतुर्की, ते च नामादयो भेदाः-"नामजिणा जिणनामा ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ । दवजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥" अनया गाथया अवगन्तव्याः, अत्र प्रकारान्तरे-|
नामजिना जिननामानि स्थापनाजिना जिनेन्द्रप्रतिमाः पुनः । द्रव्यजिना जिनजीचा भावजिनाः समवसरणस्थाः ॥ १॥
दीप
अनुक्रम [१]
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:
~ 22~
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्यूद्वीपशा
सूत्रांक
या प्रतिः
णापि निक्षेपः सम्भवति परं स विस्तरभयानोपदयते, एवमन्येष्वपि सूत्रालापकेषु स्वधिया यथासम्भवं निक्षेपः कार्यनमस्कार॥ इति । उक्तः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः, पदार्थः पुनरेवं-नम इति नैपातिकं पदं द्रव्यभावसंकोचार्थ, आह च-नेवाइयं ।
|निक्षेपाः न्तिचन्द्री- पर्य दवभावसंकोयण पयत्यो" नमः-करचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भववित्यर्थः, केभ्य इत्याह-'अर्हच्या
अमरवरविनिर्मिताशोकायष्टमहापातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, इह च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् , अवल द्रव्यसङ्कोचनं करशिरपादादिसङ्कोचः, भावसकोचनं तु विशुद्धस्य मनसोऽहंदादिगुणेषु निवेशः, तत्र च भङ्गचतुष्कद्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोचो यथा पालकादीनाम् १ भावसङ्कोचो न द्रव्यसङ्कोचो यथाऽनुत्तरसुरादीनां २ द्रव्यसकोचो |भावसङ्कोचश्च यथा शाम्बस्य ३ न द्रव्यसङ्कोचो न भावसकोच इति भङ्गः शून्यः ४, इह च तृतीयभङ्गस्योपयोगः, भाव| सङ्कोचप्रधानद्रव्यसङ्कोचरूपत्वात् प्रस्तुतनमस्कारस्य, अनेन च मङ्गलान्तरस्य फलव्यभिचारित्वेनानकान्तिकत्वाचदपहाय तदन्यस्वरूपतयाऽवश्यं भावेनाभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वादत्यन्तोपादेयं परमेष्ठिनमस्कारलक्षणं भावमङ्गलमुपात, सत्स्वपि तपःप्रभृतिवन्यभावमङ्गलेषु यदस्योपादानं तत् शास्त्रादावस्यैव व्यवहारप्राप्तत्वमिति ज्ञापनार्थ, अत्र च बहु
वचनं व्याप्त्यर्थ, तेन सकलनिक्षेपगतजिनपरिग्रहः । अथ पदविग्रहः, स च समस्तपदे सति सम्भवतीत्यत्र नोकः। ॥ अथ चालनाप्रत्यवस्थाने-नन्वहतां परममङ्गलत्वेन नमस्काराभिधानतोऽप्यादौ तदुपादानमुचितमिति, सत्यं, स्वयं मङ्ग
१ नेपातिक पदं । द्रव्यभावसंकोचः पदार्थः ।
129292020030389209020200000
ceedeesesekeseaee
दीप
अनुक्रम [१]
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:, नया:
~ 23~
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(१)
aaeeseccessettes
लभूता अप्यहन्तः परेषां नमनस्तवनादिनैवाभीष्टफलदा भवन्तीति ज्ञापनायाहयोऽपि नमस्कारस्थादावुपन्यास इति, किच-'अरिहंताण'मित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनेनापि सर्वाहतां ग्रहणे सिद्धे बहुवचनेन नामस्थापनाद्रव्यभावार्हतां चतुर्णामपि तुल्यकक्षतया नमस्कार्यत्वस्य ज्ञापितत्वादेकान्ततः स्वमतप्राधान्यवादितया परस्परं विवदमानेषु नामनयादिषु प्रथमतः स्वोत्प्रेक्षितयुक्त्युपदर्शनपुरस्सरं नामनयः प्राह-तथा च प्रयोगः-वस्तुस्वरूपं नाम, तत्प्रत्ययहेतुत्वात् , स्वधर्मवत् , इह यद्यस्य प्रत्ययहेतुस्तत्तस्य धर्मों यथा घटस्य स्वधर्मरूपा घटादयः, यद्यस्य धर्मों न भवति न तत्तस्य | प्रत्ययहेतुः, यथा घटस्य धर्माः पटस्य, सम्पद्यते च घटाभिधानाद् घटे सम्प्रत्ययः, तस्मात्तत्तस्य धर्म इति, सिद्धश्च
हेतुर्घटशब्दात् पटादिब्यावृत्त्या घटप्रतिपत्तेः प्रतीतत्वात् , किञ्च-लक्ष्यलक्षणसंव्यवहाराणामात्मलाभो नामायत्त एव, | तत्र लक्ष्य जीवत्वादि लक्षणमुपयोगः संव्यवहारः प्रेपणाध्येषणादिरिति, तथा यदि नानो वस्तुधर्मत्वं नाभ्युपगम्यते तदा 10 संशयादयोऽपि (दय एव) भवेयुः, यदुक्तम्-"संसयविवज्जओ वाऽणज्झवसाओऽहवा जहिच्छाए। होजऽत्थे पडिवत्ती न |
वत्थुधम्मो जया नामं ॥१॥" अत्र व्याख्यालेश:-केनचिद् घटशब्दे समुच्चारिते श्रोतुः किमयमाहेत्येवं संशयः अथवा
पटप्रतिपत्तिलक्षणो विपर्ययः अथवा न जाने किमप्यनेनोक्तमिति वस्त्वप्रतिपत्तिरूपोऽनध्यवसायः यदिवा यहच्छयाऽर्थे | 8 प्रतिपत्ति:-कदाचिद् घटस्य कदाचित्पटस्वेत्यादि, ततोऽवश्य वस्तुधर्मो नामाभ्युपगन्तव्यमित्यादि, तदेवं नामनयेन XI पंचयो विपर्ययो वाऽनभ्यवसायोज्यवा यदृच्छया। भवेद प्रतिपत्तिर्म वस्तुपमा यदा नाम ॥१॥
दीप
ERESectioessertselesesesesercen
अनुक्रम
न्य
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:, नया:
~ 24 ~
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
चतुर्क
सूत्रांक
११
दीप अनुक्रम [१]
| स्वमते व्यवस्थापिते स्थापनानयः प्राह-नानो वस्तुसंज्ञामात्ररूपस्य वाच्यवाचकभावसम्बन्धमात्रेणैव स्थितत्वाद्वस्तुनोऽति-18 निक्षेपद्वीपशा
॥४||दूरत्वं स्थापनायास्तु वस्तुसंस्थानरूपायास्तादात्म्यसम्बन्धेनार्वस्थितत्वाद्भावप्रत्यासमत्वं, किश-देशान्तरकालान्सरविप्रकृ-18 न्तिचन्द्री
टमपि वस्तु स्थाप्यप्रतिमादी सन्निदधाति अन्यथा मन्त्रागमे सन्निधापन्यादिमुद्रामरूपणानां नैष्फस्यप्रसङ्गा, यवाच या चिः
स्थापनेन्द्रः शचीकुलिशादिसाचिव्येन निर्विलम्ब तदेकतानानां भावधियं जनयति न तथा नामेन्द्रः, तस्यानाकारत्वात् , तस्मात् स्थापनैव प्रधानाऽस्तु, स्थापनानयेनैवमुक्के द्रव्यनयः स्वाशयमाविर्भावयति-को हि नाम स्थापनानयस्याकारग्रहो? यस्मादनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाधारस्य मृदादिद्रव्यस्य पूर्वपर्यायमात्रतिरोभावेऽग्रेतनपर्यायमात्राविर्भावल-18 क्षणपरिणामव्यतिरेकेण नान्यत् किमयाकारदर्शनं, किन्तूत्पादव्ययरहितं उत्फणविफणकुण्डलिताकारसमन्वितसर्प-101 द्रव्यवनिर्विकारं द्रव्यमेवास्ति, न ह्यत्र किमप्यपूर्वमुत्पद्यमानं वा विनश्यति (वा) येन विकारः स्यात् , ननु कथमुत्पादा-1 |दिरहितं द्रव्यं ?, यावता सादिके द्रव्ये उत्फणविफणादयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्तमानाश्च साक्षादेव दृश्यन्ते इति चेत्, न, आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामस्य कारणं द्रव्यं, यथा सर्प उत्फणविफणावस्थयोरिति, न बापूर्व
किश्चिदुत्पद्यते, किं तर्हि ?, छन्नरूपतया विद्यमानमेवाविर्भवति, नाप्याविर्भूतं सद् विनश्यति, किन्तु छन्नरूपतया तिरो[ भावमानमेवासादयति, एवच सत्याविर्भावतिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्कारण(त्व)मस्यौपचारिकमेव, तस्मादुत्पादा-18
दिरहितं द्रव्यमुच्यत इति, ननु योकस्वभाव निर्विकारं द्रव्यं तनन्तकालभाविनामनन्तानामष्याविर्भावतिरोभावा
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः, नया:
~ 25~
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -------..-...----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(१)
नामेकहेलयैव कारणं किमिति न भवतीति ?, उच्यते, अचिन्त्यस्वभाव हि द्रव्यं, तेनैकस्वभावस्थापि तस्य क्रमेणैवाविर्भावतिरोभावमात्रप्रवृतिः सादिद्रव्येष्वकस्वभावेष्वप्युत्फणविफणादिपर्यायाणां क्रमवृत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति, ननु यद्येवमुत्फणविफणादिबहुरूपत्वात् पूर्वावस्थापरित्यागेन चोत्तरावस्थाधिष्ठानादनित्यता द्रव्यस्य किमिति न भवति P.M उच्यते, वेषान्तरापन्ननटवद् बहुरूपमपि द्रव्यं नित्यमेव, न हि नटो वेषान्तराणि कुर्वाणोऽप्यनित्यो भवति, तस्य स्वयमविकारित्वादिति द्रव्यमेव प्रधानमिति । एवं द्रव्यनयन स्वमते व्यवस्थापिते भावनयः प्राह-भावेभ्यः पर्याया
रनामभ्योऽर्थान्तरभूतं किमपि द्रव्यं नास्ति, किन्तु भाव एव यदिदं दृश्यते त्रिभुवने वस्तुनिकुरम्बमिति, यतः प्रसि-४ शक्षणं भवेनमेवानुभूयते, किमुक्तं भवति :-भावस्यैकस्यापत्तिः परस्य तु विपत्तिः, न च भावापत्तिविपत्ती हेत्वपेशे, या
हेतुः स एव द्रव्यमिति वाच्यं, न हि भावो घटादिरुत्पद्यमानो भावान्तरं मृत्पिण्डादिकमपेक्षते किन्तु निरपेक्षमेवोत्थ॥॥ यते, अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव भवति, न च मृत्पिण्डादिकारणकाले घटादि कार्यमस्ति, अविद्यमानस्य चापेक्षायां ||
खरविषाणस्यापि तथाभावप्रसङ्गात्, यदिचोत्पत्तिक्षणात् प्रागपि घटादिरस्ति, तर्हि किं मृत्पिण्डाद्यपेक्षया, तख स्वत एव विद्यमानत्वात् , अथोत्पन्नः सन् घटादिः पश्चात् मृत्पिण्डादिकमपेक्षते, हन्त ! तदिदं मुण्डितशिरसी विनशुद्धिप-18 योलोचन, यदि हि स्वत एष कथमपि निष्पनी घटादिः किं तस्य पश्चात् मृत्पिण्डायपेक्षयेति, तथा विनाशोऽपि का निर्हेतुक एष, मुद्रोपनिपातादिसव्यपेक्षा एघ पटादयो विनाशमाविशन्तो दृश्यन्ते च हि निर्हेतुका इति चेत्, नैव, विका
दीप
अनुक्रम
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:, नया:
~26~
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१]
दीप
अनुक्रम
[8]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥ १२ ॥
| शहेतोरयोगात्, तथाहि-मुङ्गरादिना विनाशकाले किं घटादिरेव क्रियते आहोश्वित्कपालादय उत तुच्छरूपोऽभाव इति त्रयी गतिः १, तत्र न तावद् घटादिस्तस्य स्वहेतुभूतकुलालादिसामग्रीत एवोत्पत्तेः, नापि कपालादयस्तत्करणे | घटादेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात् न ह्यम्यकरणे अन्यस्य निवृत्तिर्युक्तिमती, एकनिवृत्तौ शेषभुवनत्रयस्यापि निवृत्तिप्रसङ्गात्, नापि तुच्छरूपोऽभावः, खरशृङ्गस्येव नीरूपस्य तस्य कर्त्तुमशक्यत्वात् करणे वा घटादेस्तदवस्थताप्रसङ्गाद्, | अम्यकरणेऽन्यनिवृत्त्यसम्भवादिति विनाशे मुद्गरादिकं सहकारिकारणमेव न तु तज्जनकं घटादिस्तु क्षणिकत्वेन निर्हे| तुकः स्वयमेव निवर्त्तते तस्माजन्मविनाशयोर्न किञ्चित्केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाच न किञ्चित्कस्यचित्कारणं, तथा च सति न किञ्चिद्रव्यं, किन्तु पूर्वापरीभूताः परापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्तीति । अत्र नामादिनयाधिकारे | बहु वक्तव्यं तत्तु विशेषावश्यकादवसेयमिति, एवमसम्पूणार्थमाहित्वाद् गजगात्रभिन्न २ देशसंस्पर्शने बहुविधविवाद - | मुखरजात्यन्धवृन्दवद्विवदमाने नयवृन्दे मिथ्यादृष्टित्वमुद्भाव्य तत्तिरस्करणाय सर्वनयसमूहात्मकस्याद्वाद सुधारसास्वादरसिकतामनुभवतामयमुङ्गारः, तथाहि लोके यत्किमपि घटपटादिकं वस्त्वस्ति तत् सर्वमन्योऽन्यसापेक्षनामादिचतु|ष्ट्यात्मकं न पुनः केवलनाममयं वा केवलाकाररूपं वा केवलद्रव्यताश्लिष्टं वा केवलभावात्मकं वा, यतः एकस्मिन्नपि | शचीपत्यादौ इन्द्र इति नाम तदाकारस्तु स्थापना उत्तरावस्थाकारणत्वं तु द्रव्यत्वं दिव्यरूपसम्पत्ति कुलिशधारणपरमैश्वर्यादिसम्पन्नत्वं तु भाव इति नामादिचतुष्टयमपि प्रतीयते एतदर्थसंवादका उत्तराध्ययनवृहद्वृत्त्युक्ताः श्लोका अपि
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः, नया:
Fur Ervate & Pune Cy
~ 27~
निक्षेपचतुष्कं
॥ १२ ॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(१)
दीप
यथा-"संविनिष्ठव सर्वापि, विषयाणां व्यवस्थितिः । संवेदनश्च नामादिविकलं नानुभूयते ॥१॥ तथाहि-पटोऽयमिति
नामैतत् , पृथुबुभादि चाकृतिः। मृद्रव्यं भवनं भाषो, घटे दृष्ट चतुष्टयम् ॥२॥ तत्रापि नाम नाकारमाकारो नाम नो विना। IS ती विना नाम नान्योऽन्यमुत्तरावपि संस्थिती॥ ३॥ मयूराण्डरसे यद्ववर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योऽन्यमु-11 |म्मिश्रास्तद्वनामादयो घटे ॥४॥” इति, तदेवं सर्व वस्तु नामादिचतुष्टयात्मकमेव, तेनात्र नामस्थापनाद्रव्यभावान्त-11 श्चत्वारोऽपि नमस्कार्या एवेत्यागतमिति । अत्र कश्चिदग्राह्यनामधेयो भक्षितलशुनपिशुनभूतमुद्गिरति-भवतु नाम ||
वाच्यवाचकभावसम्बन्धेन भावसन्निहितत्वान्नानो नमस्कार्यत्वं, स्थापनायास्तु भावविप्रकृष्टत्वेन तत्कथमिति चेत्, 1 उच्यते, तस्या अपि जिनयुक्त्पादकत्वादिभिर्हेतुभिः सुतरां भावासन्नत्वान्नमस्कार्यत्वमुपपक्षमिति मा मुग्ध मुधाऽनन्त-18 रातीकृदनुज्ञातस्थापनाऽपलापपापपशिलतां कलय, कलयसि न किं स्थापनाद्रोणाचार्यसम्यग्विनयोपनां जगदतिशा-||
यिनीमर्जुनसन्तर्जनी धनुर्वेदसिद्धिं, तथा च प्रतिक्रमणादी बन्दनकप्रदाने रजोहरणादिक गुरुचरणतया व्यपदिशसि || || स्थापनानिक्षेपं चापलपसि अहो वदव्याघातस्तव, अपिच-चित्रापितनिजजनकवदनमुपानयां प्रहरते नराय कुप्यसि || |चित्रन्यस्तकुम्भस्तनीं निध्यायन हप्यसि मिथ्यावादं कुर्वस्तथापि न तृप्यसि, किमपराद्धं तष पुरुषधुरन्धरस्थापनया
तथा वदामि सुहावन-भावकारणतया द्रव्यमपि स्वीकुरु नमस्कार्यतया, अन्यथा पद्मनाभादीन् द्रव्यजिनान् नम स्कुर्वतः च्यनृपं च भावी राजेतिबुध्या उपचरतश्च तवार्धनारीश्वरवेषविडम्बना समापतिता, तेन त्यज टिभिमान
अनुक्रम
'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः, नया:
~ 28~
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[?]
दीप
अनुक्रम
[8]
वक्षस्कार [१],
मूलं [१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ १३ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Ebeni
भज श्रीजिनाशा सबहुमानं, ततस्तवापि युक्तियुक्तं सर्वेषामईनिक्षेपाणां नमस्कार्यत्वमित्य प्रसङ्गेन, अथ प्रकृतं प्रस्तु मः, उक्तः सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमः, तदेवं मङ्गलसूत्रमधिकृत्य सूत्रानुगमसूत्रालापकनिक्षेपसूत्रस्पर्श कमिर्युतवनुगमनया उपदर्शिताः, एवं प्रतिसूत्रं स्वयमनुसरणीयं । अथ यस्यां नगर्या यस्मिनुधाने वथा भगवान् गौतमस्वामी भगवतः श्रीमन्महावीरस्यान्ते पृष्टवान् यथा च तस्मै भगवान् व्यागृणाति स्म तथोपोद्घातमुपदिदर्शविकरिदमाह- 'तेणं' ति, अस्य व्याख्या ते इति प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, अस्थायमर्थो-वदा भगवान् विहरति स्म तस्मिन्निति | 'काले' वर्त्तमानावसर्पिणीचतुर्थारकविभागरूपे, उभयत्रापि णमिति वाक्यालङ्कारे, अथवा सप्तम्यर्थे तृतीया आर्यत्वात्, बदाहुः श्रीहेमसूरिपादाः, स्वप्राकृतलक्षणे- “आयें तृतीयापि दृश्यते-तेणं कालेणं तेणं समपर्ण, तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः, (सि० ८-३-१३७)” 'तेणं समएणं' ति समयोऽवसरवाची, तथाच लोके वक्तारो - नाद्याप्येतस्य समयो वर्त्तते, नास्त्यस्यावसर इत्यर्थः तस्मिन्निति यस्मिन् समये भगवान् प्रस्तुतां जम्बूद्वीपवकव्वतामचकथत् तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभवत्, नन्विदानीमपि सा नगरी वर्त्तते ततः कथमुक्तमभवदिति १, उच्यते, वक्ष्यमा| जवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमेता तदैवाभवत् नतु विवक्षितप्रकरणकर्तुः प्रकरणविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति चेत्, उच्यते, अयं चावसर्पिणीकालः, अस्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्ति एतच सुप्रतीतं जिनप्रवचनवेदिनामतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधभाक् सम्प्रति अस्या नगर्यां वर्णकमाह-'रिद्धत्थिमियसमिद्धत्ति का भवनैः
For Free & Use Oy
~ 29~
प्रस्तावना.
॥ १३ ॥
janataryar
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
-- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(१)
पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपागता, 'ऋधुच् वृद्धा वितिवचनात् , स्तिमिता-स्वचक्रपरचक्रादिसमुत्थभयकलोलमालावर्जिता, समृद्धा-धनधाम्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'वेण्णओ'त्ति ऋद्धसिमितसमजा इत्यादि जोपपातिकोपाङ्गप्रसिद्धः समस्तोऽपि वर्णको द्रष्टव्यः, (उ० सू०१) अत्रालिखनं तु अन्धगौरवमयादिति । तस्याः गमिति | पूर्ववत् , मिथिलाया नगर्या बहिस्तात् उत्तरपौरस्त्वे-उत्तरापूर्वान्तरालरूपे दिग्भाग ईशानकोण इत्यर्थः, अत्र एकारो 18 मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः, यथा-'कयरे आगच्छइ दित्तरूवें' (उत्त०१२-६) इत्यादौ, 'अब' अस्मिनु||त्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रं नाम चैत्यमभवत् , चिते:-लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म या चैत्य, तच संज्ञाशब्द|| त्वाद्देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्यमुच्यते, तचेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, न तु भगवतामहतामायतनं, तस्य च चिरातीतमित्यादिवर्णकस्तत्परिक्षेपिवनखण्डवर्णकसहित औपपातिकतोऽयसेवा, (उ० सू०२) तस्यां मिथिलायां नगर्या जितशत्रुर्नाम राजा, तस्य सकलखीगुणधारिणी धारिणी नामा देवी, कृताभिपेका पट्टराज्ञी इत्यर्थः, उभयत्राप्यभवदिति शेषः, 'वण्णओ'त्ति अत्र राज्ञो 'महयाहिमवन्तमहन्ते'त्यादिको राश्याश्च 'सुकुमालपाणिपायें'त्यादिको वर्णकः प्रथमोपाङ्गप्रसिद्धोऽभिधातव्यः (७० सू०६-७) अथात्र यज्जातं तदाह-18 'तेणं कालेणं तेणं समएणं'ति पूर्ववत् , स्वामीति समर्थविशेषणं विशेष्यमाक्षिपति तेनात्र श्रीमम्महावीरः समक्सत इत्यर्थः, आत्यन्तिकं स्वामित्वं तस्यैव त्रिभुवनविभोरिति, अत्र च यथा निष्प्रतिमप्रातिहार्यादिसमृख्या समन्वितो
eseeeeeeeee
दीप
अनुक्रम [१]
~ 30 ~
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम
श्रीजन-18| यथा च श्रमणादिपरिवारेण परिवृतः समवसृतः यथा च समवसरणवर्णकं तचापपातिकग्रन्धादवसेय (उ० सू०१०
प्रस्तावना. द्वीपशा- यावत् २६)। पर्षनिर्गता-मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो जनः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा विवन्दिषया स्वस्मात् न्तिचन्द्री- स्वस्मात् आश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, 'तए णं मिहिलाए णयरीए सिंघाडगे'त्यादिकं 'जाव पंजलिउडा पजुवासंती'ति पर्य-IN या वृत्तिः
न्तमीपपातिकगतमवगन्तव्यं (उ० सू०२७)। तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेषजनभाषापरिणामिन्याऽर्द्धमागधभाषया । ॥१४॥ धर्मः कथितः, स चैवं-"अस्थि लोए अस्थि अलोए अत्थि जीवा अत्थि अजीवा" इत्यादि, तथा-"जह जीवा बझंती ||
मुचंती जय संकिलिस्संति । जह दुक्खाण अंतं करेंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अट्टदुहट्टियचित्ता जह जीवा दुक्स-IM सागरमुषिति । जह वेरग्गमुधगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति ॥२॥ जह रागेण कढाणं कम्माणं पापओ फलविवागो । ||जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥३॥ तहा आइक्वति"त्ति (उ० सू०३४)। पर्षत् प्रतिगता
स्वस्थानं गता, प्रतिगमनसूवमपि 'तए णं सा महइमहल्लिया परिसा' इत्यादि तामेव दिसं पडिगया' इति पर्यन्तं तत |एवोपाकादवगन्तव्यमिति ( उ० सू०३५-३६-३७) । अथ पर्षत्प्रतिगमनानन्तरं यज्जातं तदाह
तेणं कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेडे अंतेवासी इंदभूई णाम अणगारे गोअमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणे ज्ञाव [ तिखुत्तो आयादिणं पयाहिणं करेइ बंदइ णमंसइ बंदिचा णमंसित्ता ] एवं पयासी (सू०२) कहि ण भंते | अंबु
M ॥१४॥ । केमहालए णं भंते ! जंबुद्दीवे ! २ किंसंठिए ण भंते ! जंबुद्दीवे ३ किमायारभावपडोयारे ण भंते ! जंबुद्दीचे ४ पण्णते,
eeseseseseaseseeeeesecene
~ 31~
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
गोवमा ! अयण जंबुद्दीवे २ सवदीवसमुदाणं सत्रमंतराए १ सन्नखुड्डाए २ वट्टे तेल्लापूयसठाणसंठिए बट्टे रहचवालसंठाणसंठिए - बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए बढे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए ४ एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खमेणं तिणि जोयणसयसइस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्सेवेणं पण्णत्ते ॥ (सू०३)
तेणं कालेणं'ति तस्मिन् काले-भगवतो धर्मदेशनाव्युपरमकाले तस्मिन् समये-पर्षत्प्रतिगमनावसरे श्राम्यति-तपस्थति नानाविधमिति श्रमणस्तस्य भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः सोऽस्यास्तीति भगवान् तस्य 'शूर वीर विक्रान्ती' वीरयति कपायान् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः महांश्चासी वीरश्च महावीरस्तस्य ज्येष्ठः-प्रथमः अन्तेवासी-शिष्यः, अनेन पदव-11 येन तस्य सकलसहाधिपतित्वमाह, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः 'णामन्ति विभक्तिपरिणामेन नाम्नेत्यर्थः, अन्तेवासी किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह-नास्यागारं-गृहं विद्यत इत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण, गोतमाह्वयगोत्रजात इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि | स्यादिति 'सप्तोत्सेधः' सप्तहस्तप्रमाणकायोच्छायः, मयूरव्यंसकादित्वात् मध्यपदलोपः सहस्रार्जुनशब्दवत्, अयं च 8
लक्षणहीनोऽपि स्यादिति 'समचतुरस्रः समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽश्रयः-चतुर्दिग्विभागो-3 18पलक्षिताः शरीरावयवा यस्य स तथा, अन्ये त्वाः-समा अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यश्रयो यस्येति पूर्ववत्, अन्नयश्च
10s000809209999
Taaree929202992000090925203
श्रमण, भगवन, महावीर, अनगार आदि शब्दस्य अर्थाः
~ 32~
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
श्रीजम्॥४॥ पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य जानुनश्चान्तरं वामस्कन्धखरगौतमवर्णन न्तिचन्द्री
॥8 दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति, यावच्छन्दादिदमवसेयं-बजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे ओराया वृत्तिः
|ले घोरे पोरगुणे पोरतबस्सी पोरबंभचेरवासी उच्छदसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चउदसपुवी चउणाणोवगए सब-16
क्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे शाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं है • ॥१५॥ भावमाणे विहरइ। तए ण से भगवं गोअमे जायसहे जायसंसए जायकोऊहले उप्पण्णसहे ३ संजायसहे। समुप्पण्णसहे ॥४॥
8३ उहाए उहेइ २ चा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं
पयाहिण करेइ २त्ता वंदह नमसइ वंदित्ता नमसित्ता पच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंज|लिउडे पज्जुवासमाणे एवं बयासी' अत्र व्याख्या-अनन्तरोक्तविशेषणो हीनसंहननोऽपि स्यादत आह-'वज'चि, वज्र
भनाराचसंहननः, तत्र नाराचम्-उभयतो मर्कटबन्धः ऋषभः-तदुपरि वेष्टनपट्टः कीलिंका-अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, अयं च निन्द्यवर्णोऽपि स्यादत आह-कणग'त्ति कनकस्य-सुवर्णस्य पुलकोलवस्तस्य यो निकष:-कपपट्टके रेखारूपः तद्वत्, तथा 'पम्ह'त्ति अवयवे समुदायोपचारात् पद्मशब्देन परकेसरा-18 एण्युच्यन्ते तद्वद गौर इति, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्यादत आह-उम्रम्-अप्रधृष्यं तपा-अनशनादि यस्य स ||
तथा, यदन्येन चिन्तितुमपि न शक्यते तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीर्घ-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मकनग
9928930050000
Simillenni
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं- मूलं एवं परिभाषा सहितं
~ 33~
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
| हनदहनसमर्थतया चलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, तथा तसं तपो येन स तथा, एवं हि तेन तप्तं तपो येन सर्वाण्यशुमानि कर्माणि भस्मसात्कृतानीति, तथा महत्-प्रशस्तमासादिदोषरहित्त्वात् तपो यस्य स तथा, तथा चदार:प्रधानः, अथवा 'ओरालो' भीष्मः, उग्रादि विशेषणविशिष्टतपःकरणतः पार्थस्थानामल्यसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरो-निर्पणः, परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमाश्रित्य निर्देय इत्यर्थः, अन्ये तु आत्मनिरपेक्ष घोरमाहुः, तथा| घोरा-इतरैर्दुरनुचरा गुणा:-मूलगुणादयो यस्य स तथा, तथा घोरस्तपोभिस्तपस्वी, तथा घोरं-दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् यद् ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढ-उज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स तथा, सङ्क्षिधा-शरीरान्तर्गतत्वेन इस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्याविशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य स तथा, तेन तेषां रचि-8
तत्वात् , अनेन तस्य श्रुतकेवेलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-'चतुर्ज्ञानोपगतः' मतिश्रुतावधि18| मनःपर्यायरूपज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः, उक्तविशेषणद्वयकलितोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति,
चतुर्दशपूर्वविदां पटूस्थानपतितत्वेन श्रवणात् , अत आह-सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताच-अक्षरसंयोगास्ते ज्ञेयतया सन्ति 18| यस्य स तथा, किमुक्तं भवति !-या काचिजगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि जानाति, 1. अथवा श्रव्याणि-श्रुतिसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति स तथा, एवंगुणविशिष्टो भगवान्
secticeseseedeeoecedeceae
दीप अनुक्रम [२,३]
Jistilenni
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं- मूलं एवं परिभाषा सहितं
~ 34~
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
& विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्तेन विहरतीति योगः, तत्र | द्वीपशा-
दूर-विप्रकृष्टं सामन्त-सनिकृष्टं तत्प्रतिषेधाद् अदूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविधः सन् तत्र विह
दूर-विमर. न्तिचन्द्री- रतीति ?-ऊर्ध्व जानुनी यस्य स तथा, शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कटुकासन इत्यर्थः, अधःया वृत्तिः
शिरा-नोखं तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरित्यर्थः, ध्यानं धर्म शुक्ल वा तदेव कोष्ठः-कुशूलो ॥१६॥ ध्यानकोष्ठस्तमुपागतः, यथा हि कोष्ठके धान्यं निक्षिप्तमविप्रस्तं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्त:-IM
करणवृत्तिरित्यर्थः, संयमेन-पश्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसा-अनशनादिना चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुप्तो द्रष्टव्यः, MS | संयमतपसोर्ग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्राधान्य च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराण- IST
कर्मनिर्जराहेतुत्वेन, भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, आत्मान | 'भावयन्' वासयन् 'विहरती'ति तिष्ठतीत्यर्थः, ततो ध्यानकोष्ठोपगततया विहरणादनन्तरं, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 18'से' इति प्रस्तुतपरामर्शार्थः, अनेन गतार्थत्वे यत्पुनर्भगवान् गौतम इत्युपादानं तत्पुनः पुनरुपात पापापनोदकं भग-119
वतो गौतमस्य नामेति सुगृहीतनामधेयत्वमाह, 'जायसहे' इत्यादि, जातश्रद्धादिविशेषणः सन्नुत्तिष्ठतीति योगः, तत्र
जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्य स तथा, तथा जातः संशयो यस्य स तथा, संशयो नामापनवधारितार्थ ज्ञानं, स चैव-तीर्थान्तरीयैर्जम्बूद्वीपवक्तव्यताऽन्यथाऽन्यथोपदिश्यते ततः किं तत्त्वमिति संशयः, तथा|
00000000000000000
coercersesed
JinEleinitinian
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं- मूलं एवं परिभाषा सहितं
~35~
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२,३]
दीप
अनुक्रम
[२,३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [२-३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Joinitio
आतं कुतूहलं यस्य स तथा, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, कथमेनां जम्बूद्वीपवक्तव्यतां सर्वज्ञो भगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति, तथा उत्पन्ना- प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासौ, अथ जातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ?, प्रवृत्तश्रद्धत्वेनैवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, न ह्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्त्तते इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थं, हेतुत्वमदर्शनं व उचितमेव, वाक्यालङ्कारत्वात्तस्य, यथाहुः - "प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम् ।” | इह यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेर्हेतुतयोपन्यस्तमिति सम्यक्, | तथा 'उप्पण्णसंसये उप्पण्णको उहले' इति प्राग्वत्, तथा 'संजांयस' इत्यादिपदषङ्कं प्राग्वत्, नवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो वेदितव्यः, अन्ये त्वाहुः -जातश्रद्धत्वाद्यपेक्षयोत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्था विवक्षितार्थस्य प्रकर्षप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रन्थकृतोताः, न चैवं पुनरुक्तदोषः, यदाह - "वक्ता हर्ष भयादिभिरक्षितमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥” इति उत्थानमुत्था- ऊर्ध्वं वर्त्तनं तथा उत्तिष्ठति - उद्धों भवति, ऊर्हेति पाठान्तरम्, इह 'उट्ठेई'त्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठत इति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तमुत्थयेति, उपागच्छतीत्युत्तरक्रियापेक्षया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालताभिधानायोत्थायेति क्त्वाप्रत्ययेन निद्दिशति, यद्यपि द्वयोः क्रिययोः पूर्वोत्तरनिर्देशाभ्यां पूर्वकाल आक्षेपलभ्य एव तथापि भुञ्जानो व्रजति इत्यादी द्वयोः क्रिययोयाँगपथदर्शनादानन्तर्यसूचनार्थमित्थमुपन्यासः, उत्थान क्रियासव्यपेक्षत्वादुपागमनक्रियाया इति, तथा प्राकृतशैलीवशादव्ययत्वाद्वा 'येने' ति
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं मूलं एवं परिभाषा सहितं
Fur Fate & C
~36~
99229209799299৯•
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२,३]
दीप
अनुक्रम
[२,३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [२-३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥ १७ ॥
यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यं यस्मिन्नेव दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्त्तते 'तेणेवे 'ति तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, | इह वर्तमानकालनिर्देशस्तत्कालापेक्षया उपागमनक्रियाया वर्तमानत्वात् परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्यं उपागम्य व श्रमण भगवन्तं महावीरं कर्मताऽऽपन्नं त्रिकृत्व:- त्रीन् वारान् 'आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति' आदक्षिणाद्-दक्षिणस्तादारभ्य प्रदक्षिण:- परितो भ्राम्यतो दक्षिण एवं आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं करोति, कृत्वा बन्दते-याचा खीति नमस्यति| कायेन प्रणमति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च नैवात्यासश्नः - अति निकटोऽवग्रहपरिहारात्, अथवा नात्यासने स्थावर्त्तमान इति गम्यं, तथा नैवातिदूरे अतिविप्रकृष्टेऽनौचित्यपरिहारात्, अथवा नातिदूरे स्थाने वर्त्तत इति गम्यं, 'शुश्रूषन' भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् अभि-भगवन्तं लक्षीकृत्य मुखमस्येत्यभिमुखः विनयेन प्रकृष्टः-प्रधानो ललाटतटघटितत्वे| नाञ्जलि:- संयुक्त हस्तमुद्राविशेषः कृतो विहितो येन स प्राञ्जलिकृतः, आहितायादेराकृतिगणतया कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पर्युपासीनः' सेवमानः अनेन विशेषण कदम्बकेन च श्रवणविधिर्दर्शितः, यदाह - “निंदाविगहापरिवज्जिपहिं | गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भतिबहुमाणपुर्व उवउत्तेहिं सुणेयां ॥ १ ॥” “एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् - जम्बूद्वीपव कव्यताविषयं प्रश्नमुक्तवान्, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमातृका रूप चतुःप्रश्रीं हृदयाभिसंहितां भगवत्पुरतो वाग्योगेन प्रकटीचकारेत्याशयः । ननु गौतमोऽपि चतुर्द्दशपूर्वधारी सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशलः सूत्रपरिवर्जितनिद्राविकः कृताञ्जलिपुटैः । मचिबहुमानपूर्वमुपयुकैः श्रोतम्यम् ॥ १ ॥
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं मूलं एवं परिभाषा सहितं
Fu P&P Cy
~37 ~
गौतम वर्णनं
॥ १७ ॥
janistoryars
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२,३]
दीप
अनुक्रम [२,३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [२-३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
तश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्तं च- "संखाईएवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छिज्जा । न य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमस्थो ॥ १ ॥” इति कथं तस्य संशयसम्भवः १ तदभावाच कथं पृच्छतीति ?, उच्यते, यद्यपि | भगवान् गौतमो यथोक्तगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि छद्मस्यत्वात् कदाचिदनाभोगोऽपि जायते, यत उक्तम्- "न हि नामानाभोग छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥ १ ॥” ततोऽनाभोगसम्भवादुपप| द्यते भगवतो गौतमस्यापि संशयः, न चैतदनाएँ, यदुक्तमुपासकदशासु आनन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णय विषये - " तेणं भंते । किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोइयवं जाव पडिकमियबं सदाहु मए ?, सओ गं गोञमाह समणे भगवं महावीरे एवं वयासी-गोअमा तुमं चैव णं तस्स ठाणस्स आलोयाहि जाव परिक्रमाहि, आनंद च समणोवासयं एयमहं खामेहि, तए णं समणे भगवं गोअमे समणस्स भगबओ महावीरस्स अंतिए एअमद्धं विणएणं पडिसुणइ २ ता तस्स ठाणस्स आलोपर जाव पडिकमइ, आनंदं च समणोवासयं एअमहं खामेइति, अथवा भगवानपगत संशयोऽपि | स्वकीयबोधसंवादार्थमज्ञलोकबोधनार्थं शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थं पृच्छति, अथवा इत्थमेव सूत्ररचनाक ल्प इति न कश्चिद्विरोधः । किमुक्तवानित्याह- 'कहिं णं' इति क्व-कस्मिन् देशे, 'भंते 'ति गुरोरामन्त्रणं, अत्र एकारो मागभाषाप्रभवः ततक्ष हे भदन्त ! हे सुखकल्याणस्वरूप ! 'भवुङ् सुखकल्याणयो 'रिति वचनात् प्राकृतशैल्या वा भव१ संख्यातीतानपि भवान् कथयति यद्वा परस्तु पृच्छेत्। न वातिशयी विजानीयात् एष उपस्थः ॥ १ ॥
Fur Fate &P Cy
~38~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२,३]
दीप
अनुक्रम
[२,३]
वक्षस्कार [१],
मूलं [२-३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृत्तिः
॥ १८ ॥
Jun Ebenitim
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
स्य-संसारस्य भयस्य वा भीतेरन्तहेतुत्वात् भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! भयान्त ! वां प्राग्वर्णितान्वर्थको जम्बूद्वीपो नाम द्वीपो वर्त्तत इति शेषः, अनेन जम्बूद्वीपस्य स्थानं पृष्टं १, तथा भदन्त ! किंप्रमाणो महानालयः- आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो यस्य स तथा कियत्प्रमाणमस्य महत्त्वमित्यर्थः, एतेन प्रमाणं पृष्टं २, अथ भदन्त ! किं संस्थानं यस्य स तथा एतेन संस्थानं पृष्टं ३, तथा भदन्त ! आकारभाव:- स्वरूपविशेषः कस्याकार भावस्य प्रत्यवतारो यस्य स किमाकारभावप्रत्यवतारः, बहुलग्रहणाद्वै यधिकरण्येऽपि समासः, यद्वा आकारश्च-स्वरूपं भावाश्च-जगतीवर्षवर्षधरायास्तद्गतपदार्था आकारभावास्तेषां प्रत्यवतार:- अवतरणं आविर्भाव इतियावत् आकार भावप्रत्यवतारः क:-- कीदृग् आकारभावप्रत्यवतारो यस्मिन् स तथा अनेन जम्बूद्वीपस्वरूपं तद्गतपदार्थाश्च पृष्टाः ४, इति इन्द्रभूतिना प्रश्नचतुष्टये कृते प्रतिवचःश्रवणसोत्साहताकरणार्थं जगत्प्रसिद्धगोत्राभिधानेन तमामन्त्रय निर्वचनचतुष्टयीं भगवानाह - | गौतमेत्यत्र दीर्घत्वमामन्त्रणप्रभवं तेन हे गौतम! 'अयं यत्र वयं वसामः अनेन समयक्षेत्र बहिर्वर्त्तिनामसङ्ख्येयानां जम्बूद्वीपानां व्यवच्छेदः, जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः, कथम्भूत इत्याह- 'सर्वद्वीपानां धातकीखण्डादीनां 'सर्वसमुद्राणां ' लवणोदादीनां सर्वात्मना - सामस्त्येन अभ्यन्तरः सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्त्ती सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः स्वार्थे कमत्ययः, अभ्यन्तरमात्रं धातकीखण्डेऽपि पुष्करवरद्वीपापेक्षयाऽस्ति अतः सर्वशब्दोपादानमिति, अनेन जम्बूद्वीपस्यावस्थानमुक्तं १, तथा सर्वेभ्योऽपि - शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको लघुः तथाहि सर्वे लवणादयः समुद्राः धातकीखण्डादयश्च
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
Fur Ele&ae Cy
~39~
eseset setstestse
११ वक्षस्कारे जम्बूद्वीपस्थानादिः
॥ १८ ॥
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
दीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणरविष्कम्भायामपरिधयः, ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, अनेन सामान्यतः प्रमाणमभिहितं, विशेषतस्त्वायामादिगतं प्रमाणमने वक्ष्यति, अत्र विशेषप्रमाणमवसरप्राप्तमपि यञ्चोकं तत्सूत्रकाराणां विचित्रा प्रवृत्तिरिति, तथा वृत्तः, सच शुषिरवृत्तोऽपि स्याद् अत आह-'तैलापूपसंस्थानसं|स्थितः' तैलेन पक्कोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पक्कोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक्क इति तैलविशेषणं, तस्येव | यत्संस्थानं तेन संस्थितः, अत्र तैलादित्वाल्लकारस्य द्वित्वं, तथा वृत्तो रथचक्रबालसंस्थानसंस्थितः, रथस्य-अवयवे | समुदायोपचारात् रथाङ्गस्य चक्रस्य चक्रवालं-मण्डलं तस्येव संस्थानेन संस्थितः, अथवा चकवालं-मण्डलं मण्डलत्व-18
धर्मयोगाच रथचक्रमपि रथचक्रवालं शेष प्राग्वत्, एवं वृत्तः 'पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः' पुष्करकर्णिका-पनवी-110 ISजकोशः कमलमध्यभाग इतियावत्, वृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः प्राग्वत् पदद्वयं भावनीर्य, एकेनेव चरितार्थंक-18
त्वेऽपि नानादेशजविनेयानां क्षयोपशमवैचित्र्यात् कस्यचित् किञ्चिद्वोधकमित्युपमापदनानात्वं, अत एव प्रत्युपमापदं | योज्यमानत्वात् वृत्तपदस्य न पौनरुक्त्यशङ्कमऽपि, एतेन संस्थानमुक्तं ३ । अथ सामान्यतः प्रागुक्तं प्रमाणं विशेषतो
निर्वक्तुमाह-एक योजनशतसहस्र, प्रमाणाङ्गलनिष्पन्न योजनलक्षमित्यर्थः 'आयामविष्कम्भेन' अत्र च समाहारद्वन्दA स्तेन क्लीवे एकवद्भावः, आयामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः, अत्राह परः-जम्बूद्वीपस्य योजनलक्षं प्रमाणमुक्तं तच्च पूर्वप|श्चिमयोर्जगतीमूलविष्कम्भसत्कद्वादशद्वादशयोजनक्षेपे चतुर्विशत्यधिकं भवति, तथा(च) यथोकं मान विरुध्यत इति,
recaceeseree
श्रीजम्वू४
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
~ 40~
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२,३]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू- म, जम्मूदीपजगतीविष्कम्भेन सहव लक्षं पूरणीयं, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेन ख्वणसमुद्रलक्षवयं, पपमन्येचपि १ वक्षस्कारे द्वीपशा- द्वीपसमुद्रेषु, अन्यथा समुद्रमानाजगतीमानस्य पृथग्भणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिकः स्यात्, सहि पचचत्वारिष-18 जाम्बूद्वीन्तिचन्द्री-18 या चिः
पक्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते, अयमेवाशयः श्रीमभयदेवसूरिभिः चतुर्थाश्रवृत्ती पश्चपञ्चाशत्तमे समधावे पादुकृतो-18 पापामाः ||नीति, तथा श्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि दे योजनशते सप्तर्षिशे-सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टा-18
दिसू.३ ॥१९॥ विशं-अष्टाविंशत्यधिकं धनुः शतं त्रयोदशालानि अर्धाङ्गलश किश्चिद्विशेषाधिकमिस्खेतावाम् परिक्षेपेण-परिधिना
|| मज्ञप्तः । अत्र सप्तविंशमष्टाविंशमित्यादिकाः शब्दाः 'अधिकं तसंख्यमस्मिन् शतसहने शतिशदशान्ताथा " इति 15 सूत्रेण समस्यये ( श्रीसिद्ध०७-१-१५४ ) सप्तविंशत्यधिकमष्टाविंशत्यधिकमित्यर्थः परिध्यानयनोपायस्त्वयं चूर्णिका-18
रोक:-"विक्वंभवग्गदहगुणकरणी वट्टरस परिरो होइ। विखंभपायगुणिओ परिरओ तस्स गणियपयं ॥१॥"अत्र 5|| व्याख्या-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो-प्यासः, स्थापना यथा १०००००, सद्वर्गः क्रियते तद्गुणो वर्ग' इति वचनालक्ष लोण || | गुण्यते, जातं १००००००००००, स च दशगुणः क्रियते, शून्यानि ११, तदनु 'करणी'ति वर्गमूलमानीयते, सथाहि'विषमात्पदतस्त्यक्त्वा वर्ग स्थानच्युतेन मूलेन । द्विगुणेन भजेच्छेषं लब्धं विनिवेशयेत् पक्याम् ॥ १॥ तद्वर्ग संशो- ॥१९ ॥ ध्य द्विगुणीकुर्वीत पूर्ववल्लब्धम् । उत्सार्य ततो विभजेच्छे द्विगुणीकृतं दलयेत् ॥२॥" इत्यनेन करणेनानीते वर्ग-1 मूले जातोऽधस्तनच्छेदराशिः ६३२४४७, अत्र सप्तकरूपोऽन्त्योऽको न द्विगुणीकृत इति तर्ज शेष सर्वमप्यक्रि
[२,३]
Jimillennition
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
~ 41~
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [२-३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम
यते. लब्धं योजनानि ३१६२२७, छेदराशिश्च सप्तकेऽपि द्विगुणीकृते जातः १५२५५४, उपरि शेषांशाः ४८४४७१,
एते च योजनस्थानीया इति क्रोशानयनार्थ चतुर्भिगुणिताः जाताः १९९७८८४, छेदराशिना भागे सम्ध कोशाः ३,8 SIशेष ४०५२२, धनुरानयनाथ द्विसहवगुणं, जातं ८१०४४०००, छेदराशिना भागे लब्धानि धपि १२८, शेष | 131८९४४८, पण्णवत्यङ्गुलमानत्वानुषोऽङ्गलानयनार्थ षण्णवतिगुणं, जातं ८६२९२५८, छेदेन भागे लब्ध अङ्गुलामि
१३, शेषं ४.७३४६, अत्र 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति म्यायात् यवादिकमप्यानीयते, तथाहि-ते बङ्गुलाशा
अष्टभिर्यवैरङ्गसमिति अभिर्गुण्यन्ते, जाताः ३२५८७६८ छेदः स एव लब्धाः ययाः ५, ततोऽप्यष्टगुणमे यूका-10 पादयः स्पुः, तत्र यूका १, पतत्सर्वमप्य कुलस्य किश्चिद्विशेषाधिकत्वकथनेन सूत्रकारेणापि सामान्यतः संगृहीतमिति || बोभ, गणितपदं तस्करणं च सोदाहरणमने भावयिष्यत इति । अथाकारभाषप्रत्वषतारविषयक प्रश्न निक्तुमाह
से एगाए बरामईए जगईए सबओ समंता संपरिक्खित्ते, सा गं जगई अट्ट जोयणाई उड्डू उच्चत्तेणं मूले बारस जोअणाई विसंभेणं मज्झे अह जोयणाई विसंमेणं सवार चत्वारि जोषणाई विक्संमेण मूले विरिखमा मल्झे संक्खिता सवरि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिचा सन्नवदामई अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा जीरया णिम्मला णिपंका णिककडच्छाया सप्पभा समिरीया सोवा पासादीया परिसणिमा अभिरुवा पहिरूवा, सा णं जगई एगेणं महंचगवक्सकरएणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता, से णं गवक्खकडए अबूजोअणं गं उबत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेयं सवरवणामए अच्छे जाव पडिलवे, तीसे पं जगईए
[२]
Jitensil
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः, आकार-जगति आदेः वर्णनं
~ 42~
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
HAणेनं स.४
सूत्राक
श्रीजम्बू उपि बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महई एगा पउमवरवेझ्या पण्णत्ता, अवजोपर्ण उखु उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं जगईस- १ वक्षस्कारे द्वीपशा- मिया परिक्खेवण सबरवणामई अच्छा जाच पडिरूवा । तीसे णं पउमवरखेड्याए अयमेयारूवे पण्णावासे पण्णत्ते, वंजहा-पइरान्तिचन्द्री
मया णेमा एवं जहा जीवाभिगमे जाव अहो जाव धुवा णियया सासया जाव णिचा।। (सूत्र ४) या वृत्तिः
'से णमिति, सोऽनन्तरोदितायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपः, णमिति पूर्ववत् , 'एकया' एकसंख्यया । ॥२०॥8 अद्वितीयया (वा) 'वज्रमय्या' बजरतात्मिकया 'जगत्या' जम्बूद्वीपमाकाररूपया द्वीपसमुद्रसीमाकारिण्या महानगर-2
प्राकारकल्पया सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षु सम्परिक्षिप्त:-सम्यग्वेष्टितः, प्राकृतत्वाद्दीर्घत्वं वनशब्दस्य, सा जगती अष्ट योजनान्यूोच्चत्वेन, वस्तुनो ह्यनेकधोच्चत्वं ऊर्द्धस्थितस्यैकं अपरं तिर्यस्थितस्य अन्यद् गुणोन्नतिरूपं, तत्रेतरापोहेनोईस्थितस्य यदुश्चत्वं तदूर्वोच्चत्वमित्यागमे रूढमिति, अत्रानुस्वारः प्राकृतत्वात् , मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कम्भमधिकृत्य विस्तीर्णा मध्ये सजिता त्रिभागोनत्वात् उपरि तनुका मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात्, एतदेवोपमया प्रकटयति-गोपुच्छन्त्येव संस्थानं तेन संस्थिता, जीकृतगोपुच्छाकारेति भावः, सर्वात्मना-सामस्त्येन वज्रमयी-वज्ररत्नामिका, दीर्घत्वं च प्राकृतशैलीप्रभवं, 'अच्छा' आकाश
॥२०॥ स्फटिकवदतिस्वच्छा 'सहा' श्लक्ष्णा श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् , 'लहा' मसूणा धुंटितपट-IRI वत्, 'घट्टा' वृष्टा इव घृष्टा खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् , तथा मृष्टा इव मृष्टा सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत्,
Recsesese
४]
दीप
अनुक्रम [४]
आकार-जगति आदेः वर्णनं
~ 43~
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
शतया 'नीरजा' सहजरजोरहिता, तथा निर्मला' आगन्तुकमलरहिता, तथा 'निष्पका' 'कलविकला कईमरहिता बा.|| तथा निष्कन्कटा-निष्कवचा निरावरणा छाया-दीतिर्यस्याः सा तथा, सप्रभा-स्वरूपतः प्रभावती अथवा खेन
आत्मना प्रभाति-शोभते प्रकाशते वेति स्वप्रभा, तथा समरीचिका-सकिरणा वस्तुस्तोमप्रकाशकरी इत्यर्थः, तथा 18 प्रसादाय-मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःमहादकारिणीति भावः, तथा 'दर्शनीया' दर्शनयोग्या यां
पश्यतश्चक्षुषी श्रमं न गच्छत इति, तथा 'अभिरुवा' अमि-सर्वेषां द्रष्टुणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं यस्याः सा, अत्यन्तकमनीया इति भावः, अत एव प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा तथा, अथ अत्र सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचयितणामधिकार्थजिज्ञापयिषया जगत्या इष्टस्थाने विस्ता
रानयनोपायः प्रदर्यते, तत्र मूले मध्ये उपरि च विष्कम्भपरिमाणं साक्षादेव सूत्रे उभ्यते, अपान्तराले उपरिष्टा1 दधोगमनेऽयमुपाय:-जगतीशिखरादधो यावदुत्तीर्ण तस्मिन्नेकेन भक्के सति यल्लन्ध तच्चतुर्भिर्युतमिष्टस्थाने विस्तारः, | तथाहि-उपरितनभागाद्योजनमेकं गव्यूताधिकमवतीर्ण ततोऽस्य राशेः एकेन भागे हुते लब्धमेकं योजनं गव्यूता
धिकं, तच्च योजनचतुष्कयुतं क्रियते, जातानि पञ्च योजनानि गन्यूताधिकानि, एतावांस्तत्र प्रदेशे विष्कम्भः, एवं ॥ सर्वत्र भाव्यं, सम्पति मूलादूर्द्धगमने विस्तारानयनोपायः-मूलादूगमने यावदूई गतं तस्यैकेन भागे हते यल्लब्ध ॥ तस्मिन्मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं स तत्र योजनादावतिक्रान्ते विस्तार:, तद्यथा-मूलावुत्पत्य योजनमेकं गन्यूतद
दीप
अनुक्रम
आकार-जगति आदेः वर्णनं
~44~
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
द्वीप
सूत्राक
श्रीजम्याधिक गतस्ततो योजनस्य गम्यूतद्वयाधिकस्यैकेन भागे हते यल्लम्धं योजनं गन्यूतदयाधिक, एतन्मूलसम्बन्धिको ९१ वक्षस्कारे विचन्द्री
बादशयोजनप्रमाणविस्तारादपनीयते, स्वितानि दश योजनानि मन्यूतद्वयाधिकानि, एतावत्प्रमाणः सार्द्धयोजना- वेदिकावया वृतिः
18|तिक्रमे विस्तारः, एवं सर्वत्रापि भाव्यं, एवं ऋषभकूटजम्बूशाल्मलीवृक्षवनगतकूटानामिष्टस्थाने विस्तारानयनार्थमिदमेव |8|गन स. 18 करणं भाय, अथास्यां गवाक्षकटकवर्णनावाह-'सा' अनन्तरोदितस्वरूपा 'जगती प'मिति प्राग्वत् जगती एकेन महा-18
गवाक्षकटकेन-बहज्जालकसमूहेन सर्वतः सर्वासु विक्षु समन्तात् सामस्त्येन संपरिक्षिता व्यासत्वर्थः, स गवाक्षकटक8 पोचत्वेनाईयोजन द्वे गच्यूते विष्कम्भेन पञ्च धनु शतानि, सर्वात्मना रक्षमयः, तथा अच्छः, अत्र यावत्करणात् प्राग्व्यावर्णितं विशेषणपदं ग्राह्य, इयश्च गवाक्षश्रेणिलवणोदपार्षे जगतीभित्तिबहुमध्यभागगताऽवगन्तच्या, रिर-18 सुदेवविद्याधरवृन्दरमणस्थानं । अथ जगत्युपरिभागवर्णनायाह-'तस्या' यथोकस्वरूपाया जगत्या 'उपरि' अपरितने । तले यो बहुमध्यदेशलक्षणो भागः, भागच प्रदेशलक्षणोऽपि स्वात् तत्र च पनवरवेदिकाया अवस्थामासम्भवः अतो देशग्रहणेन महान् भाग इत्यर्थः स प चतुर्योजनात्मकजगत्युपरितनतलख मध्ये पञ्चधनु शतात्मक इति, सूत्रे एकारान्तता मागधभाषालक्षणानुरोधात्, 'ब' एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे णमिति प्राग्वत् महती एका पनवरवे- ॥२१ | दिका-देवभोगभूमिः प्रशसा मया शेपेक्ष तीर्थकरैः, सा च ऊोच्चत्वेनाईयोजन पश्च धनुशतानि विष्कम्भेन जगल्याः | समा-समामा जगतीसमा सैच जगतीसमिका परिक्षेपेण-परिरयेण, कोऽर्थः -जम्बूद्वीपस्य सर्वतो घलयाकारेण व्यव-18
सरररररर
॥२१॥
ececececene
अनुक्रम
आकार-जगति आदेः वर्णनं
~ 45~
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४]
दीप
अनुक्रम
[४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Eben
स्थिताया जगत्था याबदुपरितनं तलं चतुर्योजनविस्तारात्मकं तस्मालवणदिशि देशोनयोजनद्वये त्यक्ते अर्वाह बाबान जगतीपरिरयस्तावानस्या अपीति, सर्वरसमयी- सामस्त्येन रज्ञखचिता, 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बकं पाठ| सोऽर्थतच प्राग्वत् ॥ अथास्वा अतिदेशगर्भवर्णकसूत्रमाह
तस्याः पद्मवरषेदिकाया 'अप' मिति वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षः स चोष्यमानो न्यूनाधिकोऽपि स्यादिति एतद्रूपः- एतदेव रूपं स्वरूपं यस्य स तथा 'वर्णावासो' वर्णः -लामा यथावस्थितस्वरूपकीर्त्तनं तस्यावासो - निवासो प्रन्थपद्धतिरूपो वर्णकनिवेश इत्यर्थः, अथवा वर्णव्यासो-वर्णकप्रन्थविस्तरः प्रशष्ठः, तद्यवेत्युपदर्शने, 'वहरामये' स्यादि, 'बइरामया नेमा' इत्यादिक 'एव' मिति अनेन प्रकारेण यथा जीवाभिगमे पद्मवश्वेदिकावर्णकविस्तर उतः (जीवा. ३ प्र. उ. १. १२५) तथा योध्य इति शेषः, स च कियत्पर्यन्त इत्याह- 'जाब अहो' इति यावदर्थः पद्म बरवेदिकाशब्दस्यार्थनिर्वचनं ततोऽपि | किमत्पर्यन्त इत्याह-'जाय धुवा णियचा सासया' इति, पुनस्ततोऽपि किवत्पर्यम्स इत्याह-'जाव णिच्चा' इति, स च समग्रपाठोऽयं 'वइरामया गेमा रिट्ठामया परडाणा वेरुलियामया संभा सुषण्णमया फलगा ढोहिपक्खमईमो सूईओ बहरामई | संघी णाणामणिमया कलेबरा व्याणामणिमया कलेवरसंघाडा जाणामणिमया रूवा णानामणिमया रूपसंघाडा अंकामया पक्या पक्खवाहाओ प जोइरसामया वंसा वंसकवेल्लया य रवयामईओ पट्टियाओ जावरूवमईओ ओहाडणीओ वररामईओ उवरिं पुंछीओ सबसेए रययामए डायने, सा णं परमवरबेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं कणगाव
Fur Fate & Cy
~46~
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥२२॥
w eecccesseenecestaese
क्खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणीजालेणं एगमेगेणं घण्टाजालेणं एगमेगेणं मुत्ताजालेणं एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं वधस्कारे कम्यगजालेणं एगमेगेणं रचणजालेणं एगमेगेणं पउमजालेणं सबरयणामएणं सघओ समंता संपरिक्खित्ता, ते णं जाला तवणिजलंबूसगा सुवण्णपयरगर्मडिया णाणामणिरयणहारहारउवसोभियसमुदया ईसिमण्णमण्णमसंपत्ता पुवावरदा|हिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायं पइजमाणा एइजमाणा पलंबमाणा पलंबमाणा पझंझमाणा पक्षमाणा ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिहुइकरेणं सद्देणं ते पएसे सबओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अईव २ उपसोभेमाणा २ चिइंति । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे ह्यसंघाडा गयसंघाडा गरसंघाडा किंनरसंघाडा | किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधवसंघाडा वसहसंघाडा सबरयणामया जाव पडिरूवा, एवं पंतीओवि विहीओवि . मिहुणगाइवि का तीसे णं पउमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहुईओ पउमलयाओ नागळयाओ असोगलयाजो चंपगलयाओ वणलयाओ बासंतीलयाओ अइमुत्तलयाओ कुंदलयाओ सामलयामो णिचं कुसुमियाओ णिचं | मउलियाओ णिचं लवइयाओ णिचं थवइयाओ णिचं गुलइयाओ णिचं गुच्छि आओ णिचं जमलियाओ णिचं जुअ-13 लियाओ णिचं विणमियाओ णिच्चं पणमियाओ णिचं सुविभत्तपडि (पिंड) मंजरिवसिगधरीओ णिचं कुसुमियम-3॥२२॥ उलियलवायथवइयगुलइयगुच्छियजमलिअजुअलियविणमियपणमियसुविभत्तपडि (पिंड) मंजरीवडिंसगधरीओ सबर-191 यणामईओ अच्छा जाव पडिरूवा, तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता
अनुक्रम
एन्ट
~ 47~
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
सारयणामया अच्छा जांच पडिरूबा, से केणत्थेणं भंते! एवं बुच्चइ-पउमवरवेझ्या (२) १, गोयमा ! पउमवरवेझ्याए सत्य तत्थ देसे तहिं तहिं वेड्यासु वेड्यावाहासु वेड्यापुडंतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुढंतरेसु सूईसु सूइमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु बहूई उप्पलाई पउमाई कुमुयाई सुभगाई सोगंधियाई,
पॉडरीयाई (महापोंडरीयाई) सयवत्ताई सहस्सवत्ताई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूबाई महावासिकछत्तसमाणाई 1 पण्णत्ताई समणाउसो!, से एएणटेणं गोअमा! एवं बुच्चर-पउमवरवेइया २, अदुत्तरं च गं गोअमा! पउमवरवेइया | सासए णामधेजे पण्णत्ते । पचमवरवेइया णं भंते । किं सासया असासया, गोअमा! सिअ सासया सिअ असासया, (से केणडेणं.१,) गोअमा दवढयाए सासया वण्णपजवेहिं गधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपज्जवेहिं असासया, से तेणवेणं
एवं बुच्चइ-सिय सासया सिय असासया । पउमवरवेश्या णं भंते! कालओ केवचिरं होह, गोअमा! ण कयाइ णासी| पण कयाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ भुविं च भवई य भविस्सइ य धुवा णियया सासया अक्खया अवया अव-|| 18| द्विआ णिचा" इति, अत्र व्याख्या-अनन्तरोकायाः पद्मवरवेदिकायाः वज्रमवा-वजरकमया नेमा, नेमा नाम भूमि-|| 18 भागादूई निष्कामन्तः प्रदेशाः, वनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, तथा रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठा
नानि-मूलपादाः, तथा वैडूर्यरतमयाः स्तम्भाः, सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि-पद्मवरवेदिकाङ्गभूतानि, लोहिताक्षरत-18 ॥४॥ मय्यः सूचय:-फलकद्वयस्थिरसम्बन्धकारिपादुकास्थानीयाः, वज्रमयाः सन्धयः-सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्कं भव-॥४॥
दीप
20020200000000002020829202
अनुक्रम
Jimilenni
~ 48~
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्- ति!-अरलापूरिताः फलकानां सन्धयः, नानामणिमयानि कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि, सवा नानामनिया क क्षस्कारे
शाबरसवाटा:-मनुष्यशरीरयुग्मानि, सहाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसबाट इति, नानामणिमयानि रूपावि-हला- बदकावः न्तिचन्द्री
नं सू.४ या चिः 18दीनां रूपकाणि, रूपसाटा अपि सवैच, सानि कानिचिच्छोमार्थ कानिचिद्धिनोदार्थ कानिचिव रग्दोपविवारणार्थ
यथा राजद्वारादिषु हस्त्यादिरूपाणि कम्पमानलम्बकूर्चकवृद्धरूपाणि च क्रियन्ते, सपात्र फलकेषु रसमयाबि सम्ती-1 ॥ २३॥ त्यर्थः, अहोरसविशेषस्तन्मयाः पक्षा:-तदेकदेशाः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाहमग्या, ज्योतीरसं नाम र
18 तन्मया वंशा-महान्तः, पृष्ठवंशा मध्यवलकारस्यर्थः, महता पृष्ठवंशामामुभवततिर्यक स्थाप्यमाना बंधार कावेलुकानि।
प्रतीतानि, अब द्वितीयवंशशब्दाद्विभक्तिलोपः माकृतत्वात् , अक्रमप्राप्तामामपि कवेलुकानां पृथ्वशीर्वधी मह18 यदेकत्र विशेषणे बोजनं तत्र ज्योतीरसरममवत्वं हेतुरिति, रजतमय्यः पट्टिका:-वंशानामुपरि कम्बाखानीयाः, जातरूप-सुवर्णविशेषस्तन्मय्यः अवघाटिम्यः-आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीयाः, वज़मय्य: अवघाटिनीनामुपरि पुण्ठन्यो-निविडतराच्छादमहेसुलक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः, सर्ववेतं रजतम पुज्छनीनामुपरि कवेलुकानामध आच्छादन, सा पावरवेदिका एकैकेन किङ्किणीजालेन किविण्यः-शुपण्टिका एकैकेन घण्टा- ॥२३॥ जालेन-किङ्किण्यपेक्षया किनिम्महत्यो घण्टा बकैकेन मुक्काजालेन-मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेज मणिजालेनरामणिमयेन दामसमूहेन एकैकेन 'कनकजालेन' कनक-पीतरूपः सुवर्णविशेषस्तन्मयेन दामसमूहम एकैकेन रसजा-1
अनुक्रम
Seces
५
~ 49~
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१].---.............--.
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
लेन-रखमयदामसमूहेन, अब स्थलजाता मणयो जलजासानि रक्षानीति रकमण्योअंदा, एकैफेम सर्परलमयपमात्मकोन दामसमूहेन, सर्वतः समन्तादिति प्राग्वत्, संपरिक्षिता, एतानि च दामरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्बमानानि वेदितव्यानि, सथा च आह-ते णं जाला' इति, अत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्तेन तानि जालानि सपनीयम्-आरके सुवर्ण तन्मयो लम्बूसगो-दानामप्रिमभागे मण्डनविशेषो येषो तानि तथा, पार्वतः सामस्त्येन सुवर्णस्य प्रत्तरकेण-18 पत्रेण मण्डितामि, अन्तरा अन्तरा लम्बमानहेमपत्रकालङ्कतानि, तथा मानारूपाणी-जातिभेदेनानेकप्रकाराणां मणीनां रसानां च ये विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तरुपशोभितःसमुदायो वेषांतानि तथा, ईषत्मयाक् अन्योऽज्य-परस्परमसम्पाप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागसातैर्मन्दार्थ भन्दापमिति-मन्द मन्दं एज्य-N मानानि-कम्प्यमानानि "मृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्कमबादे" (श्रीसि०७-४-७३) रिस्थविच्छेदे द्विर्षचनं क्या | पचति पचतीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईषत्कम्पनवशात् प्रकर्षत इतस्ततो मनाक्चलनेन लम्बमानानि २, ततः परस्पर | सम्पर्कवशतः 'पझंझमाणा पझंझमाणा' इति शब्दायमानानि २, उदारेण-स्कारेण शब्देनेति योगः, सब स्कार-IST | शब्दो मनःप्रतिकलोऽपि भवति तत आह-मनोज्ञेन' मनोऽनकलेन, सच्च मनोजकलत्वं लेशतोऽपि खादत आह'मनोहरेण' मनांसि श्रोतां हरति-आत्मवसं नयतीति मनोहरो, लिहादेराकृतिगणवादमस्ययः तेन, सदपि मनो-18 हरत्वं कुत इत्याह-'कर्णमनोनिवृतिकरण' "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विमकीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेती,
aesesewerstatements
दीप
अनुक्रम
~ 50 ~
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ---...............--
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वापशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥२४॥
ररररररररteaceae
तृतीया, ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोत कर्णयोर्मनसश्च निवृतिकरः-मुखोत्पादकस्ततो. मनोहरस्तेन इत्थंभूतेन शब्देन तान् । १ वक्षस्कारे प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतः समन्तात् आपूरयन्ति २ शतृप्रत्ययान्तस्य शाविदं रूपम् अत एव 'श्रिया' शोभया । वृदिकावअतीव २ उपशोभमानानि २ तिष्ठन्ति । पुनरस्यां यदस्ति तदुपदर्शयति-तस्याः पद्मवरवेदिकायाः तत्र तत्र देशे
नं सू.४ तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे, एतावता किमुक्कं भवति यत्र देशे एकस्तत्रान्येऽपि विद्यन्त इति, बहवो हयसवाटा अपि वाच्याः, एते च सर्वे सर्वात्मना रत्नमयाः अच्छा यावत् प्रतिरूपा इत्यादि सर्व प्राग्वत्, एते च सर्वेऽपि हयसङ्घाटादयः सङ्घाटाः पुष्पावकीर्णका उक्काः, सम्प्रत्येषामेव यादीनां पतयादिप्रतिपादनार्थमाहएवं'मिति, यथाऽमीषां हयादीनामष्टानां सवाटा उक्तास्तथा पङ्कयोऽपि वीथ्योऽपि मिथुनकानि च वाच्यानि, तानि चैवम्-'तीसे णं पउमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहूआओ हयपतीओ गयपंतीओ' इत्यादि, नवरमे-18 कस्यां दिशि या श्रेणिः सा परिभिधीयते, उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथी, एते च || वीथीपतिसङ्घाटा हयादीनां पुरुषाणामुक्काः, साम्प्रतमेतेषामेव हयादीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ 'मिहुणाई' इत्युकं, उकेनैव प्रकारेण हयादीनां मिथुनकानि-स्त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि वाच्यानि, यथा 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि बडूइं| इयमिहुणाई' इत्यादि । 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याः-पद्मवरवेदिकायाः 'तत्र तत्र देशे तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे अत्रापि 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं' इति वदता यत्रैका लता तवान्या अपि बहुचो लताः सन्तीति
अनुक्रम
अत्रात् पद्मवरवेदिकाया: वर्णनं आरभ्यते
~51~
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
शप्रतिपादितं द्रष्टव्यं, यहधः पद्मलताः-पद्मिन्यः नागलता:-नागा दुमविशेषास्त एव लतास्तिर्यशाखाप्रसराभावात् नागलता, एवमशोकलताः चम्पकलताः 'वणलता' वणा-तरुविशेषा वासन्तिकालताः अतिमुक्कलताः कुन्दलताः| श्यामलताः, कथंभूता एता इत्याह-'नित्यं सर्वकालं षट्स्वपि ऋतुष्वित्यर्थः 'कुसुमिताः' कुसुमानि सजातान्यास्थिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः, एवं नित्यं मुकुलिताः मुकुलानि नाम-कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः, तथा नित्यं । | लवकिताः लव एव लवकः स्वार्थे कः प्रत्ययः स सजात आस्विति लवकिताः, सञ्जातपल्लवलवा इत्यर्थः, तथा |नित्यं स्तवकिता:-सञ्जातपुष्पस्तवकाः, तथा नित्यं गुल्मिताः-सञ्जातगुल्मकाः, गुल्मकं च लतासमूहः, तथा नित्यं गुच्छिता:-सजातगुच्छाः, गुच्छश्च पत्रसमूहः, यद्यपि च पुष्पस्तबकयोरभेदो नामकोशेऽधीतस्तथाऽप्यत्र पुष्पपत्रकृतो विशेषो ज्ञेयः, नित्यं यमलिताः, यमलं नाम समानजातीययोलतयोर्युग्मं तत्सञ्जातमाखिति यम|लिताः, नित्यं युगलिताः, युगल-सजातीयविजातीययोलतयोर्द्वन्द्वं, तथा नित्यं विनमिता नित्यं फलपुष्पादिभारेण |विशेषेण नमिता-नीचैर्भावं प्रापिताः, तथा नित्यं प्रणमिता:-तेनैव नमयितुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकमार्थत्वात्, अन्यथा पूर्वविशेषणादभेदः स्यात्, नित्यं सुविभकेत्यादि, सुविभक्ता-सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरूपी योऽवतंसकस्तद्धरा:-तद्धारिण्यः औपपातिकादौ तु 'सुविभत्तपडि (पिंड) मंजरीवडिंसगधराओं' इति पाठस्तत्र |सुविभक्ता-अतिविविक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्ड्यो-लुम्ब्यो मञ्जर्यश्च प्रतीताः, शेषं तथैव, एषः सर्वोऽपि कुसुमि
दीप
Pasa82829082909200008290920200
अनुक्रम
Receeresteectroccerse
श्रीवम्यू. ५
~ 52~
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४]
दीप
अनुक्रम
[४]
वक्षस्कार [१],
मूलं [४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ २५ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jun Elkemi
तत्वादिको धर्म एकैकस्याः २ लताया उक्तः, साम्प्रतं कासाचिल्लतानां सकलकुसुमितत्वादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह'णिवं कुसुमिय'त्ति ( इत्यादि) नित्यं कुसुमितमुकुलितल व कितस्तवकितगुल्मितगुच्छित यमलितंयुगलितविनमित| प्रणमितसुविभक्तप्रतिमञ्जर्यवतंसकधर्य इति, अर्थस्तु प्राग्वत्, एताश्च सर्वा अपि लताः किंरूपा इत्याह-सर्वात्मना रखमय्यः, 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणानि प्राग्यत् । अत्र तीसे णमित्यादि अक्खयसोत्थियासूत्रं दृश्यते, परं वृत्तिका| रेण न व्याख्यातमिति न व्याख्यायते । अधुना पद्मवर वेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति सशब्दोऽथशब्दार्थः अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन भदन्त । एवमुच्यते- पद्मवरवेदिका पद्मवरवेदिकेति किमुक्तं भवति १-पावरवेदिके| त्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्तौ किं निमित्तमिति एवमुक्ते भगवानाह - गौतम ! पद्मवरवेदिकायां तत्र तत्र देशे तस्यैव | देशस्य तत्र तत्र एकदेशे वेदिकासु-उपवेशनयोग्यम सवारणरूपासु वेदिकाबाहासु - वेदिकापार्श्वेषु वेइयापुढंतरेसु इति| द्वे वेदिके वेदिकापुढं तेषामन्तराणि तेषु, स्तम्भेषु सामान्यतः स्तम्भवाहासु-स्तम्भपार्श्वेषु स्तम्भशीर्षेषु (स्तम्भाद्यभागेषु स्तम्भपुटान्तरेषु) - द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुढं तेषामन्तराणि तेषु, सूचीषु फलकसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासु तासामुपरि इति तात्पर्यार्थः, सूचीमुखेषु यत्र प्रदेशे सूची फलकं भित्त्वा मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेषु-सूचीभिः सम्बन्धिता ये फलक प्रदेशास्तेऽप्युपचारात् सूचीफलकानि तेषु सूचीनामध उपरि ५ अत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञसिप्रादषु वृत्तिकारेण-श्रीम श्रीवाभिगमसूत्रवृत्तिकारण पूज्य श्रीमलयगिरिणा (जगतीव्याख्यानावसरे) (जीवा सू० १२४-१२५-१९ ).
Fur Ervate & Pune Cy
~ 53~
Gestate
१ वक्षस्कारे जगत्यधि
कारे पद्मववेदिका०
।। २५ ।।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
च वर्तमानेषु, तथा सूचीपुटान्तरेषु वे सूच्यौ सूचीपुटं तेषामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा वेदिकैकदेशविशेषाः तेषु बनि ॥ उत्पलानि-गईभकानि ईपक्षीलानि वा पद्मानि-सूर्यविकासीनि ईपल्वेतानि वा, नलिनानि-ईषद्रतानि कुमुदानि-चन्द्रवि-19
कासीनि सुभगानि-पद्मविशेषाः, सौगन्धिकानि-कल्हाराणि पुण्डरीकाणि-घेतपद्मानि तान्येव महान्ति महापुण्डरीकाणि
शतपत्राणि-दलशतकलितानि सहस्रपत्राणि-सहस्रदलकलितानि एतौ च पद्मविशेषौ पत्रसमाविशेषात् पृथगुपाचौ, है। सर्वरलमयानि चैतानि, अच्छा इत्यादिविशेषणानि प्राग्वत्, महान्ति-महाप्रमाणानि वार्पिकाणि-वर्षाकाले पानी४ यरक्षणार्थ यानि कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च २ तत्समानानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण !-तपःप्रवृत्त !
हे आयुष्मन् !-प्रशस्तजीवित !, 'से एपणवण मित्यादि, तदेतेनार्धन-अम्बर्थेन गौतम | पवमुच्यते-पनवरवेविका 18| पनवरवेदिकेति, तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु यथोक्तरूपाणि पानि पद्मवरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमिति भावः, व्युत्प-1
त्तिश्चैवं-पनवरा-पद्मप्रधाना वेदिका पावरवेदिकेति, अथापरच प्रवृत्तिनिमिर्च, किन्तदित्याह-पद्मवरवेदिकायाः 8 शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तमिति, अयमभिप्राय:-प्रस्तुतपुद्गलपचयविशेषे पद्मवरवेदिकेतिशब्दस्य निरुक्तिनिरपेक्षाऽनादिRIकालीना रूढिः प्रवृत्तिनिमित्तमिति । पचमवरवेइया ण भंते'त्ति पद्मवरवेदिका शाश्वती उताशाश्वती', "प्रत्यये डी
न वा" (श्रीसि०८-३-३१) इत्यनेन प्राकृतसूत्रेण डीप्रत्ययस्य वैकल्पिकत्वेन आवन्ततया सूत्रे निर्देशः, किं नित्या उत अनित्येतिभावः, भगवानाह-गौतम! स्थाच्छाश्वती स्वादशाश्वती, कथञ्चिद् नित्या कथश्चिदनित्येत्यर्थः, स्वाच्छब्दो
aoratasamratacodeoamasoothraseso
दीप
अनुक्रम
~ 54~
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
| खेदिका
निपातः कथचिदित्येतदर्थवाची, एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-से केणद्वेण'मित्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः सच
१ वचस्कारे द्वीपशा- प्रश्ने, केनार्थेन-केन कारणेन भदन्त! एवमुच्यते-यथा स्वाच्छाश्वती स्थादशाश्वतीति, भगवानाह-गौतम! द्रव्यार्थतया न्तिचन्द्री-18 | शाश्वती, तत्र द्रव्यं सर्वत्रान्वयि सामान्यमुच्यते द्रवति-गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति कारे पचवया वृत्तिः | व्युत्पत्तेः, द्रव्यमेवार्थ:-ताविकः पदार्थः प्रतिज्ञायां यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थःद्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको ॥२६॥
नयविशेषः तद्भावो द्रव्यार्थता तया-द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमत|| पयोंलोचनायामुक्तरूपस्य पद्मवरवेदिकाया आकारस्य सदाभावात् , तथा वर्णपर्यायैः-कृष्णादिभिः गन्धपर्याय:|सुरभ्यादिभिः रसपर्याय:-तिकादिभिः स्पर्शपर्यायैः-कठिनत्वादिभिः अशाश्वती-अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं |कियत्कालानन्तरं याऽन्यथा अन्यथा भवनात्, अतादवस्थस्य चानित्यत्वात् , न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यत्वा| नित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदोपगमात्, अन्यथोभयोरप्यसत्त्वापत्तेः, तथाहि-शक्यते वक्तुं परपरिकल्पितं द्रव्यमसत्, पर्यायव्यतिरिक्तत्वात् , बालत्वादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत्, तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असन्तो, द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात्, वन्ध्यासुतगतवालवादिपर्यायवत्, उक्तं च-"द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवर्जिताः।क कदा केन किं-IM | रूपा, रटा मानेन केन वा ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्गेन, से एएणद्वेण'मित्यायुपसंहारवाक्यं सुगम, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह-"नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो विद्यते विनाशो वा।” “नासतो विद्यते |
अनुक्रम
00000000000000
Seroenvestice
~554
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
(४)
Muो नाभावो विद्यते सतः" इति वचनात् , यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशी तवाविर्भावतिरोभावमात्र, यथा वर्पस्य उत्फणत्वविफणवे, तस्मात् सर्व वस्तु नित्यमिति, एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवत् द्रव्यार्थवया शाश्वती उत सकलकालमेवंरूपेति । ततः संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूयः पृच्छति-'पउमवरवेइया ण'मित्यादि, पद्मवरवेदिका णमिति पूर्ववत् भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् कियचिरं-कियन्तं कालं यावद्भवति, एवंरूपा कियन्त | कालमवतिष्ठते इति, भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् , सर्वदेवासीदितिभावा, अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न || | भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः, सर्वदैव भावात, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भवि-18
व्यचिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात् , तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं (विधाय) ॥ सम्पत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुर्विच'इत्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वात् भुवा मे
वोदिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपेति नियता, नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्ववनस्वभावा शाश्वत्वादेव च सततगङ्गा-1 | सिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पीण्डरीक(पद्म)इद इवानेकपुद्गलविघटनेऽपि तावन्मात्रान्यपुनलोचटनसम्भवात् अक्षयान्न विद्यते
क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा अक्षयत्वादेवाव्यया-अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातु-| |चिदप्यसम्भवातू, अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताद्वहिः समुद्रवत् , एवं स्वस्थप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् । अब जगल्या उपरि पावरवेदिकायाः परतो यदस्ति तदावेदयति
दीप
acterseeeeeeeseserseene
अनुक्रम
~56~
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५]
दीप
अनुक्रम
[५]
श्रीजम्बूद्वीपक्षाविचन्द्री - या वृचिः
॥ २७ ॥
Jemitie
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
वक्षस्कार [१],
मूलं [५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
अत्रात् वनखण्डस्य वर्णनं आरभ्यते
तीसे णं जगईए उनि बाहि पडमवरवेश्याए पत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोभणारं विक्खंभेणं जगईसमए परिक्वेणं वणवणओ णेयब्बो (सूत्रं ५ )
'तीसे ण' मिति प्राग्वत् जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकायाः बहिः परतो यः प्रदेशस्तत्र, एतस्मिन् णमिति पूर्ववत्, महानेको वनखण्डः प्रज्ञप्तः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहो वनखण्डः, यदुक्तम्- "एगजाइएहिं रुक्लेहिं वर्ण, अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं रुक्खेहिं वणसंडे "इति, स च वनखण्डो देशोने किश्चिदूने द्वे योजने विष्कम्भतो- विस्ता| रतः, देशमात्र सार्द्धधनुः शतद्वय रूपोऽवगन्तव्यः, तथाहि चतुर्योजन विस्तृतशिरस्काया जगत्या बहुमध्यभागे पश्चधनुःशतव्यासा पद्मवरवेदिका, तस्याश्च बहिर्भागे एको वनखण्डोऽपरश्चान्तर्भागे, अतो जगतीमस्तक विस्तारो बेदिकाविस्तारधनुः शतपःश्चकोनोऽर्धीक्रियते, ततो यथोक्तं मानं लभ्यत इति, तथा जगतीसम एव जगतीसमक:- जगतीतल्यः परिक्षेपेण-परिरथेण, वनखण्डवर्णकः सर्वोऽप्यत्र प्रथमोपाङ्गगतो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, स चायं "किन्छे किन्दोभासे | नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओोभासे णिद्धे णिद्धोभासे तिथे तिषोभासे किन्हे किन्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीअच्छाए णिद्धे गिद्धच्छाए तिबे तिबच्छाए घणकडियच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए, ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पतमंतो पुप्फमंतो फलमंतो बीजमंतो अशुपुविसुजावरुइबट्टभावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगणरवामसुष्पसारियागेपणविलवट्टसंघा
Fur Fate & Pune Cy
~ 57~
१ वक्षस्कारे
वनपण्डाघि०
॥ २७ ॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अच्छिाहपत्ता अविरलपत्ता अबाईणपत्ता अणईईपत्ता णियजरढपंडुरपत्ता णवहरिमभिसंतपत्तभारंपयारगंभीरदरि|| सणिज्जा उपविणिग्गयनवतरुणपसपल्लवकोमलुज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोभियचरैकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया | णिचं मउलिआ णिचं लवइया णिचं थवइया णिचं गुलइया णिचं गुच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुअलिया णिचं
विणमिया णिचं पणमिया णिचं कुसुमिअमउलिअलवइअथवइगुलइअगोच्छिअजमलिअजुअलिअविणमियपणमियसु| विभत्तपडिमंजरिवटिंसयधरा सुअवरहिणमयणसलागकोइलकोरगभिंगारगोंडलकजीवंजीवगणंदीमुहकविलपिंगलक्खगिकारंडवचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणविरइअसहुबइअमहुरसरणाइआ सुरम्मा संपिंडिअदरियभमरमहुअरिपह-13
करपरिळिंतमत्तछप्पयाकुसुमासबलोलमहुरगुमगुतगुंजतदेसभागा अम्भितरपुप्फफला बाहिरपसमा पुष्फेहि फलेहि || व उच्छन्नपलिच्छन्ना जीरोअया अकंटया साउफला जाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेजभूया पाविपु-18
खरिणीदीहियासुनिवेसियरम्मजालघरगा पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च मया गंधद्धणि मुअंता सुहसेउके1 उबहुला अणेगरहजाणजुग्गसिबिअसंदमाणिआपविमोअणा पासादीया जाव पडिरूवा" इति (उ००१) अत्र व्याख्या
| इह प्रायो मध्यमे वयसि वर्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्ति, ततस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि कृष्णः, न चोपचारमात्रतः | कृष्ण इति व्यपदिश्यते, किन्तु तथाप्रतिभासनात् , तथा चाह-कृष्णावभासः, यावति भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति ४ तावति भागे स वनखण्डोऽतीव कृष्णोऽवभासते-प्रतिभाति द्रष्टुजनलोचनपथ इति कृष्णोऽवभासो यस्य स कृष्णावभासः,
chưa được
&0000000000000000000
अनुक्रम
~58~
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५]
दीप
अनुक्रम [५]
वक्षस्कार [१],
मूलं [५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशातिचन्द्री
या वृत्तिः
॥ २८ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jin Eibenst
तथा प्रदेशान्तरे नीलपत्र योगाद्वनखण्डोऽपि नीलः, एवं नीलावभासः, तथा प्रदेशान्तरे हरितो हरितावभासश्च तत्र नीलो मयूरकण्ठवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् हरितालाभ इति वृद्धाः, तथा प्रायो दिनकरकराणामप्रवेशावृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति तद्योगात् वनखण्डोऽपि शीतः, न चासावुपचारमात्रत इत्यत आह-शीतावभास इति, अधोवर्त्तिव्यन्तरदेव|| देवीनां तद्योगशीतवातस्पर्शतः शीतो वनखण्डोऽवभासते, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथास्वं स्वस्मिन् २ स्वरूपेऽत्यर्थमुत्कटाः स्निग्धाः भण्यन्ते तीत्राश्च ततस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि स्निग्धस्तीनश्वोक्तः, न चैतदुपचारमात्रं किन्तु प्रतिभा| सोऽपि तत उक्तं- स्निग्धावभासस्ती श्रावभास इति, इह चावभासो भ्रान्तोऽपि स्याद्यथा मरुमरीचिकासु जलावभासस्ततो नावभासमात्रोपदर्श्यते (र्शनेन ) यथावस्थितं वस्तुस्वरूपमुपवर्णितं भवति किन्तु तथास्वरूपप्रतिपादनेन ततः कृष्णत्वादीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरस्सरं विशेषणान्तरमाह - ' किन्हे इत्यादि, कृष्णो वनखण्डः, कुत इत्याह- कृष्णच्छायः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन' मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः- यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सर्वाविसंवादितया तस्यास्ति तस्मात् कृष्णः, एतदुक्तं भवति - सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभाससम्पादितसत्ताकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तत्त्ववृत्त्या स कृष्णो न वान्तावभासमात्रव्यवस्थापित इति, एवं नीलो नीलच्छाय इत्याद्यपि भावनीयं, नवरं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'पण'त्ति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटिस्तटमिव
Fur Fraterne Oy
~59~
৮১৬৬১১9,9
१ वक्षस्कारे
बनवण्डावि०
॥ २८ ॥
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
88888560900908
| कटितट घनी-अन्योऽन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निबिडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य(स)धनकटितटच्छायः, मध्यभागे | निविडतरच्छाय इत्यर्थः, वाचनान्तरे 'घणकडिअकडच्छाए'त्ति पाठे तु कटः सजातोऽस्येति कटितः कटान्तरेणोपर्या-1 वृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कटश्च कटितकटः, घना निविडा कटितकटस्येवाधोभूमौ छाया यस्य स धनकटितकटच्छायः, अत एव रम्यो-रमणीयः, तथा महान्-जलभारावनतः प्रावृट्कालभावी यो मेघनिकुरम्बो-मेघसमूहस्तं भूतो-गुणः 181 प्राप्तो महामेघवृन्दोपम इत्यर्थः, 'ते णं पायव'त्ति यत्सम्बन्धी वनखण्डस्ते पादपाः 'मूलमन्त इत्यादीनि दश पदानि, 12 तत्र मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्त्येषामिति मूलवन्तः, यानि कन्दस्याधः तानि मूलानि तेषामुपरिवर्तिनः। |कन्दाः स्कन्धः-स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति त्वक्-छल्ली शाला-शाखा प्रवाला-पल्लवाङ्गुरः, पत्रपुष्पफलबीजानि ||
प्रसिद्धानि, सर्वत्रातिशायने कचिद् भूम्नि वा मतुपू प्रत्ययः, 'अणुपुबि'त्ति आनुपूज्यों-मूलादिपरिपाव्या सुषु जाता | 18| आनुपूर्वीसुजाताः रुचिराः-स्निग्धतया दीप्यमानच्छविमन्तः तथा वृत्तभावेन परिणता वृत्तभावपरिणताः, किमुक्त | 8 भवति !-एवं नाम सर्वासु दिक्षु. विदिक्षु च शाखादिभिः प्रसूता यथा वर्तुलाकृतयो जाता इति, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तथा ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, प्राकृते चास्य स्त्रीत्वमिति एगक्खंधी इति सूत्रपाठः, अनेकाभिः शाखाभिः प्रशाखाभिश्च मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां ते तथा, तथा तिर्यग्वाहुद्वयमसारणप्रमाणो च्यामः अनेकहा नरव्यामः-पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्यः-अमेयो घनो-निविडो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते तथा, अच्छिद्राणि
eatscaesecevercedeoeae
अनुक्रम [१]
~ 60 ~
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू-18 पत्राणि येषां तेऽच्छिद्रपत्राः, किमुक्कं भवति -- तेषां पत्रेषु वातदोषतः कालदोषतो वा गडरिकादिरीतिरूपमायते ६१ वक्षस्कारे
येन तेषु छिद्राण्यभविष्यन्नित्यच्छिद्रपत्राः, अथवा एवं नामान्योऽन्य शाखाप्रशासानुप्रवेशात् पवाणि पत्राणामुपरि वा- नाण्ड 18|| तानि न मनागष्यन्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति, अच्छिद्रपत्राः कुत इत्याह-'अविरलपत्ता इति, अत्र हेती प्रथमा,18||
वि० ॥ ततोऽयमर्थ:-यतोऽविरलपत्रा अतः अच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रा अपि कुत इत्याह-वाईगत्ति वातीनानि-बातोप॥२९॥ हतानि वातेन पातितानीत्यर्थः, न पातीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुकं भवति :- तत्र प्रबलो
वातः सरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटित्वा भूमी पतन्ति, ततोऽयातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति, अच्छिद्रपना इत्यत्र 8 प्रथमव्याख्यापक्षे हेतुमाह- अणीइपत्ता'इति न विद्यते ईति:-गडरिकादिरूपा येषु तान्यनीतीनि अनौतीनि पत्राणि येषां ते तथा, अनीतिपत्रत्वाचाच्छिद्रपत्राः, तथा नि तानि-अपनीतानि जरठानि-पुराणत्वात् कर्कशानि तत एष पाण्डराणि पत्राणि येषां ते तथा, अयमाशयः-यानि वृक्षस्थानि उक्तखरूपाणि पत्राणि तानि वातेन निय २ भूमी पात्य-RI न्से तसोऽपि च प्रायो निर्द्धय निर्धयान्यत्रापसार्यन्त इति, तथा नवेन-सद्यस्केन हरितेन-शुकपिच्छाभेन 'मिसम्त'सि
भासमानेन स्निग्धत्वचा दीप्यमानेन पत्रभारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सम्तो ॥ || वर्शनीयाः नवहरितमासमानपभभारान्धकारगम्भीरदर्शनीया, तथा उपविनिर्गत:-निरन्तरविनिर्गतैर्नवतरुणपषप
लवैस्तथा कोमल-मनोहरुज्वलैः शुरैश्चलनि-ईपरकम्पमानैः किशलयैः-अवस्थाविशेषोपेतैः पल्लववि तथा यामाग
esesesececeaeesecaceaesesed
अनुक्रम [१]
~61~
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ---...............--
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रवाः-पालवारैः शोभितानि वराङ्कराणि-वराङ्कुरोपेतानि अप्रशिखराणि येषां ते तथा, यह चाकुरमवालयोः कालकK|| तावस्थाविशेषाद्विशेषो भाषनीय इति, "णिचं कुसुमिया इत्यादिक 'वडेंसयधरा'इत्यन्तं सूत्र पूर्ववद् व्याख्येयं, तथा शुक-|
चर्हिणमदनशलाकाकोकिलकोरकभृङ्गारककोण्डलकजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षककारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनिगणानां-पक्षिकुलानां मिथुनैः-स्त्रीपुंसयुग्मविरचितं शब्दोशतिकं च-उन्नतशब्दकं मधुर-18 स्वरं च नादिसं-लपितं येषु ते तथा, अत एव सुरम्या-अतिमनोज्ञाः, अत्र शुका:-कीराः बहिणा-मयूराः मदनशला-IN
काः सारिकाः कोकिल चक्रवाककलहंससारसाः प्रतीताः, शेषास्तु जीवविशेषाः लोकतोऽवसेयाः, संपिंडिता-एकत्र पिण्डीS भूता हप्ता-मदोन्मत्ततया दध्मिाता भ्रमरमधुकरीणां पहकरा:-संघाताः यत्र ते तथा, तथा परिलीयमाना-अन्यत
आगत्यागत्याश्रयन्तो मत्ताः षट्पदाः कुसुमासवलोला:-किंजल्कपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमाना गुञ्जन्तब-शब्द|| विशेष विदधाना देशभागेषु येषां ते तथा, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः, तथा|| अभ्यन्तराणि-अन्तर्वचीनि पुष्पफलानि येषां ते तथा तथा बहिः पत्रः छन्ना-व्याप्ता, तथा पत्रैश्च पुष्पैश्च छन्न-1ST परिच्छन्ना-एकार्थिकशब्दद्वयोपादानात् अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा नीरोगका-रोगवर्जिता वृक्षचिकित्साशास्त्रेषु येषां प्रतिक्रिया तेः रोगैः स्वत एव विरहिता इत्यर्थः, तथाऽकण्टकाः न तेषु मध्ये बदर्यादयः सन्तीतिभावा, तथा स्वादूनि ॥ फलानि येषां ते स्वातुफलाः, निग्धफला इत्यपि कचित्, नानाविधैर्गुच्छै:-वृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुल्मैः-नवमालिकादिभि
eesesectseeeeseseserseas
अनुक्रम [१]
~62~
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा-
AP
मण्डपकैः-द्राक्षामण्डपकैः शोभिताः उक्तरूपैर्गुच्छादिभिस्तं संश्रिता इत्यर्थः, तथा 'विचित्तसुहकेउभूया'इति विचि-18
१वक्षस्कारे बान शुभान केतून-वजान प्राप्ताः 'विचित्तसुहकेउबहुला' इतिपाठान्तरं, तत्र विचित्रैः शुभैर-मङ्गलभूतैः केतुभिः-II ध्वजैबहुला-व्याप्ताः, तथा वाप्यश्चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ता:-पुष्करिण्यः दीपिका-ऋजुसारिण्यः, तासु सुछु निवेशि-18
भूमिव तानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र ते तथा, अयमर्थः-यत्र ते वृक्षा आसन् तत्र वाप्यादिषु गवाक्षवन्ति गृहाणि व्यन्त-18 रमिथुनानां जलकेलिकृते बहूनि सन्तीति, पिंडिमनिहरिमा-पुद्गलसमूहरूपां दूरदेशगामिनी च सुगन्धि-सद्गन्धिका शुभ-11 सुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च महता-मोचनप्रकारेण प्राकृतत्वाद्वा द्वितीयार्थे तृतीया महतीमित्यर्थः गन्धप्राणिं-यावनिर्गन्धपुद्गलैर्घाणेन्द्रियस्य तृप्तिरुपजायते तावती पुद्गलसंहतिरुपचाराद् गन्धप्राणिरित्यु-| च्यते तां निरन्तरं मुञ्चन्त इत्यर्थः, तथा शुभाः-प्रधानाः सेतवो-मार्गाः आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुलाका अनेकरूपा येषां ते तथा, रथा:-क्रीडारथादयः यानानि-उक्तवक्ष्यमाणातिरिक्तानि शकटादीनि-वाहनानि युग्यानि-गोल-191 विषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्रवेदिकायुतानि जम्पानानि शिविका:-कूटाकारणाच्छादिताः जम्पानविशेषाः स्पन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, अनेकेषां रथादीनामधोऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रविमोचन येषु ते तथा, 'पासा-13 दीया' इत्यादि प्राग्वत् । अथ वनखण्डस्य भूमिभागवर्णनमाहतस्स णं वणसंङस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाब णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहिं
अनुक्रम [१]
Sas0020302003003808
॥३०॥
~63~
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
सहि नवसोभिए, जहा-किण्हेहिं एवं वणो गंधो रसो फासो सहो पुक्खरिणीओ पञ्चयगा परगा मंडवगा पुडविसिलापट्टया गोयमा !
यशा, तत्य णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति [चिट्ठति णिसीति तुअति रमंति ललंति कीलंति मोहंति] पुरापोराणाणं सुपरवंताण सुभाणं कलाणाणं कसाण कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेस पञ्चणुभवमाणा विहरति । तीसे णं जगईए सप्पि अंतो परमवरवेशआए एत्य गं एगे महं वणसंडे पण्णते, देसूणाई दो जोअणाई विक्खंभेणं वेदियासमएण परिक्खेवेणं किण्हे जाव तणविहूणे णेअबो (सूत्रं ६)
तस्य णमिति पूर्ववत् वनखण्डस्यान्तः-मध्ये बहु-अत्यन्तं समो बहुसमः स चासौ रमणीयश्च स तथा, भूमिभागः मज्ञप्तः, कीरश इत्याह से इति तत् सकललोकप्रसिद्ध 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामे'ति शिष्यामन्त्रणे 'ए' इति ।
वाक्यालकारे, आलिङ्गो-मुरजो वाद्यविशेषस्तस्य पुष्कर-चर्मपुटक तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः॥ TR| सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुसमाप्तिद्योतकाः, वाशब्दाः समुच्चये, यावच्छब्देन बहुसमत्ववर्णको मणिलक्षणवर्णका प्राह्म।
इति, स चार्य 'मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा आर्यसमंडलेइ वा उरम्भचम्मेइ वा वसहचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा छगलचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवत्तपञ्चायत्तसेढिपसेढिसोत्थियसोवत्थियपूसमाणवद्धमाणगमच्छंडकमगरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतीपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समिरीइएहिं सउज्जोपहि' इति, अत्र व्या
दीप अनुक्रम
eaemon02003000000000000000
श्रीजम्बू.६
अथ वनखण्ड-भूमिभागस्य वर्णनं क्रियते
~64~
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[&]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ३१ ॥
हया मृदङ्गो लीकप्रतीती मलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करं तथा परिपूर्ण पानीयेन भृतं तडागे-तैरस्तस्य तलै - उपरिसनी भागः सरस्सल, अत्र 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति निर्वात जलपूर्ण सरी ग्राह्यं, अन्यथा वातीड्यमानतयीचावचजडत्वेन विवक्षितः समभावी न स्वादित्यर्थः करतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं च मद्यपि वस्तुगत्या उतामीकृतार्थकपित्थाकारपीठप्रासादापेक्षया वृत्तालेखमिति ततो दृश्यमानों भागो न समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानं, आदर्शमण्डल सुप्रसिद्ध 'उरम्भचम्मेइ वा इत्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते' इति पर्व योजनीय, सरख करणः वृषभवराहसिंहव्याघछगलाः प्रतीताः द्वीपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येकं धर्म अनेकैः शत्रुप्रमाणैः कीलकसहस्रैर्यतो महद्भिः कीलकैस्ताडितं प्रायो मध्ये क्षामं भवति न समतलं तथारूपताडासम्भवात् अतः | शत्रुग्रहणं विततं विततीकृतं ताडितमिति भावः यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि वनखण्डस्यान्तर्बहुसमी भू| मिभागः। पुनः कथंभूत इत्याह-'णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहिं (मणितणेहिं) उवसोभिए इति योगः, नानाविधा-जातिभेदानानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तृणानि च तैरुपशोभितः, कथंभूतैर्मणिभिरित्याह- आवर्त्तादीनि मणीनां लक्षणामि, तत्र आवर्त्तः प्रतीतः एकस्यावर्त्तस्य प्रत्यभिमुखः आवर्सः प्रत्यावर्त्तः श्रेणिः तथाविधविन्दुजातादेः पङ्किः तस्वाश्च श्रेणेर्षा विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिका प्रतीतः, सौवस्तिकपुष्पमाणवी च लक्षणविशेषौ छीकात् प्रत्येतव्यौ वर्द्धमानक- शराव से मरस्याण्डकमकराण्डके जलचरविशेषाण्डके प्रसिद्धे, 'जारमारे ति लक्षणविशेषी सम्य
|
अथ वक्षस्कारे पद्मवरवेदिका एवं वनखण्डस्य वर्णनं क्रियते
Fur Ele&Pay
~65~
१ वक्षस्कारे
पद्मवेदिकावनखण्डव.
॥ ३१ ॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
मणिलक्षणवेदिनी लोकाइदितव्यो, पुष्पाबलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापमलताः प्रतीता, तासां भक्त्या--विच्छि-18 स्था चित्र-नालेखो येषु ते तथा, किमु भवति ।-आवादिलक्षणोपेतः तथा सती-शीभमा छाया-शोभी षोते
तथा त सप्पयादि विशेषणप्रय प्राग्वत्, एवंभूतैः नानाविधः पञ्चवर्णैः मणिभिस्तृणैश्योपशोभिता, तथधे-1 IS खुपदर्शने, कृष्णा-कृष्णवर्णोपेतः एवं 'वण्णोति एवं अमुंना प्रकारेण शेषोऽपि नीलादिको वर्णी मणितॄणविशे॥षणतया योजनीयो बंधा नीलवर्णोहितवर्णः हारिद्रवण शुक्लवर्णैवेति, तथा तेषां मणितॄणानां गन्धः स्पर्शःशब्दच तिच्या, तथा तस्य बनखण्डस्य भूमिभागे पुष्करिण्यः पर्वतका गृहकाणि मण्डपकाः पृथिवीशिलापट्टकाच नेतव्याः
ट्रिपचे प्रापणीयाः, भवन्ति हि सूत्रकाराणां गतवैचित्र्यादाहशानि लापवार्थकानि एवं जाव तहेव रचाई वण्णओ रासस अहा' इत्यायनेकप्रकारकपदाभिव्यजयानि अतिदेशरूपाणि सूत्राणि, यदाह-कह देसग्गहण कत्थई भण्णंति | मिरवसेसाई। रकमकमजुत्ताई कारणवसयो निसत्ताई ॥१॥” इति, अत्रैतत्सूत्राभिप्रावाभिव्यक्तये जीवाभिगमादिप्रन्धोका कियान पाठो लिख्यते, 'तत्थ ण जे ते किण्हा मणी तणा व तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, त-से जहा-18 माम एजीभूतेह वा अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा मसीह वा मसीगुलियाई वा गवलो वा गवलगुलिखाइ वा भिमरेइ वा भमरावलीइ वा भमरपत्तसारेइ वा जंबूफलेइ वा अद्दारिदेइ वा परपुढेइ वा गएर वा गवकलभेइ वा किण्ह| त्रिपिदेशभहण कंगपित भण्यन्ते निरनशेषाणि । उत्कमक्रमणुलानि कारणपशतः सूत्राणि ॥१॥
अनुक्रम [६]
~66~
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[&]
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृतिः
॥ ३२ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
४
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
सप्पेइ वा किण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेइ वा किण्हासोएइ वा किण्हकणवीरेद्र वा किण्हबंधुजीवेश वा भवे एयारुवे ?, गोअमा ! णो इणडे समहे, ते णं कण्हा मणी तणा य इतो इट्ठतरिया चैव कंततराए चैव मणुण्णतराए चैव मणामत| राए चैव वण्णेणं पण्णत्ता' इति, अत्र व्याख्या- 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषां पञ्चवर्णानां मणीनां तृणानां च मध्ये णमिति प्राग्वत्, ये ते कृष्णा मणयस्तृणानि च, ये इत्येव सिद्धे ये ते इति वचनं भाषाक्रमार्थं, 'तेसि णमित्यादि से जहाणामए' इत्यन्तं च सूत्रं पूर्ववत्, जीमूतो मेषः, स चेह प्रावृप्रारम्भसमये जलपूर्णो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात् इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्र इतिवाशब्दौ द्रष्टव्यौ, अञ्जनं-सौवीराञ्जनं रत्नविशेषो वा खञ्जनं-दीपकमल्लिकामलः स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भवमित्यपरे | कज्जलं - दीपशिखापतितं मषी तदेव कज्जलं तास्त्र भाजनादिषु सामग्रीविशेषेण घोलितं मषीगुलिका-घोलितकज्जलगुटिका गवल-माहिषं शृङ्गं तदपि चापसारितोपरितनत्वग्भागं प्राह्यं तत्रैव विशिष्टस्य कालिनः सम्भवात्, तथा तस्यैव माहिपश्टङ्गस्य निबिडतरसार निर्वर्त्तिता गुटिका गवलगुटिका भ्रमरः - प्रतीतः भ्रमरावती-भ्रमरपङ्क्तिः तथा भ्रमरपत्रसारःभ्रमरस्य पत्रं - पक्षस्तस्य सारः - तदन्तर्गतो विशिष्टश्यामतोपचितः प्रदेशः जम्बूफलं प्रतीतं आर्द्रारिष्ठः - कोमलकाकः परपुष्टः - कोकिलः गजो गजकलभश्च प्रसिद्धः कृष्णसर्पः - कृष्णवर्णः सर्पजातिविशेषः कृष्णकेसरः- कृष्णवकुल: 'आका- शथिग्गलं' शरदि मेघमुक्तमाकाशखण्डं, तद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णा शोककृष्णकणवीरकृष्णवन्धु
Fur Prate&Prone Cy
~67~
१ वक्षस्कारे पद्मवेदिकावनखण्डव.
॥ ३२ ॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
जीवाः अशोककणवीरवन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषज्युदासार्थ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते श भगवन्तं गौतमः पृच्छति-भवे एयारूवें' इति भवेत् मणीनां तृणानां च कृष्णो वर्ण एतद्रूपो-जीमूतादिरूपः, काकुपाठाच्चास्य प्रश्नसूत्रता वेदितव्या, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्थ उपपन्नो, यदुत-एवंभूतः कृष्णो
वर्णो मणीनां तृणानां च, किन्तु ते कृष्णा मणयस्तृणानि च इतो-जीमूतादेः सकाशादिष्टतरका एव-कृष्णेन वर्णेन 18| ईप्सिततरका एव, तन्त्र किश्चिदकान्तमपि केषाञ्चिदिष्टतरं भवति ततोऽकान्तताब्यवच्छित्यर्थमाह-कान्ततरका एव|| अतिस्निग्धमनोहारिकालिमोपचितया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव मनोज्ञतरका-मनसा ज्ञायन्ते अनुकूल|| तया स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियन्ते इति मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, तत्र मनोज्ञमपि किचिन्म|| ध्यम भवति ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-मनआपतरका एव-द्रष्टुणां मनांसि आमुवन्ति-आत्मवशतां नयन्तीति मनापाः ततः प्रकर्षविवक्षायां तर प्रत्ययः, प्राकृतत्वात् पकारस्य मकारे मणामतरा इति भवति, अथवा कोऽपि शब्दः कस्यापि प्रसिद्धो भवतीति नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ एकाथिका एवैते शब्दा इति । 'तत्थ णं जे ते नीलगा मणी तणा य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते तंजहा-से जहा णामए भिंगेइ वा भिंगपत्तेइ वा चासेइ वा18 चासपिच्छेद वा सुएइ वा सुअपिच्छेइ वा णीलीइ वा णीलीभेएइ वा नीलीगुलियाइ वा सामाएइ वा उच्चंतएइ वा वणराईइ वा हलधरवसणेइ वा मोरगीवाइ वा पारेवयगी वाइ वा अयसिकुसुमेइ वा बाणकुसुमेह वा अंजणकेसियाकुसु
000000000000000000
estaesesiseate
दीप अनुक्रम
intillenni
~68~
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [६]
श्रीजम्-मापा जीखुपदा पीलासोपा पाणीलकणधीरे वा बीलबंधुजीवेइ वा, भये एथारूवे !, मोभमा ! पोइम समई, ६१ वक्षस्कारे
द्वापशा-INणीला मणी सणापतो हहतरपा व तितरवा व मणुण्णतरचा वेष मणामतरथा व वणेणं पण्णते'ति. पियवादका विचन्द्री-18
wallवनखण्डवः या चिः
पदयोजमा प्रापल्, भृक्षा-कीटविशेषः पक्ष्मलः भृगपत्रं-तस्वैव कीटविशेषस्य पश्म शुक:-कीरः शुकपि-शुक्र पर्व सिपाप-पक्षिविशेषः चापपिच्छ-तस्यैव पिच्छे नीली-प्रसिद्धा नीलीभेदो-नीलीच्छेदः नीलीगुलिका-नीली-18 विका श्यामाकी-धाम्यविशेषः, प्रज्ञापनायां तु 'सामा इति पाठः, तत्र श्यामा-प्रियः, उचंतगो-दन्तरागा वनराजी-18 मतीता, हलधरो-बलभद्रः तख वसन, तञ्च किल नीलं भवति, सर्वदेव बलो गौरशरीरत्वाच्छोभाकारीति नीलमेव वस्त्रं परिधत्ते, मेथूरग्रीवापारापतग्रीवाअलसीकुसुमधाणकुसुमानि प्रतीतानि, अञ्जनकेशिका-पनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं 8 नीलोत्पल-कुवलय नीलाशोकनीलकणवीरमीलबन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् व्या-18 हो । 'तत्थ जे जे ते लोहिमगा मणी तणा य तेसि अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे तं०-से जहा णाम प ससग-1 रुहिरेह वा उरम्भरुहिरे वापराहरुहिरेई वा मणुस्सरुहिरेइ वा महिसरुहिरेद वा बालिंदगोवेइ वा बालविवायरेइमा संझम्भरागेह वा गुजद्धरागई वो जायहि मुखएर वा सिलप्पवालेइवा पवालकुरेह वा लोहिअक्खमणीइ वा सक्स-11 ॥३३॥ परसेहवा किमिरागकंपलेद वा चीणपिरासीह था जामुअणकुसुमेह या किसुअकुसुमेह या पालियायकुसुमेश्या रसुष्पखेड या रसासोपा वा रसकणवीरेर पा रत्तवेधुजीवर वा, भवे एवारवे, गोममाणिोणढे समढे, ते णे खोहिजना मेणी
Simillenniline
~69~
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
-- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
समाय पसी हितरवा पेय कंततरणा व मणुनतरचा चेष मणामतरचा वेष वणणं पण्य ति, शक्षकरुधिर-प्रतीत, परभा-रणस्तख रुधिर वराह-कराल रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिषरुधिरं प्रतीतं, एसानि हि शेषरुधिरेभ्यो लोहिसवर्णोत्कटाणि भवन्ति तेषामुपादा, बालेन्दगोपका-सद्योजात इन्द्रगोपका, स हि पूरी सन् पिताण्डरको भवति । सती पालग्रहणं, इन्द्रगोपका-पाटकालभावी कीटविशेषः बालदिवाकरा-प्रथममुद्गन्छन् सूर्यः, स हि पदयेरको भवतीति बालपदोपादानं, सन्ध्याचरागो-वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अधरागः गुञ्जा-रक्तिका तस्साः अर्द्ध तस्स रागः मुजाईरागः, गुखाया हि अर्द्धमतिरकं भवति अर्द्धभतिकृष्णं अतो गुञ्जार्द्धग्रहण, जात्यहिजसको व्यक्ती, शिलामवालंमवालनामा रसविशेषः प्रवालाकुरा-तस्यैवाकुरः, स हि प्रथमोद्गतत्त्वेनात्यन्तरको भवत्वतस्तदुपादान, लोहिलास-1 मणिर्माम रसविशेष लाक्षारसा प्रसिद्धः कृमिरागेण रक्तः कम्बला कृमिरागकम्बला पीमपिष्ट-सिग्दर तल राशिः, राजपाकुसुमकिंशुककुसुमपारिजातकुसुमरकोत्पखरकाशोकरककणवीररतबन्धुजीवाः प्रतीत्ता, 'भो एयारूचे' इत्यादि प्राग्वत् । "सत्य पजे ते हालिद्दा मणीसणी व तेसिणं अपमेयारूबे पण्णावासे पण्णते, तंजहा से अहा णाम |
पगेइ वा पगच्छलीद या पगएर वा हालिहाइ था हालिहाभेएइ वा हालिदागुलियाइ वा हलिवालियाह। वा हरियालियागुलियाइ वा चिउरेइचा चिरिंगरागेहवा बरकणगेइ वापरकणगमिषसेहवा बरपुरिसंवसह वा जलाकुसुमहा पगकुसुमेध या कोहंडिपाकुसुमेह या कोरटमल्लदामेइ वा सारडाकुसुमेह या घोसारिपालने का सुबष्णमूहि
दीप अनुक्रम [६]
JinElemniti
~ 70~
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू-18 याकुसुमेइ वा सुहिरणियाकुसुमेह वा बीअगकुसुमेइ वा पीयासोएड वा पीतकणवीरेइ वा पीअबंधुजीवेइ वा, भवे एआ
द्वीपशाः स्वे, गोमा ! णो इणटे समहे, तेणं हालिद्दा मणी तणा य एत्तो इतरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता' 'तत्रे'त्यादि पदयोजना पनवेविकान्तिचन्द्रीया चिः
प्राग्वत् , चम्पकः-सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः, चम्पकच्छली-सुवर्णचंपकत्वक चम्पकभेदः-सुवर्णचम्पकच्छेदः हरिद्रावनखण्डव.
व्यका, हरिद्राभेदो-हरिद्राच्छेदः हरिद्रागुलिका-हरिद्रासारनिर्वर्तिता गुटिका हरितालिका-पृथिवीविकाररूपा प्रतीता ॥३४॥ | हरितालिकाभदो-हरितालिकाच्छेदः हरितालिकालिका-हरितालिकासारनितिता गुटिका चिकुरो-रागद्रव्यविशेषः, ॥५॥
चिकुरागरागः-चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ रागः, वरं-प्रधानं यत् कनकं पीतसुवर्णमित्यर्थः वरकनकं तस्य निघर्षः | निकषो वा-कपपट्टके रेखारूपः वरपुरुषो-वासुदेवस्तस्य वसन-वखं, तद्धि किल पीतमेव भवतीति तदुपादानं, अल्लकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं, चम्पककुसम सर्वणचम्पककुसुमं कृष्माण्डिकाकुसुम-पुंस्फलीपुष्प, कोरण्टकमाल्यदाम-कोरण्टकः ॥3
पुष्पजातिविशेषः स च कण्टासेलिआख्यः सम्भाव्यते तस्य मालायै हितानीति कृत्वामाल्यानि-पुष्पाणि तेषां दाम-माला, ३ समुदाये हि वीत्कव्यं भवतीति दामग्रहणं, तडवडा-आउली तस्याः कुसुमं तडवडाकुसुम, तथा पोषातकीकुसुमं सुव
र्णयधिकाकुसुमं च प्रतीतं, सहिरण्यिका-बनस्पतिविशेषः, बीअको वृक्षविशेषः प्रतीतस्तस्य कुसुमं, पीताशोकादयो व्यक्काः,18॥३४॥
शेष पूर्ववत् । "तस्थणं जे ते सुकिला मणी य तणा य तेसि णं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा से जहाणाम ए 19 अंकह वा खीरेर वा खीरपूरेर वा कोंचावलीह वा हारावलीइ वा बलायावलीइ वा सारहअबलाहएइ वा धंतधोअरुप्पप
20995%sa90095
अनुक्रम [६]
~71~
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
TREATREE
.
प्रत
सूत्रांक
Bावा सालिपिहरासीइ वा कुंदपुप्फरासीइ वा कुमुअरासीह वा सुक्कछिवाडिआइ वा पेहुणमिजिआइ वा भिसेह वा | SI
मुणालेइ वा गयदंतेइ वा लवंगदलेइ वा पोंडरीयदलेइ वा सिंदुवारमल्लदामेइ वा सेआसोपइ वा सेअकणवीरेइ वा सेअबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे, गोअमा | णो इणडे समढे, ते णं सुकिल्ला मणी तणा य इत्तो इतरा व जाव वण्णेणं पण्णत्ता," 'तत्थ ण'मित्यादिपदयोजना प्राग्वत् , अङ्को-रसविशेषः शङ्खचन्द्रौ प्रसिद्धी कुन्दं-पुष्पविशेषः18 दक-गङ्गाजलादि दकरजः-उदककणास्ते ह्यतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधिषनो-दपिपिण्डः क्षीर-प्रतीतं, क्षीरपूर कथ्यमानामतितापादूर्ध्व गच्छत् क्षीरं क्रौञ्चावलिहारावलिहंसावलिबलाकावलयः प्रकटार्थाः, आवलिपदोपादानं | वर्णोत्कव्यप्रतिपादनार्थ, चन्द्रावली-तटागादिषु जलमध्ये प्रतिविम्बिता चन्द्रपति, शारविकबलाहकः-शरत्काल
भावी मेघः ध्मातधौतरूप्यपट:-ध्मात:--अग्निसम्पर्कतोऽतिनिर्मलीकृतो धौतो-भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातितेजितो | | रूप्यमयपट्टः, अन्ये तु व्याचक्षते-ध्मातेन-अग्निसंयोगेन धौतः-शोधितो रूप्यपट्टः, शालिपिष्ठ-शालिचूर्ण तस्य राशि:
शुक्ला भवत्यतस्तराशिः कुमुदराशिश्च स्पष्टः, छेवाडीनाम-बल्लादिफलिका सा च क्वचिद्देशविशेषे शुष्का सती अतीव ।। ॥४॥ पुनः कुन्दपुष्पदुपादानं, “पेहुणमिंजिका' पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिजा सा चातिशुक्लेति तदुपन्यासः, |विसं-पद्मिनीकन्दः मृणालं-पद्मतन्तुः, शेषा गजदन्तादिका उत्तानार्थाः, नवरं सिंदुवारो-निर्गुण्डी तस्य माल्यं-दाम [8] | शेष भाग्वत्, 'भवे एयारूवे'इत्यादि भावितार्थ, तदेवमुक्तं वर्णस्वरूपं, सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-"तेसि ||
दीप अनुक्रम [६]
aonwroo0905009002020200
Jinni
Mail
~ 72 ~
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [६]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्यू-18 मणीणे तणाण 4 कैरिसए पंधे पण्णते,से मही० को पुडाण वा तमरपुडाण वा एलापुराण पापीमपुडाण वक्षस्कारे द्वीपशा- चपगपुडाण पा दमणगपुडाण वा कुंकुमपुराण वा चंदणपुडाण वा ओसीरपुडाण था मरुअगपुडाप वा जाइपुडाण वालापमवेदिकान्तिचन्द्रीहिआपुडाण पा मलिआपुडाण वा हाणमल्लिापुडाण वा केअइपुडाण वा पाडलपुडाण वाणीमालियापुडाम या अग-16
वनखण्डव. या वृतिः
गपुडाण वा सवंगपुटाणे वा वासपुडाण की कापूरपुडाणं वा अणुवायंसि सम्भिजमाणाण वा णिम्भिजमाणाण वा ॥३५॥ कुट्टिजमाणाण वा चिजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा परि जमाणाण का भंडाओ भंड साहरिजमाणाणं राला 8
मणुष्णा मणोहरा घाणमणनिधुइकरा सबओ समता गंधा अभिणिस्सर्वति, भवे एथारूपे, गोषमा जो इण्डे | शसमटे, तेसिणं मणीण य तणाण य इत्तो इट्टतरए चेव व मणामतरए चेव मंधे पण्णते" तेषां जगतीपमवरषेदिका
बनखण्डस्थानां भदन्त ! मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! से जहा णाम ए इत्यादि, समाकृतत्वात् से इंति बहुवचनार्थः, ते यथा नाम 'ए'इति वाक्यालङ्कारे गन्धा अभिनिःश्रवन्तीत्ति सम्बन्धः, कोष्टगन्धद्रव्यं तख पुटाः कोष्टपुटाः तेषां, वाशब्दः सर्वत्र समुच्चयार्थः, इह एकस्य पुटख प्रायो मताहशो गन्धः प्रसरति गम्पद्रव्यस्यास्परवीत् ततो पहुवचन, तगरमपि गन्धद्रव्यं एला:-प्रतीताः चोभ-गन्धद्रव्य चम्पकदममककुमचन्द-11॥३५॥ मीशीरमरुबकजातीयूयिकामल्लिकालाममलिकाकेतकीपाटलानवमालिकाअगुरुलवङ्गवासकर्पूराणि प्रतीतानि, वरमुसौर-वीरणं मूल, अत्र कचित् 'हिरिचरपुडाण वा' इति, तत्र हीबेरपुटानी-पालपुटानां मानमल्लिका-खानयोग्यो
~ 73~
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
मल्लिकाविशेषः एतेषामनुवाते आधायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूलवाते घाति सति एन्जियमानानां उद्घाव्यमानानां | निर्भिद्यमानानां नितरां अतिशयेन भिद्यमानानां 'कोट्टिजमाणाण था' इति ईद पुटैः परिमितानि यानि कोठादिनधद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात कोष्ठपुटादीनीत्युच्यन्ते तेषां कुधमानानां उदूषकादिषु कुट्टन्धमानाना रुचिजमाणाण वा इति-श्लक्ष्णखंण्डीक्रियमाणानां एतच्च विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्याणामवसेयं, तेषां प्रायः कुट्टन क्ष्णस्खण्डीकरणसम्भवात् न तु यूथिकादीनां तथा उत्कीर्यमाणानां क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपुटानां कोष्ठादिद्रव्याणां वा उल्लिख्यमानानां तथा विकीर्यमाणानां इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुज्यमानानां परिभोगायोपयुज्यमानाना कचित् 'परिभाएजमाणाण वा' इति पाठः, तत्र परिभाज्यमानानां पार्श्ववर्त्तिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानानां तथा माण्डात् स्थानादेकस्मादन्यन्नाण्ड-भाजनान्तरं संहियमाणानां उदारा:- स्फारास्ते चामनोशा अपि भवन्त्यत आहमनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः तच्च मनोज्ञत्वं कुत इत्याह-मनोहरा - मनो हरन्ति - आत्मवशतां नयन्तीति मनोहराः यतस्ततो मनोज्ञाः, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-प्राणमनो निर्वृतिकराः - नासासचिव चेतः सुखोत्पादकाः, एवम्भूताः सर्वत:दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येन गन्धा अभिनिःश्रवन्ति - जिप्रतामभिमुखं निस्सरन्ति, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति भवेदेशद्रूपः १, भगवानाह - गौतम । नायमर्थः समर्थः तेषां मणीनां तृणानां च इस इष्टतरकश्चैव यावन्मन आपतरकश्चैव गन्धः | प्रज्ञत इति । 'तेसि णं भंते! मणीनं तणाण व केरिसए फासे पण्णसे, से जहा णाम ए आइणगेइ वा रूएइ वा घूरेह
Fur Fate & Pune Cy
~74~
esectorseene
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे पनवेदिकावनखण्डव.
सूत्रांक
eaeeकरर
दीप अनुक्रम [६]
श्रीजम्यू-18
वा णवणीएइ वा हंसगम्भतूलीइ वा सिरीसकुसुमनिचएइ वा बालकुमुदपत्तरासीइ वा, भवे एयारूवे, गोअमा! णो द्वीपशा- इणहे समढे, तेसि णं मणीणं तणाण य इत्तो इट्टतरए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते" तेषां भदन्त ! मणीनां तृणानां च न्तिचन्द्री
कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! 'से जहा णाम प'इत्यादि, तद्यथा-अजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रूतं-को- या वृत्तिः
| सपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः, नवनीत-म्रक्षणं, हंसगर्भतूली शिरीषकुसुमनिचयश्च प्रकटः, बालानि-अचिरकाल॥३६॥ जातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिः, क्वचिद्बालकुसुमपत्रराशिरिति पाठः, 'भवे एयारूवे'इत्यादि पूर्ववत् , 'तेसिणं
भंते ! मणीणं तणाण य पुषावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदाय मंदायं पइयाणं वेइयाणं कंपियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं खोभिआणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णत्ते, गो०1 से जहा णाम ए, सिविआए वा संदमाणिआए वा रहस्स वा सच्छत्तस्स सज्झयस्स सघंटायस्स सपडायस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणीअहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुआगस्स सुपिणद्धारगमंडलधुरागस्स कालायससुकवणेमिर्जतकम्मस्स
आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलतरछे असारहिसुसंपगहियस्स सरसयवत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडवयंसगस्स 19॥ सचावसरपहरणावरणभरिअजोहजुज्झसज्जस्स रायंगणंसि वा अंतेजरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुहिमतलंसि अभिपट्टि-
जमाणस्स जे उराला मणुण्णा कण्णमणणिषुईकरा सदा सबओ समता अभिणिस्सरति, भवे एयारूवे सिमा १.णो| इणद्वे समझे' अत्र व्याख्या-तेषां मणीनां तृणानां च भदन्त ! पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैर्मन्द मन्दमेजितानां-कम्पि
CoeceN
॥३६॥
विय
~ 75~
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
तानां तथा व्यंजिताना-विशेषतः कम्पितानां, एतदेव पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानामिति, तथा चालितानां-15 | इतस्ततो विक्षिप्तानां, एतदेव पर्यायेणाह-स्पन्दितानामिति तथा घट्टितानां-परस्परं घर्षयुक्तानां, कथं घट्टिता इत्याह-क्षोभिताना-स्वस्थानाच्चालितानां, स्वस्थानाचालनमपि कुत इत्याह-उदीरितानां-उत्-पावल्येनेरिताना-प्रेरि-18 तानां, कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! स यधानामकः शिविकाया वा स्यन्दमानिकाया वा रथस्य । वा, तत्र शिविका-जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घा जम्पानविशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणाधका|| शदायी स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादिचलनवशतो वेदितव्या, रथश्चेह रणरथा
प्रत्येतव्यः न क्रीडारथा, तस्यागेतनविशेषणानामसम्भवात् , तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले ये पुरुषास्तदपेक्षया ॥९॥ कटिप्रमाणावसेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिधत्ते-सच्छत्रस्य सध्वजस्य सघण्टाकस्य-उभयपाश्वावलम्बिमहाप्र- 18
माणघण्टोपेतस्य सपताकस्स-सलघुध्वजस्य, सतोरणवरस्य-प्रधानतोरणोपेतस्य सनन्दिघोषस्य-द्वादशविधतूयनिनादोपेतस्य, द्वादश तूर्याणि च "भंभा १ मकुन्द २ मद्दल ३ कडव ४ झल्लरि ५ हुडुक ६ कंसाला७ । काहल ८ तलिमा ||
९ वंसो १० संखो ११ पणयो १२ अ बारसमो॥१॥" तथा 'सकिङ्किणीकहेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्तस्य' सह किङ्किMणीभिः-क्षुद्रघण्टाभिर्वन्त इति सकिङ्किणीकानि यानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहास्तैः पर्यन्तेषु-बहिःपदेशेषु परि-18
क्षिप्तो-व्याप्तः तस्य, तथा हैमवतं-हिमवत्पर्वतभावि चित्र-विचित्रं मनोहारि तैनिश-तिनिशदुमसम्बन्धि कनकनियु
otictioectorcersersectrotiicerce
दीप अनुक्रम
श्रीजम्.
~76~
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[&]
दीप
अनुक्रम [&]
श्रीजम्बूद्वीपशाविचन्द्री
या वृत्तिः
॥ ३७ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
Jan Eikenitinf
-
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
| कं- कनकविच्छुरितं कनकपट्टिकासंवलितमित्यर्थः (तत्) तथाविधं दारु-काष्ठं यस्य स तथा सस्य, प्रथमो बहुवीही | कः द्वितीयः स्वार्थिकः, पूर्वस्य च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् तथा सुष्ठु अतिशयेन सम्यक् पिनखभरकमण्डर्स घूच यस्य स सुसंपिनद्धारकमण्डलधूष्कस्तस्य, तथा कालायसेन- लोहेन सुष्ठु - अतिशयेन कृतं नेमे:- बाह्यपरिधेर्यन्त्रत्य चारकोपरि फलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, आकीर्णा- गुणैर्व्याप्ता ये वराः -प्रधानास्तुरगासे | सुष्ठु - अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ता - योत्रिता यस्मिन् स तथा तस्य बहुव्रीहावपि निष्ठान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, तथा सारथिकर्मणि ये कुशलनरास्तेषां मध्ये अतिशयेन छेको दक्षः सारथिस्तेन सुष्ठु सम्यकपरिगृहीतस्य, तथा शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि शरशतानि तानि च द्वात्रिंशत्तणानि च-गाणाश्रयाः शरशतद्वात्रिंशत्तणानि तैर्मण्डितः, किमुकं भवति ? – एवं नाम तानि द्वात्रिंशत् शरशतानि तूणानि रथस्य सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि तस्य रणायोपकल्पितस्यातीच मण्डनाय भवन्तीति, तथा कङ्कटः- कवचं अवतंसः शिरखाणं ताभ्यां सह वर्त्तते यः स तथा तस्य, सह चापेन ये शरा यानि च कुन्तादीनि प्रहरणानि यानि च खेटकादीन्यावरणानि तैर्भूतः - पूर्णस्तथा योधानां युद्धं तन्निमित्तं सज्जः प्रगुणीभूतो यः स योधयुद्धसज्जस्ततः पूर्वपदेन कर्म्मधारयः, तस्य इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे वा अन्तःपुरे वा | रम्ये वा मणिकुट्टिमतले - मणिबद्धभूमितले अभीक्ष्णं-मुहुर्मुहुर्मणि कोट्टिमतलप्रदेशैः राजाङ्गणादिप्रदेशैर्वा 'अभिघट्टि जमाणस्से 'ति अभिघट्टधमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा- मनोज्ञाः कर्णमनो निर्वृतिकराः सर्वतः समन्तात् शब्दाः
Fur Fate & Use Cy
~77 ~
sereve
११ वक्षस्कारे
पद्मवरवेदिकावन
खण्डव.
॥ ३७ ॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
.
प्रत
सूत्रांक
अभिनिस्सरन्ति-श्रोणामभिमुखं निस्सरन्ति, 'भवे एथारूवे सिआ । इति स्यात्-कथञ्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीना तृणानां च शब्दः !, भगवानाह-मौतम ! नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-से जहाणामए वेआलियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिआए अंकेमुपइडियाए कुसलणरणारिसुसंपग्गहियाए चंदणसारकोणपरिपट्टियाए पचूसकालस-10 मयंसि मंद मंदं एझ्याए बेड्याए चालियाए घट्टियाए फंदियाए खोभियाए उराला मणुण्णा कण्णमणणिबुइकरार सबओ समंता सद्दा अभिणिस्सर्वति, भवे एयारूवे सिया', णो इणडे समडे" अत्र व्याख्या-स यथानामकः प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका, तालाभावे च वाद्यते इति बिताले-तालाभावे भवतीति वैतालिकी तस्या वैतालिक्या बीणाया 'उत्तरमंदामुच्छ्यिाए' इति मूर्छनं मूर्छा सा सञ्जाता अस्या | इति मूच्छिता उत्तरमन्दया-उत्तरमन्दाभिधया गन्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्छनया मूछिता तस्याः, अयमाशय-13
गन्धारस्वरस्य सप्त मूर्छना भवन्ति, तथाहि-"नंदी य खुड्डिमा पूरिमा य चोत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारावि अS | हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥ मुहत्तरमायामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धया । उत्तरमंदा य तहा हवाई सा सत्तमी | | मुच्छा ॥२॥" अथ किस्वरूपा मूर्छना', उच्यते, गन्धारादिस्वरस्वरूपामोचनेन गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वर| विशेषा यान् कुर्वन् आस्तां ओदन मूछितान् करोति किन्तु स्वयमपि मूर्षित इव तान् करोति, यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूच्छों करोति, यदुक्तम्-"अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्तावि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छ
दीप अनुक्रम [६]
209990000000000000382900esos
mesesepeecersectrotatoeceeeeeer
~ 78~
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ---...............--
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
तिचन्द्री
8व सो वत्ति ॥१॥" गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दा मूर्छना किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्त-18 हीपशा-18| दुपादानं, तवा च मुख्यवृत्त्या वादविता मूच्छितो भवति परमभेदोपचाराद्वीणापि मूर्षिलतेत्युक्ता, साऽपि यद्यङ्के।
पञ्चवरवेसुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न मूर्च्छना प्रकर्ष विदधाति तत आह-अङ्के-उत्सङ्गे स्त्रियाः पुरुषस्य वा सुप्रतिष्ठितायाः दिकावनया वृत्तिः
| तथा कुशलेन-वादननिपुणेन नरेण नार्या वा सुषु-अतिशयेन सम्यक्प्रगृहीतायाः तथा चन्दनस्य सारो-गर्भस्तेन खण्डव.
निर्मापितो यः कोणो-वादनदण्डः तेन परिघट्टितायाः-संघट्टितायाः प्रत्यूपकालसमये-प्रभातकालसमये, कालश्च वर्णो॥३८॥
ऽपि स्यादत आह-समयेति' समयश्च सोतोऽपि स्वादत आह-काले ति मंदं मंद-शनैः शनैः एजिताया:-चन्दन-1M | सारकोणेन मनाक् कम्पितायाः तथा व्ये जिताया:-विशेषतः कम्पितायाः, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-चालितायाः तथा । घट्टितायाः-ऊर्ध्वाधोगच्छता चन्दनसारकोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सह तन्न्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः, तथा स्पन्दितायाः नखाग्रेण स्वरविशेषोत्पादनार्थमीपञ्चालितायाः क्षोभिताया-मूर्छा प्रापिताया ये उदारा मनोहरा मनोज्ञाः कर्णमनोनितिकराः सर्वतः समन्ताच्छब्दा अभिनिस्सरन्ति, स्यात्-कथञ्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीनां तृणानां च शब्दः', भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-से जहाणामए किनराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधवाण वा भदसालवणगयाण वा णंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा महाहिमवंतमलयमंदरगिरिगुहासमन्नागयाण वा एगओ सहियाणं संमुहागयाणं समुपविट्ठाणं सन्निविट्ठाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइ ग
अनुक्रम [६]
ecenecteineestocksecserseise
Jintlemanimall
~ 79~
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [६]
वक्षस्कार [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
धबहरिसिअमणाणं गेजं पजं कत्थं पयबद्धं पायवद्धं उक्खचायं पवत्तायं मंदायं रोइयावसाणं संतसरसंमण्णा गय अट्ठरससंपत्तं इकारसालंकारं छद्दोसविप्पमुकं अट्ठगुणोववेयं रत्तं तिद्वाणकरणसुद्धं संकुहरगुंजत बंसतं तीतलताललयग्गहसुसंपत्तं मधुरं समं सुललिअं मणोहरमज्यरिभियपयसंचारं सुरई सुणई वरचारुरूवं दिवं णट्टसज्जं गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया ?, गो० ! एवंभूए सिआ,” अत्र व्याख्या - स यथानामकः किन्नराणां वा किंपुरुषाणां वा महोरगाणां वा गन्धर्वाणां वा, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, एते किन्नरादयो रत्नप्रभायाः उपरितनयोजन सहस्रवर्त्तिव्यन्तरनिकायाष्टकमध्यगतपञ्चमषष्ठसप्तमाष्टम निकायरूपा व्यन्तरविशेषाः, तेषां कथम्भूतानामित्याह-भद्रशालवनगतानां वा इत्यादि, तत्र मेरोः समन्ततो भूमौ भद्रशालवनं, तत्र प्रथममेखलायां नन्दनवनं, द्वितीयमेखलायां सोमनसवनं, शिरसि चूलिकायाः पार्श्वेषु सर्वतः पण्डकवनं तत्र गतानां महाहिमवान् - हेमवतक्षेत्र स्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतस्तस्य, उपलक्षणं चैतत् शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्व- मेरुगिरेर्गुहां समन्वागतानां-गुहाप्राप्तानां वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु स्थानेषु प्रायः किन्नरादयः प्रमुदिता भवन्ति तत एतेषामुपादानं, एकत:एकस्मिन् स्थाने सहितानां समुदितानां तथा परस्परं सम्मुखागतानां सम्मुखं स्थितानां नैकोऽपि कस्यापि पृष्ठं दत्त्वा | स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने हर्षविधातोत्पत्तेः, तथा सम्यक् - परस्परानाबाधया उपविष्टाः समुपविष्टास्तेषां तथा सन्निविष्टानां सम्यक्-स्वशरीरानाबाधया न तु विषमसंस्थानेन निविष्टास्तेषां तथा 'प्रमुदितप्रक्रीडितानां' प्रमुदिताः - हर्षं गताः
Fur Fate &P Cy
~80~
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[&]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥ ३९ ॥
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
प्रक्रीडिताः- क्रीडितुमारब्धवन्तस्ततो विशेषणसमासः तेषां तथा गीते रतिर्येषा ते गीतरतयो गन्धर्वैः कृतं गान्धर्वनाव्यादि तत्र हर्षितमनसः गान्धर्वहर्षितमनसः, तत्तः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां, 'रागगीत्यादिकं गीतं पदस्वरतालावधानात्मकं गान्धर्व' मिति भरतादिशाखवचनात् गद्यादिभेदादष्टधा गेयं, तत्र गद्यं यत्र स्वरसञ्चारेण गद्यं गीयते यत्र तु पद्यं वृत्तादि यद् मीयते तत्पद्यं यत्र कथिकादि गीयते तत् कथ्यं पदवखं यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि 8 | पादबद्धं यद्वृत्तादिचतुर्भागमात्रे पादे बद्धं उत्क्षिप्तकं प्रथमतः समारभ्यमाणं, अत्र ककारात्पूर्वं दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यं प्रवृत्तकं प्रथमसमारम्भादूर्ध्वमाक्षेपपूर्वकं प्रवर्त्तमानं, तथा मन्दाकं - मध्यभागे सकल मूर्च्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं सञ्चरन् अथवा मन्दमयते गच्छति अतिपरिघोलनात्मकत्वात् मन्दायं रोचितावसानं रोचितं अवसानं यस्य तत् रोचितावसानं, शनैः शनैः प्रक्षिष्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसानं सद्रोचितावसानमित्यर्थः, इह हि पथं पादबद्धं चैक एव भेदः, उभयत्रापि वृत्तरूपतानतिक्रमात्, तेम गेयस्याष्टप्रकारताकथनं न विरुद्धमिति, तथा 'सप्तस्वरसमन्वागतं' सच स्वराः षड्डादयः उक्तं च- "सज्जे रिसह गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे। धेवए चैव नेसाए, सरा सत्त विआहिआ ॥ १ ॥” ते च सप्त स्वराः पुरुषस्य स्त्रिया वा नाभीतः समुद्भवन्ति, 'सत्त सरा नाभीओ' इति पूर्वमहर्षिवचनात्, तथा अष्टभी रसैः--शृङ्गारादिभिः सम्यक् - प्रकर्षेण युक्तं, तथा एकादशालङ्काराः पूर्वान्तर्गते खरत्राभृते सम्यगभिहितास्तानि च पूर्वाणि सम्प्रति व्यवच्छिशानि तेन तेभ्यो लेशतो विनिर्गतानि पानि भरतविशाखिल
Fur Fraternal Use O
~81~
वक्षस्कारे पद्मवरवेदिकावन
खण्डव.
॥ ३९ ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
ekeeseeeeeeetecरयर
प्रभृतीनि तेभ्यो वेदितव्याः, तथा पहदोषविप्रमुक पडिदोवर्णिममुक्त, ते पामी पड्दोषा:-"भी दुअ २ मुष्पिच्छ ई उत्तालं च कमसो मुषेयर्ष । काकस्सरमणुण्णास छद्दोसा हुँति गेयस्स ॥१॥" अत्र व्याख्या-भीत-वग्रस्त, | किमुक्तं भवति -पत् उन्नतेन मनसा गीयते तशीतपुरुषनिबन्धनत्वात् तजुर्मानुवृत्तत्वामीतमुच्यते, दुत-पत् त्वरित गीयते, त्वरितगाने हि रागवानादिपुष्टिरक्षरभ्यक्तिय न भवति, 'उप्पिच्छं' श्वाससंयुक्तमिति, पाठान्तरेण 'रहस्तति इस्वस्वरं लघुशब्दमित्यर्थः, उत्ताल' उत्-प्राबल्येन अतितालं अस्थानतालं वा, तालस्तु कतिकादिस्वरविशेषा, | काकस्वर-लक्ष्णानन्यस्वरं जनुनासं-नासिकाघिनिर्गतस्वरानुगतमिति, तथा अष्टभिर्गुणैरुपेत अष्टगुणोपेतं, ते चाष्टामी गुणा:-"पुण्ण रत्तं असंकिर्ष च वसं तहेव अविषुई। महुरं समं सुललिज, अह गुणा हुति गेयस्स ॥१॥" तत्र यत्।। खरकलाभिः पूर्ण गीयते तत् पूर्ण गेयरागानुरकेन यत् गीयते तद्रत २ अन्योऽज्यस्फुटशुभस्वरविशेषाणां करणा-18 दलहत ३ अक्षरखरस्फुटकरणाद् व्यर्फ ४ विक्रोधानमिव यद्विखरं न भवति तदविघुष्टं ५ मधुरं-मधुरस्वरं कोकिलारुतवत् १ तालवंशस्वरादिसमनुगतं सम ७ स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्टु-अतिशयेन ललतीव यत् सुललितं, यदिवा बत्। श्रोत्रेन्द्रियस शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव (ग) प्रतिभासते तत् सुललितं ८, एते अष्टौ गुणा
गेयस्य भवन्ति, एतद्विरहितं तु विडम्बनामात्र तदिति, इदानीमेतेषामेवाष्टानां गुणानां मध्ये कियतो गुणान् अन्यश्च 8 प्रतिपिपादयिधुराह-'रत्त'मित्यादि रक्त-पूर्वोक्तस्वरूपं तथा 'त्रिस्थानकरणशुद्ध त्रीणि स्थानानि-उरःप्रभृतीनि तेषु कर
अनुक्रम [६]
~82~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
-- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Mणेन-क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्ध, तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्धं च, तत्र ययुरसि स्वरो विशालस्ती-18वस्कारे
| रोविशुद्धं, स एव यदि कण्ठे वर्तितोऽस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्धं, यदि पुनः शिरसि प्राप्तः सन्नानुनासिको भवति
| ततः शिरोविशुद्धं अथवा उरःकण्ठशिरस्सु श्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यद् गीयते तदुराकण्ठशिरोविशुद्ध- दिकावनया वृत्तिः त्वात् त्रिस्थानकरणविशुद्धं, तथा सकुहर:-सच्छिद्रो गुञ्जन्-शब्दायमानो यो वंशो ये च तन्त्रीतलताललयग्रहास्तैः ।
खण्डव. ॥४०॥ सह सुष्ठ-अतिशयेन सम्मयुक्त-अविरुद्धतया प्रवर्तितं, किमुक्तं भवति ?-सकुहरे वंशे गुजति तकयां च वाद्यमानायां
| यीशतन्त्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुञ्जवंशतन्त्रीसुसम्पयुक्त, तथा परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्ति यद् गीतं तत्तालसु-12 सम्प्रयुक्तं, यत् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन समं तत् तालसुसम्प्रयुक्त, तथा शृङ्गदारुदन्तादिमयो योऽङ्गुलिकोशकस्तेनाहतायास्तन्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरद् गेयं लयसुसंप्रयुक्तं, तथा प्रथमतो वंशतन्न्यादिभिर्यः खरो गृहीतस्तत्समेन स्वरेण गीयमानं ग्रहसुसंप्रयुक, तथा मधुरमित्यादि |विशेषणत्रयं प्राग्वत्, अत एव मनोहर, पुनः कथम्भूतमित्याह-मृदुकं-मृदुना स्वरेण युक्तं न निष्ठुरेण, तथा यत्र स्वरोऽक्षरेषु घोलनास्वरविशेषेषु च सञ्चरन् रागेऽतीव प्रतिभासते स पदसञ्चारो रिभितमुच्यते मृदुरिभितपदेषु-गेय-13 | निबद्धेषु संचारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसंचार, तथा सुष्टु-शोभना रतिः श्रोतां यस्मिन् तत् सुरति, सुप्तु-III शोभना नतिः-अवनामोऽवसाने यस्मिन् तत् सुनति, पर्यन्ते मन्द्रस्वरस्य विधानात्, तथा वरं-प्रधान विशिष्टचह्नि
SaasaaDamaa00000000000noraerases
अनुक्रम [६]
~83~
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ---...............--
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
aorad
प्रत
सूत्रांक
a
दीप अनुक्रम
statesentateseseeeeeeo
मोपेतं रूपं-स्वरूपं यस्य तत्तथा, कुत इत्याह-दिव्य-देवसम्बन्धि, यतः नाट्ये-नृत्यविधी सजं नाव्य सज गीतवाद्ये तथाविधे हि नाव्यविधिरपि सुमनोहरः स्थादिति, उक्तस्वरूपं गेयं प्रगीतानां-गातुमारब्धवतां यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति, स्यात्-कथाश्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीनां तृणानां च शब्दः', दृष्टान्तस्य सर्वसाम्याभावात् स्यादिति पदोपादान, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! स्यादेवंभूतः शब्द इति । अथ पुष्करिणीसूत्रं यथा-'तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ | देसे तहिं तहिं बहूइओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सराओ सरपंतीओ सर २-३ पंतीओ बिलपंतीओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीराओ बयरामयपासाणाओ तवणिजतलाओ सुवण्णसुम्भरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोअडाओ सुओयारसुहोत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओ चाउको|णाओ अणुपुबसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय
महापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लकेसरोवचियाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थभ-8 | मंतमच्छकच्छभअणेगसतणमिहुणपविभरियाओ पत्तेयं २ पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदगाओ अप्पेगइयाओ वारुणोदगाओ अप्पेगइयाओ खोदोदगाओ अप्पेगइयाओ अमयरससमर-16 सोदगाओ अप्पेगइयाओ उदगरसेणं पण्णत्ताओ पासादीयाओ४" अत्र व्याख्या-तस्येत्यादि प्राग्वत् बहुचः क्षुद्राः| अखातसरस्यस्ता एव लटव्य:-क्षुल्लिका वाप्यः-चतुरस्राकाराः पुष्करिण्यो-वृत्ताकाराः दीपिकाः-सारण्यः ता एव |
ba200202000
~84~
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
लानि-कृपास्तेषां
सूत्रांक
खण्डव.
दीप
श्रीजम्मू18 वक्रा गुञ्जालिकाः, बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि,सूत्रे खीत्वं प्राकृतत्वात् , बहूनि सरांति एकपलया वक्षस्कार व्यवस्थित्तानि सरःपक्तिः ता बहुधः सरपथः, तथा येषु सरस्सु पकथा व्यवस्थितेषु एकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन्
पभवरवे
दिकावन|8| तस्मात्तदन्यत्रैवं संचारकपाटफेनोदकं संचरति सा सरःसर-पकिस्ता बहुधः सरासरःपतयः, बिलानि-कृपास्तेषां ॥ या वृत्तिः
पतयो बिलपतयः, एताश्च सर्षा अपि कथम्भूता इत्याह-अच्छा:-स्फटिकबद् बहिर्निर्मलप्रदेशाः श्लक्ष्णा:-लक्ष्णपु॥४१॥ गलनिष्पादितबहिःप्रदेशाः रजतमयं-रुप्यमयं कूलं यासा तास्तथा, समं न गर्चासदावतो विषमं तीरवर्तिजलापू-18
रितं स्थानं यासां ताः समतीरा, तथा वज़मयाः पाषाणाः यासा तास्तथा, तथा तपनीयं-हेमविशेषस्तन्मयं तलं यासां 8
तास्तथा, तथा 'सुवण्णसुब्भरययवालुवाओ' इति सुवर्ण-पीतं हेम सुम्भ-रुप्यविशेषः रजतं-प्रतीतं तन्मय्यो वालुका सायासु ताः सुवर्णसुम्भरजतवालुकाः, तथा 'वेरुलियमणिफलिहपडलपश्चोयडाओ' इति वैडूर्याणि-बैर्यमणिमयानि
स्फाटिकपडलमयानि-स्फाटिकरमसम्बन्धिपटलमयानि प्रत्यवतटानि-तटसमीपवर्त्यभ्युमतप्रदेशा यास तास्तथा, तथा । सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववताराः तथा सुखेनोत्तारो-जलाहिर्विनिर्गमनं यासु ताः सुखोत्ताराः, ॥ ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा नानामणिभिः सुषद्धानि तीर्थानि यासां तास्तथा, अत्र बहुव्रीहावपि कान्तस्य ||२||
॥४१॥ परनिपातो भार्याविदर्शनात् प्राकृतशैलीवशाद्वा, 'चाउकोणाओ' इति चत्वारः कोणा यासां ताः तथा, दीत्वं च || 'अतः समृध्यादौ वा'(श्रीसि०८-१-३४) इति सूत्रण प्राकृतलक्षणवशात् , एतच्च विशेषणं वापीः कूपांश्च प्रति
2002029292020200000000000000
अनुक्रम [६]
~85~
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
प्रद्रष्टव्यं, तेषामेव चतुष्कोणत्वसम्भवात् न शेषाणां, आनुपूयेण-क्रमेण नीचैनींचैस्तरभावरूपेण सुष्टु-अतिशयेन यो।
जातो वन:-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्तापं शीतलं जलं यासु ताः आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलाः, तथा संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविशमृणालानि यासु ताः तथा, इह विशमृणालसाहचर्यात् पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि बिशानि-कन्दाः मृणालानि-पद्मनालानि, तथा बहूनामुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपु|ण्डरीकमहापौण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राणां फुल्लाना-विकस्वराणां केशरैः-किञ्जल्कैः उपचिता-भृताः, विशेषणस्याव्यव॥स्थिततया निपातः प्राकृतत्वात् , तथा षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यासु ताः तथा, अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन निर्मलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णाः तथा 'पडिहत्या'INI अतिरेकिताः अतिप्रभूता इत्यर्थः, देशीशब्दोऽयं पडिहस्थमुडुमायं अइरेइयं च जाण आउणं' इति वचनात्, उदाहरणं चात्र-'घणपडिहत्थं गयणं सराई नवसलिलमुद्धमायाई । अइरेइयं मह उण चिंताए मणं तुहं विरहे ॥१॥ | इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः पडिहत्यधमन्मत्स्यकच्छपाः, अनेकैः शकुनिमिथुन: प्रविचरिता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सरःपतिपर्यवसानाः 'प्रत्येकमिति एकं एक प्रति प्रत्येकं अत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो न पीप्साविवक्षायां पश्चात्प्रत्येक शब्दस्य द्विर्षचनमिति, पद्मवर|वेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येक २ वनखण्डपरिक्षिप्ताश्थ, अपि|ढार्थे, बाढमेककाः काश्चन वाप्यादय आसवमिव-चन्द्र-18
दीप अनुक्रम [६]
attestestsettesettes
stoeisesereecentectersecerser
~86~
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्ब- हासादिपरमासवमिव उदकं यासा ताः तथा, अप्येकिकाः वारुणस्येव-वारुणसमुद्रस्येव उदकं यासां ताः, अप्येकिकाःश्वक्षस्कारे
द्वीपशा- क्षीरमिवोदकं, यासां ताः अप्येकिकाः घृतमिवोदकं यासां ताः अप्येकिकाः क्षोद इव-इक्षुरस इवोदकं यास ताः न्तिचन्द्री-18 अप्येकिकाः अमृतरससमरसं उदकं यासां ताः अमृतरससमरसोदकाः अप्येकिकाः उदकरसेन-स्वाभाविकेन ||
दिकावनया चिः
खण्डव, मज्ञप्ताः 'पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् । “तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीण जाव बिलपंतीणं पत्तेयं पत्तेय चउद्दिसि ॥४२॥ चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा
वइरामया णेमा रिट्ठामया पइट्टाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरूप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहिअक्खमईओ। सूईओ णाणामणिमया अवलंबणवाहाओ पासाईया ४" इति, अत्र व्याख्या-तासां क्षुद्राणां क्षुद्रिकाणां यावद्विलपशीनां प्रत्येकं २ चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंश्चतुर्दिशि, चत्वारि एकैकस्यां दिशि एकैकभावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि, तथा प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि, त्रयाणां सोपानानां समाहारः त्रिसोपानं, त्रिसोपा-18 नानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषणसमासः, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च | त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयं-वक्ष्यमाणः एतद्रूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वजरलमया नेमा:-भूमेरूज़ निष्का
INI४२॥ मन्तः प्रदेशाः रिष्ठरलमयानि प्रतिष्ठानानि-त्रिसोपानमूलपादाः वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि|| त्रिसोपानाङ्गभूतानि बजरलमयापूरिताः सन्धयः-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः लोहिताक्षमय्यः सूचया-फलकद्वयसम्बन्ध
accesscdscaceer
दीप
अनुक्रम [६]
~87~
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
विघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः, नानामणिमया अवलम्व्यन्ते इति अवलम्बना-अवतरतामुत्तरतामवलम्बनहेतुभूतार, अवलम्बनबाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः 'अवलम्बनबाहाओ' इति अवलम्बनबाहा अपि नानामणिमय्यः, अवलम्बनवाहा नाम उभयोः पार्श्वयोः अवलम्बनाश्रयभूता भित्तयः 'पासाईयाओ'४ इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । "तेसि
तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णता" तेसि णं तोरणार्ण अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, ते पण तोरणा णाणामणिमएसु खंभेसु उवनिविट्ठसंनिविट्ठा विविहमुर्ततरोविया विविहतारारूवोविया ईहामिगउसभतुरगण-19
गरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरवइरवेइयापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोअणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया ४" इति, अत्र व्याख्या-'तेसि ण' मित्यादि, तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं २ तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तेषां तोरणानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ते णं तोरणा' | इत्यादि, तानि तोरणानि नानामणिमयानि मणय:-चन्द्रकान्तादयः विविधमणिमयानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उप-18 |निविष्टानि-सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिच्चलानि अथवाऽपदपतितानि शङ्करन् , तत आह-सम्यग-निश्चलतयाऽपदपरिहारेण च निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, विविधा-नानाविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्काफलानि अन्त-18 राशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि वीप्सां गमयति, अन्तरा अन्तरा 'ओविया' इति आरोपिता यत्र तानि तथा, विविधैस्ता
0000000000000000000000000
EEReceneseseeeeee
दीप
अनुक्रम [६]
R
~88~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्मू
सूत्राक
F
%3D
दीप
रारूप:-तारिकामापषितामि, तोरणेj हि शोमा तारकानि बध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपि, हामृगा-वृकाः ऋष-१वश्वस्कारे द्वीपशा- भा-वृषभाः ज्याला-भुजंगा: रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टापदाः पमरा-भाटव्यो गावः, वनलता-अशोकलतायाः18 वनखण्डा
पद्मलता-पनिम्बा, शेषाः प्रतीवाः, पतासां भत्तया-विच्छित्त्या चित्र-आलेखो येषु तामि तथा, सम्भोगतया-स्तम्भो-18 घि० या वृचिः
परिवर्तिन्या वजरलमय्या वेदिकया परिगतानि-परिकरितानि सन्ति यानि अतिरमणीयानि तानि तथा, विद्याध-18| ४३॥ शरयो:-विशिष्टशक्तिमरपुरुषविशेषयोर्चमल-समवेणी युगलं-द्वन्द्वं तेनैव यन्त्रेण संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता
शनि, आपत्वाचवविधः समासा, तथा अर्षिषां-मणिरसप्रभाणां सहस्रर्मालनीयानि-परिवारणीयानि रूपकसहस्रकलि
तानि स्पष्ट 'भिसमाणा' इति दीप्यमानानि 'निम्भिसमाणा' इति अत्यर्थ दीप्यमानानि, तथा चक्षुः कर्तृ लोचनेअवलोकने लिसतीव-दर्शनीयतातिशयतः ग्लिप्यतीव यत्र तानि तथा, 'सुहफासा' इति शुभस्पर्शानि सश्रीकानिसशोभाकानि रूपकाणि यत्र तानि सश्रीकसपाणि, 'पासाईया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, "तेसि ण तोरणाण
उप्पिं अहमंगलगा पण्णत्ता, सोरिषय १ सिरिवच्छ दियावत्स ३ वडमाणग ४ भदासण ५ कलस ६ मच्छ ७-18 १ दप्पणा ८ सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा," अत्र व्याख्या-तेषां तोरणानामुपरि इत्यादि सुगर्म, नवरं 'जाव
पडिरूवा' इति यावत्करणात् घट्टा मट्ठा णीरया इत्यादिग्रहः, तेसि तोरणाणं उवरि किण्हयामरज्झया णीलचामरIS ज्या लोहियचामरज्या हालिहचामरक्षया सुकिलचामराया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा बहरदंडा जलयामलगंधिया
अनुक्रम
coecenesesesesesesesesesese
Jiten
,
~89~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Sसुरम्मा पासाईया ४" इति, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरयुक्ताः ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः एवं बहवो नील-||
लोहितहारिद्रशुक्लचामरयुक्ताः ध्यजा वाच्याः, कथम्भूता एते सर्वेऽपीत्याह-'अच्छा सहा' इति स्पष्ट रूप्यमयो। वज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते तथा, वज्रो-बनमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते तथा, जलजानामिच-पद-। मानामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, 'अतोऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः [श्रीसि०७-२-६] अत एव सुरम्याः 'पासादीया' इत्यादि प्राग्वत्, "तेसि गं तोरणाणं उप्पिं बहवे छत्ता| इछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुअला चामरजुअला उप्पलहत्थगा पउमहत्थगा जाव सहस्सपत्तहत्थगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानामुपरि बहूनि छत्रातिच्छत्राणि-छत्रालोकप्रसिद्धादेकसंख्याकाद् अतिशायीनि द्विसंख्यानि त्रिसंख्यानि वा छत्राणि छत्रातिच्छत्राणि बह्वधः पताकाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तरेण च पताकाः | पताकातिपताकाः बहूनि घण्टायुगलानि बहूनि चामरयुगलानि बहव उत्पलहस्तकाः-उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः, एवं पद्महस्तकाः बहवो नलिनहस्तकाः बहवः सुभगहस्तकाः बहवः सौगन्धिकहस्तकाः बहवः पुण्डरीकहस्तकाः बहवः | शतपत्रहस्तकाः बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः, उत्पलादीनां व्याख्यानं प्राग्वत्, एते च छत्रातिच्छनादयः सर्वेऽपि सर्वरसमयाः, 'जाव पडिरूबा' इति यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा लण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः । अथ पर्वतकसूत्रं यथा-"तासि गं सुड्डियाणं वावीणं जाव विलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उपायपषवा निया
928290920020200000
दीप अनुक्रम
~90~
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
बनवण्डा
सूत्रांक [६]
दीप
श्रीजम्यू- |पषया जगईपबया दारुपवयगा दगमंडवगा दगमंचगा दगमालगा दगपासाया उसडा खुड्डा अंदोलगा पक्खंदोलगा ४१ वक्षस्कारे द्वीपशा- 18 सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवगा" अत्र व्याख्या-तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्भिलपङ्कीना अत्र यावत्क-8 न्तिचन्द्री
पि. रणात् पुष्करिण्यादिग्रहः, अपान्तरालेषु तत्र तत्र देशे 'तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे बहव उत्पातया वृत्तिः
पर्वता:-यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति नियत्या-नयत्येन पर्वताः, ॥४४॥ क्वचिन्निययपवया इति पाठः, तत्र नियता:-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वताः यत्र व्यन्तरा देवदेव्यो भवधारणी
शयेन वैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रमन्ते इति भावः, जगतीपर्वताः-पर्वतविशेषाः, दारुपर्वतका-दारुनिर्मापिता इव।
पर्वतकाः दकमण्डपका:-स्फटिकमण्डपकाः एवं दकमश्चकाः दकमालकाः दकप्रासादाः, एते च दकमण्डपकादयः। | केचित् उत्सृता-उच्चा इत्यर्थः, केचित् क्षुल्ला-लघवः क्वचित् खुडखुड्डगा इति पाठः क्षुल्लक्षुल्लका-अतिलघवः आयताश्च, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तत्र यत्रागत्य २ मनुष्या आत्मानमन्दोलयंति इति, आन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगल्यागत्यात्मानमन्दोलयंति ते पक्ष्यन्दोलकाः, ते चान्दोलकाः पश्यन्दोलकाश्च तस्मिन् वनखण्डे तत्र तत्र प्रदेशे वानमन्तरदेवदेवीक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, ते चोत्पातपर्वतादयः कथम्भूता इत्याह-सर्व
रक्षमया अच्छा इत्यादिविशेषणजातं प्राग्वत् “तेसु ण उपायपबएमुं जाव पक्खंदोलएसु बहूई हसासणाई कोंचास18 णाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई पउमासणाई सीहा
90090029999990000000000
अनुक्रम [६]
Kernet
~91~
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [६]
2090203029292900000339008062902
सणाई दिसासोवत्थियासणाई सघरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूच"त्ति, अत्र व्याख्या-तेषु उत्पातपर्वतेषु यावपक्ष्यन्दोलकेषु अत्र यावत्करणात् नियतपर्वतादिपरिग्रहः बहूनि हंसासनानि, तत्र येषामासनानामधोभागे हंसा | व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहास्तानि हंसासनानि, एवं क्रौचासनानि गरुडासनानि भाव्यानि, उन्नतासनानि-यान्युचासनानि प्रणतासनानि-निनासनानि दीर्घासनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि-येषामधोभागे पीठिकावन्धः पक्ष्यासनानि-येषामधोभागे नानारूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पनाकाराणि आसनानि दिक्सौवस्तिकासनानि-येषामधोभागे दिक्सौवस्तिका-दिक्प्रधानाः स्वस्तिकाः आलिखिताः सन्ति, | अत्र यथाक्रममासनानां संग्राहिका संग्रहणीगाधा-"हंसे कोच्चे गरुले उण्णय पणए य दीह भहे य । पक्खे मयरे|
पउमे सीह दिसासोज वारसमे ॥१॥" एतानि सर्वाण्यपि कथम्भूतानीत्याह-'सबरयणामयाई' इत्यादि प्राग्वत् । अथ | गृहकसूत्रं यथा-"तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे आलिघरगा मालिघरगा कयलीघरगा अच्छण|घरगा पेच्छणघरगा मजणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहणघरगा मालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा| |गंधवपरगा आयंसघरगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" इति, अत्र व्याख्या-तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र |3|| तत्र प्रदेशे तस्यैव प्रदेशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहूनि आलिगृहकाणि, आलि:-वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृहकाणि आलिगृहकाणि मालिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदलीगृहकाणि लतागृहकाणि च प्रती
~ 92~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
वि०
सूत्रांक
॥१५॥
दीप
श्रीजम्बू-18तानि, 'अच्छणघरगा' इति अवस्खानगृहकााण येषु यदा तदा वाऽऽगल बहवः सुखासिकया अवतिष्ठन्ते, प्रेक्षणक-विक्षस्कारे
गृहकाणि प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्ष्यन्ते च, मज्जनगृहकाणि यत्रागस्य स्वेच्छया मजनं कुर्षन्ति, प्रसाधनगृहकाणि || वनखण्डाविचन्द्री
| यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति, गर्भगृहकाणि गर्भगृहाकाराणि मोहनगृहकाणि मोहन-मैथुनसेवा तत्प्रधानानि गृह-18। या चिः
| काणि वासभवनानीति भावः, शालागृहकाणि-पट्टशालाप्रधानानि गृहकाणि जालगृहकाणि-जालयुकानि गृहकाणि कुसुमगृहकाणि-कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि चित्रगृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि-गीतनृत्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि, आदर्शगृहकाणि-मादर्शमयानीव गृहकाणि, अत्र सूत्रे सर्वत्र ककारः वार्षिकोऽयसेयः, एतानि कर्थभतानीत्याह-सबरयणामयाई' इत्यादि माग्वत्, "तेसु णं आलिघरेसुं जाप आर्थसघरेस बहई हंसासणाई जाव दिसासोवत्थियासणाई सबरवणामयाई जाव पडिरूवाई" इति गतार्थम्, अथ मण्डपकसूत्रं क्या-"तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वहये जाइमंडवगा जूहियामटवगा मल्लियामंडवगा जोमालियामंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामश्वगा सूरिधिमंडवना संबोलीमंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तवमंडवगा अफोआमंडवगा मालुआमरवगा सबरवणामया मावणिर्थ कुमुमिया जाच परिरूया" अत्र व्याख्या-तो त्यादि पदयोजना सुगमा, ॥१५॥ जाति:-मालती तन्मया मण्डपकाः जातिमपपकार, एवं उत्तरत्रापि पदयोजना कार्या, थिका प्रतीता मलिका-1 विचकिला, बनमालिका पासन्ती स्पष्टे, एतेष पुण्यपकाना वनस्पतयः, दधिवासुका नाम बनस्पतिविशेषः, सूरिल्लिरपि।
अनुक्रम [६]
26oReseseseseses
@estoeceae
JinEllennia
l
~93~
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
स एष, ताम्बूली-नागवल्ली नागो-नुमविशेष स एक लता नागलता, इह पख तिर्यक् तथापिधा शाखा प्रशाला वार प्रस्ता सा लतेत्यभिधीयते, अतिमुक्तका-पुजाधानवनस्पतिः 'अष्फोआ' वनस्पतिविशेषः, मालुका-एकास्थिकफला वृक्षविशेषास्तद्युक्ता मण्डपका मालुकामंडपका, एते च कथंभूता इत्याह-'सपरयणामया इत्यादि प्राग्वत् । तेसु णं जाइमंडवगेसु जाप मालुगामटवगेसुबहवे पुढविसिलाक्गा पण्णत्ता, अप्पेगइया ईसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचास-1 णसंठिआ अप्पेगझ्या मरुडासणसंठिमा अमेगड्या जण्णयासणसंठिया अप्पेगइका पणयासणसंठिआ अप्पेगइया दीहास-1 संठिया अप्पेगइया भद्दासणसंठिया अप्पेगइया पक्लासणसंठिया अप्पेगश्या मगरासणसंठिया अप्पेगश्या पउमाससंठिआ अप्पेगइया सीहासणसंठिया अपेगहमा विसासोवत्वियासणसंठिया अप्पेगे बहवे वरसयणासणविसिट्ठसठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो! आईणगरुजकूरणवणीयतूलफासमउआ सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" अत्र व्याख्या-तेषु जातिमण्डपकेषु यावत् मालुकामण्डपकेषु यावस्करणात् यूधिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलाप-18 सहकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अपिएंढार्थे एकके शिलापट्टकाः हंसासनवत् संस्थित-भावे कात्ययविधानात् संस्थानं येषां ते || तथा, एवं क्रोश्वासनसंस्थितादिष्वपि वावजन्ये च बहवः शिलापट्टका: यानि विशिष्टचिन्हानि विशिष्टनामानि च वराणि-प्रधानानि शचनानि आसनानि तद्वत् संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः कचित् 'मांसलसुपट्टविसिवसंठाणसंठिया' इति पाठः, तत्राग्ये च बहवः शिलापट्टकाः मांसला इव मांसला-अकठिना इत्यर्थः |
दीप अनुक्रम [६]
20secedesesesesesedesceneseana
INEleanirins
For
i
~ 94~
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
या चिः
श्रीजम्बू || सुघृष्टा इव सुघृष्टा-अतिशयेन महणा इति भावः, विशिष्टसंस्थानसंस्थिताश्च प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! वक्षस्कार .द्वीपशा- आईणगेत्यादि सुगममिति । अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते, 'तत्व ण'मिति अत्र व्याख्या-तत्रतेषु उत्पातपर्वतादिगतहंसास
वनखण्डा
घि० न्तिचन्द्री- नादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथिवीशिलापट्टकेषु, णमिति पूर्ववत्, बहवो वनानामन्तरेषु भवाः पृषोदरादि
त्वान्मागमे वानमन्तरा देवा देव्यश्च यथासुखमासते आश्रयन्ति वाऽऽश्रयणीयं स्तम्भादि शेरते दीर्घकायप्रसारणेन ॥४६॥ वर्चन्ते, नतु निद्रा कुर्वन्ति, तेषां देवयोनिकतया निद्राया अभावात् , अत्रोपलक्षणात् 'चिटुंती'त्यादिकः पाठो जीवा
| भिगमोक्को लिखितोऽस्ति, तिष्ठन्ति-कर्वस्थानेन वर्तन्ते निषीदन्ति-उपविशन्ति 'तुभट्टति'त्ति त्वग्वर्तनं कुर्वन्ति वामया पार्श्वतः परावृत्त्य दक्षिणपानावतिष्ठन्ते दक्षिणपार्श्वतो वा परावृत्त्य वामपानावतिष्ठन्त इति, रमन्ते-रतिमाबशान्ति, तथा ललन्ति-मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तन्ते इति भावः, तथा क्रीडन्ति-यथासुखमितस्ततो गमनविनो
देन गीतनृत्यादिविनोदेन वाऽवतिष्ठन्ते, तथा मोहन्ति-मैथुनसेवां कुर्वन्ति, इत्येवं 'पुरा पोराणाण' मित्यादि पुरा-पूर्व 18 प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः अत एव पौराणानां सुचीर्णानां-सुचरितानां, इह सुचरितजनितं कर्मापि
कार्ये कारणोपचारात् सुचरितमिति विवक्षितं, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्यादिसुचरितानामिति, तथा सुपराकान्तानां अत्रापि कार्य कारणोपचारात् सुपराक्रान्तजनितानि कर्माणि सुपराक्रान्तानि इत्युक्तं भवति, सकलसत्त्वमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपं सुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभाना-18
अनुक्रम [६]
५६॥
JinEleinitinel
~ 95~
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------ मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [६]
eeeeeeeeesekese
शुभफलानां इह किशिदशुभफलमपि इन्द्रियमतिविपर्यासात शुभफलमाभाति ततस्तात्त्विकथभफलप्रतिपत्त्यर्थमस्यैव पर्यायमाह-कल्याणानां-तत्त्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनां अथवा कल्याणानां-अनर्थोपशमकारिणां कल्याणकल्याणरूपं फलविपाक पचणुभवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्ति-आसते । तदेवं पद्मवरवेदिकाया बहिःस्थितवनखण्डवक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति तस्या पवास्थितवनखण्डवक्तव्यतामभिधित्सुराह-तीसे णं जगईए' इत्यादि, तस्या जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया अन्तर्मध्ये यः प्रदेशः एतस्मिन् महानेको बनखण्डः प्रज्ञप्तः, देशोने द्वे योजने विष्कम्भेन वेदिका-पद्मवरवेदिका तस्याः समकातुल्यः परिक्षेपेण, अयं भावः-पद्मवरवेदिकाया यावान् (तावान् ) अस्यापि, पद्मवरवेदिकाबहिःप्रदेशात् अन्तः पंचधनुःशतागमने यत् परिक्षेपन्यूनत्वं तन्न विवक्षितमल्पत्वादिति, 'किण्हे'त्ति कृष्णो यावदितिपदेन च बहिर्वनखण्डवदविशेषेण वनखण्डवर्णको ग्राह्यः, नवरं तृणविहीनो ज्ञातव्यः, अत्र तृणजन्यः | | शब्दोऽपि तृणशब्देनाभिधीयते उपचारादतस्तृणशब्दविहीनों ज्ञातव्यः, उपलक्षणत्वादस्य मणिशब्दविहीनोऽपि, पद्मवरवेदिकान्तरिततया तथाविधः वाताभावतो मणीनां तृणानां चाचलनेन परस्परं संघर्षाभावात् शब्दाभावः, उपपन्नश्चायमर्थः, जीवाभिगमसूत्रवृत्त्योस्तथैव दर्शनादिति । सम्पति जम्बूद्वीपस्य द्वारसंख्यामरूपणार्थमाहजंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स का दारा पण्णत्ता, गो०। चत्तारि दारा पं०, ०-विजए १ वेजयंते २ जयंते ३ अपराजिए ४, एवं चत्वारिवि वारा सरापहाणिमा भाणियवा (सूत्र ७) कहिणं मंते! जंबुद्धीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णते ?, गो०
~ 96~
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
जाणार
चषणपचार
Keeee
0 जम्बद्वाप
सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्यू
जंयुहीये वीवे मेघरस पायस पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइपइत्ता जंबुरीवदीपपुरस्थिमपेरते लवणसमुपपुर- विक्षस्कारे द्वीपशा
थिमद्धस्स पचत्यिमेणं सीआए महाणईए उप्पि पत्थ णं जंबुद्दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते अट्ठ जोषणाई उद्धं उचणं चत्तारि न्तिचन्द्री- जोयणाई विकर्णभेण तावइयं चैव पवेसेणं, सेए वरकणगथूमियाए, जाव दारस्स बण्णओ जाव रायहाणी। (सूत्र ८)
द्वारा या वृचिः
अत्र सूत्रे प्रश्ननिर्वचने उभे अपि सुगमे, नवरं पूर्वातः प्रादक्षिण्येन विजयादीनि द्वाराणि ज्ञेयानि, द्वाराणामेव 8 ॥४७॥18 स्थानविशेषनियमनायाह-'कहिणं भंते।' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य दीपस्य विजयमिति प्रसिद्धं 'नाम'
ति8 18| प्राकृतत्वात विभक्तिपरिणामेन नाम्ना द्वारं प्रशत, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्वतो-मेरुगिरिः तस्य 18
'पुरथिमेण ति पूर्वस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशतं योजनसहस्राणि व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य जम्बूद्वीपे द्वीपे पौरस्त्यपर्यन्ते 8 लवणसमुद्रपूर्वार्धस्य 'पञ्चत्थिमेणं'ति पाश्चात्यभागे शीताया महानद्या उपरि यः प्रदेश इति गम्यं, एतस्मिन् जम्बू-18 द्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम्ना द्वार प्रज्ञप्तम् , अष्टौ योजनान्यूोच्चत्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन-विस्तारेण, इदं च द्वारविष्कम्भमानं स्थूलन्यायेनोकं, सूक्ष्मेक्षिकया तु विभाव्यमानं द्वारशाखाद्वयविष्कम्भसत्कक्रोशद्वयप्रक्षेपे । साइयोजनप्रमाणं भवति, तन्न विवक्षितमिति, 'तावइयं चेव पवेसेणं'ति तावदेव चत्वारीत्यर्थः, योजनानि प्रवेशेन-2 भित्तिवाहल्यलक्षणेन कथंभूतमित्याह-वैत-श्वेतवर्णपितं बाहुल्येनारतमयत्वात् , 'वरकनकस्तूपिकाक' परकनका-वरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तत् । अथ शेष द्वारवर्णक राजधानीवर्णकं चातिदेशेनाह-'जा'लादि,
अथ जम्बूद्वीपे विजयादि द्वाराण्य: कथनं आरभ्यते
~97~
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| यावद् द्वारस्य वर्णको-वर्णनग्रन्थो 'जाव रायहाणी'ति यावद्राजधानीवर्णकश्च जीवाभिगमोपाङ्गोको निरवशेषो बकव्यः, तत्र प्रथमं द्वारवर्णको यथा- 'ईहामिगंउसभतुरगणरमग रविहगवालग किन्नररुरुसरभचम र कुञ्जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते संभुग्गयवरवेइयापरिगयाभिरामे बिज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्समालणीए, रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिन्भिसमाणे चक्खुहोअणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे वण्णओ दारस्स तस्सिमो होइ, तंजहावइरामया णेमा रिट्ठामया पट्ठाणा वेरुलिअरुइलखंभे जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकुट्टिमतले हंसगब्भमएलए गोमेज्जमए इंदकीले लोहिअक्खमईओ दारचेडाओ जोईरसामए उत्तरंगे वेरुलिआमया कवाडा वइरामया संधी लोहिअक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया समुग्गया वइरामया अग्गठा अग्गलपासाया रययामया आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासए निरंतरिए घणकवाडे भित्तीं चैव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिष्णि होंति गोमाणसीओ तत्तिआओ णाणामणिरयणवालरूवगठीलट्ठि असालभंजिआगे वइरामए कूडे रययामए उस्सेहे सवतवणिज्जमए उहोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे अंकामया पक्खा पक्खवाहाओ जोईसामयावंसा | वंसकवेया य रययामईओ पट्टिआओ जायस्वमइओ ओहाडणीओ बहरामइओ उवरिपुच्छणीओ सबसेए रययामयच्छाणे अंकामयकणगकूडतवणिज्जयूभिआए सेए संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणिगरपगासे तिलगरयणद्धचंदचि णाणामणिदामालंकिए अंतो वाहिं च सण्हे तवणिज्जवालुआपत्थडे सुहफासे सस्सिरीअरूवे पासाईए ४"
Fur Fate & Use Cy
~98~
৩৬১৩১৬১৩১৩১৩৩
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
द्वारा
सूत्रांक
[७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्यू- इति, अत्र व्याख्या-ईहामिगें'त्यादि विशेषणदशकं पद्मवरवेदिकागतवापीतोरणाधिकारे व्याख्यातार्थमिति ततोऽव- वक्षस्कारे सेयं, 'वण्णो दारस्स तस्सिमो होई' इति वर्णको-वर्णकनिवेशो द्वारस्य-विजयाभिधानस्यायं-वक्ष्यमाणो भवति,
जम्बूद्वीपन्तिचन्द्र तमेवाह-तंजहे'त्यादि, तद्यथा-'वयरामया णेमा इत्यादि, अत्र च द्वारवर्णनाधिकारे यत्र केवलं विशेषणं तत्र साक्षात् या वृत्तिः
द्वारस्य विशेषणता यत्र तु विशेष्यसहितं तत्र तस्येति गम्यं, तेन तस्य विजयद्वारस्य वज्रमया नेमा-भूमिभागादूर्व ॥४८॥ निष्कामन्तः प्रदेशाः रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः वैडूर्याः-वैडूर्यरत्नमयाः रुचिराः स्तम्भाः यस्य तत्तथा,
तथा जातरूपेण-सुवर्णेनोपचितैः-युक्कैः प्रवरं पञ्चवर्णमणिरत्तैः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं यस्य तत्तथा, तथाऽस्य विजयद्वारस्य हंसगर्भरलमय एलुको-देहली गोमेदकरत्नमय इन्द्रकीलो-गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानं लोहिताख्य-18 पद्मरागाख्यं रत्नं तन्मय्यौ द्वारपिण्ड्यौ-द्वारशाखे सूत्रे स्वीत्वनिर्देश आर्षत्वात् ज्योतीरसमयं उत्तरङ्ग-द्वारस्योपरि |
तिर्यग्व्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमयौ कपाटौ लोहिताक्षमय्यो-लोहिताक्षरत्नात्मिकाः सूचयः-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाKA भावहेतुपादुकास्थानीयाः तत्र बज्रमयाः सन्धयः-सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्तं भवति?-वज्ररत्नापूरिताः फलकानां
सन्धयः, तथा नानामणिमयाः समुद्गका इव समुद्गका:-चूलिकागृहाणि, तानि नानामणिमयानि, यत्र न्यस्ती कपाटी||॥४८॥ निश्चलतया तिष्ठतः, वज्रमया अर्गला अर्गलाप्रासादाः, तत्रार्गलाः प्रतीताः अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते, रजतमयी आवर्तनपीठिका, आवर्तनपीठिका च यत्रेन्द्रकीलो भवति, तथा अङ्का-अङ्करत्नमया उत्तरपार्था यस्य तत्तथा,
orac3000000000000000000ase
~ 99~
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
are
प्रत सूत्रांक [७,८]
निरन्तरितघनकपाट मिति निर्गता अन्तरिका-लघ्वन्तररूपा ययोस्ती निरन्तरिको अत एव घनकपाटौ यस्य तत्तथा | भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिण्णि होति' इति तस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोभित्तिषु भित्तिषु गता भित्तिगु-12 लिकाः पीठकसंस्थानीयाः तिस्रः षट्पञ्चाशत:-षट्पञ्चाशत्रिकप्रमिता भवन्ति, अष्टपट्यधिकं शतमित्यर्थः, तथा गोमानस्य:-शय्याः तावन्मात्रा:-पट्पनाशत्रिकप्रमिताः, नानामणिरत्नमयानि व्यालरूपाणि-फणिरूपकाणि, लीलास्थितशालभञ्जकाच-लीलास्थितपुत्रिका यत्र तत्तवा, तथा तस्य द्वारस्य वज्रमयः कूटो-माढभागः रजतमय उत्सेधः, शिखरं केवलं, शिखरमत्र तस्यैव माढभागस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेवोक्तत्वात्, सर्वात्मना तपनी-1 यमय 'उल्लोकः' उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपञ्जरमणिवंसगलोहिअक्खपडिवंसगरययभोम्में' इति मणयो-मणि-10
मया वंशा येषां तानि मणिवंशकानि तथा लोहिताक्षा-लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशाः येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंश18|| कानि, तथा रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात् समासान्तो मकारस्य च द्वित्वं, मणिवंशकानि लोहि| ताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि, नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि जालपंजराणि-गवाक्षापरपयोयाणि यस्मिन् |
द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतत्वात्, 'अङ्कामया पक्खा इत्यत आरभ्य रययामए छाणे' इत्यन्तानि | 1 पद्मवरवेदिकायदावनीयानि, 'अंकामयकणगकूडतवणिजथूभियागे' इति, अङ्कमयं-बाहुल्येनाङ्करलमयं पक्षबाहादीना-18
मङ्करलात्मकत्वात् कनक-कनकमयं कूट-महच्छिखरं यस्य तत्तथा, तपनीया-तपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा
दीप अनुक्रम [७,८]
Destatestatemesekseeseaes
Recreated Kottactice
श्रीजम्,
~ 100~
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
वक्षस्कार [१],
मूलं [७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ४९ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
Jan Eben
यस्य तत्तथा ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन २ कर्मधारयः, एतेन यत्प्राक् सामान्येनोत्क्षिप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' १ वक्षस्कारे | इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति, सम्प्रति तदेव श्वेतत्यमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-श्वेतं श्वेतत्वमेवोपमया द्रढ- ४ विजयद्वारयति - विमलं निर्मलं यत् शङ्खतलं- शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधिघनो-घनीभूतं दधि गोक्षीरफेनो रजत- १४ वर्णनं सृ. ८ निकरश्च-रूप्यराशिस्तद्वत्प्रकाशः - प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरलानि-पुण्डविशेषाः तैरर्द्धचन्द्रैश्च-अर्द्धचन्द्राकारैः सोपानविशेषश्चित्रं चित्रकारि तिलकरलार्द्धचन्द्रचित्रं, तथा नानामणयो - नानामणिम| यानि दामानि - मालास्तैरलङ्कृतं नानामणिदामालङ्कृतं, तथा अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णं श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापितं तपनी| याः- तपनीयमय्यो वालुकाः सिकतास्तासां प्रस्तदः - प्रस्तारो यत्र तत्तपनीयवालुकाप्रस्तटं, 'सुहफास' इत्यादि प्राग्वत् । "विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचञ्चागा आविद्धकंठेगुणा पउप्पलपिहाणा सघरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा महया मया महिंदकुंभसमाणा पण्णत्ता समणाउसो !" अत्र व्याख्या - विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्व|योरेकैकनैषेधिकीभावेन 'दुहजो 'ति प्राकृतत्वात् स्वत्वे द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां, नैषेधिकी चात्र निषदनस्थानं, तत्र प्रत्येकं द्वौ द्वौ बन्दनाय कलशौ वन्दनकलशी-मांगल्यघटौ प्रज्ञप्तौ ते च बन्दनकलशा वरकमलं प्रतिष्ठानं आधारो येषां ते तथा, तथा सुरभिवरवारिपरिपूर्णाः, चन्दनकृतचर्चाका:- चन्दनकृतोपरागाः, 'आविद्ध
Fraternal Oy
~ 101 ~
॥ ४९ ॥
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
Kicesese
कण्ठेगुणा' इति आविद्धः-आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तसूत्ररूपो येषां ते तथा, कण्ठेकालवत् सप्तम्या अलुप्, तथा पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते तथा, 'सब्बरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्, 'महया महया' इति अतिशयेन महान्तो 'महेन्द्रकुम्भसमानाः' कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः, महांश्चासा-|| |विन्द्र कुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमाना-महाकलशप्रमाणाः यद्वा महीन्द्रो-राजा तदर्थ तस्य सम्बन्धिनो वा | कुम्भा-अभिषेककल शाः तत्समानाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, 'विजयस्स णं दारस्स उभोपासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो णागदंतगा पण्णता, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिअहेमजालगवक्खजालखिंखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अब्भुग्गया अभिनिसिट्टा तिरि सुसंपग्गहिया अहेपण्णगद्धरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिया सबबइरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया २ गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!" विजयस्य द्वारस्येत्यादिपदयोजना प्राग्वत् , द्वी ही नागदन्तकौ-नर्कटिको अङ्कटिकावित्यर्थः प्रज्ञप्ती, ते च नागदन्तका मुक्काजालानामन्तरेषु यानि उरिछूतानि-1 लम्बमानानि हेमजालानि-हेममया दामसमूहा यानि च गवाक्षजालानि-गवाक्षाकृतिरलविशेषाः दामसमूहा यानि च कि
किणीघण्टाजालानि-क्षुद्रघण्टासमूहास्तः परिक्षिता:-सर्वतो व्याप्ताः, अभिमुखमुन्नता अभ्युद्गता-अग्रिमभागे मनागुन्नता| 18| इति भावः, येन तेषु माल्यदामानि सुस्थितानि भवन्ति, अभिमुखं-बहिर्भागाभिमुखं निसृष्टा-निर्गताः अभिनिसृष्टाः |तिर्यग-भित्तिप्रदेशैः सुष्टु-अतिशयेन सम्यग्-मनागप्यचलनेन परिगृहीताः 'अहेपण्णगद्धरूवा' इति अधः-अधस्तनं
दीप अनुक्रम [७.८]
90000000000000000
cceceneratee
Jitennial
~ 102~
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री - 8
४
४
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
या वृत्तिः
॥ ५० ॥
-
वक्षस्कार [१],
मूलं [७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
जाव
यत् पन्नगस्य - सर्पस्याद्धं तस्येव रूप-आकारो येषां ते तथा अधः पन्नगार्द्धवदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्याचष्टे - पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः' अधः पन्नगार्द्ध संस्थानसंस्थिताः सर्वात्मना वज्रमयाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, 'महया महया' इति अतिशयेन महान्तो गजदन्तसमानाः - गजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! । “तेसु णं णागदंतसु बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्घारिअमलदामकलावा एवं नील० लोहिअ० हालिद • सुकिल्लसुत्तबद्ध बग्घारिअमलदामकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया सिरीइ अईव उवसोभेमाणा २ चिति” अत्र व्याख्या- तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रबद्धा 'बग्घारिअ'त्ति | अवलम्बिता: माल्यदामकलापाः- पुष्पमालासमूहाः, एवं नीललोहित हारिद्रशुकसूत्रबद्धा अपि माल्यदामकलापा वाच्याः, 'ते णं दामा' इत्यादि, तानि दामानि 'तवणिज्जलंबूसगा' इति तपनीयः - तपनीयमयो लम्बूसगो-दानामग्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि, तथा पार्श्वतः - सामस्त्येन सुवर्णप्रतरकेणसुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि तथा नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा विचित्रवर्णा हाराअष्टादशसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, 'जाब सिरीए अईव उवसोभेमाणा २ चिर्द्धति' अत्र यावत्करणात् एवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः 'ईसिमण्णोण्णमसंपत्ता पुबावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं २ एइजमाणा २ पलंबमाणा २ पझंझमाणा २ उरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिन्दुकरेणं सद्देणं ते पएसे सबओ समंता आपूरेमाणा
Fur Fate & Use Cy
~ 103~
१ वक्षस्कारे विजयद्वारवर्णनं सू
॥ ५० ॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
२ सिरीए अतीव उपसोभेमाणा २ चिट्ठति" एतच्च पूर्व पद्मवरवेदिकावर्णने व्याख्यातमिति न भूयो व्याख्यायते, "तेसि णं णागदंतगाण उवरि दो दो णागदंतगा पण्णत्ता, ते णं णागर्दतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणा| उसो !, तेसु णं णागर्दतएसु बहवे रययामया सिकया पण्णता, तेसु णं रययामएसु सिकपसु बहूईओ वेरुलियामईओ ||
धूवघडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुडुआभिरामाओ सुगंधवर|गंधिआओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं घाणमणनिबुइकरेणं गंघेणं ते पएसे सवओ समंता आपूरेमाणीओ, २सिरीए ईव स्वसोभेमाणा २ चिटुंति" अत्र व्याख्या-तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यी दी द्वी नागदन्तको प्रज्ञप्ती. ते च नागदन्तका मुत्ताजालंतरूसिअहेमजालगवक्खजाल इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं, यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, 'तेसु ण'मित्यादि तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु रजतमयेषु सिक्यकेषु बढयो वैडूर्य्यमय्यो धूपघव्यः-धूपघटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च धूपघटिकाः कालागुरुश्च-कृष्णागुरुः प्रवरकुन्दुरुकं च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्कं च-सिहकं धूपश्च-दशाङ्गादिः गन्धद्रव्यसंयोगज इति द्वन्द्वे18 तेषां सम्बन्धी यो 'मघमत'त्ति मघमघायमानोऽतिशयवान् उदुतः-इतस्ततो विप्रसतो गन्धस्तेनाभिरामाः, उडुतश-1 ब्दस्य परनिपात आर्षत्वात् , सुष्टु-शोभनो गन्धो येषां ते तथा, समासान्तविधेरनित्यत्वादत्रेद्पस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणेति,ते च ते घरगन्धाश्व-प्रधानवासास्तेषां गन्धः स आसु अस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकाः 'अतो-18
दीप अनुक्रम [७,८]
00000000000000090805000
~104 ~
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
॥५१॥
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्मू-18||ऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः (श्रीसिद्ध०७-२-६) अत एव गन्धवर्तिभूताः-सौरभ्यातिशयागन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः रदारेण 8 बक्षस्कारे द्वीपशा- स्फारेण मनोज्ञेन-मनोऽनुकूलेन, कथं मनोऽनुकूलत्वमत आह-प्राणमनोनितिकरण गन्धेन तान्-प्रत्यासन्नान् प्रदेशान18| विजयद्वारन्तिचन्द्री| आपूरयन्त्यः २ श्रिया अतीव शोभमानाः२ तिष्ठन्ति,"विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ निसीहियाए दो दो साल-18
वर्णन सू.८ या वृत्तिः
भंजियाओ पण्णत्ताओ, ताओणं सालमंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपइडिआओ सुअलंकियाओ गाणाविहरागवसणाओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ णाणामल्लपिणद्धाओ मुहिगेज्मसुमज्झाओ आमेलगजमलजुअलवट्टिअअम्भुन्नयपीणरइअसंठियपयोहराओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थगहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिद्विपहिं लुसेमाणीओविव चक्सुलोअणलेसहिं अण्णमण्णं खिजनमाणीओविव पुढवीपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ उक्का इव उज्जोए-18 माणीओ विजुषणमरीचिसूरदिपंततेअअहिअयरसण्णिगासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासादीयाओ तेभसा आईक | | उवसोभेमाणीओ चिट्ठति' अत्र व्याख्या-विजयस्य द्वारस्योभयोः पाश्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायांश नैपेधिक्या देखे शालभजिके-पश्चाल्यौ प्रज्ञप्ते, ताच शालभजिका लीलया-ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिताः लीला-18| स्थिताः सुठु-मनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः सुष्ठ-अतिशयेन रमणीयतया अलंकृताः स्वळंकृताः, तथा 'नानाविह-181 रागवसणाओं' इति नानाविधो-नानाप्रकारो रागो-रञ्जनं येषां तानि तादृशानि बसनानि-वस्त्राणि संवृततया यासां
~ 105~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
eeeee
प्रत सूत्रांक [७,८]
सास्तथा. रक्तोऽपाडो-नयमप्रान्तं यासां ताः रकापाङ्गता, असिताः-श्यामाः केशा यास ता मसितकेशाः मृदवःकोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि-शोभनान्यस्फुटिताप्रत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः, संवेल्लितं-संवृतं | किञ्चिदाकञ्चितं अग्रं येषां शेखरकरणात् ते संवेल्लितायाः शिरोजा:-केशाः यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेलिताप्रशिरोजाः, नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि-आविद्धानि यथोचितस्थानेषु स्थापितानि यासां ता नाना-18 माल्यपिनद्धाः, निष्ठाम्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् , मुष्टिग्राह्यं तनुतरत्वात् सुष्टु मध्यं-मध्यभागो यासांता मुष्टि-18 ग्राह्यसुमध्याः, 'आमेलगजमलजुअलवद्दिअअन्भुण्णयपीणरइअसंठिअपयोहराओं' आपीड:-शेखरकस्तस्य यमल-सम-18 श्रेणीकं युगलं तद्वद्वर्तितौ-बद्धस्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः, अत एवाभ्युन्नती-तुङ्गो पीनरतिदसंस्थितौ-19 | पीवरसुखदसंस्थानी पयोधरी-स्तनी थासा तास्तथा, तथा 'ईसिं असोगपायवसमुट्ठियाओं' इति, ईषत्-मनाक् अशोक-10 वरपादपे समवस्थिता-आश्रिताः तथा वामहस्तेन गृहीतमग्रं शालायाः-शाखाया अर्थादशोकपादपस्य याभिस्ताः वामहस्तगृहीतामशाखा:, "ईसिं अद्धच्छिकसक्खचिट्ठिएहिं लूसेमाणीओ विवे'ति ईषत्-मनाक् अर्द्ध-तिर्यग्वलितं अक्षि-चक्षुर्येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेषु शृङ्गाराविर्भावकक्रियाविशेषेष्वित्यर्थः तैर्मुष्णन्त्य इव सुबजनमनांसीति गम्यं, || तथा 'चक्खुल्लोअणलेसेहिं' अन्नम-परस्परं चक्षुषां लोकनेन-अवलोकनेन लेशा:-संश्लेपास्तैः खिद्यमाना इव, किमुक्तं पर भवति?-एवं नाम ताः तिर्यग्वलिताः कटाक्षः परस्परमवलोकमानाः अवतिष्ठन्ति यथा नूनं परस्परसौभाग्यासहनतः
दीप अनुक्रम [७.८]
estseesaesesesese
~ 106~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
| विजयद्वार
वक्षस्कारे वर्णनं स.८
सूत्रांक
[७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्बू-18 तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षैः परस्परं खिघन्त इवेति, तथा 'पुढवीपरिणामाओ' इति पृथ्वीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपगता द्वीपशा-N
| बिजयद्वारवत्, चन्द्रानना:-चन्द्रमुख्यः चन्द्रवन्मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाश्चन्द्रविलासिन्यः चन्द्रार्डेन-अष्टमी-18 न्तिचन्द्रीया चिः
| चन्द्रेण सम-सदृशं छलाटं यासां ताः चन्द्रार्द्धसमललाटाः, चन्द्रादप्यधिकं सोम-सुभगं कान्तिमार्शन-आकारो यासां |
ताः तथा, उल्का इव-गगनाग्निज्वाला इवोद्योतमानाः विद्युतो-मेघवहयस्तासां घना-निविडा मरीचयस्तेभ्यो यच ॥५२॥
सूर्यस्य दीप्यमानं घनाचनावृतं तेजस्तस्मादधिकतरः सन्निकाश:-प्रकाशो यास तास्तथा, शृङ्गारो-मण्डनभूपणाटो| पस्तत्प्रधान आकारो यासां तास्तथा, चारुवेषाः-मनोहरनेपथ्याः, पश्चात्कर्मधारयः, अथवा शृङ्गारस्य-प्रथमरसस्या| गारमिव-गृहमिव चारु वेषो यासां तास्तथा, प्रासादीया इत्यादिपदचतुष्टयं प्राग्वत् , “विजयस्स णं दारस्स उभओ
पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता, ते णं जालकडगा सबरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा" | विजयस्येत्यादि प्राग्वत्, द्वौ द्वौ जालकटकौ-जालकाकीर्णों रम्यसंस्थानी प्रदेशविशेषौ प्रज्ञप्ती, ते च जालकटकाः सर्वरक्षमया अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् । “विजयस्स णं दारस्स उभोपासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो घंटाओ पण्णचाओ, तासि णं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तंजहा-जंबूणयामईओ घंटाओ वरामईओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा तवणिज्जमईओ संकलाओ रययामईओ रजूओ, ताओ गं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुभिस्सराओ गंदिस्सराओ गंदिघोसाओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ
ececeivestaeseaeseseseseaesese.
॥५२॥
~107~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
18 सुस्सरघोसाओ उरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिब्बुइकरेण सदेणं जाव चिट्ठति' अक्षरगमनिका प्राग्वत् ,
वेढे घण्टे प्रज्ञप्ते, 'तासि थे' तासां घण्टानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जाम्बूनदमय्यो घण्टा, वज़मय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापा -पण्टैकदेशविशेषाः, तपनीयमय्यः शृङ्खला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति, रजतमय्यो रजवः प्रतीताः ताश्च घण्टा ओपेन-प्रवाहेण स्वरो यासां तास्तथा, मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासां तास्तथा, हंस-|| स्येव मधुरः स्वरो यासा तास्तथा, एवं कोचस्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यास तास्तथा, एवं दुन्दुभिस्वराः, नन्दिः-द्वादशतूर्यसंघातस्तद्वत्स्वरो यास तास्तथा, नन्दिवत् घोषो-निनादो यासा तास्तथा, मञ्जः-प्रियः कर्णमनः-|| सुखदायी स्वरो यासां तास्तथा, एवं मझुघोषाः, किंबहुना, सुस्वराः सुस्वरघोषाः, अथवा सुष्टु यत् स्वं-स्वकीयं अनन्तरोक्तं वर्ण शृखलादिकं तेन राजन्ते इति सुस्वराः तथा शोभनौ वरघोषौ यास ताः, 'उरालेण' मित्यादि प्राग्वत्, "विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो वणमालाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणमा-18 लाओ णाणादुमलयकिसलयपलवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज़माणसोभंतसस्सिरीयाओ पासादीयाओ४" अत्र व्याख्या-18 पदयोजना प्राग्वत्, द्वे द्वे वनमाले प्रज्ञप्ते, ताश्च वनमाला द्रुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला
इत्यर्थः पल्लवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्राः षट्पदैः परिभुज्यमानाः सत्यः शोभमानाः षट्पदपरिभुज्यमानशोभमानाः,8 18|| अत एव सश्रीकाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः 'पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् , “विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि |
दीप अनुक्रम [७,८]
2022302020009sadawasi
INHimatrane
~ 108~
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७.८]
श्रीजम्बू- दुहओ णिसीहियाए दो दो पकंठगा पण्णता ते णं पकंठगा चत्तारि जोअणाई आयामविक्खंभेणं दो जोअणाई बाह- वारको
द्वीपशा- 18 लेणं सववइरामया अच्छा आव पडिरूवा" इति, अत्र व्याख्या-पदयोजना प्राग्वत् द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रज्ञप्ती, प्रक- विजयद्वारन्तिचन्द्री
ण्ठको नाम पीठविशेषः, चूर्णौ तु "आदर्शवृत्ती पर्यम्तावनतप्रदेशौ पीठौ प्रकण्ठा"विति, ते च प्रकण्ठकाः चत्वारि 8 वर्णन सू.८ या वृतिः
योजनान्यायामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां वे योजने बाहल्येन-पिण्डेन 'सघवइरामया' इति सर्वात्मना वज्र-18 ॥५३॥ मयाः ते प्रकण्ठकाः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् , "तेसि ण पकंठगाणं उरि पत्तेय पत्तेयं पासायच-18
डिसगा पण्णता, ते णं पासायडिंसगा चत्तारि जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अभुग्ग-18 | यमूसिअपहसिया विविहमणिरयणभसिचित्ता पाउदुअविजयजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयणपंजरुम्मीलिआ इव मणिकणगधूभिआगा विअसियसयवत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचन्दचित्ता अंतो बाहिं च सण्हा तवणिज्जवालुआपस्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुया पासाईया ४" तेषां प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येक प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रासादावतंसको नाम प्रासाद विशेषः, तत्युत्पत्तिश्चैव-प्रासादामामवतंसक इव-शेखरक इव || प्रासादावतंसका, ते च प्रासादावतंसकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्योच्चत्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां 'अम्मु-1॥ ग्गये त्यादि, अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गताः उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु विक्ष प्रसता या प्रभा तया सिता |इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युच्चा निरालम्बास्तिष्ठन्तीति भावः, तथा 'विविहमणिरयण
~ 109~
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
eatreeeeeeeeeees
भत्तिचित्ता' इति विविधा-अनेकप्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्तायाः यानि च रलानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तिमिःविच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा, नानाविधमणिरलभक्तिचित्राः, तथा 'वाउडुअविजयवेजयंतीपडागच्छत्ताइछत्तकलिया' वातोडुता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीनाम्यो याः पताकाः, अथवा विजया इति वैजन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते, तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिछत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिछत्रक| लिताः, तुङ्गा-उच्चाः, उच्चस्त्वेन चतुर्योजनप्रमाणत्वात्, अत एव गगनतलं-अम्बरमनुलिखन्ति-अभिलंघयन्ति शिखराणि येषां ते तथा, तथा जालानि-जालकानि गृहभित्तिषु लोके यानि प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभा| निमित्तं रलानि येषु ते जालान्तररलाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा पञ्जरादुन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिताः, यथा किल किमपि वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति, एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, अथवा जालान्तरगतरत्नपञ्जरै-रत्नसमुदायविशेषैरुन्मीलिता इव-उन्मिपितलोचना | इवेत्यर्थः, मणिकनकस्तूपिका इति प्रतीत, विकसितानि-विकस्वराणि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च-कमलविशेषाः द्वारादी प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरतानि-भित्त्यादिषु पुण्डूविशेषाः अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यभूता वा नानामणिमयदामालंकृता इति व्यक्तं अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णा-मसणाः, तपनीयस्य-रक्कसुवर्णस्य वा
दीप अनुक्रम [७,८]
229200290292020
~110~
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे जहार
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्यू- लुकास्तासां प्रस्तट:-प्रस्तरः प्राङ्गणेषु येषां ते तथा, शेषं पूर्ववत्, "तेसि णं पासायवडिंसगाणं उल्लोआ पउमलयाभ-
द्वीपशा-तिचित्ता असोगलयाभत्तिचित्ता चंपगलयाभत्तिचित्ता चूअलयाभत्तिचित्ता वणलयाभत्तिचित्ता वासंतिलयाभत्ति- न्तिचन्द्री
चित्ता सवतवणिजमया जाव पडिरूवा" तेषां प्रासादावतंसकानामुल्लोकाः-उपरितनभागाः पद्मलताभक्तिचित्राः अया वृचिः
शोकलताभक्तिचित्राः पम्पकलताभक्तिचित्राः चूतलताभक्तिचित्राः बनलताभक्तिचित्राः वासन्तिकलताभक्तिचित्राः, ॥५४॥ सर्वात्मना तपनीयमयाः 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् , “तेसि णं पासायडिंसगाणं
| अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिं उवसोभिए मणीणं षण्णो ॥ गंधो फासो अ णेअधो"त्ति, तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहाणामए आलिंग
युक्खरेइ वा' इत्यादि समभूमिवर्णनं वर्णपञ्चकसुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं च प्राग्वद् ज्ञेयं, "तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमझदेसभाए पत्तेयं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रययामया सीहा
सोवण्णिया पाया तवणिजमया चकला णाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयामयाई पत्ताई वइरामया संधी Aणाणामणिमयं चेचं ते णं सीहासणा ईहामिगउसभ जाव पउमलयाभत्तिचित्ता, संसारसारोबचिअविविहमणिरय-1 Aणपायपीढा अस्थरयमिउमसूरगणवतयकुसंतलिच्चकेसरपञ्चत्थुयाभिरामा आईणगरूअवूरनवणीयतूलफासा सुविरइय-|
रयत्ताणा ओअविअखोमबुगुलपट्टपरिच्छायणा उवरि रत्तंसुयसंवुडा सुरम्मा पासाइया ४" इति, 'तेसि णमित्यादि,
॥५४॥
50002020
~111~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
हा तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहा
सनानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रशप्तः, तद्यथा-रजतमयाः सिंहाः, यरुपशोभितानि सिंहासनानि, सौच-1 र्णिका:-सुवर्णमयाः पादाः, सपनीयमयानि चकलानि-पादानामधःप्रदेशाः भवन्ति, मुक्कानानामणिमयानि पादशीर्ष-18 काणि-पादानामुपरितना अवयवविशेषाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईपादीनि वज्रमया-वजरलापूरिताः सन्धयोगात्राणां सन्धिमेलाः नानामणिमयं चेचं-न्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थः, तानि च सिंहासनानि ईहामृगऋषभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि, तथा सारसारैः-प्रधानप्रधानैर्विविधैर्मणिरक्षरुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वादुपचितशब्दस्यान्तरुपन्यासा, 'अत्थरयमउअमसूरगनवतयकुसंतलिच्चकेसर| पञ्चत्थुआभिरामा' इति आस्तरक-आच्छादनं मृदु येषां मसूरकाणां तान्यास्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृत-16 ॥ त्वात् , नवा त्वक् येषां ते नवत्वचः कुशान्ता-दर्भपर्यन्ता नवत्वचश्च ते कुशान्ताच नवत्वक्कुशान्ताः-प्रत्यग्रत्वग्दर्भ-116 पर्यन्तरूपा लिच्चानि-कोमलानि नम्रशीलानि च केसराणि, कचित् सिंहकेसरेतिपाठः तत्र सिंह केसराणीव केसराणि ||४ मध्ये येषां मसूरकाणां तानि नवत्वक्कुशान्तलिच्चकेसराणि, सिंहकेसरेति पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्य शाकपार्थि
वादिदर्शनालोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसूरकैर्नवत्वक्कुशान्तलिचकेसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि । अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् , तथा 'आईणगरूअबूरनवनीयतूलफासा'
eeeeeeeeeeeseaesed
दीप अनुक्रम [७.८]
थीमन्यू-१०
~ 112~
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
या वृत्तिः
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्बू- इति आजिनक-चर्ममयं वस्त्रं वच्च स्वभावादतिकोमलं स्यात् रूत-कासपक्षम बूसेन्चनस्पतिविशेषः नवनीत- विजयद्वारद्वीपशा-18 पक्षणं तुल-अर्कतुलं तेषामिक पर्यो वेषां तानि स्था, सुविरचितं रजवाणं प्रत्येकमुपरि येषां तावि तथा, 'ओवित्तिवर्णनं सूर तचन्द्री-18 परिकम्मितं यत् क्षौर्म-दुकूलं का सिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादनं-रजस्त्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं बेषां तानि तथा,
'उवरि रत्तंसुअसंवुआ'इति रक्ताशुकेच-अतिरमणीयेन वस्त्रेण संवृतानि-आच्छादितानि रक्तांशुकसंवृतानि, अत एव । ॥५५॥ सुरम्याणि, 'पासाईया'इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् , "तेसि णं सीहासणाणं उप्पिं विजयदूसे पम्पत्ते, ते णं विजवदूसा
|| संखकुंददगरयमयमहिअफेणपुंजसनिकासा सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां सिंहासनानामुपरि प्रत्येकं २ || प्रतिसिंहासनमेकैकभावात् विजयदूष्यं-वितानकरूपो वस्त्र विशेषः प्रज्ञप्तः, तानि च विजयष्याणि शकः प्रतीतः कुंदे'ति!
कुन्दकुसुमं दकरजः-उदककणाः अमृतस्व-क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य य: फेनपुञ्जो-डिण्डीरोत्करस्तत्सन्निकाशानि-18 | तत्समप्रमाणि, पुनः कथंभूतानीत्याह- सवस्यणामया' इति सर्वात्मना रत्नमयानि, शेष प्राग्वत् , "तेसि णं विजयदू-11 | साणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेय पत्तेयं पहरामया अंकुसा पण्णता, तेसु णं वाइरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं २ कुंभिका मुत्ता|दामा पण्णत्ता, ते णं कुंभिका मुचादामा अमेहिं चउहिं तदबुञ्चत्तप्पमाणमित्तेहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहिं सक्नो || ॥५५॥
समंता संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसया सुवण्णपयरगमंडिया जाव चिट्ठति" तेषां सिंहासनोपरिस्थिताचा |विजयदूष्याणां प्रत्येकं २ बहुमध्यदेशभागे अशा अङ्कशाकारा मुक्कादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञताः, तेषु वजमये
2999999
~ 113~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
edesekeepe
म्वङ्कुशेषु प्रत्येक प्रत्येक कुम्भामं-समयदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणं मुक्कामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्तं, अत्र वृत्त्वनुसारेण 'कुंभिक | मुत्चादामे पण्णत्ते' इति पाठः सम्भाव्यते, कुम्भमाचं तु उत्तरत्र चर्मरनछत्ररत्नसमुद्कस्थितस्य चक्रिणो गृहपतिरलेन
धान्यराशिसमर्पणाधिकारे वक्ष्यते, ताचि च कुम्भामाणि मुक्कादामानि प्रत्येक प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भाप्रैर्मुक्कादाम|| भिस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैः सर्वतः सर्वासु विक्षु समन्ततः-सामस्त्येन संपरिक्षिक्षानि, 'अद्ध कुंभिकेहि' इत्यत्र अर्द्धश्वब्दः
सूत्रे दृश्यमानोऽपि वृत्तावव्याख्यातत्यान्न व्याख्यात इति, ते ण दामा'इत्यादि दामवर्षकसूत्रं पद्मवरवेदिकादामवर्ण
कवद् व्याख्येय, अत्र सूत्रादर्शपु कचित् 'तेसि णं पासायवडिंसमाणं उपि अमंगलगा पण्णत्ता, सोत्थियसीहास Kजाव छत्ताइछत्ता' इति सूत्रं दृश्यते,तद्व्याख्यानं च व्यक्तमिति, विजयस्स पां दारम्स उभओपासिं दुहोणिसीहियाए ।
दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते ण तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अहममलगा झवा छत्ताइच्छता, तेसि तोरणाणं | पुरओ दो दो सालभंजिआ पण्णत्ता जव हेडा तहेव, तेसिप तोरणा पुरओ दो दोणागतमा पण्णचा, ते णं णाग-II 18 दंतगा मुत्ताजालंतरूसिव तहेव, तेसु गं पागदत्तपसु बहवे किण्हसुत्तबद्धबग्धारियमझदामकलावा जाव चिटुंति' सर्व ॥॥चेतत् सूत्रं प्राग्वत् क्षेयं, नवरं नागदन्कसूत्रे उपरि नागदन्तका न बक्कच्या अभावादिति, "तेखि गं तोरणाणं पुरोगा।
|दो दो हरसंघाडगा जाव उसहसंपाङगा सकरपणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एवं पंतीओ कीहीओ मिहुणगा, तेसि || हा तोरणाणं पुरचो दो दो पउमलयामो जाय सामन्यायो णिच्चं कुसुमियायो नाच सवरवणामया जाव पडिरूवाओ"
दीप अनुक्रम [७,८]
Heraora2909200000accoonamasomaa
esesepececers
~ 114 ~
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
वक्षस्कार [१],
मूलं [७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥ ५६ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
JEbenicim
अत्र व्याख्या- तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयसंघाटकी द्वौ द्वौ गजसंघाटको द्वौ द्वौ नरसंघाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसं - घाटको द्वी द्वो महोरगसंघाटको द्वौ द्वौ गन्धर्वसंघाटकी द्वौ द्वौ वृषभसंघाटकी, एते च कथंभूता इत्याह- 'सवरयणा | मया अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत्, एवं पंक्तिवीथीमिथुनकान्यपि प्रत्येकं वाच्यानि, 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानां | पुरतो द्वे द्वे पद्मलते यावत्करणात् द्वे द्वे नागलते द्वे द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीलते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तलते इति परिग्रहः, द्वे द्वे श्यामलते, एताश्च कथंभूता इत्याह- 'निचं कुसुमियाओ' इत्यादि यावत्करणात् 'निचं मउलियाओ निचं लवइयाओ निचं थवइयाओ गुलइयाओ निचं गुच्छियाओ निश्चं जमलियाओ निचं जुअलियाओ निचं विणमियाओं निश्चं पण मियाओ निच्चं सुविभत्तपडिमंजरिवर्डिसगधरीओ निचं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवर्डिसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत्, पुनः कथंभूता इत्याह- 'सबरयणामया जाव पडिरुवा' इति अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः, स च प्राग्वद्भावनीयः, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वंदनकलसा पद्मत्ता, ते णं बंदणकलसा | वरकमलपट्टाणा तहेव सवरयणामया जाव पडिरुवा" इति तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ वन्दनकलशी प्रज्ञप्ती, वर्णकश्च प्राक्तनो वक्तव्यः, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णत्ता वरकमलपट्टाणा तहेब सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा मत्तगयमहामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समणाउसो !' तेषां तोरणाना पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारकी कन
Fuate & Pona Use Only
~ 115 ~
विजयद्वारवर्षेनं सू.८
॥ ५६ ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
seseseseseneceseaes
| कालुकापरपर्यायौ प्रज्ञप्ती, तेपामिव-वन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तगयमहामुहागिईसमाणा |पण्णत्ता समणाउसो' इति वक्तव्यं, मत्तो यो गजस्तस्य महद्-अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृति:-आकारस्तत्समानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आदंसगा पण्णता, तेसिणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तवणिज्जमया पगंठगा वेरुलियमया छरुहा वइरामया चारगा णाणामणिमया बलक्खा अंकामया| मण्डला अणोग्यसिअनिम्मलाए छायाए सबओ चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिनिकासा महया २ अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वावादर्शकौ-दर्पणी प्रज्ञप्तौ, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमया प्रकंठका-पीठविशेषाः वैडूर्यमयाः थासका:-आदर्शगण्डप्रतिबद्धप्रदेशाः, आदर्शगण्डानां मुष्टिन-18 हणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, वज़मया वारगा-गंडा इत्यर्थः, नानामणिमया वलक्षाः, वलक्षो नाम श्वलादिरूपमव-18
लम्बनं येन सम्बद्ध आदर्शः सुस्थिरो भवति, तथा अद्यरत्नमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूतिः, तथा अवघर्षण-18 8|मवर्षित भावे कात्ययः भूत्यादिना निर्मार्जनमित्यर्थः अवधर्षितस्याभावोऽनवपर्पितं तेन निर्मला अनवघर्षितनिर्मला || |तया छायया-कान्त्या समनुबद्धा-युक्ताः, तथा 'चंदमंडलपडिनिकासा इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'महयामहया' इति । अतिशयेन महान्तोऽर्द्धकायसमाना-आलोककव्यन्तरादिकाया प्रमाणा इत्यर्थः, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरनाभा थाला पण्णत्ता, ते णं अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदपडिपुण्णाविव चिट्ठति सबजंबूणयामया अच्छा
दीप अनुक्रम [७,८]
Similenni
~ 116~
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्यू-राब पडिरूया मया मल्या रहचकसबाचावण्णासा समयाउने" क्षेस बोरपान पुरतो वे क्सममो साभिः-- विज
विजयद्वारद्वीपचा-भागो ययोस्ले वचनामे खाले प्रज्ञले, सानि स्थाखानि विष्ठन्तीति किवायोगा, अच्छा-निर्मला गुणस्फटिकवत् विचा-वर्णनं मू.८ न्तिचन्द्री
चन्द्राटिता: जीन वारान् छदिता-तियत्वचित्ता अत एव 'बससंवटा सा-नखिकाः संवता-गुरुवादिमिधुम्मिता येमा । या चिः
ते तथा, अत्र निष्ठारतस्य परनिपात: भार्योचादिदर्शनात् , अक्छ। त्रिच्छति। बालितन्दुलै बससंदः परिपूर्णाचीच | ॥५७॥
18| अच्छत्रिच्छटितचालितन्दुलनखसंवटपरिपूर्यानि, पृथिवीपरिणामरूपाणि तानि तथा खिसानि केक्समेषमाकाराणीत्यु-181 8पमा, तथा चाह- समजबूणयामया' इति सर्वात्मना जाम्बूनदमयानि शिक्षा सम्हाइलावि प्राग्वत्, 'महवामहया181 18| इति अतिशयेन महाम्सि रथचक्रसमानानि प्राप्तानि, हे श्रमण! हे आयुष्म। तेसि तोरणाणं पुरजो दो दो18
|पाईओ पण्णतायो, ताओ णं पाईओ अच्छोदगपडिहत्थाओ सामाविहरूस फलहरिशरस बहुपतिपुषणामो विष चिति,IRI । सबरयणामईओ आर पडिस्चाओ, महवामहया गोकलिंजचकसमापामओ रण्यात्तामो समगाउसो" तेषां तोरणानां ।
पुरतो वे द्वे पात्र्यौ प्रशसे, ताश्च पात्र्योऽच्छेनोदकेन 'पडिहत्याओ'त्ति परिपूर्णाः देशीशब्दोऽयं, 'शाणाविहस्स फलहरिअस्स बहुपहिष्णाओ विवे'ति अत्र षष्ठी तृतीया बहुवचने चैकवचनं प्राक्त्तत्वात् , मानाविधैः हरितफलैः बहु- ॥५७॥ प्रशतं प्रतिपूर्णा इव तिवन्ति, न खलु तानि फलानि जलं वा किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिणामा-1 तत उपमानमिति, 'सबरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , 'महयामया' इति अतिशवेन महल्यः, गवां चरणार्थ यश-18
~ 117~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दलमयं महनाजनं बल्लेति प्रसिद्धं तद् मोकलिञ्जमुध्यते, तदेच पत्रं वृथाकारत्वा तत्समाचार प्रसार हे बम हे आयुष्मन् ! "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइडमा पण्णत्ता, ते गं सुपइडगा सुसयोसहिपडिपुण्णा णाजावि. हस्स पसाहणगभंडस्स बहुपडिपुण्णाविव चिट्ठति, सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानां पुरतो वो द्वौ सुप्रतिष्ठको-आधारविशेषौ प्रजाती, ते च सुप्रतिष्ठकाः सुसौंपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पश्चवणः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, अत्रापि तृतीचार्थे पष्ठी बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , 'सबरव
मामया' इत्यादि प्राग्वत् "तेसि मं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ, ताजो गं मणोगुलिआओ सबरावेरुलियामईओ जाव पडिरूवाओ, तासु पं मणोगुलियासु बहवे सुचण्यारूप्पमया फलगा पक्षणचा, सेसु सुवष्णरुप्पामएमु फलपसु बहचे वइसममा कागदंतमा पण्णता, तेसण घागदंतपम बहवे रबयाममा सिकका पण्णता" सर्वमेतत् सूत्रं जाण्याप्तपूर्व, नवरं मनोगुलिका-पीठिका इति, "तेसु पं रपयामएस सिकरम पहवे वायकरगा पण्णचा, ते णं वायकरगा किण्हमुत्रसिक्षगगवच्छिा जाव मुकिल्लमुत्तसिकगमवच्छिया सबवेरुलियामया अच्छा जाव पडिरुवा" इति, तेषु रजतमयेषु शिक्यकेषु बहवो वातकरका जलशून्याः करका श्वः प्रशसार, 'ते 'मित्यादि, ते च वातक| रका: 'कृष्णसूत्रसिक्कगगवच्छिता' इति आच्छादनं क्वच्छः, गच्चाः सजाता एष्विति गवच्छिताः कृष्णसूवैः-कृष्णसूत्रमयः गच्छरिति गम्यते शिक्यकेषु गवचित्ताः कृष्णसूत्रशिक्यकावच्छिता, एवं नीलसूत्रशिक्षकगवच्छिता इत्या
సంబందించి
दीप अनुक्रम [७,८]
~ 118~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृचिः
॥ ५८ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
द्यपि भावनीयं, ते च वातकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमयाः, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, 'तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णता, से जहा णामए रण्णो चाउरंतचकवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडगे वेरुलिअमणिफालिअपडलपचोअडे साए पभाए ते पएसे सबओ समंता ओभासेइ उज्जोवेद तावेइ पभासेइ एवामेव तेवि चित्ता रयणकरंडगा वेरुलिय जाब पभासिंति"त्ति, अत्र व्याख्या - तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चित्री चित्रवर्णपती नानाश्चर्यकरी वा रक्षकरण्डकी प्रज्ञसी, एतावेव दृष्टान्तेन भावयति' से जहा णाम ए' इत्यादि स यथा नाम राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः चतुर्षु| दक्षिणोत्तरपूर्वापररूपेषु पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्त्तितुं शीलं यस्य स चातुरन्तचक्रवर्त्ती तस्य चित्रः- आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा 'वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे ति बाहुल्येन वैडूर्यमणिमयस्तथा स्फाटिकपटलप्रत्यव: तटः- स्फाटिकपटलमयाच्छादनः स्वकीयया प्रभया तान् प्रवेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येन अवभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे उद्योतयति तापयति प्रभासयति, 'एवमेवेत्यादि सुगमं, “तेसि णं तोरणाणं पुरओ | दो दो हयकंठा पण्णत्ता जाव उसभकंठा पण्णत्ता सबै रयणामया जाव पडिवा" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयकण्ठी- हयकण्ठप्रमाणौ रक्षविशेषी प्रज्ञप्ती, एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगान्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्याः, तथा चाह'सबै रयणामया' इति, सर्वे रलमया इति रत्नविशेषरूपाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, “तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पुप्फचंगेरीओ पण्णत्ताओं, एवं महचुण्णगंधवत्थाभरणसिद्धत्थग ढोम हत्थग चंगेरीओ सवरयणामईओ अच्छाओ जाव
JE(intentional
Furwale rely
~ 119 ~
| विजयद्वारवर्णनं सू.८
॥ ५८ ॥
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
पडिरूवाओ" इति, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे पुष्पचङ्गेय्यौं प्रज्ञप्ते, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकचनेर्योऽपि वक्तव्याः, एताच सर्वा अपि सर्वात्मना रस्लमयाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पुष्फपडलगाई जाव लोमहत्थगपडलगाई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई" एवं पुष्पादिचङ्गेरीवत् पुष्पादीनामष्टानां पडलकान्यपि द्विद्विसंख्याकानि वाच्यानि, "तेसि ण तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणाई पण्णत्ताई तेसिणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तहेव जाव पासादीया ४" इति, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे | सिंहासने प्रशसे, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुतो निरवशेषो वक्तव्यो यावद्दामवर्णन, 'तेसि ण तोरणाणं पुरओ | दो दो रुप्पच्छदा छत्ता पण्णत्ता, ते णं छत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबूणयकण्णिया वइरसंधी मुत्ताजालपरिगया अट्ठसह-18 ॥8 स्सवरकंचणसलागा दहरमलयसुगंधिसबोग्यसुरहिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा"इति, अत्र व्याख्या-18
तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे रूप्यच्छदे-रजतमयाच्छादने छत्रे प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि बैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि 8
जाम्बूनद-सुवर्ण तन्मयी कर्णिका येषां तानि जाम्बूनदकर्णिकानि, तथा वज्रसन्धीनि-वजरलापूरितदण्डशलाका-118 8सन्धीनि मुक्काजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहनसंख्याका वरकाश्चनशलाका-वरकाश्चनमय्यः शलाका
येषु तानि अष्टसहस्रवरकांचनशलाकानि, तथा 'दहरमलयसुगंधिसबोउयसुरहिसीअलच्छाया' इति दर्दर:-चीवराबनखं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालिताः तत्र पक्का वा ये मलय इति-मलयोदय श्रीखण्ड तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो |
दीप अनुक्रम [७,८]
~ 120~
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्यानपचारास्ताकयेषु असुन सुरमिरचीलसा छाया वेषा तानि तथा, कावत्तिचिता' महासाचा मासिकारीको विजयद्वार
द्वीपशा- अष्टानां भक्त्या-विच्छित्वा चियालेखो वेषां तानि सया, चंदानारोवाति घनाकारस-पन्द्राकृति का वर्णनं सू.८ न्तिचन्द्री-18 उपमा नेपा तानि तथा, चन्द्रबण्डछचत्त बानीति भावः, "तेसि को तोरणा पुरयो दो दो चामसओ पण्णमाको या वृचिः
ताओ जे चामराओ पंतप्पभवावेरुलियणाजामगिरवणखचियविचित्वंशाओ सुझुकारयवदीहवालामो संखककुंदर॥ ५९॥ | गरयअमवपाहिजफेणपुंजसपिणगासाओ अच्छाओ जाच पखिरूवाओ" तेषां तोरणा पुरत्तो हे चामरे प्रशसे, सूबे
चामरशब्दस खीत्वं प्राकृतत्वात्, तानि च चामराणि 'चंदप्पचकारवेसबियणाणामपिरयणलचिअदंडागो' इति । चन्द्रप्रभा-चन्द्रकान्तो वजं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवजवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरक्षानि सचितानि येषु ईण्डेषु ते तवा, एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा येषां चामराजा तानि सथा, सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला ये तामि तथा, तथा 'संसंककुंदक्षगरयअमयमहिजफेणपुंजसनिकासाओ' इति शास:-प्रतीतः अझोरनविशेषः कुंदेति कुन्दपुष्पं दकरजः-उदककणाः अमृतमथितफोनपुजा-क्षीरोदजलमथनसमुत्था फेबजास्तेपामिव सनिकाश-प्रभा॥ वेषां तानि तथा, 'अच्छाओं' इत्यादि पावत्, "तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो तेलसमुग्गया पण्णता कोढसमुग्गा
॥ ५९॥ पत्तसमुग्गा चोअसमुग्गा तगरसभुग्गा एलासमुग्ला हरिआलसबुग्गा हिंदुलक्समुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजनसमुग्गा सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ तैकसमुन्नको-सुगन्धितलाधारविशेषौ प्रशती
teesereeeeeeee
~ 121~
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
एवं कोडाविषयुका अति वाक्यात, अवर बोजाचाबविशेषा फा-तमासयबादि मोज-रक्शामक मन्धान अनुकसोचीराम, अब माणिनाथालेले बोड़सलो पसे सोए तार एला । हरिबाले हिंनुलए ममोसिला अंज-18 णसमुग्गे ॥१॥" इति, एते सर्वेऽपि समुजका सर्वातामा रकमया इत्यादि शाक्त्, "विजए सारे बसयं चक
याणं अट्ठसय मिगझयाण अडलयं मरुज्याय असर्व विजयाणं अत्यंत्तज्झचाणं असर्य पिळग्शयाणे II अहस्पं सानिमायाण मयुसर्य सिंहावा बहुलवं वसाहन्झचा अहसर्व सेवाणं बाविसाणवरनालकेजर्ण एवामेच
सवावरेणं रिजयबारे असीर्थ केजसहसं मपरिसिमक्खा" पत्र वाक्या-तमिन विजयद्वारे अष्ट्वातं--प्राधिक शतं चक्रध्वजामा पक्कालेखरूपचिन्होपेलालां जाना, एवं मारुउच्छवापिच्छाकुनिसिंहपृश्यचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रत्येकमासमष्टात यकाय, "एवामेव पुवाचरेणाति एवामेव-अनेव प्रकारेण सह पूर्व यख बेन का सपूर्व || सपूर्व च तदपरं च तेन सपूर्वापरेण पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः, विजषद्वारेऽशीत-अशीवधिकं केतुसहसं भवतीत्या-1 ख्यातं, मयाऽन्यैश्च तीर्थकृतिरिति शेषः, "विजयस्त णं दारा पुरओ णव भोमा पण्णता, तेसिक भोमाण अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागत पण्णता आव मणीणं फासो, तेसि पं भोमाणं उप्पिं उल्लोमा पउमलया जाव सामलयाभत्तिचित्ता जाच सघतषणिजमवा अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं भोमाणं बहुमादेसभाए जे से पंचमे भोमे तस्स में | भोमस्स बहुमज्झदेसभाए महं एगे सीहासणे पण्णचे, सीहासणवण्णओ, विजयचूसे जाव अंकुसे जाच दामा चिट्ठति"
Estattee
दीप अनुक्रम [७,८]
~122~
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
वक्षस्कार [१],
मूलं [७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृतिः
॥ ६० ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
Junkeitintena
अत्र व्याख्या- विजयस्य द्वारस्य पुरतो नव भौमानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तुर्याने तु 'विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए णव णव भोमा पण्णत्ता' इति संख्याशब्दस्य पुरतो बीप्सावचनेन उभयबाहासत्कमीडनेनाष्टादशसंख्या अङ्कतो भौमानां सम्भाव्यते, तत्त्वं तु सातिशयजनगम्यमिति, तेषां च भौमानां भूमिभागः उल्लोकाश्च पूर्ववद्ध कन्याः, | तेषां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यत्पञ्चमं भीमं तस्य बहुमध्यदेश भागे विजयद्वाराधिपविजयदेवयोग्यं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं विजयदृष्यकुम्भाप्रमुक्तादामवर्णनं च प्राग्वत् 'उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चण्हं सामाणिअसाहस्सीणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउन्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चचारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एत्थ णं विजअस्स देवस्स अग्भितरिआए परिसाए अट्टहं देवसाहस्सीणं अट्ठ भद्दासणसाइस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसा| हस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपञ्चच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स | बाहिरियाए परिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं वारस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयरस देवस्स सत्तण्हं अणीआहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं दाहि गणं पञ्चच्छिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्ण
For Prate&P Cy
~ 123~
विजयद्वारवर्णनं सू.८
॥ ६० ॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीनू ११
साओ, तंजहा- पुरच्छिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउसुवि जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, अवसेसेसु मोमेसु पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं सपरिवारं पण्णत्तं" अत्र व्याख्या- तस्य सिंहासनस्य 'अवरोत्तरेणं' ति अपरोत्तरस्यां वायव्यकोणे इत्यर्थः, 'उत्तरेणं'ति उत्तरस्यां दिशि उत्तरपूर्वस्यां च-ईशानकोणे सर्वसङ्कलनया तिसृषु दिक्षु अत्र विजयदेवस्य चतुर्णां समाने - विजयदेवसदृशे आयुर्युतिविभवादौ भवाः सामानिकास्तेषां 'साहस्सीणं' ति प्राकृतत्वाद् दीर्घत्वं स्त्रीत्वं च सहवाणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि तस्य च सिंहासनस्य पूर्वस्यामत्र विजयदेवस्य चतसृणामप्रमहिषीणां, इह 'कृताभिषेका देवी महिषी' त्युच्यते सा च स्वपरिवारभूतानां सर्वासामपि देवीनामग्रा-प्रधाना, ताश्च ता महिष्यश्च अग्रमहिष्यस्तासामग्रमहिषीणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसंख्यदेवीपरिवारसहितानां चत्वारि भद्रासन सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेय्यां विदिशीत्यर्थः, अत्र विजयस्य देवस्य अभ्यन्तरिकायाः पर्षदः - अभ्यन्तरपपपाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्ट भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि अत्र विजयदेवस्य मध्यमिकायाः पर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां दिशि नैर्ऋत्यां विदिशीत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्य बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासन सहस्राणि प्रज्ञतानि, ननु केऽभ्यन्तरमध्य बाह्यपर्षत्का देवाः यैरभ्यन्तरपर्षदादिव्यवहारो भवति १, उच्यते, अभ्वन्तरपर्यत्का देवा आहूता एव स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति न त्वनाहूताः, परमगौरवपात्रत्वात्, मध्यमपर्षत्कास्तु आहूता अपि अनाहूता
Fur Fate &P Cy
~124~
১0%9999
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| जम्बूद्वीप
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्बू
18 अपि स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति, मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् , बाह्यपर्षत्काः पुनरनाहूताः स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति, वक्षस्कारे द्वीपशा
तेषामाकारणलक्षणगौरवानर्हत्वात् , अथवा यया सहोत्तममतित्वात् पर्यालोच्य विजयदेवः कार्य विदधाति सा गौरवे ॥ न्तिचन्द्री- पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तराऽस्तीत्यभ्यन्तरिका, यस्याः पुरोऽभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोच्य दृढीकृतं पदं गुणदो-बारा या वृत्तिः
कथनतः प्रपञ्चयति सा गौरवे पर्यालोचनायां च मध्यमे भावेऽस्तीति मध्यमिका, यस्याश्च पुरः प्रथमपर्षदा सह पर्या-18 ॥१॥ लोचितं द्वितीयपर्षदा संह प्रपशित पदमाशाप्रधानः सन्निदं विधेयमिदं न विधेयं वेति प्ररूपयति सा गौरवात्पर्यालो-18॥
चनाच्च बहिर्भावेऽस्तीति बाह्या, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सप्तानामनीकाधिप-11% IN तीनां सप्त भद्रासनानि प्रज्ञप्तानि, अथ परिक्षेपान्तरमाह-तस्य सिंहासनस्य पूर्वस्या दक्षिणस्यां पश्चिमाया उत्तरस्यां I पवं चतसा दिक्षु अन्न विजयस्य देवस्य पोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि,
तद्यथा-पूर्वस्यां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि, एवं चतसृष्वपि दिक्षु यावदुत्तरस्यां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्ता
नीति, एतद् व्याख्यानं साम्प्रतदृश्यमानजीवाभिगमसूत्रबहादर्शपाठानुसारि, वृत्तौ तु तस्य सिंहासनस्य सर्वतः8 सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येनेत्यादि ब्याख्यानमस्ति, तत्पाठान्तरापेक्षयेति सम्भाव्यते, अवशेषेषु भौमेषु पूर्वापर18 मीलनेनाष्टसबकेषु प्रत्येकं प्रत्येक सिंहासनं सपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूपपरिवारसहितं प्रज्ञप्त, 'विज19 यस्स णं दारस्स उवरिमागारे सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिए, तंजहा-रयणेहिं १ वइरेहिं २ वेरुलिएहिं ३ लोहिअ
॥६१॥
~ 125~
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
खेहिं ४ मसारगल्लेहिं ५ हंसगम्भेहिं ६ पुलएहिं ७ सोगंधिएहिं ८ जोइरसेहिं ९ अंकेहिं १० अंजणेहिं ११ रयएहिं १२%8 जायसवेहिं १३ अंजणपुलएहिं १४ फलिहेहिं १५ रिटेहिं १६" विजयस्य द्वारस्य उपरितन आकार-उत्तरङ्गादिरूपः, । षोडशविधैः रलैरुपशोभितः, तद्यथा-रलैः १ वजेः रवैडूर्यैः ३ लोहिताक्षैः ४ मसारगलैः५ हंसगभैः ६ पुलकै ७ सौग-18| |न्धिकैः ८ ज्योतीरसैः ९ अङ्कः १० अञ्जनैः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अञ्जनपुलकै १४ स्फटिकैः १५ रिठ्ठः १६, तत्र रक्षानि सामान्यतः कर्केतनादीनि, वज्रादीनि तु रलविशेषाः प्रतीता एव, नवरं रजतं-रूप्यं जातरूपं-सुवर्ण, एते अपि रले एवेति, "विजयस्स णं दारस्स उवरिं अमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थिय सिरिवच्छ जाव दप्पणा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" 'विजयस्स ण'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि || प्रज्ञप्तानि, 'तद्यथे' त्यादिना तान्येवोपदर्शयति, 'सबरयणामया इत्यादि प्राग्वत्, "विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे । किण्हचामरज्झया जाव सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, विजयस्स ण दारस्स उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता तहेव" | विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे किण्हचामरज्झया" इत्यादि सूत्रपाठः जीवाभिगमसूत्रबहादशेषु दृष्टत्वाल्लिखितोऽस्ति, || स च पूर्ववद् व्याख्येयः, वृत्तौ तु केनापि हेतुना व्याख्यातो नास्तीति, 'से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ विजए दारे २१,
गोयमा विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्डिए महज्जुईए महाबले महायसे महासोक्खे पलिओवमठिइए परिवसइ, 18 से णं तत्थ चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणे सत्तण्डं अणीयाणं सत्तण्हं
Sadra8800000000acadreperoen
दीप अनुक्रम [७.८]
Serserseroeicesticecestareereceae
~ 126~
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७.८]
अणियारियर्षण सोलसण्हं आयरक्खदेवंसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए अ रायहाणीए अन्नेसिं च बहणं वक्षस्कारे द्वीपशा- विजयारायहाणीवत्थवाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवचं सामितं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे जम्मूद्वीप
| पालेमाणे महयहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियषणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, द्वारा.८ या से तेणडेणं एवं बुचा विजए दारे २"इति, अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारमिति ! भग-1 ॥६॥रवानाह-गौतम विजये द्वारे विजयो नाम प्राकृतत्वादव्ययत्वाद्वा नामशब्दात्परस्य टावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थः1) प्रवाहतः-अनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाम्ना देवो महर्द्धिको-महती ऋद्धिः-भवनपरिवारादिका यस्यासौ ।
महर्द्धिकः, 'महाद्युतिका महती द्युतिः शरीरगता आभरणगता च यस्यासौ महाद्युतिकः, तथा महत् बलं-शारीरः प्राणों 18| यस्य स महाबलः, तथा महत् यशः-ख्यातिर्यस्यासौ महायशाः, तथा 'महेसक्खे' इति महान् ईश इत्याख्या-प्रसिद्धि-II Bास्यासौ महेशाख्यः, अथवा ईशनं ईशो भावे घञ्प्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् , तत ईश-ऐश्वर्य IS आत्मनः ख्याति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति स ईशाख्यः महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचिन्महा-18 सोक्खे इति पाठः, तत्र महस्सौख्य-प्रभूतसद्वेद्योदयवशायस्य स महासौख्यः, पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्र
॥६२॥ चतसृणां सामानिकसहस्राणां चतसूणामनमहिषीणां सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसंख्यपरिवारसहितानां तिसृणाम-181 का म्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहनसङ्ख्याकानां पर्षदां, सतानीकानां-हयानीकगजानीकरथानी
~ 127~
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
कपदात्यनीकमहिषानीकगन्धर्वानीकनाव्यानीकरूपाणां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षकसहस्राणां विजयख। बारस्य विजयायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यात्मरक्षकेणेव क्रियते तत आह-पौरपत्यं पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म
पौरपत्र, सर्वेषामग्रेसरत्वमिति भावः, तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्य॥ पुरुषस्येव, ततो नायकत्वप्रत्तिपत्त्यर्थमाह-'स्वामित्व' स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः, तदपि
|घ नायकत्वं पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा मृगयूथाधिपतेर्मगस्य, तत आह-भर्तृत्व-पोषकत्वं, 'डभृञ् धारणपोषण॥ यो रिति वचनात् , अत एव महत्तरकत्वं, महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाचिकलस्थापि भवति यथा कस्पचिद्वणिजः स्वदास-8
दासीवर्ग प्रति, तत आह-आज्ञया ईश्वरः आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसे-18 | नापतिः तस्य कर्म आशेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्य प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमित्यर्थः कारयन् अन्यैर्नियुकैः पुरुषैः पालयन स्वय-131 मेव, महता 'रवेणे'ति योगः 'अहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानि यदिवा अहतानि-अव्याहतानि नित्यानुबन्धानीति भावः, ये नाट्यगीते नाव्य-नृत्यं गीत-गानं यानि च पादितानि तन्त्रीतलतालटितानि, तत्री-वीणा तलो-हस्ततलस्ताल:-क|शिका त्रुटितानि-शेषतूर्याणि, तथा यश्च घनमृदङ्गो-मेघसदृशध्वनिमुरजः पटुना पुरुषेण प्रवादितस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेण-नादेन सहकारिभूतेन दिवि भवान् दिव्यान अतिप्रधानानिति, तथा भोगार्हाः भोगाः-शब्दादयो भोगभोगाः, अथवा
~ 128~
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
दीप अनुक्रम [७,८]
श्रीजम्बू
भोगेभ्य-औदारिककायभावेभ्योऽतिशयिनो भोगा भोगभोगास्तान भुञ्जान:-अनुभवन् विहरति-आस्ते, अन व्यत्ययः वक्षस्कारे द्वीपशा- 18|| प्राकृतत्वात् , से एएणद्वेण मित्यादि, तत एतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-विजयं द्वारं विजयं द्वारमिति, विजयाभिधान- जम्बूद्वीप न्तिचन्द्री|| देवस्वामिकत्वाद्विजयो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति वा अभ्रादित्वादप्रत्यये विजयमिति भावः, देवस्य विजयाभिधानता
द्वारा०सू.८ या चिः
118 च यो यः पूर्वद्वाराधिपतिरुत्पद्यते देवः स स तत्सामानिकादिभिर्देवैः विजयो विजय इत्याहूयते, तत्स्थितिप्रतिपादके 18 ॥६३॥ कल्पपुस्तके तथाभिधानात् , “अदुत्तरं च णं गोअमा! विजयस्सणं दारस्स सासए णामधिजे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि 8
ण कयाइ णस्थिण कयाइण भविस्सइ जाव अवहिए णिचे विजए दारे" अथापरमपि विजयद्वारनामप्रवृत्ती कारणं गौतम!8 विजयस्य द्वारस्य विजयमिति नामधेयं शाश्वतम्-अनादिसिद्धं प्रज्ञप्त, शेष सुगम, एतत्सूत्रं वृत्तावदृष्टव्याख्यानमपि जीवाभिगमसूत्रबहादशेषु दृष्टवाल्लिखितमस्तीति । एतेन विजयद्वारवर्णकः उक्तः, अथ राजधानीवर्णको यथा-कहिण भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णामं रायहाणी पण्णचा, गोयमा विजयस्स दारस्स पुरथिम तिरिअमसंखिज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णमि जंबुदीवे दीये बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ ण विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता इत्यारभ्य विजए देवे २'इत्यन्तं सूत्रं ज्ञेयं, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे विजयद्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्य
दाशातय- ॥६३॥ गसोयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्यानान्तरे योऽन्यो जम्बूद्वीपोऽधिकृतद्वीपतुल्याभिधानः, अनेन जम्बूद्वीपानामसङ्ख्येयत्वं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता
390020908089900amasoos
~129~
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
मयाऽन्यैश्च तीर्थकृद्भिरित्यादि तावद् वाच्यं-यावनिर्गमनसूत्रे विजयो देवो २ इति, अत्र च प्रारब्धोऽपि जीवाभिगमोतविजयानामराजधानीवर्णकः सामस्त्येन यन्न लिखितस्तद् ग्रन्थविस्तरभयात् वक्ष्यमाणयमकाराजधाम्यधिकारे एवंवि-|| धवर्णकस्य साक्षाद्विद्यमानत्वेन ब्याख्यास्यमानत्वाञ्चेति, अन प्रस्तुतसूत्रे शेषद्धाराणां सराजधानीकानां स्वरूपकथनाश यातिदेशमाह-एवं चत्तारिवी'त्यादि, एवं विजयद्वारप्रकारेण चत्वार्यपि जम्बूद्वीपस्य द्वाराणि सराजधानीकानि भणितव्यानि, ननु विजयद्वारस्य वर्णितत्वात् सूत्रे कथं चतुरिविषयकोऽतिदेशः समसूत्रि!, उच्यते, अतिदेश्यातिदेशप्रतियोगिनोरत्यन्ततुल्यवर्णकत्वप्रतिपादनार्थ, ततश्च यथा विजयद्वारस्य वर्णकस्तथा वैजयन्तजयन्तापराजितद्वाराणामपि यथा चामीषां त्रयाणां तथा विजयद्वारस्यापि, यथा विजयराजधान्या वर्णकस्तथा वैजयन्ताजयन्तापराजि
ताराजधानीनामपि यथा च तासां तिसृणां तथा विजयाराजधान्या अपीत्यर्थः सिद्धः, अस्ति चायं न्यायः, 'एगे जिए, IS| जिआ पंच'इत्यादी तथा दर्शनात् , अमूनि च द्वाराणि पूर्वद्विक्तः प्रादक्षिण्येन नामतो ज्ञेयानि, तथाहि-पूर्वस्या विजय
दक्षिणस्यां वैजयन्तं पश्चिमायां जयन्तं उत्तरस्यामपराजितं चेति, अत्र वैजयन्तादिद्वाराणामपि जीवाभिगमत एव प्रश्न
निर्वचनरूपा आलापका वेदितव्याः, तथाहि-कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स वेजयंते णाम दारे पण्णते?, गोअमा! ॥ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स दाहिणेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरते लवणसमुद्ददा
हिणद्धस्स उत्तरेण एत्थ णं जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णाम दारे पण्णत्ते अहजोअणाई उहूं उच्चत्तेणं सचेव सबा वत्तवया
33000080920000000000rsoer
दीप अनुक्रम [७.८]
JinEllenniemaions
~130~
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [७-८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
द्वारा०सू.८
प्रत सूत्रांक [७,८]
जाव णिचे, रायहाणी से दाहिणेणं जाव वेजयंते देवे २' इति, तथा 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते णाम 8 वक्षस्कारे द्वीपशा- दारे पण्णते?, गोअमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स पञ्चत्थिमेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अचाहाए जंबुद्दीव- जम्बूद्वीप
| पञ्चत्थिमपेरते लवणसमुद्दपञ्चत्यिमद्धस्स पुरथिमेणं सीओआए महाणईए उपि एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते । या वृत्तिःणामं दारे पण्णते, तं चेव से पमाण, जयंते देवे, पचत्थिमेणं से रायहाणी जाव जयंते देवे २"इति, तथा “कहिणं भंते !
जंबुदीवस्स २ अपराजिए णामं दारे पण्णते?, गो०! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे उत्तरपेलते लवणसमुद्दे उत्तरस्स दाहिणेणं एस्थ ण जंबुद्दीवे दीवे अपराइए णामंदारे पण्णत्ते, तं चेव पमाणं, रायहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे २, चउण्हवि अण्णंमि जंबुद्दीवे इति, अत्र व्याख्या-क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य २ वैजयन्त नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! मन्दरस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यबाधया बाधनं बाधा-आक्रमणमिति न वाधा अबाधा-दूरवर्तित्वेनानाक्रमणमपान्तरालमित्यर्थः, तथा (या) कृत्वेति । गम्यते, अपान्तराले मुक्त्वा इति भावः, जम्बूद्वीपद्वीपदक्षिणपर्यन्ते लवणसमुद्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरेण जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य | वैजयन्तं नाना द्वार प्रज्ञप्त, अष्टौ योजनान्यूर्वोच्चत्वेनेत्यादिका सैव विजयद्वारसम्बन्धिन्येव सर्वा वक्तव्यता याव-1॥६॥
नित्यं वैजयन्तमिति नाम, क भदन्त ! वैजयन्तस्य देवस्य बैजयन्तानानी राजधानी इत्यादि सर्व प्राग्वत्, । वैजयन्तो देवो वैजयन्तो देव इति, एवं जयन्तापराजितद्वारवक्तव्यतापि वाच्या, नवरं जयन्तद्वारस्य पश्चिमायां दिशि
a cseseesectices
दीप अनुक्रम [७,८]
a
~ 131~
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], --------
----------- मूलं [९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१]
गाथा
जयन्ता राजधानी अपराजितद्वारस्य चोत्तरस्यां दिशि अपराजिता राजधानी तिर्यगसोयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्येति | वाच्यं । सम्पति विजयादिद्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिषुराह
जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णाचे ?, गो०! अउणासीई जोषणसहस्साईबावण्णं | च जोगाई येसूणं च अद्धजोअणं दारस्स य २ अबाहाए अंतरे पण्णते, अषणासीइ सहस्सा बावणं चेव जोअणा हुँति । कर्ण
च अद्धजोमण वारंतर जंबुद्दीवस्स ॥१॥ (सूत्रं ९)
'जंबुद्दीषस्स ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य, णमिति प्राग्वत् , भदन्त ! द्वीपस्य सम्बन्धिनो बारस्य च द्वारख च किवत्|किंप्रमाणं 'अवाहाए अंतरे'त्ति बाधा-परस्परं संश्लेषतः पीडन न बाधाऽबाधा तयाऽबाधया यदन्तरं व्यवधानमि| त्यर्थः प्रज्ञप्त, इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तव्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहणं, अत्र निर्वचनं भगवानाह-गौतम! एकोनाशीतियोंजनसहस्राणि द्विपञ्चाशयोजनानि देशोनं चाईयोजनं द्वारस चहा द्वारस्य चाबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-जम्बूद्वीपपरिधिः प्राग्निर्दिष्टो योजनानि तिम्रो लक्षाः पोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ११६२२७ कोशत्रयं । अष्टाविंशं धनुःशतं १२८ त्रयोदशाङ्गुलानि १३ एकम ङ्गल १ मिति, अस्माद् द्वारचतुष्कविस्तारोऽष्टादशयोजनरूपोऽपनीयते, यत एकैकस्य द्वारस्य विस्तारो योजनानि चत्वारि ४ प्रतिद्वारं 81 द्वारशाखाद्वयविस्तरश्च क्रोशवयं २, अस्मिंश्च द्वारस्य शाखयोश्च परिमाणे चतुर्गुणे जातान्यष्टादश योजनानि १८,
दीप अनुक्रम [९-१०]
600amawaoasoot00020
अथ विजय-आदि द्वाराणां परस्पर अंतरं कथ्यन्ते
~ 132~
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
sara+s
प्रत
सूत्रांक
[8]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[९-१०]
वक्षस्कार [१],
मूलं [९] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........ आगमसूत्र [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचि
।। ६५ ।।
Jan Ebeni
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
ततस्तदपनयने शेषपरिधिसत्कस्यास्य योजनरूपस्य २१६२०९ चतुर्भागे लब्धानि योजनानि एकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि ७९०५२ कोशश्चैकः १, तथा परिधिसत्कस्य क्रोशत्रयस्य धनुःकरणे जातानि धनुषां षट् सहस्राणि ६०००, एषु च परिधिसत्काष्टाविंशत्यधिकधनुः शतस्य क्षेपे जातानि धनुषामेकषष्टिश तान्यष्टाविंशत्यधिकानि ६१२८ ततोऽस्य चतुर्भिर्भागे लब्धानि पंचदश शतानि द्वात्रिंशदधिकानि १५३२, यानि च परिधिसत्कत्रयोदश १३ अङ्गुलानि तेषामपि चतुर्भिर्भागे लब्धानि त्रीण्यङ्गुलानि ३, शेषे चैकस्मिन्नङ्गुले यवाः अष्टौ ८ एषु परिधिसत्कयवपञ्चक ५ क्षेपे जातास्त्रयोदश यवाः १३ एषां च चतुर्भिर्भागे लब्धास्त्रयो यवाः ३, शेषे चैकस्मिन् यवे यूकाः अष्टौ ८ आसु परिधिसकैकयूकाक्षेपे जाता नव ९ आसां चतुर्भिर्भागे लब्धे द्वे यूके २, शेषस्याल्पत्वान्न विवक्षा, एतच्च सर्व देशोनमेकं गव्यू| तमिति जातं पूर्वलब्ध गव्यूतेन सह देशोनमर्द्धयोजनमिति, इममेवार्थं 'द्विर्वद्धं सुबद्ध' मिति अबद्धसूत्रतो बद्धसूत्रं लाघ| वरुचिसत्त्वानुग्राहकमिति वा गाथथाऽऽह - 'अउनासी 'ति, अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । अथ चतुर्थप्रश्न एव आकारभावप्रत्यवताररूपे भरतवर्षस्वरूपं जिज्ञासुः पृच्छति
कहि णं भंते! जंबुद्दीचे दीवे भरद्दे णामं वासे पष्णते ?, गो० ! चुडहिमवंतस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं दाहिण लवणसमुदस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पञ्चत्थिमेणं पश्चत्विमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले विसमबहुले दुग्गबहुले पवयबहुले पवायबहुले उज्झरबहुले णिज्झरबहुले खड्डा बहुले दरिबहुले गईबहुले दद्दबहुले रुक्खबहुले
अथ भरतक्षेत्रस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
Fur Prate&P Cy
~ 133 ~
esesen
१वक्षस्कारे
विजयादिद्वारान्तरा०
सू. ९
॥ ६५ ॥
Amaya
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम
[११]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
गुच्छबहुले गुम्मबहुले लवाबहुले वल्लीबहुले अडवीबहुले सावयबहुले तणबहुले तकरबहुले डिम्बबहुले डमरबहुले दुब्भिक्खवहुले दुकालबहुले पासंडबहुले किवणबहुले वणीमगबहुले ईतिबहुले मारिबहुले कुबुट्टिबहुले अणावुट्टिबहुले रायबहुले रोगबहुले संकिलेसबटुले अभिक्खणं अभिक्खणं संखोहबहुले पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिष्णे उत्तरओ पलिअंकसंठाणसंठिए दाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए तिघा लवणसमुदं पुढे गंगासिंहिं महाणईहिं वेअड्डेण य पचएण छब्भागपविभत्ते जंबुद्दीवदीवणडयसयभागे पंचछडीसे जोअणसए छथ एगूणवीसभाए जोअणस्स विक्खंभेणं । भरहस्स णं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं बेअड्डे णामं पच पण्णत्ते, जे गंभरहं वासं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठई, तं० - दाहिणभरहं च उत्तरभरहं च (सूत्रं १० )
'कहिणं मंते 'ति प्रच्छकापेक्षया आसन्नत्वेन प्रथमं भरतस्यैव प्रश्नसूत्रं, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतं नाना वर्ष प्रज्ञतं ?, भगवानाह - गौतम! 'चुल्लहिमवंतेत्यादि, चुलशब्दो देश्यः क्षुलपर्यायस्तेन थुलो महाहिमवदपेक्षया लघुर्यो हिमवान् वर्षधरपर्वतः क्षेत्रसीमाकारी गिरिविशेषस्तस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि दाक्षिणात्य लवणसमुद्रस्योत्तरस्यां पौरस्त्यलवण समुद्रस्य पश्चिमायां पाश्चात्य लवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां दिशि अत्रावकाशे भरतं नाम्ना वर्ष प्रज्ञतं, किंविशिष्टं तदित्याह स्थाणवः कीलका ये छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्कावयवाः ढुंठा इति लोकप्रसिद्धाः तैर्बहुलं प्रचुरं व्याप्तमित्यर्थः अथवा स्थाणयो बहुला यत्र तत्तथा, एवं सर्वत्र पदयोजना ज्ञेया, तथा कण्टका- वदर्यादिप्रभवाः विषमं निनोचतं स्थानं दुर्ग- दुर्गमं स्थानं पर्वताः क्षुद्रगिरयः प्रपाता भृगवो यत्र मुमूर्षयो जना झम्पां ददति अथवा प्रपाता-रात्रिधाव्यः अवझरा-गिरितटादुदकस्याधःपतनानि तान्येव
Fur Fate &P Cy
~ 134~
venesecsessenessese
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
दीप
श्रीजम्बू- सदाबस्थायीनि निझराः गाः-प्रसिद्धाः दो-गुहाः नद्यो द्रहाश्च प्रतीताः वृक्षाः रूक्षा वा-सहकारादयः गुच्छा-वृन्ता-श्वक्षस्कारे न्तिचन्द्री-18
द्वापशबीप्रभृतयः गुल्मा-नवमालिकादयः लता:-पद्मलताद्याः वल्ल्या-कूष्माण्डीप्रमुखाः, अत्र नदीद्रहवृक्षादिवनस्पतीना-1 या वृत्तिः
मधुभानुभाषजनितानामेव बाहुल्य बोध्यं, नतु एकान्तसुषमादिकालभावि तथाविधशुभानुभावजनिताना, तेषां प्रायः 18मज्ञापककालेऽल्पीयस्त्वात् , अटव्यो-दूरतरजननिवासस्थाना भूमयः श्वापदा-हिंसजीवाः सेना:-चौराः तदेव कुर्ष-1 ॥६६॥ न्तीति निरुक्तितस्तस्करा:-सर्वदा चौर्यकारिणः डिम्बानि-स्वदेशोत्थविप्लवा डमराणि-परराजकृतोपद्वाः दुर्भिक्ष-भि
क्षाचराणां भिक्षादुर्लभत्वं, दुष्कालो-धान्यमहार्यतादिना दुष्टः कालः पाखण्डं-पाखण्डिजनोत्थापितमिथ्यावादः कृपणाः 81 प्रतीताः वनीपका-याचका ईति:-धान्यायुपद्रवकारिशलभमूषिकादिः मारि:-मरका कुत्सिता दृष्टिः कुवृष्टिः कर्षक-15 जनानभिलपणीया दृष्टिरित्यर्थः, अनावृष्टिः-वर्षणाभाव इति राजानः-आधिपत्यकर्तारः तदाहुल्यं च प्रजानां पीडा-18 हेतुरिति रोगाः संक्लेशाश्च व्यक्ताः, अभीक्ष्णं २-पुनः पुनर्दण्डपारुष्यादिना संक्षोभा:-चित्तानवस्थितता प्रजानामिति शेषः, इदं च सर्व विशेषणजातं भरतस्य प्रज्ञापकापेक्षया मध्यमकालीनानुभावमेव व्यावर्णितं, तेनोत्तरसूत्रे एकान्तसुष-131 मादावस्य बहुसमरमणीयत्वातिस्निग्धत्वादिकमेकान्तदुष्पमादौ निर्वनस्पतिकस्वाराजत्वादिकं च वक्ष्यमाणं न विरुध्यते इति । प्रागेव प्राचीनं, स्वार्थे ईनप्रत्ययः, दिग्विवक्षायां प्राचीनं पूर्वा इत्यर्थः, एवं प्रतीचीनोदीचीने अपि वाच्ये, तेन | पूर्वापरयोर्दिशोरायतं उदीचीदक्षिणयोर्दिशोविस्तीर्ण, अथवा प्राचीनप्रतीचीनावयवयोरायतमेवमुत्तरत्रापि, अथ तदेव
अनुक्रम
[११]
Recesinese
~ 135~
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
13. संस्थानतो विशिनष्टि-उत्तरतः-उत्तरस्यां दिशि पर्यङ्कस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, दक्षिणतो-दक्षिणस्यां दिशि || | आरोपितज्यस्य धनुषः-कोदण्डस्य पृष्ठ-पाश्चात्यभागस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, अत एवास्य धनुःपृष्ठशरजीवाबाहानां सम्भवः, एषां च स्वरूप स्वस्वावसरे निरूपयिष्यति, त्रिधा-पूर्वकोटिधनु:पृष्ठापरकोटिभिलवणसमुद्रक्रमेण पूर्वदक्षिणापरलवणसमुद्रावयर्व स्पृष्टं-धातूनामनेकार्थत्वात् प्राप्त, ग्रामप्राप्त इत्यादिवत् कर्तरि प्रत्ययः, अयमर्थः-पूर्वकोठ्या पूर्वलवणसमुद्रं धनुःपृष्ठेन दक्षिणलवणसमुद्रं अपरकोठ्या पश्चिमलवणसमुद्रं संस्पृश्य स्थितमित्ति, अथेदमेव पट्खण्डविभजनद्वारा विशिनष्टि-गङ्गासिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैताढ्येन च पर्वतेन पटसंख्या भागाः पड्भागा-1 | स्तर्विभक्तं, अयमर्थ:-अनन्तरोदितैत्रिभिर्दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकं खण्डत्रयकरणेन भरतस्य षट् खण्डानि कृतानीति । अथ यदि जम्बूद्वीपैकदेशभूतं भरतं तर्हि विष्कम्भतः तस्य कतितमे भागे तदित्याह-'जंबुद्दीवे'त्यादि, जम्बूद्वीपद्वीपस्य-जम्बूदीपविष्कम्भस्य नवत्यधिकशततमो यो भागस्तस्मिन् इति, अथ नवत्यधिकशततमभागे कियन्ति योजनानीत्याह-'पश्च पड्विंशत्यधिकानि योजनशतानि षट् च योजनस्यैकोनविंशतिभागान् , कोऽर्थः?-यादशैरेकोनविंशतिभागैः समुदि-18 योजनं भवति तादृशान् षट् भागान् इति, विष्कम्भेन-विस्तारेण शरापरपर्यायेणेति, अबाकस्थापना यथा-५२६
अयं भावः-जम्बूद्वीपविस्तारस्य लक्षयोजनरूपस्य नवत्यधिकशतेन भागे लब्धं ५२६ योजनानि, एतावानेव च । भरतविस्तारः, ननु भाजकराशिर्नवत्यधिकशतरूपः षड्भागास्तु योजनकोनविंशतिकलारूपा इति विसदृशमिव प्रति
Secesesecenes
दीप
ReasEstee.cccccreases
अनुक्रम
[११]
भीजम्यू.१२
~ 136~
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्य- भाति, उच्यते, गणितनिपुणानां सर्व सुज्ञानमेव, तथाहि-जम्बूद्वीपच्यासस्य योजनलक्ष १००००. मितस्य नवत्य- विक्षस्कारे द्वीपशा-18धिकशतभक्तस्यावशिष्टः षष्टिरूपो राशि गदानासमर्थ इति भाज्यभाजकराश्योर्दशभिरपवते जाता भाज्यराशी षट् । भरतखरूप न्तिचन्द्री- भाजकराशी १९ इति सर्व सुस्थं, ननु नवत्यधिकशतरूपभाजकाङ्कोत्पत्ती किं बीजमिति !, उच्यते, एको भागो भरतस्य 18 स.१०॥
द्वौ भागी हिमवतः, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् , चत्वारो हैमवतक्षेत्रस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात् , अष्टौ महाहिमवतः,8 ॥६७॥ पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् , षोडश हरिवर्षस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात् , द्वात्रिंशनिषधस्य, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् , 'सर्वे 181
| मिलिताः ६३, एते मेरोदक्षिणतस्तथोत्तरतोऽपि ५३ विदेहवर्ष तु ६४ भागाः, सर्वाग्रेण एतै गर्दक्षिणोत्तरतो जम्बदीपियोजनलक्षं पूरितं भवति, तत एतावान् भाजकाङ्कः १९० नवत्यधिकं शतं भागानामिति । अथ यदुक्तं-"गंगासिंधूहि | महाणई हि वेयहेण य पवएणं छब्भागपविभत्ते" इत्यत्र वैताव्यस्य स्वरूपप्ररूपणाय सूत्रमाह-'भरहस्स 'मित्यादि, भरतस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागे वैजयन्तद्वारात् त्रिकलाधिकसाष्टत्रिंशद्विशतयोजनातिक्रमे पश्चाशयोजनक्षेत्रखण्डे, अत्र वैताग्यो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, यो णमिति प्राग्वत् भरतं वर्ष द्विधा विभजन् २, समांशतया चक्रवर्तिकाले च | समस्वामिकतया तथाऽन्यैरपि प्रकारै योरपि तुल्यताद्योतनार्थमि (थं विभजनमि) ति । तत्रादायासन्नत्येन दक्षिणार्धभरतं कास्तीति प्रश्नयति
कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीचे दाहिणद्धे भरहे णामं वासे पण्णते?, गो०1 वेयवस्स पवयस्स दाहिणेणं दाहिणलवणसमुदस्स
అలాంటిది
209929899000
॥
७
॥
अथ दक्षिणार्धभरतक्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
~ 137~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
उत्तरेण पुरथिमलवणसमुदस्स पचत्यिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्य णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणभरहे णाम वासे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे अद्धचंदसंठाणसंठिए तिहा लवणसमुदं पुढे, गंगासिंधूहिं महाणईहिं विभागपवि. भचे दोणि अद्वतीसे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुहा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिनिलं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चस्थिमिलाए कोटीए पञ्चथिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा णव जोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं तीसे धणुपुढे दाहिणणं णव जोयणसहस्साई सत्तछाबडे जोयणसए इक्कं च पगूणवीसहभागे जोयणस्स किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवणं पण्णत्ते, दाहिणभरहस्स ण भंते ! बासस्स कॅरिसए आयारभावपढोयारे पण्णत्ते!, गो०! बहुसमरमणिज्ने भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइवा जाव णाणाविह पचवण्णेहिं मणीहि वणेहिं उवसोभिए, तंजहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव, वाहिणभरहे णं भंते! बासे मणुयाणं केरिसए यारभावपडोयारे पण्णत्ते !, गोयमा। ते णं मणुआ बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुलचत्तपज्जवा बहुभाउपज्जवा बहूई वासाई आउ पालेंति, पालिसा अप्पेगइया णिरयगामी अपेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुषगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइआ सिशंति बुझंति मुञ्चति परिणिवायंति सवदुक्खाणमंतं करेंति (सूत्र ११)
'कहि णं भंते !' इत्यादि, इदं च सूत्रं पूर्वसूत्रेण समगमतया विवृतमार्य, नवरं अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितत्वं तु दक्षिण18| भरतार्द्धस्य जम्बूद्वीपपट्टादावालेखदर्शनाद् व्यक्तमेव, तथा त्रिसंख्या भागास्त्रिभागास्तैः प्रविभक्तं, तत्र पौरस्त्यो भागो
eeseserseatsecseerecedese
thesesesepersecticesercedesesese
दीप
अनुक्रम [१२]
JinEleiniti-IN
~ 138~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[१२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [११]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृतिः
॥ ६८ ॥
गङ्गया पूर्वसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, पाश्चात्यो भागस्तु सिध्वा पश्चिमसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, मध्यमभागस्तु गङ्गासिन्धुभ्यां कृत इति द्वे अष्टत्रिंशदधिके योजनशते त्रीकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन, किमुक्तं भवति ! - पट्कलाधिकषविंशपञ्चशतयोजन ५२६ भरतविस्तारा द्वैताद्व्य विस्तारे ५० योजनमिते शोधितेऽवशिष्टं चत्वारि योजनशतानि षट्सप्तत्यधिकानि षट् च कलाः ४७६, एतदर्जे द्वे योजनानां शते अष्टत्रिंशदधिके तिस्रश्चापराः कलाः २३८ इत्येवंरूपं यथोक्तं मानं भवति, एतेनास्य शरप्ररूपणा कृता, शरविष्कम्भ योरभेदादिति । अथ जीवासूत्रमाह- 'तस्स जीवेत्यादि, तस्य दक्षिणार्द्धभरतस्य जीवेव जीवा-ऋज्वी सर्वान्तिमप्रदेशपङ्क्तिः, उत्तरेण- उत्तरस्यां मेरुदिशीत्यर्थः, प्राचीने पूर्वस्यां प्रतीचीने-अपरस्यां चाऽऽयता - आयामवती द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा-छुप्तवती इदमेषार्थं द्योतयति' पुरत्थिमिहाए' इति पूर्वया कोट्या-अग्रभागेन पौरस्त्यं लवणसमुद्रावयवं स्पृष्टा पाश्चात्यया कोव्या पाश्चात्यं लवणसमुद्रावयवं स्पृष्टा, नव योजनसहस्राणि अष्टचत्वारिंशानि - अष्टचत्वारिंशदधिकानि सप्त योजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभा| गानू योजनस्यायामेन ९७४८ २ यच्च समवायाङ्गसूत्रे - 'दाहिणहभरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुई पुट्ठा णव जोअणसहस्साई आयामेण मित्युक्तं तत्सूचामात्रत्वात् सूत्रस्य शेषविवक्षा न कृता, वृत्तिकारण तु जयमवशिष्टराशिरूपो विशेषो गृहीत इति, अत्र सूत्रेऽनुकापि जीवानयने करणभावना दर्श्यते, तथाहि--जम्बूदीपव्यासाद्विवक्षितक्षेत्रेषुः शोध्यते, ततो यज्जातं तत्तेनैवेषुणा गुण्यते, ततः पुनञ्चतुर्भिर्गुण्यते, इत्थं ससंस्कारो
Furwale rely
~ 139~
१वक्षस्कारे दक्षिणंभर
तार्थ सू. ११
॥ ६८ ॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[१२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [११]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
राशिर्विवक्षितक्षेत्रस्य जीवावर्ग इत्युच्यते, अस्माच्च मूले गृह्यमाणे यलभ्यते तजीवाकलामानं, तस्य चैकोनविंशत्या भागे योजनराशिः शेषश्च कलाराशिः, तत्र जीवादिपरिज्ञानं चेषुपरिमाणपरिज्ञानाविनाभावि तच्च न परिपूर्णयोजनसंख्याङ्कं किन्तु कलाभिः कृत्वा सातिरेकमिति विवक्षितक्षेत्रादेरिपुः सवर्णनाथं कलीक्रियते, स च कलीकृतादेव जम्बूद्वीपव्यासात् सुखेन शोधनीय इति मण्डलक्षेत्रव्यासोऽपि १ शून्य ५ रूपः कलीकरणायैकोनविंशत्या गुण्यते, जातः १९ शून्यः ५ ततो दक्षिणभरतार्थेषोः साष्टत्रिंशद् द्विशतयोजनमितस्य कठीकृतस्य प्रक्षिप्तोपरितनकलात्रिकस्य | ४५२५ रूपस्य शोधने जातः १८९५४७५ ततश्च दक्षिणार्द्धपुणा ४५२५ रूपेण गुण्यते जातः ८५७७०२४३७५, | अयं चतुर्गुणः ३४३०८०९७५००, एष दक्षिण भरतार्द्धस्य जीवावर्गः, एतस्य वर्गमूलानयनेन लब्धाः कलाः १८५२२४, शेर्पा कलांशाः १६७३२४, छेदराशिरः १७०४४८, लब्धकलानां १९ भागे योजन ९७४७ कलाः १२, इवं दक्षिणभरतार्द्धजीवा, एवं वैताढ्यादिजीवास्वपि भाव्यं यावद्दाक्षिणात्य विदेहार्द्धजीवा, एवमुत्तरैरावतार्द्धजीवा यावदुक्तरार्द्धविदेहजीवापीति । अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य धनुःपृष्ठं निरूपयति- 'तीसे धणुपट्टे' इत्यादि, तत्याः - अनन्तरोकाया | जीवाया दक्षिणतो-दक्षिणस्यां दिशि लवणदिशीत्यर्थः धनुःपृष्ठं अधिकारात् दक्षिणभरतार्द्धस्येति यद्वा प्राकृतत्वालिङ्गव्यत्यये तीसे इति तस्य दक्षिणार्द्ध भरतस्येति व्याख्येयं नव योजनसहस्राणि षट्षष्ट्यधिकानि सप्त च योजनशतानि एकं चैकोनविंशतिभागं योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञतं, अत्र करणभावना यथा
Fur Fate &P Cy
~ 140 ~
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
दीप
श्रीजम्ब-18] विवक्षितेपी विवक्षितेषुगुणे पुनः षड्गुणे विवक्षितजीवावर्गयुते च यो राशिः स धनुःपृष्ठवर्ग इति व्यपदिश्यते, तस्माच ]8)
१वक्षस्कारे द्वीपशा-18 वर्गमूले लब्धाना कलानां १९ भागे लब्धं योजनानि, अवशिष्टं कलाः, तथाहि-दक्षिणभरतार्द्धषुकलाः ४५२५, अस्य । | दक्षिणमरन्तिचन्द्री- वर्गः २०४७५६२५, अयं पड्गुणः १२२८५३७५०, अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य जीवावर्गः ३४३०८०९७५००, अनयो-18 तास-११
RI युतिः ३४४३०९५१२५०, धनुःपृष्ठवर्गोऽयं, अस्य वर्गमूले लब्धं कलाः १८५५५५, शेष कलांशाः २९३२२५, छेदक॥६९॥ राशिरवस्तात् ३७१२१०, कलानां १९ भागे योजन ९७६६ कला १, ये च वर्गमूलावशिष्टाः कलांशास्तद्विवक्षया
च सूबकृता कलाया विशेषाधिकत्वमभ्यधायि, आह-एवं जीवाकरणेऽपि वर्गमूलावशिष्टकलांशानां सद्भावात् तत्रा-18 Nप्युक्तकलानां साधिकत्वप्रतिपादन न्यायप्राप्तं कथं नोक्तमिति !, उच्यते, सूत्रगतेचित्र्यादविवक्षितत्वात् , 'विवक्षा
प्रधानानि हि सूत्राणी'ति, एवं वैताब्यादिधनुःपृष्ठेष्यपि भाव्यं, यावद्दाक्षिणात्यविदेहार्द्धधनुःपृष्ट, पवमुत्तरत उत्तरेराव-IN M तार्बधनुःपृष्ठं यावदुत्तरार्द्धविदेहधनुःपृष्ठमपीति, अत्र च दक्षिणभरता. बाहाया असम्भवः । अथ दक्षिणभरता - 18 स्वरूप पृच्छनिदमाह-'दाहिणद्धे'त्यादि, दक्षिणार्बभरतस्य भगवन्! कीरशः आकारस्य-स्वरूपस्य भाषा--पर्यायारास्तेषां प्रत्यवतार:-प्रादुर्भावः प्रज्ञप्तः, कीदृशः प्रस्तुतक्षेत्रस्य स्वरूपविशेष इति भावः, भगवानाह-गौतम ! भरतस्या बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वे'त्यादिको बहुसमत्ववर्णकः सर्वोऽपि प्रायः,181 यावन्नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिस्तृणैश्वोपशोभितः, तद्यथेत्युपदर्शने, किविशिष्टर्मणिभिस्तृणैश्च -कृत्रिमः-क्रमेण शिस्पि-181
अनुक्रम [१२]
~141~
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
|कर्षकादिप्रयोगनिष्पन्नैः अकृत्रिमैः क्रमाद्रलखानिसंभूतानुप्तसम्भूतैरुपशोभितो दक्षिणार्द्धभरतस्य भूमिभागः, अने-15 नास्थ कर्मभूमित्वमभाणि, अन्यथा हैमवताधकर्मभूमिष्वपि इदं विशेषणमकथयिष्यदिति, चकारौ समुच्चयायौं पवकाराववधारणार्थों, अथवा चैवेत्यखण्डमव्ययं समुच्चयार्थ, अपिचैत्यादिवत् , ननु अनेन सूत्रेण वक्ष्यमाणेनोत्तरभरतार्द्धवर्णकसूत्रेण च सह 'खाणुबहुले विसमबहुले कंटगबहुले' इत्यादिसामान्यभरतवर्णकसूत्र विरुध्यति, न चैते सूत्रे अरकविशेषापेक्षे सामान्यभरतसूत्रं तु प्रज्ञापककालापेक्षमिति न विरोध इति वाच्यं, मणीनां तृणानां च कृत्रिमत्वाकृत्रिमत्वभणनेनानयोरपि प्रज्ञापककालीनत्वस्यैवौचित्यात्, कृत्रिममणितृणानां तत्रैव सम्भवात्, प्रज्ञापककालश्चाव
सर्पिण्यां तृतीयारकमान्तादारभ्य वर्षशतोनदुष्पमारकं यावदिति चेत् , उच्यते, अत्र 'खाणुबहुले विसमबहुले'इत्यादि॥ सूत्रस्य बाहुल्यापेक्षयोकत्वेन कचिद्देशविशेषे पुरुषविशेषस्य पुण्यफलभोगार्थमुपसम्पद्यमानं भूमेबहुसमरमणीयत्वादिकं ।
न विरुध्यति, भोजकवैचित्र्ये भोग्यवैचित्र्यस्य नियतत्वात् , अनेनास्यैकान्तशुभैकान्ताशुभमिश्रलक्षणकालत्रयाधारकत्वमसूचि, एकान्तशुभे हि काले सर्वे क्षेत्रभावाः शुभा एव एकान्ताशुभे हि सर्वे अशुभा एव मित्रे तु क्वचिच्छुभाः कचिदशुभाः, अत एव पश्चमारकाद् यावद्भूमिभागवर्णकं बहुसमरमणीयत्वादिकमेव सूत्रकारेणाभ्यधायि षष्ठेऽरके तु एकान्ताशुभे न तथेति सर्व सुस्यं । अथ तत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छति-'दाहिणभरहे'त्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निच-1 नसूत्रे भगवानाह-गौतम ! येषां स्वरूपं भवता जिज्ञासितं ते मनुजा बहूनि बज्रऋषभनाराचादीनि संहननानि-वपुढे-10
दीप
अनुक्रम [१२]
~ 142~
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----............---
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११]
दीप
श्रीजम- बीकारकारणास्थिनिचयात्मकानि येषां ते तथा, तथा बहूनि-समचतुरस्रादीनि संस्थानानि-विशिष्टावयवरचनात्मकशरी-श्वक्षस्कारे द्वीपशा
राकृतयो येषां ते तथा, बहवो-नानाविधा उच्चत्वस्य-शरीरोच्छ्यस्य पर्यवा:-पञ्चधनुःशतसप्तहस्तमानादिका विशेषा बेताबखन्तिचन्द्री
रूपंसू.१२ येषां ते तथा बहवः आयुष:-पूर्वकोटिवर्षशतादिकाः पर्यवा-विशेषा येषां ते तथा, बहूनि वर्षाणि आयुः पालयन्ति,
IN पालयित्वा अपिः संभावनायां एके-केचन निरयगतिगामिनः-नरकगतिगन्तारः एवमप्येकके तिर्यग्गतिगामिनः अप्ये॥७॥ कके मनुजगतिगामिनः अप्येकके देवगतिगामिनः अप्येकके सियन्ति-सकलकर्मक्षयकरणेन निष्ठिता भवन्ति बुद्ध
न्ते-केवलालोकेन वस्तुतत्त्वं जानन्ति मुच्यन्ते भवोपमाहिकाशेभ्यः परिनिर्वान्ति-कर्मकृततापविरहाच्छीतीभवन्ति, | किमुकं भवति? -सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, इदं च सर्व स्वरूपकथनं अरकविशेषापेक्षया नानाजीवनपेक्ष्य मन्तव्यं, | अन्यथा सुषमासुषमादावनुपपन्नं स्यात् । अधास्य सीमाकारी बेताब्यगिरिः वास्तीति पृच्छति
कहिणं भंते! जंबुद्दीवे २ भरे वासे वेबद्धे णामं पम्बए पण्णते?, गो! उत्तरदभरहवासस्स दाहिणणं दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्यिमलवणसमुदस्स पुरथिनेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ भरहे वासे वेगवे णामं पाए 'पण्णसे, पाईणपसीणायए उदीणवाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोटीए पुरथिमिले शवणसरं पुढे पश्चत्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चत्थिमिडं लवणसमुदं पुढे, पणवीसं जोयणाई उर्दू सञ्चत्तेणं छस्सकोसाई जोगणाई उहणं पण्णास जोजणाई विक्वंभेणं ५०, तस्स बाहा पुरथिमपचस्थिमेणं चचारि अवासीए जोयणसए सोलम य पपीतामा जोलारस अद्धभागं ।
अनुक्रम [१२]
अथ दक्षिणार्धभरतक्षेत्रस्य सीमाकारी वैतादयगिरि स्वरुपम् वर्ण्यते
~ 143~
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----------------
----- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
DeRRCACRO
दीप
चं आयामेणं पण्णत्ता, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुठ्ठा पुरथिमिलाए कोडीए पुरथिमिलं लवणसमुई पुष्टा पञ्चत्थिमिलाए कोडीए पञ्चत्थिमिवं लवणसमुदं पुट्ठा दस जोयणसहस्साई सत्त व वीसे जोअणसए दुवालस व एगूणवीसइभागे जोअणस्स आवामेणं तीसे धणुपट्टे दाहिणेणं दस जोधणसहस्साई सत्त य तेआले जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसहभागे जोषणस्स परिक्खेषेणं रुअगसंठाणसंठिए सबरययामए अच्छे संण्हे लढे घढे मढे जीरए णिम्मले णिपके णिक्कंकडच्छाए सप्पमे समिरीए पासाईए दरसणि अभिरूवे पडिरूवे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि वोहि अवणसंडेहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ते । ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उर्दू उत्तेणं पंचधणुसयाई विक्संभेणं पवयसमियामो आयामेणं वण्णओ भाणियो । ते णं वणसंडा देसूणाई दो जोषणाई विक्खंभेणं पउमवरवेझ्यासमगा आयामेणं किण्हा किण्होभासा जाव वण्णओ। वेयद्धस्स पञ्चयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दो गुहाओ पण्णत्ताओ, उत्तरदाहिणाययाओ पाईणपढीणविस्थिष्णाओ पण्णास जोमणाई आयामेण दुवालस जोभणाई विक्रमेणं अट्ठ जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं वइरामयकवाडोहाहिआमओ, जमलगुअलकवानपणदुष्पवेसाओ णिश्चंधयारतिमिस्साओ ववगवगहचंदसूरणक्खत्तजोइसपहाओ जाव पडिरुवाओ तंजहा-तमिसगुहा चेव खंडप्पवायगुहा चेव, सत्थ णं दो देवा महिनीया महायुईया महाबला महायसा महासुक्खा महाणुभागा पलिओवमटिईया परिपसंति, तंजहा--- कर्यमालए चेव णमालए चेव । तेसि गं वणसंडाणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअद्धस्स पायस्स उभो पासिं दस दस जोअणाई उद्धं उप्पइत्ता एस्थ ण दुवे विजाहरसेटीओ पण्णतामो पाईणपढीणाययाओ उदीणदाहिणविरिणामओ दस दस जोअणाई विक्खंमेणं पचयसमियाओ आयामेणं उभो पासिं दोहि पउमवरवेइयाहिं दोहि वणसंटेहि संपरिक्खित्ताओ, ताओ गं
अनुक्रम [१३]
aeeeees
seseaesese
~144 ~
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू
वक्षस्कारे 18 ताब्यख
प्रत सूत्रांक [१२]
द्वीपथान्तिचन्द्रीया वृचिः
रूप सू.१२
॥७१॥
estoरव्य taeseseseseacseser
दीप
पउमवरवेझ्याओ अद्धजोअर्ण उद्धं उच्चत्ते पञ्च घणुसयाई विक्खंभेणं पचयसमियामो आयामेणं वष्णो णेयधो, वणसंडावि पतमवरवेश्यासमगा आयामेणं वण्णओ। विजाहरसेढीण भंते! भूमीणं केरिसए आवारभावपडोयारे पण्णसे, गोअमा! बदुसमरमणिले भूमिभागे पण्णते, से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहि तणेहिं उक्सोमिए, तंजहाकित्तिमेहि चेच अकित्तिमेहिं चेव, वस्य गं वाहिणिल्लाए विजाहरसेडीए गगणवल्लभपामोक्खा पण्णासं विजाहरणगरावासा पण्णत्ता, उत्तरिल्लाए विजाइरसेडीए रहनेउरचकवालपामोक्ता सहि विजाहरणगरावासा पण्णचा, एवामेव सपुषावरेणं दाहिणिलाए उत्तरिलाए विजाहरसेढीए एगं दसुत्तरं विज्जाहरणगरावाससयं भवतीतिमक्खार्य, ते विज्बाहरणगरा रिद्धस्थिमियसमिद्धा पमुझ्यजणजाणवया जाव पडिरूषा, तेसु णं विजाहरणगरेसु विज्जाहररावाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवष्णो भाणिभयो । विजाहरसेढीणं भंते! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोवारे पण्णत्ते! गोयमा। तेणं मणुआ बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुउच्चत्तपन्नवा बहुभाउपजया जाव सबदुक्खाणमंतं करेंति, तासि णं विजाहरसेढीणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ
अद्धस्स पचयस्स उभो पार्सि एस एस जोअणाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं दुवे आमिओगसेडीओ पण्णत्ताओ पाईणपडीणाययाओ उदीणदाहिणविच्छिण्णाओ दस दस जोषणाई विक्खंभेणं पचयसमियाओ आयामेणं उभो पासिं दोहिं पठमवरवेझ्यादि दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्सिचाओ बष्णो दोण्हषि पवयसमियाओ आयामेणं, अभिओगसेतीर्ण भंते। केरिसए भायारभावपढोयारे पण्णत्ते, गोजमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते जाव तोहिं उक्सोमिए षण्णाई जाव तणाणं सहोत्ति, तासि णं अभिओगसेठीणं तस्थ तस्थ देसे तहि तहिं जाव वाणमंतरा देवा य देवीओ अ आसयति सयंति जाव फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा
अनुक्रम [१३]
॥७१॥
~145~
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम
[१३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Eben
विरंति, तासु णं आभियोगसेढी सकस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमजम वरुणवेसमणकाइआणं आभिओगाणं देवाणं बहवे भवणा पण्णत्ता, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा वण्णओ जाब अच्छरघणसंघविकिण्णा जाव पढिरूथा, तत्य णं सक्करस देविंदस्स देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइआ बहवे आभिओगा देवा महिद्धीआ महज्जुईआ जाव महासुक्खा पलिभोवमडिया परिवसंति । तासि णं आभिओगसेटीणं बहुसमरमंणिखाओ भूमिभागाओ वेयङ्करस पवयस्स उभओ पासि पंच २ जोयणाई उद्धं उप्पइत्ता, एथ णं वेयद्धस्स पञ्चयस्स सिहरतले पण्णत्ते पाईणपडियायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दस जोअणाई विक्संभेणं पवयसमगे आयामेणं, से णं इकाए पउमवरवेट्याए इकेणं वणसंडेणं सङ्घओ समता संपरिक्खित्ते, पमाणं वण्णगो दोण्डंपि, वेयस्स णं भंते! पवयस्स सितलस्स फेरिसए आगारभावपटोआरे पण्णत्ते, गोअमा बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णाम ए आर्टिगपुक्खरेह वा जाव णाणाविपंचवण्णेहिं मणीहिं उबसोमिए जाव बाबीओ पुक्खरिणीओ जाब वाणमंतरा देवा व देवीओ अ आसवंति जाव भुंजमाणा विहरंति, जंबुद्दीवे णं मंते! दीवे भारहे वासे वेअङ्कपचए कइ कूडा पं० १, गो० णव कूडा पं० सं०सिद्धाययणकडे १ दाहिणड्डूभरहकूडे २ खंडप्पवायगुहाकूडे ३ माणिभद्दकूडे ४ वेअडकूडे ५ पुष्णभद्दकूडे ६ तिमिसगुहाकूडे ७ उत्तरभरहकूडे ८ बेसमणकूडे ९ ( सूत्रं १२ )
'कहि णं भंते!' इत्यादि, इदं प्रायः पूर्वसूत्रेण समगमकत्वात् कण्ठ्यं, नवरं उत्तरार्द्ध भरता दक्षिणस्यामित्यादि दिक्स्वरूपं गुरुजनदर्शितजम्बूद्वीपपट्टादेः ज्ञेयं, तथा पञ्चविंशतियोजनान्यूर्ध्वोच्चत्वेन पट् सक्रोशानि योजनान्युद्वे
Fucraleey
~146~
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----------------
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२]
दीप
श्रीजम्यू- धेन-भूमिप्रवेशेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रवर्तिगिरीणां निजनिजोत्सेधचतुर्थांशेन भूम्यवगाहस्योकत्वात् , योजनपञ्चविंशतेश्व-
1 वक्षस्कारे द्वीपशा
तुर्थाशे एतावत एव लाभात् , तथा पश्चाशद्योजनानि विष्कम्भेनेति, अन प्रस्तावादस्य शरः प्रदश्यते, स चाष्टाशी-IN वैतायखन्तिचन्द्री। त्यधिके द्वे शते योजनानां कलात्रयं च २८८३, अस्य च करणं-दक्षिणभरतार्द्धशरे २३०३३ इत्येवरूपे वैताठ्य
रूपंसू.१२ या वृत्तिः
1 पृथुत्वे पञ्चाशद् ५० योजनरूपे प्रक्षिप्ते यथोक्तं मानं भवति, आह-दक्षिणभरतार्द्धवदस्यापि विष्कम्भ एव शरोऽस्तु, ॥७२॥ 18| मैवं, खण्डमण्डलक्षेत्रे आरोपितज्यधनुराकृतिः प्रादुर्भवति, तत्र चायामपरिज्ञानाय जीवा परिक्षेपप्रकर्षपरिज्ञानाय
धनुःपृष्ठं व्यासप्रकर्षपरिज्ञानाय शरः, स च धनुःपृष्ठमध्यमत एवास्य भवति, प्रस्तुतगिरेश्च केवलस्य धनुराकृतेरभा
वेन धनुःपृष्ठ स्याप्यभावात् शरोऽपि न सम्भवति, तेन दक्षिणधनु-पृष्ठेन सहैवास्य धनुःपृष्ठवत्त्वमिति प्राच्यशरमि-19] Mश्रित एवास्य विष्कम्भः शरो भवति, अन्यथा शरव्यतिरिक्तस्थाने न्यूनाधिकत्वेन प्रकृष्टव्यासप्राप्तेरेवानुपपत्तेरित्यलं
प्रसङ्कन, इदमेव शरकरणं दक्षिणविदेहार्द्ध यावद् बोध्यम् , एवमुत्तरतोऽपि ऐरावतवैताढ्यतः प्रारभ्योत्तरविदेहाई || यावदिति । अथास्य वाहे आह-तस्स बाह'त्ति तस्य-वैताब्यस्य बाहा-दक्षिणोत्तरायता वक्रा आकाशप्रदेशपंक्तिः 'पुरथिमपचरिथमेणं'ति समाहारात् पूर्वपश्चिमयोरेकैका अष्टाशीत्यधिकानि चत्वारि योजनशतानि पोडश कोनविंश-|| तिभागान् योजनस्य एकस्यैकोनविंशतिभागस्य चा-अर्धकला. योजनस्याष्टत्रिंशत्तम भागमित्यर्थः आयामेन-दैर्येण || प्रता, ऋजुबाहायास्तु पर्वतमध्यवर्तिन्याः पूर्वापरायताया मानं क्षेत्रविचारादिभ्योऽवसेय, अत्र करणं-वथा गुरुध
अनुक्रम [१३]
~147~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
----- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
emade
प्रत सूत्रांक [१२]
दीप
नु पृष्ठालघुधनुःपृष्ठं विशोध्य शेषस्यार्धे कृते बाहा, यथा गुरुधनु:पृष्ठं वैताव्यसत्कं कलारूपं २०४१३२, अस्माल्लघुधनुःपृष्ठ कलारूपं १८५५५५ शोध्यते जातं १८५७७, अर्द्धं कृते कलाः ९२८८, तासामेकोनविंशत्या भागे योजनानि ४८८ कलाः १६ कलार्द्ध चेति, एवं यावदक्षिणविदेहार्बबाहा, एवमुत्तरत ऐरावतवैताब्यवाहा यावदुत्तरविदेहार्द्ध-18 | चाहा तावदिदं करणं भावनीयं, अथास्य जीवामाह-'तस्स जीवे'त्यादि, तस्य-वैताचस्प जीवा 'उत्तरेणे'त्यादि प्राग्वत्, नवरं दश योजनसहसाणि सप्त च विंशानि-विंशत्यधिकानि योजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्थायामेनेति, अत्र करणभावना यथा-पूर्वोक्तकरणक्रमेण जम्बूद्वीपव्यासः कलारूप: १९ शून्यः ५, अस्माद्वैताब्यशरकलानां ५४७५ शोधने जातं १८९४५२५, अस्मिन् वैताब्यशर५४७५गुणे जातं १०३७२५२४३७५, तस्मिन् पुनश्चतुर्गुणे जातं ४१४९००९७५००, एष पैतान्यजीवावर्गः, अस्य मूले जातं छेदराशिः४०७३८२, लब्धं कलाः २०३६९१, शेष कलांशाः ७४०१९, लन्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धानि योजनानि १०७२० कलाः, शेषकलांशानां अर्धाभ्यधिकत्वात् , अर्धाभ्यधिके रूपं देयमिति एककलाक्षेपे जाताः कलाः द्वादशेति अधास्य धनु:पृष्ठमाह-'तीसे धणुपुढे दाहिणेण'मिति, गतार्थमेतत् , नवरं दश योजनसहस्राणि सप्त च त्रिचत्वारिंशानि-त्रिचत्वा-18 रिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चदश चैकोनविंशतिभागान योजनस्येति, अत्र करणं यथा वैताद्व्येषुः कलारूप:५४७५, अस्य वर्गः २९९७५६२५, अयं षड्गुणः १७१८५३७५०, वैताब्यजीवावर्गश्च ४१४९००९७५०० उभयोमर्मीलने
अनुक्रम
[१३]
REsakce
श्रीकम्यू.
~148~
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
न्तिचन्द्री
दीप
श्रीजम्यू-18|जातं ४१६६९९५१२५० एष वैताव्यधनुःपृष्ठवर्गः, अस्य मूले छेदराशिः ४०८२५४ लब्धकलाः २०४१५२ शेषक- वक्षस्कारे द्वीपशा- लांशाः ७७८२६ लन्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धं यथोक्तं मानं १०७४३१ अथ किंविशिष्टोऽसौ वैताब्य | वैतात्यक
PEES इत्याह-'रुअगे'त्यादि, रुचक-ग्रीवाभरणभेदः तत्संस्थानसंस्थितः सर्वात्मना रजतमयः 'अच्छेत्यादिपदकदम्बकं प्राग्वत्, पणन स.१२ या वृतिः
उभयोः पार्चयोर्दक्षिणतः उत्तरतश्च द्वाभ्यां पावरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्तः॥8॥ ॥७३॥ अत्र यत्पद्मवरवेदिकाद्वयं तत्पूर्वापरतो जगत्या रुद्धत्वान्निरवकाशत्वेनैकीभवनासम्भवात् , अन्यथा 'सबओ समंता
संपरिक्खित्ते'त्ति वचनेनैकैव स्यादिति, 'ताओ णमिति, सर्व गतार्थ, नवरं पर्वतसमिका आयामेन, वैताब्य-18|| समाना आयामेनेत्यर्थः, अथैतद्गतगुहाद्वयमरूपणायाह-'वेयद्धस्स ण'मित्यादि, वैताव्यस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपञ्च-18 छिमेणं'ति, अत्र सूत्रे पूर्वस्या दिशः पूज्यत्वात् आर्षत्वाद्वा पुरच्छिमेतिशब्दस्य प्राग्निपातेऽपि पश्चिमायां पूर्वस्यामिति व्याख्येयं, अत्र ग्रन्थे ग्रन्थान्तरे च पश्चिमायां तमिन्नगुहायाः पूर्वस्यां च खण्डप्रपातगुहायाः अभिधानात् ,
द्वे गुहे प्रज्ञप्ते, प्राकृतशैल्या च बहुवचनं, उत्तरदक्षिणयोरायते, एतावता य एवं वैताव्यस्य विष्कम्भः स एवानयोशरायाम इति भावः, प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णे इत्याद्यर्थतो व्यक्त, अत्र च उमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे गुहाया विजयद्वारप्रमाणद्वारेतिविशेषणदर्शनात् चतुर्योजनविस्तृतद्वारा इत्यपि विशेषणं ज्ञेयं, वज्रमयकपाटाभ्यामवघाटिते, आच्छादिते इत्यर्थः, एते च द्वे अपि चक्रवर्तिकालवर्ज दक्षिणपार्थे उत्तरपार्थे च प्रत्येक सदा
अनुक्रम [१३]
~ 149~
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
सम्मीलितवज्रमयकपाटयुगले स्याता, अत एव यमलानि-समस्थितानि युगलानि-द्वयरूपाणि धनानि-निश्छिद्राणि कपाटानि तेः दुष्प्रवेशे, तथा नित्यं अन्धकारतमिस्र, द्वौ तुल्यायौँ प्रकर्षपराविति प्रकृष्टान्धकारं ययोस्ते तथा, विशेषणद्वारा अवार्थे हेतुमाह-व्यपगतं ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्राणां ज्योतिर्यतः स एतादृशः पन्था ययोस्ते तथा, अथवा व्यप-8 गता ग्रहादीनां ज्योतिषश्च-अग्नेः प्रभा ययोस्ते तथा यावत्प्रतिरूपे, अत्र यावत्करणात् 'पासाईया' इत्यादि विशेषणत्रयं 'अच्छाओं' इत्यादीनि वा विशेषणानि यथासम्भवं ज्ञेयानि, ते गुहे नामतो दर्शयति, तद्यथा-'तमिस्रा गुहा
चैव खण्डप्रपाता गुहा चैव चैवशब्दौ द्वयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाएँ, तेन पश्चिमभागवर्तिनी तमिस्रा पूर्वभागवर्तिनी | खण्डमपाता, इमे वे अपि समस्वरूपे वेदितव्ये इति, 'तत्थ 'मित्यादि, सर्वमेतद् विजयदेवसमगमकमिति व्याख्या-1 तपायं, नवरं कृतमालकस्तमिस्राधिपतिः नृत्तमालकः खण्डप्रपाताधिपतिरिति । अथात्र श्रेणिप्ररूपणायाह-'तेसि । वणसंडाण'मित्यादि, तयोर्वैताग्योभयपार्श्ववर्तिनोभूमिगतयोर्वनखण्डयोबहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूचं वैताब्यगिरेरुभयोः पार्श्वयोर्दश दश योजनान्युत्पत्य-गत्वा अत्र द्वे विद्याधरश्रेण्यौ-विद्याधराणामाश्रयभूते प्रज्ञप्ते, एका |
दक्षिणभागे एका चोत्तरभागे इत्यर्थः, प्रागपरायते उदग्दक्षिणविस्तीणे, उभे अपि विष्कम्भेन दश २ योजनानि, ६। अत एव प्रथममेखलायां वैताब्यविष्कम्भस्त्रिंशद्योजनानि, पर्वतसमिके आयामेन, वैताब्यवदिमे अपि पूर्वापरोदधि
सृष्टे इत्यर्थः, तथा प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरयेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ते, एवमे
दीप
अनुक्रम [१३]
Jistianitil
~ 150~
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम
[१३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥ ७४ ॥
कैकस्यां श्रेण्यां द्वे पद्मवरवेदिके द्वे च वनखण्डे इत्युभयोः श्रेण्योमीलने चतस्रः पद्मवर वेदिकाञ्चत्वारि वनखण्डानीति • ज्ञेयं, संवादी चायमर्थः श्रीमलयगिरिकुतबृहत् क्षेत्रसमासवृत्त्या, तथा च तत्रोक्तम्- "एकैका च श्रेणिरुभयपार्श्ववचिभ्यां वैताढ्यप्रमाणायामाभ्यां द्वाभ्यां २ पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां २ वनखण्डाभ्यां समन्ततः परिक्षिप्ते"ति, शेषं सूत्रं गतार्थमिति, अथ तयोः श्रेण्योः स्वरूपं पृच्छति - 'विजाहरे' त्यादि गतार्थं, नवरं अत्र बहुधादर्शेषु 'नाणामणिपंचबण्णेहिं मणीहिं' इति पाठो न दृश्यते, परं राजप्रश्वीयसूत्र वृत्त्योईष्टत्वात् सङ्गतत्वाच्च 'नाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहिं' इति पाठो लिखितोऽस्तीति बोध्यं, अथोभय श्रेण्योर्नगरसङ्ख्यामाह - 'तत्थ णं दाहिणिखाए' इत्यादि, तत्रॐ तयोः श्रेण्योर्मध्ये दक्षिणस्यां विद्याधरश्रेण्यां गगनवलभप्रमुखाः पंचाशद्विद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति' रिति तेन नगरावासा राजधानीरूपा ज्ञेयाः, स्वस्वदेशप्रतिबद्धाः, यदाह - 'ते' दसयोजणपिहुलेहिं | सेढीसु जम्मुत्तरासु सजणवया । गिरिवरदीहासु कमा खयरपुरा पण्ण सट्टी या ॥ १ ॥” इति, उत्तरस्यां विद्याधरश्रेण्यां | रथनूपुरचक्रवाठप्रमुखाः षष्टिर्विद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, दक्षिणश्रेणेः सकाशादस्या अधिकदीर्घत्वात्, ऋषभचरित्रादौ तु दक्षिणश्रेण्यां रथनुपूरचक्रवालं उत्तरश्रेण्यां गगनवहभमुकं तत्त्वं तु सातिशयश्रुतधरगम्यं, अनयोर्मुख्यता च श्रेण्यधिपराजधानीत्वेनेति, 'एवमेवेत्युक्तन्यायेनैव सह पूर्वेण यदपरं तत् सपूर्वापरं संख्यानं तेन दक्षिणस्या१] तानि दर्शयोजनपृथक्त्वयोः श्रेण्योर्याम्येतरयोः सजनपदानि गिरिवरदीर्थयोः क्रमात् खयरपुराणि पंचाशत् षष्टिः ॥ १ ॥
Fur Fraternae Cy
~ 151~
१वक्षस्कारे वैताव्यव
र्णनं . १२
॥ ७४ ॥
mywy
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
दीप
॥ मुत्तरस्यां च विद्याधरश्रेण्यामेकं दशोत्तरं विद्याधरनगरावासशतं भवतीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति, श्रेणिद्व-IS
| यगतपंचाशत्पष्टिसङ्कालने यथोक्तसंख्याभवनादेषां च दशोत्तरशतसंख्यानगराणां नामानि श्रीहेमाचार्यकृतश्रीऋष-18 || भदेवचरित्रादवगन्तव्यानीति, 'ते विजाहरेत्यादि, तानि विद्याधरनगराणि ऋद्धानि-भवनादिभिवृद्धिमुपगतानि स्तिमि8 तानि-निर्भयत्वेन स्थिराणि समृद्धानि-धनधान्यादियुक्तानि ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तथा प्रमुदिता-हृष्टाः प्रमो
दवस्तूनां सद्भावाजना-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो येषु तानि तथा, यावत्करणात्
सर्वोऽपि प्रथमोपाङ्गगतश्चम्पावर्णको ग्राह्यः(सू.१), स च विस्तरभयान्नेह लिख्यते, अथ कियत्पर्यन्तः स ग्राह्य इत्याह-प1 डिरूवा इति प्रतिरूपाणि-प्रतिविशिष्टं-असाधारणं रूपं-आकारो येषां तानि तथा तेषु, णमिति प्राग्वत् , विद्याधर-18
नगरेषु विद्याधरराजानः परिवसन्ति, अत्र समासान्तविधेरनित्यत्वान्नादन्तता, कथंभूतास्ते इत्याह-महाहिमवान्हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः मलयः-पर्वतविशेषः सुप्रतीतो मन्दरो-मेरुः माहेन्द्रः-पर्वतविशेषः,
शको वाते इव सारा:-प्रधानाः, 'राययण्णओ भाणियों त्ति,अत्रापि सर्वः प्रथमोपाङ्गगतो राजवर्णको भणितव्य (सू.६) ॥ इति 'विजाहरसेढी णमिति सूत्रं गतार्थ, अथात्रैव वर्तमानामाभियोगश्रेणिं निरूपयति-तासि (सु) णमित्यादि,
तयोविद्याधरश्रेण्योबहुसमरमणीयाभूमिभागाद् वैताव्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोर्दश दश योजनान्यूर्वमुत्पत्य अत्र र दे आ-समन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः-शक्रलोकपालप्रेष्यकर्मकारिणो 8
अनुक्रम [१३]
9803
~ 152~
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२]
या इतिः
व्यन्तरविशेषास्तेषामावासभूते श्रेण्यौ-आभियोग्यश्रेण्यौ प्रज्ञप्ते, शेषं गतार्थ, नवरं 'वण्णो दोण्हवि'त्ति द्वयोरपि
वक्षस्कारे द्वीपशा-18
जात्यपेक्षया पद्मपरवेदिकावनखण्डयोर्वर्णको वाच्य इति शेषः, तथा 'पचयसमियाओ आयामेणं'ति पर्वतसमिका- 8| वैताब्यवन्तिचन्द्री-18
श्चतस्रोऽपि पद्मवरवेदिका आयामेन-दैयेण, अत्र तत्सम्बन्धानि वनखण्डान्यपि पर्वतसमान्यायामेनेति चोध्यं, ने सू.१२
आभिओगे'त्यादि, प्रागधस्तनसूत्रे जगती पद्मवरवेदिका समभूभागमणितृणवर्णादिकं व्यन्तरदेवदेवीक्रीडादिकं च ॥७५॥ येनैव गमेन व्यावर्णितं स एवात्र गम इति न पुनर्व्याख्यायते, 'तासि णमित्यादि, तासु आभियोग्यश्रेणिषु शक्रस्य-18
आसनविशेषस्याधिष्ठाता शक्रस्तस्य दक्षिणार्द्धलोकाधिपतेरित्यर्थः, देवेन्द्रस्य-देवानां मध्ये परमैश्वर्ययुक्तस्य देवराज्ञःदेवेषु कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानस्य सोमः-पूर्वदिपालो यमो-दक्षिणदिक्पालो वरुण:-पश्चिमदिक्पालो वैश्नमण:-उत्तरदिपालस्तेषां कायो-निकाय आश्रयणीयत्वेन येषां ते तथा तेषां, शक्रसम्बन्धिसोमादिदिपालपरिवारभूतानामित्यर्थः, आभियोग्यानां देवानां बहूनि भवनानि प्रजातानि, तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , णमिति | प्राग्वत्, भवनानि बहिर्वृत्तानि-बहिर्वृत्ताकाराणि अन्तः चतुरस्राणि-समचतुरस्राणि 'वण्णओ'त्ति अत्र भवनानां | वर्णको वाच्यः, स च किंपर्यन्त इत्याह-'जाव अच्छरगणसंघविकिण्ण'त्ति, ततोऽपि फियत्पर्यन्त इत्याह-जाव पडिरू-12॥७५॥ वत्ति,स च प्रज्ञापनास्थानाख्य(सू.४६)द्वितीयपदोक्तः, यथा-'अहे पुक्खरकण्णिआसंठाणसंठिया उक्किण्णतरविउलगभीरखायपरिहा पागारद्यालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिमुसलमुसुंढिपरिवारिआ अउज्झा सयाजयाई
रsensectictioticeseses
दीप
अनुक्रम
[१३]
800000easa
यन्न
~ 153~
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
eeseseseseseeeeeee
|सयागुत्ता अड्यालकोहगरइआ अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिा लाउलोइअमहिआ गोसीससरसरत्तचंदणददर(दिण्ण)पंचंगुलितला उवचिअचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिवुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलबट्टबग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमधेतगंधुदुआभिरामा सुगंधवरगंधिआ गंधवटिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिवतुडियसहसंपणदिआ सबरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पहा समरीइआ सउज्जोआ पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवत्ति, अत्र व्याख्या-अधस्तनभागे पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि तथा उत्कीर्णमिवोत्कीर्ण अतीव व्यक्तमित्यर्थः उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता उत्कीर्णान्तराः, किमुक्तं भवति ?-खातानां च परिखाणां च स्पष्टवैविक्त्योन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति उत्कीर्णान्तराः, विपुला-विस्तीर्णा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि तथा, खातपरिखाणामयं विशेष:-परिखा उपरि विशाला अधः सङ्कचिता खातं तूभयत्रापि सममिति, तथा प्राकारेषु-वप्रेषु प्रतिभवनं अट्टालका:-प्रकारस्योपरिवाश्रयवि-18 शेषाः कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्यः सर्वत्र सूचिताः, अन्यथा कपाटानामसम्भवात् , तोरणानिप्रतोलीद्वारेषु प्रसिद्धानि प्रतिद्वाराणि-मूलद्वारापान्तरालवर्तिलघुद्वाराणि एतद्रूपा देशभागा-देशविशेषा येषु तानि तथा, यत्राणि नानाविधानि शतध्यो-महायष्टयो महाशिला वा या उपरिष्टात् पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि |
दीप
ecececeaeeeeeeeeehate
अनुक्रम [१३]
~ 154 ~
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२]
दीप
श्रीजम्यु-18|मन्तीति, मुसलानि-प्रतीतानि मुषड्यः-शस्त्रविशेषास्तैः परिवारितानि-समन्ततो वेष्टितानि, अत एवायोप्यानि- १यक्षस्कारे
द्वीपशा-18 पर्योदुमशक्यानि अयोध्यत्वादेव 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि, सर्वकालं जयवन्तीति | 8 ताब्यवन्तिचन्द्रीभावःतथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योदृभिः सर्वतो निरन्तरपरिवारिततया परेपामसहमानानां मनाग-2
णेनं स्.१२ या वृत्तिः
पि प्रवेशासम्भवात् , तथा अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः-अपवरका रचिताः-स्वयमेव रचनां प्राप्ता। ॥७६॥ येषु तानि तथा, सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथा अष्टचत्वारिंश दभिन्नविच्छित्तयः कृता वन
माला येषु तानि तथा, अन्ये त्यभिदधति-अडयाल इति देशीशब्दः प्रशंसायाची, ततोऽयमर्थः-प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति, तथा क्षेमाणि-परकृतोपद्रवरहितानि शिवानि-सदा मङ्गलोपेतानि, तथा किङ्कराः-किङ्करभूता येऽमरास्तैः दण्डैः कृत्वोपरक्षितानि, सर्वतः समन्ततोऽपरक्षितानि, तथा लाइअमिव लाइअं-छगणादिना भूमेरुपलेपनमिव 'उलोइआ' उल्लोइयमिव उल्लोइअं च सेटिकादिना कुड्याविषु धवलनमिव ताभ्यां महितानीव-पूजितानीव, तथा गोशीण-पन्दनविशेषेण सरसेन-रक्तचन्दनेन च दईरेण-बहलेन दर्दराभिधानाद्रिजातश्रीखण्डेन वा दत्ता:-न्यस्ताः | पञ्चाङ्गलयस्तला-हस्तका येषु तानि तथा, उपचिता-निवेशिता वंदनकलशा-माङ्गल्यघटा येषु तानि तथा, वन्दन-18|॥६॥ घटैः-माङ्गल्यकलशैः सुकृतानि-सुषु कृतानि शोभनानीत्यर्थः यानि तोरणानि तानि प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारदेशभागे २१ येषु तानि तथा, देशभागाश्च देशा एव, तथा आसक्को भूमौ लगा उत्सतक्ष-उपरि लग्नो विपुल:-अतिविस्तीर्णो वृत्तः
अनुक्रम
[१३]
~155~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम [१३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Ebensiin
अतिनिचिततया वर्चुलो वग्घारिअत्ति- प्रलम्बितो माल्यदामकलापः - पुष्पमालासमूहो येषु तानि तथा, पञ्चवर्णाः सरसाः" सुरभयो ये मुक्ताः- करप्रेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचार:- पूजा भूमेस्तेन कलितानि, 'कालागरु' इत्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत्, अप्सरोगणानां संघ:-समुदायः तेन सम्यग् - रमणीयतया विकीर्णानि व्याप्तानि तथा दिव्यानां त्रुटितानांआतोद्यानां ये शब्दास्तैः सम्यक् श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकालं नदितानि - शब्दवन्ति 'सबरयणामया' इत्यादि पदानि प्राग्वत्, 'तत्थ ण' मित्यादि, गतार्थमेतत् । अथ वैताढ्यस्य शिखरतलमाह - 'तासि ण'मित्यादि, तयो:आभियोग्य श्रेण्योर्बहुसमरमणीयाद्भूमिभागाद्वैतान्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोः पञ्च पञ्च योजनान्यूर्द्धमुत्पत्य - गत्वा अत्रान्तरे वैताढ्यस्य पर्वतस्य शिखरतलं प्रज्ञप्तं, 'पाईणे' त्यादि प्राग्वत्, तच्च शिखरतलं एकया पद्मवरवेदिकया तत्परिवेष्टकभूतेन चैकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, अयं भावः यथा जगती मध्यभागे पद्मवर वेदिकैकैव जगतीं दिक्षु विदिक्षु वेष्टयित्वा स्थिता तथेयमपि सर्वतः शिखरतलं पर्यन्ते वेष्टयित्वा स्थिता, परमेषा आयतचतुरस्राकारशिखरतलसंस्थितत्वेनायतचतुरस्रा बोद्धव्या, अत एवैकसंख्याका, तत्परतो बहिर्वर्त्ति वनखण्डमप्येकं, न तु वैताढ्य| मूलगतपद्मवर वेदिकावने इव दक्षिणोत्तरविभागेन द्वयरूपे इति, श्रीमलयगिरिपादास्तु क्षेत्रविचारवृहद्वृत्तौ "तन्मध्ये पद्मवर वेदिकोभयपार्श्वयोर्वनखण्डा" वित्याहुः प्रमाणं- विष्कम्भायामविषयं, वर्णकञ्च द्वयोरपि पद्मवरवेदिकावनखण्डयोः, प्राग्वद्भणितव्य इत्यध्याहार्य, अथ शिखरतलस्य स्वरूपं पृच्छति - 'वेअद्धस्स णमित्यादि, एतत्सर्वं जगतीगत
Fur Fate &P Cy
~156~
maryay
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू-18
प्रत सूत्रांक [१२]
दीप
पद्मवरवेदिकाया वनखण्डभूमिभागवद् व्याख्येयं, अथास्य कूटवक्तव्यता पृच्छति-'जंबुद्दीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे | || वक्षस्कारे द्वीपशा-18 णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! द्वीपे भरते वर्षे वैतान्यपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! नव कू-18 सिद्धायत
टानि प्रज्ञप्तानि, तबथा-सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा-शाश्वतीनामईत्प्रतिमानामायतनं-स्थानं सिद्धायतनं तदा-18पणन या धूचिः ग धारभूतं कूटं सिद्धायतनकूट, दक्षिणार्द्धभरतनाम्ना देवस्य निवासभूतं कूट दक्षिणार्धभरतकूट, खण्डप्रपातगुहाधिपदे
वनिवासभूतं कूटं खण्डप्रपातगुहाकूट, माणिभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूट माणिभद्रकूट, बैताढचनानो देवस्य || निवासभूतं कूट वैताळ्यकूट, पूर्णभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं पूर्णभद्रकूट, अन्यत्र माणिभद्रकूटादनन्तरं पूर्ण-18
भद्रकूटं दृश्यते, तमिस्रगुहाधिपदेवस्य निवासभूतं कूटं तमिरगुहाकूट, उत्तरार्द्धभरतनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूट | उत्तरार्द्धभरतकूट, वैश्रमणलोकपालनिवासभूतं कूटं वैश्रमणकूट, सर्वत्र मध्यपदलोपी समासः। अथ 'यथोद्देशं निर्देश'| इति प्रथमसिद्धायतनकूटस्थानप्रश्नमाहकहिणं भंते। जंयुरीने दीवे भारहे मासे वेअद्धपवए सिद्धायतणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते?, गो०! पुरच्छिमलषणसमुहस्स पचच्छिमेणं दाहिणद्धभरहकूडस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बेअद्धे पवए सिद्धायतणकूडे णाम कूडे पण्णत्ते, छ सको
॥७७॥ साई जोगणाई उद्धं उत्तेणं मूले छ सकोसाइं जोअणाई विक्वंमेणं मझे देसूणाई पंच जोअणाई विखंभेणं उवरि साइरेगाई तिणि जोअणाई विक्खंभेणं मूले देसूणाई बावीस जोषणाई परिक्खेवणं मजो देसूणाई पण्णरस जोषणाई परिक्खेवेर्ण उवरि
अनुक्रम
[१३]
वैताढ्यपर्वते सिद्धायतनकूटस्य स्वरुपम् एवं शाश्वत-जिनप्रतिमाया: स्वरुपम् कथ्यते
~ 157~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
Recentcene
साइरेगाई णव जोषणाई परिक्सवेणं, मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए, सवरयणागए अच्छे सण्हे जाव पटिरुवे । सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण व वणसंडेणं सबओ समता संपरिखिते, पमाण वण्णो दोपहंपि, सिद्धायतणकूडस्स णं उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा व जाव विहरति । तस्स ण बहुसमरमणिनस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्य णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते कोस आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चचेणं अणेगखंभसयसन्निविटे खंभुग्गयसुकयवइरवेइआतोरणवररइअसालभंजिअसुसिलिट्ठविसिट्ठलटुसंठिअपसत्यवेलिभविमलखंभे णाणामणिरयणसचिभउजालबहुसमसुविभत्तभूमिभागे हामिगउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयजावपतमलयभत्तिचित्ते कंधणमणिरयणथूमियाए णाणाविहपंच० बण्णओ घंटापडागपरिमंडिअागसिहरे धवले मरीइकवयं विणिम्मुअंते लाउलोइअमहिए जाव सया, तस्स णं सिद्धायतणस्स तिदिसि सओ दारा पण्णत्ता, ते णं दारा पंच धगुसयाई उद्धं उच्चचेणं अद्धाइजाई धणुसयाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेआवरकणगथूभिआगा दारवण्णओ जाव वणमाला, तस्स गं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव तस्स गं सिद्धाययणस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पणते पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पंच धणुसयाई उद्धं उपतेणं सबरयणामए, एत्व गं अट्ठसय जिणपडिमाणं जिणुस्सहेप्पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्टर एवं जाव धूवकडुच्छुगा । (सूत्रम् १३) 'कहि णमित्यादि कण्ठ्यम् , नवरं दक्षिणार्द्धभरतकूट ह्यस्मात्त्पश्चिमदिग्वत्तीति ततः पूर्वेणेति, तवोचत्वादिना
eeroeeeeeee
दीप
अनुक्रम [१४]
IRAMA
~ 158~
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]]
१३
दीप
श्रीजम्बू-II कियत्प्रमाणमित्याह-'छ सकोसाई' इत्यादि, सक्रोशानि षड्योजनान्यूलोंचत्वेन मूले सक्रोशानि षट् योजनानि विष्क-१ वक्षस्कारे द्वीपशा- म्भेन मध्ये देशोनानि पञ्च योजनानि, सपादकोशन्यूनानि पश्च योजनानीत्यर्थः, विष्कम्भेन, उपरि सातिरेकाणि श्रीणि सिद्धायतन्तिचन्द्री-18 या वृत्तिः
IN योजनानि, अर्द्धकोशाधिकानि त्रीणि योजनानीत्यर्थः, विष्कम्भेनेति, अथास्य शिखरादधोगमनेन विवक्षितस्थाने पृषु- नवर्णनं सू.
त्वज्ञानाय करणमुच्यते-शिखरादवपत्य यावद्योजनादिकमतिकान्तं तावत्प्रमाणे योजनादिके द्विकेन भक्के कूटोत्सेधा॥७८॥ र्बयुक्ते च यज्जायते तदिष्टस्थाने विष्कम्भः, तथाहि-शिखरात् किल त्रीणि योजनानि क्रोशा धिकान्यवतीर्णः,
ततो योजनत्रयस्य क्रोशा धिकस्य द्विकेन भागे लब्धाः षट् क्रोशाः क्रोशस्य च पादः, कूटोत्सेधश्च सक्रोशानि षड्। 19 योजनानि, अस्यार्द्ध योजनत्रयी क्रोशा धिका, अस्मिंश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि सपादकोशोनानि पञ्च योजनानि, 18 इयान मध्यदेशे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि प्रदेशे भावनीयं । तथा मूलार्ध्वगमने इष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय करण
मिद-मूलादतिक्रान्तयोजनादिके द्विकेन भक्के लब्धं मूलव्यासाच्छोध्यतेऽवशिष्टमिष्टस्थाने विष्कम्भः, तथाहि-मूलात्
त्रीणि योजनानि क्रोशार्दाधिकानि ऊर्ध्व गतः, अस्य द्विकेन भागे लब्धाः ६ कोशाः क्रोशस्य च पादः, एतावान् । | मूलव्यासात् शोध्यते, शेष पञ्च योजनानि सपादकोशोनानि, इयान् मध्यभागे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि प्रदेशे ॥ ७८॥
भान्यं, इमे चारोहावरोहकरणे शेषेषु वैताध्यकूटेषु पञ्चशतिकेषु हिमवदादिकूटेषु सहस्साङ्केषु च हरिस्सहादिकूटेषु । अष्टयोजनिकेषु च ऋषभकूटेष्ववतारणीये, वाचनान्तरोकमानापेक्षया तु ऋषभकूटेषु करणं जगतीचदिति । अस्य च ॥
अनुक्रम [१४]
~ 159~
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्री यू. १४
पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह- 'से ण'मित्यादि व्यक्तं, अथ सिद्धायतनकूटस्योपरि भूभागवर्णनायाह- 'सिद्धाय तण' इत्यादि प्राग्वत्, अथात्र जिनगृहवर्णनायाह- 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य - बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्य| देशभागे अत्र महदेकं सिद्धानां - शाश्वतीनामर्हत्प्रतिमानामायतनं स्थानं चैत्यमित्यर्थः प्रज्ञयं क्रोशमायामेनार्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमूञ्चत्वेन, देशश्चात्र षष्ट्यधिकपञ्चशतधनूरूप इति यत उक्तं वीरंजयसेहरेत्यादिक्षेत्रविचारस्य वृत्तौ - 'ताणुवरि चेहरा दहदेवी भवणतुलपरिमाणा' इत्यस्या गाथाया व्याख्याने "तेषां वैताढ्यकूटानामुपरि चैत्यगृहाणि द्रहदेवी भवनतुल्यपरिमाणानि वर्त्तन्ते, यथा श्रीगृहं क्रोशकदीर्घं क्रोशार्द्धविस्तारं चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशतधनुरुच्च" मिति, तथा अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं, तदाधारकत्वेन स्थितमित्यर्थः, तथा स्तम्भेषु उद्गता-संस्थिता. | सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तादृशी वज्रवेदिका - द्वारशुण्डिकोपरि वज्ररक्षमयी वेदिका तोरणं च स्तम्भोद्गतसुकृतं यत्र तत्तथा, तथा वराः - प्रधाना रतिदा-नयनमनःसुखकारिण्यः सालभंजिका येषु ते तथा सुश्लिष्टं सम्बद्धं विशिष्टं प्रधानं उष्टं - मनोज्ञं संस्थितं संस्थानं येषां ते तथा ततः पदद्भयकर्मधारये तादृशाः प्रशस्ताः - प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यविमलस्तम्भा यत्र तत्तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तथा नानाम| णिरक्षानि खचितानि यत्र स नानामणिरत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातः भार्यादिदर्शनात्, तादृश उज्यलो -निर्मलो बहुसमः - अत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत्तथा, 'ईहामिगे' त्यादि प्राग्वत् व्याख्येयं, नवरं मरीचिकवचं - किर
Fur Prote&P Cy
~160~
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१४]
वक्षस्कार [१],
मूलं [१३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ७९ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Ebeni
सिद्धायतनकूटवर्णनं सू. ३०
ध्वजा
जालपरिक्षेपं विनिर्युचत्, तथा छाइअं नाम यद्भूमेर्गोमयादिना उपलेपनं उल्लेइअं - कुण्यानां मालस्य च सेविका- ५१वक्षस्कारे दिभिः संसृष्टीकरणं लाउहोइअं ताभ्यामिव महितं -पूजितं लाउलोइअ महिअं, यथा गोमयादिनोपपलितं सेटिकादिना च धवलीकृतं यद्वद् गृहादि सश्रीकं भवति तथेदमपीति भावः, तथा 'जाव शया' इति अत्र यावत्करणात् वक्ष्यमाणयमिकाराजधानीप्रकरणगत सिद्धायतनचर्णकेऽतिदिष्टः सुधर्मास भागमो वाच्यो, यावत्सिद्धायतनोपरि उपवर्णिता भवन्ति, यद्यप्यत्र यावत्पदप्राद्ये द्वारवर्णकप्रतिमावर्णकधूपक डुच्छादिकं सर्वमन्तर्भवति तथापि स्थानाशून्यतार्थ किञ्चित् सूत्रे दर्शयति- 'तस्स णं सिद्धायतणस्स' इत्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य तिसृणां दिशां समाहारविदिक् तस्मिन्, अनुस्वारः प्राकृतत्वात्, पूर्वदक्षिष्णोत्तरविभागेषु त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञतानि तानि द्वाराणि पञ्चधनुःशतान्यूवोंच्चत्वेन अर्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भेन, तावन्मात्रमेव प्रवेशेन, अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानीत्यर्थः, 'सेआ वरकणगधूभिआगा' इतिपदोपलक्षितो द्वारवर्णको मन्तव्यो विजयद्वारवद् यावद्वनमालावर्णनम् । अत्रैव भूभागवर्णनायाह- 'तस्स ण' मित्यादि सुगमं, 'सिद्धाययणस्स' इत्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेको देवच्छन्दको देवोपवेशस्थानं प्रज्ञतः, अत्रानुतापि आयामविष्कम्भाभ्यां देवच्छन्दकसमाना उच्चैस्त्वेन तु तदर्द्धमाना मणिपीठिका सम्भाव्यते, अन्यत्र राजप्रभीयादिषु देवच्छन्दकाधिकारे तथाविधमणिपीठिकाया दर्शनात् यथा सूर्याभविमाने 'तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णसा
For Prate&Pe
~ 161~
।। ७९ ।।
maryay
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
ceseseseisence
॥ ॥ सोलसजोषणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोषणाई उच्चत्तेण ति, तथा विजयाराजधान्यामपि तस्स णं सिद्धाययणस्स
बहुमज्झदेसभाए, पत्थ णं महं एगा मणिपढिआ पण्णत्ता दो जोअणाई आयामविक्संभेणं जोअणं बाहल्लेणं सवमणि|| मया अच्छा जाव पडिरूवा' इति, स च देवच्छन्दकः पञ्चधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि साधिकानि
पञ्चधनुःशतान्यूर्वोच्चत्वेन सर्वारमना रनमयः, तत्र देवच्छन्दकेऽष्टशर्त-अष्टोत्तरं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमा-॥ णमात्राणां-जिनोत्सेधः-तीर्थकरशरीरोच्छ्रायः, तस्य च प्रमाणं उत्कृष्टतः पञ्चधनु शतात्मकं जघन्यतः सप्तहस्तात्मक इह च पश्चधनुशतात्मकं गृह्यते, तदेव मात्रा-प्रमाणं यासां तास्तथा तासां, तथा जगत्स्वाभाव्यात्, देवच्छन्दकस्य चर्दिा प्रत्येक सप्तविंशतिभावेन सन्निक्षिप्तं तिष्ठति, ननु पद्मवरवेदिकादय इव शाश्वतभावरूपा जिनप्रतिमा भवन्तु, परं प्रतिष्ठितत्वाभावेन तासामाराध्यत्वं कथमिति चेत् !, उच्यते, शाश्वतभावा इव शाश्वतभावधर्मा अपि सहजसिद्धा
एव भवन्ति, तेन शाश्वतप्रतिमा इव शाश्वतप्रतिमाधर्मा अपि प्रतिष्ठितत्वाराध्यत्वादयः सहजसिद्धा एवेति, किं॥४ 181 १ तत्र जिनोत्सेधो जघन्यतः सप्त हस्ताः उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, परमिह तिर्यग्लोकवर्तित्वेन पञ्चधनुःशतानामित्यर्थः, यदुक्तं "तत्थुस्सेइंगुलमो सत्तकरा
उडलोयमहलोए । सासयपतिमा वंदे पणधसममाण तिरिलोए ॥१॥" इति, यत्तु राजप्रश्नीयोपांगवृत्ती सूर्याभविमाने जिनप्रतिमानामुत्सेधमाविकप इस पंचधानःशतानि संभाव्यन्ते इति भणितं तत्र सूक्ष्मदशां पर्यालोचनायाः संभावनाया अपि संभावनैव विजृम्भते, पोलोचनाश्वेव-देवाना भवधारणीयशरीरेण | तारप्रतिमानां पूजाकरणादावसंगतमिवाभाति, न चैवं निर्यग्लोकेऽपि समानं, यतो देवानां वैकियशरीरेण मनुजानां च भरतादिकारितजिनप्रतिमापूजने तदुचितप्र-10 माणवतेच पारीरेण नासंगतिगन्धोऽपि, (उभयत्रापि वैकियतिरस्लेव, तिर्यग्लोके विद्याधराणां सातिशयत्यान्न क्षतिः) (हीर प्रत्ती)
दीप
2
अनुक्रम [१४]
ecectecte
JinElementematical
~162~
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥ ८० ॥
प्रतिष्ठापनान्तरविवारेण ?, ततः शाश्वतप्रतिमासु सहजसिद्ध मेवाराध्यत्वमिति न किञ्चिदनुपपन्नमिति, अत्र प्रतिमानां | उत्सेधाङ्गुलमानेन पश्चधनुः शतप्रमाणानां प्रमाणाङ्गुलमानेन पचधनुः शतायामविष्कम्भे देवच्छन्दकेऽनवकाशचिन्ता न विधेयेति, अत्र प्रतिमावर्णकसूत्रं एवं- 'जाव धूवकडुच्छुगा' इति सूत्रेण सूचितं जीवाभिगमाद्युक्तमवसेयं तच्छेदम्'तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा- तवणिज्जमया हत्थतलपायतला अंकामयाई णक्खाई | अंतोलोहियक्पडिसेगाई कणगामया पाया कणगामया गुप्फा कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामईओ गायलट्ठीओ रिट्ठामए मंसू तवणिज्जमईओ णाभीओ रिट्ठामईओ रोमराईओ तवणिज्जमया चुच्चुआ तवणिज्जमया सिरिवच्छा कणगमईओ बाहाओ कणगामईओ गीवाओ सिलप्पवालमया उट्टा फलिहामया दंता तवणिजमईओ जीहाओ तवणिज्जमया तालुआ कणगमईओ णासिगाओ अंतोलोहिअक्खपडिसेगाओ | अंकामयाई अच्छीणि अंतोलोहि अक्खपडिसेगाई पुलगामईओ दिट्टीओ रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामबाई अच्छि - पत्ताइं रिट्ठामईओ भमुहाओ कणगामया कबोला कणगामया सवणा कणगामईओ णिडालपट्टियाओ वइरामईओ सीसघडीओ तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमिओ रिट्ठामया उवरिमुद्धया, तासि णं जिणपरिमाणं -पिट्ठओ पत्तेयं २ छतधारपडिमा पण्णत्ता, ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिमरययकुंदिदुप्पगासाई सकोरंटमलदामाई धवलाई आयवताई सलीलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उभओपासिं पत्चेअं २ दो दो चामरधारपडिमाओ
Fur Fate &P Cy
~163~
৯৬৯৩
१वक्षस्कारे सिद्धायतनकटवर्णनं
सू. ३०
॥ ८० ॥
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----------------
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप
1 पण्णत्ताओ, ताओ चामरधारपडिमाओ चंदप्पहबइरवेरुलियणाणामणिकणगरयणखइअमहरिहतवणिज्जुजलवि| चित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखककुंददगरयमयमहिअफेणपुंजसन्निकासाओ सुहुमरययदीहवालाओ धवलाओ चामराओ
सलील धारेमाणीओ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो णागपडिमाओ दो दो जक्सपडिमाओ दो दो | भूअपडिमाओ दो दो कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ समिक्सित्ताओ चिट्ठति
सवरयणामईओ अच्छाओ सहाओ लण्हाओ घटाओ महाओ नीरयाओ निप्पंकाओ जाव पडिरूवाओ, तत्थ णं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं अट्ठसयं वंदणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयंसगाणं थालाणं पाईणं सुपइगाणं 8 मणोगुलिआणं वातकरगाणं चित्तार्ण रयणकरंडगाणं हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थगेरीणं पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं" तास जिनप्रतिमानामयमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, तद्यथातपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि तथा कनकमयाः पादाः तथा कनकमया गुल्फाः अङ्कमयाः-अङ्करलमया अन्त-| लोहिताख्यरलप्रतिसेका नखाः, कनकमय्यो जवाः, कनकमयानि जानूनि, कनकमया करवः, कनकमय्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः रिष्ठरत्नमय्यो रोमराजयः, तपनीयमयाश्चञ्चका:-स्तनाग्रभागाः, तपनीयमयाः श्रीवत्साः, तथा कनकमय्यो बाहाः, तथा कनकमय्यो ग्रीवा रिष्ठरत्नमयानि श्मश्रुणि शिलाप्रवालमया-विद्रुममया ओष्ठा स्फटिकमया | दन्ताः तपनीयमय्यो जिह्वाः तपनीयमयानि तालुकानि कनकमय्यो नासिका अन्तलोंहिताक्षरतप्रतिसेका अङ्कमया
treesereerotestersesesesesesear
अनुक्रम [१४]
mellcount
~ 164~
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशा-18
प्रत सूत्रांक [१३]]
दीप अनुक्रम [१४]
न्यशीणि अन्तलोहिताक्षप्रतिसेकानि, रिवरसमयोऽविमध्यगतास्तारिकाः रिसरममयाम्बक्षिपत्राणि नेत्ररोमाणि रिटरसमय्यो भ्रवः कनकमयाः कपोलाः कनकमया श्रवणा: कनकमग्यो ललाटपट्टिका: बनमय्यः शीर्षपतिका तफ्नीयमबा सिद्धायात
वक्षस्कारे न्तिचन्द्री- केशान्तकेशभूमयः, केशान्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिष्ठरतमया उपरि मूर्बजा:-केशार, ननु केशरहितशी-1 नकूटवर्णनं या वृत्ति: | मुखाना भावजिनानां प्रतिरूपकत्वेन सद्भावस्थापना, जिनानां कुतः शकूर्चाविसम्भवः ।, उच्यते, भावजिनानामपि सू. ३०
अवस्थितकेशादिप्रतिपादनस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात्, यदुक्तं श्रीसमकायानेजतिशयाधिकारे-"अवडिअकेसमंसुरोमणहे" ॥ ति, तथा औपपातिकोपाझे-'अवद्विअसुविभत्तचित्तमंसू इति, अवस्थितत्व र देवमाहात्म्वतः पूर्वोत्पमानां केशादीनां
तथैवाचस्थानं न तु सर्वथाऽभावत्वं, इत्यमेव शोभातिरेकदर्शनं पुरुषत्वपतिपषिय, तेम प्रस्तुते न तत्पतिरूपताव्या-13॥ पाता, नन्वेवं सति अर्चनकेन किमालम्ब्य तेषां श्रामण्यावस्था भावनीवेति चेत् 1, उच्यते, परिकर्मितरितमणिमय-18 | तथाविधाल्पकेशाविरमणीयमुखादिस्वरूपमिति, यत्तु श्रीतपागच्छनायक्रमीदेवेन्द्रसूरिशिष्यश्रीधर्मपोषसूरिपादैर्भाच्यवृत्तौ भगवतोऽपगतकेशशीर्षमुखनिरीक्षणेन श्रामण्यावस्था सुज्ञानैवेत्यामिदघे वववर्धिष्णुत्वेनास्यत्वेन चाभास | विवक्षणात् श्रामण्यावस्थाया अप्रतिवन्धकत्वाचेति न किमप्यनुपपत्र, तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत एकैका मास
॥८१ प्रतिमा प्रशता, ताश्च छत्रधारपतिमा हिमरजतकुन्देन्दुप्रकाशानि सकोरण्टमास्यदामालि धवलानि आतपत्राणि-पत्राणि सलीलं धारयन्त्यस्तिष्ठन्ति, तासां जिनप्रतिमानामुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकं देदे चामरधारमतिमे प्रज्ञ, ताश्च चामर
2cecreacnesses
aaeeeeeeeesese
Emai
~165~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
धारप्रतिमाः चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो बजं-हीरकमणिः वैडूर्य च-प्रतीत तानि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु वे सथा, पवरूपा महार्हस्य-महाघस्य तपनीयस्य सत्का उज्वला विचित्रा दण्डा येषु तानि तथा, 'चिल्लियाओ' इत्यादि प्राग्वत्, नवरं 'चामराओ'त्ति प्राकृतत्वात् खीत्वं चामराणि सलीलं धारयन्त्यो-वीजयन्त्यो वीजय-18 न्त्यस्तिष्ठन्ति, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो हे द्वे नागप्रतिमे द्वे द्वे यक्षप्रतिमे द्वे द्वे भूतप्रतिमे द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमेआज्ञाधारमतिमे, विनयावनते पादपतिते प्राञ्जलिपुटे सन्निक्षिसे तिष्ठतः, ताश्च 'सबरयणामईओं' इत्यादि प्राग्वत्, 'तत्य ण' मित्यादि, तस्मिन् देवच्छन्दके जिनप्रतिमानां पुरतोऽष्टशतं घण्टानां अष्टशतं वन्दनकलशाना-माङ्गल्यघटानां अष्टशतं भृङ्गाराणामष्टशतमादर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशतं सुप्रतिष्ठकानामष्टशतं मनोगुलिकाना-पीठिकाविशेषरूपाणामष्टशतं वातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रक्षकरण्डकानामष्टशतं हरकण्ठानामष्टशतं गजकण्ठानामष्टशतं नरकण्ठानामष्टशतं किम्मरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं गन्धर्वकण्ठा-11 | नामष्टशतं वृषभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचङ्गेरीणामष्टशतं चूर्णचङ्गेरीणामष्टशतं गंधचङ्गेरीणामष्टक्षत वखचलेरीणामष्टशतमाभरणचओरीणामष्टपतं सिद्धार्थकचङ्गेरीणामष्टशतं लोमहस्तकचङ्गेरीणां लोमहस्तका-मयूरपिच्छ-11
पुञ्जनिका अष्टशतं पुष्पपटलकानामष्टशतं मास्यपटलकाना मुत्कलानि पुष्पाणि अथितानि माल्यानि अष्टशतं चूर्णपटस-1 18 कानामेवं गन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकपटलकानामपि प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं द्रष्टव्यं, अष्टशतं सिंहासनानामहा ।
29999999990sal
दीप
अनुक्रम [१४]
~ 166~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्वक्षस्कारे दक्षिणार्थकटादिव
प्रत सूत्रांक [१३]]
दीप
श्रीजम्म-18| छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्कानामष्टशतं कोष्ठसमुद्गकानामष्टशतं चोअकसमुद्गकानामष्टशतं तगरसम- सन्दी
नकानामष्टशतमेलासमुद्रकानामष्टशतं हरितालसमुद्भकानामष्टशतं हिंगुलकसमुद्गकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्कानाम
शतमञ्जनसमुद्गकानां, सर्वाण्यप्येतानि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि द्रष्टव्यानि, अष्टशतं ध्वजाना, अत्र सङ्घहणीया चिः
गाथे-बंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला य । पाईओ सुपइट्टा मणगुलिया वायकरगा य॥१॥ चित्ता ॥२॥ रयणकरंडय हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पडलगसीहासणछत्त चामरासमुगयझया य ॥२॥' अष्टशतं धूपकडुच्छु
कानां सशिक्षिप्त तिष्ठति । उक्का सिद्धायतनकूटवक्तव्यता, अथ दक्षिणार्द्धभरतकूटस्वरूपं पृच्छन्नाह
कहिणं मते ! वेअड्डे पथए वाहिणभरहकूले णामं कूडे पण्णते?, गो. खंडप्पवायकूडस्स पुरच्छिमेण सिद्धाययणकूडस्स पश्चच्छिमेणं एत्थ णं वेअपचर दाहिणभरहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे जाव तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमजसदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायडिंसए पण्णत्ते, कोसं उर्दू उच्चत्तेणं अद्धकोस विक्खंभेणं अम्भुमायमूसियपहसिए जाव पासाईए ४, तस्स णं पासायवढंसगस्स बहुमज्झदेसभाए एत्व गं महं एगा मणिपेढिआ पण्णता, पंच धणुसयाई आयामक्क्सिभेणं अढाइल्याहिं धणुसयाई पाहलेणं सक्षमणिमई, तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि सिंहासणं पण्णत्त, सपरिवार भाणियचं, से केणद्वेणं भैते । एवं बुबह-दाहिणभरहकूले २१, गो०। दाहिणभरहकूडे ण दाहिणदुभरहे णाम देवे महिडीए जाव पलिओवमहिए 'परिवसइ, से ण तत्व पाउण्डं सामाणिअसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्डं परिसाणं सत्तण्हं अणिवाणं सत्तण्हं
00000000000000000000000
अनुक्रम
[१४]
॥८२॥
~167~
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----------
---.............-------- मूलं [१४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
गाथा:
अणियाहिवईणं सोलसह अयारक्सदेवसाहस्सीणं दाहिणभरहकूडस्स दाहिणट्टाए रायहाणीए अण्णेसि बहूर्ण देवाण व देवीण य जाब विहय ।। कहि णं भंते ! दाहिणभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णामं रायहाणी पण्णता !, गो०! मंदरस्स पचतस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेजदीवसमुरे वीईवदत्ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे दक्षिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य ण दाहिण
भरहकूडस्स देवस्स वाहिणकुमरहा णामं रायहाणी भाणिअबा जहा विजयस्स देवस्स, एवं सबकूडा गेयचा जाव वेसमणकूडे परोप्परं पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं, इमेसिवण्णावासे गाहा-'मझे वेअथस्स उ कणयमया तिण्णि होति कूडा उ । सेसा पञ्चयकूडा सो रयणामया होति ॥ १॥ माणिभरफूडे १ बेअदृकूले २ पुण्णभकूडे ३ एए तिणि कूडा कणगामया सेसा छप्पि रयणमया, दोई विसरिसणागया देवा फयमालए व गट्टमालए चेव, सेसाणं छण्डं सरिसणामया-जण्णामया य कूडा तन्नामा खलु हवंति ते देवा । पलिओवमहिईया हवंति पत्तेअपत्तेयं ॥१॥ रायहाणीओ जंबुरीचे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं विरि असंखेज्जदीवसमुरे वीईवइत्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे वारस , जोमणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्व णं रायहाणीओ भाणिअचाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ (सूत्र १४)
'कहिण' मित्यादि, अत्र सर्वापि पदयोजना सुगमा, नवरं प्रासादावतंसकः क्रोशमूर्दोच्चत्वेनाईक्रोशं विष्कम्भेन, 18| 8 अत्र सूत्रेऽनुक्तमप्यर्द्धकोशमायामेनेति बोध्यं, 'सेसेसु अ पासाया कोसुच्चा अद्धकोसपिहुदीहा' इत्यादिश्रीसोमतिलक-18
रिकृतसिरिनिलयमितिक्षेत्रविचारवचनात्, श्रीउमाखातिकृते जम्बूद्वीपसमासे तु प्रासादावतंसकः क्रोशाक्रोशदै-18
दीप अनुक्रम [१५-१८]
~168~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཝཱ + རྫལླཱ ཡྻ
守
[१५-१८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१४] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥ ८३ ॥
| र्घ्यविस्तारः किश्चिन्यूनतदुच्छ्रयः उक्तोऽस्तीति, 'अब्भुग्गयमूसिअ' इत्यादि प्राग्वत्, अथ तत्र यदस्ति तदाह- 'तस्स णमित्यादि सुगमं, नवरं 'सपरिवारं 'ति दक्षिणार्द्ध भरतकूटाधिपसामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनसहितमिति, अथ प्रस्तुतकूटनामान्यर्थं पृच्छति- 'से केणद्वेण' मित्यादि, सर्व चैतत्सूत्रं विजयद्वारनामान्वर्थसूचकसूत्रवत्परिभावनीयं, नवरं दक्षि णार्द्धाया इति पर्दैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पाठान्तरानुसाराद्वा दक्षिणार्द्ध भरताया राजधान्या इति, अत्र सूत्रेऽदृश्य|मानमपि 'से तेणट्टेण' मित्यादि सूत्रं स्वयं ज्ञेयं, तथा च दक्षिणार्द्ध भरतकूटनामा देवः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यवादित्वादप्रत्यये दक्षिणार्द्ध भरतकूटमिति, अथास्य राजधानी कास्तीति पृच्छति 'कहिं णमित्यादि व्यक्त, अथापरकूटवक्तव्यतां | दक्षिणार्द्ध भरतकूटातिदेशेनाह-' एवं सङ्घ' इत्यादि, एवं दक्षिणार्द्ध भरत कूटन्यायेन सर्वकूटानि तृतीयखण्डप्रपातगुहाकूटादीनि नेतव्यानि - बुद्धिपथं प्रापणीयानि यावन्नवमं वैश्रमणकूटं, 'परोप्परं'ति परस्परं 'पुरच्छिमपश्चत्थिमेणं 'ति पूर्वापरेण, अयमर्थः- पूर्व पूर्व पूर्वस्यां उत्तरमुत्तरमपरस्यां पूर्वापरविभागस्यापेक्षिकत्वात्, 'इमेसिं' इत्यादि, एषां कूटानां वर्णकव्यासे वर्णकविस्तारे इमा वक्ष्यमाणा गाथा, 'इमा से' इति पाठे तु से इति वचनस्य व्यत्ययात् तेषां कूदानां | वर्णावासे इमा गाथेति योजनीयं, 'मज्झे बेअहस्स उ' इत्यादि, तुशब्दो विशेषे स च व्यवहितसम्बन्धः तेन वैतान्यस्य मध्ये तु चतुर्थपञ्चमषष्ठरूपाणि त्रीणि कूटानि कनकमयानि भवन्ति, सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देश: प्राकृतत्वात् शेषाणि पर्वतकूटानि वैताढ्य वर्ष धरमरुप्रभृति गिरिकूटानि 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति हरिस्सहहरिकूट कूटवर्जितानि रामधा
Fur Fate & Pune Cy
~169~
१वक्षस्कारे दक्षिणार्धकूटादिवनं सू. ३०
॥ ८३ ॥
jayy
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----------
--------- मूलं [१४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
गाथा:
2000000000000000
नि ज्ञातव्यानि, यत्त्वत्र वैताळ्यप्रकरणे सर्वपर्वतगतकूटज्ञापनं तत्सर्वेषामेकवर्णकत्वेन लाघवार्य, तथा वैताव्यस्येत्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनं तेन सर्वेषामपि वैताळ्यानां भरतैरावतमहाविदेहविजयगताना नवसु कूटेषु सर्वमध्यमानि श्रीणि त्रीणि कूटानि कनकमयानि ज्ञातव्यानि, एतदेव वैतान्ये व्यक्त्या दर्शयति-'माणिभइ' इत्यादि, इयोः कूटयोर्विसहशनामकौ देवी स्वामिनी, तद्यथा-कृतमालकश्चैव नृत्तमालकश्चैव, तमित्रगुहाकूटस्य कृतमालः स्वामी खण्डप्रपातगुहाकूटस्य तृत्तमालः स्वामी, शेषाणां षण्णां कूटानांसहक्-कूटनामसदृशं नाम येषां ते सदृग्नामका देवाः स्वामिनः, यथा दक्षिणार्धभरतकूटस दक्षिणार्द्धभरतकूटनामा देवः स्वामी, एवमन्येषामपि भावना कार्या, एनमेवार्थ सविशेष गाथमाऽऽह-यन्नामकानि कूटानि तन्नामानः खलुनिश्चये भवन्ति देवाः पल्योपमस्थितिका भवन्ति, प्रत्येक २ प्रतिकूटमि| स्वर्थः, एतेनाष्टानां कूटानां स्वामिन उकाः, सिद्धायतनकूटे तु सिद्धायसनखैव मुख्यत्वेन तत्स्वामिदेवानभिधानमिति, ननु दक्षिणार्द्धभरतकूटानां स्वसहशमामकदेवाश्रयभूतत्वात् नामान्वर्थः सङ्गच्छते, यथा दक्षिणार्डभरतमामदेवस्वामिकरवावुपचारेण दक्षिणाभिरतनामा देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति अनादित्वादप्रत्यये वा दक्षिणाभिरत, एवमन्येष्यपि, | परं खण्डमपातगुहाकूटसमिरगुहाकूटयोः स कर्थ , तत्स्वामिनोसमालकृतमालयोर्विसहशनामकरवात्, न च खण्डप्रपातगुहाया उपरिवर्ति कुटं समाप्रपातगुहाकूटमित्यादिरेवान्वर्थोऽस्विति वाच्य, अत्र सूत्रे दक्षिणाईभरतकूटवत् शेषकूटानामतिदेशात् बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ती "एवं शेपकूटान्यपि स्वस्वाधिपतियोगतः प्रवृत्ताम्यवसैयानी"ति श्रीमल्यनि-18
scene
दीप अनुक्रम [१५-१८]
~170~
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------
..............--------- मूलं [१४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्-
द्वीपशा
[१४]
न्तिचन्द्रीया वृचिः
॥
८
॥
गाथा:
रिसूरिभिरुकत्वाचेति चेत्, उच्यते, खण्डप्रपातगुहाधिपस्य कूटं खण्डप्रपातगुहाकूट, तमिस्रगुहाधिपस्य कूट तमिस्र- १ वक्षस्कारे गुहाकूटमिति स्वामिनो यौगिकनामान्तरापेक्षया अत्राप्यन्वर्थो घटत एव, यदुक्तं तैरेव तत्र-"तृतीये कूटे खण्डप्रपात-18
वैताब्बोच
रभरतव० | गुहाधिपतिर्देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तत् खण्डप्रपातगुहाकूटमित्युच्यते" इति न किमप्यनुपपन्नं, अथ तृती-MAIL-38 यादिकूटाधिपतीनां राजधान्यः क सन्तीति प्रश्नसूचकं सूत्रमाह-रायहाणीओ'त्ति, अत्र निर्वचनसूत्रम्, 'जंबुद्दीवे || दीवे' इत्यादि, जंबूद्वीपे द्वीपे इत्यादि सर्व व्यक्तम्, नवरं खण्डप्रपातगुहाधिपतेर्देवस्य राजधानी खण्डप्रपातगुहाभिधाना माणिभद्रस्य माणिभद्रेत्यादि, सर्वाणि चोक्तवक्ष्यमाणानि कूटानि एकैकवनखण्डपद्मवरवेदिकायुतानि मन्तव्यानि ।
से केणढणं भंते 1 एवं वुबइ वेमले पथए वेअड्डे पथए !, गोयमा ! वेअड्डे णं पथए भरहं वासं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठइ, तंजहादाहिणभरहं च उत्तरदृभरई च, वेअबृगिरिकुमारे अ इत्व देवे महिडीए जाव पलिभोवमद्विइए परिवसइ, से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुबह-वेअब्बे पथए २, भदुत्तरं च णं गोभमा ! वेयदृस्स पश्चयस्स सासए णामधेने पण्णत्ते जंण कयाइ ण आसि ण कयाइ ण अत्वि ण कयाइ ण भविस्सइ मुर्वि च भवइ अ भविस्सइ अ भुवे णिभए सासए अक्खए अबए अवहिए णिचे (सूत्र १५) कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरइभरहे णामं वासे पण्णत्ते ?, गोअमा ! चुल्हिमवंतस्स वासहरपवयस्स दाहिणे णं वेअदृस्स पवयस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स पञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एस्थ णं जंचुरीवे दीवे उत्तरदृभरहे णामं वासे प
दीप अनुक्रम [१५-१८]
| अथ उत्तरार्धभरतस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
~ 171~
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५-१६]
दीप
अनुक्रम
[१९-२०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......
श्रीजम्बू. १५
मूलं [१५-१६]
आगमसूत्र [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
or पापडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलिअंकसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरच्छिमिहार कोडीए पुरच्छिमि लवणसमुहं पुढे पचच्छिमार जाब पुढे गंगासिंधूहिं महाणईहिं विभागपविभत्ते दोणि अट्ठतीसे जोगणसए तिष्णि अ एगूणवीसइभागे जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरच्छिमपचच्छिमेणं अट्ठारस बाणउए जोअणसए सच व एगूणवीसइभागे जोभणस्स अनुभागं च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेणं पाइणपडीणाश्रया दुहा- लवणसमुदं पुट्ठा तदेव जाव चोइस जोअणसहस्साएं चचारि अ एकहत्तरे जोस छ एगूणवीसभाए जोगणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं पण्णत्ता, वीसे धणुपट्टे दाहिणेणं पोरस जोअणसहस्साई पंच अट्ठावीसे जोभणसए एफारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं । उत्तरद्रुभरद्दस्स णं भंते! वासस्स केरिसर आयारपडोयारे पण्णचे !, गोजमा ! बहुसमरमणिओजे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेद्र वा जाव कित्तिमेहिं चैव अकितिमेहिं चैव, उत्तरदृभरहे णं भंते! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपढोयारे पण्णत्ते ?, गोजमा । ते णं मणुआ बहुसंघयणा जाव अप्पेगइआ सिज्झति जाब सङ्घदुक्खाणमंत करेंति (सूत्रं १६ )
अथ वैतान्यनाम्नो निरुकं पृच्छति' से केणद्वेण 'मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे तु वैताढ्यः पर्वतः, णमिति प्राग्वत्, भारतं वर्ष भरत क्षेत्रं द्विधा विभजन् २ तिष्ठति, तद्यथा-दक्षिणार्द्धभरतं च उत्तरार्द्धभरतं च तेन भरत - क्षेत्रस्य द्वे अर्जे करोतीति वैताढ्यः पृषोदरादित्वाद्रूपसिद्धिः, अथ प्रकारान्तरेण नामान्वर्थमाह-अथ च वैताढ्यगिरिकुमारोऽत्र देवो महर्द्धिको यावत्करणात् 'महजुई' इत्यादिपदसङ्ग्रहः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन वैताढ्य इति
Fur Fate &P Cy
~ 172~
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [१], ---
-- मूलं [१५-१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५-१६]
दीप अनुक्रम [१९-२०]
श्रीजम्यू-18|नामाम्बर्थो विजयद्वारचं ज्ञेयः, सदशनामकस्वामिकत्वात् , 'अदुत्तरं च ण'मित्यादि प्राग्वत् । अथोत्तरार्जभरतवर्ष || वक्षस्कारे द्वीपशा- कास्तीति प्रश्नसूत्रमाह-'कहिण'मिस्सादि, दक्षिणार्द्धभरतसमगमकत्वेन व्यक, नवरं 'पलिअंक'त्ति पर्यस्यत् संस्थित
वैतात्यनिन्तिचन्द्री
रुतिः उत्तसंस्थानं यस्य तत्तथा, शते अष्टत्रिंशदधिके त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेनेति, अस्य शरस्तु प्राच्य-18 या वृत्तिः
रभरतका शरसहितस्वक्षेत्रविस्तारो योजनतः ५२६-६, कलास्तु १०००० । अथास्य बाहे आह-तस्स बाहा' इत्यादि, तस्योत्त-18 रार्द्धभरतस्य बाहा-पूर्वोक्तस्वरूपा पूत्रोपरयोर्दिशोरेकैका अष्टादश योजनशतानि द्विनवतियोजनाधिकानि सप्त चैकोन-18 विंशतिभागान योजनस्य अर्द्धभागं चैकोनविंशतितमभागस्य, योजनस्थाष्टत्रिंशत्तमभागमित्यर्थः, अत्र करणं यथा-गुरु धनुःपृष्ठ कलारूपं २७६०४२ अस्मात् २०४१३१ कलारूपं लघु धनुःपृष्ठ शोध्यते, जातं ७१९११, अझैं कृते जातं कला ३५९५५ कलार्द्ध च, तासां योजनानि १८९२ कलाः ७ कलार्द्ध चेति, एतच्चैकैकस्मिन् पार्थे बाहाया आयाममान । अथास्य जीवामाह-'तस्स जीवा उत्तरे ण'मित्यादि, तस्य जीवा-पागुक्तस्वरूपा उत्तरेण-क्षुद्रहिमवद्भिरिदिशि प्राची-18 नप्रतीचीनायता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा तथैव-दक्षिणार्द्धभरतजीवासूत्रवदेव 'जाव'त्ति 'पञ्चथिमिलं लवणसमुई पुढे'ति । पर्यन्तं सूत्रं ज्ञेयमिति भावः, 'चउद्दसत्ति चतुर्दश योजनसहस्राणि चत्वारि चैकसप्तत्यधिकानि योजनशतानि पहा |चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किश्चिद्विशेषोनान् आयामेन प्रज्ञप्ता, अब करणं यथा-कलीकृतो जम्बूद्वीपव्यासः १९M शून्य ५, इनितः १८९ शून्य ४, इषुगुणः १८९ शून्यः८, चतुर्गुणः ७५६ शून्य ८, एष उत्तरभरतार्द्धजीवावर्ग:, अस्य |
8090090099900000
॥८५॥
~173~
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----
-- मूलं [१५-१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५-१६]
वगमूल लब्धाः कलाः २७४९५४, शष कलाशाः २९७८८४ छदः ५४९९०८ लब्धकलानां १५ भागे योजन १४४७१||
उद्धरितैः शेषकलांशैर्मध्ये प्रक्षिप्तैः षष्ठी कला किश्चिद्विशेषोना विवक्षितेति । अथास्य धनु पृष्ठमाह-'तीसे' इत्यादि, तस्या उत्तरार्द्धभरतजीवाया दक्षिणपाचे धनुःपृष्ठं अर्थादुत्तरार्द्धभरतस्य चतुर्दश योजनसहस्राणि पश्च शतान्यष्टा
विंशत्यधिकानि एकादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण-परिधिना प्रशसमिति शेषः, अत्र करणं यथा-पर IS| उत्तरार्द्धभरतस्य कलीकृत इषुः १००००, अस्य वर्ग: १ शून्य ८, स च षड्गुणः शून्य ८, सोऽप्युत्तरार्द्धभरतजीवा
वर्गेण ७५६०००००००० इत्येवंरूपेण मिश्रितो जातः ७६२ शून्य ८,एष उत्तराईभरतस्य जीवावर्गः, अस्य मूले लब्धाः कलाः २७६०४३, शेष कलांशाः २६२१५१, छेदराशिः ५५२०२६, कलानामेकोनविंशत्या भागे १४५२८ १. अत्र
शानामविवक्षितत्वाकादशकलानां साधिकत्वसूचा, अत्र दक्षिणार्द्धभरतादिक्षेत्रसम्बन्धिारादिचतुष्कस्य सुखेन परिज्ञानाय यन्त्रकस्थापना यथाक्षेत्र. शर०
जीवा० दक्षिणभरतार्द्ध २३८ योजनभागः।
९७३८ योज०१३ ९७६६ योजनभागः वैताग्यपर्वतः २८८ योजनभागः ४८८ योज० १०७२० योज०३१०७४३ योजनभागः4 उत्तरभरतार्द्ध ५२६ योजनभागः १८९२ योज० १४४७१ योज.. १५५२८ योजनभागः1
रिटceaeatlesceceaelaersectice
दीप अनुक्रम [१९-२०]
2208000000000000crease
बाहा.
धनु:पृष्ठं
~174~
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---
-- मूलं [१५-१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
occccess
[१५-१६]
दीप अनुक्रम [१९-२०]
श्रीजम्बू-8 एषा च शरादीनां करणविधिः प्रसङ्गतोऽत्र दर्शितः, अतः परमुत्तरत्र क्षुद्रहिमवदादिसूत्रेषु स न दर्शयिष्यते विस्त- श्वधस्कारे द्वीपशा- रभयात्, तजिज्ञासुना तु क्षेत्रपिचारवृत्तितो ज्ञेय इति । अथोत्तरार्द्धभरतस्वरूपं पृच्छति-'उत्तरभरहस्स 'मित्यादि |
शनिवऋषमकटान्तिचन्द्रीव्यकं, अत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छति-'उत्तरहृभरहे' इत्यादि, इदमपि प्राग्वत्, यावदेके केचन सर्वदुःखानामन्तं कुर्व
विकार सू. या चिः
न्तीति । नन्वत्रत्यमनुष्याणामईदाद्यभावेन मुक्त्यङ्गभूतधर्मश्रवणाद्यभावात् कथं मुक्त्यवाप्तिसूत्रमौचित्यमञ्चति इति ॥८६॥शचेत् १, उच्यते, चक्रवर्तिकाले अप्रावृतगुहायावस्थानेन (स्वयं गमनात्) गच्छदागच्छद्दक्षिणार्द्धभरतवासिसाध्वादिभ्यो
वाऽग्यदाऽपि विद्याधरश्रमणादिभ्यो वा जातिस्मरणादिना वा मुक्त्यङ्गावाप्तेर्मुक्त्यवाप्तिसूत्रमुचितमेवेति । अर्थतत्-13 |क्षेत्रवर्तिऋषभकूट कास्तीति पृच्छति
कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरढमरहे वासे उसमकूढे णाम पवए पण्णते ?, गोअमा ! गंगाकुंडस्स पचत्यिमेणं सिंधुकुंडस्स पुरच्छिमेणं चुलहिमवंत्तस्स वासहरपवयस्स दाहिणिल्ले णितंबे, एल्थ ण जंबुद्दीवे वीवे उत्तरभरहे वासे उसहकूडे णाम पचए पण्णत्ते, अट्ठ जोषणाई उड्डे उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उमेहेणं, मूले अट्ठ जोषणाई विक्खंभेणं मझे छ जोषणाई विक्खमेणं
बयप्युत्तरभरतार्यक्षेत्रे तीदायभायेन अनार्यदेशोत्पनत्वेन च तत्रत्यानां मनुजानां धर्मप्राप्तिसामन्यभावः तथापि देखनमस्कारादिप्रयोजनबसेन तत्रगताना विद्याधराविसाधूनां जिनप्रतिमानां च दर्शनतः कर्मणां क्षयोपशामवैचित्र्यात् भाईकुमारादय इव जातजातिस्मृतयः चक्रवत्यादिकाले च तत्रोपमा अपीह | ॥८६॥ वीर्यदादिसमीपे धर्मधषणादिनाध्याप्तबोधयः तचाविषभन्यत्वपरिपाकवनावाप्तकेवलज्ञानासानापि सिर्षति यावनिर्वान्ति नात्र किंचिद्वापक, न चानार्थदेशोत्पिमत्वमेव तत्र वाचकमिति वाच्य, आद्रकुमारादेवकवसिंत्रीणां च सम्यक्त्वादिप्राप्तिधुतेखस्याबायकत्वात् । (श्रीहीर-पत्ती०) . .
| अथ उत्तरार्धभरते स्थित रुषभकूटस्य स्वरुपम् ---
~ 175~
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
उवरि चचारि जोषणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाई पणवीसं जोषणाई परिक्खेवणं मज्झे साइरेगाई अट्ठारस जोभणाई परिक्खे-. वेणं उवरि साइरेगाई दुवालस जोअणाई परिक्खेवणं, पाठान्तर-मूले बारस जोमणाई विक्वंमेणं मझे अह जोमणाई विक्वंभेर्ण उप्पिं चत्तारि जोषणाई विक्खंभेणं मूले साइरेगाई सत्तत्तीस जोअणाई परिक्खेवेर्ण मझे साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं उम्पिं साइरेगाई वारस जोअणाई परिक्लेवेणं, मुले विच्छिण्णे मज्झे संक्विचे उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबजंबूणयामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे, से णं एगाए पउमवरवेइआए तहेव जाव भवणं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसऊणं कोसं उर्दू उच्चत्तेणं, अहो तहेव, उप्पलाणि पउमाणि जाव उसमे अ एत्थ देवे महिड्डीए जाब दाहिणेणं रावहाणी तहेव मंदरस्स पवयस्स जहा विजयस्स अविसेसिब (सूत्र १७)
'कहिं णमित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटो नाना पर्वतः प्रज्ञप्तः 1, भगवानाहगीतम! गङ्गाकुण्डस्य यत्र हिमवतो गङ्गा निपतति तद्गङ्गाकुण्ड तस्य पश्चिमायां, यत्र तु सिन्धुर्निपतति तत् । सिन्धुकुण्डं तस्य पूर्वस्या, क्षुलहिमयतो वर्षधरस्य दाक्षिणात्यनितम्बे, सामीपकसतम्या नितम्बासले इत्यर्थः,18 अत्र प्रदेशे जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटो नाम्ना पर्वतः प्रज्ञप्तः, अष्टयोजनान्यूझेञ्चत्वेन में योजने 8 | उद्वेधेन-भूमिप्रवेशेन, उच्चत्वचतुर्थाशस्य भूम्यवगाढत्वात् , अष्टानां चतुर्थाशे द्वयोरेव लाभात्, मूलमध्यान्तेषु 18 क्रमादष्ट षट् चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन-विस्तरेण उपलक्षणत्वादायामेनापि, समवृत्तस्यायामविष्कम्भयोस्तुल्यत्वा-8 18 दिति, तथा मूलमध्यान्तेषु पंचविंशतिरष्टादश द्वादश च योजनानि सातिरेकाणि परिक्षेपेण-परिधिना, अथास्य 8
दीप
अनुक्रम [२१]
20000000000000000
30000000000002023280020200000
~ 176~
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
१७
[१७]
दीप
श्रीजम्बू- पाठान्तरं-वाचनाभेदस्तद्गतपरिमाणान्तरमाह-मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्ट योजनानि विष्कम्भेन ६ वक्षस्कारे द्वीपशा-18 उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन, अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं मूलमध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक ऋषभक्टान्तिचन्द्री18 सुबोधं । अत्राह परः-एकस्य वस्तुनो विष्कम्भादिपरिमाणे द्वैरूप्यासम्भवेन प्रस्तुतग्रन्थस्य च सातिशयस्थविरमणी
धिकारः मू. या वृत्तिः
तत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः, यदेकस्यापि ऋषभकूटपर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादि पुनस्तत्रैवास्य द्वादशा॥८७॥ दियोजनविस्तृतत्वादीति, सत्यं, जिनभट्टारकाणां सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेव मतं मूलतः, पश्चातु कालान्तरेण
विस्मृत्यादिनाऽयं वाचनाभेदा, यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिज्योतिष्करण्डकवृत्ती-"इह स्कन्दिलाचार्यप्रथ(तिप)त्तौ | दुषमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे मुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः ॥४॥ संघमेलापकोऽभवत् , तद्यथा-एको वलभ्यामेको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृत-181 योहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा २ संघटने भवत्यवश्य वाचनाभेद" इत्यादि, ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिषिष्टमतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुषैरिति न काचिदनुपपतिः, 18 | किश्व-सैद्धान्तिकशिरोमणिपूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतक्षेत्रसमाससूत्रे उत्तरमतमेव दर्शितं, यथा-सवेवि 810८७ ॥ उसहकूडा उषिद्धा अट्ठजोयणे हुँति । बारस अहम चउरो मूले मझुवरि विच्छिण्णा ॥१॥" 'भूले विच्छिपण' इत्यादि शेषवर्णकः प्राग्वत् । अथास्य पावरवेदिकाबाह-से गं एगाए' इत्यादि, स ऋषभकूटाद्रिरेकया पञ्चबर-15
अनुक्रम [२१]
Slimitenni
~ 177~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
---- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
बेदिकया तथैवेति-यथा सिद्धायतनकूटवर्णकः प्रागुक्तस्तथाऽत्रापि वकव्य इत्यर्थः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावद्भवनंऋपभाख्यदेवस्थानं, स चार्य 'एगेण य वणसंडेण सपओ समंता संपरिक्खित्ते, उसहकूडस्स णं पम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाव विहरंति, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि-18 भागस्स बहुमज्झदेसभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते इति, अत्र व्याख्या पूर्ववत्, भवनमानं साक्षादेव सूत्रे दर्शयति-कोश-12 मायामेनार्द्धकोश विष्कम्भेन देशोनं क्रोश चत्वारिंशदधिकचतुर्दशधनुःशतरूपमूञ्चित्वेन, यद्यपि भवनमायामापेक्षया किशिफ्यूनोच्छ्रायमानं भवति प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति श्रीज्ञाताधमकथाङ्गवृत्त्यादी भवनप्रासादयोर्विशेषो 18
श्यते तथाप्यत्र तयोरेकार्थकत्वं ज्ञेयं, श्रीमलयगिरिसूरिभिःक्षेत्रसमासवृत्ती "एतेषां ऋषभकूटानामुपरि प्रत्येकमेकैकः मासादावतंसका, तेच प्रासादाः प्रत्येकमेकं कोशमायामतोऽर्द्धक्रोश विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमुखत्वेने" त्यत्रोक्तभव-18 मतुल्यप्रमाणतया ऋषभकूटेषु प्रासादानामभिधानादिति, अर्थो नामान्वर्थ ऋषभकूटस्य तथैवेति यथा जीवामिगमादी| यमकादीनां पर्वतानामुक्तस्तथात्रापि औचित्येन वक्तव्यः, तदभिलापसूत्रं तु 'उप्पलाणी'त्यादिना सूचितं तदनुसारेणेदं ।
'से केणद्वेण भंते । एवं बुखाइ-सहकूडपषए २१, गोअमा! उसहकूडपवए खुडासु खुडियासु याचीसु पुक्खरिणीसु18 Rजाय पिलपंतीसु बहूई उप्पलाई पाउमाई जाव सहस्सपत्ताई उसहकूडप्पभाई उसहकूडवण्णाभाई' इति, अत्र व्याख्या-18
मनसूत्र सुगम, उत्तरसूत्रे ऋषभकूटपर्वते क्षुहासु क्षुल्लिकासुवापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानि पद्मानि
ccceeरररररर
दीप
अनुक्रम [२१]
~ 178~
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१],
----- मूलं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
दीप
श्रीजम्प-18 यावत् सहनपत्राणि ऋषभकूटप्रभाणि-ऋषभकूटाकाराणि ऋषभकूटवर्णानि तथा ऋषभकूटवर्णस्येव आभा-प्रतिभासो वक्षस्कारे द्वीपशा- येषां तानि ऋषभकूटवर्णाभानि ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वात् तद्वर्णसादृश्याच ऋषभकूटानीति प्रसिद्धानि, मकूटान्तिचन्द्री- वयोगादेष पर्वतोऽपि ऋषभकूटः, उभयेषामपि नाम्नामनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, RI
धिकार सू. या वृतिः
एवमन्यत्रापि परिभावनीयं, प्रकारान्तरेणापि नामनिमित्तमाह-'उसमे अ'इत्यादि, ऋषभश्चात्र देवो महचिका, अत्र ॥४८॥ यावत्करणात् 'महज्जुईए जाव उसहकूडस्स उसहाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य आहेवचं
जाव दिवाई भोगभोगाई भुजमाणे विहराइ, से एएणडेणं एवं चह उसहकडपथए २' इति पर्यन्तः सूत्रपाठो ज्ञेयः अत्र व्याख्या पाग्वत् । दाहिणेणं इत्यादि, राजधानी ऋषभदेवस्य ऋषभा नानी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतस्तथैव ।। वाच्या यथा विजयदेवस्य प्रागुक्का, अविशेषित-विशेषरहितं, क्रियाविशेषणमेतत् , अस्या विजयायाः राजधान्याश्च नामतोऽन्तरं न त्वस्मिन् वर्णके इति भावः ॥ इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्सयमानऐदंयुगीननराधिप-11 तिचक्रवर्गिसमानश्रीअकब्बरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुअयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृ-18 विचहुमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्चपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपझोपासनाप्रवणमहोपाध्यायधीसकलच-1
न्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमयानाम्यां भरतक्षेत्रखरूपनि-1 हारूपको नाम प्रथमो वक्षस्कारः॥१॥ ग्रंथायं ११५८०२५
अनुक्रम [२१]
॥
८
॥
JinElemnitline
अत्र प्रथम-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~179~
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཙྪིནྡྲིཡཱ ཝཱ - ཛལླཱ ཡྻ
[२२-२६]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
-
वक्षस्कार [२],
मूलं [१८] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अथ द्वितीयो वक्षस्कारः
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे कतिविहे काले पण्णत्ते १, गो० । दुविहे काले पण्णचे, तंजा-ओसप्पिणिकाले अ उस्सप्पिणिकाले अ, ओसप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गो० !, छविदे पण्णत्ते, तं०- सुसम सुखमकाले १ सुसमाकाले २ सुसमदुस्समकाले ३ दुस्सममुसमाकाले ४ दुस्समाकाले ५ दुस्समदुस्समाकाले ६, उस्सप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पं० १, गो० छवि पण्णत्ते, सं० - दुस्समदुस्समाकाले १ जाब सुसमसुसमाकाले ६ । एगमेगस्स णं भंते । मुहुत्तस्स केवइया उत्सासद्धा विभाहिआ ?, गोभमा 1 असंखियाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिअति दुबइ संखिजाओ आवडिभाओ ऊसासो संखिजाओ आवलिमाओ नीसासो 'इरस अणवगहस्स, णिरुव किटुस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति. दुई ||१|| सत पाणू से थोवे, सन्त बोवाई से लबे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्वेत्ति आहिए || २ || तिणि सहस्सा सूत्त य सवा तेवत्तरं च ऊसासा। एस मुद्दत्तो भणिओ सोहिं अनंतनाणीहिं ॥ ३ ॥ पणं मुहुत्तप्पमाणेणं तीसं मुहुचा अहोरतो पण्णरस अहोरता पक्खो दो पवखा मासो दो मासा उऊ तिणि उऊ अयणे दो अयणा संबच्छरे पंचसंगच्छरिए जुगे बीसं जुगाई बाससए दस बाससयाई बाससहस्से सयं बाससदस्साणं वाससयसहस्से परासी वाससंयसहस्साई से एगे पुढंगे
सीई पुवंगसय सदस्साई से एगे पुणे एवं विगुणं विगुणं अवं तुडिए २ अडडे २ अपने २ हुए २ उप्पले २ पउमे २ लिणे २ अत्थणिउरे २ अउ २ नए २ पउए २ चूलिया २ सीसपहेलिए २ जाव चउरासी सीसपहेलिअंग सबसहस्साई साएगा सीसपद्देलिया एताब ताव गणिए एताव ताब गणिअस्स विसए तेण परं ओबनिए । ( सूत्रं १८ )
*** अत्र 'काल' स्वरुपम् वर्णनं क्रियते
Fu Frale & Pinunate Cy
अथ द्वितिय वक्षस्कार: आरभ्यते
~ 180~
९०eserenessessessesesex
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८]
या वृत्ति
गाथा:
श्रीजम्यू- अथ क्षेत्राण्यवस्थितानवस्थितकालभेदेन द्विधा जाननप्यत्र साक्षादवसर्पतः शुभान् भावान् वीक्ष्य पारिशेष्यात् २वक्षस्कारे
समयादिन्तिचन्द्रीद्वापक्षा-8 संभाग्यमानमनवस्थितकालं हृदि निधाय पृच्छति-'जंबुद्दीवे गं भंते !' इत्यादि, जम्बूद्धीपे द्वीपे भरतवर्षे भगवन । 18 कतिविधः कालः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! द्विविधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वसर्पति हीयमानारकतयाऽवस
कान्तव. यति वा-क्रमेणायु शरीरादिभावान हापयतीत्यवसर्पिणी स चासौ कालश्च २, प्रज्ञापकापेक्षया चास्या आदावुपन्यासः,18
IS|| सू. १८ क्षेत्रेषु भरतस्येव, उत्सर्पति-पीते आरकापेक्षया वर्धयति (वा) क्रमेणायुरादीन भावानित्युत्सर्पिणी स चासी कालच २,181 चकारद्वयं योरपि समानारकतासमानपरिमाणतादिज्ञापनार्थ, तदेव प्रश्नयति-'अवसर्पिणीकाल: कतिविधः प्रशसः 1,18॥
गौतम ! षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा सुनु-शोभनाः समाः-वर्षाणि यस्यां सा सुषमा 'नि:सुबेः समसूते (श्रीसि०१२-३ RI-५१)रिति पत्वं सुषमा चासी सुषमा च सुषमसुषमा-द्वयोः समानार्थयोः प्रकृष्टार्थवाचकस्वादत्यन्तसुषमा, एकान्तसुख-18
रूपोऽस्या एव प्रथमारक इत्यर्थः, स चासी कालश्चेति, द्वितीयः सुषमाकालः, तृतीयः सुषमनुष्पमा, दुष्टाः समा अख्या-8 मिति दुषमा, सुषमा चासी दुषमा च सुषमदुष्पमा सुषमानुभावबहुलाऽल्पदुष्षमानुभावेत्यर्थः, चतुर्थों दुषमसुषमा
दुधमा चासौ सुषमा च दुष्पमसुषमा, तुष्पमानुभावबहुलाऽल्पसुषमानुभावेत्यर्थः, पञ्चमो दुषमा षष्ठो दुष्पमदुपमाकाठः ॥८९॥ || निरुक्तं तु सुषमसुषमावत् , एवमुत्सर्पिणीसूत्रमपि भाव्य, परं पडपि काला व्यत्ययेन भाव्याः, यश्चावसर्पिण्या पष्ठः
कालो दुष्षमदुष्षमाख्यः स एवात्र प्रथमो यावत् सुषमसुषमाकालः षष्ठ इति । अथ द्विविधस्थापि कालस्य परिमाण ।
दीप अनुक्रम २२-२६]
~ 181~
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१८]
गाथा:
जिज्ञासुस्तन्मूलभूतकालविशेषप्रश्नायोपक्रमते-'एगमेगे'इत्यादि, एकैकस्य मुहूर्तस्य भगवन् ! कियत्य उच्छासाद्धाउच्छासप्रमितकालविशेषा व्याख्याताः, एकस्मिन् मुहूर्ते कियन्त उच्छासा भवन्ति, उच्डासशब्देनात्रोपलक्षणत्वावुच्छासनिःश्वासाः समुदिता गृह्यन्ते, अत्रोत्तरम्-असद्धयेयानां समयप्रसिद्धपटशाटिकापाटनदृष्टान्तप्रज्ञापनीयस्व-18 रूपाणां परमनिकृष्टकालविशेषाणां समयानां समुदया-वृन्दानि तेषां याः समितयो-मीलनानि तासां समागमः-स-1
योग एकीभवनं तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सा एका जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकसमयप्रमाणा आवलिका इति संज्ञया । 1 मोच्यते जिनैरिति शेषः, यद्यप्यसांव्यवहारिकत्वेन समयावलिके उपेक्ष्य प्रश्नसूत्रे मुहूर्वोच्छ्रासादिपृच्छा तथापि
केवलिप्रज्ञायाः यावदवधिपर्यन्तं धावनादुच्छासादीनां तन्निरूपणाधीननिरूपणत्वाचाचार्यस्य तयोनिरूपणं युक्तिम-1 दिति, नन्वेतवुत्लवमानमण्डूकैगोंकलिञ्जभरणे यतः पूर्वसमयसदावे उत्तरसमयस्यानुत्पन्नत्वेनोत्तरसमयसमा पूर्वस-1
मयस्य विनष्टत्वेन किमिह समुदयसमितिसमागमः सङ्गच्छते येनासङ्ख्याततत्पिण्डात्मकता आवलिकादीनां प्रोच्यते । IS अयं हि समुदयादिधर्मो विमानस्निग्धरूक्षपुद्गलादीनां न कालस्येति, सत्यं, यं यं कालविशेष प्ररूपयितुकामेन प्रज्ञा-ISI
पकपुरुषविशेषेण यावन्तो यावन्तः समया एकज्ञानविषयीकृतास्तावन्तस्ते समुदयसमितिसमागता उपचर्यन्ते, अत एवायमीपाधिकः कालो न वास्तव इति न काचिदनुपपत्तिः, सोया आवलिका उच्छास:-अन्तर्मुखः पथन: सोया आवलिका निःश्वासो-बहिर्मुखः पवनः, सङ्ख्यत्वोपपत्तिश्चैवम्-षट्पश्चाशदधिकशतद्वयेनावलिकानामेकं -
दीप अनुक्रम २२-२६]
~ 182~
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
सूत्रांक
द्वीपशा
वक्षस्कारे समयादिशापमहाल कान्तव. .
[१८]
गाथा:
कभवमहणं भवति, तानि च सप्तदश सातिरेकाणि उच्छासनिःश्वासकाल इति । अथ यादशैरुच्छासमुद्वर्तमान |
स्यात् तथाऽऽह-दष्टय-पुष्टधातोरनवकल्पस्य-जरसाऽनभिभूतस्य निरुपक्लिष्टस्य-व्याधिना प्राक साम्पत वाऽनभिभू- न्तिचन्द्री- ॥ तस्य मनुष्यादेरेकः उच्छासेन युक्तो निःश्वासः उच्छासनिःश्वासो य इति गम्यते एष प्राण इत्युच्यते, धातुहानिज- या वृत्तिः
रादिभिरस्वस्थस्य जन्तोरुग्छासनिःश्वासस्त्वरितादिस्वरूपतया न स्वभावस्थो भवत्यतो दृष्टादिविशेषणग्रहणं, सप्त ॥९॥ प्राणाः सूत्रे च उत्वं क्लीवत्वं च प्राकृतत्वात् , उच्छासनिःश्वासा ये इति गम्यते स स्तोक इत्युच्यते, एवं सप्त स्तोका
ये स लवः, लवानां सप्तसप्तत्या एषः-अधिकृतो यज्जिज्ञासया तव सम्पति प्रश्नावतार इत्यर्थः, मुहूर्त इत्याख्यातः, अथ सप्तसप्ततिलवमानतया सामान्येन निरूपितं मुहूर्तमेवोच्छाससङ्ख्यया विशेषतो निरूपयितुमाह-'तिण्णि' इत्यादि, अस्या भावार्थोऽयं-सक्षभिरुच्छासैः स्तोका, ते च लवे सप्त, ततो लवः सप्तभिर्गुणितो जाता एकोनपश्चाशत् , मुहूर्ते च सप्तसप्ततिलेवा इति सा एकोनपञ्चाशद्गुणितेति जातं मुहू उरलासाना मान, अत्राप्युपलक्षणत्वादुच्छ्रासनिःश्वासानां समुदितानां मानं ज्ञेयं, सर्वैरनन्तज्ञानिभिरित्यनेन सर्वेषां जिनानामेकवाक्यताज्ञापनेन सदृशज्ञानित्वं सूचितं,
न तु साम्मत्यदर्शनं कृतं, तस्य विश्वासमूलकत्वेन श्रद्धालु प्रत्यसम्भाव्यमानत्वात् , अथ यदर्थ मुहर्रादिप्रश्नस्तान हामानविशेषान् प्रज्ञापयन् द्विविधकालपरिमाणज्ञापनायोपक्रमते-'एएणं महत्त'इत्यादि, एतेन-अनन्तरोदितेन महर्ग-1
प्रमाणेन त्रिंशन्मुहर्ता अहोरात्रः पश्चदशाहोरात्राः पक्षः द्वौ पक्षौ मासः द्वौ मासौ ऋतुः त्रय ऋतवोऽयनं वे अयने संव
53920000000000
दीप अनुक्रम २२-२६]
॥९
॥
पर
~ 183 ~
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----------
मूलं [१८] + गाथा:
(१८)
।
प्रत
सूत्रांक
सरः पश्शसंवत्सरिक युगं विंशतियुगानि वर्षशतं, विंशतः पञ्चगुणितायाः शतत्वात् , दश वर्षशतानि वर्षाणां सहस्र, ॥३॥ शशतं वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रं लक्षमित्यर्थः, चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्वाङ्ग, अतः परं || लक्षाणां चतुरशीत्या गुणकारसंख्यास्थानानां सप्तविंशतिसंख्यानां (सभा), तथाहि-चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसह-19 वाणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्व, पूर्वाङ्गलक्षाणां चतुरशीत्या गुणितं पूर्व भवतीति भावा, तद्वर्षमानं चैतत्-"पुषस्स 31
ज परिमाण सरि खलु हुंति कोडिलक्खाओ । छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धबा वासकोडीणं ॥ १॥" स्थापना ७०५६-11 181०००००००००० एवमिति-पूर्वाङ्गपूर्वन्यायेन संख्यास्थानमुत्तरोत्तरं त्रुटितानं त्रुटितमित्यादि तदङ्गतल्लक्षणभेदाभ्यां
| द्विगुणं २-द्विसंख्या २ ज्ञातव्यं, अयमाशयः-सूत्रे एकत्वेन निर्दिश्यमानानि १३ संख्यास्थानानि लाघवधानसूत्रे
[१८]
DOGrosao299990000acebraer
गाथा:
tea
| उपत्वेऽपि स
१ विगुणं विगुण-प्रधानं प्रधानं यथोत्तर प्रकर्षषयथा स्यात्तथा, कियाविशेषण, यथा पूर्वानापेक्षया पूर्व प्रधान तथा पूर्वापेक्षया श्रुटिता प्रधान तदपेक्षया अटित मियादि यापछी प्रहेलिका सर्वप्रधानं बहुतरपदार्थविषयत्वात, यद्वा विगुण-गुणरहितमनाविधिदसंकेतमात्रयशादेव विवक्षितसंख्याभिधायकं न पुननयोदशषोडशसपादपातादिवगुणनिष्पर्ष, तथा च यथा पूर्वार्थ पूर्व च तथा बुटितादिषदकदम्बकमपि ज्ञातव्यं, वीप्या, त्रुटितादिपवानामपि बहुतात् प्रत्ययतारकपत्मअप सान्यमलाभावाच, ननु अंग तावस्कारणं तप कायेसापेक्षमिति, पूर्वस्यांग-कारणं पूर्वाशमिति निक्खा , पूर्वाशस चतुरीतिलक्षगुणकारेणेव पूर्वसंख्याया जायमानलात साम्यर्थ तेति चेत्, मैवं, पूर्वपदस्यैव सान्यताया अभाचे कथं तत्कारणस्य सान्वर्धतेत्याकूतात , केचित्तु विपूर्ण विगुणमिति पाठमभ्युपगम्य दिगुणं द्विगुण-विभेदं विभेदमिति वदंति, तेषां इदमाकूतं यथा-पूर्वानं पूर्व चेति द्वौ भेदौ तथा त्रुटिता विष्वपि त्रुटिता बुटितमिति द्वी भेदी बचायी यावपछी पत्रदेलिकांगं शीर्षप्रलिका घेति, परमेतत्पाठावलोकने यतनीयमिति । (हीर. वृत्ती)
दीप अनुक्रम २२-२६]
।
श्रीम,111
~ 184 ~
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཏྠཾ + ཛཡྻཱ ཡྻ
[२२-२६]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ९१ ॥
-
मूलं [१८] + गाथा:
....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
गेत्थमाह, न चेदं सूत्रं एषां द्विगुणकार भ्रमजनकं भाव्यं, चतुरशीतिगुणकारस्यानन्तरमेवोक्तत्वात्, अथैषा शब्दसंस्कारमात्रं त्रुटिता त्रुटितं १ अडडा १ अडर्ड २ अववाङ्गं अवनं ३ हुहुका हुहुकं ४ उत्पलाई उत्पलं ५ पद्मा पद्मं ६ नलिनाङ्गं नलिनं ७ अर्थनिपूरा अर्थनिपूरं ८ अयुताङ्गं अयुर्त ९ नयुताङ्गं नयुतं १० प्रयुताङ्गं प्रयुतं ११ चूलिका चूलिकं १२ शीर्षप्रहेलिका- यावच्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राणि यानि सा एका शीर्षप्रहेलिका १३, अस्याः स्थापना यथा ७५८२६३२५३०.७३०१०२४११५.७९७३५६९९७५.६९६८९६२१८९.६६८४८०८०१८.३२९६ १] वलभीवाचनानुगतस्तु ज्योतिष्करंबेऽन्यथाऽपि रखते तथाहि पूर्वानं १ पूर्व २ ला ३ ता ४ महालतांगं ५ महालता ६ महिना ७ नविनं ८ महानलिनां महान लिनं १० पद्म ११ प १२ महापद्मा १२ महापद्म १४ मा १५ कम १६ महाकमा १७ महाकमले १८ कुमुदा १९ कुमुदं २० महाकुमुद २१ महाकुमुदं २२ त्रुटिता २३ त्रुटितं २४ महात्रुटितांगं २५ महात्रुटितं १६ अटटा २७ ट २८ महाअट २० महाल ३० कहांगे ११ कई ३२ महोहांगं ३३ महोदं २४ सीप्रहेलिका ३५ शीर्षप्रहेलिका ३६ चेति, न चात्र सम्मोहः कर्तव्यः, दुर्भिक्षादिदोषेण श्रुतद्दान्या यस वाद स्मृतिगोचरीभूतं तेन तथा सम्मतीस लिखितं, तब लिखनमेकं मधुरायामपरं च वराभ्यामिति यदुकं ज्योतिष्करंडवृत्तावेव "इह स्कंदिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमाभावतो दुर्निवृत्या साधूनां पठनगणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुमिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयो मैकापकोऽभवत् तद्यथा-एको पलभ्यां एको मथुरायां तत्र सूत्रार्थं संघटने परस्परं वाचनाभेो जातः, विस्मृतयोहिं सूत्रार्थयोः स्मृत्वा २ संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदों' इति न काचिदनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानों वर्तमानं माथुरवाचनानुगतं, ज्योतिष्करंडसूत्रकर्ता त्वाचार्यो वालभ्यः, तत इदं संख्यास्थानप्रतिपादनं वाखभ्यवाचनानुगतमिति नास्वानुयोगद्वारप्रतिपादितसंख्यास्थानैः सह विशखमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति, तथाऽनुयोगद्वारे प्रयुतनयुतयोः परावृत्तिरप्यस्तीति । (हीर वृत्ती)
F Frale & Puna e Cy
~ 185 ~
२वक्षस्कारे समयादि
प्ररूपणा सू. १८
॥ ९१ ॥
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८]
गाथा:
S! इति चतुःपश्चाशदताः अग्ने च चत्वारिंशं शून्यशतं, तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्णवत्यधिकशतसमयान्य-14 IS| स्थानानि भवन्ति, इदं च माथुरवाचनानुगतानुयोगद्वारादिसंवादिसंख्यास्थानप्रतिपादन ज्योतिष्करण्डप्रकीर्णकेन सह ||
विसंवदति, परं न विचिकित्सितव्यं, वालम्यवाचनानुगतत्वात् तस्य, भवति हि वाचनाभेदे सूत्रपाठभेद इति, तत्सं-18 18 वादिशीर्षप्रहेलिकास्थापना त्वेवंरूपा ज्ञेया यथा-१८७५५१७९५५.०११२५९५४१९.००९६९९८१३४.३९७७० १७९७४६.५४९४२११९७७.७७७४७६५७२५.७३४५७१८६८१.६. इति सप्ततिरक्का अग्रे चाशीत्यधिकं शून्यशत, 19
तदेवं ज्योतिष्करण्डोक्तशीर्षप्रहेलिकायां पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्याभ्यङ्कस्थानानि भवन्ति, अत्र तत्त्वं केवलिनो विद-10 न्तीति, अनेन चैतावता कालमानेन केषांचिद्रलप्रभानारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां सुषमदुष्पमारकसंभषिनां नरतिरश्चा च यथासम्भवमायूंपि भीयन्ते, एतस्माच परतोऽपि सर्षपचतुष्पल्यमरूपणागम्यः संख्येयः कालोऽस्ति, किन्त्वनतिशा
यिनामसंव्यवहार्यत्वान्नेहोक्तः, एतदेवाह-एतावद्-इयन्मानं तावदिति प्रक्रमार्थे कालगणितं, समयतः प्रभृति शीर्षप्रहे-/ ॥४ालिकापर्यन्तं संख्यास्थानमित्यर्थः, एतावान्-शीर्षप्रहेलिकाप्रमेयराशिपरिमाणो गणितस्य विषयो-गणितगोचर आयु:
स्थित्यादिकालः, कुत इत्याह-ततः परं-शीर्षप्रहेलिकातः परं उपमया निवृत्तमौपमिक, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाण-18| मनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदोपमिकमिति भाषः, सूत्रे च तृतीया पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वात् । तदेव प्रष्टुमाहसे कि त उवमिए !, २ दुविहे पण्णत्ते, संजहा पलिओवमे असागरोवमे अ, से किं तं पलिओवमे !, पलिओवमस्स परूवर्ण करिस्सामि,
दीप अनुक्रम [२२-२६]
| अथ औपमिक-काल-स्वरूपं वर्ण्यते
~ 186~
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
----------------------- मूल [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीयो वृतिः
सूत्रांक [१९]
वक्षस्कारे पल्यापमप्ररूपणा .१९
Lectaeseices
+3
॥१२॥
गाथा:
परमाणू दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ वावहारिए अ, अर्णताणं सुहुमपरमाणुपुगालाणं समुदयसमिइसमागमेणं बाबहारिए परमाणु णिएफजइ तत्व णो सत्यं कमइ-'सत्येण सुतिक्खेणवि छेतुं मित्तुं च ज फिर ण सभा । सं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥१॥ वावहारिअपरमाणूणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्साहसहिआइ वा सण्डिसहिआइ वा उद्धरेणूइ वा तसरेणूइ वा रहरेणूइ वा वालग्गेइ वा लिक्खाइ वा जूआइ वा जमाझेह वा उस्सेइंगुले इ वा, अट्ट उस्सण्डसहिआओ सा एगा सहसण्हिया अट्ट सण्ड्सहिआओ सा एगा उद्धरेणू अह लोमोसा एगा तसरेणू अट्ट तसरेणूओ सा एगा रहरेणू अहरहरेणूओ से एगे देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साणं बालगे अट्ठ देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साण वाळमगा से एगे हरिवासरम्मयवासाण मणुस्साणं वालग्गे एवं हेमक्यहेरण्णक्याण मणुस्साणं पुषविदेशवर विवेहाणं मणुस्साण वालग्गा सा एगा लिक्खा अट्ट लिक्खाभोसा एगा जूभा जह जूभाओ से एगे जवमझे अह जवमझा से एगे अंगुले एतेणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ वारस अंगुलाइ वित्थी चउबीसं अंगुलाई रयणी भक्षयालीसं अंगुलाई कुच्छी छण्णउद् अंगुलाई से एगे अक्खेइ वा दंडेइ वा धणूह वा जुगेड या मुसलेइ वा णालिआइ वा, एतेणं घणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई गाउ चत्तारि गाउआई जोअण, एएणं जोअणपमाणेणं जे पाले जोअणं आयामविक्वंभेणं जोयणं उर्दु वर्ण तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णे पल्ले एपाहिजबेहियतेहिअ उकोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संमढे सणिचिए भरिए वालग्गकोडीणं ते णं वालग्गा णो कुत्थेना णो परिविद्धंसेजा, णो अग्गी डहेजा, णो वाए हरेजा, णो पूइत्ताए हबमागच्छेजा, तभो णं वाससए २ एगमेगं वालम्ग अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जीरए णिवे णिट्ठिए भवइ से तं पलिमोवमे । एएसि पहाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिा । तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं ॥ १॥ एएणं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारि
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Reeseseseseseenese
॥९२
203930000
~187~
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
---------------------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९]
सागरोचमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा १ तिणि सागरोवमकोडाकोटीमो कालो सुसमा २ दो सागरोषमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुस्लमा ३ एगा सागरोवमकोढाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआ कालो दुस्समसुसमा ४ एकालीस वाससहस्साई कालो दुस्समा ५ एकवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा ६, पुणरवि उस्स प्पिणीए एकवीसं बाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा १ एवं पडिलोमं अर्थ जाव बचारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा ६, वससागरोवमकोगकोटीओ कालो
ओसप्पिणी ससागरोवमकोडाकोडीभो कालो उस्सप्पिणी वीसं सागरोवमकोढाकोडीओ कालो ओसप्पिणीचस्स प्पिणी । (सूत्रं१९) 'से किं तं ओवमिए !' इत्यादि, अथ किं तदोपमिकं १, अत्रोत्तर-औपमिक द्विविध प्रज्ञप्त, अनेन विधेयनिर्देशस्तेन न पौनरुक्त्याशङ्का, पल्येन वक्ष्यमाणस्वरूपेणोपमा यस्य तत्तथा, दुर्लभपारत्वात् सागरेण-समुद्रेणोपमा यस्य तत्तथा, उभयत्र चकारद्वयं तुल्यकक्षताद्योतनार्थ, तुल्यकक्षता चोभयोरप्यसंख्येयकालत्वसूचनार्थ, अथ किं तत् पल्यो|पम !, आचार्यस्तु पल्योपमप्ररूपणां करिष्यामीति, अनेन च क्रियारम्भसूचकवचनेन शिष्यस्य मनःप्रसत्तिः कृता भवति, अन्यथा ‘परमाणू दुविहे' इत्याविप्रक्रियाक्रमेण दरसाध्या पल्योपमप्ररूपणां प्रति सन्दिहानः शिष्योऽ-1%8 नाहतो भवेदिति, गुरोः शिष्यं प्रति वाचनादानेऽयमेष हि विधिः, यतः-"धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं। 8 पल्हायंतो अ मणं सीसं चोएइ आयरिओ ॥१॥" [धर्ममयैरतिसुन्दरैः उपनीतकारणगुणैः महादयंश्च मनः शिष्यं । नुदति आचार्यः ॥१॥] परमाणुद्धिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूक्ष्मश्च व्यावहारिकश्च, शस्त्रायविषयत्वादिको धर्म |
esentenceseseseae
गाथा:
दीप अनुक्रम [२७-३२]
FacReseree
Eleon01
~ 188~
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१९]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [२७-३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपक्षान्विचन्द्रीया वृत्तिः
॥ ९३ ॥
| उभयोरपीति समानकक्षताद्योतनार्थं प्रत्येकं चकारः, तत्र सूक्ष्मस्य कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥” इत्यादिलक्षणलक्षितस्यात्यन्तपरमनिकृष्टतालक्षणं स्वरूपमतिरिच्या परं वैशेषिकं रूपं न प्रतिपादनीयमस्तीति तं संस्थाप्यापरं स्वरूपतो निरूपयति - अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुरूपपुद्गलानां सम्बन्धिनो ये समुदयाः - त्रिचतुरादिमेलकास्तेषां याः समितयो - बहूनि भीलनानि तासां समागमेन - संयोगेन की भावे| नेतियावत् व्यावहारिकः परमाणुरेको निष्पद्यते, इदमुक्तं भवति निश्चयनयो हि निर्विभागं सूक्ष्मं पुनलं परमाणुमिच्छति, यस्त्वेतैरनेकैर्जायते तं सांशत्वात् स्कन्धमेव व्यपदिशन्ति, व्यवहारनयस्तु तदनेकसङ्घातनिष्पन्नोऽपि यः शस्त्र|च्छेदाग्निदाहादिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थूलभावाप्रतिपत्तेः परमाणुत्वेन व्यवहरति, ततीऽसौ निश्चयतः | स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिकः परमाणुरुक्तः, अयं च स्कन्धत्वात् काष्ठवत् छेदादिविषयो भवतीति वादिनं प्रत्याह-तत्र शस्त्रं न क्रामति-न सञ्चरति, असिक्षुरादिधारामाप्तोऽपि स न छिद्येत न च भिद्येतेत्यर्थः, यद्यनन्तैः परमाशुभिर्निष्पन्नाः काष्ठादयः शस्त्रच्छेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तस्यानन्तभेदत्वात्तावत्प्रमाणेन निष्पन्नोऽद्यापि सूक्ष्मत्वान्न | शखच्छेदादिविषयतामासादयतीति भावः, एतेनाग्निदाह्यता जलाईता गङ्गाप्रति श्रोतोविहन्यमानता जलकोधादिकं सर्वमपि निरस्तं मन्तव्यं, सर्वेषामपि तेषां सखत्वाविशेषात्, अन्त्रार्थे प्रमाणमाह-शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि छेतुं- खन्ना| दिना द्विधा कर्त्तुं भेत्तुं अनेकधा विदारयितुं सूच्यादिना वस्त्रादिवद्धा सच्छिद्रं कर्त्तु, वा विकल्पे, यं-पुनलादिविशेषं
Fur Prate&P Cy
~189~
२वक्षस्कारे पल्योपम
प्ररूपणा सू. १९
॥ ९३ ॥
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
སྐྲ - ཋལླཱ ཡྻ
骂
[२७-३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| किलेति निश्चये न शक्ताः, केऽपि पुरुषा इति शेषः, तं व्यावहारिकपरमाणु सिद्धा इव सिद्धा भगवन्तोऽर्हन्त उत्पन्न| केवलज्ञाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वचनयोगासम्भवादिति, आदि-प्रथमं प्रमाणानां वक्ष्यमाणोत्श्लक्ष्णलक्ष्णिकादीनामिति, एतेन श्रद्धालून् प्रति आगमप्रमाणमभिहितं, तर्कानुसारिणः प्रति प्रयोगः - अणुपरिमाणं कचिद्विश्रान्तं "तरतमशब्दवाच्यत्वात् महत्परिमाणवत्, यत्र च विश्रान्तं स परमाणुः, विपक्षे वस्तुनः स्थूलताऽपि नोपपद्यते, न च | व्यणुकादि नार्थान्तरमिति वाच्यं स च सिद्ध्यन् परमनिकृष्टो निरंश एव सिद्ध्येत्, अन्यथाऽनवस्था सर्षपसुमेर्वोस्तुल्यपरिमाणापसिश्च ततः सिद्धः परमाणुः, ननु सिद्ध्यतु सः सूक्ष्मत्वाच न चक्षुरादिगम्यः परं यदनन्तैः सूक्ष्मैः परमाशुभिरेको व्यावहारिकः परमाणुरारभ्यते स चक्षुराद्यगोचरः शस्त्रच्छेदाद्यगोचरश्चेति तन्मन्दं, उच्यते, द्विविधो हि पुलपरिणामः सूक्ष्मो बादरश्च तत्र सूक्ष्मपरिणामपरिणतानां पुगलानामनिन्द्रियकत्वमगुरुलघुपर्यायवत्त्वं शस्त्रच्छे| दाद्यविषयत्वमित्यादयो धर्मा भवन्ति तेन न काप्यनुपपत्तिः, श्रूयते चागमे पुङ्गलानामेवं सूक्ष्मत्वासूक्ष्मत्वपरिणामो यथा द्विमदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नभः प्रदेशे माति स एव च द्वयोरपि मातीति संकोचविकाशकृतो भेदः, दृश्यते च | लोकेऽपि पिञ्जितरुतपुञ्जलोहपिण्डयोः परिमाणभेदः, इत्यलं विस्तरेणेति, अथ प्रमाणान्तरलक्षणार्थमाह- अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणूनां समुदयसमिनिसमागमेन या परिमाणमात्रेति गम्यते सैका अतिशयेन श्लक्ष्णा लक्ष्णलक्ष्णा सेव | श्लक्ष्णलक्ष्णिका उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन लक्ष्णलक्ष्णिका उच्छलक्ष्णलक्ष्णिका, इतिरुपदशने वा उत्तरापेक्षया
Fur Fraternae Cy
~ 190 ~
tatatatatatatatatatsesesex
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९]]
श्रीजम्यू-
दीपशा- न्तिचन्द्री- या वृत्तिः ॥९॥
+
गाथा:
BO0sasaadawasacc00005
समुच्चये, एवं लक्ष्णलक्ष्णिकेति वा इत्यादिष्वपि वाच्यं, एते च श्लक्ष्णश्लक्षिणकादयोऽङ्गुलाम्ताः प्रमाणभेदा यथोत्तरम- श्ववस्कारे
गुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाणुकत्वं न व्यभिचरन्स्यतः निर्विशेषितमप्युक्त-सण्हसहिआइ वेत्यादि, प्राक्तन- परयोपमप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वेन स्थौल्यादूर्ध्वरेण्वपेक्षया त्वष्टभागप्रमाणत्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकेत्युच्यते, स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाध-18 स्तिर्यचलनधम्मों जालप्रविष्टसूर्यप्रभाभिव्यङ्गयो रेणुरूर्ध्वरेणुः प्रस्पति-पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स ।
सू.१९ त्रसरेणुः रथगमनात् रेणुः रथरेणुः वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः, देवकुरूत्तरकुरुहरिवर्षरम्यकादिनिवासिमानवानां | केशस्थूलताक्रमेण क्षेत्रशुभानुभावहानिर्भावनीया यावत्पूर्वविदेहापरविदेहाश्रयमनुष्याणामष्टी वालाप्राणि एका लिक्षा, ता अष्ट यूका, अष्टौ यूका एकं यषमध्यं, अष्टौ यवमध्यानि एकमङ्गुलं, एतेनाङ्गुलप्रमाणेनेति न तु म्यूनाधिकतया, पडलानि पादः-पादस्य मध्यतलपदेशः, पादैकदेशत्वात् पादः, अथवा पादो हस्त्रचतुर्थाशः, द्वादशाङ्गुलानि चितस्तिः | सुखावबोधार्थमेवमुपन्यासः, लापवार्थ तु द्वौ पादौ वितस्तिरिति पर्यवसितोऽर्थः, अन्यथा पादसंज्ञाया नैरर्थक्यापत्तिः, एवमग्रेऽपि चतुर्विशतिरडलानि रतिरिति सामयिकी परिभाषा, नामकोशादौ तु 'बद्धमुष्टिहस्तो रशिरिति, अष्टचत्वा-18 रिंशदङ्गलानि कुक्षिा, पण्णवतिरङ्गुलानि एकोऽक्ष इति वा-शकटावयवविशेषः दण्ड इति वा धनुरिति वा युगमिति | वा-बोढस्कम्धकाठं मुसलमिति वा नालिका इति वा-यष्टिविशेषः, अत्र च धनुषोपयोगा, संज्ञान्तराणि तु प्रसङ्गतोऽत्र लिखितानि अन्यत्रोपयोगीनीति, एतेन धनु-प्रमाणेन द्वे धनुःसहने गब्यूतं, चत्वारि गच्यूतानि योजन, एतेन योजन-1
दीप अनुक्रम [२७-३२]
~191~
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------
--------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९]
गाथा:
प्रमाणेन यः पल्यो-धान्याश्रयविशेषः स इव सर्वत्र समत्वात् , लुप्सोपमाकः शब्द इति, योजनमायामविष्कम्भाभ्यां समवृत्तत्वात् प्रत्येकमुत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नयोजन योजनमूर्बोच्चत्वेन, तद्योजनं त्रिगुणं सविशेष परिरयेण, वृत्तपरिघेः किञ्चित्यूनषड्भागाधिकत्रिगुणत्वात् , स पल्य 'एगाहिअबेहित्ति षष्ठीबहुवचनलोपादेकाहिकब्याहिकत्र्याहिकाणामुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढाना-सप्तदिवसोन्नतपर्यन्तानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाला यावत्प्रमाणा वालाग्रकोटय उत्तिष्टन्ति ता एकाहिक्यः, द्वाभ्यां तु यास्ता व्याहिक्याः, त्रिभिस्तु व्याहिक्यः, कथंभूत् । इत्याह-संमृष्ट' आकर्णपूरितः 'सन्निचितः' प्रचयविशेषानिविडीकृतः वालानामग्रकोटयः-प्रकृष्टा विभागा इत्यर्थः, | यद्वा वालानकोटीनामिति वालेषु-विदेहनरवालाद्यपेक्षया सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽमाणि-श्रेष्ठानि वालामाणि, कुरुनररोमाणि तेषां कोटयः अनेका:-कोटाकोटिप्रमुखाः सयाः स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंन्ति पुत्रान्" इत्यादिवत्, तथा बालानकोटीनामिति तृतीयार्थे पष्ठी यथा माषाणां भृतः कोष्ठ इति, तेन वालाग्रकोटीभिर्भूत इति सुखावबोधा-18
क्षरयोजना कार्या इति, वालाग्रसङ्ग्यानयनोपायस्त्वयं-देवकुरूत्तरकुरुनरवालानतोऽष्टगुणं हरिवर्षरम्यकनरवालाममिति, 18 यत्रैक हरिवर्षरम्यकनरवालाग्रं तत्र कुरुनरवालाग्राण्यष्ट तिष्ठन्ति, यत्र चैक हैमवतहरण्यवतनरवालामं तत्र कुरुनर|वालामाणि चतुःषष्टिः, एवं विदेहनरवालाले ५१२ लिक्षायां:४०९६ यूकायां ३२७६८ यवमध्ये २५२१४४ अङ्गुले - कृतः २०९७१५२, अत्राङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलं प्राचं, आत्माङ्गुलस्यानियतत्वात् प्रमाणाङ्गुलस्यातिमात्रत्वात् , अत्र सर्वत्र
Keeeeeeeeeeeeeeeee
teacacass
दीप अनुक्रम [२७-३२]
SSAGE
~192~
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
..............--------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९]]
न्तिचन्द्री
या पतिः
गाथा:
श्रीजम् 18 पूर्वप्रमाणापेक्षयोत्तरोत्तरप्रमाणस्याष्टाष्टगुणकारेणेयं सङ्ख्या समुत्तिष्ठति, अथायं राशिचतुर्विंशतिगुणो हस्तः चतुविश-६ २वक्षस्कारे द्वीपक्षा-8 त्यङ्गलमानत्वादस्य, स चैवं ५०३३१६४८ नामतः पञ्च कोटयस्त्रीणि लक्षाणि एकत्रिंशत्सहस्राणि पटू शताम्बष्टच- पस्योपमत्वारिंशदधिकानि, एप राशिचतुर्गुणो धनुषि, चतुर्हस्तमानत्वादस्य, अतः २०१३२६५९२ नामतो विंशतिः कोटव- प्ररूपणा
स.१९ त्रयोदश लक्षाणि पइविंशतिः सहस्राणि पश्च शतानि द्विनवस्यधिकानि, अयं द्विसहस्रगुणः क्रोशे, द्विसहनमानत्वादस्य, ॥९५॥18 अङ्कतो यथा-४०२६५३१८४००० नामतः चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते पश्चषष्यधिके कोटीनां एकत्रिंशल्लक्षाणि &
18 चतुरशीतिः सहस्राणि, पुनरयं राशिश्चतुर्गुणो योजने, चतुःक्रोशप्रमाणत्वादस्य, अङ्कत१६१०६१२७३५००० नामतः एक
लक्षमेकषष्टिः सहस्राण्येकपश्यधिकानि कोटीना तथा सप्तविंशतिलेक्षाणि पत्रिंशत्सहस्राणि, शचीगणनयैवेदं गणितं बोध्यं, अयं शूचीराशिरनेनैव गुणितः प्रतरसमचतुरनयोजने,शूच्या शूचीगुणिताया एव प्रतरत्वात् , अङ्कतः २५९४०७३३८
५११५४०५१९६००००० नामतो यथा पञ्चविंशतिः शतानि चतुर्नवत्यधिकानि कोटाकोटिकोटीनां तथा सप्त लक्षाणि || शत्रयस्त्रिंशत्सहस्राण्यष्ट शतानि त्रिपश्चाशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा पञ्चषष्टिलक्षाणि चत्वारिंशत्सहस्राणि पश्च शतान्ये
कोनसप्तत्यधिकानि कोटीना तथा पष्टिलक्षाणि, अयं राशिभूयः पूर्वराशिना गुणितो घनरूपो रोमराशिः स्यात् , तथाहि| अतः ४१७८०४७६३२५८८१५८४२७७८४५४४२५६०००००००००नामतः एकचत्वारिंशत्कोटयोऽष्टसप्ततिर्लक्षाणि चत्वारि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि कोटाकोटिकोटाकोटीनां तथा पञ्चविंशतिर्लक्षाण्यष्टाशीतिः सहस्राण्येक
दीप अनुक्रम [२७-३२]
HX॥ ९५
~ 193~
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཟླ - ཋལླཱ ཡྻ
骂
[२७-३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| शतमष्टपञ्चाशदधिकं कोटाकोटिकोटीनां तथा द्विचत्वारिंशलक्षाणि सप्तसप्ततिः सहस्राण्यष्ट शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा चतुश्चत्वारिंशलक्षाणि पञ्चविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि कोटीनामिति, अयं च राशिः समचतुरस्रघनयोजनप्रमितपल्यगतः समवृत्तधनयोजनप्रमित पल्यगतराश्यपेक्षया कियद्भागाम्यधिकस्तेनाधिक भागपातनार्थं सौकुमार्याय स्थूलोपायमाह - अनन्तरो तराशैश्चतुर्विंशत्या २४ भागे हते लब्धं १७४०८५११८०२४५०६६०११५७६८[ ९३४४००००००००० अयं चैकोनविंशत्या १९ गुणितः समवृत्तधनयोजनपल्यगतो राशिर्भवतीति, स चातो यथा ३३३०७५२१०४२४५५५, २५४२११९५०९१५३५००००००००० अयमर्थः - यादृशैश्चतुर्विंशत्या भागैः समचतुरस्रघनयोजन प्रमितपल्यगतो रोमराशिर्भवति तादृशेरेकोनविंशत्या भागैः समवृत्तघनयोजनप्रमितपस्यगतो राशिर्भवति, ननु चतुर्विंशत्या भागहरणमेकोनविंशत्या गुणनं च किमर्थ १, उच्यते, एकयोजनप्रमाणवृत्तक्षेत्रस्य करणरीत्यागतं योजन| त्रयमेकश्च योजनपड्भागः ३ सवर्णने च जातं " एतच वृत्तपल्यपरिधिक्षेत्रं, अनेन सह समचतुरस्रपल्यपरिधिक्षेत्रं चतुर्योजनरूपं गुण्यते, स्थापना यथा - अनयोः समच्छेदे लाघवार्थं द्वयोरपि छेदापनयने जातं १९-२४ | किमुक्तं भवति - समचतुरस्रपरिधिक्षेत्रात् वृत्तपरिधिक्षेत्रं स्थूलवृत्त्या पश्चभागन्यूनमिति तत्करणार्थोऽयमुपक्रम इति, स्थूलवृत्तिश्च योजनषडूभागस्य किञ्चिदधिकतया अविवक्षणात्, अथ प्रकृतं प्रस्तुमः - 'ते णमिति प्राग्वत्, तानि वालाग्राणि न कुथ्येयुः प्रचय विशेषाच्छुचिराभावाद्वायोरसम्भवाच नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः, अतो न परिविध्वंसेरन्
Fur Fate &P Cy
~ 194~
১
D
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------
---.............-------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
गाथा:
श्रीजम्प- कतिपयपरिशाटनमध्यङ्गीकृत्य न विध्वंसं गच्छेयुः अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति, तानि नाग्निदहेत न वायुरपहरेदतीवर पक्षस्कारे
र पस्योपमद्वीपशा- निचितत्वादग्निपचनावपि तत्र न क्रमेते इत्यर्थः, तानि च न पूतितया-पूतिभावं कदाचिदागच्छेयुः, न कदाचिहुर्ग
प्ररूपणा न्तिचन्द्री-|| धितां प्राप्नुयुरित्यर्थः, अथ केतिकर्तव्यता, तामेवाह-ततस्तेभ्यो वालाप्रेभ्योऽथवा 'तत' इति तथाविधपल्यभर-1|| या वृत्तिः
सू. १९ णानन्तरं वर्षशते २ एकैकं वालासमपहत्य कालो मीयेत इति शेषः, ततश्च यावता कालेन स पस्यः क्षीणो-वालामक॥९६॥
|पणात् क्षयमुपागतः आकृष्टधान्यकोठागारवत्, तथा (नीरजाः)-निर्गतरजःकल्पसूक्ष्मवालानोऽपकृष्टधाम्यरजाको-IN छागारवत्, निर्लेपोऽत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत्, निष्ठितोऽपनेतव्यख्या-18 पनयनमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत् , एकार्थिका वा एते शब्दा अत्यन्त विशुद्धिप्रतिपादन-18 पराः, वाचनान्तरे दृश्यमानं चान्यदपि पदमुक्तानुसारतो व्याख्येयं, तदेतत्पल्योपममिति, इदं च पल्यगतबालापाणां | सङ्ख्येयेरेव वर्षेसदपहारसम्भवात् संख्येयवर्षकोटाकोटीमानं बादरपल्योपमं ज्ञेयं, न चानेनान वक्ष्यमाणसुषमसुषमादिकालमानादावधिकारः, पर सूक्ष्मपल्योपमस्वरूपसुखप्रतिपत्तये प्ररूपितमिति ज्ञायते, तेन पूर्वोक्कमेकैकवालाप्रमसंख्येयखण्डीकृत्य भृतस्योत्सेधाञ्जलयोजनप्रमाणायामविष्कम्भावगाहस्य पल्यस्य वर्षशते २ एककवालानापहारेण सकलवाला- ॥९६ प्रखण्ड निर्लेपनाकालरूपमसोयवर्षकोटीकोटीप्रमाणं सूक्ष्मपल्योपम, विचित्राकृतिराचार्यस्येति सूत्रकारेणानुक्कमपि स्वयं ज्ञेयं, तेनैव च प्रस्तुतोपयोगा, अन्यथाऽनुयोगद्वारादिभिः सह विरोधप्रसङ्गादिति सर्व सुस्थं, एवमने सागरोपमेऽपि
930angacasassoc0000
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Jitennitinian
~ 195~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཝཱ + ཋམྦྷོཡྻ
骂
[२७-३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
श्रीजनू. १७
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
ज्ञेयं, अथ सागरोपमस्वरूपं गाथापद्येनाह - 'एएसिं पाणमित्यादि, एतेषामनन्तरोदितानां पत्त्यानामिति पर्दैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पल्योपमानां या दशगुणिता कोटाकोटिर्भवेत् तत्सागरोपमस्यैकस्य भवेत् परिमाणमिति, प्रायः सर्व कण्ठ्यं, नवरमेतेन सागरोपमप्रमाणेन न न्यूनाधिकेनेत्यर्थः चतस्रः सागरोपमकोटाकोव्यः कालः सुषमसुषमाप्राग्व्यावर्णितान्वर्था, अयमर्थः- चतुः सागरोपमकोटाकोटीलक्षणः कालः प्रथम आरक इत्युच्यते, 'बायालीस 'ति या च सागरोपमकोटाकोट्येका द्विचत्वारिंशत्सहस्रैरुनैवोनिका असी कालश्चतुर्थोऽरकः, सा दुष्पमासत्कैरेकविंशतिसहस्रैर्दुष्टमदुष्पमासत्कैरेकविंशतिसहत्रैश्च वर्षाणां पूरणीया, तेन पूर्णा कोटाकोव्येका भवति, अवसर्पिणीकालस्य दशसागरकोटाकोटी पूरिका भवतीत्यर्थः एवं प्रतिलोममिति - पश्चानुपूर्व्या ज्ञेयं, अवसर्पिणीयुक्ता उत्सर्पिणी अवसर्पिणीउत्सर्पिणी | कालचक्रमित्यर्थः । उक्तं भरते कालस्वरूपं, अथ काले भरतस्वरूपं पृच्छन्नाह - तत्राप्यवसर्पिण्या वर्त्तमानत्वेनादी सुषमसुषमायां प्रश्नः --
जंबुद्दीवे णं भंते दीवे भरहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तक पतार भरहस्त बासस्स केरिसए आवारभाव - पढोवारे होत्या ?, गो० ! बहुसमरमणि भूमिभागे होत्या से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवणेहिं तणेहि य मणीहि व उसोभए, संजहा- किन्हेहिं जाव सुक्किहहिं एवं बण्णो गंधो फासो सदो अ तणाण य मणीण व भाणिअडो, जाब सत्य णं बहवे मणुस्सा मणुस्सीओ अ आसयंति सति चिद्वंति जिसीअंति तुमर्हति हसंति रमंति छवि, तीसे णं समाए भरहे
Fur Ele&ione Oy
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १९ द्वि-वारान् मुद्रितं
~ 196 ~
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----
--------- मूलं [१९R] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
श्रीजम्यू-18 द्वीपना-1 न्तिचन्द्रीया वृचिः हा
२वक्षस्कारे सुपमसुषमाधिकारः मू.१९
9000000000000000
Resea
॥९
॥
गाथा:
वासे बहवे पहाला कुदाला मुराला कयमाला णट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संखमाला सेअमाला णामं दुमगणा पण्णता. कुसविकसविसुबाक्समूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीअमंतो पत्तेहि भ पुप्फेहि अ फलेहि अ उच्छष्णपरिच्छण्णा सिरीए आईव २ उक्सोमेमाणा चिट्ठति, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थं वहये भेरुतालवणाई हेरुतालवणाई मेहतालवणाई पभवालवणाई सालवणाई सरलवणाई सत्तिवण्णवण्णाई पूअफलिवणाई खजूरीवणाई णालिएरीवणाई कुसविफुसपिसुखरुक्खमूलाई जाव चिट्ठति, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्व तत्थ बहने सेरिमागुम्मा णोमालिआगुम्मा कोरंटयगुम्मा बंधुजीवगगुम्मा मणोजगुम्मा बीअगुम्मा बाणगुम्मा कणारगुम्मा कुन्जायगुम्मा सिंदुवारगुम्मा मोमारगुम्मा जूहिआगुम्मा मल्लिागुम्मा वासंतिभागुम्मा बत्थुलगुम्मा करयुलगुस्मा सेवालगुम्मा अगत्यिगुम्मा मगदतिमागुम्मा चंपकगुम्मा जातीगुम्मा णवणीइआगुम्मा कुंवगुम्मा महाजाइगुम्मा रम्मा महामेहणिकुश्वभूभा दसवणं कुसुमं कुसुमति जे णं भरहे वासे बहुसमरमणिजं भूमिभार्ग वायविधुअग्णसाला मुक्कपुष्फपुंजोक्यारकलियं करति, तीसे गं समाए भरहे वासे तत्थ तहिं तहिं बहुइओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिचं कुसुमिआओ जाव लयावण्णमओ, तीसे समाए भरहे वासे तत्व २ तहिं २ बहुइओ वणराइओ पण्णत्ताओ किण्हाओ किण्होभासाओ जाक मणोइराओ रयमत्तगछप्पयकोरगभिंगारगकोंडलगजीवंजीवगनंदीमहकविलपिंगलक्खगकारंडवचक्कवायगकलईसहंससारसमणेगसउणगणमिहुणविभरिमामो सहुणइयमहुरसरणाइनाओ संपिंढि णाणाधिहगुच्छ० चावीपुक्खरणीदीहिआसु असुणि विचित्त० अभि० साउन्त० णिरोगक० समोउअपुष्फफलसमिद्धाओ पिंडिमजावपासादीआओ ४, (सूत्रं १९)
दीप अनुक्रम [२७-३२]
॥९७॥
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १९ द्वि-वारान् मुद्रितं
~ 197~
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [२], ----
-------- मूलं [१९R] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
1. जम्बूद्वीपे भदन्त द्विीपे भरतक्षेत्रेऽस्यामवसर्पिण्या सम्पति या वर्तमानेति शेषः, सुषमसुषमानाच्या समाया कालविभागलक्षणायां अरके इत्यर्थः, किंलक्षणायामित्याह-उत्तमकाष्ठां-प्रकृष्टावस्था प्राप्तायां, कचिदुत्तमढपत्ताए इति || पाठस्तत्रोत्तमा तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानान-वर्णादीन प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता तस्या, भरतख वर्षस्य कीरश आकारभावप्र-|| त्यवतारः 'होत्य'त्ति अभवत् १, सर्वमन्यत् प्राग्व्याख्यातार्थ, नबरमत्र मनुथ्योपभोगाधिकारे शयनमुभयथापि सङ्गच्छते । निद्रासहितरहितत्वमेवात्, अथ सविशेषमनुजिघृक्षुणा गुरुणाऽपृष्टमपि शिष्यायोपदेष्टव्यमिति प्रश्नपद्धतिरहितं | प्रथमारकानुभावजनितभरतभूमिसौभाग्यसूचक सूत्रचतुर्दशकमाह-तीसे ण' मित्यादि, तखां समायां भरतवर्षे बहव। उहालाः कोद्दालाः मोद्दालाः कृतमालाः नृत्तमालाः दन्तमालाः नागमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमालाः श्वेतमाला नाम ।
दुमगणा-दुमजातिविशेषसमूहाः प्रज्ञप्तास्तीर्थकरगणधरैः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, ते च कथंभूता इत्याह-कुशा:-11 18दर्भा विकुशा-बल्वजादयस्तृणविशेषास्तैर्विशुद्ध-रहितं वृक्षमूल-तदधोभागो येषां ते तथा, इह मूलं शाखादीनामपि | आदिमो भागो लक्षणया प्रोच्यते यथा शाखामूलमित्यादि ततः सकलवृक्षसत्कमूलप्रतिपत्तये वृक्षग्रहणं, मूलमन्तः18 कन्दमन्त इति पदद्वयं यावत्पदसङ्ग्राह्यं च जगतीवनगततरुगणवद् व्याख्येयं, पत्रैश्च पुष्पैश्च फलैश्च अवच्छन्नप्रतिच्छन्ना इति प्राम्वत् श्रिया अतीवोपशोभमानास्तिष्ठन्ति-वर्तन्ते इति भावः, "सीसे पं समाए इत्यादि, तस्यां समायां बहूनि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , भेरुतालादयो वृक्षविशेषाः, कचित्प्रभवालवणा इति पाठस्तत्र पभवाला:-तरुविशेषाः
गाथा:
दीप अनुक्रम [२७-३२]
JoileanA
~ 198~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [२], ----
------------------ मुलं [१९R] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९R]
गाथा:
श्रीजम्यू- साल:-सर्जः सरलो-देवदारुः सप्तपर्णः प्रतीतस्तेषां वनानि पूगफली-कमुकतरुः खर्जूरीनालिकेयौं प्रतीते तासां|| वक्षस्कारे
वनानि शेष प्राग्वत् , 'तीसे णं' इत्यादि, तस्यां समायां बहवः सेरिकागुल्मा नवमालिकागुल्माः कोरण्टकगुल्माः बन्धु- सुषमसुषन्तिचन्द्री-18
जीवकगुल्माः यत्पुष्पाणि मध्याहे विकसन्ति, मनोऽवद्यगुल्माः बीअकगुल्माः वाणगुल्माः करवीरगुल्माः कुब्जगुल्माःमाधिकारः या वृत्तिः
18|सिंदुवारगुल्माः [जातिगुल्माः] मुद्गरगुल्माः यूथिकागुल्माः मल्लिकागुल्माः वासंतिकगुल्माः वस्तुलगुल्माः कस्तुलगुल्माः ॥९८॥18 सेवालगुल्माः अगस्त्यगुल्माः (मगदन्तिकागुल्माः) चम्पकगुल्माः जातिगुल्माः नवनीतिकागुल्माः कुन्दगुल्मा
18|| महाजातिगुल्माः, गुल्मा नाम इस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, एषां च केचित्प्रतीताः केचिद्देशविशेषतो
ऽवगन्तव्याः, रम्याः महामेघनिकुरम्बभूताः दशा वर्ण-पञ्चवर्ण कुसुम-जातावेकवचनं कुसुमसमूहं कुसुमयन्ति-18 उमादयन्तीति भावः, ये णमिति प्राग्वत् भरते वर्षे इति षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदादरतस्य वर्षस्य बहुसमरमणीय भूमिभागं वातविधुता-पायुकम्पिता या अप्रशालास्ताभिर्मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः स एवोपचार:-पूजा तेन कलित-युकं कुर्वन्तीति । 'तीसे ण'मित्यादि, सर्वमेतत् प्राग्वत्, अथात्रैव वनश्रेणिवर्णनायाह-'तीसे 'मित्यादि, तत्र तत्र देशे। तस्य तस्य देशस्य तत्र २ प्रदेशे बहुचो वनराजयः प्रज्ञप्ताः, इहैकानेकजातीयानां वृक्षाणां पतयो वनराजयः, ततः
॥९८॥ पूर्वोक्तसूत्रेभ्योऽस्य भिन्नार्थतेति न पौनरुक्त्यं, ताश्च कृष्णाः कृष्णावभासा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् यावन्मनोहारिण्यः, यावत्पदसङ्ग्रहश्चायं-'णीलाओ णीलोभासाओ हरिआओ हरिओभासाओ सीआओ सीओभासाओ णिद्धाओ
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Santlem
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १९ द्वि-वारान् मुद्रितं
~199~
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----
--------- मूलं [१९R] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
गाथा:
णिद्धोभासाओ तिवाओ तियोभासाओ किण्हाओ किण्हच्छायाओ णीलाओ णीलच्छायाओ हरिआओ हरिअच्छायाओs सीआओ सीअच्छायाओ णिद्धाओ णिद्धच्छायाओ तिवाओ तिबच्छायाओ घणकडिअडच्छायाओ वाचनान्तरे घणकडि| अकडच्छायाओ महामेहणिकुरंवभूयाभो रम्माओं' इति, इदं च सूत्रं प्राक् पद्मवरवेदिकावनवर्णनाधिकारे लिखितमपि || | यत्पुनलिखितं तदतिदेशदर्शितानां सूत्रे साक्षाद्दर्शितानां च वनवर्णकविशेषणपदानां विभागज्ञापनार्थमिति, सूत्रे कानि
चिदेकदेशग्रहणेन कानिचित्सर्वग्रहणेन कानिचित्क्रमेण कानिचिदुत्क्रमण साक्षाल्लिखितानि सन्ति, तेन मा भूदाच1| वितणां व्यामोह इति. सम्यक्पाठज्ञापनाय वृत्तौ पुनर्लिख्यते,-'रयमत्तछप्पयकोरगभिंगारकोंडलगजीवंजीवगर्नदीमुह
| कविलपिंगलक्खगकारंडवचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविअरिआओ सहुण्णइअमहुसरणादिआओ संपिं| डिअप्ति-संपिंडिअदरियभमरमहुकरपहकरपरिलिंतमत्तच्छप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजतदेसभागाओ, णाणावि
हगुच्छत्ति-णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिआओ, वाचीपुक्खरिणीदीहिआसु अ सुणित्ति-वावीपुक्खरिणीदीहिआसु अ II सुणिवेसिअरम्मजालघरयाओ विचित्तत्ति-विचित्तसुहकेउभूआओ अभितत्ति-अभितरपुष्फफलाओ बाहिरपत्तोच्छKण्णाओ पत्तेहि अ पुप्फेहि अ उच्छण्णपरिच्छण्णाओ साउत्ति-साउफलाओ णिरोगकत्ति-णिरोगयाओ, सबोउअपुष्फफ
लसमिद्धाओ पिंडिमत्ति-पिंडिमनीहारिमं सुगंधि सुहसुरभि मणहरं च महया गंधद्धणि मुअंतीओ जाव पासादीआओ | इति, व्याख्या प्राग्वत् , नवरं रतमत्ताः-सुरतोन्मादिनो ये षट्पदाद्या जीवा इत्यादि, एवमेव हि सूत्रकाराः पदैकांश
दीप अनुक्रम [२७-३२]
~ 200~
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------
--------- मूलं [१९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९R]
.२०
गाथा:
श्रीजम्य- ग्रहणत: "एवं जाच तहेष इच्चाइ वण्णओ. सेसं जहां' इत्यादिपदाभिव्यज्ञबैरतिदेशैर्दर्शितविवक्षणीयवाच्याः सूत्रे लापरवक्षस्कारे
द्वीपशा- दर्शयति, यत उकै निशीथभाष्ये पोडशोदेशके- कत्थइ देसग्गहणं कत्थइ भण्णंति निरवसेसाई । उकमकमजुत्ताईकल्पद्रुमान्तिचन्द्री-18 कारणवसो निरुत्ताई ॥१॥" [कुत्रचिशग्रहणं कुत्रचित् भण्यन्ते निरवशेषाणि । उक्रमक्रमयुक्तानि कारणवशतोहा
धिकारः या प्रतिः
| निरुक्तानि ॥१॥] अथात्र वृक्षाधिकारात् कल्पद्रुमस्वरूपमाह॥९९॥ तीसे णं समाए भरहे वासे तत्व तत्थ तर्हि तहिं मत्तंगाणामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से चंदप्पमा जाव छण्णपडिच्छष्णा चिटुंति,
एवं जाव अणिगणाणामं दुमगणा पण्णत्ता ( सूत्रं० २०)
'तीसे णमित्यादि, तस्यां समायां भरते वर्षे तत्र तत्र देशे-तस्मिन् २ प्रदेशे मत्त-मदस्तस्थाङ्ग-कारणं मदिरारूपं |8|| || येषु ते मत्ताना नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ताः, कीदृशास्ते इत्याह-यथा ते चन्द्रप्रभादयो मद्यविधयो बहुप्रकाराः, सूत्रे चैक-18|| वचनं प्राकृतत्वात् , यावच्छन्नप्रतिच्छन्नास्तिष्ठन्तीति, एवं यावदनमा नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ता इति, अत्र सर्वो यावच्छब्दाभ्यां सूचितो मत्ताङ्गादिद्रुमवर्णको जीवाभिगमोपाङ्गानुसारेण भावनीया, स चायं 'जहा से चंदप्पभामणिसिलाग-18 वरसीधुवरवारुणिसुजायपत्तपुष्फफलचोअणिज्जाससारबहुदबजुत्तिसंभारकालसंधिआसवा महुमेरगरिटाभदुद्धजातिपसक्षतालगसताउखजूरिमुहिआसारकाविसायणसुपकखोअरसवरसुरा वण्णगंधरसफरिसजुत्ता बलवीरिअपरिणामा मज्जविही बहुप्पगारा तहेव ते मसंगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा वीसंबंति ।
Possasaerasaccosaceaeases
दीप अनुक्रम [२७-३२]
अत्र कल्पद्रुम-स्वरुपम् वर्ण्यते
~ 201~
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम
[३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Eben
कुसविकुसविमुद्धरुक्खमूला जाव छन्नपच्छिन्ना सिरीइ अईव उवसोभेमाणा२चिती'ति अत्र व्याख्या- इदं च संकेतवाक्यं अपरेष्वपि व्याख्यास्यमानकल्पद्रुमसूत्रेषु बोध्यं चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा मणिशिलाकेव मणिशिलाका वरं च तत्सीधु च २ वरा चासौ वारुणी च वरवारुणी तथा सुजातानां सुपरिपाकागतानां पुष्पानां फलानां चोयस्य-गन्धद्रव्यस्य यो निर्यासो-रसस्तेन साराः तथा बहूनां द्रव्याणामुपबृंहणकानां युक्तयो-मीलनानि तासां सम्भार:प्राभूत्यं येषु ते तथा काले स्वस्वोचिते सन्धितदङ्गभूतानां द्रव्याणां सन्धानं योजनमित्यर्थः तस्माज्जायन्ते इति कालसन्धिजाः, एवंविधाश्च ते आसवाः, किमुक्कं भवति १ - पत्रादिवासकद्रव्यभेदादनेकप्रकारो ह्यासवः पत्रासवादिरनेन निर्दिष्टो भवतीति, ततः पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, मधुमेरको मद्यविशेषौ रिष्ठाभा रिष्ठरलवर्णाभा या शास्त्रान्तरे अम्बूफलकलिकेति प्रसिद्धा दुग्धजातिः - आस्वादतः क्षीरसदृशी प्रसन्ना-सुराविशेषः तलकोऽपि सुराविशेषः शतायुनम या शतवारं शोधितापि स्वस्वरूपं न जहाति सारशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् खर्जूरसारनिष्पन्न आसवविशेषः खर्जूरसारः, मृद्वीका - द्राक्षा तत्सारनिष्पन्न आसवो मृद्वीकासारः कपिशायनं मद्यविशेषः सुपक्कः- परिपाकागतो यः | क्षोदरसः - इक्षुरसस्त निष्पन्ना वरसुरा, एते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो वा यथास्वरूपं वेदितव्याः, कथंभूता एते मद्यविशेषा इत्याह-वर्णेन प्रस्तावादतिशायिना एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेन च युक्ता सहिता बलहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा बहवः प्रकारा जातिभेदेन येषां ते बहुप्रकाराः, तथैवेतिपदं
Fur Fate & Pune Cy
~ 202~
Caca
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
या प्रतिः
दीप अनुक्रम [३३]
श्रीजम्प- भिन्नक्रमेण योजनात्, तथास्वरूपेणैव न त्वम्यारशेन मद्यविधिना-मद्यप्रकारेणोपपेतास्ते मत्साझा अपि दुमगणा इति वक्षस्कारे द्वीपशा-18भावः, अन्यथा दृष्टान्तयोजना न सम्यग्भवतीति, किंविशिष्टेन मद्यविधिनेत्याह-अनेको-ग्यक्तिभेदाद्वा-प्रमूतं यथाश कल्पद्रुमान्तिचन्द्रा खात् तथा विविधो जातिभेदतो नानाविध इति भावः, सच केनापि कल्पपालादिना निष्पादितोऽपि सम्भाव्यते
धिकार तत आह-विनसया-स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामग्रीविशेषजनितेन परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादित इति, ॥१०॥ तत पदवयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः, सूत्रे च स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , ते च मद्यविधिनोपपेता न तालादि
वृक्षा श्वाङ्करादिषु किन्तु फलादिषु, तथा चाह-फलेषु पूर्णाः भवविधिभिरिति गम्यं, सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात्। विष्यंदन्ति-श्रवन्ति सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान मद्यविधीन, कचिद्विसहन्तीति पाठः, तत्र विकसन्तीति व्याख्येयं, किमुक्तं भवति -तेषां फलानि परिपाकागतमद्यविधिभिः पूर्णानि स्फुटित्वा २ तान् मद्यविधीन मुश्चन्तीति भावः, शशेष तथैव । अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाख्यातुमाह-तीसे णं समाए तत्थ २ तहिं २ बहवे भिंगंगाणाम
दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से बारगघडगकलसकरगककरिपायंचणिउदंकवद्धणिसुपइगविहरपारीचसकभिंगारकरोडिसरगपत्तीथालणलगचबलिअअवमददगवारगविचित्तवट्टगमणिवहगसुत्तिचारुपीणयाकंचणमणिरयणभत्तिचित्ता ॥१००। | भायणविही य बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगावि दुमगणा अणेगबहुविहवीससापरिणयाए भायणविहीए उववेआ फलेहिं पुण्णाविव विसद्वंतीति तस्यां समायां तत्रेत्यादि प्राग्वत् भृतं-भरणं पूरणमित्यर्थः तत्राङ्गानि-कारणानि, न हि भरण
Soccecentee
EmainineOH
~ 203~
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप अनुक्रम [३३]
क्रिया भरणीय भाजनं वा विना भवतीति तत्सम्पादकत्वात् वृक्षा अपि भृताङ्गाः'प्राकृतत्वाच भिंगंगा उच्यन्ते, यथा 19|| ते वारको मरुदेशप्रसिद्धनामा माङ्गल्यघटः घटको-लघुर्घटः कलशो-महाघटः करका प्रतीतः कर्करी-स पर विशेष:
पादकाचनिका-पादधावनयोग्या काञ्चनमयी पात्री उदो-येनोदकमुदच्यते वार्डानी-लंतिका, यद्यपि नामकोशे करककर्करीवा नीनां न कश्चिद्विशेषस्तथापीह संस्थानादिकृतो विशेषो लोकतोऽवसेय इति, सुप्रतिष्ठक:-पुष्पपात्रविशेषः पारी-स्नेहभाण्डं चषकः-सुरापानपात्रं भृङ्गार:-कनकालुपा सरको-मदिरापात्रं पात्रीस्थाले प्रसिद्धे दकवारके जलघटः, विचित्राणि-विविधविचित्रोपेतानि वृत्तकानि-भोजनक्षणोपयोगीनि घृतादिपात्राणि तान्येव मणिप्रधानानि वृत्तकानि || मणिवृत्तकानि शुक्किा-पन्दनाद्याधारभूता शेपा विष्टरकरोडिनल्लकचपलितावमदचारुपीनका लोकतो विशिष्टसम्प्रदाया-॥४॥ द्वाऽवगम्याः, काञ्चनमणिरसानां भक्तयो-विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा भाजनविषयो-भाजनप्रकारा बहुप्रकारा एकैकस्मिन् । विधाववान्तरानेकभेदभावात् तथैवेति पूर्ववत् ते भृताङ्गा अपि द्रुमगणा 'अणेगेति पूर्ववत् भाजनविधिनोपपेताः फलैः
पूर्णा इव विकसन्ति, अयमर्थ:-तेषां भाजनविधयः फलानीव शोभन्ते, अथवा इवशब्दख भिन्नक्रमेण योजना, तेन 8 18 फलैः पूर्णा भाजन विधिना वोपपन्ना दृश्यन्ते इति । अथ तृतीयकल्पवृक्षस्वरूपमाह-तीसे णं समाए तत्थ तत्व देसे तहिं 18 बहवे तुडिअंगा णाम दुमगणा पण्णचा समणाउसो!, जहा से आलिंगमुइंगपणवपडदहरगकरडिडिंडिमर्मभाहोरम्भ-8 18| कणियखरमुहिमुगुंदसंलिअपिरलीवचकपरिवाइणिवंसवेणुषोसविवंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिआतलतालकंसतालसुसंपउ
200000000000000000000
~ 204 ~
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम [३३]
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृचिः
॥१०१॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Eibeni
ता आतोज्जविही मिउणगंधबसमयकुसलेहिं फंदिआ तिद्वाणकरणसुद्धा तहेव ते तुडिअंगावि दुमगणा अयेगबहुविविहवी| ससापरिणयाए ततविततघणझुसिराए आतोज्जविहीए उववेआ फलेहिं पुण्णाविव विसदृंति, कुसर्विसजाव चिट्ठतीतिं, यथा ते आलिङ्गो नाम यो वादकेन मुरज आलिय वाद्यते, हृदि धृत्वा वाद्यत इत्यर्थः, मृदङ्गो-लघुमईलः पणवो-भाण्डपटहो लघुपटहो वा पटहः स्पष्टः दर्धरिको यस्य चतुर्भिश्चरणैरवस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्धो वाद्यविशेषः करटीसुप्रसिद्धा डिण्डिमः -प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः भंभा-ढक्का निःस्वानानीति सम्प्रदायः, होरंभा - महाढका | महानि: स्वानानीत्यर्थः कणिता- काचिद्वीणा खरमुखी - काहला मुकुन्दो - मुरजविशेषो योऽतिलीनं प्रायो वाद्यते शङ्खकालघुशङ्खरूपा तस्याः स्वरो मनाक् तीक्ष्णो भवति न तु शङ्खस्येवातिगम्भीरः पिरलीवचको तृणरूपवाद्यविशेषौ परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा वंशः - प्रतीतः वेणुः - वंशविशेषः सुघोषा - वीणाविशेषः विपंचीति-तन्त्री वीणा महती शततन्त्रिका सा कच्छपी-भारती वीणा रिगिसिगिका घर्घ्यमाणवादित्रविशेष इति श्राद्धविधिवृत्तौ एते कथंभूता इति १, तलहस्तपुढं तालाः कांस्यतालाश्च प्रतीताः एतैः सुसंप्रयुक्ताः - सुष्ठु अतिशयेन सम्यग्यथोक्तनीत्या प्रयुक्ताः- सम्बद्धाः, यद्यपि हस्तपुढं न कश्चित्तूर्यविशेषस्तथापि तदुत्थितशब्दप्रतिकृतिः शब्दो लक्ष्यते, एतादृशा आतोद्यविधयः- सूर्यप्रकाराः निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वसमये - नाव्यसमये कुशलास्तैः स्पन्दिता व्यापारिता इति मावः, पुनः किंविशिष्टा इत्याह-त्रिषु - आदिमध्यावसानेषु स्थानेषु करणेन-क्रियया यथोक्तवादनक्रियया शुद्धा अवदाता न पुनरस्थानव्यापार
Fur Fate &PO
~205~
১৩৬৬১৬১৩৬
| वक्षस्कारै कल्पद्रुमाधिकारः
सू. २०
1180211
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
गणरूपदोपलेशेनापि कलखिताः ते त्रुटिताजा अपि दुमगणास्तथैव-तथाप्रकारेण न त्वन्यारशेन ततं-वीणादिकं विततं
पटहादिक धनं-कांस्यतालादिकं शुषिरं-वंशादिकं एतद्रूपेण सामान्यतश्चतुर्विधन आतोद्यविधिनोमेपताः, शेष प्राग्वत्। अथ चतुर्थकल्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे दीवसिहाणामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से संझाविरागसमए नवनिहिवइणो दीविआचकवालविंदे पभूयवट्टिपलित्तणेहे धणिउज्जलिए तिमिरमहए। कणगनिगरकुसुमिअपालिआतगवणप्पगासे कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाहिं दीविआहिं सहसा ॥ पज्जालिउस्सप्पिअनिद्धतेअदिपंतविमलगहगणसमष्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरिउज्जोअचिलिआहिं जालुजलयहसिआ
भिरामाहिं सोभमाणा तहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगवहुविविहवीससापरिणयाए उज्जोअविहीए उववेआ फलेहि IS|| पुण्णा कुसविकुस जाव चिटुंती ति, तस्यां समायां दीपशिखा इव दीपशिखास्तत्कार्यकारित्वात , अन्यथा व्याघातकालत्वेन |
तत्रारभावाद्दीपशिखानामप्यसम्भवात् , योजना प्राग्वत्, यथा तत्सन्ध्यारूपो उपरमसमयवर्तित्वेन मन्दो रागस्तसमये-तदवसरे नवनिधिपतेश्चक्रवर्तिन इव इवा दीपा दीपिकास्तासां चक्रवालं-सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दं कीहगित्याह
प्रभूता-भूयस्यः स्थूरा वा वर्तयो-दशा यस्य तत्तथा पर्याप्त:-परिपूर्णः स्नेहः-तैलादिरूपो यस्य तत् तथा घन-अत्यर्थ-18 19 मुज्ज्वलितं अत एव तिमिरमईक, पुनः किंविशिष्टमित्याह-कनकनिकर:-सुवर्णराशिः कुसुमितं च तत्पारिजातकवन । 18||च-पुष्पितसुरतरुविशेषवनं ततो द्वन्द्वस्तद्वत्प्रकाश:-प्रभा आकारो यस्य तत्तथा, एतावता समुदायविशेषणमुक्तमिदानी॥
दीप अनुक्रम [३३]
~ 206~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम [33]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृति:
॥१०२॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Immunal
-
.........
| समुदायसमुदायिनोः कथंचित् भेद इति ख्यापयन् समुदायविशेषणमेव विवक्षुः समुदायिविशेषणान्याह - लोकेऽपि | वक्तारो भवन्ति 'यदियं जन्ययात्रा महर्द्धिकजनैराकीर्णे'ति 'कंचणेत्यादि, दीपिकाभिः शोभमानमिति सम्बन्धः, कथंभूताभिर्दीपिकाभिरत आह-काञ्चनमणिरलमयाः विमलाः- स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता महार्हा - महोत्सवाहः तपनीयं| सुवर्णविशेषस्तेनोज्ज्वला - दीप्ताः विचित्रा-विचित्रवर्णा दण्डाः यासां तास्तथा ताभिः सहसा - एककालं प्रज्वालिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्क्युत्सर्पणेन तथा स्निग्धं मनोहरं तेजो यासां तास्तथा, दीप्यमानो रजन्यां भास्वान् विमलोऽत्र धूल्याद्यपगमेन ग्रहगणो- ग्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यासां तास्तथा ताभिः, ततः पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः, तथा वितिमिराः कराः यस्यासौ वितिमिरकरो - निरन्धकारकिरणः स चासो सूरश्च तस्येव यः प्रसृत उद्योतः प्रभासमूहस्तेन | चिह्निआहिंति - देशीपदमेतत् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, ज्वाला एव यदुजवलं प्रहसितं - हासस्तेनाभिरामा - रमणीयास्ताभिः, अत एव शोभमानं तथैव ते दीपशिखा अपि द्रुमगणा अनेकबहुविविधविन्नसापरिणतेनोद्योतविधिनोपपेताः, यथा | दीपशिखा रात्रौ गृहान्तरुद्योतन्ते दिवा वा गृहादौ तद्वदेते द्रुमा इत्याशयः एवं च वक्ष्यमाणज्योतिषिकाख्यद्रुमेभ्यो विशेषः कृतो भवतीति शेषं प्राग्वत् । अथ पञ्चमकल्पवृक्षस्वरूपमाह 'तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे जोइसिआ णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से अइरुग्णयसरयसूरमण्डलपडंत उकासहस्सदिप्पंतविज्जुज्जहु अवहणिम| जलि आणि तो अतत्तत वणिज्यकिं सुआसो अजासु अण कुसुमविमउलि अपुंजमणिरवणकिरणज चाहिं गुलयमिगररूवाइरेगरूवा
Fale&Prone Cy
~ 207 ~
२ वक्षस्कारे
कल्पद्रुमा विकारः
सू. २०
॥१०२॥
www.mary.
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
तहेव ते जोइसिआवि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए उजोअविहीए उवधेया सुहलेसा मंदलेसा मंदायवलेसा कूडा इव ठाणद्विआ अन्नोन्नसमोगाढाहिं लेसाहिं साए पहाए ते पएसे सबओ समंता ओहासेंति उज्जोअंति पभासंति कुसुम जाव चिहुंतीति, अन्न व्याख्या-तस्यां समायां 'तत्थे'त्यादि पूर्ववत्, ज्योतिपिका नाम हुमगणाः प्रज्ञप्ता इत्यन्वययोजना, नामान्वर्थस्त्वयं-ज्योतींषि-ज्योतिष्का देवास्त एव ज्योतिषिकाः, अत्र मतान्तरेण स्वार्थे इकप्रत्ययः, 'उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानी'त्यव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणादिसुप्रत्ययान्तत्वाभावादिकारलोपाभावच सम्भाव्यते, जीवा-16 भिगमवृत्ती ज्योतिषिका इति संस्कारदर्शनात् , तत्रापि प्रधानाप्रधानयोः प्रधानस्यैव ग्रहणं, तेन अत्र ज्योतिषिकशब्देन सूर्यों गृह्यते, तत्सदृशप्रकाशकारित्वेन वृक्षा अपि ज्योतिषिकाः, 'ज्योतिर्वहिदिनेशयोः' इति वचनाद्वा ज्योति:-10
शब्दः सूर्यवाचको वहिवाचको वा, शेष स्वार्थिकप्रत्ययादिकं तथैव, ते च किंविशिष्टा इत्याह-यथा ते 'अचिरेत्या-181 रादिना 'हुतवह' इत्यन्तेन सम्बम्धा, अचिरोद्गतं शरत्सूर्यमण्डलं, यथा वा पततुल्कासहस्रं प्रसिद्धं, यथा वा दीयमाना विद्युत् यथा वा उद्गता ज्वाला यस्य स उज्ज्वालः, तथा निर्द्धमो-धूमरहितो ज्वलितो-दीप्तो हुतवहो-दहनः,
सूत्रे पदोपन्यासव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , ततः सर्वेषामेषां द्वन्तः, एते च कथंभूता इत्याह-निर्मात-नितरामग्निसंयोगेन || (शोधितमलं) यडीत-शोधितं तप्तं च तपनीयं, ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विमुकुलितानां-विकसितानां पुञ्जा ये 18च मणिरतकिरणाः यश्च जात्यहिङ्गालकनिकरस्तद्पेभ्योऽतिरेकेण-अतिशयेन यथायोगं वर्णतः प्रभया च रूप-स्वरूपं
seeeeeeesestenecestaeceaeese
दीप अनुक्रम [३३]
26LGEReceneseserkestatestraenes
~208~
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२०]
दीप
श्रीजम्यू
येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथैव ते ज्योतिषिका अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणते-8 वक्षस्कारे द्वीपशा- नोद्योतविधिनोपपेता यावत्तिष्ठन्तीति सण्टक, ननु यदि सूर्यमण्डलादिषत्ते प्रकाशकास्तहि तद्वत्चे दुर्निरीक्ष्यत्वतीव्रत्व-8 कल्पवृक्षान्तिचन्द्री
जङ्गमत्वादिधर्मोपेता अपि भवन्तीसाह-सुखा-सुखकारिणी लेश्या-तेजो येषां ते तथा मत एवं मन्दलेश्यास्तथा मन्दा- वि०९.२० या चिः
तपस्य लेश्या-जनितप्रकाशस्य लेश्या येषां ते तथा, सूर्यानलाद्यातपस्य तेजो यथा दुस्सहं न तथा तेषामित्यर्थः, सथा ॥१३॥ कूटानीव-पर्वतादिङ्गाणीव स्थानस्थिता:-स्थिरा इति, समयक्षेत्रवहिर्तिज्योतिष्का इव तेऽवभासयन्तीति भावः,
इ तथाऽन्योऽन्यं-परस्परं समवगाढाभिर्लेश्याभिः सहिता इति शेषः, किमुक्तं भवति :-यत्र विवक्षिता ज्योतिपिकाख्य-18
तरुलेश्या अवगाढा तन्नान्यस्य लेश्याऽवगाढा यत्रान्यतरुलेश्या अवगाढा तत्र विवक्षिततरुळेश्या अवगाहा इति, 'साए पभाए'इत्यादि, 'पभासन्ती'त्यन्तं सूर्य विजयद्वारतोरणसम्बन्धिरत्नकरण्डकवर्णने व्याख्यातमिति, कुशविकुशे'त्यादि पूर्ववत् , एषां च बहुन्यापी दीपशिखावृक्षप्रकाशापेक्षया तीवश्च प्रकाशो भवतीति पूर्वेभ्यो विशेषः । अथ षष्ठकस्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ २ वहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो , जहा से पेच्छाघरे विचिचे रम्मे वरकुसुमदाममालुञ्जले भासतमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिअविचित्तमल्लसिरिसमुदयपगम्भे गठिम-3॥१०॥ वेडिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेणं छेअसिप्पिविभागरइएणं सबओ चेव समणुबड़े पविरललंबंतविप्पाइपंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणे वणमाल कयग्गए चेव दिप्पमाणे, तहेव ते चित्र्तगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणपाए।
अनुक्रम [३३]
~ 209~
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
मालविहीए उबवेआ कुसविकुसजाव चिट्ठन्ती'ति, तस्यां समायामित्यादि प्राग्वत्, नवरं 'चित्तंगा' इति चित्रस्य अनेक-1 प्रकारस्य विवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य अंग-कारणं तत्सम्पादकत्वादृक्षा अपि चित्राकार, यथा तत्प्रेक्षागृह विचित्रं-नानाचित्रोपेतमत एव रम्यं-रमयति द्रष्टृणां मनांसीति बाहुलकात् कर्तरि यप्रत्ययः, किंविशिष्ट इत्याह-बरकुसुमदानां माला:श्रेणयस्ताभिरुज्ज्वलं देदीप्यमानत्वात् , तथा भास्वान-विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो या पुष्पपुबोपचारतेन कलितं. तथा विरल्लितानि 'तमयी विस्तारे' इत्यस्य 'तमेस्तडतबतषविरला' इत्यनेन विरल्लादेशे कृते - प्रत्यये च पिरल्लितानि-विरलीकृतानि विचित्राणि यानि माल्यानि-अथितपुष्पमालास्तेषां यः श्रीसमुदया-धोभानकर्षस्तेन | प्रगल्भ-अतीव परिपुष्ट, तथा ग्रंथिम-यत्सूत्रेण प्रथितं वेष्टिम-यत् पुष्पमुकुटमिवोपर्युपरि विखराकृत्या मालास्थापन | पूरिम यल्लघुच्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते सहातिम-यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परनालप्रवेशेन संयोज्यते, ततः समाहारान्छे । एवंविधेन माल्येन छेकशिल्पिना-परमदक्षिणकलावता विभागरचितेन-विभक्तिपूर्वकं लसेन यात्र योग्य प्रन्थिमादि तत्र तेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समनुबद्धं, तथा प्रविरललम्बमानैः, तत्र मविरलत्वं मनागष्यसंहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रकृष्टत्वप्रतिपादनायाह-विमकृष्टैः-वृहदन्तरालः पश्चवर्णैः, ततः कर्मधारयः, मुमदामभिः शोभमान, वनमाला
वन्दनमाला कसाऽमे-अग्रभागे यस्य तत्वधा, तथाभूतं सद्दीप्यमानं, तथैव चित्राङ्गा अपि नाम हुमगणा अनेकबहुविध18 विविधविनसापरिणतेन माल्यविधिनोपपेता, 'कुसविकुसविसुद्धमूला' इत्यादि प्राग्वत् । अथ सचमकल्पक्षस्वरूप
दीप अनुक्रम [३३]
Receaeser Rectetaceae
Eleon
~210 ~
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम
[३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥१०४॥
२वक्षस्कारे कल्पवृक्षा
माह - 'तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे तहिं २ चित्तरसा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधवरक मलसालितंदुलविसिद्वणिरुवहयदुद्धरद्धे सारयघयगुडखंड महुमे लिए अइरसे परमण्णे होज्जा उत्तमवण्णगंधमंते अहवा रण्णो चक| वहिस्स होज णिउणेहिं सूवपुरिसेहिं सज्जिए चउकम्पसेअसिते इव ओदणे कलमसालिणिवत्तिए विप्पमुक्के सबप्फमिउ- ०वि०सू.२० | विसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्णदव्वक्खडे सुसक्खए यण्णगंधरसफरिसजुत्तबल वीरि अपरिणामे इंदिअचलपुट्टिविबद्धणे खुप्पिवासामहणे पहाणंगुल कढि अखंडमच्छंडिघउर्वणीरव मोअगे सहसमिइगन्भे हवेज्ज परमेट्ठगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसावि दुमगणा अणेगबहुविहविविहवीससापरिणयाए भोअणविहीए उववेआ कुसविकुसजाव चिह्नंती' ति, तस्यां समायामित्यादि योजना प्राग्वत्, नवरं चित्रो-मधुरादिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकार आस्वादयिदणामाश्चर्यकारी वा रसो येषां ते तथा, यथावत्परमान्नं पायसं भवेदिति सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-ये सुगन्धाः| प्रवरगन्धोपेताः, समासान्तविधेरनित्यत्वादत्रेद्रूपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणेति, वराः -प्रधाना दोषरहित क्षेत्रकालादिसामग्री सम्पादितात्मलाभा इति भावः, कलमशाले :- शालिविशेषस्य तन्दुला - निस्त्वचितकणाः यच्च विशिष्टं विशिष्टगवादिसम्बन्धि निरुपहतमिति - पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं ते राद्धं-पर्क, परमकलमशालिभिः परम| दुग्धेन च यथोचितमात्रपाकेन निष्पादितमित्यर्थः, तथा वारदघृतं गुडः खण्डं मधु वा शर्करापरपर्यायं मेलितं यत्र तत्तथा क्तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् सुखादिदर्शनाद्वा, अत एवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत्, यथा वा राज्ञश्च
Fur Fate &P Cy
~ 211~
॥१०४॥
may
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप
कवर्तिनः ओदन इव भवेदित्यन्वयः, निपुणैः सूपपुरुषैः--सूपकारैः सज्जितो-निष्पादितः चत्वारः कल्पा यंत्र स चासो सेकश्च चतुष्कल्पसेकस्तेन सिक्तः, रसवतीशास्त्राभिज्ञा हि ओदनेषु सौकुमार्योत्पादनाय सेकविषयांश्चतुरः कल्पान् | विदधति, सच ओदनः किंविशिष्ट इत्याह-कलमशालिनिर्वर्तितः कलमशालिमय इत्यर्थः, विपक्को-विशिष्टपरिपा-1
कमागतः सवाष्पानि-बाष्पं मुञ्चन्ति मृदूनि-कोमलानि चतुष्कल्पसेकादिना परिकर्मितत्वात् विशदानि सर्वथा तुषा-18 | दिमलापगमात् सकलानि-पूर्णानि सित्थानि यत्र स तथा, अनेकानि शालनकानि-पुष्पफलमभृतीनि प्रसिद्धानि तैः ॥ संयुक्तः, अथवा मोदक इव भवेदिति, किंविशिष्ट इत्याह-परिपूर्णानि-समस्तानि द्रव्याणि-एलाप्रभृतीनि. उपस्कू|| तानि-नियुक्तानि यत्र स तथा, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , सुसंस्कृतो-यथोक्तमावाग्निपरितापाविना पर-181 || मसंस्कारमुपनीतः वर्णगन्धरसस्पर्शाः सामर्थ्यादतिशायिनस्तैर्युक्ता बलवीर्यहेतवश्च परिणामा आयतिकाले यस्य स तथा, || अतिशायिभिर्वर्णादिभिर्बलवीर्यहेतुपरिणामैचोपेता इति भावः, तत्र बलं-शारीरं वीर्य-आन्तरोत्साहः, तथा इन्द्रियाणां
चक्षुरादीनां बल-स्वस्वविषयग्रहणपाटवं तस्य पुष्टिः-अतिशायी पोषस्तां वर्धयति, नन्द्यावित्वादना, तथा क्षुत्पिपा-18 18 सामथन इति व्यक्तं, तथा प्रधानः कथितो-निष्पक्को गुडस्तादृशं वा खण्डं ताहशी वा मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा तादृशं
वा घृतं तान्युपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स तथा, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखाविदर्शनात्, तथा श्लक्ष्णा-सूक्ष्मा 18त्रिर्वस्वगालितत्वेन समिता-गोधूमं चूर्ण तद्गर्भ:-तन्मूलदलनिष्पन्न इति भावः, परमेष्टक-अत्यन्तवल्लभं तदुपयोगि
अनुक्रम [३३]
~ 212 ~
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप अनुक्रम [३३]
श्रीजम्यू-18| द्रव्यं तेन संयुक्ता, एतब्यक्तिः सम्पदायगम्या, तथैव ते चित्ररसा अपि दुमगणाः अनेकबहुविधविविधविखसापरिणम वक्षस्कारे डीपञ्चा-18भोजनविधिनोपपेता इत्यादि प्राग्वत् । अचाष्टमकल्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे पं समाए तत्थ बहवे मनिअंगा गाम दुम-18 कल्पक्षान्तिचन्द्री- गणा पण्णता समणाउसो!, जहा से हारजहारवेवणयमउडकुंडलवामुत्तगहेमजालमणिजातकणमजालगत्तगउचिषक-वि०मू.२०
उगखुजयपकावलिकंठसुत्तगमगरिअउरत्यगेविजसोणिमुत्तगचूलामणिकणगतिलगाकुलगसिद्धत्ययकण्णवालिससिसूरतसह-18 ॥१०५॥ चकगतलभंगयतुविजाहत्यमालगहरिसयकेजरवलयवालंबअंगुलिजगवलक्लवीणारमारिवाचिमेहलकलावपवरगपारि
हेरगपायजालपटिआलिंखिणिरयणोरुजालखुडिअवरमेऊरचलणमालिआकणगविगतमाजिभाकंचममरियणभत्तिचिचा || तहेव ते मणिअंगावि दुमगणा अणेगजावभूसणविहीप उबवे जाव चिद्वैती ति तस्यां समायामित्यादि शायद, नवर मणिमयानि आभरणान्याधेये आधारोपचाराममणीनि सान्येषाशानि-अवयषा येषां ते मण्यास भूषणसम्मावका हत्यार यथा ते हारा-अष्टादशसरिका अर्बहारो-नवसरिकः वेष्टनक:-कर्षाभरणविशेषः पुकुटकुण्डले बाके वाबोस - जालं-सच्छिद्रसुवर्णालद्वारविशेषः एवं मणिजासकनकजालके अपि, पएं कनकवासास हेमजासतो मेदो महिमा सूत्रक-वैकक्षककृतं सुवर्णसूत्रं सचितकटकावि-योग्यवलयानि क्षुद्रक-असीयकविशेषः एकावसी-विविधमलिक-1 ॥१५॥ कृता एकसरिका च कण्ठसूत्र-पसिहं मकरिका-मकराकार आभरणविशेषः वरसं हवयाभरणविशेषः -पीयामजविकोप, बत्र सामान्पविवक्षया घेयमिति औषाभिगमवृत्त्यनुसारेणोकं, अम्पया हेमन्याकरणादरावलङ्कारविवाय॥
SEE
~ 213~
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
वयकमिति खात्, एवमन्यत्रापि तत्तद्वृत्त्यनुसारेण शेय, श्रोणिसूत्रक-कटिसूत्रक पूलामणि म सम्सतृपरनसारो नरामरेन्द्रमौलिस्थापी अमङ्गलामयप्रमुखदोपहत् परममङ्गलभूत आभरणविशेषः कनकतिलक-साटाभरणं गुण-11 ३ पुष्पाकृति सपाटाभरण सिद्धार्थक-सर्पपप्रमाणस्वर्षकजरचितसुवर्णमणिकमयं कर्णवाली-कोपरितनविभागायनि-1 IS सेवः शशिसूर्पषभाः स्वर्णमयचन्द्रकादिरूपा बाभरणविशेषाः पक-पक्राकार: शिरोभूष्णविशेष सभा बुटि-II
सानिच बाहाभरणानि, अनयोर्विशेषस्तु आकारकृतः, हस्तमालकं हर्षक बेर बाद पूर्वसमाचाकृतिकतो विशेष ISबल-कपूर्ण मालम्ब-अम्बनकं अङ्गुलीयक-मुद्रिका वलक्ष-रूढिगम्यं दीनारमाविका पद्रमालिका पूर्वमारिका-भीमा
राणाकृसिमणिकमालाः काञ्चीमेखलाकलापा:-श्रीकव्याभरणविशेषाः, विशेषवैषां रूदिनम्या, प्रसर तपस आम-| रणविशेषः पारिहार्य--वलयविशेषः पादेषु जालाकृतयो घण्टिका-वर्षरिकाः किङ्किण्या-मुद्रपष्टिका रसोरुजास-13॥ रखमय जायाः प्रलम्बमानं सङ्कलकं सम्भाव्यते मुद्रिका वराणि नपुराणि व्यकानि चरणमालिका-संस्थानयिको-13 कृतं पादाभरण सोके पागडां इति प्रसिी, कनकनिगड:-निगडाकारः पादाभरणविशेषः सौवर्णः सम्भाव्यते, हो) चकल्ला इति प्रसिद्धानि, एतेषां मालिका-श्रेणिः, अत्र च व्याख्यातव्यतिरिक्त भूषणस्वरूप लोकतो मम्ब, इत्यादिका || भूषणविषयो-मण्डनप्रकाराः बहुप्रकारा अबान्तरभेदात्, ते च किंविशिष्टा इमाह-काश्चनमणिरतभकिचित्रा इति व्यक्तं, तथैव -तथा प्रकारेण भूषणविधिनोपपेतास्ते मण्यङ्गा इति तात्पर्याः , शेषं प्राग्वत् । अथ नवमकस्पवृक्ष
दीप
अनुक्रम [३३]
~214~
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप
स्वरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे गेहागारा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से पागारहाल- वधस्कारे | यचरिअदारगोपुरपासायागासतलमंडवएगसालगबिसालगतिसालगचउसालगगम्भघरमोहणघरवलभीहरचित्तमालयघर- पक्षा
[भत्तिघरवहतंसचउरसणंदिआवत्तसंठिआ पंडुरतलमुंडमालहम्मियं अहवणं धवलहरअद्धमागहविन्भमसेसेलसंठि-1||धिसू.२० या वृत्तिः
कूडागारसुविहिअकोढगअणेगघरसरणलेणआवणा विडंगजालविंदणितहअपवरगचंदसालिआरूवविभसिकलिआ भवण॥१०॥
| विही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेगबहुविह विविहवीससापरिणयाए सुहारुहणमहोत्ताराए सुहणिक्खमणपवेसाए ददरसोपाणपंतिकलिआए पइरिकसुहविहाराए मणोणुकूलाए भवणविहीए उववेआ जाव चिढती ति, तस्या समायामित्यादि प्राग्वत्, गेहाकारा नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ताः, यथा ते प्राकारो-वप्रः अहालका-पाकारोपरिवत्योंश्रय|विशेषः चरिका-नगरमाकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः द्वारं व्यक्त, गोपुरं-पुरद्धारं प्रासादो-नरेन्द्राश्रयः आकाश-13 तलं-कटायच्छन्नकुट्टिमं मण्डपः-छायाद्यर्थ पटादिमय आश्रयविशेषः एकशालकद्विशालकत्रिशालकचतुःशालकादीनि । भवनानि, नवरं गर्भगृह-सर्वतोवतिगृहान्तरं अभ्यन्तरगृहमित्यर्थः, अन्यथोत्तरत्र वक्ष्यमाणेनापवरकेण पौनरुत्यं || स्यात्, मोहनगृह-सुरतगृहं. वल्लभी-छदिराधारस्तत्प्रधान-गृह, चित्रशालगृह-चित्रकर्मवद् गृह मालकगृह-द्वितीयभू-19॥१०६॥ 18|| मिकाद्युपरिवर्ति गृहं भक्ति-विच्छित्तिस्तत्प्रधानं गृहं वृत्तं-बर्तुलाकारं व्यत्रं-त्रिकोणं चतुरस्र-चतुष्कोण नन्द्यावत्ते:-101
प्रासादविशेषस्तद्वत्संस्थितानि नन्द्यावर्चाकाराणि गृहाणि पश्चात् द्वन्द्वः, पाण्डुरतल-सुधामयतलं मुण्डमालहh-18
अनुक्रम [३३]
Jatinnition
~ 215~
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम [३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Eikemit
| उपर्यनाच्छादित शिखरादिभागरहितं हम्र्म्य, अथवा णमिति प्राग्वत्, धवलगृहं-सौधं अर्द्धमागधविश्वमाणि - गृहवि| शेषाः शैलसंस्थितानि - पर्वताकाराणि गृहाणि अर्द्धशैलसंस्थितानि तथैव कूटाकारेण शिखराकृत्याऽऽन्यानि सुविधिकोष्ठकानि - सुसूत्रणापूर्वकरचितोपरितन भागविशेषा अनेकानि गृहाणि सामान्यतः शरणानि तृणमयानि लयनानि पर्वतनिकुट्टितगृहाणि आपणा - हट्टाः इत्यादिका भवनविधयो - वास्तुप्रकारा बहुविकल्पा इत्यन्वयः, कथम्भूता इत्याह| विटण्कः कपोतपाली जालवृन्दः - गवाक्षसमूहः निर्यूहो-द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु अपवरकः प्रतीतः चन्द्रशालिकाशिरोगृहं, एवंरूपाभिर्विभक्तिभिः कलिताः, तथैव भवनविधिनोपपेतास्ते गेहाकारा अपि द्रुमगणास्तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, | किंविशिष्टेन विधिनेत्याह---सुखेनारोहणं ऊर्ध्वगमनं सुखेनावतार:- अधस्तादवतरणं यस्य स तथा सुखेन निष्क्रमणंनिर्गमः प्रवेशश्च यत्र स तथा, कथमुक्तस्वरूपमित्याह - दर्दरसोपानपङ्किकलितेन, अत्र हेती तृतीया तथा प्रतिरिक्ते| एकान्ते सुखो विहार: अवस्थानशयनादिरूपो यत्र स तथा मनोऽनुकूलेनेति व्यक्तं, शेषं प्राग्वत् । अथ दशमकल्पवृक्ष - स्वरूपमाह - 'तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से आईणगखोमतणुलकंबल दुगूलकोसेज्जकालमिगपट्ट अंसुअचीण अंसुअपट्टा आभरणचित्तसण्ड्गकलाणगभिंगणी कालबहुवण्णरसपीअसुलिस कय मिगलोममप्परलग अवरुत्तरसिंधु सभदामिलवंगकलिंगनलिणतंतुमयभत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पगारा पथरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिआ तहेव ते अणिगणावि दुमगणा अणेगबहुविहविविहवीससापरिणयाए बत्थविहीए उबवे
nileey
~ 216~
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप अनुक्रम [३३]
श्रीजम्
| कुसविफुसजाव चिवती'ति वाक्ययोजना पूर्ववत्, नामार्थस्तु विचित्रवनदायित्वात् न विद्यन्ते नमास्तत्काली-18 वषरकारे द्वीपना
नजमा येभ्यस्तेऽननाः, यच प्राफनेषु बहुषु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादर्षेषु आयाणा इति रश्यते स लिपिममादः सम्माबते न्तिचन्द्रीया चिः
प्रस्तुतसूत्रालापकविस्तारोपदर्शके जीवाभिगमे एतादृशस्ख पाठस्थादर्शनात, आजिनक-धर्ममय वोर्म-सामान्यतः पि०.२०
कार्पासिकं अतसीमयमित्यन्ये, तनुः-शरीरं सुखस्पर्शतया लाति-अनुगृहातीति सनुस-ससुखादि कम्बका प्रतीत ॥१०७॥ 18तणुअकम्बल इति पाठेतु तन्तुकः-सूक्ष्मोर्णाकम्बला दुकूलं-गौरविषयविशिष्ट कार्यासिक अथवा दुक्लो-पक्षविशेषतस्य
वस्कं गृहीत्वा उदूषले जलेन सह कुट्टयित्वा बुसीकृत्य च ब्यूयते यत्स दुकूलं कौशेयं-सरितन्तुनिष्प कालसह-8 कालमृगचर्म अंशुकचीनांशुकानि नानादेशेषु प्रसिद्धानि दुकूलविशेषरूपाणि, पूर्वोकस्यैव वस्कस्य राम्बम्बाम्तरहीरिभिनिष्पायन्ते सूक्ष्मान्तराणि भवन्ति तानि चीनांशुकानि वा पानि-पट्टसूवनिष्पन्नानि भाभरणैबित्राणि-विचित्राणि आभरणविचित्राणि लक्ष्णानि-सूक्ष्मतन्तुनिष्पमानि कल्याणकानि-परमपखालक्षणोपेतानि भूत-कीपिकवाय नीलं तथा कजलवणे बहुवर्ण-विचित्रवर्ण रक्तं पीते शुक्लं संस्कृत-परिकर्मित वस्मृगलोम हेम च तदात्मकं कनपर| सच्छुरितत्वादिधर्मयोगात् रलका-कम्बलविशेषो जीणादिः पश्चात् द्वन्द्वः, पते च कथंभूता इत्याह-अपरा-भिम १०७॥ | उत्तर:-उत्तरदेशः सिन्धु:-देशविशेषः उसमत्ति-सम्प्रदायगम्यं द्रविषंगकलियर देशविशेषाः एतेषां सम्बम्मिलता-18 देशोत्पनत्वेन येते तथा नलिनतम्तवा-सूक्ष्मतन्तवस्तन्मय्यो या भक्कयो-विच्छित्तयो विशिष्टरचनास्तामिपिना
करमरकर
Jostilennilim
~217~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
सरकर
इत्यादिका वखविधयो बहुप्रकारा भवेयुर्वरपचन-तत्सत्प्रसिद्ध पत्तनं तस्मादुद्गता-विनिर्गता विविधैर्वण:-विविधै रागैर्मनिहारागादिभिः कलितास्तथैव तेऽननका अपि दुमगणा अर्नेकबहुविधविविधविनतापरिणतेन वनविपिनोफ्पेता इत्यादि, अत्र चाधिकारे जीवाभिगमसूत्रादर्श कचित् २ किञ्चिदधिकपदमपि दृश्यते तत्तु पत्तावव्याख्यातं स्वयं पर्यालोच्यमानमपि च नार्थप्रदमिति न लिखितं, तेन तत् सम्प्रदायादवगन्तव्यं, तमन्तरेण सम्यक् पाठशुद्धरपि क मश-1 क्यत्वादिति । पकं सुषमसुषमायां कल्पद्रुमखरूप, अथ तत्कालभाविमनुजखरूपं पूछनातीसे ज भते । समाए भरहे वासे मणुजाणं केरिसए आयारभावपटोथारे पण , गोसेमणुन नुमाहिन्याचा जाव लक्क्षणवंजणगुणोषणा सुजाथसुक्मित्तसंगपंगा पासादीआ जाय पहिला । तीते को मेले! समापनबहे गाके मनु केहि खए आपारमावपटोआरे पण!, गो०! ताणो मेमणुईओ सुजावकार्यममुगीको पहलमहिनामुहि मुला मदतवानिकाय माणमच्या मुखमालकुम्मसंठिअविसिषलणा अजुमअपीवरसुसाहवंगुलीमो जामुण्णपदन्तलिमयमुणिमणमा रोगरहिक पहलहसंठिसमजहष्णपसत्वलक्षणणकोपजपजुअलाओ सुणिरिणममुगूढसुजल्गुमललामुसलमानो कथलीसमाचरेकरठिमणिय सुकुमालमसमर्मसलाविरकसमसंहिमसुजायवद्दपीवरणिस्तरोरू अड्डावयवीश्वपट्टमंठियपतत्वविभिणपितुलसोणी बघणापामा माणदुगुणिमविसालमसलमुषसजहणवरधारिणीमी बजविराइमपसत्यलक्खणनितेंदरतिवलिमलिमत्तणुमणमकिमाणो गुणसमसहिभजवतणुकमिणणिचआइजलमहसुजायसुविभत्तकतसोभंतकइलरमणिज्जरोगरा गाववाहिणायत्ततरंगममुररविकिरणतक
दीप अनुक्रम [३३]
JinEllennisham
अत्र सुषमसुषमकालवर्ती मनुष्यस्य स्वरुपम् कथ्यते
~218~
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
२ वक्षस्कारे कल्पवृक्षावि०५.२०
द्वीपशा
न्तिचन्द्री
सूत्रांक
[२१]
॥१०॥
दीप अनुक्रम
णमोहिमाकोसायतपउमगंभीरविअढणाभा अणुब्भउपसत्यपीणकुच्छीओ सण्णयपासाओं संगयपासाओ सुजायपासामओ मिभमाइअपीणरइमपासाओ अकरंडुअकणगरुअगणिम्मलसुजायणिकवहयगायलट्टीओ कंचणकलसपमाणसमसहिअलहचुचुआमेलगजमलजुअलवट्टिअअम्भुषणयपीणरइअयपीवरपओहयभो भुभंगअणुपुवतणुभगोपुच्छवट्टसहिअणमिमआइजललिअवाहा तंबणदाओ मंसलग्गहत्थाओ पीवरकोमलवरंगुलीआओ णिपाणिरहा रविससिसंखचक्कसोत्थियसुविभत्तसुविरहापाणिलेहाभो पीणुण्णयकरफक्सवस्थिप्पएसा परिपुण्णगलकपोला चउरंगुलमुष्पमाणकंबुवरसरिसगीवाओ मंसलसंठिमपसत्थहणुगाओ दाडिमपुफापगासपीवरपलंबकुंचिभवराघराभो सुंदरत्तरोटाओ दहिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलधवलअच्छिदविमलदसणाओ रतुष्पलपत्तमतअमुकुमालतालुजीहामओ कणवीरमउलकुडिलअम्भुग्गयतज्जुर्तुगणासाओ सारयणवकमलकुमुअकुवलयविमलवलणिअरसरिसलक्षणपसस्थभजिम्हकंतणयणा पत्तलधवलायत्तआतंवलोमणाओ आणामिअचावरुइलकिणहम्भराइसंगयसुजायभुमगाओ अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुसवणाओ पीणमद्वगंडलेहाओ चउरंसपसत्यसमणिडालाओ कोमुईरवणिअरविमलपडिपुण्णसोमवयणा छत्तुण्णयउत्तमंगाओ अकविलसुसिणिसुगंधदीहसिरयाओ छत्त १ ज्झय २ जून ३ थूम ४ दामणि ५ कमंडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोथिम ९ पडाग १० जब ११ मच्छ १२ कुम्म १३ रहबर १४ मगरज्झय १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अट्ठावय १९ मुपाग २. मयूर २१ सिरिअभिसेज २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदहि २५ वरभवण २६ गिरि २७ बरआवंस २८ सलीलगय २९ उसम ३० सीह ३१ चामर ३२ उत्तमपसस्थवत्तीसलक्खणधरीभो हंससरिसगईओ कोइलमहरगिरहस्सराओ कंता सवस्स अणुमयाओ ववंगयवलिपलिभवंगदुषण्णवाहिदोहणसोगमुका उच्चत्तेण य गराण थोवूणमुस्सिाओ सभावसिंगारचारुबेसा संगयगयहसिय
[३४]
१०८॥
~219~
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
भणिचिट्विअविलाससंलावणिउणजुत्तोक्यारकुसला सुंदरथणजहणवयणकरचलणणयणलावण्णरूवजोषणविलासकलिआ गंदणवणविवरचारिणीउच्च अच्छराओ भरहवासमाणुसच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ पासाईआओ जाव पडिरूवाओ, ते णं मणुआ ओहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा विस्सरा गंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा सुसरा सूसरणिग्घोसा छायायवोजोविअंगमंगा वज्जरिसहनारायसंधयणा समचउरसंठाणसंठिआ छविणिरातका अणुलोमवावेगा फैकमाणी कवोयपरिणामा सउणिपोसपिटुतरोरुपरिणया छडणुसहस्समूसिआ, तेसि णं मणुआणं वे छप्पण्णा पिट्ठफरंडकसया पण्णत्ता समणाउसो!, पउमुष्पलगन्धसरिसणीसाससुरभिवयणा, सेण मणुआ पगईउवसंता पगईंपवणुकोहमाणमायालोमा मिजमहवसंपन्ना अलीणा भरगा विणीमा अप्पिच्छा असणिहिसंचया वितिमंतरपरिवसणा जहिच्छिअकामकामिणो (सूत्र २१)
'तीसे गं भंते।' इत्यादि, तस्यां समायां भदन्त ! भरतवर्षे मनुजानां प्रक्रमादू युग्मिनां कीदशक आकारभावप्रत्य-18 |वतारः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गीतम! ते मनुजाः सुप्रतिष्ठिता:-सत्प्रतिष्ठानवन्तः सनातनिवेशा इत्यर्थः, कूर्मवत्कच्छपवदुलतत्वेन चारवश्चरणा येषां ते तथा, ननु 'मानवा मौलितो वा, देवाश्चरणतः पुन'रिति कविसमयान्मनु-18
जजन्मिनां युग्मिनां पादादारभ्य वर्णनं कथं युक्तिमदिति, उच्यते, वरेण्यपुण्यप्रकृतिकत्वेन ते देवत्वेनेवाभिमता इति || कान काचिदनुपपत्तिरिति, अत्र यावच्छन्दसङ्कायं मुद्धसिरया इत्यन्त, जीवाभिगमादिप्रसिद्धं सूत्रं चैतत् 'रतुप्पलपत्त'मउअसुकुमालकोमलतला णगणगरमगरसागरचर्ककहरेकलक्खणंकिअचलणा अणुपुषसुसाहयंगुलीया उण्णयतणुतंव-||
अनुक्रम
Sadrasaddesses
Sotestsekserstaeratoerserseas
[३४]
भीजम्बू. १९
~220~
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[३४]
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१०९ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
JEbenicim
णिक्खा संठिअसुसिलिट्ठगूढगुप्फा एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुवजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसण्णि- ४२वक्षस्कारे | मोरू वरवारणमत्ततुलविक्रमविलासिअगई पमुइअवरतुरगसीहवरवट्टिअकडी वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आहष्णहउद निरुवलेवा साहयसोणंदमुसलदप्पणणिगरि अवरकणगच्छरुसरिसवरवइवलिअमज्झा [शसविहगसुजाघपीणकुच्छी] झसोअरा सुकरणा गंगावतपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहिअआको सायं परमगंभीरविअडणाभा उज्जुमसमसंहिअजश्चतणुक सिणणिद्ध आदेजलडहसूमालमउअरमणिज्जरोमराई संणथपासा संगबपासा सुंदरपासा सुजीयपासा मिअमाइअपीणरइअपासा अकरंडुअकणगर अगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी पसत्यबत्तीस लक्खणधरा कणगसिलाय - लुज्जलपसत्थसमतल उबइ अविच्छिण्णपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकिअवच्छा जुअसण्णिभपीणरइ अपीवर पडद्वसंटिअसुसिलिट्ठ| विसिद्वषणथिरसुबद्धसंधिपुरवरवरफलिहबहिअभुजा भुजगीसर विउलभोगआयाणफलिहतच्छूट दीइवाहू रत्ततलोषइ अमउअमंसलमुजायपसत्थलक्खणअच्छिद्दजालपाणी पीवरकोमलवरंगुलीआ आयंबतलिणसुरुइलणिद्धणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोबत्थियपाणिलेहा चंदसूरसंख चक्कदिसासोबत्थि अपाणिलेा अगव| रलक्खणुत्तमपसत्थसुइरद्द अपाणिलेहा वरमहिसवराहसी हसउसइणगवरपडिपुण्णविपुलबंधा चउरंगुल्सुप्पमाणकंतु| वरसरिसगीवा मंसलसंठिभपसत्वसद्दूलविपुलहणुआ अवट्ठिअसुविभत्तचित्तमंसू ओअवि असिलप्पवालबिंबफलसष्णिभाधरोट्ठा पंडुरससिसगल विमलणिम्मलसखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालि आधवलदंतसेडी अखंडता अफुडिजयंता
Fur Free Cy
320 2020 20222
~ 221 ~
युम्मिस्वरूपं सू. २१
॥१०९॥
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
Possoso90000000000
सुजायदता अविरलदंता एगदंतसेढीष अणेगदंता हुअवहणिद्धतधोअतत्ततवणिजरततलतालुजीहा गहलावताजागणासा अवदालि अपोंडरीकणयणा कोआसियषवलपत्सलच्छा आणामिअचावरुइलकिण्हन्भराइसंठिअसंगयआययसुजायतणुकसिणणिभुमा अल्लीपमाणजुत्तसवणां सुस्सवणा पीणमसलकबोलदेसभागा णिवणसमलहमदरसमणि-18 लाडा उडवाइपडिपुण्णसोमवयणा घणणिचिअसुबडलक्खणुण्णयकूडागारणिभपिडिअग्गसिरा छत्तागारुत्तमंगदेसा दाखिमपुण्फपगासतवणिज्जसरिसणिम्मलसुजायकेसंतभूमी सामलिबोंडघणणिचिअच्छोरिअमिलविसवपसत्पसुहमलक्षणसुगंबसेदरभुजमोअगभिंगणीलकज्जलपहहभमरगणणिणिकुर्रवणिचिअपयाहिणावत्तमुद्धसिरया' इति, अत्र व्याख्या-र-II लोहितमुत्पलपत्रवन्मृदुक-माईवगुणोपेतमकर्कशमित्यर्थः तचासुकुमारमपि सम्भवति यथा अमूहपापाणप्रतिमा तत|
आह-सुकुमालेभ्योऽपि-शिरीषकुसुमादिभ्योऽपि कोमलं-सुकुमालं तल-पादतलं येषां ते तथा, भगो-गिरिः नगरमक-18 | रसागरचक्राणि स्पष्टानि अङ्गधर:-चन्द्रः अङ्कम-तदैव लाञ्छनं यल्लोके मृगादिव्यपदेशं लभते, एवंरूपैर्लक्षणैरुतवस्त्याकारपरिणतामी रेखाभिरविताश्चलना येषां ते तथा, पूर्षस्या अनु लघव इति गम्यते अनुपूर्वाः, किमुकं भवति :पर्वस्याः पर्वस्याः उत्तरोत्तरा नखं नखेन हीनाः 'णहं णहेण हीणाओ' इति सामुद्रिकशास्त्रवचनात्, अथवा आनुपू-II
घेण-परिपाव्या वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते, सुसंहता-अविरला अडल्य:-पादानावयवा येषां ते तया, अत्रा॥ नुपूर्वेणेति विशेषणग्रहणात् पादाङ्गुलीग्रहणं, तासामेव नखं नखेन हीनत्वात् , उन्नता-मध्ये तुशास्तनवः-प्रतलास्ता
दीप
सररररररररर
अनुक्रम
[३४]
~ 222~
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [२१]
दीप
18सा-रकाः स्निग्धा:-स्निग्धकान्तिमन्तो नखाः पादगता इति सामर्थ्यलभ्यं तद्वर्णनाधिकारात् येषां ते तथा, णक्खे-18वक्षस्कारे द्वीपशा
त्यत्र द्वित्वं सेवादित्वात् , संस्थितौ-सम्यक् स्वप्रमाणतया स्थिती सुश्लिष्टौ-सुघनौ सुस्थिरावित्यर्थः गूढी-गुप्तौ मांसल-18 युग्मिस्वरून्तिचन्द्री
18|| त्वादनुपलक्ष्यो गुल्फी-बुटिको येषां ते तथा, एणी-हरिणी तस्या इह जहा ग्राह्या, कुरुविन्दः-तृणविशेष: वर्ग चया वृत्तिः
सूचलनकं एतानीव वृत्ते-बजुले आनुपूर्येण-क्रमेण अर्ध्व स्थूले स्थूलतरे इति शेषः जो येषां ते तथा, औपपाति-18 ॥११०॥ कवृत्तौ तु अन्ये त्याहुः एण्या-वायवः कुरुविन्दः-कुटिलकाभिधानो रोगविशेषस्ताभिस्त्यके इत्यपि व्याख्यातमस्ति,
रावृत्तेत्यादि तथैव, समुद्रः-समुन्नकाख्यभाजनविशेषस्तस्य तत्पिधानस्य च सन्धिस्तद्वनिमझे गूढे-मांसलत्वादनुपलक्ष्ये
जानुनी येषां ते तथा, कचित्समुग्ग [णिमग्ग] गूढजाणू इति पाठस्तत्र समुद्कस्येव-पक्षिविशेषस्येव निसर्गतो गूढे-स्वभा-1 Mवतो मांसलत्वादनुनते न तु शोफादिविकारतः शेषं तथैव, गजस्य-हस्तिनः श्वसन:-शुण्डादण्डः सुजात:-सुनिष्पMमस्तस्य सन्निभा ऊरुर्येषां ते तथा, सुजातशब्दस्य विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , मत्तो वरा-प्रधानो भद्रजातीय-14
त्वाद्वारणो-हस्ती तस्य विक्रमः-चंक्रमणं तद्वद्विलासिता-विलासः सञ्जातोऽस्या इति तारकादित्वादितप्रत्ययः विलास-IN वती गति:-गमनं येषां ते तथा, अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात् , प्रमुदितो रोगाधभावेनाति- ॥११०॥ शपुष्टो यौवनप्राप्त इति गम्यते एवंविधो यो वरतुरगः सिंहवरश्च तद्ववर्तिता-वृत्ता कटीयेषां ते तथा, वरतुरगस्येव ||
सुजातः सुगुप्तत्वेन सुनिष्पनो गुह्यदेशो येषां ते तथा, आकीर्णहय इव-जात्याश्व इव निरुपलेपा:-निरुपलेपशरीराः, 18"
अनुक्रम
[३४]
000000000
~ 223~
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
जात्याश्वो हि मूत्राद्यनुपलिप्तगात्रो भवतीति, संहृतसीनन्दं नाम ऊवीकृतमुलूखलाकृतिकाष्ठं तच्च मध्ये तनु । उभयोः पार्श्वयोवृहत् अथवा संहत-ससिसमध्यं सौनन्द-रामायुधं मुसलविशेष एव मुसलं सामान्यतः दर्पणशब्देनेहावयवे समुदायोपचारादर्पणगण्डो गृह्यते तथा निगरित-सारीकृतं वरकनकं तस्य त्सरुः-खड्गादिमुष्टिस्तैः सहसं तेषा| मिवेत्यर्थः, तथा वरवज्रस्येव-सौधर्मेन्द्रायुधस्येव क्षामो वलितो-बलयः संजाता अस्वेति वलितो-वलित्रयोपेतो मध्यो8 मध्यभागो येषां ते तथा, झपस्येव अनन्तरोत्तस्येवोदरं येषां ते तथा, शुचीनि-पवित्राणि निरुपलेपानीति भावः, करणानिचक्षुरादीनीन्द्रियाणि येषां ते तथा, अत्र च 'पम्हविअडणाभा' इति पदं कचिद्वाचनान्तरे प्रसिद्धमपि उत्तरपदेन
मा पुनरुक्ताभासो भूयादिति न व्याख्यातं, गङ्गाया आवर्तक: पयसां भ्रमः स इव प्रदक्षिणावर्ती न तु वामावर्चा | र तरङ्गा इव तरङ्गाः तिस्रो वलयस्ताभिर्भरा-भुना रविकिरणः तरुण:-अभिनवैर्बोधितं-उन्निद्रीकृतं सत् आकोशायमानं
विकचीभवदित्यर्थः पन तद्वद् गम्भीरा बिकटा-विशाला नाभिर्येषां ते तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत्, II 18 अस्माच निर्देशादनाघ्यपि समासान्तः, ऋजुका-अवक्रा समा न कापि दन्तुरा संहिता-सन्ततिरूपेण स्थिता न त्वपा
न्तरालव्यवच्छिन्ना सुजाता-सुजन्मा न तु कालादिवैगुण्यतो दुर्जन्मा, अत एव जात्या-प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा | कृष्णा न तु मर्कटवर्णा स्निग्धा-चिकणा आदेया-दर्शनपथमुपगता सती पुनः पुनराकांक्षणीया, उक्तमेव विशेषणद्वारेण समर्थयते-लडहा-सलवणिमा अत आदेया सुकुमारमदी-अतिकोमला रमणीया-रम्या रोमराजिर्येषां ते तथा,
अनुक्रम
[३४]
~ 224 ~
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
c
प्रत सूत्रांक
२वक्षस्कारे
म पं.सू. २१
[२१]
दीप
श्रीजम्यू-18| सम्यक् अधोऽधः क्रमेण नते पार्थे येषां ते तथा, सङ्गते-देहप्रमाणोचिते पार्थे येषां ते सथा, अत एव सुन्दरपाः
द्वीपशा- 18सुजातपाच इति पदद्वयं व्यक्त, तथा मिते-परिमिते मात्रिके-मात्रोपेते एकार्थपदद्वययोगादतीव मात्रान्विते नोचित- न्तिचन्द्री
|| प्रमाणान्यूनाधिके पीने-उपचिते रतिदे पार्षे येषां ते तथा, अषिधमान-मांसलत्वेनानुपलक्ष्यमाणं करण्डक-पृष्ठवंशा-18
स्थिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्डुकः, अत्राल्पत्वेनाभावविवक्षणादेवं निर्देशः, अनुदरा कन्येत्यादिवत्, अथवा अकरण्ड॥१११॥ कमिवेति व्याख्येयं, कनकस्येव रुचको-रुचिर्यस्य स(तथा) निर्मल:-स्वाभाविकागन्तुकमलरहितः सुजातो-बीजाधाना
दारभ्य जन्मदोषरहितः निरुपद्रवो-ज्वरादिदंशाद्युपद्रवरहितः एवंविधो यो देहस्तं धारयन्तीत्येवंशीलाः, तथा कनकशिलातलवदुज्वलं प्रशस्त समतलं-अविपर्म उपचित-मांसलं विस्तीर्णमूोधोऽपेक्षया पृथुलं दक्षिणोत्तरतो वक्षः-उरो येषां ते तथा, श्रीवच्छो-लाञ्छनविशेषस्तेनाङ्कितं वक्षो येषां ते तथा, युगसन्निभी-वृत्तत्वेनायत्तत्वेन च यूपतुल्यौ पीनी-मांसलो रतिदौ-पश्यतां सुभगौ पीवरप्रकोष्ठको-अकृशकलाचिकी, तथा संस्थिताः-संस्थानविशेषवन्तः सुम्खिष्टा-18 सुघनाः विशिष्टा:-प्रधानाः धना-निविडाः स्थिरा-नातिश्लथाः सुबद्धाः-वायुभिः सुषु बद्धाः सन्धवः-अस्थिसन्धानानि ययोस्ती तथा, पुरवरपरिषवत्-महानगरार्गलाबद्धर्तितौ-वृत्ती भुजी येषां ते तथा, ततः पदस्यद्वयमीलनेन |
कर्मधारयः, पुनर्वाहुमेवायामतो विशिनष्टि-भुजगेश्वरो-भुजगराजस्तस्य विपुलो यो भोगः-शरीर तथा मादीचतेपद्वारस्थगनार्थ गृह्यत इत्यादानः स चासी परिषः-अर्गला 'उच्छूढ'त्ति स्वस्थानाववक्षिप्तो निष्काशितो द्वारपृष्ठभागे |
अनुक्रम [३४]
omsabardassocacadeos
॥११॥
~ 225~
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
| दत्त इत्यर्थः, विशेषणव्यस्तता चार्षत्वात् , ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तद्वदीधौं वाहू येवा ते तथा, न चात्रानन्तरी-181
विशेषणेन पौनरुक्त्यमाशङ्कनीय, अत्रावामतादर्शनाय प्रस्तुतविशेषणस्य विशिष्व दर्शनात्, रकतलौ-अरुणावधो-18) ३ भागौ उपचिती-उन्नती औपथिको वा-दचितौ अवपतितौ वा-क्रमेण हीवमानोपचयौ मृदुको मांसलौ सुजाताविति । पदवयं प्राग्वत् , प्रशस्तलक्षणी अच्छिद्रजालौ-अविरलाङ्गुलिसमुदायौ पाणी-हली वेषां ते तथा, पीवरकोमलवरंगुली
इति व्यक, आतावा-ईषद्रकास्तलीना:-प्रतलाः शुचयः-पवित्रा रुचिरा-मनोज्ञाः स्निग्धा-अरूक्षा नखा येषां से || तथा, नखशब्दे द्विर्भावस्तु प्राग्वत्, चन्द्र इव पन्द्राकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, एवमन्यान्यपि त्रीणि पदानि | 'दिसासोवस्थिति दिक्सीवस्तिको-दिक्मोक्षकः दिक्प्रधानः स्वस्तिको दक्षिणावर्तः स्वस्तिक इस्यन्ये स पाणी | रेखा थेषां ते तथा, एतदेवानन्तरोक्तविशेषणपश्चकं तत्पशस्तताप्रकर्षप्रतिपादनाय संग्रवचनेनाह-'चंदसूरेति गतार्थ, ननु इयन्त्येव लक्षणानि तेषां शरीरस्थानीत्याह-अनेकैः-प्रभूतैर्वरैः-प्रधानैर्लक्षणैरुत्तमा:-यशंसास्पदीभूताः शुचवःपवित्राः रचिताः स्वकर्मणा निष्पादिताः पाणिरेखा येषां ते तथा, परमहिषः-प्रधानसैरिमः वराहो-वनसूकरः सिंहः-1 केसरी शार्दूलो-ध्याघ्रः ऋषभो-गौः नागबरः-प्रधानगजः एषामिव प्रतिपूर्णः-स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो-विस्तीर्णः। स्कन्धः-अंसदेशो येषां ते तथा, चतुरङ्गलं-स्वाङ्गापेक्षया चतुरङ्गुलप्रमितं सुष्टु-शोभनं प्रमाणं यस्याः सा तथा, कम्बु-19 | वरसदृशी-उन्नततया वलित्रययोगेन च प्रधानशकसन्निभा श्रीवा येषां ते तथा, विवेकविलासे तु प्रतिमावा एकादशा-II
अनुक्रम
[३४]
~ 226~
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
दीप
श्रीजम्बू-18|जस्थानसख्यायां 'चतुःपश्च चतुर्वह्नि' इति श्लोके ग्रीवायाख्यङ्गुलं मानमिति, मांसल-पुष्टं तथा संस्थितं-संस्थानं तेन 18 वक्षस्कार द्वीपशा-18|प्रशस्त-सङ्कचितं कमलाकारत्वात् शार्दूलस्येव-व्याघस्येव विपुलं-विस्तीर्ण हनुकं येषां ते तथा, अवस्थितानि-अवर्षि-॥४॥ युग्मिखरून्तिचन्द्रीष्णूनि सुविभक्कानि-परस्परं शोभमानविभागानि न तु पुनरुजाताभीरस्खेव व्यादानमात्रलक्ष्यवदनविवरस्य कूर्चके-18
| पं.सू. २१ या कृतिः
| शपुञ्जा इव पुञ्जीभूतानि चित्राणि-अतिरम्यतयाऽद्भुतानि मणि-कूर्चकेशा येषां ते तथा, श्मश्रूणामभावे पण्डभा॥११२॥ वप्रतिपत्तिः हीयमानत्वे चैन्द्रलुप्तिकत्ववार्द्धकप्रतिपत्तिः वर्द्धमानत्वे च संस्कारकजनाभावाद्गहनभूतानि तानि स्पुरि
त्यवस्थितत्वं, 'उअविअ'त्ति परिकर्मितं यच्छिलारूपं प्रवालं आयतविद्रुमखण्डमित्यर्थः, न तु मणिकादिरूपं, तस्यैतद्पमानानुपपत्तेः बिम्बफलं-पक्कगोल्हाफलं तयोः सन्निभो रकतयोन्नतमध्यतया अधरोष्ठः-अधस्तनो दन्तच्छदो येषांक ते तथा, पाण्डुरं यच्छशिशकलं-चन्द्रमण्डलखण्डं अकलङ्कश्चन्द्रमण्डलभाग इत्यर्थः विमलानां मध्ये निर्मलश्च यः शो । | गोक्षीरफेनश्च प्रतीतः कुन्दं च-कुन्दकुसुमं दकरजश्च-वाताहतजलकणः मृणालिका च-पद्मिनीमूलं तद्वद्धवला दन्तश्रेणी-दशनपतिर्येषां ते तथा, अखण्डदन्ताः-परिपूर्णदशनाः अस्फुटितदन्ताः-अजर्जरदन्ताः अत एव सुजातदन्ताः-जन्मदोषरहितदन्ता अविरलदन्ता-निरन्तरालदन्ताः, एकाकारा दन्तश्रेणियेषां ते तथा त इव परस्प- ॥११॥ रानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वात्. अनेके-द्वात्रिंशद्दन्ता येषां ते तथा, एवं नाम तेऽविरलदन्ता यथाऽनेकदन्ता अपि सन्तः एकाकारपङ्कय इव लक्ष्यन्ते इति भावः, हुतवहेन-अग्निना निर्मात-निर्दग्धं सत् धौत-शोधितमलं तप्ठ-18
testeaceceae
अनुक्रम
[३४]
~ 227~
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
IS सतापं तपनीयं-सुवर्णविशेषस्तद्वद्रततलं-लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिला च-रसना येषा ते तथा, गरुडस्पेव-पक्षि-18
राजस्खेवायता-दीर्घा ऋग्वी-सरला तुझा-उन्नता न तु मुद्गलजातीयखेव चिपिटा नासा-नासिका येषां ते तथा, अब-18
दालितरविकरैर्विकासितं यत्पुण्डरीक-वेतं पद्म तद्वन्नयने येषां ते तथा, 'कोसाइ'त्ति विकासे: कोआसविसट्टा' (श्रीसि० ॥१९३) वित्यनेन कोआसिते-विकसिते धवले च कचिद्देशे पत्रले-पक्ष्मवती अक्षिणी-नेत्रे येषां ते तथा, आनामित-ईष
नामितमारोपितमिति भावः यश्चाप-धनुस्तद्वगुचिरे-संस्थानविशेषभावतो रमणीये कृष्णाभ्रराजीव संस्थिते सङ्गते-यथो-18 कप्रमाणोपपले आयते-दीचे सुजाते-सुनिष्पन्ने तनू-तनुके श्लक्ष्णपरिमितवालपंक्त्यात्मकत्वात् कृष्णे-कालिमोपेते स्निग्ध-18 च्छाये ध्रुवी येषां ते तथा, आलीनौ-मस्तकभित्ती किश्चिलनी न तु टप्परौ प्रमाणयुक्ती-स्वप्रमाणोपेती श्रवणौ-कौं येषां ते तथा अत एव सुश्रवणा इति स्पष्ट, अथवा सुषु श्रवर्ण-शब्दोपलम्भो येषां ते तथा, पीनी-पुष्टी यतो मांस-1 |ली-उपचिती कपोललक्षणी देशभागी-मुखावयवी येषां ते तथा. निर्ण-विस्फोटकादिक्षतरहितं सम-अविषम लष्ट-18 18| मनोझं मृष्ट-भसृणं चन्द्रार्द्धसम-अष्टमीचन्द्रसदृशं ललाटं येषां ते तथा, सूत्रे निलाडेति प्राकृतलक्षणवशात् , प्रति-181
पूर्ण:-पौर्णमासीय उडुपतिः-चन्द्रः स इव सोम-सश्रीकं वदनं येषां ते तथा, पदव्यत्यये प्राक्तन एव हेतु, घनवद्|अयोधनवनिचितं-निविडं सुबर्द्ध-सुष्टु स्नायुनद्धं लक्षणोन्नत-प्रशस्तलक्षणं कटस्य-गिरिशिखिरस्याकारेण निर्भ-सहर्श18 18|पिण्डिकेव-पाषाणपिण्डिकेव व लत्वेन पिण्डिकायमानमशिरः-उष्णीपलक्षणं येषां ते तथा, छत्राकार:-छत्रसदृश
अनुक्रम
[३४]
JinEleinnitude
~ 228~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
श्रीजम्यू- सतमाङ्गरूपो देशो येषां ते तथा, दाडिमपुष्पस्य प्रकाशेन-अरुणिमा तया तपनीयेन च सदृशी निर्मला सुजाता केशा- वक्षस्कारे 18 से-वालसमापे केशभूमिः-केशोत्पत्तिस्थामभूता मस्तकत्वम् येषां ते सथा, सका शाल्मल्या-वृक्षविशेषस्व या बोई- युग्मिस्वरूफलं तद्वद् घना-निचिता अतिशयेन निबिडाः,छोटिता अपि युग्मिनां परिज्ञानाभावेन केशपाशाकरणात् परं छोटिता है
पंसू. २१ या वृति:
अपि तथा स्वभावेन शाल्मलीयोडाकारवद् घना निचिता एवावतिष्ठन्ते सेनैतद्विशेषणोपादानं, तथा मृपया मखरा:18 ॥११३॥18| विशदा-निर्मलाः प्रशस्ताः-प्रशंसास्पदीभूताः सूक्ष्माः-लक्ष्णाः लक्षणं विद्यते येषां ते लक्षणा:-लक्षणवन्तः अना
8| विवादप्रत्ययः सुगन्धा:-परमगन्धोपेताः अत एव सुन्दरास्तथा भुजमोचको-रसविशेषः भृशो-नीलकीट:, अस्व
ग्रहणं तु मीलकृष्णयोरेक्यात्, नीलो-मरकतमणिः कज्जल-प्रतीतं प्रहष्ट-पुष्टः अमरगणः, स चात्यन्तकालिमोपेत्तः स्यादिति, ते इव स्निग्धाः निकुरम्बभूताः सन्तो निचिता न तु विकीर्णाः सन्तः संकुचिताः ईपत्कुटिला-कुण्डलीभूताइत्यर्थः, प्रदक्षिणावर्त्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजा-वाला येषां ते तथा, इत्येतत्पर्यन्तमतिदेशसूत्रं, अथ मूलसूत्रममुभियते-18 लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादयस्तैरुपपेताः, सुजातं पूर्ववत् , अविभक्तअङ्गप्रत्यङ्गानां यथोक्तवैविन्यसद्भावात् सङ्गतं-प्रमाणोपपन्नं, न तु पडङ्गुलिकादिवक्यूनाधिकम-देहो येषां ते ॥११॥ तथा, प्रासादीया इति पदचतुष्कं गतार्थमिति । अथ युगलधर्मे समानेऽपि मा भूत्पंक्तिभेद इति युग्मिरूपं पृच्छतितीसे ण' मित्यादि, तस्यां मदन्त ! समायां भरते वर्षे मनुजीनां प्रस्तावाद् युग्मिनीनां कीदृश आकारभावप्रत्यवतार
अनुक्रम
Bepesesesectsesese
[३४]
IN
~ 229~
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
प्रज्ञप्तः', 'गीतमे स्यापि प्राग्वत् , ता मनुज्यः सुजातानि-यथोक्तप्रमाणोपपेतया शोभनजम्मानि सर्वाण्यानि-शिर:प्रभृतीनि बासा ताः, अत एव सुन्दर्यश्च-सुन्दराकाराः, अत्र पदद्वय २ स्य कर्मधारयः, तथा प्रधाना ये महिलागुणा:खीगुणाः प्रियंवदंत्वखभर्तृचित्तानुवर्तकत्वप्रभृतयस्तैर्युकाः, अनेनानन्तरोतविशेषणद्वयेन सामान्यतो वर्णने कृतेऽपि तासां तदर्पणा च प्राचीनदानफलोद्भावनाय विशिष्य वर्णयति-अतिकान्ती-अतिरम्यौ तत एव विशिष्टस्वप्रमाणीशस्वशरीरानुसारिप्रमाणी न न्यूनाधिकमात्रावित्यर्थः, अथवा विसर्पन्तापपि-सारन्तावपि मृदूनां मध्ये सुकुमालौ| कूर्मसंस्थिती-उन्नतत्वेन कच्छपसंस्थानी विशिष्टी-मनोज्ञी चलनी-पादौ यासां तास्तथा, ऋजव:-सरलाः मृदवःकीमलाः पीचरा-अरश्यमानसाच्यादिसन्धिकत्वेनोपचिताः सुसंहताः-सुश्लिष्टा निर्षिचाला इत्यर्थः, अङ्गल्या-पादा
लयो यास तास्तथा, अभ्युनता-उन्नता रतिदा:-सुखदा द्रष्टणां अथवा मृगरमणादन्यत्राप्यनुपंगलोपवादिमताश्र-18
थांद्रजिता इव लाक्षारसेन तलिना:-प्रतलास्ताबा-ईषद्रताः शुचय:-पवित्राः स्निग्धा:-चिकणा नखा यासां तास्तथा, 1 णक्खेत्यत्र द्विर्भावः प्राग्वत्, रोमरहितं-निर्लोमकं वृत्तं-वर्तुलं लष्टसंस्थित-मनोज्ञसंस्थान, क्रमेणोई स्थूरं स्थूरतर-1
मिति भावः, अजघन्यानि-उस्कृष्टानि प्रशस्तानि लक्षणानि यत्र सत्तथा, एतारशं अकोयं-अद्वेष्यमतिसुभगत्वेन | जंघायुगल यास तास्तथा, मुष्टु नितरां मिते-परिमाणोपेते सुगूढे-अनुपलक्ष्ये ये जानुमण्डले तयोः सुबद्धौ दृढस्नायु-18 'कत्वाद् सन्धी-सन्धाने यासां तास्तथा, कदलीस्तम्भादतिरेकेण-अतिशयेन संस्थित-संस्थानं ययोस्ते निर्बणे-विस्फो-IR
दीप
अनुक्रम
[३४]
~230~
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
दीप
श्रीजम्यू- टकाविक्षतरहिते सकमारमृत्के-अत्यर्थकोमले मासले-मांसपूर्णे न तु काकजंघावर्षले अविरले-परस्परासले समे | वधस्कारे द्वीपशा प्रमाणतस्तुल्ये सहिके-क्षमे सुजाते-मुनिष्पन्ने वृत्ते-वर्तुले पीवरे-सोपचये निरन्तरे-परस्परनिर्विशेष उरू-सक्थिनी अग्मिखरून्तिचन्द्रीIN यास तास्तथा, वीति:-विगतेतिको घुणाद्यक्षत इति भावः एवंविधोऽष्टापदो-यूतफलकं, विशेषणव्यत्ययः प्राकृत-12
पंसू. २१ त्वात् , तद्वत् प्रष्ठसंस्थिता-प्रधानसंस्थाना प्रशस्ता विस्तीर्णपृथुला-अतिविपुला श्रोणि:-कटेरग्रभागो यास तास्तथा, ॥११४॥ वदनायामप्रमाणस्य मुखदीर्घत्वस्य च द्वादशाङ्गुलप्रमाणस्य तस्माद् द्विगुणं चतुर्विशत्यङ्गुलं विस्तीर्ण मांसलं-पुष्टं
सुबद्ध-अश्लथं जघनवरं-प्रधानकटीपूर्वभागं धारयन्तीत्येवंशीलाः, अत्रापि विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत्, बज्रवद्विराजितं क्षामत्वेन तथा प्रशस्तलक्षणं सामुद्रिकप्रशस्तगुणोपेतं निरुदरं-विकृतोदररहितं अथवा निरुदर-अल्पत्वेनाभा-1 वविवक्षणात् तिस्रो वलयो यत्र तत्रिवलिक तथा बलितं-सञ्जातबलं न च क्षामत्वेन दुर्बलमाशङ्कनीयं, तनु-कृशं 8 नतं-नवं तनुनतमीपनयमित्यर्थः, ईशं मध्यं यासांतास्तथा, स्वार्थे कप्रत्ययः, ऋजुकानां-अवक्राणां समानां-तुल्यानां
न कापि दन्तुराणां संहिताना-संततानां न त्वपान्तराले व्यवच्छिन्नानां जात्यानां स्वभावजानां प्रधानानां वा तनूना-18 18| सूक्ष्माणां कृष्णाना-कालानां न तु मर्कटवर्णानां स्निग्धानां सतेजस्कानां आदेयानां-रष्टिसुभगानां 'लडह'ति ललि-131
॥११॥ तानां सुजाताना-सुनिष्पन्नानां सुविभकानां-सुविविक्तानां कान्तानां-कमनीयानां अत एव शोभमानानां रुचिररमणीयानां-अतिमनोहराणां रोम्णां राजि:-आवलीर्यासां तास्तथा, गङ्गावत्तेतिपदं प्राग्वत्, अनुटो-अनुस्वणी प्रशस्तौ ।
अनुक्रम
[३४]
करन
~231~
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
20000000rs
[२१]
दीप
पीनी कुक्षी यासा तास्तथा, सन्नतपादिविशेषणानि प्राग्वत् , काचनकलशयोरिव प्रमाण ययोस्ती तथा, समी-परस्परं । तुल्यौ नैको हीनो न पकोऽधिक इति भाव सहितौ-संहतौ अनयोरन्तराले मृणालसूत्रमपि न प्रवेणं लभते इति भावः सुजाती-जन्मदोपरहिती लष्टचूचुकामेलको-मनोजस्तनमुखशेखरौ यमलौ-समभेणीको युगलौ-युगलरूपी वर्तिती-वृत्तौ | अभ्युनती-पत्युरभिमुखमुन्नती पीनां-पुष्टां रतिं पत्युत्त इति पीनरतिदी पीवरी-पुष्टी पयोधरी यासा तास्तथा, IM भुजङ्गत्वदानुपूर्येण-क्रमेणाधोऽधोभागे इत्यर्थः तनुको अत एवं गोपुच्छवद्वत्तौ समौ परस्परं तुल्यौ सैहिती-ममका-IN यापेक्षयाविरली नती-नम्री स्कन्धदेशस्य नतत्वातू आदेयौ-अतिसुभगतयोपादेयी तलिनी-मनोज्ञचेशाकलिती बाई यासां तास्तथा, तापनखा इति व्यक, मांसलावग्रहस्तौ-हस्ताग्रभागौ यासा तास्तथा, पीवरेति प्राम्पत्, खिग्धाणरेखा इति व्यकं, रविशशिशचक्रवस्तिका पर सुविभकाः-मप्रकटाः सुविरचिता:-सुनिर्मिता पाणिरेखा बार पातास्तथा, पीना-उपचितावयवा उन्नता-अभ्युनता। कक्षावक्षोबस्तिप्रदेशा-भुजभूलहदवगुलामदेशा यासा वाक्या कापरिपूणो गलकपोला यासां तास्तथा, चउरालेति पूर्ववत् , मांसति व्यक्तं दाडिमपुष्पप्रकाशो रकइल पीवर:कास्पचितः, प्रलम्ब:-ओष्ठापेक्षया पिल्लम्बमानः कुञ्चिता-आकृञ्चितो मनाग वलित इत्यर्थः वर:-प्रधानोऽपर:-अधस्तनद
सनच्छदो यासां तास्तथा, सुन्दरोत्तरोठा इति कण्ठाम, दधिप्रसीत दगरज-उबककाम्या प्रतीतः कुर-कुन्दकुसुम कास-18 स्वीमुकुलं-वनस्पति विशेषकलिका तद्वद् धवला जम्बूद्वीपप्रज्ञासिप्रश्वव्याकरणायादवरोऽसि धवलशब्दो जीवाभिमा
अनुक्रम
[३४]
~232~
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
दीप अनुक्रम [३४]
श्रीजम्ब-18 वृत्तौ दर्शनाल्लिखितोऽस्ति अच्छिद्रा-अविरला विमला-निर्मला दशना-दन्ता यासां तास्तथा, रक्कोत्पलवद्रकं मृदुसु-18| वक्षस्कारे
MRI कुमार-अतिकोमलं तालु जिह्वा च यासां तास्तथा, करवीरकलिकावत् नासापुटद्वयस्य यथोक्तप्रमाणतया संवृताकारतया |8| याम्मखरून्तिचन्द्री- वाऽकुटिला-अवका सती अभ्युद्गता-धूद्वयमध्यतो विनिर्गता अत एव ऋग्वी-सरला सती तुझा-उच्चा नतु गवादि-181
सू. २१ या चिः
शृङ्गवद्वका सती तुझेत्यर्थः, एवंविधा नासा यासां तास्तथा, शरदि भवं शारदं नवं कमल-रवियोध्यं कुमुद-चन्द्र-18 ॥११५॥ बोध्यं कुवलयं-तदेव नीलं एषां यो दलनिकर:-पत्रसमूहस्तत्सदृशे लक्षणप्रशस्ते अजिझे-अमन्दे भद्रभावतया निर्वि
कारचपले इत्यर्थः, कान्ते नयने यास तास्तथा, एतेन तदीयदृशामनजितसुभगत्वमायतत्वं सहजचपलत्वं चाह, शस्त्रीणामङ्गे हि नयनसौभाग्यमेव परमशृङ्गाराङ्गमिति पुनस्तद्विशेषणेन ता विशिनष्टि-पत्रले-पक्ष्मवती न तु रोगविशे
पाद्गतरोमके कचिद्धवले कर्णान्तवर्तिनी कचित्तापलोचने यासां तास्तथा, 'आणामिति 'अलीण विशेषणे प्राग्वत्, |पीना मांसलतया नतु कूपाकारा मृष्टा-शुद्धा न तु श्यामच्छायापना गण्डलेखा-कपोलपाली 'यासां तास्तथा, चतुषु अनेषु
| कोणेषु दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकमूद्धोधोभागरूपेषु प्रशस्तमहीनाधिकलक्षणत्वात् समम्-अविषमं ललाटं यासां तास्तथा, कोIS| मुदी-कार्तिकीपौर्णिमा तस्या रजनिकर:-चन्द्रस्तद्वद्विमल प्रतिपूर्णम्-अहीनं सौम्य-अकर न तु वककान्तानामिव भीषणं ॥११५।।
वदनं यासां तास्तथा, छत्रोन्नतोत्तमाका इति प्रतीतं, अकपिला-श्यामाः मुस्निग्धा:-तैलाभावादभ्यङ्गनिरपेक्षतया निसर्ग-1 चिकणाः सुगन्धा दीर्घा न तु पुरुषकेशा इव निकुरम्बभूताः नापि धम्मिल्लाविपरिणाममापन्नाः संयमविज्ञानाभावात् शिरोजा
eesecratseeperson
seरटन
~233~
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Ebeni
- यासां तास्तथा छत्रं १ ध्वजः २ यूपः-स्तम्भविशेषः ३ स्तूपः पीठं ४ दामिणित्ति - रूढिगम्यं ५ कमण्डलुः - तापसपानीयपात्रं ६ कलशः ७ वापी ८ स्वस्तिकः ९ पताका १० यवो ११ मत्स्यः १२ कूर्मः १३ रथवरः १४ मकरध्वजः-कामदेवस्तत्संसूचकं सूचनीये सूचकोपचारालक्षणमिति, तच्च सर्वकालमविधवत्वादिसूचक १५ अङ्कः- चन्द्रविम्वान्तर्वतीं श्यामावयवः, कचिदङ्कस्थाने शुक इति दृश्यते १६ स्थालं १७ अङ्कुशः १८ अष्टापदं यूतफलकं १९ सुप्रतिष्ठकंस्थापनकं २० मयूरः २१ श्रियोऽभिषेको-लक्ष्म्या अभिषेकः २२ तोरणं २३ मेदिनी २४ उदधिः २५ वरभवनं- प्रधानगृहं २६ गिरि २७ र्वरादर्शो वरदर्पणः २८ सलीलगजो-लीलावान् गजः २९ ऋषभोगी: ३० सिंहः ३१ चामरं ३२ एतान्युत्तमानि - प्रधानानि प्रशस्तानि - सामुद्रिकशास्त्रेषु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशलक्षणानि घरन्ति यास्तास्तथा, हंसस्य सदृशी गतिर्यासां तास्तथा कोकिलाया आबमञ्जरी संस्कृतत्वेन पञ्चमस्वरोगारमयी या मधुरा गीस्तद्वत् सुष्ठु - शोभनः स्वरो यासां तास्तथा, कान्ताः - कमनीयाः सर्वस्य तत्प्रत्यासन्नवर्त्तिनो लोकस्यानुमताः- सम्मता न कस्यापि मनागपि द्वेष्या इति भावः, बलि:- शैथिल्यसमुद्भवश्चर्मविकारः पलितं पाण्डुरः कचः व्यपगतानि वलिपलितानि वाभ्यस्तास्तथा, | तथा विरुद्धमङ्गं व्य-विकारवानवयवः दुर्वर्णो- दुष्टशरीरच्छविः व्याधिदौर्भाग्यशोकाः प्रतीताः तैर्मुक्ताः, पश्चाद्विशेषणद्वयकर्मधारयः, उच्चत्वेन च नराणां स्वभर्तॄणां स्तोकोनं यथा स्यात्तथोच्छ्रिताः किञ्चिन्यूनत्रिगव्यूतोच्छ्रया इत्यर्थः, न हि ऐदंयुगीन मनुष्यपक्य इव स्वभर्तुः समोच्चत्वा अधिकोषत्वा वा भवेयुः, किमुक्तं भवति ? - यथा हि सम्प्रति पुरुषस्य
Fur Fate &P Cy
~234~
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षा न्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ११६ ॥
कन्नोजवाया भार्याया योगों लोके उपहासपात्रं स्यात् न तथा तेषां मनुष्याणामिति, तथा स्वभावत एव शृङ्गाररूपबारुः- प्रधानी वेषो यासां तास्तथा, प्रायो निर्विकारमनस्कत्वेनादृष्टपूर्वकत्वेन च तासां सीमन्तोन्नयनाद्योपाधिकशृङ्गाराभावात् सङ्गतं उचितं गतं गमनं हंसीगमनवत् हसितं - हसनं कपोलविकाशि प्रेमसन्दर्शि च भणितं भणनं गम्भीरं दर्यकोहीपि च चेष्टनं-सकाममङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गदर्शनादि विलासो-नेत्रचेष्टा संलापः- पत्या सह सकामं स्वहृदयप्रत्यर्पणक्षमं | परस्परं सम्भाषणं तत्र निपुणाः, तथा युक्ताः- सङ्गता ये उपचारा- लोकव्यवहारास्तेषु कुशलाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, एवंविधविशेषणाच स्वपतिं प्रति द्रष्टव्या नतु परपुरुषं प्रति, तथाविधकालस्वभावात् प्रतनुकामतया परपुरुषं प्रति तासामभिलाषासम्भवात् एवं च युग्मिपुरुषाणामपि परस्त्रीः प्रति नाभिलाष इति प्रतिपत्तव्यं, नन्वेवं सति प्रथमभगवतः सुनन्दापाणिग्रहणं कथमुचितं ? मृतेऽपि पुंसि तस्याः परसम्बन्धित्वाविरोधात् उच्यते, मा ब्रूहि निषिद्धविरुद्धाचरणस्स भगवतः श्रवणाश्रव्यमेनमपवादं, कन्यावस्थाया एव तस्या भगवता पाणिग्रहणकरणात् यत:- "पढमो कालम तहिं तालफलेण दारओ पहओ । कण्णा व कुलगरेणं सिद्धे गहिआ उसभपत्ती ॥ १ ॥” [ प्रथमोऽकालमृत्युसंध तालफलेन दारकः महतः । शिष्टे च कन्या कुलकरेण गृहीता ऋषभपक्षी ( भविष्यतीति ) ॥ १ ॥ ] एवं तर्हि सहजातायाः सुमङ्गलायाः पाणिग्रहणं कथं १, सत्यं तदानीन्तनठोकाचीर्णत्वेन तदानीं तस्या अविरुद्धत्वादिति पूर्वोकमेवार्थ सम्पियाह-'सुंदरे'त्यादि व्यक्तमेव, नवरं जघनं पूर्वकटीभागः, लावण्यं-आकारस्य स्पृहणीयता विलासः
FE&P Cy
~ 235 ~
5200020
वक्षस्कारे युग्मखरूपं. २१
॥ ११६॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२१]
दीप
बीणां चेष्टाविशेषः, आह च-"स्थानासनगमनानां हस्तनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स सुविलासः खात् ॥१॥" नन्दनवनं-मेरोद्वितीयवनं तस्य विवर-अवकाशो वृक्षरहितभूभागस्तत्र चारिण्य इवाप्सरसो-देव्यः भरतवर्षे मानुषरूपा अप्सरसः आश्चर्य-अद्भुतमिति प्रेक्षणीयाः प्रासादीया इत्यादि । सम्प्रति स्त्रीपुंससाधारण्येन तत्कालभाविमनुष्यस्वरूपं विवधुरिदमाह-'ते ण मणुआ' इत्यादि, ते सुषमसुषमाभाविनो मनुष्याः ओष:-प्रवाही स्वरो येषां 18 ते तथा, हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते तथा, कौश्वस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी स्वरो येषां ते तथा, नन्दी-18 द्वादशविधतूर्यसमुदयस्तस्या इव शब्दान्तरतिरोधायी स्वरो येषां ते तथा, नन्या इव घोषः-अनुनादो येषां ते तथा, सिंहस्खेव बलिष्टः स्वरो येषां ते तथा, एवं सिंहघोषा उक्तविशेषणानां विशेषणद्वारा हेतुमाचष्टे-मुखराः सुस्वरनि||पाः, छायया-प्रभया योतितान्यज्ञानि-अवयवा यस्य तदेवंविधमज-शरीर येषां ते सथा, मकारोऽलाक्षणिक, | बजऋषभनाराचे नाम सर्वोत्कृष्टमा संहननं येषां ते तथा, समचतुरसं संस्थान-सर्वोत्कृष्ट आकृतिविशेषस्तेन संस्थिताः,
यां-वचि निरातङ्का:-नीरोगाः दद्धकुष्ठकिलासादित्वग्दोषरहितवपुष इत्यर्थः, अथवा छवित्ति छविमन्ता, छविच्छ|विमतोरभेदोपचारादू दीर्घरवेन मतुब्लोपाद्वा, यथा मरीचिरित्यत्र मलयमिरीयावश्यकवृत्ती, उदात्तवर्णसुकुमारत्वचा युक्ता 1. इत्यर्थः, पश्चानिरातङ्कापदेन कर्मधारयः, अनुलोम:-अनुकूलो वायुवेग:-शरीरान्तर्वी वातजयो येषां ते तथा, कपोतस्य
श्व गुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशाः, सति गुल्मे प्रतिकूलो वायुवेगो भवतीति भावः, कङ्क:-पक्षिविशेषस्तस्येव ग्रहणी-गुदाशयो|
अनुक्रम
[३४]
~236~
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
दीप
श्रीजम्यू-18नीरोगवर्चस्कतया येषां ते तथा, कपोतस्येव-पक्षिविशेषस्येव परिणाम:-आहारपरिपाको येषां ते तथा, कपोतस्य विक्षस्कारे द्वीपशा
जाठराग्निः पाषाणलवानपि जरयतीति लौकिकश्रुतिः एवं तेषामप्यत्याहारग्रहणेऽपि न जातुचिदजीर्णदोषादयः, शकुन-18 न्तिचन्द्री
नरव०. या वृत्तिः रिव-पक्षिण इव पुरीपोत्सर्गे निर्लेपतया पोस:-अपानदेशो येषां ते तथा, 'पुस उत्सर्ग' पुरीपमुत्सृजन्त्यनेनेति व्युत्पत्ते,8
२१ तथा पृष्ठ-दारीरपृष्ठभागः अन्तरे-पृष्ठोदरयोरन्तराले पार्षे इत्यर्थः ऊरू च-सक्थिनी इति दग्दः, एतानि परिणतानि-18 ॥११७॥ परिनिष्ठितां गतानि येषां ते तथा, कान्तस्य परनिपातः सुखाविदर्शनात् , ततः पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, यथोचित-18
परिणामेन तानि सञ्जातानीत्यर्थः, षधनुःसहस्रोच्छिन्ताः, अत्रापि मकारोऽलाक्षणिका, उत्सेधाकुलतस्निगव्यूतप्रमाणकाया इत्यर्थः, यच्च युग्मिनीनां किश्चिदूनत्रिगव्यूतप्रमाणोचत्वमुक्तं तदल्पतया न विवक्षितमिति भावः । अथ तेषां वपुषि
पृष्ठकरण्डकसङ्ख्यामाह-'तेसि ण'मित्यादि, तेषां मनुष्याणां द्वे षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठकरण्डुकशते पाठान्तरेण पृष्ठकरMण्डकशते वा प्रज्ञते, पृष्ठकरण्टुकानि च-पृष्ठवंशवर्युनताः अस्थिखण्डाः पंशुलिका इत्यर्थः, हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत्,
पुनस्तानेव विशिनष्टि-'पउमुप्पल' इत्यादि, ते णमिति पूर्ववत् , मनुजाः पन्न-कमलमुत्पलं-नीलोत्पलं अथवा पद्म|पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलं-कुष्ठ तयोर्गन्धेन-परिमलेन सदृशः-समो यो निःश्वासस्तेन सुरभिगन्धि वदनं येषां ॥११॥
ते तथा, प्रकृत्या-स्वभावेनोपशान्ता नतु क्रूराः प्रकृत्या प्रतनवः-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा, |अत एष मूवु-मनोज्ञं परिणामसुखावहमिति भावः यम्मार्दवं तेन सम्पन्नाः न तु कपटमार्दवोपेताः, आलीना-गुरुज-18
ctroeseaseseeeeeeeeeee
अनुक्रम
[३४]
~237~
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम [३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
JE(intenut
नमाश्रिता अनुशासनेऽपि न गुरुषु द्वेषमापद्यन्ते इत्याशयः अथवा आ-समन्तात् सर्वासु क्रियासु लीना गुप्ता नोल्वचेष्टाकारिण इत्यर्थः, भद्रकाः - कल्याणभागिनः, भद्रगा वा भद्रहस्तिगतयः, विनीता - बृहत्पुरुषविनयकरणशीला अथवा विनीता इव - विजितेन्द्रिया इव, अल्पेच्छा- मणिकनकादिप्रतिबन्धरहिताः अत एव न विद्यते सन्निधिः - पर्युवितखाद्यादेः संचयो-धारणं येषां ते तथा, विटपान्तरेषु - शाखान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु परिवसनं - आकालमावासो येषां ते तथा, यथेप्सितान् कामान्-शब्दादीन् कामयन्ते- अर्थान् भुञ्जते इत्येवंशीला ये ते तथा इति, अत्र च जीवाभिगमादिषु युग्मिवर्णनाधिकारे आहारार्थप्रश्नोत्तरसूत्रं दृश्यते, अत्र च कालदोषेण त्रुटितं सम्भाव्यते, अत्रैवोत्तरत्र द्वितीयतृतीयारकवर्णकसूत्रे आहारार्थसूत्रस्य साक्षाद् दृश्यमानत्वादिति, तेनात्र स्थानाशून्यार्थं जीवाभिगमादिभ्यो लिख्यते—
तेसि णं भंते ? मणुआणं केवइकालस्स आहार समुप्पज्जइ !, गोअमा ! अट्टमभत्तस्स आहारद्वे समुप्पज्जइ, पुढबीपुप्फफलाहारा णं ते. • पण्णत्ता समणासो !, तीसे णं भंते! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ?, गो० ! से जहा णामए गुलेइ वा खंडे या समराइ वा मच्छंडिआइ वा पप्पढमोअए इ वा मिसेद् वा पुप्फुत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा विजयाइ वा महाविजयाइ वा आकासिआइ वा आसिआइ वा आगास फलोवमाइ वा उग्गाइ वा अणोवमाइ वा इमेए अच्झोववणाए, भवे एजारूवे ?, णो इगमट्टे समट्टे, सा णं पुढवी इत्तो इतरिआ चैव जाव मणामतरिआ चैव आसाएणं पण्णत्ता । तेसि णं भंते! पुप्फफन्oाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते ?, गोजमा ! से जहा नाम रण्णो चाउरंतचकवट्टिस्स कहाणे भोअणजाए सयसहस्सनिप्फने वण्णेणुववेए जाव फासेणं उबवे आसावणिज्जे विसाय
प्रथम-आरकवर्ती मनुष्यस्य आहार आदि वर्ण्यते
Furwale rely
~ 238~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
४.२२
[२२]
दीप
श्रीजम्बू- गिने दिप्पणिजे दप्पणिये मयणिजे [विग्यणिजे पिंहणिजे सर्विदिअगावपल्हायणिज्जे, भवे एआरूवे, णो इणमढे समढे, तेसि ।
श्वक्षस्कारे द्वीपशा- पुष्फफलाणं एत्तो इतराए चेव जान आसाए पण्णते (सूत्र २२)
प्रथमारकम्तिचन्द्री
तेषां भदन्त ! मनुजानां केवइकालस्स'त्ति सप्तम्यर्थे षष्ठी कियति काले गते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते-आहार-निराहारव० या वृत्तिः
लक्षणं प्रयोजनमुपतिष्ठते , भगवानाह-हे गौतम! अष्टमभक्तस्य, अत्रापि सप्तम्यर्थे षष्ठी, अष्टमभक्केऽतिक्रान्ते आहा॥११८॥ 18 रार्थः समुत्पद्यते इति, यद्यपि सरसाहारित्वेनैतावत्कालं तेषां शुद्धदनीयोदयाभावात् स्वत एवाभक्तार्थता न निर्जरार्थ।
तपः तथाप्यभक्तार्थत्वसाधादष्टमभक्त इति, अष्टमभक चोपवासत्रयस्य संज्ञा इति, अथैते यदाहारयन्ति तदाह'पुढवीपुष्फे त्यादि, पृथिवी-भूमिः फलानि च-कल्पतरूणामाहारो येषां ते तथा, एवंविधास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत् । अथानयोराहारयोर्मध्ये पृथिवीस्वरूपं पृच्छन्नाह-तीसेण'मित्यादि, तस्याः पृथिव्याः कीदृश आस्वादः प्रज्ञप्तो, यो युगलधर्मिणामनन्तरपूर्वसूत्रे आहारत्वेनोक्त इत्यध्याहार्य, भगवानाह-गौतम ! तद्यथा नाम ए इत्यादि प्राग्वत् , गुड:-इंचरसक्वाथ इति, इतिषाशब्दी प्राग्वत्, खण्डं-गुडविकारः शर्करा-काशादिप्रभवा मत्संडिका-खण्डशर्कराः पुष्पोत्सरापनोत्तरे शर्कराभेदावेव, अन्ये तु पर्पटमोदकादयः खाद्यविशेषा लोकतोऽवसेयाः, एषां मधुरद्रव्यविशेषाणां |
॥११८॥ | स्वामिना निर्दिष्टेषु नामसु एतादवारसा पृथिवी भवेत् कदाचिदिति विकल्पारूढमतिर्गौतम आइ-भवेदेतद्पः पृषिव्या आस्वादः, स्वाम्याह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, सा पृथिवी इतो-गुडशर्करादेरिष्टतरिका एव, स्वार्थे प्रत्ययः,
अनुक्रम
[३५]
~239~
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२२]
दीप
अनुक्रम [३५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jin Ebeni
अकरणात्कान्ततरिका चैव प्रियतरिका चैवेति परिग्रहः, मनआपतरिका एव आस्वादेन प्रज्ञता इति, अथ पुष्पफलानामास्वादं पृच्छन्नाह-'तेसि ण' मित्यादि तेषां पुष्पफलानां कल्पद्रुसम्बन्धिनां कीटशः-क आस्वादः प्रज्ञप्तो, यानि पूर्वसूत्रे युग्मिनामाहारत्वेन व्याख्यातानी ति गम्यं, भगवानाह गौतम ! तद्यथा नाम राज्ञः, स च राजा लोके कतिपयदेशाधीशोऽपि स्यादत आह-चतुर्च्चन्तेषु समुद्रत्रयहिमवत्परिच्छिन्नेषु चक्रेण वर्त्तितुं शीलमस्येति चतुरन्तचक्रवर्त्ती, 'अतः समृद्ध्यादौ वे' (श्रीसि० ८-१-४४) त्यनेन दीर्घत्वं अनेन वासुदेवतो व्यावृत्तिः कृता, तस्य कल्याणं- एकान्तसुखावहं भोजनजातं - भोजनविशेषः शतसहस्रनिष्पन्नं- लक्षव्ययनिष्पन्नं, वर्णेनातिशायिनेति गम्यते, अन्यथा सामान्यभोजनस्यापि वर्णमात्रवत्ता सम्भवत्येवेति किमाधिक्यवर्णनं १, उपपेतं युक्तं, यावदतिशायिना स्पर्शेनोपपेतं यावत् | गन्धेन रसेन चातिशायिनोपपेतं आस्वादनीयं सामान्येन विस्वादनीयं विशेषतस्तद्रसमधिकृत्य दीपनीयं - अभिवृद्धिकरं | दीपयति जठराग्निमिति दीपनीयं, बाहुलकात्कर्त्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्पणीयमुत्साहवृद्धिहेतुत्वात्, मदनीयं- मन्मथजनकत्वात् बृंहणीयं धातूपचयकारित्वात् सर्वाणि इन्द्रियाणि गात्रं च प्रह्लादयतीति सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयं वैशद्यहेतुत्वात्तेषां एवमुको गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतद्रूपस्तेषां पुष्पफलानामास्वादः १, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः | समर्थः, तेषां पुष्पफलानामित: - चक्रवर्त्तिभोजनादिष्टतरकादिरेवाखादः, अत्र कल्याणभोजने सम्प्रदाय एवं - चक्रवर्त्ति सम्बन्धिनीनां पुंढेचारिणीनामनातङ्कानां गवां लक्षस्याद्धार्द्धक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्याः गोः सम्बन्धि
Fur Fate &P Cy
~ 240~
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
----- मूलं [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे प्रथमारकेनरावासा दिव. सू. २३-२४
सूत्रांक
[२२]
दीप अनुक्रम [३५]
श्रीजन-18| यत क्षीरं तवाद्धकलमशालिपरमानरूपमनेकसंस्कारकद्रव्यसम्मिनं कल्याणभोजनमिति प्रसिद्धं, चक्रिण स्त्रीरकं च
द्वीपशा- || विना अन्यस्य भोक्तुर्दुर्जरं महदुन्मादकं चेति ॥ अथैते उक्तस्वरूपमाहारमाहार्य व वसन्तीति पृच्छतिन्तिचन्द्री
ते णं भंते ! मणुया तमाहारमाहारेता कहिं वसहि उति !, गोअमा ! रुक्खगेहाळया णं ते मणुआ पण्णचा समणासो!, तेसिणं या वृत्तिः
भंते ! रुक्खाणं केरिसए आयारभावपटोआरे पण्णत्ते, गोअमा ! कूडागारसंठिआ पेच्छाच्छत्तझयथूभतोरणगोचरवेइमाचोप्फालग॥११९॥
अट्टालगपासायहम्मिअगवक्सबालग्गपोइभावलभीघरसंठिा अस्थपणे इत्थ बहने वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिआ दुमगणा सुहसीललच्छाया पण्णता समणाउसो ! (सूत्रं २३) अत्थि णं भंते तीसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहाबणाइ वा?, गोभमा! णो इणढे समढे, रुक्खगेहालया ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो!, अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा जाव संणिवेसाइ वा!, गोयमा! णो इण? समहे, जहिच्छिाकामगामिणो ण ते मणुआ पण्णता, अस्थि ण मंते ! असीइ वा मसीइ वा किसीद वा वणिएत्ति वा पणिएत्ति वा वाणिजोइ वा !, णो इणढे समढे, ववगयअसिमसिकिसिवणिअपणिअवाणिजा ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि णं भंते ! हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कसेइ वा दूसेइ वा मणिमोत्सिअसंखसिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा !, इंता अत्थि, णो चेव णं तेर्सि मणुआणं परिभोगताए हवमागच्छइ । अस्थि णं भंते! भरहे रायाइवा जुवराया इ वा ईसरतलवरमाढविभकोडुंबिअइन्भसेहिसेणावइसत्यवाहाइ वा !, गोयमा ! णो इणद्वे समहे, वगयइडिसक्कारा गं ते मणुआ, अस्थि भंते ! भरहे वासे दासेहवा पेसेइ वा सिस्सेइ वा भयगेइ वा भाइहएइ वा कम्मयरएइ वा!, णो इणढे समढे, ववगयआभिओगा गं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि ण भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा पियाइ वा भाय० भगिणि० भजा पुत्त० भूभा० सुण्डाइ वा !, हता
BAR
॥११९॥
प्रथम-आरकवर्ती मनुष्यस्य आवास-आदि वर्ण्यते
~ 241~
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम
[३६-३७]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...
-
मूलं [२३-२४]
....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अत्थि, णो व णं तिखे पेम्मबंधणे समुप्पाद, अत्थि णं भंते! भरहे वासे अरीइ वा वेरिएइ वा घायएइ वा वहएइ वा पडिणीयप वा पचामित्तेइ वा?, जो इणट्ठे समट्ठे, वनगयवेराणुसया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि णं भंते! भरहे वासे मित्ताइ वा वयंसाइवा णायएव वा संघाढिएर वा सहाइ वा सुहीइ वा संगएइति वा १, हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं तिचे रागबंधणे समुप्पज्जइ, अस्थि णं भंते ! भरहे वाले आवाहाइ वा वीवाहाइ वा जण्णाइ वा सढाइ वा थालीपागाइ वा मितपिंडनिवेदणाइ वा !, णो इण सम, वयगयआवाहवी बाहुजण्णसुद्धथालीपाकमित पिंडनिवेदणा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि णं भंते ! मरहे वासे इंदमहाति वा खंद्० णांग० जक्ख० भूअ० अगड० तडाग० दह० गदि० रुक्ख० पवय० धूभ० बेइयमहाइ वा !, ण ण सम, बवगयमहिमा णं ते मणुआ पं०, अस्थि णं भंते! भरहे वासे पढपेच्छाइ वा णट्ट० जह० मह० मुट्टिभ० मेलंबग० कग० पवग० लासगपेच्छाइ वा !, णो इणट्टे समट्ठे, बनगयको उहला णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि णं भंते! भरहे वासे सगढाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुग्ग० गिलि बिल्डि० सीभ० संद्माणिआइ वा ! जो इणडे समट्ठे, पायचारविहारा णं ते मणुआ पं० समणाउसो !, अत्थि णं भंते! भरहे वासे गावीइ वा महिसीइ वा अयाइ वा एलगाइ वा ?, हंता अत्थि, णो चेवणं तेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अस्थि णं भंते! भरद्दे वासे आसाइ वा हत्यि० उट्ट० गोण० गवय० अय० एलग० पसय० मिअ० वराह० रुरु० सरभ० चमर० कुरंगगोकण्णमाइआ !, हंता अस्थि, णो चेव णं तेसिं परिभोगत्ताए हवमागच्छति, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे सीहाइ वा वा वा विगदीविगअच्छतरच्छसिआलविडालसुणगकोकंतियकोलसुणगाइ वा !, हंता अस्थि, जो चेवणं तेसिं आणं आबाई वा वाबाहं वा छविच्छेअं वा उप्पार्येति, पगइभदया णं ते सावयगणा पं० समणांउसो!, अि
Fale&Prone Cy
~ 242 ~
৬১৬১৬১৬১৬১020
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम
[३६-३७]
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१२०॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Genet
-
णं भंते! भरहे वासे सालीति वा बीहिगोहूमजवजवजवाइ वा कलमनसूरमुग्गमास तिलकुलत्थणिप्फावआलिसद्गअयसि कुसुंभ को वकंगुषरगराळगसणसरिसवमूलगबीआइ वा हूँ, हंता अस्थि, णो वेष णं वेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अस्थि णं भंते ! भरहे बासे गड्ढाइ वा दरीओवायपवायविसमविनलाइ वा ?, णो इट्टे समट्ठे, भरहे वासे बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरे वा०, अस्थि णं भंते! भरदे वासे खाणूइ वा कंटगतणयकयवराइ वा पतकयवराइ वा ? णो णट्ठे समट्ठे, वनगयखाणुकंटगतणकयवरपत्तकयवरा णं सा सभा पण्णत्ता, अत्थि णं भंते! भरछे वासे डंसाइ वा मसगाइ वा जूआइ वा लिक्खाइ वा ढिकुणाइ बापिसुभाइ वा !, णो णट्ठे समट्टे, धवगयडंसमसगजूअलिक्खर्टिकुणपिसुआ उद्दवविरहिआ णं सा समा पण्णत्ता, अस्थि णं भंते! भर अद्दी वा अयगराइ वा ?, हंता अस्थि, णो देव णं तेसिं मणुमणं आवाहं वा जाब पगइभद्दया णं ते वालगगणा पण्णत्ता, अस्थि णं भंते ! भरहे डिबाइ वा डमराइ वा कलहयोलखारवइरमहाजुढाइ वा महासंगामाइ वा महासत्यपडणाइ वा महापुरिसपढणा बा, गोयमा ! णो ण समढे, ववगववेराणुबंधा णं ते मणुआ पण्णत्ता!, अस्थि णं भंते! भरहे वासे दुब्भूआणि वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा मंडळरोगाइ वा पोट्ट० सीसवेअणाइ वा कष्णोअच्छिणइदं तवेअणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा सोसाइ वा दाहाइ वा रिसाइ वा अजीरगाइ वा दओदराइ वा पंडुरोगाइ वा भगंदराइ वा एगाहिआइ वा बेआहिआइ वा तेआहिआइ वा चउत्थाहिआइ बा इंदुग्गहाइ वा धणुग्गद्दाइ वा संदग्गहाइ वा कुमारग्गद्दाइ वा जक्खमाहाइ वा भूअग्गहाइ वा मच्छसूलाइ वा हिमयसूलाई वा पोट्ट० कुच्छि० जोणिसूलाइ वा गाममारी वा जाव सण्णिवेसमारीद वा पाणिक्खया जणक्खया कुलक्सया वसणन्भूअमणारिआ !, गोयमा ! णो णट्टे समद्वे, ववगयरोगायंका णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! (सूत्रं २४ )
Fur Fraternal Use Only
~ 243 ~
२वक्षस्कारे प्रथमारके नरावासा
दिव. सू.
२३-२४
॥१२०॥
jantarya
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
-- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
'ते ण' मित्यादि, ते भदन्त ! मनुजास्तमनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य व वसती-कस्मिन्नुपाश्रये उपयन्ति-उपगच्छन्ति !, भगवानाह-गौतम ! वृक्षरूपाणि गृहाणि आलया-आनया येषां ते तथा एवंविधास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत् , अथैते गेहाकारा वृक्षाः किस्वरूपा इति पृच्छति-'तेसिणं भंते । रुक्खाण'मित्यादि प्रश्नसूत्र-19 पदयोजना सुलभा, आकारभावप्रत्यवतारः प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम! ते वृक्षाः कूट-शिखरं तदाकारसंस्थिताः, प्रेक्षा | इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् प्रेक्षागृह-नाट्यगृह, 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति संस्थित
शब्दः सर्वत्र योग्यः, तेन प्रेक्षागृहसंस्थिता इति व्याख्येयं प्रेक्षागृहाकारेण संस्थानवन्त इत्यर्थः, एवं छत्रध्वजतोरण-| S| स्तूपगोपुरवेदिकाचोप्फालअट्टालकपासादहhगवाक्षवालाप्रपोतिकावलभीगृहसंस्थिताः, तत्र छत्राद्याः प्रतीताः, गो-18
पुरं-पुरद्वारं वेदिका-उपवेशनयोग्या भूमिः चोप्फालं नाम मत्तवारणं अहालक:-प्राग्वत् प्रासादो-देवतानां राज्ञां चा | 18| गृहं उच्छ्यबहुलो वा प्रासादः ते चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः हम्म्य-शिखररहितं धनवंतां भवनं गवाक्षा-स्पष्टः ।
वालाप्रपोतिका नाम जलस्योपरि प्रासादः बलभी-छदिराधारस्तत्प्रधानं गृहं, अत्रायमाशयः केचिद्वृक्षाः कूटसंस्थितास्तदन्ये प्रेक्षागृहसंस्थितास्तदपरे छत्रसंस्थिता, एवं सर्वत्र भाव्यं, अन्ये तु अत्र-सुषमसुषमाया भरतवर्षे बहवो बरभवन-६ सामान्यतो विशिष्टगृहं तस्येव यद्विशिष्टं संस्थानं तेन संस्थिताः शुभा शीतला छाया येषां ते तथा एवंविधा द्रुमगणा118 प्रज्ञप्ताः, हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत्, प्राग्गेहाकारकल्पद्रुमस्वरूपवर्णके उक्केऽपि पते परमपुण्यप्रकृतिका युग्मिन एषु सौन्द-18
दीप
Recenseseseseeseaeoeseate
अनुक्रम [३६-३७]
श्रीमन्यू. २१
~ 244 ~
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
--- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
या चिः
श्रीजम्मू-18 श्रियेवाश्रयेषु वसन्तीति ज्ञापनार्थ पुनस्तद्वर्णकसूत्रारम्भः सार्थक इति , ननु तदा गृहाणि न सन्तिी, सन्त्यपि वा 8वक्षस्कारे
18|| गृहाणि धान्यवन्न तेषामुपभोगायायान्तीत्याशङ्कमानः पृच्छति-'अस्थि णमित्यादि, अस्तीत्यस्य त्यादिप्रतिरूपकाव्य- प्रथमारके न्तिचन्द्री-1
बस्य वचनत्रयसदृशरूपत्वेन सन्तीति व्याख्येयं, सन्ति भदन्त ! तस्यां समायां भरतवर्षे गेहानि वा प्रतीतानि गेहेषु नरावासा
आयतनानि आपतनानि वा-उपभोगार्थमागमनानि, उत्तरसूत्रं तु प्राग्वत्, एतेन तदा मनुष्यादिप्रयोगजन्यगृहा- दिव.स. ॥१२१॥ भावस्तत एव तेषामुपभोगार्थ तत्रापतनाभावश्चोक्त इति, 'अस्थि णं भंते ! तीसे' इत्यादि, उक्तवश्यमाणेषु एषु युग्मि-RI
२३-२४ सत्रेषु प्रश्नोत्तरालापकयोर्वाक्ययोर्योजना प्राग्वत् , नवरं ग्रामा वृत्त्यावृताः कराणां गम्या वा यावत्करणानगरादिपरि-॥
महः, तत्र नगराणि चतुर्गोपुरोझासीनि न विद्यते करो येषु तानि नकराणि वा-कररहितानि, नखादिनिपातनादपआप सिद्धिा, निगमा:-प्रभूतवणिग्वर्गावासाः, प्रसुप्राकारनिवद्धानि कचिन्नद्यद्रिवेष्टितानि वा खेटानि, क्षुलकमाकारवेष्टितानि |
अभितः पर्वतावृतानि वा कर्बटानि, अर्द्धतृतीयगन्यूतान्तामरहितानि ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा मडम्बानि, पत्तनानि । जलस्थलपथयुक्तानिरलयोनिभूतानि वा, सिन्धुवेलावलयितानि द्रोणमुखानि, आकरा-हिरण्याकरादयः, आश्रमा:-तापसाश्रयाः, सम्बाधा:-शैलङ्गस्थायिनो निवासाः यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशावा, राजधान्यो यत्र नगरे पत्तने अन्यत्र ॥१२॥ वा वयं राजा वसति, सन्निवेशा-यत्र सार्थकटकादेरावासा भवन्ति ?, अनोत्तर-नायमर्थः समर्थः, अत्रार्थे विशेषणद्वारा | हेतुमाह-यथेप्सितं-इच्छामनतिक्रम्य कार्म-अत्यर्थ गामिनो-गमनशीलास्ते मनुजाः, अत्रात्यर्थकथनेन तेषां सर्वदापि स्वा
9929
दीप
अनुक्रम [३६-३७]
08290sraeraaraara
~245~
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
--- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
तन्न्यमुक्तं, ग्रामनगरादिव्यवस्थायां तु नियत्ताश्रयत्वेन तेषामिच्छानिरोधः स्यात् , जीवाभिगमे तु 'जहेच्छिअकामगामिणो' | इत्यस्य स्थाने 'ज नेच्छिअकाभगामिणो' इति पाठः, तत्रायमर्थः यद्-यस्मान्नेप्सितकामगामिनः न इच्छित-इच्छाविषयी। कृर्त नेच्छितं, नायं नकिन्तु नशब्द इत्यनादेशाभावः, यथा 'नके द्वेषस्य पर्याया' इत्यत्र, नेच्छित-इच्छाया अविषयीकृतं
काम-वेच्छया गच्छन्तीत्येवंशीला नेच्छितकामगामिनस्ते मनुजा इति, यद्यपि गृहसूत्रेणैवार्थापत्त्या ग्रामाद्यभावः सूचिIS तस्तथाप्यव्युत्पन्नविनेयजनव्युत्पत्त्यर्थमेतत्सूत्रोपन्यासः, 'अस्थि ण'मित्यादि, अत्रासि:-खङ्गः यमुपजीव्य जनः सुखIS सिको भवति यद्वा साहचर्यलक्षणया असिशब्देन अत्र अस्युपलक्षिताः पुरुषा गृह्यन्ते, एवमोतनविशेषणेष्वपि यथायोगं| IS ज्ञेयं, मपी यदुपजीवनेन लेखककला, कृषि:-कर्षणं वणिक्-पण्याजीवः पणित-क्रयाणकं वाणिज्य-सत्यानृतमर्पणग्रहणा
| दिषु न्यूनाधिकाद्यर्पणमित्यर्थः, नायमर्थः समर्थः, यतस्ते व्यपगतानि असिमपीकृषिवणिक्पणितवाणिज्यानि येभ्यस्ते । तथा मनुजा प्रज्ञप्ता इति। 'अस्थि णमित्यादि, हिरण्यं-रुप्यमघटितसुवर्ण वा सुवर्ण-घटितं कांस्य-प्रतीतं दृष्यंवनजाति: मणि:-चन्द्रकान्तादिः मौक्तिक-व्यक्तं शो-दक्षिणावर्चादिः शिला-ान्धपेषणादिका प्रवाल-प्रतीत रकरलानि-पद्मरागादीनि स्वापतेयं-रजतसुवर्णादिद्रव्यं, ननु यदि हिरण्यं रूप्यं तदा रूप्यखानी तत्सम्भवः यदि चाघटितसुवर्ण तदा सुवर्णखानी परं घटित सुवर्ण तथा तावत्रपुसंयोगजं कांस्यं तथा तन्तुसन्तानसम्भवं दृष्यं तत्र कथं सम्भवेयुः?, शिल्पिप्रयोगजन्यत्वात् तेषां, न च तान्यत्रातीतोत्सर्पिणीसत्कनिधानगतानि सम्भवंतीति वाच्यं,
Secececedeseeeeeeeeeeeeeeo
Reseseeeeeeeeeeeee
अनुक्रम [३६-३७]
~ 246~
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार २], ---------....-----
-- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
दीप
श्रीजम्मू-18| सादिसपर्यवसितप्रयोगवन्धस्यासधेयकालस्थितेरसम्भवात् ,एगोरुगोत्तरकुरुसूत्रयोरेतदालापकस्याकथनप्रसङ्गात् , उच्यते, वक्षस्कारे द्वीपशा- 18 संहरणप्रवृत्तक्रीडाप्रवृत्तदेवप्रयोगात् तानि सम्भवन्तीति सम्भाव्यते, इहोत्तर-हन्तेति वाक्यारम्भे कोमलामन्त्रणे वा, प्रथमारके न्तिचन्द्री
18 अस्ति हिरण्यादिकमिति शेषः, नैव तेषां मनुजानां परिभोग्यतया हबमिति-कदाचिदागच्छति, 'अस्थि ण' मित्यादि, नरावासापाशचनअस्ति राजा इति वा चक्रवर्त्यादि युवराजो (वा) राज्याई इतियावत् ईश्वरो-भोगिकादिः अणिमाघष्टविधैश्चर्ययुक्तो वा
दिव.सू.
२३-२४ ॥१२२॥ तलवर:-सन्तुष्टनरपतिप्रदत्तसौवर्णपट्टालङ्कृतशिरस्कचौरादिशुदधिकारी माडम्बिकः-पूर्वोक्कमडम्बाधिपः कौटुम्विकः
कतिपयकुटुम्बप्रभुः इभ्यो-यव्यनिचयान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते, इभो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीति निरुक्ता|दिभ्यः, श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टालङ्कृतशिराः पुरज्येष्ठो वणिविशेषः, सेनापतिः-यदायत्ता नृपेण चतुरङ्गसेना
कृता भवति, सार्थवाहो-यो गणिमादि क्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सहचारिणामध्वसहायो भवति?, अत्रोत्तरम्शनायमर्थः समर्थः, व्यपगता ऋद्धिर्विभवैश्वर्य सत्कारश्च-सेव्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा, 'अस्थि ण'मित्यादि, दास-आमकरणं क्रयक्रीतः गृहदासीपुत्रो वा प्रेष्या-प्रेषणा) जनो दूतादिः शिष्य-उपाध्यायस्योपासकः शिक्षणीय इत्यर्थः,
भृतको-नियतकालमवधिं कृत्वा वेतनेन कर्मकरणाय धृतः दुष्कालादौ निश्रितो वा, भागिको-द्वितीयाद्यशमाही, कर्म-TR ॥१२२॥ जाकरः-छगणपुञ्जाद्यपनेता, अत्राह-नायमर्थः समर्थः, यतस्ते मनुजा व्यपगतमाभियोग्य-आभियोगिक कर्म येभ्यस्ते तथा,
अत्राभियोग्यशब्दात् कर्मणि यप्रत्यये “व्यञ्जनात् पञ्चामान्तस्थायाः स्वरूपे वा" (श्रीसिद्धहै०अ०) इत्यनेनैकस्य यकारस्य
अनुक्रम [३६-३७]
~247~
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------...-....---
--- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
लोप इति। 'अस्थि ण' मित्यादि, माता या प्रसूते पिता यो बीज निषिक्तवान् भ्राता यः सहजातो भगिनी सहजाता भार्या-भोग्या जन्यः पुत्रः जन्या स्त्री दुहिता स्नुषा-पुत्रवधूः, अत्र भगवानाह-हन्तेत्यादि, नैव चः पुनरथें तेषा मनु-18 | जानां तीवं-उत्कट प्रेमरूपं बन्धनं समुत्पद्यते, तथाविधक्षेत्रस्वभावात् प्रतनुप्रेमबन्धास्ते युग्मिन इति, ननु चतुर्ष, कुटुम्बमनुष्येषु स्नुषासम्बन्धो यथा आपेक्षिकस्तथा भ्रातृव्यभागिनेयादिसम्बन्धः कथं न सम्भवी , उच्यते, कुबेरदत्तकुबेरदत्तास्वकभाववत् सोऽप्युपलक्षणाद् ग्राह्यः, परं स्फुटव्यवहारत्वेनेम एव सम्बन्धाः, 'अस्थि ण' मित्यादि, अरि:सामान्यतः शत्रुः वैरिको-जातिनिबद्धवैरोपेतः घातको-योऽन्येन घातयति वधक:-स्वयं हन्ता व्यथको वा-चपेटादिना ताडकः प्रत्यनीक:-कार्योपघातकः प्रत्यभित्रो-यः पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चादमित्रो जातः अमित्रसहायो वा १, इहाचार्यः-ना-18 |यमिति, यतो व्यपगतो वैरजन्योऽनुशयः-पश्चात्तापो येभ्यस्ते तथा, वैरं कृत्वा हि तदुत्थफलविपाके पुमाननुशेते इति ।
'अस्थि ण' मित्यादि, अत्र मित्रं-स्नेहास्पदं वयस्यः-समानवयाः गाढतरस्नेहास्पदं ज्ञातका-स्वज्ञातीयः यद्वा ज्ञातक:-18 | संवासादिना ज्ञातः सहजपरिचित इत्यर्थः सङ्घाटिकः-सहचारी सखा-समानखादनपानो गाढतमस्नेहास्पदं सुहृद्| मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदेशदायि च साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रपटितः, हन्तेत्यादि पूर्ववत्, न चैव तेषां | मनुजाना ती रागरूपं बन्धनं समुत्पद्यते। 'अस्थि ण' मिसादि, अत्र चाह-आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स | आवाहो-विवाहात् पूर्व ताम्बूलदानोत्सवः विवाहः-परिणायनं यज्ञः-प्रतिदिवस स्वस्वेष्टदेवतापूजा श्राद्धं-पितृक्रिया
दीप
eseseseseseseaeseseroeneseaer
अनुक्रम [३६-३७]
~ 248~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [ ३६-३७]
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥१२३॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:)
JE(into
| स्थालीपाकः - सम्प्रदायगम्यः मृतपिण्डनिवेदनानि - मृतेभ्यः स्मशाने तृतीयनयमादिषु दिनेषु पिण्डनिवेदनानि - पिण्डसम - र्पणानि १, अत्रोत्तरं नायमर्थः समर्थः, व्यपगतावाहविवाहयज्ञ श्राद्धस्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदनास्ते मनुजाः । 'अत्थि णमित्यादि, इन्द्रः प्रतीतस्तस्य महः - प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः, एवमग्रेऽपि, स्कन्दः - कार्त्तिकेयः नागो-भवनपति| विशेषः यक्षभूतौ-व्यन्तरविशेषी 'अगड' ति अवटः- कूपः तडागः - सरः ब्रहनदीरूक्षपर्वताः प्रतीताः स्तूपः- पीठविशेषः चैत्यं च - इष्टदेवतायतनं, अत्राह - व्यपगतमहिमानस्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः । 'अत्थि ण'मित्यादि, नटा - नाटवितारः तेषां प्रेक्षा- प्रेक्षणकं कौतुकदर्शनोत्सुकजनमेलकः, एवमग्रेऽपि, नृत्यन्ति स्म नृत्ताः - कर्त्तरि कः प्रत्ययः नृत्तविधायिनः जलावरत्राखेलकाः मला-भुजयुद्धकारिण मौष्टिका - मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति बिडम्बका - विदूषकाः मुखविकारादिभि-|| र्जनानां हास्योत्पादकाः कथकाः - सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारकाः प्लवका - ये झम्पादिभिर्गर्त्तादिकमुत्प्लवन्ते | गर्त्तादिलङ्घनकारिणः इत्यर्थः अथवा तरन्ति नद्यादिकं ये इति लासका ये रासकान् ददति तेषां प्रेक्षा, उपलक्षणादाख्यायकप्रेक्षादिग्रहः, अत्रोत्तरं - नायमर्थः समर्थः, यतो व्यपगतकुतूहलास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः । 'अत्थि ण'मित्यादि, | अत्र शकटानि प्रतीतानि रथाः - क्रीडारथादयः वायन्ते - गम्यन्ते एभिरिति व्युत्पत्त्या यानानि उक्तवक्ष्यमाणातिरिकानि गन्त्र्यादीनि युग्यं - पुरुषोत्क्षितमाकाशयानं जम्पानमित्यर्थः 'गिल्लि'त्ति पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता डोलिका 'थिल्लि'ति वेसरादिद्वय विनिर्मितो यानविशेषः शिविका-प्रतीता स्यन्दमानिका- पुरुषायामप्रमाणः शिविकाविशेषः, अत्र प्रतिवचः
Fur Fraternal Use O
Se৬৬১৬:
~ 249~
२वक्षस्कारे प्रथमारकेनरावासादिव. सू. २३-२४
॥ १२३॥
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
--- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
eeseseseseseeeeee
नायमित्यादि, पादचारेण न तु शकटादिचारेण विहारो-विचरणं येषां ते तथा मनुजा इत्यादि । अस्थि ण'मित्यादि, अत्र | गोमहिष्यजाः स्पष्टाः, एडका-उरची, आह-'नो चेवे'त्यादि न च तेषां मनुष्याणां परिभोग्यतया कदाचिदागच्छन्ति, नैतासां दुग्धावि तेषामुपभोग्यमितियावत्। 'अस्थि ण'मित्यादि, अत्राश्वाः हस्तिनः उष्ट्राः प्रतीताः गोणा-गावः गवयोबनगवः अजैडको स्पष्टौ प्रश्नया-द्विखुरा आटव्य पशुविशेषाः मृगवराही व्यक्ती रुरचो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टापदाः चमरा-अरण्यगवो यासां पुच्छकेशाश्चामरतया भवन्ति शबरा-येषामनेकशाखे शृङ्गे भवतः कुरङ्गगोकर्णी मृगभेदौ शृङ्गावर्णादिविशेषाश्च सामर्थ्यगम्याः, अत्रोत्तरम्-हन्तेति कोमलामन्त्रणे, सन्ति, न चैव तेषां प्रथमसमाभाविना मनुष्याणां यथासम्भवमारोहणादिकार्येपूपयुज्यन्ते। अथ नाखरप्रश्नसूत्रमाह-'अत्थिण'मित्यादि, अत्र सिंहा:-केसरिणः व्याघ्राःप्रतीताः वृका-ईहामृगाःद्वीपिन:-चित्रकाः रुक्षा-अच्छभल्लाः तरक्षवो-मृगादनाः शृगाला व्यकाः बिडाला-मार्जाराः शुनका:-श्वानः कोकन्तिका-लोमटका ये रात्री को को इत्येवं रवन्ति कोलशुनका-महाशूकराः, अत्रोत्तरम्-सन्ति, परं नैव तेषां मनुजानां आवाधावा-ईपद्वाधां व्याबापां वा-विशेषेणाबाधां छविच्छेदं वा-चर्मकर्तनं उत्पादयन्ति, यतः प्रकृतिभद्रकास्ते श्वापदगणाःप्रज्ञप्ता अविणमित्यादि,अन्न शालयः-कलमादिविशेषाः बीहयः-सामान्यतः गोधूमयवौ । प्रतीतो यवयवा-यवविशेषाः 'कल'ति कलायात्रिपुटाख्या वृत्तचणका वा मसूरा-मालवादिदेशप्रसिद्धा धान्यविशे-18 पा मुद्गमापतिलाः कुलत्था:-चपलकतुल्याश्चिपिटा भवन्ति निष्पावा-वल्लाः 'आलिसंदग'त्ति चपलकाः अलसी-धान्य
दीप
Seceaeseseaeseseaeseseseeeesed
अनुक्रम [३६-३७]
Jimillenni
rjimmitrarelu
~250~
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [ ३६-३७]
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥ १२४॥
Jon Elbenicim
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
৩১৩১৩১
यस्य तैलं अलसीतैलमिति प्रतीतं 'कुसुंभ'त्ति लट्टाकाणाः यत्पुर्वस्त्रादिरागः समुत्पाद्यते कोद्रवाः प्रतीताः कद्भवःपीततण्डुलाः 'बरग'त्ति बरही धान्यविशेषः सपादलक्षादिषु प्रसिद्धः रालकः - कविशेष एव स चायं (विशेषः ) | बृहच्छिराः कङ्गुरल्पशिरा राठकः, शणं त्वक्प्रधाननालो धान्यविशेषः सर्पपाः प्रतीताः मूलकं- शाकविशेषः तस्य | बीजानि, प्राकृतत्वात् ककारलोपसन्धिभ्यां निष्पत्तिः, अत्रोत्तरम् - सन्ति, न च तेषां मनुजानां परिभोग्यतया कदाचि | दायान्ति कल्पद्रुमपुष्पफलायाहारकत्वात्तेषामिति, 'अत्थि ण'मित्यादि, अत्र गर्त्ता - महती खड्डा दरी - मूषिकादिकृता लघ्वी खड्डा अवपान:- प्रपातस्थानं यत्र चलन् जनः सप्रकाशेऽपि पतति प्रपातो-भृगुर्यत्र जनः काचित् कामनां कृत्वा प्रपतति विषमं दुरारोहावरोहस्थानं विज्जलं स्निग्धकर्द्दमाविलस्थानं यत्र जनोऽतर्कित एव पतति, नायमर्थः समर्थ इत्यादि, न सन्तीत्यर्थः, भरतवर्षे बहुसमरमणीयो भूमिभागो यतः प्रज्ञप्तः 'से जहा णामए' इत्यादि वर्णकः प्राग्वद् || ज्ञेयः । 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र स्थाणुः - ऊर्ध्वकाष्ठं कण्टकः-स्पष्टः तृणान्येव कचवरः पत्राण्येव कचवरः, अत्राह - 'ने' त्यादि, यतो व्यपगतस्थांणुयावत्पत्रकचवरा सा- सुषमसुषमा नास्त्री समा-अरकः प्रज्ञप्ता । 'अत्थि ण'मित्यादि, अत्र दंशम| शकयूकालिक्षाः स्पष्टाः ढिकुणा मत्कुणाः यदाहुः श्रीहेमसूरयो देश्यां- "मकुणए टिंकुण ढंकुणा तहा ढंकणी पिहाणीए" इति, पिशुकाः- चञ्चटाः, अत्राचार्य:- व्यपगतदंशमशकयूकालिक्षा तथा ढिकुणापिशुकोपद्रवविरहिता, पश्चात् कर्मधारयः, सा समा प्रज्ञप्ता, अत्र सूत्रे व्यपगतेत्यादिविशेषणस्य कर्मधारयं विना व्याख्यानकरणे प्रस्तुतमूलादर्शे विरहिअत्ति
Fur Ele&ione Oy
~ 251~
२वक्षस्कारे प्रथमारकेनरावासादिव. सू. २३-२४
॥ १२४॥
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
-- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
पदं प्रमादापतितमिति ज्ञेयं, तदर्थस्य तत्त्वतो व्यपगतपदेनैवोक्तत्वात् । 'अस्थि ण'मित्यादि, अत्र अहयः-सामान्यतः ॥ सर्पाः अजगरा:-महाकायसर्पाः शेष पूर्ववत्, यतः प्रकृतिभद्रकास्ते व्यालगणाः-सरिसृपजातीयगणाः प्रज्ञप्ता इति । | अत्र ग्रहयुद्धसूत्रं जीवाभिगमादिषु साक्षाद् दृष्टमपि एतत्सूत्रादर्शेषु न दृष्टमिति न व्याख्यायामप्यलेखि । 'अस्थि ण
मित्यादि, अत्र डिम्बडमरौ पूर्ववत् , कलहो-वचनराटिः बोलो-बहूनामा+नामव्यक्ताक्षरध्वनिकः कलकलः क्षार:1|| परस्परं मत्सरः वैर-परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः महायुद्धानि-व्यवस्थाहीना महारणाः महासङ्घामा:
चक्रादिन्यूहरचनोपेततया सव्यवस्था महारणाः महाशस्त्राणि-नागवाणादीनि तेषां निपतनानि-हिंसाध्या रिपुमोचनानि, महाशस्त्रत्वं चैतेषामद्धतविचित्रशक्तिकत्वात्, तथाहि-नागवाणा धनुष्यारोपिता बाणाकारा मुक्काच सन्तो जाज्वल्यमानासह्योल्कादण्डरूपास्ततः परशरीरे सङ्क्रान्ता नागमूतीभूय पाशत्वमश्नुवते, तामसवाणास्तु सकलरणो ब्या-18 पिमहान्धतमसरूपतया पवनवाणाश्च तथाविधपवनस्वरूपतया वहिबाणाश्च तादृशवहिप्रकारेण परिणताः प्रतिवैरिवाहि-18 | नीषु विनोत्पादका भवन्ति, एवमन्येष्वपि स्वस्वनामानुसारेण स्वस्वजन्यकार्यमुत्पादयन्ति, उक्कं च-"चित्रं श्रेणिक ! ते 18 बाणा, भवन्ति धनुराश्रिताः । उल्कारुपाच गच्छन्तः, शरीरे नागमूर्तयः ॥१॥ क्षणं बाणाः क्षणं दण्डाः, क्षणं | पाशत्वमागताः। आमरा ह्यस्त्रभेदास्ते, यथाचिन्तितमूर्तयः॥२॥" महापुरुषा:-छत्रपत्यादयस्तेषां पतनानि-कालधर्मनयनानि, तत एव महारुधिराणि-छत्रपत्यादिसत्करुधिराणि तेषां निपतनानि-प्रवाहरूपतया वहनानि, अनोत्तरम्-18
eseeeeeeeeeeeeeeee
दीप
brasaaraasaa2292029aapas292906
अनुक्रम [३६-३७]
~252~
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [२३-२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
या कृत्तिः
| दिव. सू.
दीप
श्रीजम्यू-18 नेत्यादि, यतस्ते व्यपगतो वैरस्थानुबन्धः-सन्तानभावेन प्रवृत्तिर्येभ्यस्ते तथा मनुजाः प्रज्ञताः। 'अविणमित्यादि, अन्न वक्षस्कारे
| दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद्भूताः-सत्त्वा उन्दरशलभप्रमुखा ईतय इत्यर्थः कुलरोगग्रामरोगमण्डलरोगा यथोत्तर प्रथमारकेन्तिचन्द्री18 बहुस्थानव्यापिनः, 'पोट्टत्ति देश्यत्वाद् उदरं शीर्ष-मस्तकं तद्वेदना कर्णोष्टाक्षिनखदन्तवेदनाः कण्ठ्याः, कासवासी
नरावासाव्यक्ती, शोष:-क्षयरोगः दाहः-स्पष्टः अर्शी-गुदाकारः अजीर्ण-व्यक्तं दकोदरं-जलोदरं पाण्डुरोगभगन्दरौ प्रतीती है। ॥१२५॥ एकाहिको-यो ज्वर एकादिनाऽन्तरित आयाति, एवं द्विदिनान्तरित्तो व्याहिकः त्रिभिर्दिनरन्तरितख्याहिकः चतुर्थेन 8 18| दिनेनान्तरितश्चतुर्थाहिकः इन्द्रग्रहादयस्तु उन्मत्तताहेतवो व्यन्तरादिदेवंकृतोपद्वाः धनुर्महः-सम्प्रदायगम्यः मस्तक-18
शूलादीनि प्रतीतानि प्रामे उक्तस्वरूपे मारि:-युगपद्रोगविशेषादिना बहूनां कालधर्मप्राप्तिः, एवमग्रेऽपि, यावत्करणा-18 नगरमारिप्रभृतिपरिग्रहः, प्राणिक्षयो-गवादिक्षयः जनक्षयो-मनुष्यक्षयो कुलक्षयो-शक्षयः, एते च कथम्भूता इत्याह| व्यसनभूता-जनानामापताः अनार्याः-पापात्मकाः, अब विभक्तिलोपमकाराममो प्राकृतत्वात् , अत्राह-नेत्यादि, व्यपगतो रोग:-चिरस्थायी कुष्ठादिरातङ्कः-आशुघाती शूलादिर्येभ्यस्ते तथा मनुजाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् । अथैषां भवस्थितिं पृच्छति,
॥१२५॥ तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुआणं केवइभ कालं ठिई पण्णत्ता !, गोधमा ! जहणेणं देसूणाई तिणि पलिओवमाई उकोसेणं देसूणाई तिणि पलिओवमाई, सीसे णे भंते ! समाए भारहे वासे मणुआणं सरीरा केवइ उच्चत्तेणं पण्णत्ता !, गोअमा ! जहन्ने]
अनुक्रम [३६-३७]
ese
प्रथम-आरकवर्ती मनुष्यस्य स्थिति-आदि वर्ण्यते
~253~
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----------------
---- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२५]
निष्णि गाउआई उनकोसेणं तिण्णि गाउआई, ते णं भंते ! मणुआ किंसंघयणी पण्णता !, गोभमा ! वहरोसभणारायसंधयणी पण्णता, तेसिणं भंते! मणुआणं सरीरा किंसंठिआ पण्णत्ता !, गोअमा! समचउर्रससंठाणसंठिआ, तेसि णं मणुआणं वेछप्पण्णा पिट्ठकरंख्यसया पण्णत्ता समणाउसो !, ते पं भंते ! मणुआ कालमासे कालं किचा कहिं गच्छन्ति कहिं उववजंति ?, गो०! छम्मासावसेसाआ जुअलगं पसर्वति, एगूणपण्णं राइंदिआई सारखंति संगोवेति २ त्ता कासित्ता छीइचा जंभाइत्ता अकिट्टा अवहिआ अपरिआवित्रा कालमासे कालं किच्चा देवलोएमु उववअंति, देवलोअपरिगहा गं ते मणुआ पण्णत्ता, तीसे पं भंते ! सभाए भरहे बासे कइविहा मणुस्सा अणुसजित्था !, गो० ! छविहा पं०,०-पम्हगंधा १ मिअगंधा २ अममा ३ तेअतली ४ सहा ५ सणिचारी ६ (सूत्र२५) प्रायः कण्ठ्यं सूत्रमेतत् , नवरं देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि स्थितियुग्मिनीं प्रतीत्य मन्तव्या, देशश्चात्र पस्योपमासयभागरूपो ज्ञेयो, यदुक्तं जीवाभिगमे देवकुरुत्तरकुरुस्त्रियमधिकृत्य-"देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं ||
भंते ! केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता, गो! देसूणाई तिणि पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणगाई, 18|उकोसेणं तिण्णि पलिओवमाई"। अथावगाहनां पृच्छन्नाह-'तीसे ण'मित्यादि सुगम, नपरं देशोनास्त्रयः क्रोशा अपि ॥
युग्मिनी प्रतीत्य "उच्चत्तेणं णराण थोवोणमूसिआओं' इति वचनात्, यद्यपि 'धणुसहस्समूसिआओ' इति पूर्वसूत्रेणे| तेषामवगाहना लभ्यते तथापि जघन्योत्कृष्टविशेषविधानार्थं पुनरवगाहनासूत्रारम्भः। तेण'मित्यादि, अत्र किं च तसंहननं चेति कर्मधारयः, पश्चादस्त्यर्थे इन्प्रत्ययः, 'गौतमे'त्यादि, वजर्षभनाराचसंहननास्ते मनुजा इति, 'तेसि 'मि-18
।
दीप
serviceaesedesesesectroescree
अनुक्रम [३८]
cceseaeeseceaee
~ 254 ~
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| नराणां
प्रत सूत्रांक [२५]
श्रीजम्यू- त्यादि सुगम, नवरं किं संस्थित-संस्थानं येषां ते तथा, यद्यपि पूर्ववर्णकसूत्रे विशेषणद्वारा एषां संहननादिकमाख्यातं तथापि वक्षस्कारे द्वीपशाः सर्वेषामपि तत्कालभाविनामेकसंहननादिमात्रताख्यापनार्थमस्थ सूत्रस्य प्रश्नोत्तरपद्धत्या निर्देशेन न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयं,
| प्रथमारक PAPER अत एवाग्रवर्तिनि पृष्ठकरण्डकसूत्रे तेसिण! भंते मणुआण'मित्यत्र केवइआ पिट्ठकरंडकसया पण्णत्ता?, गोअमा' इति प्रश्न
स्थित्यादि सूत्रांशोऽध्याहार्य इति तेसिण'मित्यादि, तेषां पृष्ठकरण्डकशतानि-पूर्वोक्तस्वरूपाणि कियन्ति ?, अत्र भगवानाह-द्वे षट्प॥१२॥ चाशदधिके पृष्ठकरण्डकशते प्रज्ञप्ते इत्यर्थः, 'तेण'मित्यादि, ते मनुजाः कालस्य-मरणस्य मासो यस्मिन् कालविशेषे अवश्य
कालधर्मः तस्मिन् कालं कृत्वा, मासस्योपलक्षणत्वात् कालदिवसे इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, क्व गच्छन्ति-कोत्पद्यन्ते इति प्रश्नद18| येऽपि 'देवलोपसु उववज्जती'त्येकमेवोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्योत्पादाभिधाने गमन सामर्थ्यादवगतमेवेत्याशयादिति,8॥ 18 अथवा गतिर्देशान्तरप्राप्तिरपि भवतीति क गच्छन्तीत्येतदेव पर्यायेणाचष्टे-'उत्पद्यन्ते' उत्पत्तिधर्माणो भवन्ति, अत एवो
रसूत्रे 'उववजंतीत्येवोक, स्वाम्याह-गौतमेति षण्मासावशेषायुषः कृतपरभवायुर्घन्धा इति गम्य, युगलकं प्रसुचत ||
इति, एतेषामायुखिभागादौ परभवायुर्वन्धाभावमाह, तच्चैकोनपञ्चाशतं रात्रिंदिवाम्यहोरात्राणि यावत्, संरक्षन्ति|| उचितोपचारकरणतः पालयन्ति-संगोपयन्ति अनाभोगेन हस्तस्खलनकष्टेभ्यः, संरक्ष्य सङ्गोप्य च कासित्वा-कासं | ॥१२६॥
विधाय क्षुत्वा-धुतं विधाय जम्भयित्वा-ज़म्भां विधाय अक्लिष्टाः स्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिताः अव्यथिताः-परेणानापा|दितदुःखा अपरितापिता:-स्वतः परतो वाऽनुपजातकायमनःपरितापा, एतेन तेषां सुखमरणमाह, कालमासे कालं
etaceaestates
दीप
अनुक्रम [३८]
~255~
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२५]
दीप
अनुक्रम
[३८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भीजम्बू. २२
कृत्वा देवलोकेषु-ईशानाम्तसुरलोकेषूत्पद्यन्ते, स्वसमहीना युष्करेष्वेव तदुत्पत्तिसम्भवात् अत्र कालमास इति कथनेन तत्कालभाविमनुजानामकालमरणाभावमाह, अपर्यातकान्तर्मुहूर्त्तकालानन्तरमनपवर्त्तनीयायुष्कत्वात्, अत्राह कश्चित् ननु सर्वथा वर्त्तमानभवायुःकर्मपुद्गलपरिशाटकालस्यैव मरणकालत्वात् कथमकालमरणमुपपद्यते, यद| भावो वर्त्तमानसमायां निरूप्यते इति चेत्, सत्यं द्विधा ह्यायुर्नरतिरश्चां-अपवर्त्तनीयमनपवर्त्तनीयं च तत्राचं बहुकालवेद्यं सत्तथाऽध्यवसाययोगजनितश्लथबन्धन बद्धतयोदीर्णसर्वप्रदेशाप्रमपवर्त्तना करणवशादल्पीयः कालेन रज्जुदहनन्यायेन निवासोन्यायेन मुष्टिजलन्यायेन वा युगपद्वेद्यते, इतरन्तु गॉढबन्धनवद्धतयाऽनपवर्त्तनायोग्य क्रमेण वेद्यते, तेन बहुषु वर्त्तमानारकोचितमनपवर्त्तनीयमायुः क्रमेणानुभवत्सु सत्सु यदेकस्य कस्यचिदायुः परिवर्त्तते तदा तस्य लोकैरकालमरणमिति व्यपदिश्यते, 'पढमो अकालमच्च' इत्यादिवत् तेनान्यदा अकाउमरणस्यापि सम्भवात्तत्तदानीं तन्निषेध इति न दोष इति । अथ कथं ते देवलोकेषूत्पद्यन्ते इत्याह-यतो देवलोको भवनपत्याद्याश्रयरूपस्तस्य तथाविधकालस्वभावात् तद्योग्यायुर्बन्धेन परिग्रहः - अङ्गीकारो येषां ते तथा देवलोकगामिन इत्यर्थः, एषां चैकोनपञ्चाशद्दिनावधि परि| पाउने केचिदेवमवस्थामाहुः - सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वाङ्गष्ठमार्यास्ततः, को रिङ्खन्ति पदैस्ततः कलगिरो यान्ति | स्वलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागणभृतस्तारुण्य भोगोद्गताः, सप्ताहेन ततो भवन्ति सुद्दगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥ १ ॥ अत्र व्याख्या-आर्याः सप्त दिवसान् - जन्मदिवसादिकान् यावत् उत्तानशयाः सन्तः स्वाङ्गुष्ठं लिहन्ति, ततो
Fur Ele&Pay
~ 256 ~
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
२वक्षस्कारे
प्रत सूत्रांक [२५]
या वृत्तिः
दीप अनुक्रम [३८]
श्रीजम्बू- द्वितीयसप्तके पृथिव्यां रिजन्ति, ततस्तृतीयसप्तके कलगिरो-व्यक्तवाचो भवन्ति, ततश्चतुर्थसप्तके स्खलनिः पदैर्यान्ति,81
द्वीपशा-श ततः पश्चमसप्तके स्थेयोभिः-स्थिरैः पदैर्यान्ति, ततः षष्ठसप्तके कलागणभृतो भवन्ति, ततः सप्तमसप्तके तारुण्यभोगो-18 प्रथमारक न्तिचन्द्री- गताः भवन्ति केचिच सुहगादानेऽपि-सम्यक्त्वग्रहणेऽपि योग्या भवन्तीति क्रमः, इदं चावस्थाकालमानं सुषमासुष-181
मायामादी ज्ञेयं, ततः परं किश्चिदधिकमपि सम्भाव्यते इति, अत्र प्रस्तावाद् कश्चिदाह-अथ तदाऽग्निसंस्कारादेरमा-18 ॥१२७॥
का दुर्भूतत्वेन मृतकशरीराणां का गतिरिति ?, उच्यते, भारण्डप्रभृतिपक्षिणस्तानि तथाजगत्स्वाभाब्यात् नीडकाष्ठमिवो-18
त्पाव्य मध्येसमुद्र क्षिपन्ति, यदुक्तं श्रीहेमाचार्यकृत ऋषभचरित्रे-"पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महाखगाः। नीडकाष्ठ-18 | मिवोत्पाव्य, सद्यश्चिक्षिपुरंबुधौ ॥१॥" किश्चात्र श्लोके अम्बुधावित्युपलक्षणं तेन यथायोग गङ्गाप्रभृतिनदीप्यपि ते तानि क्षिपन्तीति शेयं, ननु चोकृष्टतोऽपि धनःपृथक्त्वमानशरीरैस्तैरुत्कृष्टप्रमाणानि तानि कथं सुबहानीत्यत्रापि समा-1 धीयते-युग्मिशरीराणामम्बुषिक्षेपस्य महाखगकृतत्वेन बहुषु स्थानेषु प्रतिपादनादवसीचते यत् 'पक्खी धणुह पुहत्त-' मित्यत्र सूत्रे जात्यपेक्षया एकवचननिद्देशस्तेन कचिद् बहुवचनं व्याख्येयं, तथा च सति पक्षिशरीरमानख पथासम्भव मरकापेक्षया बहुबहुतरबहुतमधनुःपृथक्त्वरूपस्वापि सम्भवात् तत्कालवर्तियुग्मिनरहस्त्यादिशरीरापेक्षया बहुधनुःपृथक्त्व- ॥१२७॥ परिमाणशरीरैस्तैर्न किश्चिदपि तानि दुर्वहानीति न काप्यनुपपत्तिरिति सम्भाच्यते, सत्त्वं बहुश्रुतगम्यं, एवं च सूत्रे एकवचननिर्देशेऽपि बहुवचनेन व्याख्यानं श्रीमलवगिरिपादैरपि श्रीवृहत्संग्रहणिवृत्तौ देवानामाहारोच्यासान्तरकाल-18
ececemeseceme
~ 257~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
ecemesee
प्रत सूत्रांक [२५]
मानाधिकारे "दस वाससहस्साई समयाई जाव सागरं ऊर्ण। दिवसमुहुन्तपुहुत्ता आहारुस्सास सेसाणं ॥१॥” इत्यस्वा | गाथाया अर्थकथनावसरे कृतमस्तीति सर्व सुस्थमिति । अथ तदा मनुजानामेकत्वमुतं नानात्वमिति प्रश्नयनाह-'तीसे |
'मित्यादि, तस्यां समायां भगवन् ! भरते वर्षे कतिविधा:-जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या अनुषतषम्त:-काला| कालान्तरमनुवृत्तवन्तः, सन्ततिभावेन भवन्ति स्मेत्यर्थः, भगवानाह-गौतम ! पविधाः, तद्यथा-पद्मगन्धाः १ मृग| गन्धाः २ अममा ३ तेजस्तलिनः ४ सहाः ५ शनैश्चारिणः ६, इमे जातिवाचकाः शब्दाः संज्ञाशब्दत्वेन रूढाः, यथा | पूर्वमेकाकाराऽपि मनुष्यजातिस्तृतीयारकमान्ते श्रीऋषभदेवेन उपभोगराजन्यक्षत्रियभेदैश्चतुर्की कृता तथाऽत्राप्येषं षड् विधा सा स्वभावत एवास्तीति, यद्यपि श्रीअभयदेवसूरिपादैः पञ्चमाङ्गषष्ठशतकसप्तमोद्देशके पद्मसमगन्धयः मृगमदगन्धयः ममीकाररहितास्तेजश्च तल चरूपं येषामस्तीति तेजस्तलिनः सहिष्णवः-समर्थाः शनै:-मन्दमुत्सुकत्वाभावाञ्चरन्तीत्येवंशीला इत्यन्वर्थता व्याख्यातास्ति, तथापि तथाविधसम्प्रदायाभावात् साधारणव्यञ्जकाभावेन तेनैपां जातिप्रकाराणां दुर्बोधत्वाज्जीवाभिगमवृत्ती सामान्यतो जातिवाचकतया व्याख्यानदर्शनाच न विशेषतो व्यक्तिः कृतेति । गतः प्रथमारकः। तीसे गं समाए चाहिं सागरोषमकोडाकोटीहिं काले वीइकते अणतेहिं वण्णपजबेहिं मणतेहिं गंधपजवेहिं अणतेहिं रसपज्जवेहि अणंतेहि फासपज्जवेहिं अणतेहिं संघयणपजयहिं अमेहिं संठाणपज्जवेहि अणतेहिं उछत्तपज्जवेहिं अणंतेहिं उपनवेहि अणतेहि
emesticesesesesed eera
दीप
अनुक्रम [३८]
baeraccesesesesea
अथ द्वितिय्-आरकस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
~ 258~
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२६]
दीप
अनुक्रम [३९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
||१२८||
गुरुलहुज्जहिं अतेहिं अगुरुपत्नवेहिं अर्णतेहिं उद्वाणकम्मबलवीर अपुरिसंक्कारप रकमपञ्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे एत्य णं सुसमा नाम समाकाले पडिजिसु समणाउसो !, जंबूहीवे णं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्त वासस्स केरिसए आयारभावपडोवारे होत्था !, गोअमा ! बहुसमरमणि भूमिभागे होत्या, से जहाणामए आलिंगपुक्खर वा तं चैव जं सुसमसुसमाए पुष्ववण्णिअं णवरं णाणत्तं च धणुसहस्समूसिआ एगे अट्ठावीसे पिट्टकरंडुकसए छट्ट भत्तस्स आहारडे, सहिं रादिआई सारखति, दो पलिओयमाई आऊ सेसं तं चेत्र, तीसे णं समाए चडविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, जहा एका १ पउरजंघा २ कुसुमा ३ सुसमणा ४ ( सूत्रं २६)
तस्यां सुषमसुषमानाभ्यां समायां चतसृषु सागरोपमकोटाकोटीषु काले व्यतिक्रान्ते सति सूत्रे च तृतीयानिर्देश आर्यत्वात्, अथवा चतसृभिः सागरोपमकोटाकोटीभिः काले मिते गणिते वा इति मितादिशब्दाध्याहारेण योजना कार्या, अत्र च पक्षे करणे तृतीया ज्ञेया, अत्रान्तरे सुषमा नाम्ना समा- काल: प्रतिपन्नवान्-लगति स्मेति वाक्यान्तरसूत्रयोजना, सुषमा चोत्सर्पिण्यामपि भवेदित्याह - 'अनंतगुणपरिहाण्या परिहीयमाणा हानिमुपगच्छन् २' सूत्रे च द्विर्वचनमनुसमयं हानिरिति हानेः पौनःपुन्यज्ञापनार्थं, अथ कालस्य नित्यद्रव्यत्वेन न हानिरुपपद्यते, अन्यथाऽहोरात्रं सर्वदा त्रिंशन्मुहूर्त्तात्मकमेव तत् न स्यादित्यत आह- 'अनन्तैर्वर्णपर्यवै'रित्यादि, वर्णाः- श्वेतपीतरक्तनीलकृष्णभेदात् पश्च, कपिशादयस्तु तत्संयोगजास्ततः श्वेतादेरन्यतरस्य वर्णस्य पर्यवा-बुद्धिकृता निर्विभागा भागाः एकगुणश्वेतत्वादयः
Fucraleey
~ 259~
वक्षस्कारे द्वितीयारकः सू. २६
॥१२८॥
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
सकलजीवराबोरनन्तगुणाधिकास्तैरऽनन्ता ये गुणा-अनन्तरोक्तस्वरूपा भागास्तेषां परिहाणि:-अपचयस्तया प्रकारभूतया इत्यर्थः, हीयमानः २ सुषमा कालविशेष इति योज्य, एवमग्रेऽपि योजना कार्या, अथ यथैषामनन्तत्वमनुसमयमनन्तगुणहानिश्च तथा दयते-'तीसे णं समाए उत्तमकट्ठपत्ताएं' इति प्रागुक्तबलात् प्रथमसमये कल्पद्रुमपुष्पफलादिगतो यः श्वेतो वर्णः स उस्कृष्टः, तस्य केवलिप्रज्ञया छिद्यमाना यदि निर्विभागा भागाः क्रियन्ते तर्हि अनन्ता भवन्ति, तेषां || | मध्यादनन्तभागात्मक एको राशिः प्रधमारकद्वितीयसमये त्रुव्यति, एवं तृतीयादिसमयेष्वपि वाच्यं यावत्प्रथमारकान्त्य
समयः, एपैव रीतिरवसर्पिणीचरमसमयं यावज्ज्ञेया, अत एव अनन्तगुणपरिहाण्येत्यत्र अनन्तगुणानां परिहाणिरिति षष्ठी-10 | तत्पुरुष एव विधेयो न तु अनन्तगुणा चासौ परिहाणिश्चेति कर्मधारयः, गुणशब्दश्च भागपर्यायवचनोऽनुयोगद्वारवृत्तिकृता एकगुणकालकपर्यवविचारे सुस्पष्टमाख्यातोऽस्ति, एवं सति श्वेतवर्णस्यासन्न एष सर्वथोच्छेदः, तथा च सति श्वेतवस्तनोऽश्वेतत्वप्रसङ्गाः, एतच्च जातिपुष्पादिषु प्रत्यक्षविरुद्धं ?, उच्यते, आगमेऽनन्तकस्यानन्तभेदत्वात् हीयमानभागा-18 नामनन्तकमल्पं ततो मौलराशेभोगानन्तकं बृहत्तरमवगन्तव्यं, यदि नाम सिख्यत्स्वपि भव्येषु लोकेषु न तेषामनन्तका-|| लेनापि निर्लेपना आगमेऽभिहिता किं पुनः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानामुत्कृष्टवर्णगतभागानां !, न च ते समाता एवं सिज्यन्ति, इमे तु प्रतिसमयमनन्ता हीयन्ते इति महदृष्टान्तवैषम्यमिति वाच्यं, यतस्तत्र यथा सिध्यतां भव्यानां संख्यातता| तथा सिद्धिकालोऽनन्त एवमत्रापि यथा प्रतिसमयमनन्तानामेषां हीयमानता तथा हानिकालोऽवसर्पिणीप्रमाण एव ततः
दीप अनुक्रम
परseneeeeeeeeeecene
[३९]
~260~
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
न्तिचन्द्री-18
प्रत सूत्रांक [२६]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू- परमुत्सर्पिणीप्रथमसमयादौ तेनैव क्रमेण वर्धन्ते इति सर्व सम्यक्, एवं पीतादिषु वर्णेषु गन्धरसस्पर्शेषु च वयासम्म- रवक्षस्कारे द्वीपशा-18|वमागमाविरोधेन भावनीयं, तथा अनन्तैः संहननपर्यवेरिति-संहननानि-अस्थिनिचयरचनाविशेषरूपाणि वनऋषभ-1| द्वितीयारISIS नाराचऋषभनाराचनाराचार्द्धनाराचकीलिकासेवार्तभेदात् षट्, प्रस्तुते चारके आद्यमेव ग्राह्यं ऋषभनाराचादीमाम-18
कासू.२६ या पतिः
| भावात् , अन्यत्र यथासम्भवं तानि ग्राह्याणि, तत्पर्यवा अपि तथैव हापनीयाः, संहननेनैव शरीरे दार्यमुपजावते, ॥१२९॥ | तच्च सर्वोत्कृष्टं सुषमसुषमाद्यसमये, ततः परमनन्तैरनन्तैः पर्यवैः समये २ हीयत इति, तथा संस्थानानि-आकृतिरू-18
पाणि समचतुरस्रन्यग्रोधसादिकुब्जकवामनहुण्डभेदात् पोढा, तञ्च तत्र प्रथमे समये सर्वोत्कृष्ट, ततः परं तथैव हीयत इति, तथोच्चत्वं-शरीरोत्सेधस्तच तत्र प्रथमे समये विगव्यूतप्रमाणमुत्कृष्ट, ततः परं तत्प्रमाणतारतम्यरूपाः पर्यवाः18 अनन्ताः समये २ हीयन्ते, ननु उच्चत्वं हि शरीरस्य स्वावगाढमूलक्षेत्रादुपरितनोपरितननभःप्रदेशावगाहित्वं, तत्पर्यवाश्च एकद्वित्रिप्रतरावगाहित्वादयोऽसङ्ग्यातप्रतरावगाहित्वान्ता असङ्ख्याता एव, अवगाहनाक्षेत्रस्थासङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वात् , तहि कथमेषामनन्तत्व, कथं चैतेऽनन्तभागपरिहाण्या हीयन्ते इति चेह, उच्यते, प्रथमारके यत् प्रथमसमयोपनाना-18
मुत्कृष्टं शरीरोगत्वं भवति ततो द्वितीयादिसमयोत्पन्नानां यावतामेकनभ प्रतरावगाहिरवलक्षणपर्ववाणां हानिस्तावतारा 18| पुनलानन्तकं हीयमानं द्रष्टव्य, आधारहानावाधेयहानेरावश्यकत्वादिति, तेनोश्चत्वपर्यवाणामप्यनन्तत्वं सिखं, मभःप्रसरा
वगाहस्य पुतलोपचयसाध्यत्वात् , तथा आयु:-जीवितं तदपि तत्र प्रथमे समये निपस्योषमप्रमाणमुत्कृष्टं सदनन्तरं सत्य
occccestseeeeeeececenseses
[३९]
~261~
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
वा अपि अनम्ताः प्रतिसमय हीयन्ते, ननु पर्वषा एकसमयोना द्विसमयोना यावदसमातसमयोनोत्कृष्टा स्थितिरिति 81 स्थितिस्थानतारतम्यरूपा असङ्ख्याता एव, आयुःस्थितेरसज्जयातसमयात्मकत्वात् , तहिं कथं सूत्रेऽनन्तरायुःपर्यवैरित्युक्तं , ६ उच्यते, प्रतिसमय हीयमानस्थितिस्थानकारणीभूतानि अनन्तानि आयुःकर्मदलिकानि परिहीयन्ते, ततः कारणहानी ||
कार्यहानेरावश्यकत्वात् , तानि च भवस्थितिकारणत्वादायुःपर्यवा एवं अतले अनन्ता इति, तथा अनन्तैगुरुल|| घुपर्यवैरिति, गुरुलघुद्रव्याणि-बादरस्कन्धद्रव्याणि औदारिकवैक्रियाहारकतैजसरूपाणि तत्पर्यवाः, तत्र प्रकृते वैक्रिया-1 || हारकयोरनुपयोगस्तेन औदारिकशरीरमाश्रित्योत्कृष्टवर्णादयस्तत्राद्यसमये बोध्याः, ततः परं तथैव हीयन्ते तैजसमा-1
श्रित्य कपोतपरिणामकजाठराग्निरुत्कृष्टस्तत्रादिसमये तदनन्तरं मन्दमन्दतरादिवीर्यकत्वरूप इति, तथा अनन्तैरगुरुलघुपर्यवैरिति, अनुरुलघुद्रव्याणि सूक्ष्मद्रव्याणि, प्रस्तुते च पौद्गलिकानि मन्तव्यानि, अन्यथाऽपौद्गलिकानां धर्मास्तिहा कायादीनामपि पर्यवहानिप्रसङ्गः, तानि च कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि तेषां पर्यवैरनन्तः, तत्र कार्मणस्य सातवेद-18
नीयशुभनिर्माणसुस्वरसौभाग्याऽऽदेयादिरूपस्य बहुस्थित्यनुभागप्रदेशकत्वेन मनोद्रव्यस्य बहुग्रहणासन्दिग्धग्रहणझटितिग्रहणबहुधारणादिमत्तया भाषाद्रव्यस्योदात्तस्वगम्भीरोपनीतरागत्वप्रतिनादविधायितादिरूपतया च तत्रादिसमये उत्कृ-18 |एता, ततः परं क्रमेणानन्ताः पर्यवा हीयन्ते, अनन्तैरुत्थानादिपर्यवैः, तत्रोत्थान-ऊर्ध्व भवन कर्म-उत्क्षेपणावक्षेप-1 पाणादि गमनादि चा बल-शारीरमाणः वीर्य-जीपोत्साहः पुरुषाकार:-पौरुषाभिमानः पराक्रमश्च स एव साधिताभि-11
caeaesercelseaseseenewerpeecccceae
दीप अनुक्रम
[३९]
~2624
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२६]
श्रीजम्यू-18 मतप्रयोजना, अथवा पुरुषकार:-पुरुषक्रिया सा च प्रायः स्त्रीक्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति विशे- वक्षस्कारे द्वीपशा- पेण तद्ग्रहणं, पराक्रमस्तु-शत्रुवित्रासनं, तत एते प्राक्तनसमये उत्कृष्टास्ततः परं परिपाच्या तथैव हीयन्ते, तथा द्वितीयारन्तिचन्द्री
|"संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउभं च मणुआणं । अणुसमयं परिहायइ ओसप्पिणीकालदोसेणं ॥॥ कोहमयमाय- का सू.२६ या वृत्तिः
लोभा ओसन्नं वड्डए अ मणुआणं । कूडतुलकूडमाणा तेणऽणुमाणेण सबंपि ॥२॥ विसमा अज! तुलाओ विसमाणि ॥१३०॥ अ जणवएमु माणाणि । विसमा रायकुलाई तेण उ विसमाई वासाई ॥३॥ विसमेसु अ वासेसुं हुंति असाराई ओस
हिबलाई । ओसहिदुबल्लेण य आउं परिहायइ णराण ॥४॥ इति तण्डुलवैचारिके अवसर्पिणीकालदोषेण हानिरुक्ता सा बाहुल्येन दुःषमामाश्रित्य शेषारकेषु तु यथासम्भवं ज्ञेयेति, ननु नित्यद्रव्यस्थापि कालस्य कथं हानिरिति परकृ-18 | तासम्भवाशङ्कानिवारणार्थ वर्णादिपर्यवाणां हानिरुक्ता, ते च पुनलधर्मास्तहि अन्यधम्मैहीयमानैर्विवक्षितः कालः कथं हीयते इति महदसङ्गतं, तथा सति वृद्धाया वयोहानौ युवत्या अपि वयोहानिप्रसङ्ग इति चेत्, न, कालस्य कार्य-18 वस्तुमात्रे कारणत्वाङ्गीकारात्कार्यगता धर्माः कारणे उपचर्यन्ते कारणत्वसम्बन्धादिति । अथ प्रस्तुतारकस्य स्वरूप-18 प्रश्नायाह-'जंबुद्दीवे णं भंते!' इत्यादि प्रायः सूत्रं गतार्थमेव, नवरं केवलं नानात्वं-भेदः, स चाय-चतुर्धनुःसहस्रो- ॥१३०॥ छूिताः क्रोशस्योच्चास्ते मनुजा इति योगः, मकारोऽलाक्षणिकः, अष्टाविंशत्यधिक पृष्ठकरण्डकशतं प्रथमारोकपृष्ठकरण्डुकानाममितियावत् तेषां मनुजानामिति योगः, षष्ठमकेऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्पद्यते इति योगः, सूत्रे सप्त-18
saceaceaewereseres
दीप अनुक्रम
[३९]
a20092000000
Vinute
~263~
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
----- मूलं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
म्यर्थे पष्ठी सूत्रत्वात् , चतुःषष्टिं रात्रिन्दिवानि यावत् संरक्षन्ति, अपत्यानि ते मनुजा इति योगः, तत्र सप्तावस्थाक्रमः || पूर्वोक्त एव, नवरं एकैकस्या अवस्थायाः कालमानं नव दिनानि अष्टौ घव्यश्चतुस्त्रिंशत् पलानि सप्तदश चाक्षराणि किश्चि-1
दधिकानीति, चतुःषष्टेः सप्तभिर्भागे एतावत एव लाभात् , यच्च पूर्वेभ्योऽधिकोऽपत्यसंरक्षणकालस्तत्कालस्य हीयमा-14 AR|| नत्वेनोत्थानादीनां हीयमानत्वाद् भूयसाऽनेहसा व्यक्तताभवनादिति, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, वे पल्योपमे आयुस्तेषां मनुजा-18
नामिति योगः, एवमन्यत्रापि यथासम्भवमध्याहारेण सूत्राक्षरयोजना कार्या, अन्यत् सर्व सुषमसुषमोक्तमेवेति, अत्रापि ] | यथोक्तमायुःशरीरोच्छ्यादिकं सुषमायामादौ ज्ञेयं, ततः परं क्रमेण हीयमानमिति । अथात्र भगवान् स्वयमेवापृष्टा-18
नपि मनुष्यभेदानाह-'तीसे ण' मित्यादि, अत्रान्वययोजना प्राग्वत् , एकाः१ प्रचुरजलाः २ कुसुमाः ३ सुशमनाः४ ॥ एतेऽपि प्राग्वजातिशब्दा ज्ञेयाः, अन्वर्धेता चैवं-एका:-श्रेष्ठाः, संज्ञाशब्दत्वान्न सवोदित्वं, प्रचुरजहा:-पुष्टजहाः नतु
काकजङ्घा इति भावः, कुसुमसहशत्वात् सौकुमार्यादिगुणयोगेन कुसुमाः, पुंस्यपि कुसुमशब्दः, सुष्टु-अतिशयेन 8 हाशमन-शान्तभावो येषां ते तथा, प्रतनुकपायत्वात् , अत्र पूर्वोक्तषट्रप्रकारमनुष्याणामभावादेतेऽन्ये जातिभेदाः ।। गतो द्वितीयारक इति। तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइकते अणतेहिं वण्णपजवेहिं जाव अर्णतगुणपरिहाणीए परिहायमाणी २ एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवजिंसु समणासो, सा णं समा तिहा विभजइ-पढमे तिभाए १ मझिमे तिभाए २
दीप अनुक्रम
[३९]
अथ तृतिय-आरकस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
~264~
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मू
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्रीया वृतिः ॥१३१॥
[२७]
दीप
पच्छिमे तिभाए ३ जंबुरीवेणं भंते ! दीवे, मासे ओसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समार पाममजिमेसु तिभाएसु भरहस्स वासस्स केरि- वक्षस्कारे सए आवारभाषपडोआरे पुच्छा, गोअमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे होस्था, सो व गमो अवो णाणत्तं दो घणुसहस्साई हतीयारक: उर्दू उत्तेणं, सेसि च मणुआणं चउसद्विपिढकरंडुगा चउत्थभत्तस्स आहारत्ये समुप्पाइ ठिई पलिओवर्म एगूणासीई राइंदिआई 18 सारखंति संगोवेंति, जाव देवलोमपरिमाहिआ ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो!, सीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे निभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आधारभावपरीयारे होत्था, गोभमा! बहुसमरमणिजे मृमिभागे होत्या से जहा णामए आलिंगपुक्सरे इवा जाव मणीहिं उवसोभिए, तंजहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिहिं घेव, तीसे गं भंते! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपढोआरे होत्था ?, गोअमा ! वेसि मणुआणं छबिहे संधयणे छबिहे मंठाणे बहूणि धणुसयाणि उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णेण संखिजाणि वासाणि उक्कोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि आउथे पालंति पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगच्या तिरिअगामी अप्पेगड्या मणुरसगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया सिझंति जाव सबनुक्साणमंतं करेंति (सूत्र २७) व्याख्या प्राग्वत् , नवरं परिहायमाणी इत्यत्र स्त्रीलिङ्गनिर्देशः समाविशेषणार्थतेन समा काले इति पदद्वयं पृथक मन्तव्यं, अयमेवाशयः सूत्रकृता 'सा णं समे'त्युत्तरसूत्रे प्रादुश्चके इति, अथास्वा एव विभागप्रदर्शमार्थमाह-'साम'
॥१३॥ मित्यादि, सा सुषमदुःषमा नाम्नी समा-तृतीयारकलक्षणा त्रिधा विमज्यते-विभागीक्रियते, तद्यथा-प्रथमस्तृत्तीची। भागः प्रथमखिभागः मयूरव्यसकादित्वात् पूरणप्रत्ययलोपः, एवमग्रेऽपि, अयं भावा-द्वयोः सागरोपमकोटाकोव्योखि
अनुक्रम
caeeeeeeee
[४०]
000000000
Jimillennition
~265~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२७]
एeeseseiseaseseseaceaese
दीप अनुक्रम
भिर्भागे यदागतं तदेकैकस्य भागस प्रमाणं, तच्चेदं-षट्षष्टिः कोटिलक्षाणां षट्षष्टिः कोटिसहस्राणां षटू कोटि
शतानां षट्षष्टिः कोटीनां षट्षष्टिलक्षाणां षट्पष्टिः सहस्राणां षटुं शतानां षट्पष्टिश्च सागरोपमाणां द्वौ च | सागरोपमत्रिभागौ, स्थापना चेयं-६६६६६६६६६६६६६६, इति, अधाद्यभागयोः स्वरूपप्रश्नायाह-'जंबुद्दीवे |
ण'मित्यादि, सर्व गतार्थ, नानात्वमित्ययं विशेषः-द्वे धनुःसहस्र ऊर्वोच्चत्वेन कोशोच्चा इत्यर्थः, तेषां च | मनुष्याणां चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्डुकानि, अष्टाविंशत्यधिकशतस्यार्कीकरणे एतावत एव लाभात्, चतुर्थभक्केऽतिक्रान्ते | आहारार्थः समुत्पद्यते, एकदिनान्तरित आहार इत्यर्थः, स्थितिः पल्योपमं, एकोनाशीति रात्रिन्दिवानि संरक्षन्ति | सङ्गोपयन्ति, अपत्ययुगलकमित्यर्थः, तत्रावस्थाक्रमस्तथैव, नवरमेकैकस्या अवस्थायाः कालमान एकादशं दिनानि | सप्तदश घठ्यः अष्टौ पलानि चतुर्विंशच्चाक्षराणि किश्चिदधिकानीति, एकोनाशीतेः सप्तभिर्भागे एतावत एव लाभात्, | अस्यां च भिन्नजातिमनुष्याणामनुषञ्जना नास्ति, तदा तेषामसंभवादिति संभाव्यते, तत्त्वं तु तत्त्वविद्ज्ञेयं, यत्तु-'उग्गा | भोगा रायन्न खत्तिआ संगहो भवे चउहा' इत्युक्तं तदरकान्त्यभागभावित्वेन नेहाधिक्रियते, नन्वस्याः समायास्त्रिधा | विभजनं किमर्थ ?, उच्यते, यथा प्रथमारकादौ त्रिपल्योपमायुषस्निगव्यूतोच्छ्यास्त्रिदिनान्तरितभोजना एकोनपञ्चाश|दिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्ततः क्रमेण कालपरिहाण्या द्वितीयारकादौ द्विपल्योपमायुषो द्विगव्यूतोच्छ्या द्विदिनान्तरितभोजनाश्चतुःषष्टिदिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्ततोऽपि तथैव परिहाण्या तृतीयारकादौ एकपल्योपमायुषः एकगब्यूतो
Beeeeeeeen992809009
[४०]
~266~
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२७]
दीप
श्रीजम्यू- च्छूया एकदिनान्तरितभोजना अशीतिदिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्तदनन्तरमपि त्रिधाविभक्ततृतीयारकप्रथमत्रिभाग-8 वक्षस्कारे द्वीपथा-गाद्वयं यावत , तथैव नियतपरिहाण्या हीयमाना युग्मिमनुजा अभूवन , अन्तिमत्रिभागे तु सा परिहाणिरनियता जातेति ||
सूचनार्थ त्रिभागकरणं सार्थकमिति सम्भाव्यते, अन्यथा वा यथाऽऽगमसम्प्रदायं त्रिभागकरणे हेतुरंवगन्तव्य इति ।।.२८ या वृचिः
अथ तृतीयारकस्वरूपप्रश्नायाह-तीसे ण' मित्यादि, यदेव दक्षिणार्द्धभरतस्वरूपप्रतिपादनाधिकारे व्याख्यातं तदत्र ॥१३२॥ सूत्रे निरवशेष ग्राह्यं-नवरमत्र कृष्यादिकर्माणि प्रवृत्तानीति कृत्रिमैस्तृणः कृत्रिमैर्मणिभिरित्युक्तं, अथात्रैव मनुजानां
| स्वरूपं पृच्छन्नाह-तीसे ण' मित्यादि, व्याख्या प्राग्वत् । अथ यथास्मिन् जगद्व्यवस्थाऽभूत् तदाह
तीसे गं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्ठभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलंगरा समुप्पज्जित्था, तंजहा-सुमई १ पढिस्सुई २ सीमकरे ३ सीमंधरे ४ खेमंकरे ५ सेमंधरे ६ विमलवाहणे ७ चक्खुम ८ जसमं ९ अभिचंदे १० चंदाभे ११ पसेणई १२ मरुदेवे १३ णामी १४ उसभे १५ चि। (सूत्र २८)
तस्याः समायाः पाश्चात्ये त्रिभागे-तृतीये त्रिभागे पल्योपमाष्टमभागावशेषे एतस्मिन् समये इमे-वक्ष्यमाणाः पश्चदश कुलकरा-विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकारिणः कुलकरणशीलाः पुरुषविशेषाः समुपद्यन्ते-समुत्पन्नवन्तः, अत्राह|| कश्चित्-आवश्यकनियुक्त्यादिषु सप्तानां कुलकराणामभिधानादिह पश्चदशानां तेषामभिधानं कथं यदिषा भवतु
न तु स्थानांगादी सप्लैव कुलकरा मणितास्तथाहि-अंबुद्दीने २ भारहे चासे इमीसे प्रोसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या, तजहा पढमित्यविमलवाहन ।
अनुक्रम
[४०]
992080pacasasa
JimEllennitima
अथ कुलकर-वक्तव्यता आरभ्यते
~267~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----------------
---- मूलं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
celoe
प्रत सूत्रांक [२८]
नामैतत् , पुण्यपुरुषाणामधिकाधिकश्यपुरुषवर्णनस्य न्याय्यत्वात् , परं पल्योपमाष्टभागावशिष्टतावचनं कालस्य सुतरां | बाधते अनुपपत्तेः, तथाहि-पल्योपमं किलासत्कल्पनया चत्वारिंशद्भागं परिकल्प्यते, तस्याष्टमो भागश्चत्वारिंशद्भागाः
पञ्च, तत्राप्याद्यस्य विमलवाहनस्यायुः पल्योपमदशभागस्ततश्चत्वारश्चत्वारिंशदागास्तदायुषि गताः, शेष एक पल्यो| पमस्य चत्वारिंशत्तमः सववेयो भागोऽवतिष्ठते, स चक्षुष्मदादीनामसंख्येयपूर्वैर्नाभेः सङ्ख्येयपूर्वैः श्रीऋषभस्वामिन
दीप
ccestreederstraeseseeesercedeseiserse
पाम १ जरामं ३ चतत्वमभिद । । तत्तो पसेणी ५ गुण मरदेव ६ व नाभी ७ ॥१॥ सिपबतु धीरुषभदेव संयुताः पंचदया भणिताः, तेष्वप्यभिचंद्रप्रसेनजितोरंतराले चन्द्रामो भषितः, एवं च सति कथमन्योन्य संगतिरिति चेत्, सत्यं, कुलकरा हि द्विविधा भवंति, कुलफरफरये नियुक्ताः सतन्त्रप्रपत्ताश, तत्र ये विमव्वादनादयो नियुकास्ते स्थानांगादी भगिता कुलकरकूखं कुर्वन्तः कुलकरा भाममेव लमित्रायेणोभयेऽप्युपात्ताः, यदुर्ग विवाषणयला-"यत्त | य सत्तमठाणाइएस दस कुलगरा दसमठाणे । पग्णसीए भनिभा पाणरस जंबुद्दीषस्स ॥१॥ सत्तम्हणेण जे विमत्याहणाई परेण से ण संगहिमा । भनिगोत्ति द्विअ ते कुरुगरतणं जेण कयतो ॥१॥ पण्णररा कुलगरतणसामण्णाभोप्ति सेऽवि संगहिमा । जत्थ दराई सत्तगमणिउत्तं तत्थ लिगमाहु ॥ ३॥" इति, याप्येवं । संगतिः धीजिनभागनिक्षमाधमणैरनिहिता, परं परमार्थचिन्तायामेवदभिप्रायः सम्यम् नावसीयते, यतो दंडनीतापसंगतेस्तावपस्यमेव, तथाहि-बिमलया-10 हनचक्षुष्मतीः काले तिरूपा दंडनीतिः १ यशस्विमभित्रयो। कालेऽल्पापराधिना हेतिरूपा तदितरेषा तु मेतिरूपा दंडनीतिः २ प्रसेनजिम्मरदेवनाभीना कालेल्पा-18 पराधिना हाकाररूपा मध्यापराधिनां मकाररूपा उस्कृष्ठापराविनां च धिकाररूपा दंडनीतिः ३ श्रीस्थानांगसूत्रादौ भणिता, इह तु विमलवाहनकाले हकारम-1 काररूपं नीतिद्वयं पश्यति, तथानाभिचंद्रादनु चंद्रागः प्रोक्तः, स्थानांगादी तु तन्नामापि नाति, तथा श्रीस्थानांगे सप्तमस्थानकेऽतीतानागतयोरसपिण्योः | सप्त कुलकरा भणिताः, दशमस्थानके च दश, तत्र नानामप्रसंगति रियादि बहु बिचार्थमस्थतोऽसंगतिहेतुर्याचनाभेद एव, स च शीर्षप्रहेलिकापर्यंतसंख्यायाख्यावसरे प्रदर्शितः । (इति ही वृत्ती)
Careere
अनुक्रम [४१]
श्रीजम्यू. २३
~268~
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२८]
दीप
अनुक्रम
[४१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१३३॥
श्चतुरशीत्या पूर्वलक्षैः शेषश्चैकोननवत्या पक्षैः परिपूर्यते, तेन पूर्वेषां सुमत्यादिकुलकराणा महत्तमायुषां क्वावकाशः १, २वक्षस्कारे उच्यते, आद्यस्य सुमतेस्तावत्पल्यदशमाश आयुः, ततो द्वादश वंश्यान् यावत् पूर्वदर्शितन्यायेनै कस्मिंश्चत्वारिंशत्त- कुलकराः | मेऽवशिष्टभागेऽसङ्ख्येयानि पूर्वाणि तानि च यथोत्तरं हीनहीनानि नाभेस्तु सङ्ख्येयानि पूर्वाणीत्यादि, इत्थं चावि- २.२८ रुद्धमिव प्रतिभाति, यत्तु हारिभद्या मावश्यकवृत्तौ “पहिओवमदसमंसो पढमस्साडं तो असंखिज्जा । ते अणुपुची हीणा पुबा नाभिस्स संखिज्जा ॥ १ ॥” इति गाथाव्याख्याने मतान्तरेण नाभेरसङ्ख्येय पूर्वायुष्कत्वमुक्तं तत्तु | कुलकरसमानायुष्कत्वेन कुलकरपलीनां मरुदेव्या अभ्यसंख्यपूर्वायुष्कतापत्तौ मुक्त्यनुपपत्तिरिति तत्रैव दूषितमस्तीति न कोऽपि परस्परं विरोधः, यच्चावश्यकादिषु विमलवाहनस्य पत्यदशमांशायुष्कत्वं तद्वचनाभेदादवगन्तव्यं यच ग्रन्थान्तरे नामपाठभेदः सोऽपि तथैवेत्यत्र सर्वविदः प्रमाणमित्यलं विस्तरेण, अथ प्रस्तुतमुपक्रम्यते - ' तद्यथे 'ति तान् नामतो दर्शयति, सुमतिः १ प्रतिश्रुतिः २ सीमङ्करः ३ सीमन्धरः ४ क्षेमङ्करः ५ क्षेमन्धरः ६ विमलवाहनः ७ चक्षुष्मान् ८ यशस्वी ९ अभिचन्द्रः १० चन्द्राभः ११ प्रसेनजित् १२ मरुदेवः १३ नाभिः १४ ऋषभ १५ इति, | यत्पुनः पद्मचरित्रे चतुर्दशानां कुलकरत्वमभिहितमत्र तु पञ्चदशस्य ऋषभस्यापि तद्भरतक्षेत्रप्रकरणे भरतभर्तुर्भरतनाम्नोऽपि महाराजस्य प्ररूपणाप्रक्रमितव्याऽस्तीति ज्ञापनार्थमिति । अथैते कुलकरत्वं कथं कृतवन्त इत्याह
तत्थ णं सुमई १ पडिस्इ २ सीमंकर ३ सीमंधर ४ खेमंकरा ५ णं एतेसिं पंचं कुराणं हकारे णामं दण्डणीई होत्या, ते
Fur Ele&ae Cy
~ 269~
॥१३३॥
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
मणुभा हकारेणं दंढेणं हया समाणा लजिआ विलजिआ वेडा भीआ तुसिणीआ विणोणया चिट्ठति, तत्थ णं खेमंधर ६ विमलवाहण ७ चक्खुमं ८ जसमं ९ अमिचंदाणं १० एतेसि णं पंचण्डं कुलगराणं मकारे णाम दंडणी होत्या, ते णं मणुआ मकारेणं दंडेणं हया समाणा जाव चिट्ठति, तत्थ णं चंदाभ ११ पसेणइ १२ मरुदेव १३ णाभि १४ उसभाणं १५ एतेसि णं पंचण्हं कुलगराणं विकारे णाम दंडणीइ होत्या, ते णं मणुआ धिक्कारेण दंडेणं हया समाणा जाव चिट्ठति (सूत्र २९) - 'तत्व णमित्यादि, तेषु पञ्चदशसु कुलकरेषु मध्ये सुमतिप्रतिश्रुतिसीमकरसीमन्धरक्षेमङ्कराणामेतेषां पञ्चानां कुलकराणां हा इत्यधिक्षेपार्थकः शब्दस्तस्य करणं हाकारो नाम दण्ड:-अपराधिनामनुशासनं तत्र नीति:-न्यायोड| भवत्, अत्रायं सम्प्रदायः-पुरा तृतीयारान्ते कालदोषेण व्रतभ्रष्टानामिव यतीनां कल्पद्रुमाणां मन्दायमानेषु स्वदेहा
वयवेष्विव तेषु मिथुनानां जायमाने ममत्वेऽन्यस्वीकृतं तमन्यस्मिन् गृह्णाति परस्परं जायमाने विषादे सदृशजनक-13 S|| तपराभवमसहिष्णवः आत्माधिक सुमतिं स्वामितया ते चक्रुः, स च तेषां तान् विभज्य स्थविरो गोत्रिणां द्रव्यमिव |
ददी, यो यः स्थितिमतिचक्राम तच्छासनाय जातिस्मृत्या नीतिज्ञत्वेन हाकारदण्डनीतिं चकार, तां च प्रतिश्रुत्यादय-18 ISश्चत्वारोऽनुचक्रुरिति, तया च ते कीशा अभवन्नित्याह-'ते णमित्यादि, ते मनुजा णमिति प्राग्वत् , हाकारेण दण्डेन रहताः सन्तो लज्जिताः पीडिता व्यर्द्धाः-लज्जाप्रकर्षवन्त इत्यर्थः, एते त्रयोऽपि पर्यायशब्दा लज्जाप्रकृष्टतावचना
योकाः भीता-व्यक्तं तूष्णीका-मौनभाजो विनयावनता न तूलण्ठा इव निस्त्रपा निर्भया जल्पाका अहंयवश्च तिष्ठन्ति,
Reseseseseserateatenederaterner
अनुक्रम
[४२]
paeseseseseeeeeser
~ 270~
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
श्रीजम्बू
18 ते अनेनैव दण्डेन इतस्त्रमिवात्मानं मन्यमानाः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्तन्त इत्याशयः, अत्र चादृष्टपूर्वशासनानां तेषां 8 द्वीपशा- 18 दण्डादिधातेभ्योऽप्यतिशायि मर्माविच्छासनमिदमिति हता इति वचनं, अथोत्सरकालवर्तिकुलकरकाले कि सैव दण्डन्तिचन्द्री- नीतिरन्या वेत्याशङ्कायां समाधत्ते-'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र क्षेमन्धरविमलवाहनचक्षुष्मद्यशस्व्यभिचन्द्राणामेतेषां ।
पञ्चानां कुलकराणां मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं-अभिधानं माकारो नाम दण्डनीतिरभवत् , शेषं पूर्ववत् , आवश्य॥१३४ कादो तु विमलवाहनचक्षुष्मतोः कुलकरयोयों हाकाररूपा दण्डनीतिः ययाभिचन्द्रप्रसेनजितोरन्तराले चन्द्राभस्या
कथनमित्याद्यन्तरं तद्वाचनान्तरेणेति, अयमर्थ:-क्रमेणातिसंस्तवादिना जीर्णभीतिकत्वेन हाकारमतिकामत्सु अंकुशमिव । गम्भीरवेदिषु गजेषु युग्मिषु क्षेमन्धरः कुलकुञ्जरो 'दुश्चिकित्से हि चिकित्सान्तरं कार्यमिति द्वितीयां माकाररूपां दण्डनीतिं चकार, तां च विमलवाहनादयश्चत्वारोऽनुचक्रुः, अत्र सम्प्रदायविदा-महत्यपराधपदे माकाररूपां इतरत्र तु पूर्वैव, श्रीहेमसूरयस्तु ऋषभचरित्रे सप्तकुलकराधिकारे यशस्विवारके दण्डनीतिमाश्रित्य-"आगस्यल्पे नीतिमाद्यां, द्वितीयां । मध्यमे पुनः। महीयसि द्वे अपि (ते), स प्रायुक्त महामतिः॥१॥" इत्याहुः । अथ तृतीयकुलकरपश्चकव्यवस्थामाह
तत्थ ण'मित्यादि, इदं सूत्रं गतार्थ, नवरं घिगित्यधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धिकारः, सम्प्रदायस्त्वयं-॥ SIपूर्वनीती अतिक्रमत्सु तेषु त्रपामर्यादे इव कामुकेषु चन्द्राभनामा धिकारदण्डनीति विदघे, तां च प्रसेनजिदादयश्चत्वारोऽ-1
नुकृतवन्तः, महत्यपराधे धिक्कारो मध्यमजघन्ययोस्तु माकारहाकाराविति, अन्यास्तु परिभाषणाद्या भरतकाले, 'परि
29290920020302030202020
अनुक्रम
[४२]
१३॥
~ 271~
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
अनुक्रम
[४२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भासना उ पदमा मंडलिबंधंमि होइ बीआ य । चारगछविछेआई मरहस्स चउबिहा नीई ॥ १ ॥" [ परिभाषणा तु प्रथमा मण्डलबन्धे भवति द्वितीया च । चारकं छविच्छेदादि भरतस्य चतुर्विधा नीतिः ॥ १ ॥ ] इति वचनात्, ऋषभकाले इत्यन्ये, अथ पञ्चदशे कुलकरे कुलकरत्वमात्रं चतुर्दशसाधारणमित्यसाधारणपुण्यप्रकृत्युदयजन्मनि जगज्जनपूजनीयतां प्रचिकटयिषुर्यथाऽस्मादेव लोके विशिष्टधर्माधर्मसंज्ञाव्यवहाराः प्रावर्त्तन्त इत्याह-
णामिस्स णं कुलगरस्स महदेवार भारिआए कुच्छिसि एत्थ णं उसके पानं अरहा कोसलिए पढमरावा पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचकवट्टी समुप्पज्जित्थे, तर णं उसमे अरहा कौसलिए वीसं पुचसय सहस्साई कुमारबासमझे वस सत्ता ते पुढसय सदस्साई महारायवासमन्दी बस, तेवहिं पुत्रसयसहस्साई महारायवासमध्ये वसमाणे लेहाइआओ गणिअपहाणाओ सउणरुअपव्यवसाणाओं बावन्तरि कलाओ चोसाई महिलागुणे सिप्पसवं च कम्माणं तिष्णिवि पाहिआए उबदिसइत्ति, उवदिसित्ता पुत्तसयं रजसए अभिसिंचर, अभिसिंचित्ता तेसीइं पुइसयसहस्साई महारायवासमझे बसइ वसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढने पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चिचबहुलस्स नवमीपक्खेणं दिवसस पच्छिमे भागे चत्ता हिरण्णं सुवर्ण चइता कोसं कोट्टागारं इत्ता बलं चइत्ता वाहणं चइता पुरं चत्ता अंडरं चहा विकणगरयणमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावइवं विच्छडुयित्ता विगोवइत्ता दायं दाइआणं परिभाषत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमगे संखिदचकिअणंग लिअमुहमंगलि अपूसमाणववद्धमाणगआइक्खगलंखर्मखघंटिअगणेहिं
अथ कला आदि एवं ऋषभस्य दीक्षा वर्ण्यते
Fur Fate &P Cy
~272~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू.
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१३५॥
oeas
दीप
ताह वाहिं ताहि पियाहिं मणुण्णादि मणामाहिं उरलाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहि मंगलाहिं सस्सिरिआदि हिययगमणि- रवक्षस्कारे जाहिं हिययपल्हायणिजाई कण्णमणणिबुईकराहिं अपुणरुत्ताहिं अट्ठसइआर्हि वग्गूहि अणवरयं अमिणदंता य अभिधुणंता य एवं 18 कलादिकबवासी-जय जय नंदा! जय जय भहा! धम्मेणं अभीए परीसहोवसम्गाणं खंतिखमे भयभेरवाणं धम्मे ते अविग्धं भवउ- पभदीक्षाच त्तिकट्ट अमिणति अ अमिथुणंति अ । तए थे उसमे अरहा कोसलिए णवणमालासहस्सेहिं पिच्छिजमाणे २ एवं जाव णिग्गच्छइ जहा उबबाइए जाब आउलबोलबहुलं णभं करते विणीआए रायहाणीए मझमझेणं णिग्गच्छइ आसिअसंमजिअसित्तसुइकपुष्फोषयारकलिअं सिद्धत्यवणविउलरायमगं करेमाणे हयगयरहपहकरेण पाइकचडकरेण य मंदं २ उद्धतरेणुयं करेमाणे २ जेणेव सिद्धत्थवणे उजाणे जेणेब असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छति २ असोगवरपायवस्स अहे सी ठावेइ २ चा सीआओ पच्चोरुहाइ २ चा सयभेवाभरणालंकार ओमुअइ २ ता सयमेव चाहिं अट्टाहिं लो करेइ २ ता छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं भोगाणं राइन्नाथ खत्तिभाणं चउदि सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए (सूत्रं ३०)
'णाभिस्स णमित्यादि, नाभेः कुलकरस्य मरुदेव्या नान्या भार्यायाः कुक्षौ एतस्मिन् समये 'उसहति ऋषभः ॥१३५॥ | संयमभारोद्वहनाएषभ इव ऋषभः, वृषभो वेति संस्कारः तत्र वृषभ इव वृषभ इति वा, पेण भातीति वा वृषभः, MS एवं च सर्वेऽप्यहन्त ऋषभा वृषभा वा इत्युच्यन्ते तेन ऊर्वोर्वृषभलाञ्छनत्वेन मातुश्चतुर्दशस्वमेषु प्रथमं वृषभदर्शनेन ।
अनुक्रम [४३]
~ 273~
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम
[४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
च ऋपभो वृषभो वेति नाम्ना, कोशलायां - अयोध्यायां भवः कौशलिकः 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायादेतद्विशेपणं, अयोध्यास्थापनाया ऋषभदेवराज्यस्थापनासमये कृतत्वात् तद्व्यक्तिस्तु भरत क्षेत्रनामान्यर्थकथनावसरे 'धणवईमतिनिम्माया' एतत्सूत्रव्याख्यायां दर्शयिष्यते, अर्हन्तश्च पार्श्वनाथादय इव केचिदनङ्गीकृतराजधर्मका अपि स्युरित्यसौ केन क्रमेणान्नभूदित्याह - प्रथमो राजा, इहावसर्पिण्यां नाभिकुलकरादिष्टयुग्मिमनुजैः शक्रेण च प्रथममभि| पिकत्वात्, प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जेता, यद्वा प्रथमो मनःपर्यवज्ञानी राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतो भावतश्च साधुपदवर्त्तित्वे, अत्रावसपिण्यामस्यैव भगवतः प्रथमतस्तद्भवनात्, जिनत्वं चावधिमनः पर्यवकेवलज्ञानिनां स्थानाने | सुप्रसिद्धं, अवधिजिनत्ये तु व्याख्यायमानेऽक्रमबद्धं सूत्रमिति, केवलिजिनत्वे चोत्तरग्रन्थेन सह पौनरुक्त्यमिति व्याख्यानासङ्गतिः श्रोतॄणां प्रतिभासेत, प्रथमकेवली - आद्य सर्वशः, केवलित्वे च तीर्थकृन्नामोदयतीत्याह-प्रथमतीर्थकर :- आद्यचतुर्वर्णसङ्घस्थापकः, उदिततीर्थकृन्नामा च कीदृशः स्यादिति - प्रथमो धर्मवशे- धर्मप्रधानश्चक्रवत्तीं, यथा चक्रवतीं सर्वत्राप्रतिहतवीर्येण चक्रेण वर्त्तते तथाऽयमपीति भावः, समुदपद्यत - समुत्पन्नवानित्यर्थः, अथ यथा भगवान् वयः प्रतिपन्नवान् तथाऽऽह - 'तए ण' मित्यादि, ततो जन्मकल्याणकानन्तरमित्यर्थः, ऋषभोऽर्हन् कौशलिकः विंशर्ति पूर्वशतसहस्राणि - पूर्वलक्षाणि भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य कुमारत्वेन-अकृताभिषेकराजसुतत्वेन वासः - अवस्थानं तन्मध्ये वसति, 'कुमारवास मज्झावस' इति पाठे तु कुमारवासमध्यावसति आश्रयतीत्यर्थः, उषित्वा च त्रिषष्टिपूर्वलक्षाणि अत्रापि
Fur Fate &P Cy
~274~
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप
श्रीजम्बू
भावप्रधानो निर्देश इति महाराजत्वेन-साम्राज्येन वास:-अवस्थानं तन्मध्ये वसति, तत्र वसंश्च कथं प्रजा उपचके वक्षस्कारे द्वीपशा- इत्याह-'तेवटिं' इत्यादि, त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि यावत् महाराजवासमध्ये वसन् लिपिविधानादिका गणित-अङ्कविद्या ध-18 कलादि ऋ
मकर्मव्यवस्थितौ बहुपकारित्वात् प्रधाना यासु ताः शकुनरुतं-पक्षिभाषितं पर्यवसाने-प्रान्ते यास तास्तथा, द्वासप्तति- मदीक्षाच या वृचिः
कलाः, कलनानि कला विज्ञानानीत्यर्थस्ताः कलनीयभेदात् द्वासप्ततिः अर्थात, प्रायः पुरुषोपयोगिनी, चतुःषष्टिं महिला- सू.३० ॥१३६॥ IS गुणान्-खीगुणान् , कर्मणां-जीवनोपायानां मध्ये शिल्पशतं च विज्ञानशतं च कुम्भकारशिल्पादिकं त्रीण्यप्येतानि |
वस्तूनि प्रजाहिताय-लोकोपकारायोपदिशति, अपिशब्द एकोपदेशकपुरुषतासूचनार्थः, वर्तमाननिर्देशश्चात्र सर्वेषामाद्य-॥ तीर्थङ्कराणामयमेवोपदेशविधिरिति ज्ञापनार्थ, यद्यपि कृषिवाणिज्यादयो बहवो जीवनोपायास्तथापि ते पश्चात्काले प्रादुभूवुः भगवता तु शिल्पशतमेवोपदिष्टं अत एवाचार्योपदेश शिल्पमनाचार्योपदेशजंतु कम्र्मेति शिल्पकर्मणोविशेष-1 मामनन्तीति, श्रीहेमसूरिकृतादिदेवचरित्रे तु-'तृणहारकाष्ठहारकृषिवाणिज्यकान्यपि । कर्माण्यासूत्रयामास, लोकानां
जीविताकृते ॥१॥ इत्युक्तमस्ति तदाशयेन तु कर्मणामित्यत्र द्वितीयार्थे षष्ठी ज्ञेया, तथा च कर्माणि जघन्यमध्य18| मोत्कृष्टभेदतस्त्रीण्यप्युपदिशतीत्यपि व्याख्येयं, शिल्पशतं च पृथगेवोपदिशतीति ज्ञेयमिति, अधात्र सूत्रे सोपतः|| पोका बिस्तरतस्तु श्रीराजप्रश्नीयादिसूत्रादर्शषु दृश्यमाना द्वासक्षतिकलास्तत्पाठोपदर्शनपूर्वकं वित्रियन्ते, यथा-"लेहं ||
॥१३६॥ ११ मणि २ रूर्व इनर्दृ गीअं५ वाइ ६ सरगयं ७ पोक्खरगय८ समतालं ९ जूझ १० जणवार्य ११ पासयं १२
अनुक्रम [४३]
~ 275~
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----............---
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अट्ठावयं १३ पोरकब १४ दगमट्टिअं १५ अन्नविहिं १६ पाणविहिं १७ वत्थविहिं १८ विलेवणविहिं १९ सयणविहिं २० अजं २१ पहेलिअं २२ मागहिअं २३ गाहं २४ गीअं२५ सिलोर्ग २६ हिरण्णजुत्ति २७ सुवण्णजुत्ति २८ चुण्णजुत्तिं |
आभरणविहिं ३० तरुणीपरिकम्म ३१ इथिलक्खणं ३२ पुरिसलक्खणं ३३ हयलक्षणं ३४ गयलक्खणं ३५ गोणल1 क्खणं ३६ कुकुडलक्षणं ३७ छत्तलक्षणं ३८ दंडलक्खणं ३९ असिलक्खणं ४० मणिलक्खणं ४१ कागणिलक्षणं
४२ वत्थुविज ४३ खंधावारमाणं ४४ नगरमाणं ४५ चारं ४६ पडिचारं ४७ वूह ४८ पडिवूह ४९ चक्कवूह ५० गरुडबूह ५१ सगडवूह ५२ जुद्धं ५३ नियुद्धं ५३ जुद्धातियुद्धं ५५ दिडिजुद्धं ५६ मुद्वियुद्ध ५७ बाहुयुद्ध ५८ लयायुद्धं ५५ हा इसत्यं ६० छरुप्पवायं ५१ घणुषेयं १२ हिरण्णपागं ६३ सुवण्णपागं ६४ सुत्तखेडे ६५ वत्थखेमु ६६ नालिआखेडं ६७ | पत्तच्छेज ६८ कडच्छेनं ६९ सज्जीव ७० निज्जीव ७१ सउणरु. ७२ मिति, अत्र लेहमित्यादीनि द्वासप्ततिपदानि | राजप्रश्नीयानुसारेण द्वितीयान्तानि प्रतिभासन्ते इत्यत्रापि ब्याख्यायां तथैव दर्शयिष्यन्ते, समवायाङ्गानुसारेण वा । विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमान्ततया स्वयं योजनीयानीति, तत्र लेखनं लेख:-अक्षरविन्यासस्तद्विषया कला-विज्ञानं लेख एवोच्यते, तं भगवानुपदिशतीति प्रकृते योजनीयं, एवं सर्वत्र योजना कार्या, स च लेखो द्विधा-लिपिविषयभेदात्, । | तत्र लिपिरष्टादशस्थानोक्ता, अथवा लाटादिदेशभेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथापि पत्रवस्क-18 |लकाष्ठदन्तलोहताबरजतादयोऽक्षराणामाधारास्तथा लेखनोकिरणस्यूतब्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भव
दीप
अनुक्रम [४३]
~ 276~
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
म.३०
दीप
श्रीजम्बू- न्तीति, विषयापेक्षयाऽप्यनेकधा स्वामिभृत्यपितृपुत्रगुरुशिष्यभार्यापतिशत्रुमित्रादीना लेखविषयाणामनेकत्वात्तथावि-18वक्षस्कारे द्वीपशा- धप्रयोजनभेदाच, अक्षरदोषाश्चैते-'अतिकार्यमतिस्थौल्य, वैपम्यं पङ्गिवक्रता। अतुल्यानां च सादृश्यमविभागोऽवय
8 कलादि - न्तिचन्द्री18 वेषु च ॥१॥ इति १, तथा गणित-सङ्ग्यानं सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसिद्धं २ रूपं-लेप्यशिलासुवर्णमणिवस्त्रचित्रादिषु 81
पभदीक्षाच या वृत्तिः
18 रूपनिर्माणं ३ नाव्यं साभिनयनिरभिनयभेदभिन्नं ताण्डवं ४ गीत-गन्धर्वकलां गानविज्ञानमित्यर्थः ५ वादितं-वाद्यं ४ ॥१३७॥18॥ ततविततादिभेदभिन्नं ६ स्वरगतं गीतमूलभूतानां पऋषभादिस्वराणां ज्ञानं ७ पुष्करगतं पुष्कर-मृदङ्गामायादिभेदभिन्न
तद्विषयकं विज्ञान, वाद्यान्तर्गतत्वेऽप्यस्य यत्पृथक्कथनं तत्परमसङ्गीताङ्गत्वख्यापनार्थ ८ समतालं-गीतादिमानकालस्तालः स समोऽन्यूनाधिकमात्रिकत्वेन यस्माद् ज्ञायते तत् समतालं विज्ञानं, क्वचित्तालमानमिति पाठः ९ धूतं सामान्यतः प्रतीतं १० जनवादं द्यूतविशेष ११ पाशकं-प्रतीतं १२ अष्टापदं-शारिफलकद्यूतं तद्विषयककलां १३ पुरःकाव्यमिति पुरतः पुरतः काव्यं शीघ्रकवित्वमित्यर्थः १४ 'दगमहिमिति दकसंयुक्तमृत्तिका विवेचकद्रव्यप्रयोगपूर्विका तद्विवे
चनकलाप्युपचाराद्दकमृत्तिका तां १५ अन्नविधि-सूपकारकलां १६ पानविधि-दकमृत्तिकाकलया प्रसादितस्य सहज-18 || निर्मलस्य तत्तत्संस्कारकरणं, अथवा जलपानविधि जलपानविषये गुणदोषविज्ञानमित्यर्थः, यथा 'अमृतं भोजनस्या,
॥१३७॥ भोजनान्ते जलं विष'मित्यादि, १७ वस्त्रविधि-वस्रस्य परिधानीयादिरूपस्य नवकोणदैविकादिभागयथास्थाननिवेशादिविज्ञानं, बानादिविधिस्तु अनन्तविज्ञानान्तर्गत इति नेह गृह्यते १८ विलेपनविषि-यक्षकईमादिपरिज्ञानं १९ शय
अनुक्रम [४३]
~ 277~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----..........-----
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
नविधि-शयनं शय्या-पल्यङ्कादिस्तद्विधिः, स चै-"कर्माङ्गलं यवाष्टकमुदरासक्तं तुषैः परित्यक्तम् । अङ्गलशतं नृपाणां महती शय्या जयाय कृता ॥१॥ नवतिः सैव पडूना द्वादशहीना त्रिषट्कहीना च। नृपपुत्रमन्निबलपतिपुरोधसां स्युर्यधास-1 क्यम् ॥२॥ अर्द्धमतोऽष्टांशोनं विष्कम्भो विशुद्धकर्मणा प्रोक्तः। आयामत्यंशसमः पादोच्छ्रायः सकुप्यशिरा॥३॥"इत्यादिक विज्ञानं, अथवा शयनं-स्वमं तद्विषयको विधिस्तं, यथा पूर्वस्यां शिरः कुर्या'दित्यादिकं विधि २० आया-सप्तचतुःकलगणादिव्यवस्थानिबद्धां मात्राच्छन्दोरूपां २१ प्रहेलिका-गूढाशयपद्यं २२ मागधिकां-छन्दोविशेष, तल्लक्षणं चेदं-विसमेसु दुन्नि । टगणा समेसु पो टो तओ दुसुवि जत्थ। लहुओ कगणो लहुओ कगणोतं मुणह मागहि ॥शा ति२२ [द्वित्रिचतुःपञ्चषड्मा|त्रिका गणाः कचटतपसंज्ञाः ] गाथा-संस्कृतेतरभाषानिवद्धामार्यामेव २४ गीतिका पूर्वार्द्धसदृशाऽपरार्द्धलक्षणामार्यामेव || २५ श्लोक-अनुष्टुविशेष २६ हिरण्ययुकिं' हिरण्यस्थ-रूप्यस्य युकिं-यथोचितस्थाने योजनं २७ एवं सुवर्णयुक्ति २८
चूर्णयुक्ति-कोष्ठादिसुरभिद्रव्येषु चूणींकृतेषु तत्तदुचितद्रव्यमेलनं २१ आभरणविधि व्यक्तं ३० तरुणीपरिकर्म-युवतीनामङ्गसक्रियां वर्णादिवृद्धिरूपां ३१ स्त्रीलक्षणपुरुषलक्षणे सामुद्रिकप्रसिद्धे ३२-३३, हयलक्षणं-'दीर्घग्रीवाक्षिकूट'-18 | इत्यादिकमवलक्षणविज्ञानं ३४ गजलक्षणं पञ्चोन्नतिः सप्त मृगस्य दैर्घ्यमष्टौ च हस्ताः परिणाहमानम् । एकद्विवृद्धावथ | मन्दभद्रौ, सङ्कीर्णनागोऽनियतप्रमाणः ॥१॥” इत्यादिकं ज्ञानं ५५ 'गोणलक्षणं ति गोजातीयलक्षणं 'सामाबिलरूक्षाक्ष्यो मूषिकनयनाश्च न शुभदा गावः' इत्यादिकं ३६ कुर्कुटलक्षणं-'कुर्कुटजतनुरुहाङ्गुलिस्ताम्रवननखचूलिकः सितः'
दीप
अनुक्रम [४३]
~ 278~
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू-
१
प्रत सूत्रांक
या वृत्तिः
दीप अनुक्रम [४३]
॥॥ इत्यादिक ३७ छत्रलक्षणं यथा चक्रिणां छबरलस्य ३८ दण्डलक्षणं-यष्ट्यातपत्राऋशवेत्रचापवितानकुन्तध्वजचामरा-TRI २वक्षस्कार
णाम् । व्यापीत १ तत्री २ मधु ३ कृष्ण ४ वर्णा, वर्णक्रमेणैव हिताय दण्डाः॥१॥ मन्त्रि १५२ धन ३ कुल कलादि *. न्तिचन्द्री
पभदीक्षाच यावहा रोग ५ मृत्यु ६ जननाश्च पर्वभिः । ब्यादिभिर्द्विकविवर्द्धितैः क्रमाद्, द्वादशान्तविरतैःसमैः फलम् ॥२॥
यात्राप्रसिद्धिः १ द्विपा विनाशो २, लाभाः ३ प्रभूता वसुधाऽऽगमश्च ४ । वृद्धिः ५ पशूनामभिवान्छिताप्ति ६-RI ॥१३॥ ख्यादिष्वयुग्मेषु तदीश्वराणाम् ॥ ३॥" इत्यादि ३९ असिलक्षणं 'अङ्गलशतार्द्धमुत्तम ऊनः स्यात्पञ्चविंशति खगः।।
अंगुलमानाद्-ज्ञेयो व्रणोऽशुभो विषमपर्वस्थः ॥ १॥ अत्र व्याख्या-अङ्गलशतार्द्धमुत्तमः खड्गः पञ्चविंशत्यङ्गलानि ऊनः, अनयोः प्रमाणयोर्मध्यस्थितः पञ्चाशदङ्गलादनः पञ्चविंशतेरधिको मध्यमः, अङ्गलमानाद्-अङ्गलप्रमाणाद् | यो व्रणो विषमपर्वस्थ:-विषमपर्चाङ्गुले स्थितः प्रथमतृतीयपश्चमसप्तमादिष्वङ्गलेषु स्थितः सः अशुभः, अर्था|देव समाङ्गलेषु द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमादिषु यः स्थितः स शुभः, मिश्रेषु समविषमाङ्गुलेषु मध्यम इत्यादि ४०, मणिलक्षणं रत्नपरीक्षाग्रन्थोक्तकाकपदमक्षिकापदकेशराहित्यसशर्करतास्वस्ववर्णोचितफलदायित्वादिमणिगुणदोषविज्ञानं ४१ काक-18 णी-चक्रिणो रत्नविशेषस्तस्य लक्षणं-विषहरणमानोन्मानादियोगप्रवकत्वादि ४१ वास्तुनो-गृहभूमेर्विद्या वास्तुशा-18 ॥१३८॥ खप्रसिद्ध गुणदोषविज्ञानं ४२ स्कन्धावारस्य मान-"एकेभैकरथाख्यश्वाः, पत्तिः पञ्चपदातिका'। सेना सेनामुखं || गुल्मो, वाहिनी पृतना चमूः॥१॥ अनीकिनी च पत्तेः स्यादिभायैत्रिगुणैः क्रमात् । दशाकिन्योऽक्षौहिणी'त्यादि ।
eeeeeeee
Jimilar
~ 279~
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम
[४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
जम्बू. २४
४४ नगरमानं द्वादशयोजनायामनवयोजनव्यासादिपरिज्ञानं उपलक्षणाच्च कलशादिनिरीक्षणपूर्वकसूत्रन्यासयथास्था|नवर्णादिव्यवस्थापरिज्ञानं ४५ चारो - ज्योतिश्वारस्तद्विज्ञानं ४६ प्रतिचारः - प्रतिकूलचारो ग्रहाणां वक्रगमनादिस्तत्परिज्ञानं अथवा प्रतिचरणं प्रतिचारो- रोगिणः प्रतीकारकरणं तद्ज्ञानं ४७ व्यूहं युयुत्सूनां सैन्यरचनां यथा चक्रव्यूहे चक्राकृतौ तुम्बारकप्रध्यादिषु राजन्यकस्थापनेति ४८, प्रतिष्यूहं तत्प्रतिद्वन्द्विनां तद्भङ्गोपायप्रवृत्तानां व्यूहं ४९ सामान्यतो व्यूहान्तर्गतत्वेऽपि प्रधानत्वेन त्रीन् व्यूहविशेषानाह-चक्रव्यूहं चक्राकृतिसैन्यरचनामित्यर्थः ५०, | गरुडव्यूहं गरुडाकृति सैन्यरचनामित्यर्थः ५१ एवं शकटव्यूहं ५२ युद्धं कुर्कुटानामिव मुण्डामुण्डि शृङ्गिणामिव शृङ्गाटङ्गि युयुत्सया योधयोर्वल्गनं ५३ नियुद्धं मल्लयुद्धं ५४, युद्धातियुद्धं खङ्गादिप्रक्षेपपूर्वकं महायुद्धं यत्र प्रतिद्वन्द्वहतानां पुरुषाणां पातः स्यात् ५५ दृष्टियुद्धं - बोधप्रतियोधयोश्चक्षुषोर्निर्निमेषावस्थानं ५६ मुष्टियुद्धं योधयोः' परस्परं मुया हननं ५७ बाहुयुद्धं योधप्रतियोधयोः अन्योऽन्यं प्रसारितबाहोरेव निनंसया वल्गनं ५८ लतायुद्धं | योधयोः यथा लता वृक्षमारोहन्ती आमूलमाशिरस्तं वेवेष्टि तथा यत्र योधः प्रतियोधश (री) रं गाढं निपीड्य भूमौ पतति तलतायुद्धं ५९ 'इसत्थं'ति प्राकृतशैल्या इषुशास्त्रं नागबाणादिदिव्यास्त्रादि सूचकं शास्त्रं ६० 'छरुप्पवायंति त्सरुः खड्गमुष्टिस्तदवयवयोगात् त्सरुशब्देनात्र खड्ग उच्यते, अवयवे समुदायोपचारः तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत्सरुप्रवाद, खड्गशिक्षाशास्त्रमित्यर्थः, प्रश्नव्याकरणे तु त्सरुमगतमिति पाठः ६१, धनुर्वेदं - धनुः शास्त्रं ६२, हिरण्यपा
Fur Fate &PO
~ 280 ~
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप
श्रीजम्बू-18|| कसुवर्णपाको-रजतसिद्धिकनकसिद्धी ६३, ६४, 'मुत्तखेड'ति. सूत्रखेल-सूत्रक्रीडा, अत्र खेलशब्दस्य सह इत्यादेशः
२वक्षस्कारे द्वीपशा-1|| ६५, एवं वखखेड्डमपि ६६, एतत्कलाद्वयं लोकतः प्रत्येतव्यं, 'नालिआखेडंति नालिकाखेलं द्यूतविशेष मा भूदिष्ट
पुरुषकला न्तिचन्द्री
IN दायविपरीतपाशकनिपातनमिति नालिकया यत्र पाशकः पात्यते, द्यूतग्रहणे सत्यपि अभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिका- खीगुणाः या चिः
1 खेलं, अप्राधान्यज्ञापनार्थ भेदेन ग्रहः ६७, पत्रच्छेद्यं अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षितसङ्ख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवं ॥१३९॥ ||५८, कटच्छेद्यं कर्टवत् क्रमच्छेद्य वस्तु यत्र विज्ञाने तत्तथा, इदं च व्यूतपटोद्वेष्टनादौ भोजनक्रियादौ चोपयोगि ५९.
'सजीवंति सज्जीवकरणं मृतधात्वादीनां सहजस्वरूपापादनं ७०, 'निज्जीव'ति निर्जीवकरणं हेमादिधातुमारणं, || रसेन्द्धस्य मर्काप्रापणं वा ७१, शकुनरुतं, अत्र शकुनपदं रुतपदं चोपलक्षणं, तेन वसन्तराजायुक्तसर्वशकुनसंग्रहः ।।
गतिचेष्टादिग्बलादिपरिग्रहश्च ७२, इति द्वासप्ततिः पुरुषकलाः । चतुःषष्टिः खीकलाश्चमा:-नृत्य १औचित्य २ चित्र-1 ||३ वादिन ४ मन्त्र ५ तन्त्र ज्ञान ७ विज्ञान ८ दम्भ ९ जलस्तम्भ १० गीतमान ११ तालमान १२-18 RR मेघवृष्टि ११ फलाकृष्टि १४ आरामरोपण १५ आकारगोपन १६ धर्मविचार १७ शकुनसार १८ क्रियाकल्प
१९ संस्कृतजल्प २० प्रासादनीति २१ धर्मरीति २२ वर्णिकावृद्धि २३ स्वर्णसिद्धिः २४ सुरभितैलकरण २५-1 ॥१३९।।
लीलासंचरण २६ हयगजपरीक्षण २७ पुरुषस्त्रीलक्षण २८ हेमरसभेद २९ अष्टादशलिपिपरिच्छेद ३० तत्कालहै बुद्धि ११ वास्तुसिद्धि १२ कामविक्रिया ३३ वैद्यकक्रिया ३४ कुम्भभ्रम ३५ सारिश्रम ३६ अञ्जनयोग ३७
अनुक्रम [४३]
~281~
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम [४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jon Elbeit
| चूर्णयोग ३८ हस्तलाघव ३९ वचनपाटव ४० भोज्यविधि ४१ वाणिज्यविधि ४१ मुखमण्डन ४२ शालिखण्डन४४ कथाकथन ४५ पुष्पग्रन्थन ४६ वक्रोक्ति ४७ काव्यशक्ति ४८ स्फारविधिवेष ४९ सर्वभाषाविशेष ५०अभिधानज्ञान ५१ भूषणपरिधान ५२ भृत्योपचार ५३ गृहाचार ५४ व्याकरण ५५ परनिराकरण ५६ रन्धन५७ केशवन्धन ५८ वीणानाद ५९ वितण्डावाद ६० अङ्कविचार ६१ लोकव्यवहार ६२ अन्त्याक्षरिका ६३प्रश्नप्रहेलिका ६४ इति, अत्रोपलक्षणादुक्तातिरिक्ताः स्त्रीपुरुषकला ग्रन्थान्तरे लोके च प्रसिद्धा ज्ञेयाः, अत्र च यत्पुरुबकलासु स्त्रीकलानां स्त्रीकलासु च पुरुषकलानां साङ्कर्यं तदुभयोपयोगित्वात् ननु तर्हि' 'चोसट्टि महिलागुणे | इति ग्रन्थविरोधः, उच्यते, न ह्ययं ग्रन्थः स्त्रीमात्रगुणख्यापनपरः, किन्तु स्त्रीस्वरूपप्रतिपादकः, तेन क्वचित्पुरुषगुणत्वेऽपि न विरोधः, कलाद्वयस्योक्तसङ्ख्याकत्वं तु प्रायो बहूपयोगित्वात् इत्य ं विस्तरेण । शिल्पशतं चेदम् कुम्भकु| लोहकृञ्चित्रकृत्तन्तुवायनापितलक्षणानि पञ्च मूलशिल्पानि तानि च प्रत्येकं विंशतिभेदानीति, तथा चार्षम् - "पंचैव य | सिप्पाई घड छोह चित्तणंतकासवए । इकिकरस य इत्तो वीसं २ भवे भेआ ॥ १ ॥ इति । नन्वत्रैतेषां पञ्चमू| लशिल्पानां उत्पत्तौ किं निमित्तमिति १, उच्यते, युग्मिनामामौषध्याहारे मन्दाग्नितयाऽपच्यमाने हुतभुजि प्रक्षिप्यमाने तु समकालमेव दह्यमाने युगलिनरैर्विज्ञतेन हस्तिस्कन्धारूढेन भगवता प्रथमं घटशिल्पमुपदर्शितं, क्षत्रियाः शस्त्रपाणय एव दुष्टेभ्यः प्रजां रक्षेयुरिति लोहशिल्पं, चित्राङ्गेषु कल्पद्रुमेषु हीयमानेषु चित्रकृतशिल्पं, वस्त्रकल्पद्रुमेषु
Fur Fraternae Cy
~ 282~
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्री
या प्रतिः
॥१०॥
दीप
हीयमानेषु तन्तुवायशिल्पं, बहुले युग्मिधर्म पूर्वमवर्धिष्णु रोमनव(अथ वार्षिष्णु)मा मनुजास्तुदस्विति नापितशिल्पमिति, वक्षस्कारे श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्रे तु गृहादिनिमित्तवर्द्धक्ययस्कारयुग्मरूपं द्वितीयं शिल्पमुक्त, शेषं तथैवेति, ननु भोग्यस-कलादिदकर्माण एवार्हन्तो भगवन्तः समुत्पन्नव्याधिमतीकारकल्प ख्यादिपरिग्रहं कुर्वते नेतरे ततः किमसौ निरषद्यैकरुचिर्भ-8 र्शनसाई गवान् सावधानुबन्धिनि कलाद्युपदर्शने प्रववृते ?, उच्यते, समानुभावतो वृत्तिहीनेषु दीनेषु मनुजेषु दुःस्थतां विभाव्य कता सञ्जातकरुणैकरसत्वात् , समुत्पन्नविवक्षितरसो हि नान्यरससापेक्षो भवति, वीर इव द्विजस्य चीवरदाने, अथैवं तर्हि कथमधिकलिप्सोस्तस्य सति सकले शुके शकलदान, सत्य, भगवतश्चतुर्ज्ञानधरत्वेन तस्य तावन्मात्रस्यैव लाभस्यावधारणेनाधिकयोगस्य क्षेमानिर्वाहकत्वदर्शनात्, कथमन्यथा भगवदंसस्थलनस्ततच्छकलग्रहणेऽपि तदुत्थरिक्वार्द्धषिM भाजकस्तुन्नवायः समजायत?, किश्च-कलाद्युपायेन प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यसनासक्किरपि न स्यात् , नमु | भवतु नामोक्तहेतोर्जगभर्तुः कलाद्युपदर्शकत्वं परं राजधर्मप्रवर्तकत्वं कथमुचितं ?, उच्यते, शिष्टानुग्रहाय दुष्पनिग्रहय धर्मस्थितिसंग्रहाय च, ते च राज्यस्थितिक्रिया सम्यक् प्रवर्त्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमार्गोपदर्शकतया चौर्यादिव्यसननिवर्सनतो नारकातिथेयीनिवारकतया ऐहिकामुष्मिकसुखसाधकतया च प्रशस्ता एवेति, महापुरुष- ॥१०॥ - श्रीऋषमस्व सकललोकव्यवहारप्रवर्तन प्रजानां हितार्यमेव, अत एव जिमपूजादिलक्षणायाः समानाया भपि कियाया जिनभक्तिपरायणानां सम्यग्दशा परिवारमा परिकाजककामिन्माचर्षिनामहिकफपत्तिसाम्येपि कारविरुवम् प्रवचने प्रक्रीम। (इति ही वृत्ती)
अनुक्रम
[४३]
~283~
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
प्रवृत्तिरफि सर्वत्र परार्थत्वव्याप्ता बहुगुणाल्पदोषकार्यकारणविचारणापूर्विकैवेति, युगादौ जगद्व्यवस्था प्रथमेनैव पार्थिIS वेन विधेयेति जीतमपीति, स्थानागपञ्चमाध्ययनेऽपि-धम्म णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पण्णत्ता, तंजहा-छकाया
गणो २ राया ३ गाहावई ४ सरीर ५' मित्याघालापकवृत्तौ राज्ञो निनामाश्रित्य राजा-नरपतिस्तस्य धर्मसहा-18 18| यकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणादित्युक्तमस्तीति परमकरुणापरीतचेतसः परमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रययुतस्य भगवतो राज
धर्मप्रवर्तकत्वे न काप्यनौचिती चेतसि चिन्तनीया, युक्त्युपपन्नत्वात्, तद्विस्तरस्तु जिनभवनपंचाशकसूत्रवृत्त्योर्यतनाद्वारे व्यक्त्या दर्शितोऽस्तीति तप्त एवावसेयो, ग्रन्थगौरवभयादत्र न लिख्यते इति, एतेन 'राज्यं हि नरकान्तं स्याद् ॥
यदि राजा न धार्मिकः' इत्युक्तिरपि दृढबद्धमूला न कम्पत इति, किञ्च-अत्र तृतीयारकमान्ते राज्यस्थित्युत्पादे धर्मर स्थित्युत्पादः पश्चमारकमान्ते च 'सुअसूरिसंघधम्मो पुषण्हे छिजिही अगणि सायं । नियविमलचाहणे सुहुममंतिनयधम्म मझण्हे ॥१॥[ श्रुतसूरिसंघधर्माः पूर्वाण्हे छेत्स्यन्ति सायमग्निः। नृपो विमलवाहनः सूक्ष्मो मन्त्री नयधर्मश्च मध्यान्हे ॥१४] इति वचनात् धर्मास्थितिविच्छेदे राज्यस्थिसिविच्छेद इत्यपि राज्यस्थितेधर्मस्थितिहेतुत्वाभिव्यञ्जकत्वमेवेति सर्व सुस्थमित्यलं विस्तरेणेति । तदनु भगवान् किं चक्रे इत्याह-'उबदिसित्ता पुत्तसय'मित्यादि, उपदिश्य कलादिकं पुत्रशतं-- भरतपाहुबलिप्रमुख कोसलातक्षशिलादिराग्यशते अभिषिञ्चति-स्थापयति, अत्र शक्कादिप्रधानावसानानि भरताष्टनवतिधातूनामानि अन्तर्वाच्यादिषु सुप्रसिद्धानीति च लिखिताचि, देशनामानि तु चढून्यप्रतीतानीति । अथ भगवतो दीक्षा.
Escreerseeeeeescatta
दीप
अनुक्रम [४३]
Simillenniti
~284 ~
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मू
प्रत सूत्रांक
द्वीपशान्तिचन्द्रीया प्रति ॥१४१॥
20000000
दीक्षा
दीप
कल्याणकमाह-'अभिसिंचित्ता'इत्यादि, अभिषिच्य व्यशीतिं पूर्वलक्षाणि महान् रागो-लौल्यं यत्र स चासौ वासश्च । | महारागवासो-गृहवासस्तन्मध्ये वसति गृहिपर्याये तिष्ठतीत्यर्थः, यद्यपि प्रागुतव्याधिप्रतीकारन्यायेनैव तीर्थकृतां गृहवासे 8 श्रीऋषम| प्रवन तथापि सामान्यतः स यथोक्त एवेति न दोषः, यद्वा महान् अराग:-अलौल्यं यत्र स चासी वासश्चेति योजनीयं, यतो भगवदपेक्षया स एवंविध एवेति, एतेन 'तेवहिँ पुचसयसहस्साई महारायवासमझे वसईत्ति पूर्वग्रन्थविरोधो| नेति, उषित्वा जे से'त्ति यः सः 'गिम्हाण'ति आर्षे ग्रीष्मशब्दः स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च ततो ग्रीष्मस्येत्यर्थः, प्रथमो | मासः, यथा ग्रीष्माणां-अवयवे समुदायोपचाराद् ग्रीष्मकालमासानां मध्ये प्रथमो मासः प्रथमः पक्षश्चैत्रबहला-चै-18 बान्धकारपक्षस्तस्य नवम्यास्तिथेः पक्षो-ग्रहो यस्य, तिथिमेलपातादिषु तथा दर्शनात् , तिथिपाते तत्कृत्यस्याष्टम्यामेव क्रियमाणत्वात् , स नवमीपक्षः-अष्टमीदिवसस्तत्र, अनेन व्याख्यानेन 'चित्तबहुल?मीए' इत्याद्यागमविरोधो न, वाचनान्तरेण वा नवमीपक्षो-नवमीदिवसः दिवसस्याष्टमीदिवसस्य मध्यंदिनादुत्तरकाले यद्यपि दिवसशब्दस्याहोरात्रवाच-10 कत्वमन्यत्र प्रसिद्ध तथाऽप्यत्र प्रस्तावादिवसो गतो रजनिरजनि इत्यादिवत् सूर्यचारविशिष्टकालविशेषग्रहणं, अन्यथा|
सीईपुग्वे'यादि, यशीतिपूर्वशतसमामि महाराजनासमध्ये महाराजतया यो वासस्वस मध्ये तवंतरित्यर्थः वसति, न चैवं 'उसमे गं भरदा कोसलिए । 'चीसं पुनसयसहस्साई कुमारवासमझे बसहरसा तेवहि पुनसयसहस्साई महारायबासमझे बसइति भवानंतरोफसूत्रेण सह विरोधः शंकनीयः, यतो वा ॥१४॥
'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यामात् राज्याईकुमारराजवत् कुमारावस्थाऽपि महाराजावस्यैवेति विवक्षया सर्वापि गृहस्थावस्था महाराजावस्मैव भगिता । १ (इति ही वृत्तौ)
अनुक्रम
[४३]
~285~
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
MR दिवसपाश्चात्यभागस्यानुपपत्ते, त्यक्त्वा हिरण्यं-अघटितं सुवर्ण रजतं वा सुवर्ण-घटितं हेम हेम वा कोश-भाण्डा-18 || गार कोष्ठागारं-धान्यानयगृह, बलं-चतुरङ्ग वाहन-वेसरादि पुरान्तःपुरे व्यक्त विपुलं धनं-गवादि कनक च-सुवर्ण |
(रमन्ते रऽयन्ते ग्राहका) येभ्यः सल्लक्षणेभ्यस्तानि रत्नानि मणयश्च प्राग्वत्, मौक्तिकानि-शुक्त्याकाशादिप्रभवानि, शङ्खाश्च-दक्षिणावर्ताः ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, शिला-राजपट्टादिरूपाः, प्रवालानि-विद्रुमाणि रतरत्नानि-पद्मरागाः, पृथग्रहणमेषां प्राधान्यख्यापनार्थ, उक्तस्वरूपं यत्सत्सारं-सारातिसारं स्वापतेयं-द्रव्यं तत् त्यक्त्वा-ममत्वत्यागेन विच्छद्य-पुनर्ममत्वाकरणेन, कुतो ममत्वत्याग इत्याह-विगोप्य जुगुप्सनीयमेतत् अस्थिरत्वादिति कथनेन, (निश्रा त्याज-18 यित्वा) कथं च निश्रात्याजनमित्याह-दायिकानां' गोत्रिकाणां 'दायं' धनविभाग 'परिभाज्य' विभागशो दत्त्वा, तदा च नि थपान्थादियाचकानामभावाद् गोत्रिकग्रहणं, तेऽपि च भगवत्प्रेरिता निर्ममास्सन्तः शेषामात्रं जगृहुः,
दीप
अनुक्रम [४३]
3000395090992906
T १ बगोत्रिकाणां दानं तच्छेषामात्रमेव, न पुनर्याचना, यत्तु यथेप्सितं याचमानानां दानं तद्याचकानामेव नान्येषां, ननुतीर्थकता पुरस्तावाचने कि बाप-18 कमिति चेत्, उच्यते, भिक्षा तावत्रिधा-सर्वसंपत्करी आजीविका २ पौषनी ३ चेति, तत्राचा साधूनामेव, द्वितीया यात्रा विना अनिवाहकाणां निर्द्धनानां पंवादीना, तृतीया तयतिरिकाना, वेन याला बिना निर्वाहकरणसमर्थानां गृहस्थानां महापुरुषेभ्योऽपि याचनमनुचितमेर, अत एव श्रीमहावीरदानाधिकार-18 सूत्रे दानं दावारेहि ति पदमधिकं याचकमहणार्थ, तेन याचकानां यघेप्सिततयोचितदानं, इतरेषां तु कुलादिकमायातं वर्षांपनिकाप्राहेणकशेषादिकल्पमवसातन्य, न पुनः सकललोकसाधारण, प्राहका नाममहणे इभ्यादीनामनुकत्वात् , तथा हि-तए थे भगवं कशाकर्शि गाव मागहो पायरासोत्ति, बहूर्ण सणाहाण |य अणाहाण व पंधिाण य पहिाण य कोरडिआण व कप्पढिाण य जाय एगा हिरणकोडि' इलादि श्रीआवश्यकचूो। (इति ही पत्ती)
2999900099990S
~ 286~
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप
श्रीजम्बू
- इदमेव हि जगद्गुरोजीतं यदिच्छावधि दानं दीयते, तेषां च इयतैव इच्छापूर्तिः, ननु यदीच्छावधिकं प्रभोर्दानं 18 वक्षस्कारे डीपशा-18 तहि ऐदंयुगीनो जन एकविनदेयं संवत्सरदेयं वा एक एव जिघुक्षेत्, इच्छाया अपरिमितत्वात्, सत्यं, प्रभु
प्रभावनताहशेच्छाया असम्भवात् , सुदर्शनानाम्न्यां शिविकायामारूढमिति गम्यं, किंविशिष्टं भगवन्तं :-'सदेव-18 दावा या चिः
II मनुजासुरया'स्वर्गभूपातालबासिजनसहितया 'पर्षदा' समुदायेन समनुगम्यमानं, ईदृशं च प्रभु अग्रे-अग्रभागे शांखि॥१४॥ ॥ कादयोऽभिनन्दयम्तोऽभिष्टुवतश्च एवं-वक्ष्यमाणमवादिपुरित्यन्वयः, तत्र शांखिका:-चन्दनगर्भशहस्ता माङ्गल्य
कारिणः शङ्खध्मा बा, चाकिका:-चक्रमामकाः, लाङ्गलिका-लकावलम्बितसुवर्णादिमघहलधारिणो भट्टविशेषाः मुखमलिकाः-चाटुकारिणः पुष्पमाणवा-मागधाः वर्द्धमानका:-स्कन्धारोपितनराः आख्यायकाः-शुभाशुभकथकाः लंखावंशानखेलकाः मसा:-चित्रफलकहस्ताः भिक्षाका-गौरीपुत्रा इति रूढा घाण्टिका:-घण्टावादकास्तेषां मणाः, सूत्रे च । IS अपत्यात प्रथमार्थे तृतीया, यथाश्रुतव्याख्याने च शातिकादिगणैः परिवृतमिति पदं कुलमहत्तरा इति पदं चान्य-15 IS ययोजनार्थमध्याहार्य स्थात्, साध्याहारव्याख्यातोऽनध्याहारव्याख्यायां लाघवमिति, पञ्चमाझे जमालिचरित्रे ॥ निष्क्रमणमहवर्णने शालिकादीनां प्रथमान्ततया निर्देश एतस्यैवाशयस्य सूचका, यदि च 'प्रायः सूत्राणि सोपस्काराणि |
॥१४॥ IS| भवन्तीति न्यायोऽनुन्नियते तदा साध्याहारव्याख्यानेऽप्यदोषः, तामिा-विवक्षिताभिरित्यर्थः वाग्भिरभिनन्दयन्त-II
वाभिवन्तति योजना, विवक्षितत्वमेवाह-इष्यन्ते स्मेतीष्टास्तामिः, प्रयोजनक्शादिष्टमपि किश्चित्स्वरूपतः ||
अनुक्रम
[४३]
RE
~ 287~
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
कारतं मादकाम्तं चेत्यत आह-कान्ताभिः' कमनीयशब्दाभिः 'प्रियाभिः प्रियार्थाभिः' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दर| तया यास्ता मनोज्ञा भावतः सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः मनसा अम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनः या सुन्दरत्वातिशयाता| | मनोऽमास्वाभिः उदाराभिः-शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्याणाभिः' कल्याणाप्तिसूचकाभिः "शिवामिः' निरुपद्वाभिः शब्दार्थदूपणोज्झिताभिरित्यर्थः 'धन्याभिः' धनलम्भिकाभिः 'माल्याभिः' मङ्गले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः सश्रीकाभि:अनुप्रासाद्यलङ्कारोषेतत्वात् सशोभाभिः 'हृदयगमनीयाभिः' अर्थप्राकव्यचातुरीसचिवत्वात् सुबोधाभिः, 'हृदयप्रल्हादनीयाभिः' हृदयगतकोपशोकाविग्रन्धिविद्रावणीभिः, उभयत्र कर्त्तर्यनट् प्रत्ययः, कर्णमनोनिवृतिकरीभिः अपुनरुक्ताभिरिति च स्पष्टं, अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः अथवा अर्थानां-इष्टकार्याणां शतानि याभ्यस्ता अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः, स्वार्थ इकप्रत्ययः, अनवरतं-विधामाभावात् 'अभिनन्दयन्तश्च' जय जीवेत्यादिभणनतः समृद्धिमन्तं भगवन्तमाचक्षाणाः अभिष्टुवन्तश्च भगवन्तमेवेति, किमवादिषुरित्याह-'जय जयेति भक्तिसम्भ्रमे द्विवे-10 चनं, नन्दति-समृद्धो भवतीति नन्दः तस्यामन्त्रणमिदं, इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , अथवा जय त्वं जगन्नन्द !-18
जगत्समृद्धिकर। जय जय भद्र प्राग्वत् , नवरं भद्रः-कल्याणवान् कल्याणकारी वा, कथमाशासते स्म इत्याह18 धर्मेण-करणभूतेन न त्वभिमानलज्जादिना अभीतो भवपरीसहोपसर्गेभ्यः, प्राकृतत्वात् पश्चम्यर्थे षष्ठी, परीपहोप-18 ॥४॥सर्गाणां जेता भवेत्यर्थः, तथा क्षान्त्या न त्वसामर्थ्यादिना क्षम-सोढा भव, 'भयं' आकस्मिकं 'भैरव' सिंहादिसमुत्थं
aeseseseeeeese
दीप
अनुक्रम [४३]
~288~
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा
न्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्मू-18 तयोः, प्राकृतत्वात्पदव्यत्यये भैरवभयानां वा-भयङ्करभयानां क्षान्ता भव इत्यर्थः, नानावक्तृणां नानाविधवाग्भङ्गीति न | वक्षस्कार
पूर्वविशेषणान्तःपातेन पौनरुक्त्य, धर्म-प्रस्तुते चारित्रधर्मे अविन-विघ्नाभावस्ते-तव भवतु इतिकृत्वा धातूनामनेकार्थ-18 श्रीपम18 त्वादुच्चार्य पुनः पुनरभिनन्दयन्ति चाभिष्टुवन्ति चेति, अथ येन प्रकारेण निर्गच्छति तमेवाह-'तए ण'मित्यादि, दीक्षा या वृतिः
18'ततः' तदनन्तरं ऋषभोऽर्हन् कौशलिको नयनमालासहस्रः श्रेणिस्थितभगवदिक्षामात्रया व्यापृतनागरनेत्रवृन्दैः ॥१४३॥ प्रेक्ष्यमाणः २-पुनः पुनरवलोक्यमानः, आभीक्ष्ण्ये द्विवचनं सर्व, एवं सर्वत्र तावद्वक्तव्यं यावन्निर्गच्छति-'यथोपपातिके'
एवं यथा प्रथमोपाढ़े चम्पातो भंभासारसुतस्य निर्गम उक्तस्तथाऽत्र वाच्यो, वाचनान्तरेण यावदाकुलबोलबहुलं नभः | कुर्वन्निति पर्यन्ते इति, तत्र च यो विशेषस्तमाह-विनीता राजधान्या मध्यंमध्येन-मध्यभागेन इत्यर्थः निर्गच्छति, 'सुखं सुखेने त्यादिवन्मयंमध्येनेति निपातः, औपपातिकगमश्चायं-हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिजमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २ वयणमालासहस्सेहिं अभिथुषमाणे २ कतिरूवसोहग्गगुणेहिं पस्थिज्जमाणे २ अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २ दाहिणहत्थेणं बहूर्ण करणारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे २ मंजुम
जुणा घोसेणं पडिबुज्झेमाणे २ भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे २ तंतीतालतुडिअगीअवाइअरवेणं महुरेण य ISM मणहरेण जयसहुग्घोसविसरणं मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुझेमाणे २ कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासाउद्धघणभवण-||
| देवकुलसिंघाडगतिगचउकचञ्चरआरामुजाणकाणणसहापयापएसदेसभागे पडिसुआसयसंकुलं करते हयदेसिअहत्थिगु-18
eeeeee
दीप
अनुक्रम [४३]
~289~
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
लगुलाइअरहपणघणाइयसद्दमीसिएणं महया कलकलरवेणं जणस्स महुरेण पूरयंतो सुगंधवरकुसुमनुण्णउविद्धवासरेणुकविलं नभं करेंते, कालागुरुकुंदुरुक्कतुरुकधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते समंतओ खुभिअचक्वालं पउरजण
बालवुद्धपमुइअतुरिअपहाविअविउल'न्ति, आउलपदमारभ्य निर्गच्छति पदपर्यन्तं तु सूत्रे साक्षादेवास्ति, अत्र व्याख्याIS हृदयमालासहस्र:-जनमनःसमूहरभिनन्धमानः२-समृद्धिमुपनीयमानो २ जय जीव नन्देत्याधाशीमेन, मनोरथ
मालासहस्रैः-एतस्यैवाज्ञापरा भवाम इत्यादिजनविकल्पैविशेषेण स्पृश्यमानः २ इत्यर्थः वदनमालासहस्रर्वचनमाला-18 S| सहर्वा अभिष्ट्रयमानं २ कान्त्यादिगुणैर्हेतुभिः प्रार्यमानो २ भर्तृतया स्वामितया वा स्त्रीपुरुषजनैरभिलष्यमाणः २ IS अंगुलिमालासहस्रैर्दयमानः २ दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणां अञ्जलिमाला:-संयुतकरमुद्राविशेषवृन्दानि प्रती
च्छन् र-गृहन् २, किमुक्तं भवति ?-त्रैलोक्यनाघेनापि प्रभुणा पौराणामस्माकमजलिरूपा भक्तिर्मनस्यवतारितेति | | दक्षिणहस्तदर्शनं तथा महाप्रमोदाय भवतीति कुर्वन् , मञ्जमञ्जना-अतिकोमलेन घोपेण-स्वरेण प्रतिपृच्छन् २-प्रश्नयन् २ प्रणमतां स्वरूपादिवार्ताः, भवनानां-विनीतानगरीगृहाणां पतया-समश्रेणिस्थित्या सहस्राणि न तु पुष्पावकीर्णस्थित्या, समतिक्रामन् २, तन्त्रीतलतालाः प्रसिद्धाः, त्रुटितानि-शेषवाद्यानि तेषां वादितं-वादनं, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः गीतं च तयो रवेण यद्वा तत्र्यादीनां त्रुटितान्तानां गीते-गीतमध्ये यद्वादितं-वादनं तेन यो रवः-शब्दस्तेन मधुरेण-मनोहरेण तथा जयशब्दस्य उद्घोषः-उद्घोषणं विशदः-स्पष्टतया प्रतिभासमानं यत्र तेन म मञ्जुना घोषेण
seeeeeeeeeee
दीप
अनुक्रम [४३]
~290~
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [४३]
श्रीजम्य- पोरजबरवेण च प्रतिगुयमानः २-सावधानीभवन २ कन्दराणि-दर्यः गिरीणां 'विवरकुहराणि' गुहाः पर्वतान्त- वक्षस्कारे राणि च गिरिवरा:-प्रधानपर्वताः प्रासादा:-सप्तभूमिकादयः ऊर्ध्वघनभवनानि-उच्चाधिरलगेहानि देवकुलानि-प्रती-
Iश्रीशपमतिचन्द्री
| तानि शृङ्गाटक-त्रिकोणस्थानं त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्टयं चत्वरं-बहुमार्गा आरामा:-पुष्पया वृत्तिः18
जातिप्रधानवनखण्डाः उद्यानानि-पुष्पादिमढुक्षयुक्तानि काननानि-नगरासन्नानि सभा-आस्थायिकाः प्रपा-जलदान॥१४॥ स्थानं एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्तान, तत्र प्रदेशा-लघुतरा भागा देशास्तु लघवः प्रतिश्रुतः-प्रतिशब्दास्तेषां |
शतसहस्राणि-लक्षास्तैः सङ्कलान् कुर्वन्, अत्र बहुवचनार्थे एकवचनं प्राकृतत्वात् , हयानां हेषितेन-हेषारवरूपेण हस्तिनां गुलगुलायितरूपेण, रथाना घनघनायितेन-घणघणायितरूपेण शब्देन मिश्रितेन जनस्य महता कलकलरवेण आनन्दशब्दत्वान्मधुरेण-अरेण पूरयन् २, अत्र नभ इति उत्तरग्रन्थवर्तिना पदेन योगः, सुगन्धानां वरकुसुमानां चूर्णानां च उद्वेधः-उर्ध्वगतो वासरेणुः-वासक रजस्तेन कपिलं नभः कुर्वन् कालागुरु:-कृष्णागुरुः कुंदुरुक:-चीडाभिधं द्रव्यं तुरुष्कं-सिल्हकं धूपश्च-दशाङ्गादिर्गन्धद्रव्यसंयोगजः एषां निवहेन जीवलोकं वासयन्निव, अत्रोत्प्रेक्षा तु जीवलोक-15 | वासनस्यावास्तवत्वेन, सर्वतः क्षुभितानि-साश्चर्यतया ससम्ध्रमाणि चक्रवालानि-जनमण्डलानि यत्र निर्गमे तद्यथा ॥१४४॥ K भवतीत्येवं निर्गच्छतीति, प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बालवृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च-शीघं गच्छन्त
स्नेषां व्याकुलाकुलाना-अतिव्याकुलानां यो बोल:-शब्दः स बहुलो यत्र तचथा, एवंभूतं नमः कुर्वन् , विशेषणानां |
eroesee eesea
jimmitrinyory
~291~
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्यस्ततया निपातः प्राकृतत्वादिति, निर्गत्य च यत्रागच्छति तदाह-आसि'इत्यादि, आसिक्त-ईषत् सिक्तं गन्धो- 1 दकादिना प्रमार्जितं कचवरशोधनेन सितं-तेनैव विशेषतोऽत एव शुचिक-पवित्रं पुष्पैर्य उपचार:-पूजा तेन कलित-11 युक्तं, इदं च विशेषणं प्रमार्जितासिक्तसिक्तशुचिकमित्येवं दृश्य, प्रमार्जिताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, एवंविधं सिद्धा-1
वनविपुलराजमार्ग कुर्वन, तथा हयगजरथानां 'पहकरे'चि देशीशब्दोऽयं समूहवाची तेन हयादिसेनयेत्यर्थः, तथा पदातीनां चटकरेण वृन्देन च मन्द २-यथा भवति तथा, क्रियाविशेषणं, यथा हयादिसेना पाश्चात्या समेति | | तथा २ बहुतरबहुतमकमित्यर्थः, उद्धतरेणुक-ऊर्षगतरजस्कं कुर्वन् , यत्रैव सिद्धार्थवनमुद्यानं यत्रैवाशोकवरपादपISस्तत्रैवोपागच्छत्तीति । उपागत्य यत्करोति तदाह-उपागत्याशोकवरपादपस्याधः शिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा च 19 शिविकायाः प्रत्यवरोहति, अवतरतीत्यर्थः, प्रत्यवरुह्य च स्वयमेवाभरणालङ्कारान् , तत्राभरणानि-मुकुटानीति (दीनि)
अलङ्कारान्-वस्त्रादीन , सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् , आभरणानि च अलङ्काराश्चेति समाहारद्वन्द्वकरणाद्वा, अब-| मुथति-त्यजति, कुलमहत्सरिकाया हंसलक्षणपटे अवमुच्यं च स्वयमेव चतसृभिः 'अट्ठाहिं ति मुष्टिभिः करणभूता
भिर्खश्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुश्चिकाभिरित्यर्थः, लोचं करोति, अपराङ्गालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोऽलङ्कारादि1 मोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालङ्कारकेशमोचनं, तीर्थकृतां पञ्चमुष्टिलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिक
लोचगोचरः श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्रायभिप्रायोऽयं-'प्रथममेकया मुध्या स्मश्रुकूर्चयोर्लोचे तिसृभिश्च शिरोलोचे
Eatiserserverestecherserstreeses
दीप
अनुक्रम [४३]
श्रीजम्न. २५
~292~
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री
दीक्षा
दीप
श्रीजम्यू-18|कृते एका मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्ती मरकतोपमानमाविधती परम
18| रमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामियमित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापि सा तथैव श्रीऋषभ
|रक्षितेति, 'न होकान्तभक्तानां याच्यामनुग्रहीतारः खण्डयन्ती'ति, अत एवेदानीमपि श्रीऋषभमूत्तौ स्कन्धोपरि बालरिका | या वृत्तिः
|क्रियन्ते इति, लुश्चिताश्च केशाः शक्रेण हंसलक्षणपटे क्षीरोदधौ क्षिप्ता इति, षष्ठेन-भक्तेन उपवासद्वयरूपेण अपानकेन-18 ॥१४५|| चतुर्विधाहारेण 'आषाढाभिरित्यत्र 'ते लुग्वे' (श्रीसिद्ध अ.३ पा.२ सू.१०८) त्यनेन उत्तरपदलोपे उत्तराषाढाभिर्वचन-18
पम्यमाषत्वात् , नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाचन्द्रेणेति गम्यं, उग्राणा-अनेनैव प्रभुणा आरक्षकत्वेन नियुक्ताना भोगाना-18 गुरुत्वेन व्यवहतानांराजन्यानां-बयस्यतया व्यवस्थापितानां क्षत्रियाणां-शेषप्रकृतितया विकल्पितानां चतुर्भिः पुरुषस-18
हौः सार्च, एते च वन्धुभिः सुहृद्भिर्भरतेन च निषिद्धा अपि कृतज्ञत्वेन स्वाम्युपकारं स्मरन्तः स्वामिविरहभीरवो वान्तान I| इव राज्यसुखे विमुखा यत्स्वामिनाऽनुष्ठेयं तदस्माभिरपीति कृतनिश्चयाः स्वामिनमनुगच्छन्ति स्म, एकं देवदूष्यं शक्रेण वामस्कन्धेजीतमित्यर्पित उपादाय, न तु रजोहरणादिकं लिङ्गं कल्यातीतत्वाजिनेन्द्राणां, मुण्डो द्रव्यतः शिरःकूर्चलो
R ॥१४५॥ चनेन भावतः कोपाद्यपासनेन भूत्वा अगाराद्-गृहवासान्निष्कम्येति गम्यं, अनगारितां-अगारी-गृही अर्सयतस्तत्प्र|तिषेधादनगारी-संयतस्तदावस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः प्रवजितः-प्रगतः प्राप्त इतियावत् , अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया-निर्गन्धतया प्रवजितः-प्रवज्यां प्रतिपन्नः । अथ प्रभोश्चीवरचारित्वकालमाह
अनुक्रम [४३]
अथ ऋषभप्रभो: दिक्षायाः पश्चात् वस्त्रधारित्व-कालं एवं श्रामण्यादि वर्ण्यते
~293~
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
दीप अनुक्रम [४४]
ररररररररcer
उसभेणं अरहा कोसलिए संवच्छर साहिलं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए । जप्पभिई प णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पवइए तप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए णिवं बोसट्टकाए चिअत्तदेहे जे केई उक्सग्गा उप्पजंति तं०-दिवा वा जाव पडिलोमा वा अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वेत्तेण वा जाव कसेण वा काए आउट्टेवा अणुलोमा वं देज वा जाव पज्जुवासेज वा ते (उप्पन्न) सके सम्म सहइ जाव अहिआसेइ, तए णं से भगवं समणे जाए ईरिभासमिए जाव पारिद्वावणिआसमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते जाव गुचबंभयारी अकोहे जाव अलोहे संते पसंते उवसंते परिणिब्युड़े छिण्णसोए निरुषलेवे संखमिव' निरंजणे जच्चकणगं व जायस्वे आदरिसपडिभागे इव पागडभावे कुम्मो इव गुत्तिदिए पुक्खरपत्तमिव निरुवलेबे गगणमिव निरालंबणे अणिले इव णिरालए चंदो इव सोमदंसणे सूरो इव तेअंसी विहग इव अपडिवडगामी सागरो इव गंभीरे मंवरो इव अकंपे पुढवीविध सवफासविसहे जीयो विव अप्पडिहयगइति । पत्थि णं तस्स भगवंतस्स फत्यह पडिबंधे, से परिवंधे चउबिहे भवति, संजहा-दघओ खित्तओ कालो भावओ, दवाओ इह खलु माया में पिया मे भाया मे भगिणी मे जाव संगंथसंधुआ मे हिरणं मे सुवणं मे जाव तबगरण मे, अहबा समासो सश्चित्ते वा अचित्ते वा मीसए वा दबजाए सेवं तस्स ण भवद, खित्तओ गामे या णगरे वा अरण्णे वा खेत्ते वा खले वा गेहे वा अंगणे वा एवं तस्स ण भवइ, कालो धोवे वा लवे वा मुहुने वा अहोरचे वा पक्से वा मासे या उकए वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालपढिबंधे एवं तस्स भवइ, भावो कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स ण भवद, से गं भगवं वासावासवर्ज हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए णगरे पंचराइए ववगयहाससोगअरबमयपरित्तासे णिम्ममे जिरहंकारे
PRASReetserCACIOforseetACwREE-
Jistilenition
~ 294 ~
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू-1 द्वीपशा न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१४६॥
वक्षस्कारे 8 श्रीऋषम
प्रभोः श्रामण्यादि .३१
[३१]
RON
दीप अनुक्रम [४४]
लहुभूए अगंथे वासीतच्छणे अदुढे चंदणाणुलेवणे अरते लेटुंमि कंचणमि अ समे इह लोए अपडिबद्धे जीवियमरणे निरवकखे संसारपारगामी कम्मसंगणिग्धायणहाए अब्भुटिए विहरह। तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइकते समाणे पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उजाणसि णिग्गोहवरपायचस्स अहे झाणंतरिआए बदमाणस्स फग्गुणबहुलस्स इकारसीए पुषणहकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासादाणक्वत्तेणं जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं नाणेणं जाव चरित्तेणं अणुत्तरेण तवेणं चलेणं वीरिएणं आलएणं विहारेणं भावणाए खंतीए गुत्तीए मुचीए तुट्ठीए अज्जवेणं महवेणं लापवेणं सुचरिअसोवचिअफलनिवाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिवाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरनाणदसणे समुप्पण्णे जिणे जाए फेवली सवन्न सबदरिसी सणेरइअतिरिअनरामरस्स लोगस्स पजवे जाणइ पासइ, तंजहा-आगई गई ठिई उपवायं भुत्तं कई पडिसेविअं आवीकम्म रहोकम्मं तं तं कालं मणवयकाये जोगे एवमादी जीवाणवि सवभावे अजीवाणवि सबभावे मोक्खमनास्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे एस खलु मोक्खमग्गे मम अण्णेसि च जीवाणं हियसुहणिस्सेसकरे सबदुक्खविमोक्खणे परमसुहसमागणे भविस्सइ । तते णं से भगवं समणाणं निग्गंधाण व णिग्गंथीण यपंच महत्वयाई सभावणगाई छथ जीवणिकाए धम्म देसमाणे विहरति, तंजहा-पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महबयाई सभावणगाई भाणिअबाईति । उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासी गणा गणहरा होत्था, उसभस्स णं अरहो कोसलिअस्स उसभसेणपामोक्खाओ चुलसीई समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्या, उसमस्स णे बंभीसुंदरीपामोक्खाओ तिण्णि अजिआसयसाहस्सीओ उक्कोसिभा अजिआसंपया होत्था, उसमस्स पं० सेजंसपामोक्खाओ तिणि समणोवासगसयसाहस्सीओ पंच य साहस्सीओ उको
83029290828380938
IN||१४६॥
~ 295~
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सिआ समणोवासगसंपया होत्था, उसभस्स पं० सुभदापामोक्खाओ पंच समणोंवासिआसयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा उकोसिआ समणोबासिआसंपया होत्या, उसमस्स णं अरहओ कोसलिअस्स अजिणाणं जिणसंकासाणं सबक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं चत्तारि चउद्दसपुधीसहस्सा अट्टमा य सया उक्कोसिआ चउदसपुधीसंपया होत्था, उसमस्स पं० णव ओहिणाणिसहस्सा उफोसिआ०, उसमस्स पं० वीसं जिणसहस्सा वीसं वेउश्चिअसहस्सा छच्च सया उकोसिआ० बारस विउलमईसहस्सा छच सवा पण्णासा वारस वाईसहस्सा छच्च सया पण्णासा, सभस्स पं० गइकहाणार्ण ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं बावीसं अणुत्तरोत्रवाईआणं सहस्सा णव य सया, उसमस्स f० वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अजिआसहस्सा सिद्धा सहि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा, अरहोणं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो अप्पेगइमा मासपरिआया जहा उववाइए सबओ अणगारवण्णओ जाव उद्धंजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं सवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति, अरहओ ण उसमस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्या, तंजहा-जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमी य, जुर्गतकरभूमी जाव असंखेजाई पुरिसजुगाई, परिआयंतकरभूमी अंतोमुहुत्तपरिआए अंतमकासी (सूत्र ३१) 'उसमे णमित्यादि, ऋषभोऽर्हन कौशलिकः साधिकं समासमित्यर्थः, संवत्सरं-वर्ष यावद् वस्त्रधारी अभवत्ततः परमचेलकः, अत्र ये केचन लिपिप्रमादादादर्शविदमधिकमित्याहुस्तैरावश्यकचूर्णिगतश्रीऋषभदेवदेवदूष्याधिकारेऽय१सको अ लक्समुळ सुरदूस ठवइ सम्पत्रिणस्नन्थे । धीरस्त वरिसमहि सयावि सैखाण तस्स टिवि॥१॥ति प्रन्थान्तरवचनादधिक संभाव्यते (दति हीर वृत्ती)।
Foo0120000
[३१]
दीप अनुक्रम [४४]
~ 296~
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----------------
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
मण्यादि
दीप
श्रीजम्बू-18 मेवालापको द्रष्टव्यः, श्रामण्यानन्तरं कथं प्रभुः प्रववृते इत्याह-जप्पभिई च ण'मित्यादि, यताप्रभृति ऋषभोऽर्हन् २वक्षस्कारे
द्वीपशा- कौशलिकः प्रवजितस्ततःप्रभृति नित्यं व्युत्सृष्टकायः परिकर्मवर्जनात् त्यक्तदेहः परीपहादिसहनात् ये केचिदुपसर्गा उत्प- श्रीअषमन्तिचन्द्रीया चिः
द्यन्ते, तद्यथा-दिव्या-देवकृता वाशब्दः समुच्चये यावत्करणात् 'माणुसा वा तिरिक्खजोणिआ वा' इति पदग्रहा, प्रभोः श्राप्रतिलोमा:-प्रतिकूलतया वेद्यमाना अनुलोमा:-अनुकूलतया वेद्यमानाः, वाशब्दः पूर्ववत्, तत्र प्रतिलोमा वेत्रेण-1
शिम.३१ ॥१४७॥ जलवंशेन यावच्छन्दात् 'तयाए वा छियाए वा लयाए वा' इति, तत्र त्वचया-सनादिकया छिवया-श्लक्ष्णया लोह18|कुश्या लतया-कम्बया कपेण-चर्मदण्डेन, वाशब्दः प्राग्वत्, कश्चिदुष्टात्मा कार्ये 'विवक्षातः कारकाणी त्याचारविव
क्षायां सप्तमी आकुट्टयेत् ताडयेदित्यर्थः, अनुलोमास्तु 'वंदेज वा' यावत्करणात् 'पूएज्जा या सकारज्जा वा सम्मा-1 राणेजा वा कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं इति, वन्देत वा स्तुतिकरणेन पूजयेद्वा पुष्पादिभिः सत्कुर्याद्वा वखादिभिः सन्मानयेद्वा अभ्युत्थानादिभिः कल्याणं भद्रकारित्वात् मङ्गलं अनर्थप्रतिघातित्वात् देवता-इष्टदेवतामिव चैत्य-18 इष्टदेवताप्रतिमामिव पर्युपासीत वा-सेवेतेति, तान् प्रतिलोमानुलोमभेदभिन्नान् उपसर्गान् सम्यक् सहते भयाभावेन, यावत्करणात् 'खमइ तितिक्खइ'त्ति क्षमते क्रोधाभावेन तितिक्षते दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयति अविचल-18
| ॥१४७॥ कायतयेति । अथ भगवतः श्रमणावस्था वर्णयन्नाह-'तए णं से' इत्यादि, ततः स भगवान् श्रमणो-मुनिर्जातः.181 | किंलक्षण इत्माह-ईयायां गमनागमनादौ समिता-सम्यक् प्रवृत्तः उपयुक्त इत्यर्थः, यावरपदात् 'भासासमिए एस-18
अनुक्रम
[४४]
~ 297~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------
----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Recene
प्रत सूत्रांक
[३१]
राणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाण'त्ति, अग्रेतनपदं तु साक्षादेवास्ति, भाषायां
निरवंद्यभाषणे समितः एपणायां-पिण्डविशुद्धौ आधाकर्मादिदोषरहितभिक्षाग्रहणे समितः भाण्डमात्रस्य-उपकरण-18 | मात्रस्योपादाने-ग्रहणे निक्षेपणायां च-मोचने समितः प्रत्युपेक्षणादिकसुन्दरचेष्टया सहित इत्यर्थः, सूत्रे व्यस्ततया पदनि-18 देश आषत्वात् , अथवा आदानेन सह भाण्डमात्रस्य निक्षेपणेति समासयोजना, उच्चारः-पुरीष प्रश्रवणं-मूत्रं खेल:-कफः18 सिंघानो-नासिकामलः जल्ल:-शरीरमलः एषां परि-सर्वेः प्रकारैः स्थापन-अपुनर्ग्रहणतया न्यासः परित्याग इत्यर्थः तत्र भवा पारिष्ठापनिकी, तत्र सुन्दरचेष्टा क्रिया इत्यर्थः, तस्यां समितः-उपयुक्तः,"प्रत्यये जीर्नवा"(श्रीसिद्ध.अ.८पा.३सू.३१) इति प्राकृतसूत्रेण स्वीलक्षणो डीप्रत्ययो विकल्पनीयः, यथा 'ईरियावहिआए विरावणाए' इत्यत्र, एतच्चान्त्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्डसिवानाधसम्भवेऽपि नामाखण्डनार्थमुक्तमिति बादरेक्षिकया प्रतिभाति, सूक्ष्मेक्षिकया तु यथा वस्वैषणाया | || असम्भवेऽपि सर्वथा एषणासमितेर्भगवतोऽसम्भवोन, आहारादौ तस्या उपयोगात् , तथाऽन्यभाण्डासम्भवेऽपि देवदूष्य
सम्बन्धिनी चतुर्थसमितिर्भवस्येव, दृश्यते च श्रीधीरस्य द्विजदाने देवदूम्यादाननिक्षेपी, एवं श्लेष्माद्यभावेऽपि नीहार| प्रवृत्तौ पञ्चमीसमितिरपीत्यलं प्रसङ्गेन, तथा मनःसमितः-कुशलमनोयोगप्रवर्तकः वचःसमितः-कुशलवाग्योगप्रवर्तकः, भाषासमित इत्युक्तेऽपि यचःसमित इत्युक्तं तद् द्वितीयसमितावत्यादरनिरूपणार्थ करणत्रयशुद्धिसूत्रे सङ्ख्यापूरणार्थ
१ सूत्रपाठस्य ग्रहस्मानामपि पारिकापनिकाकारस्येवासयतैष युति म बोकः (इति हीर• वृत्ती)।
दीप अनुक्रम [४४]
090020829082929893
~ 298~
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३१]
दीप
अनुक्रम
[४४]
वक्षस्कार [२],
मूलं [३१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मू
द्वीपशातिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥१४८॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
eseved
श्रीऋषभप्रभोः श्रामण्यादि
सू. ३१
च, कायसमितः - प्रशस्त काय व्यापारवान्, मनोगुप्तः - अकुशलमनोयोगरोधकः यावत्पदात् 'वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गु- 8 २वक्षस्कारे चिदिए' ति वाग्गुप्त:- अकुशलवागयोगनिरोधकः कायगुप्तः - अकुशलकाय योगनिरोधकः, एवं च सत्प्रवृत्तिरूपाः समित| योऽसत्प्रवृत्तिनिरोधरूपास्तु गुप्तय इति, अत एव गुप्तः सर्वथा संवृतत्वात्, तत्रैव विशेषणद्वारा हेतुमाह-- गुप्तेन्द्रियः शब्दादिष्विन्द्रियार्थेष्वरक्तद्विष्टतया प्रवर्त्तनात्, तथा गुप्तिभिर्वसत्यादिभिर्यलपूर्वकं रक्षितं गुप्तं ब्रह्म-मैथुनविरतिरूपं चरतीत्येवंशीलः, तथा अक्रोधः यावत्करणात् 'अमाणे अमाए' इति पदद्वयं ग्राह्यं, व्यक्तं च, अलोभः, अत्र सर्वत्र स्वल्पार्थे नञ् ग्राह्यः, तेन स्वल्पक्रोधादिभिरित्यर्थः, अन्यथा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकावधि लोभोदयस्योपशान्तमोहावधि च चतुर्णामपि क्रोधादीनां सत्तायाः सम्भवे तदभावासम्भवात् कुत एवंविध इत्याह- श्रान्तो भवभ्रमणतः प्रस्वान्तः- प्रकृष्टचित्तः उपसर्गाद्यापातेऽपि धीरचित्तत्त्वात् उपशान्त इति व्यक्तं अत एव परिनिर्वृतः सकलसन्तापवर्जितत्वात्, छिन्नश्रोता:- छिन्नसंसारप्रवाहः छिन्नशोको वा निरुपलेपो- द्रव्यभावमलरहितः, अथ सोपमानैश्चतुर्दशविशेषणैर्भगवन्तं विशिनष्टि- 'शङ्खमिवे' त्यत्र प्राकृतशैल्या क्लीवभावस्तेन शङ्ख इव निर्गतमञ्जनमिवाञ्जनं कर्म जीवमालिम्यहेतुत्वात् यस्मात् स तथा जात्यकनकमिव-पोडशवर्णककाञ्चनमित्र जातं रूपं - स्वरूपं रागादिकुद्रव्यविरहाद्यस्य स तथा, आदर्श-दर्पणे प्रतिभाग:-प्रतिविम्बः स इव प्रकटभावः, अयमर्थः- आदर्श प्रतिविम्बितस्य वस्तुनो यथा यथावदुपलभ्यमानस्वभावा नयनमुखादिधर्मा उपलभ्यन्ते तथा स्वामिन्यपि यथास्थितो मनःपरिणाम उपलभ्यते,
Fur Fraterna e C
~ 299~
॥१४८॥
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३१]
दीप
अनुक्रम
[४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
न तु शठवद्दर्शिता बहित्थ इति, कूर्मचद् गुप्तेन्द्रियः, कच्छपो हि कन्धरापादलक्षणावयवपञ्चकेन गुप्तो भवति एवमयमपीन्द्रियपञ्चकेन, पूर्वोकं गुप्तेन्द्रियत्वं दृष्टान्तद्वारा सुबोधमिति न पौनरुक्त्यं, पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः, पङ्कजलकल्पस्वजन विषय स्नेहरहित इत्यर्थः, गगनमिव निरालम्बनः- कुलग्रामनगरादिनिश्रारहितः अनिल इव-वायुरिव निरालयोवसतिप्रतिबन्धवन्ध्यः, यथोचितं सततविहारित्वात्, अयमत्राशयः - यथा वायुः सर्वत्र संचरिष्णुत्वेनानियतवासी तथा प्रभुरपीति, चन्द्र इव सौम्यदर्शन:- अरौद्रमूर्त्तिः, सूर इव तेजस्वी परतीर्थिकतेजोऽपहारित्वात्, विहगः-पक्षी स इवाप्रतिबद्धतया गच्छतीत्येवंशीलः स तथा, किमुक्तं भवति १-स्थलचरजलचरौ स्थलजलनिश्रितगमनौ न तथा विहगः स्वावयवभूतपक्ष सापेक्षगामित्वात् तेन विहगवदयं प्रभुरनेकेष्वनार्थदेशेषु कर्मक्षय साहायककारिषु परानपेक्षः स्वशत्या विहरतीति, सागर इव गम्भीरः - परैरलब्धमध्यो निरुपमज्ञानवत्त्वेऽपि रहः कृतपरदुश्चरितानामपरिस्रावित्वात् हर्षशोकादिकारणसद्भावेऽपि तद्विकारादर्शनाद्वा, मन्दर इव अकम्पः, स्वप्रतिज्ञातेषु तपःसंयमेषु दृढाशयत्वेन प्रवर्त्तनात् पृथ्वीव सर्वान् स्पर्शाननुकूलेतरान् विषहते यः स तथा जीव इवाप्रतिहतगतिः - अस्खलितगतिः, यथा हि जीवस्य कटकुव्यादिभिर्न गतिः प्रतिहन्यते तथा केनापि परपाखण्डिना आर्यानार्यदेशेषु सञ्चरतः प्रभोरपि, अथ मा भवन्तु दुर्द्धर्षस्य प्रभोः परे गतिविघातकाः परं स्वप्रतिबन्धेनापि गतिर्विहन्यते इत्याह'णत्थि ण' मित्यादि, नास्ति तस्य भगवतः कुत्रचित् प्रतिबन्धः - अयं ममास्याहमित्याशयबन्धरूपः, अयमेव हि
Fur Fraternae Cy
~300~
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री
प्रमोबा
[३१]
दीप
श्रीजम्यू- संसारशब्दव्यपदेश्यः, यदूचे-"अयं ममेति संसारो, नाहं न मम निर्वृतिः। चतुर्भिरक्षरैबन्धः, पञ्चभिः परमं पदम्॥" वधस्कारे द्वीपशा-सच द्रव्यतः-द्रव्यं प्रतीत्य "स्पक्लोपात् पञ्चमी", एवं क्षेत्रत इत्याद्यपि, तत्र द्रव्यत इति ब्याख्येयपदपरामर्थ श्रीऋषभ
तेन न पौनरुक्त्यं, इह लोके खलुक्यालङ्कारे माता मम पिता ममेत्यादि, पावरकरणात् 'भजा मे पुत्ता मे पूजा | या वृचिः
मे णता मे सुण्डा मे सहिसयण'त्ति भार्यापुत्रौ प्रसिद्धौ घूआ-पुत्री नप्ता-पुत्रपुत्रः स्नुषा-पुत्रभार्या सखा-मित्रं ॥१४९॥ स्वजन:-पितृव्यादिः सग्रन्थ:-स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः संस्तुतो-भूयोदर्शनेन परिचितः, एषां च | 18जीवपर्यायत्या द्रव्यत्वं, कथाचित् पर्यायपर्यायिणोरभेदोपचारात्, हिरण्यं मे सुवर्ण मे, यावच्छब्दात 'कंसं मे|
दूर्स मे धर्ण में' इत्यादि प्रकरणं उपकरणं-उक्तव्यतिरिक्तं, अयं च यावत्पदसंग्रहोऽदृष्टमूलकत्वेन मयैव सिद्धान्तशैल्या
प्राकृतीकृत्य स्थानाशून्यतार्थ लिखितोऽस्ति तेन सैद्धान्तिकैरेतन्मूलपाठगवेषणायामुद्यमः कार्यः, प्रकारान्तरेण द्रव्य-16 18 प्रतिवन्धमाह-अथवेति-प्रकारान्तरे, उक्तरीत्या प्रतिव्यक्ति कथनस्थाशक्यत्वेन सझेपत उच्यते इति शेषः, सञ्चित्ते-18 18| द्विपदादौ अचित्ते-हिरण्यादौ मिश्रे-हिरण्यालङ्कृतद्विपदादी, द्रव्यजाते-द्रव्यप्रकारे वा समुच्चये स-प्रतिबन्धस्तस्य|| प्रभोरेवमिति-ममेदमित्याशयबन्धेन न भवति 'खित्तभो' इत्यादि प्रायो व्यक्तमिदं, नवरं क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः॥8॥१४॥
खलं-धान्यमेलनपचनादिस्थंडिलं एवं-उत्तरीत्या आशयबन्धस्तस्य प्रभोर्न भवति, 'कालओ'इत्यादि, कालतः लोके-18 सप्तप्राणमाने लवे-सप्तस्तोकमामे मुहूर्ते-सप्तसप्ततिलवमाने अहोरात्रे-त्रिंशन्मुहूर्तमाने पक्षे-पञ्चदशाहोरात्रमाने मासे-181
अनुक्रम
[४४]
~301~
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
पक्षवयमाने ऋतौ-मासद्वयमाने अयने-ऋतुनयमाने संवत्सरे-अयनद्वयमाने अन्यतरस्मिन् वा दीर्घकाले-वर्षशतादौ ।
प्रतिबन्धः एवं-उक्तप्रकारेण तस्य न भवति, अबमृतुरनुकूलो ममायं च प्रतिकूलो ममेति मतिर्न तस्य, यथा श्रीमतां |||| ॥४|| शीतषुरनुकूलतया प्रतिबन्धं विधत्ते निर्द्धनानां तु उष्णतुः, 'भावओ' इत्यादि, कण्ठयमेतत्, नवरं कदाग्रहवशात् .
क्रोधादीन न त्यजामीति धीर्न तस्येत्यर्थः, एतच सूत्रमुपलक्षणभूतं तेनानुक्तानां सर्वेषामपि पापस्थानानां ग्रहः, अथ कथं | भगवान् विहरति स्मेत्याह-से णमित्यादि, स भगवान् वर्षासु-प्रावट्काले वास:--अवस्थानं तद्वर्ज, तेन विनेत्यर्थः,
हेमन्ताः-शीतकालमासाः गीष्मा-उष्णकालमासास्तेषु मामे-अल्पीयसि सन्निवेशे एका रात्रिर्वासमानतया यस्य स 8 || एकरात्रिकः एकदिनवासीत्यर्थः, नगरे-गरीयसि सन्निवेशे पश्च रात्रयो वासमानतया यस्य स तथा, पर्यदिनवासीति |
[३१]
eceeeeeeeeeeeec
दीप अनुक्रम [४४]
765secoercerseksemocratseise
नवं 'गामे एगराइए' इत्यादि प्रवचनबलेन साधूनामपि मुख्यत्तिरियमेव भविष्यतीति शंबीयं, यशः-साधून विकल्यैव विधसूत्रपाठोऽभिप्रद विशेपवतः एनाबसातव्यः, औपपातिकवृत्तौ तवैव व्याख्यानात् , मत एव सामान्यतः साधूनां बिहारे विविधताऽप्यागमे प्रतीता, तथाहि-'एगाह पंचाह मास क जहासमाहीए'त्ति श्रीनिशीषभाष्ये, अस्य व्याख्या-'परिमापडिवण्यार्ण एगाई पंचहो महालंदे । जिणसुद्धाणं मासो निकारणभोज राणं ॥१॥' पढिमापटिव-18 ण्णाणं एगाहो अहालंदिवाण पंचाहो जिणत्ति-जिणकप्पियाणं सुद्धत्ति-मुद्धपारिहारिमाण, सुद्धग्गहर्ण परिचताननपारिहारिमनिसेहणत्य, येराणं च, एतेसि मासकप्पविहारे, निष्वाचाए-कारगाभावे, वाघाए पुण थेरकप्पिया का महरितं वा मासे भच्छति, 'कणाहरितमाता एवं घेराग बढणायया । इअरे बह विहरि नियमा चत्तारि अच्छति ॥ १॥ एवं कणा भइरिता पेरण म माना जायन्या, इमरे णाम परिमापरिचण्णा १ महादिमा २ विसुद्धपारिहारिमा । जिणप्पिा ४ य जहाविहारेण बड्ड विहरिकम वासारतिमा पतरो माया सन्वे एगविरो मच्छति (इति ही सौ ।
~302~
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे
॥ श्रीऋषभ
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः ॥१०॥
e seccaeese
प्रभोः श्रामण्यादि
[३१]
भावः, यथा दिनशब्दोऽहोरात्रवाची तथा रात्रिशब्दोऽप्यहोरात्रधाचीति, ननु तर्हि दिनशब्द एव कथं नोपात्तः, उच्यते, निशाविहारस्यासंयमहेतुत्वेन चतुर्जानिनोऽपि तीर्थकरा अवगृहीतायां वसतावेव वासतेय्यां [ रात्रौ] वसन्तीति वृद्धाम्नायः, 'व्यपगतहास्सशोकरतिभयपरित्रासः' तत्रारतिः-मनसोऽनौत्सुक्यमुकेंगफलक रतिः-तदभावः परि त्रास:-आकस्मिकं भयं शेष व्यक्तं, निर्गतो ममेतिशब्दो यस्मात् स तथा, किमुक्तं भवति ?-प्रभोर्ममेत्यभिलापेनाभिलाप्यं नास्तीति, पष्टयेकवचनान्तस्यास्मच्छब्दस्यानुकरणशब्दत्वान्ममेत्यस्य साधुता, निरहंकारः-अहमितिकरण| महङ्कारः स निर्गतो यस्मात्स तथा, लघुभूत ऊर्ध्वगतिकत्वात् , अत एवाग्रन्धो-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, वास्यासूत्रधारशस्त्र विशेषेण यत्तत्तक्षणं-त्वच उत्खननं तत्राद्विष्टः-अद्वेषवान्, चन्दनानुलेपनेऽरक्तः-अरागवान, लेष्टीदृषदि काश्चने च समः, उपेक्षणीयत्वेनोभयत्र साम्यभाक्, इहलोके-वर्तमानभवे मनुष्यलोके परलोके-देवभवादौ तत्रा-18 प्रतिबद्धः तत्रत्यसुखनिष्पिपा सित्वात् जीवितमरणयोर्निरवकांक्ष:-इन्द्रनरेन्द्रादिपूजाप्राप्तौ जीविते दुर्विषहपरीषहाप्ती च मरणे निःस्पृहः, संसारपारगामीति व्यक्तं, कर्मणां सङ्गः-अनादिकालीनो जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य निर्घातनंविश्लेषणं तदर्थमभ्युत्थित-उद्यतो विहरति । अथ ज्ञानकल्याणकवर्णनायाह-तस्स णमित्यादि, 'तस्य' भगवतः एतेन' अनन्तरोकेन विहारेण विहरत एकस्मिन् वर्षसहने व्यतिक्रान्ते सति पुरिमतालस्य नगरस्य बहिः शकटमुखे उद्याने न्यग्रोधवरपादपस्याधो 'ध्यानान्तरिके ति अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका स्त्रीलिङ्गशब्दः अथवा अन्तरमेवा
eversesercestaestseiseattract
दीप अनुक्रम [४४]
॥१५०॥
Staerverserseoesre
~303~
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
feesecticaccces
[३१]
न्तर्य, भेषजादित्वात् स्वार्थे यण प्रत्ययस्ततः स्त्रीत्वविवक्षायां कीमत्यये आन्तरी आम्तर्येवान्तरिका ध्यानस्यान्सरिकाध्या
नान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः अतस्तस्यां वर्तमानस्य, कोऽर्थः-पृथक्त्ववितर्क सविचारं 18| १ एकत्ववितर्कमविचार २ सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ३ म्युछिन्नक्रियमनिवर्ति ४ इति चतुश्चरणात्मकस्य शुक्लध्यानस्य
चरणद्वये ध्याते चरमचरणद्वयमप्रतिपन्नस्येति, योगनिरोधरूपध्यानस्य चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनि केवलिन्येव सम्भवात् , फाल्गुनबहुलस्यैकादश्यां पूर्वाहकालरूपो यः समयः-अवसरस्तस्मिन् अष्टमेन भक्तेन-आगमभाषयोपवासत्रयलक्षणेनापानकेन-जलयर्जितेनोत्तराषाढानक्षत्रे चन्द्रेण सहेति गम्यं योगमुपागते सति, उभयत्र णं वाक्यालङ्कारे, अथवा
आपत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया, अनुत्तरेणेति-क्षपकश्रेणिप्रतिपन्नत्वेन केबलासन्नत्वेन परमविशुद्धिपदमाशत्वेन न विद्यते S| उत्तर-प्रधानमप्रवर्ति वा छानस्थिकज्ञानं यस्मात्तसथा, तेन ज्ञानेन-तत्वावबोधरूपेण, एवं यावच्छब्दात दानेन
धायिकभावापन्नेन सम्यक्त्वेन चारित्रेण-विरतिपरिणामरूपेण क्षायिकभावापनेनैव 'तपसे ति व्यक्त 'बलेन' बहननोत्थप्राणेन 'वीर्येण' मानसोत्साहेन 'आलयेन' निर्दोषवसत्या 'विहारेण' गोचरचर्यादिहिण्डनलक्षणेम 'भावनया' महाव्रतसम्बन्धिन्या मनोगुप्त्यादिरूपया पदार्थानामनित्यत्वादिचिन्तनरूपया वा 'क्षान्त्या' क्रोधनिग्रहेण 'गुप्त्या प्राग्व्याख्यातस्वरूपया 'मुक्त्या' निर्लोभतया 'तुष्या' इच्छानिवृत्या 'भावेन' मायानिमहेण 'माइवेन' माननिप्रहेण 'लाघवेन' क्रियासु दक्षभावेन, भावे प्रत्ययविषाणास, सोपचित-सोपवयं पुष्टमितियावत् एतारशेन प्रस्तावाग्निवा
दीप अनुक्रम
[४४]
SimillenniM
al
~ 304 ~
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
दीप
श्रीजम्बू- णमार्गसम्बन्धिनैव सुचरितेन-सदाचरणेन फलं-प्रक्रमान्मुक्तिलक्षणं यस्मात् एवंविधो यो निर्वाणमार्गः-असाधारण-18||रवक्षस्कारे
द्वीपशा-14 रत्नत्रयरूपस्तेनात्मानं भावयतः केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नमित्यन्वयः, तत्रानन्तमविनाशिस्वात् अनुत्तरं सर्बो-18 सपम न्तिचन्द्री-त्तिमत्वात् निर्व्याघातं कटकुझ्यादिभिरप्रतिहतत्वात् निरावरणं क्षायिकत्वात् कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण 81
प्रभोः श्राया वृत्तिः
सकलस्वांशकलितत्वात् पूर्णचन्द्रवत् केवलं-असहायं 'णटुंमि उ छाउमस्थिए णाणे [नष्टे छानस्थिके ज्ञान एव] 8.३१ ॥१५१॥
इति वचनात् , परं-प्रधानं ज्ञानं च दर्शनं चेति समाहारद्वन्द्वे एकवझावः ततः पूर्वपदाभ्यां कर्मधारयः, तत्र सामा
न्यविशेषोभयात्मके ज्ञेयवस्तुनि ज्ञानं विशेषावबोधरूपं दर्शनं सामान्यावबोधरूपमिति, अत्रायमाशयः-दूरादेव तालIS तमालादिक तरुनिकर विशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽनवधारितमवलोकयतः पुरुषस्य सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदप-|
रिस्फुट किमपि रूपं चकास्ति तद्दर्शनं 'निर्विशेष विशेषाणां ग्रहो दर्शन मिति वचनात् , यत्पुनस्तस्यैव प्रत्यासीदतस्ता18| लतमालादिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव तरुसमूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभाति ॥ तज्ज्ञानं, ननु भवतु नाम इत्थमनुभवसिद्धे ज्ञाने छद्मस्थानां विशेषग्राहकता दर्शने च सामान्यग्राहकता, परं केव-13
॥१५॥ लिनो ज्ञानक्षणे सामान्यांशाग्रहणाद्दर्शनेन च विशेषांशग्रहणाभावाद् द्वयोरपि सर्वार्थविषयत्वं विरुध्यते, उच्यते, ज्ञान
क्षणे हि केवलिना ज्ञाने यावद्विशेषान् गृहति सति सामान्य प्रतिभातमेव, अशेषविशेषराशिरूपत्वात् सामान्यस्य, 1 दर्शनक्षणे च दर्शने सामान्यं गृह्णति सति यावद्विशेषाः प्रतिभाता एव, विशेषानालिङ्गितस्य सामान्यस्याभावात्,
00000000
अनुक्रम
[४४]
डsese
~ 305~
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ederwecemesesea
[३१]
दीप अनुक्रम [४४]
अत एव 'निर्विशेष विशेषाणां ग्रहो दर्शन'मित्युक्तमनन्तरोक्तग्रन्थे, कोऽर्थः ?-ज्ञाने प्रधानभावेन विशेषा गौणभावेन | सामान्य दर्शने प्रधानभावेन सामान्य गौणभावेन विशेषा इति विशेषः । समुत्पन्न-सम्यक्-क्षायिकत्वेनावरणदेशस्याप्यभावात् उत्पन्नं, प्रादुर्भूतमित्यर्थः, उत्पन्न केवलस्य यद्भगवतः स्वरूपं तत्प्रकटयति-जिणे जाए'इत्यादि, जिनो| रागादिजेता, केवल-श्रुतज्ञानाद्यसहायक ज्ञानमस्खास्तीति केवली, अत एव सर्वज्ञो-विशेषांशपुरस्कारेण सर्वज्ञाता | सर्वदर्शी-सामान्यांशपुरस्कारेण सर्वज्ञाता, नन्वहता केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोः क्षीणमोहान्त्यसमय एव क्षीण-| | स्वेन युगपदुत्पत्तिकत्वेनोपयोगस्वभावात् क्रमप्रवृत्तौ च सिद्धायां 'सधन्नू सचदरिसी' इति सूत्रं यथा ज्ञानप्राथम्य| सूचकमुपन्यस्त तथा सवदरिसी सपन इत्येवं दर्शनप्राथम्यसूचकं किं न, तुल्यन्यायत्वात्, नैवं, 'सबाओ लद्धीओ | सागारोवउत्तस्स उववजंति, णो अणागारोवउत्तस्स' [सर्वा लब्धयः साकारोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते नानाकारोपयुक्तस्य ] | इत्यागमादुत्पत्तिक्रमेण सर्वदा जिनानां प्रथमे समये ज्ञानं ततो द्वितीये दर्शनं भवतीति ज्ञापनार्थत्वादित्थमुपन्या-18 | सस्येति, छद्मस्थानां तु प्रथमे समये दर्शनं द्वितीये ज्ञानमिति प्रसङ्गा बोध्यं । उक्तविशेषणद्वयमेव विशिनष्टि-सनैरयि
भवसरवाचकवया शेयोनार्य समयशम्यः, छपस्थानो समयेनोपयोगाभावात् , अत एव 'वयमाणे न याणई' खागमः, अत एव च 'जाणइ पासई'सवधिव्याख्या गन्यामपि अवसरपरतीच समयधम्दव्यास्याऽविरुवा, स च स्थानाने दशमस्थानादी मायाप्रती च समयसाविषयत्वं प्रस्थस्य RI 18 इमपत्रीये 'समयं बोयम ! मा पमायए' इत्यत्र च ।
0900909asacoooopsisa
~306~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [३१]
दीप
श्रीजम्बू कतिर्यग्नरामरस्य पञ्चास्तिकायारमकक्षेत्रखण्डस्य उपलक्षणात् लोकस्य अलोकस्यापि नभःप्रदेशमात्रात्मकक्षेत्रविशेषस्य | वक्षस्कारे | पर्यायान्-कमभाविस्वरूपविशेषान् जानाति केवलज्ञानेन पश्यति केवलदर्शनेन, पर्यायानित्युक्ते द्वयमपि ग्राहा, नहि ||
श्रीऋपमन्तिचन्द्री
प्रमोः श्रापर्याया द्रव्यवियुता भवेयुर्द्रव्यं वा पर्यायवियुतं, तेनाधेयमाघारमाक्षिपतीति, अन्यथा आधेयत्वस्यैवानुपपत्तेः, या पृत्तिः
मण्यादि यथाऽऽकाशस्य, न हि आकाशं काप्यवतिष्ठते तस्याधारमात्ररूपस्यैव सिद्धान्ते भणनात्, अथवा सामान्यत उक्तं सू. ३१ ॥१५२॥ पर्यायाणां ज्ञान व्यक्त्या निरूपयन्नाह-तद्यथा-'आगर्ति' यतः स्थानादागच्छन्ति विवक्षितं स्थानं जीवाः 'गर्ति' | 18| यत्र मृत्वोत्पद्यन्ते 'स्थिति' कायस्थितिभवस्थितिरूपां च्यवन' देवलोकाद्देवानां मनुष्यतिर्यश्ववतरणं 'उपपात'
देवनारकजन्मस्थानं भुक्तं-अशनादि कृतं-चौर्यादि प्रतिसेवितं-मैथुनादि आविःकर्म-प्रकटकार्य रहाकर्म18|| प्रच्छन्नकृतं, 'तं तं कालं'ति प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तस्मिन् २ काले, वीप्सायां द्विवचनं, मनोवधाकावान् 18 योगान्-करणत्रयव्यापारान् एवमादीन्, जीवानामपि सर्वभावान् , जीवधर्मानित्यर्थः, अजीवानामपि सर्वभावान्18| रूपादिधर्मान् मोक्षमार्गस्य-रत्नत्रयरूपस्य विशुद्धतरकान्-प्रकर्षकोटिप्राप्तान् कर्मक्षयहेतून् भावाम्-ज्ञानाचारादीम्
जानन् पश्यन् विचरतीति गम्यं, कथं च जानन् पश्यन् विचरतीत्याह-एप:-अनन्तरं वक्ष्यमाणो धर्मः खलु अव- M॥१५२॥
धारणे मोक्षमार्गः, सिद्धिसाधकत्वेन मम-देशकस्यान्येषां च-नोवां हित-कल्याण पथ्यभोजनवरित्यर्थः सुखं-अनुMi कूल पेय पिपासो। शीतलजलपानवत् निश्रेयस-मोक्षस्वत्कर:-सकानां हितादीनां कारक इति, सर्वदाखषिमोक्षण
अनुक्रम
[४४]
JNELLimitinा
~307~
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
दीप अनुक्रम
मोक्षण क्षेपे मोक्षयति मोचयतीति ] इति व्यक्त, परमसुर्ख-आत्यन्तिकसुखं समापयत्तीति व्युत्पत्तिचक्षात् परमसुखसमाननः 'समापेः समाणः' (श्रीसिद्ध अ० पा०) इति प्राकृतसूत्रेण समानादेशे अनटि प्रत्यये रूपसिद्धिः, निःश्रेयसेत्यत्र । यकारलोपः प्राकृतत्वात्, भविष्यतीति, अथ उत्पन्न केवलज्ञानो भगवान् यथा धर्म प्रावुश्चकार तथा आह-तते ण'-IN मित्यादि, ततः स भगवान् श्रमणानां निर्ग्रन्थानां निन्धीनां च पश्च महानतानि-सर्वप्राणातिपातविरमणादीनि सभा बनाकानि-ईर्यासमित्यादिस्वभावनोपेतानि षट् च जीवविकायान्-पृथिव्यादित्रसान्तान् इत्येवंरूपं धर्म उपविशन विहरतीति सम्बन्धः, यच्च धर्म प्रक्रान्तब्ये पहजीवनिकायकथनमुपकान्तं तज्जीवपरिज्ञानमन्तरेण प्रसपाछनासम्भव || । इति ज्ञापनार्थ, नन्वयं नियमः प्रथमत्रते सम्भवेत् मृषावादविरमणादीनां तु भाषाविभागादिज्ञानाधीनत्वात् न सम्भ| वेदिति, उच्यते, शेषनतानामपि प्राणातिपातविरमणप्रतस्य रक्षकत्वेन नियुक्तत्वात् , महावनस्य वृत्तिवृक्षक्त्, तथाहि
मृषाभाषामभाषमाणो ह्यभ्याख्यानादिविरतो न कुलवध्वादीन् अदत्तमनाददानो धनस्वामिनं सचित्तजलफलादिकं च | 18 मैथुनविरतो नवलक्षपश्चेन्द्रियादीन् परिग्रहविरतः शुक्तिकस्तूरीमृगादींश्च नातिपातयेदिति, अथैतदेव किश्चिब्यक्त्या
विवृणोति, तद्यथा-पृथिवीकायिकान् जीवान उपदिशन् विहरतीति सम्बन्धः, लाघवार्थकत्वेन सूत्रप्रवृत्तेर्देशप्रहणोत् | पूर्णोऽप्यालापको वाच्यः, स चायं-'आउकाइए तेउक्काइए वाउकाइए वणस्सइकाइए तसकाइए'त्ति व्यक्तं, तथा IS पश्च महाव्रतानि सभावनाकानि 'भावनागमेन' श्रीआचाराङ्गाद्वितीयश्रुतस्कन्धगतभावनाख्याध्ययनगतपाठेन भणित
[४४]
~308~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३१]
श्रीजम्बू- व्यानि, अत्र च सूत्रे यदुद्देशे प्रथम 'पंच महबयाई' इत्याद्युक्तं निर्देशे तु व्यत्ययेन 'तं०-पुढविकाइए'इत्यादि, तत्क- ४२वक्षस्कारे
द्वीपशा- थमिति नाशङ्कनीयं, यतः पश्चाहुद्दिष्टानामपि षड्जीवनिकायानां प्रस्तुतोपाङ्गे स्वल्पवक्तव्यतया प्रथम प्ररूपणाया श्रीऋषभन्तिचन्द्रीयुक्त्युपपन्नत्वात्, सूचीकटाहन्यायोऽत्रानुसरणीयो, 'विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्यस्य' इति न्यायेन वा स्वत एवेति |
|| प्रमोः श्राया वृत्तिः ज्ञेयं, ननु गृहिधर्मसंविग्नपाक्षिकधर्मावपि भगवता देशनीयौ मोक्षाङ्गत्वात् , यदुक्तम्-'सावजजोगपरिवजणाउ
मण्यादि ॥१५३॥ सबुत्तमो जईधम्मो । बीओ सावगधम्मो तइओ संविग्गपक्खपहो ॥ १॥ [सावद्ययोगपरिवर्जनात् सर्वोत्तम एव
यतिधर्मः। द्वितीयः श्रावकधर्मस्तृतीयः संविग्नपक्षपथः॥१॥] इति, तत्कथमत्र तौ नोक्तौ ?, उच्यते, सर्वसावद्य-1 | वर्जकत्वेन देशनायां यतिधर्मस्य प्रथम देशनीयत्वादत्यासन्नमोक्षपधत्वात् श्रमणसङ्घस्य प्रथमं व्यवस्थापनीयत्वाच्च प्राधान्यख्यापनार्थ प्रथममुपन्यासः, ततो 'व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्ति'रितिन्यायादेतत्पुच्छभूतौ तावपि धौ भगवता प्ररूपिताविति ज्ञेय, भगवत्प्ररूपणामन्तरेणान्येषां तत्तद्ग्रन्थेषु तयोः प्ररूपणानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति । अथावनध्य-19
शक्तिकवचनगुणप्रतिबुद्धस्य प्रभुपरिकरभूतस्य संघस्य सङ्ख्यामाह--'उसभस्स णमित्यादि, सुगम, नवरं 'जस्स जाव-| | इआ गणहरा तस्स तावइआ गणा' [जावइआ जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स । यस्य यावन्तो गणास्तावन्तो 8
॥१५३॥ | गणधरास्तस्य ] इति वचनाद् गणाः सूत्रे साक्षादनिर्दिष्टा अपि तावन्त एव बोध्याः, कचिजीर्णप्रस्तुतसूत्रादर्श 'चङ-10 रासीर्ति गणा गणहरा होत्था' इत्यपि पाठो दृश्यते, तत्र तु चतुरशीतिपदस्योभयत्र योजनेन व्याख्या सुबोधैवेति, गणश्चै
Resesececeaeseseseseseseisenel
दीप
ccccesesekestaesesesesesese
अनुक्रम
[४४]
~309~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
ekseseesesesesesesesesese
कवाचनाचारयतिसमुदायस्तं धरन्तीति गणधराः, वाचनादिभिर्ज्ञानादिसम्पदा सम्पादकत्वेन गणाधारभूता इति भावः, 'होत्था' इति अभवन् , 'उसमस्स ण' मित्यादि, ऋषभसेनप्रमुखानि चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि एषा उत्कर्षः-उस्कृष्ट|भागस्तत्र भवा उत्कर्षिकी 'प्रत्यये ङीर्वा (श्रीसिद्ध०अ०९पासू०) इत्यनेन डीविकल्पे रूपसिद्धिः, ऋषभस्य श्रमणसम्पदभवत्, अन वाक्यान्तरत्वेन श्रमणशब्दस्य न पौनरुक्त्य, एवं सर्वत्र योज्यं, 'उसहस्सण'मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यानि, नवरं चतुर्दशपूर्विसूत्रे 'अजिनानां छद्मस्थानां 'सबक्खरसन्निवाईणं ति सर्वेषामक्षराणा-अकारादीनां सन्निपाता-यादिसंयोगा अनन्तत्वादनन्ता अपि ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा, जिनतुल्यत्वे हेतुमाह-'जिणो विव अवितहमित्यादि. |जिन इवावितथं-यथार्थ व्यागृणतां-व्याकुर्वाणाना, केवलिश्रुतकेवलिनोः प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् , चत्वारि सहनाणि | अोष्टमानि च शतानि एषा औरकर्षिकी चतुर्दशपूर्विसम्पदभवत्, 'विउवित्ति वैक्रियलन्धिमन्तः, शेष स्पष्ट, | विपुलमतयो-मनःपर्यवज्ञानविशेषवन्तः द्वादश विपुलमतिःसहस्राणि अधिकारात्तेषामेव पटू शतानि पञ्चाशच्चेत्येवं सर्वत्र योज्यं, वादिनो-वादिलब्धिमन्तः परप्रवादुकनिग्रहसमर्थाः, 'उसमस्स 'मित्यादि, गतौ-देवगतिरूपायां कल्याणं येषां प्रायः सातोदयत्वात्तेषां, तथा स्थिती-देवायूरूपायां कल्याणं येषां ते तथा, अप्रवीचारसुखस्वामि-18
ये श्रमणसहस्रा आसन वे श्रमणपर्षदुत्कृष्ठाऽमवदिति खरूपा वाक्यान्तरवा। २ पर ते (श्रुतकेवलिनो)ऽसंख्यभवनिर्णायकाः यदागमः-'सखाईएदि भवे.' (इति श्रीहीर• वृत्ती)।
दीप अनुक्रम [४४]
~310 ~
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
----- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [३१]
या चिः
s eaeeeeeeeesesee
सू. ३१
कत्वात् , नागमिष्यद्भद्रं येषां ते आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात् ते तथा तेषा, अनुत्तरोपपातिकानां पञ्चानुत्तरलव-18|रवक्षस्कारे द्वीपशा-8 सप्तमदेवविशेषाणां द्वाविंशतिः सहस्राणि नव च शतानि, 'उसमस्स ण'मित्यादि, सुगम, नवरं श्रमणार्यिकासया-1|| श्रीमपम
- न्तिचन्द्री- द्वयमीलने अन्तवासिसङ्गया सम्पद्यते, अथ भगवतः भमणवर्णकसूत्रमाह-अरहता 'मित्यादि, अर्हतः ऋषभस्य ।
प्रमोः श्रा
मण्यादि बहवोऽन्तेवासिनः-शिष्यास्ते च गृहिणोऽपि स्युरित्यनगाराः भगवन्तः पूज्या अपिः समुच्चये एकका-एके अन्ये । ॥१५४॥ केचिदपीत्यर्थः मासं यावत् पर्यायः-वारित्रपालनं येषां ते तथा, यथौपपातिके सर्वोऽनगारवर्णकस्तथाऽनापि वाच्यः,
कियद्यावविल्याह-कर्ण जानुनी येषां ते अर्ध्वजानकः शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादीपनहिकनिषद्याया अभावाचोत्कटु-18 कासना इत्यर्थः, अधःनिरसो-अधोमुखाः नोई तिर्यग्वा विक्षिप्तरष्टयः ध्यानरूपो यः कोष्ठा-कुसूलस्तमुपागताः-तत्र प्रविष्टाः, यथाहि-कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तं न विप्रसृतं भवति एवं तेऽनगारा विषयेष्वविप्रसृतेन्द्रियाः स्युरिति, संयमेन| संवररूपेण सफ्सा-अनशनादिना, चः समुच्चयार्थो गम्या, संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्कत्वख्यापनार्थ, | मधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन, भवति चाभिववकर्मानुपादानाद पुराणकर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, आत्मानं भावयन्तो वासयन्तो विहरस्ति, तिष्ठन्तीत्यर्थः,
8 ॥१५४॥ गविलेन मनुष्वगते वापगमः स्थितिशब्देन देवभवो जीवितं चाप्याचस्युः श्रीहीरसूरयः । २ विजयाविरविमानोत्पत्तिमता (मोहीरपत्ती) नहि सर्वेऽपि | मारोपपातिका पक्षमा एम, यद्यपि ममत्तमा अनुत्तरोपपातिका एष तथापि वे तश्यविधा इति निवमः, अप्रमत्तसंयतीन तनोत्पत्ती नियमनात् ।।
दीप अनुक्रम
[४४]
ccesses
SinElemiN
स्ट
~311~
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३१]
दीप
अनुक्रम
[४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अत्र यावत्पदसंग्राह्यः 'अप्पेगइया दोमासपरिआया' इत्यादिकः औपपातिकग्रन्थो विस्तरभयान्न लिखित इत्यवसेयं, अथ ऋषभस्वामिनः केवलोत्पत्त्यनन्तरं भव्यानां कियता कालेन सिद्धिगमनं प्रवृत्तं कियन्तं कालं यावदनुवृत्तं चेत्याह'अरहओ ण' मित्यादि, ऋषभस्य द्विविधा अन्तं भवस्म कुर्वन्तीति अन्तकरा - मुक्तिगामिमस्तेषां भूमिः कालः कालस्य | चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेशः, तद्यथा - युगानि - पञ्चवर्षमानानि कालविशेषाः लोकप्रसिद्धानि वा कृतयु - | गादीनि तानि च क्रमवर्त्तीनीति तत्साधर्म्याद्ये क्रमवर्त्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि साध्यवसानलक्षणयाऽभेदप्रतिपत्त्या युगानि - पट्टपद्धतिपुरुषा इत्यर्थः तैः प्रमिता अन्तकरभूमिर्युगान्तकरभूमिरिति, पर्यायः - तीर्थकृतः केव| लित्व कालस्तदपेक्षयाऽन्तकर भूमिः कोऽर्थः १ - ऋषभस्य इयति केवलपर्यायकालेऽतिक्रान्ते मुक्तिगमनं प्रवृत्तमिति, तत्र युगान्तकर भूमिर्यावदसङ्ख्यातानि पुरुषा:- पट्टाधिरूढास्ते युगानि - पूर्वोक्तयुक्तया पुरुषाः पुरुषयुगानि, समर्थपदत्वात् समासः, नैरन्तर्ये द्वितीया, ऋषभात् प्रभृति श्रीअजितदेवतीर्थं यावत् श्रीऋषभपट्टपरम्परारूढा असङ्ख्याताः सिद्धाः न तावन्तं कालं मुक्तिगमनविरह इत्यर्थः, यस्तु आदित्य यशःप्रभृतीनां ऋषभदेववंशजानां नृपाणां चतुर्दशलक्षप्रमितानां क्रमेण प्रथमतः सिद्धिगमनं तत एकस्य सर्वार्थसिद्धप्रस्वटगमनमित्याद्यनेकरीत्या अजितजिनपितरं मर्यादीकृत्य
१ ये त्वन्तरान्तरा मुक्तिगामिनस्खे युगशब्दे नापेक्षिताः छात्थ गुरुविष्यादिव्यवहितत्वेन ( श्रीहीर वृत्ती ) २ उक्षणा द्विविधा साध्यवसाना खारोपाच
अत्र स्वाया था ।
Fur Fate & Pune Cy
~312~
www.jamraryary
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
दीप
नन्दीसूत्रवृत्तिचूर्णिसिद्धदंडिकादिषु सर्वार्थसिद्धप्रस्तटगमनत्र्यवहितः सिद्धिगम उक्तः स कोशलापट्टपतीन् प्रतीत्या-18|२वक्षस्कारे द्वीपशा-18| वसातव्योऽयं पुण्डरीकगणधरादीन् प्रतीत्येति विशेषः, तथा पर्यायान्तकरभूमिरेषा अन्तर्मुहतं यावत्केवलज्ञानस्य 8 श्रीऋषमन्तिचन्द्री- पर्यायो यस्य स तथा, एवंविधे ऋषभे सति अन्तं भवान्तमकार्षीद्-अकरोत् नार्वाक् कश्चिदपीति, यतो भगवदम्बा जन्मकल्याया वृत्तिः | मरुदेवा प्रथमः सिद्धः, सा तु भगवत्केवलोत्पत्त्यनन्तरमन्तमुहूर्तेनैव सिद्धेति । अथ जन्मकल्याणकादिनक्षत्राण्याह-8
णकादिन
क्षत्राणिम्. ॥१५५॥ उसमे गं अरहा पंचतत्तरासाढे अभीइछट्टे होत्था, तंजहा-उत्तरासाढाहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्रते उत्तरासाढाहि जाए उत्तरासा
३२ ढाहिं रायाभिसेजे पत्ते उत्तरासाढाहिं मुंढे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए उत्तरासाढाहिं अर्णते जाव समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिन्दुए (सूत्र ३२) 'उसमेण मित्यादि, ऋषभोऽर्हन पञ्चसु-च्यवनजन्मराज्याभिषेकदीक्षाज्ञानलक्षणेषु वस्तुषु उत्तरापाढानक्षत्रं चन्द्रेण || भुज्यमानं यस्य स तथा अभिजिन्नक्षत्रं षष्ठे-निर्वाणलक्षणे वस्तुनि यस्य यद्वा अभिजिन्नक्षत्रे षष्ठं निर्वाणलक्षणं वस्तु यस्य स तथा, उक्तमेवार्थ भावयति, तद्यथा-उत्तराषाढाभियुते चन्द्रे इति शेषः, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतशैल्या,
एवमग्रेऽपि, कयुतः-सर्वार्थसिद्धनानो महाविमानानिर्गत इत्यर्थः, च्युत्वा गर्भ व्युत्क्रान्तः मरुदेवायाः कुक्षाववतीर्णSवानित्यर्थः १, जातो-गर्भवासान्निष्कान्तः २, राज्याभिषेकं प्राप्तः ३, मुण्डो भूत्वा-अगारं मुक्त्वा अनगारिता
साधुतां प्रत्रजितः प्राप्त इत्यर्थः, पञ्चमी चात्र क्यब्लोपजन्या ४, अनन्तं यावत् केवलज्ञानं समुत्पन्नं ५, यावत्पद
अनुक्रम [४४]
caeesesecece
ऋषभप्रभो: जन्मकल्यानकादि नक्षत्राणि
~313~
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३२]
दीप
अनुक्रम [४५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
संग्रहः पूर्ववत्, अभीविना युते चन्द्रे परिनिर्वृतः सिद्धिं गतः ६, ननु अस्मादेव विभागसूत्रबलादादिदेवस्य पटूकल्याणकी समापद्यमाना दुर्निवारेति चेत्, न तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्रा जीतमिति विधित्सवो युगपत् ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते, न ह्ययं पठकल्याणकत्वेन भवता निरूप्यमानो राज्याभिषेकस्ता| दृशस्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणकं, अनन्तरोकलक्षणायोगात्, न च तर्हि निरर्थकमस्य कल्याणकाधिकारे पठनमिति वाच्यं प्रथमतीर्थेशराज्याभिषेकस्य जीतमिति शक्रेण क्रियमाणस्य देवकार्यत्वलक्षण साधर्म्येण समाननक्षत्रजाततया च प्रसङ्गेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् तेन समाननक्षत्रजातत्वे सत्यपि कल्याणकत्वाभावेनानिय तवक्तव्यतया क्वचिद्राज्याभिषेकस्याकथनेऽपि न दोषः, अत एव दशाश्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययने पर्युषणाकल्पे श्रीभद्रना| हुखामिपादाः 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहा कोसलिए चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे होत्या," इति पच| कल्याणकनक्षत्रप्रतिपादकमेव सूत्रं वबन्धिरे, न तु राज्याभिषेकनक्षत्राभिधायकमपीति न च प्रस्तुतव्याख्यान स्थानागमिकत्वं भावनीयं, आचाराङ्गभावनाध्ययने श्रीवीर कल्याणकसूत्रस्यैवमेव व्याख्यातत्वात् । अथ | शरीरसम्पदं शरीरप्रमाणं च वर्णयन्नाह -
भगवतः
अथ ऋषभप्रभो: शरीरसंपद, शरीरप्रमाणं एवं निर्वाणगमनं वर्ण्यते
उसमे णं अरहा कोसलिए बज्जरसहनारायसंघयणे समचउरंसठाणसंठिए पंच धणुसवाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्या । उसमे णं अरहा Ati guaraसाई कुमारवासमझे वसित्ता तेवहिं पुवसयसहस्साई महारज्जवासमझे वसित्ता तेसी पुवसयसहरसाई
Fur Fate & Pune Cy
~314~
20১৬১৩2
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः
रवक्षस्कारे | संहननादि निर्वाणगमनंचम.३३
दीप
अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए, उसमे से भरहा एग वाससहस्स छउमस्थपरिभायं पाउणित्ता एगं पुषसयसहस्सं वाससहस्सूर्ण केवलिपरिआयं पाउणिता एगं पुखसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरिभायं पाउणिता चपरासीई पुखसयसहस्साई सघाउ पालदत्ता जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले, तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं दसदि अणगारसहस्सेहिं सद्धिं संपरिघुड़े अट्ठावयसेलसिहरंसि चोइसमेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलिअंकणिसण्ये पुषणहकालसमयसि अभीषणा णक्सत्तेण जोगमुवागएणं सुसमदूसमाए समाए एगूणणवउईईहिं पक्खेहिं सेसेहिं कालगए वीइकते जाव सबदुक्खपहीणे। जं समयं पपं उसमे अरहा कोसलिए कालगए वीइकते समुजाए छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे जाच सबदुक्खप्पहीणे तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलिए, तए णं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलिअं पासह पासित्ता मोहिं पजह २ ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोण्इ २त्ता एवं बयासी-परिणिन्दुए खलु जंबुरी वीने भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए, तं जीअमेअं तीअपाचुप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं तिस्थगराणं परिनिव्वाणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि गं आईपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाणमहिमं करेमित्तिकह बंदइ णमसइ २ चा चउरासीईए सामाजिअसाहस्सीहिं वायत्तीसाए तायत्तीसपहिं च उहि लोगपालेहिं जाव चाहिं चइरासीईहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि अ बहूर्हि सोहम्मकप्पवासीहि बेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरितुडे ताए उकिट्ठाए जाव तिरिअमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझमज्ञण अणेव अट्ठावयपव्वए जेणेव भगवभो तित्थगरस्स सरीरए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विमणे णिराणंदे असुपुण्णणयणे तित्थपरसरीरयं तिक्युत्तो आवाहिणं पयाहिणं करेइ २ चा पचासण्णे गाइदूरे सुस्सूसमाणे जाव पाजुवासह । तेणं कालेणं तेणं
अनुक्रम [४६]
18॥१५६॥
98292028003
JitennitiniaN
~315~
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप
समएणं ईसाणे देवि देवराया उत्तरद्धलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिबई सूलपाणी वसहवाहणे सुरिये अयरंबरवत्यधरे 'आव विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरद, तए णं तस्स ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ, तए णं से ईसाणे जाव देवराया आसणं चलिमें पासइ २ ता ओर्हि पउँजइ २ ता भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएइ २ ता जहा सके निगपरिवारेणं भाणेभब्वो जाब पज्जुवासइ, एवं सम्वे देविदा जाव भषुए णिअगपरिवारेणं आणेशव्या, एवं जाव भवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोण्णि निगपरिवारा अब्बा । तए णं सके देविंदे देवराया बहवे भवणवाइवाणमंतरजोइसवेमाणिए देवे एवं बयासी-खिपामेव भो देवाणुप्पिा ! गंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरह २ चा सो चिगाओ रएह-एगं भगवओ तित्थगरस्स एगं गणधराणं एवं अवसेसाणं अणगाराणं । तए णं ते भवणवइजाववेमाणिभा देवा गंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरंति २ चा तओ चिइगाओरएंति, एगं भगवओ तित्यगरस्स एगं गणहराणं एग अवसेसाणं अणगाराण, तए णं से सके देविने देवराया आभिओगे देवे सदावेद २ ता एवं वयासी-सिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! खीरोद्गसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह, तए ते आभिमोगा देवा खीरोदगसमुराओ खीरोदगं साहरति, तए णं से सके देविदे देवराया तित्थगरसरीरगं खीरोदगेणं ण्हाणेति २ ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिंपड २ सा हंसलक्खणं पडसायं जिसेइ २ ता सवालंकारविभूसि करेंति, वए ण ते भवणवइ जाव वेमाणिआ गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाइंपि स्त्रीरोदगेण व्हावंति २ चा सरसेणं गोसीसवरचंवणेणं अणुलिपति २ चा अहताई दिवाई देवदूसजुभलाई णिसंति १ चा सबालंकारविभूसिआई करें ति, तए णं से सके देविंदे देवराया ते बब्वे भवणबद जाव बेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो
अनुक्रम [४६]
eceneoecemerce
BEllennia l
a
mjimmitrinymy
~316~
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः
प्रत सूत्रांक [३३]
वक्षस्कारे ॥ संहननादि
नंचसू.३३
निर्वाणमम
॥१५७॥
दीप अनुक्रम [४६]
देवाणुप्पिणा ! हामिगरसभतुरयजावरणलयभत्तिचित्ताओ तओ सिवियाभो विउवा, एग भगवओ तित्थगरस्स एगं गणाराण एग अवसेसाणं अणगाराणं, तए णं ते बहवे भवणवइ जाव बेमाणिा तभो सिबिआओ विउचंति, एगं भगवओ तित्यगरस्स एगं गणहराणं एग अवसेसाणं अणगाराणं, तए णं से सके देविंद देवराया विमणे णिराणंदे असुपुण्णणयणे भगवओ तित्थगरस्स विणवजम्मजरामरणस्स सरीरगं सी आरुहेति ३ चिइगाए ठवेइ, नए ण ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिा देवा गणहराणं अणगाराण य विणहजम्मजरामरणाणं सरीरगाई सी आरुहेति २ ता चिहगाए ठवेंति, तए णं से सके देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! तित्थगरचिगाए जाव अणगारचिहगाए अगणिकार्य विउचह २ ता एअमापत्ति पञ्चप्पिणह, तर णं से अम्गिकुमारा देवा विमणा णिराणंदा असुपुण्णणयणा तित्यगरपिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगणिकार्य विउर्वति, तए णं से सके देविदे देवराया वाउकुमारे देवे सहावेइ २ चा एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ वाउकायं विउबद्द २ ता अगणिकार्य उजाळेद तित्थगरसरीरगं गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाई च झामेह, तए णं ते बाउकुमारा देवा विमणा णिराणंदा असुपुण्णणयणा तित्वगरचिइगाए जाव विजवंति अगणिकार्य उजाति तिरथगरसरीरगं जाव अणगारसरीरगाणि अ झाति, तए णं से सके देविदे देवराया ते बहवे भवणवह जाव वेमाणिए देवे एवं बयासी-खिप्पामेवभो देवाणुप्पिया! तित्वगरचिइगाए जाव अणगारचिहगाए भगुरुतुरुकापयमधुं च कुंभग्गसो अ भारग्गसो अ साहरह, तए णं ते भवणवा जाव तित्थगर जाव भारमासो अ साहरति, तए णं से सके देविदे देवराया मेहकुमारे देवे सहावेइ ३ ता एवं बयासी-खिपामेव भी देवाणुप्पिा ! तित्थगरचिइगं जाव अणगारचिइगं च खीरोद्गेणं
॥१५॥
~317~
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
assemenese
दीप
णिवावेछ, तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरचिइगं जाव णिवावेंति, तए णं से सके देविदे देवरावा भगवओ तित्वगरस्स उबरिलं दाहिणं सकहं गेहइ ईसाणे देविंदे देवराया उबरिल्लं वाम सकह गेण्हइ, चमरे असुरिंदे असुररावा हिहिलं दाहिणं सकह गेहइ बली बदरोअणिंदे वइरोअणराया हिहिलं वार्म सकहं गेहइ, अवसेसा भवणवइ जाव चेमाणिा देवा जहारिहं अवसेसाई अंगमंगाई, फेई जिणभत्तीए केई जीअमेअंतिफहु केइ धम्मोत्तिक? गेण्इंति, तए णं से सके देविंदे देवराया पहवे भवणवा जाव वेमाणिए देखें जहारिहं एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! सबरवणामए महामहालए तओ चेइअधूभे करेह, एर्ग भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए एगं गणहरचिगाए एग अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए, नए णं ते बहवे जाव करेंति, तएण ते वहवे भवणवइ जाव वेमाणिआ देवा तित्यगरस्स परिणिधाणमहिमं करेंति २ ता जेणेव नंदीसखरे दीवे तेणेव उवागच्छन्ति तए णं से सके देविंदे देवराया पुरच्छिमिल्ले अंजणगपवए अह्राहिमहामहिमं करेति,तए णं सकस्स देविदस्स० चत्वारि लोगपाला चउसु दहिमुहगपचएसु अवाहियं महामहिम करेंति, ईसाणे देविदे देवराया उत्तरिल्ले अंजणगे अट्टाहि तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहगेमु अट्टाहि चमरो अ दाहिणिले अंजणगे तस्स लोगपाला दहिमुहगपवएसु बली पनथिमिल्ले अंजणगे तस्स लोगपाला दहिमुहगेसु, तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतर जाब अढाहिआओ महामहिमाओ करेंति करिचा तेणेव साई २ विमाणाई जेणेव साइं २ भवणाई जेणेव साओ २ सभाओ सुहम्माओ जेणेव सगा २ माणवगा चेइअखंभा तेणेव उबागच्छंति २ ता पदरामएसु गोलवट्टसमुग्गएमु जिणसकहाओ पक्खिवंति २ अग्गेहिं वरेहि मल्लेहि अगंधेहि अ अति २ विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणा विहरंति ( सूत्र ३३)
अनुक्रम [४६]
~318~
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
या मृत्तिः
दीप
श्रीजम्यू'उसमे ण मिस्यादि कण्ठयं, अथ ऋषभस्य कौमारे राज्ये गृहित्वे च यावान कालः प्रागुक्तस्तं संग्रहरूपतयाऽभि-181
वक्षस्कारे द्वीपशा- धातुमाह-उसमे ण'मित्यादि, व्यक्तं । अथ छाद्मस्थ्यादिपर्यायाभिधानपुरस्सरं निर्वाणकल्याणकमाह-'उसमे ण'- संहननादि तिचन्द्री-15 मित्यादि, ऋषभोऽर्हन एक वर्षसहस्रं छद्मस्थपर्यायं प्राप्य पूरयित्वेत्यर्थः एक पूर्वलक्षं वर्षसहस्रोनं केवलिपर्यायं प्राप्य निर्वाणगम
एक पूर्वलक्षं बहुप्रतिपूर्ण देशेनापि न न्यूनमितियावत् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य चतुरशीतिं पूर्वलक्षाणि सर्वायुः पाल-नंच सू.३३ ॥१५८॥ |यित्वा-उपभुज्य हेमन्तानां-शीतकालमासानां मध्ये यस्तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षो माघबहुलो-माघमासकृष्णपक्षः
तस्य माघबहुलस्य त्रयोदशीपक्षे-त्रयोदशीदिने विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् दशभिरनगारमहरः सार्द्ध संपरिवृतः अष्टापदशैलशिखरे चतुर्दशेन भक्केन-उपवासषद्केनापानकेन-पानीयाहाररहितेन संपर्यङ्कनिषण्णः-सम्यक् पर्यःनपद्मासनेन निषण्णः-उपविष्टः, न तूचंदमादिरितिभावः, पूर्वाह्नकालसमये अभिजिन्नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाश्चन्द्रेण सुषमदुष्षमायां एकोननवत्यां पक्षेषु शेषेषु, अत्रापि विभक्तिव्यत्ययः पूर्ववत् प्राकृतत्वात्, सप्तम्यर्थे तृतीया, काल गतो-मरणधर्म प्राप्तः व्यतिक्रान्तः संसारात् यावच्छब्दात् 'समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणपंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते ।
अंतगडे परिणिबुडे' इति संग्रहः, तत्र सम्यग-अपुनरावृत्त्या ऊर्ध्व-लोकाग्रलक्षणं स्थानं यातः प्राप्तो न पुनः सुगता8 दिवदवतारी, यतस्तद्वचः-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः | sin॥" इति, छिन्नं जात्यादीनां बन्धन-बन्धनहेतुभूतं कर्म येन स तथा सिद्धो-निधितार्थः बुद्धो-ज्ञाततत्त्वः मुक्तो ||
अनुक्रम [४६]
~ 319~
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[33]
दीप
अनुक्रम [४६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Elemitinies
भवोपप्राहिकमांशेभ्यः अन्तकृत्सर्वदुःखानां परिनिर्वृतः समन्ताच्छीतीभूतः कर्मकृतसकलसन्तापविरहात् सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रहीणानि यस्य स तथा । अथ भगवति निर्वृते यद्देवकृत्यं तदाह- 'जं समयं च णमित्यादि, यस्मिन् समये सप्तम्यर्थे द्वितीया एवं तच्छब्दवाक्येऽपि, अवधिना ज्ञानेनाभोगयति-उपयुनक्ति, शेषं सुगमं, उपयुज्य एवमवादीत् किमित्याह - 'परिणिन्युए' इत्यादि, परिनिर्वृतः खलुरिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे ऋषभोऽर्हन् कौशलिकस्तत्-तस्माद्धेतोः जीतं कल्पः आचारः एतद् वक्ष्यमाणं वर्त्तते अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां - अतीतच - र्त्तमानानागतानां 'शक्राणां' आसन विशेषाधिष्ठातृणां देवानां मध्ये 'इन्द्राणां' परमैश्वर्ययुक्तानां देवानां देवेषु (बा) राज्ञांकान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाणमहिमां कर्तुं तद्गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य परिनिर्वाणमहिमां करोमीतिकृत्वा भगवन्तं निर्वृतं वन्दते- स्तुतिं करोति नमस्यति प्रणमति, यच्चे जीव
१ एवमुक्तविशेषणकदम्बकेन शक्रस्य भगवति तीतरागवत्त्वं धर्मनीतिज्ञत्वं च सूचितं नतु ज्ञानादिशून्यस्यापि तीर्थंकृच्छरीरस्य यदनादिपर्युपासनपर्यतं भणितं तच्छकप जीतमेव न पुनर्द्धर्मनीतिरिति चेत् मैवं स्थापनाजिनस्यापि वंदनादेर्धर्मनीतावनंतर्भावापत्तेः, इष्टापत्तिरेवेति चेत्, मैवं स्थापनाजिनाराधनस्याच्छित्रपरम्परागतलादागमसम्मतलात् बुक्तिक्षमलाय, तत्रागमस्तावत् 'कुकगणसंघचेइअट्टे निबरडी वेंगायचं अणिरिस दस विद्धं बहुविहं ना करे' इत्यादि बहुप्रतीत एव युधिस्तु प्रवचने यदाराध्यं तन्नामादिचतुर्द्धापि यथासंभवं विधिनाऽऽराप्यं तत्र ज्ञानादिमत्त्वमेकस्यैव भावजिनस्य, शेषाणि सामादीनि यान्येव तस्मादाराध्याने हानादिमत्त्वं न नियामकं, किंतु कालादिप्रसूतिदेतुखमेव तथा च मया वीर्यनाशीकरपरिहार्य तथा जिमप्रतिमादर्शनादपि एतच प्रतिमा प्रतिपक्ष
Furwale rely
~ 320~
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
वक्षस्कारे सहननादि निर्वाणगमनच मू.३३
श्रीजम्बू-18 रहितमपि तीर्थकरशरीरमिन्द्रवन्धं तदिन्द्रस्य सम्यग्दृष्टित्वेन नामस्थापनाद्रव्यभावार्हता वन्दनीयत्वेन श्रद्धानादिति द्वीपशा-18|| तत्त्वं, वंदित्वा नमस्थित्वा च किं चक्रे इत्याह-'चउरासीई'इत्यादि, चतुरशीत्या सामानिकानां प्रभुत्वमन्तरेण वपु
विभवद्यतिस्थित्यादिभिः शक्रतुल्यानां सहस्रः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैः-गुरुस्थानीयैर्देवैः चतुर्भिर्लोकपालैः-सोमयम-निवाण या वृत्तिः
वरुणकुबेरसंज्ञैः यावत्पदात् 'अहहिं अम्गमहिसीहि सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहि'ति, अत्र व्याख्या॥१५९।। अग्रमहिष्योऽष्टी पद्मा १ शिवा २ शची ३ अङ्क ४ अमला ५ अप्सरा ६ नवमिका ७ रोहिणी ९, एताभिः षोडश-|
सहस्र २ देवीपरिवारयुताभिः तिसृभिः पर्षद्भिः-बाह्यमध्याभ्यन्तररूपाभिः सप्तभिरनीकैहय १ गज २ रथ ३ सुभट ४वृषभ ५ गन्धर्व ६ नाव्य ७ रूपैः सप्तभिः अनीकाधिपतिभिः चतसृभिश्चतुरशीतिभिश्चतुर्दिशं प्रत्येकं चतुरशीति| सहस्राङ्गरक्षकसद्भावात् षट्त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयप्रमितैरङ्गरक्षकदेवसहस्रः अन्यैश्च बहुभिः सौधर्मकल्पवासिभिर्दे-18
दीप
अनुक्रम [४६]
aenera90909apoo0000000000
|| वापि सम्मतं, यतो नहीपालेश्यकपटक राष्ट्रा जयद्वीपस्यैव संस्थानादेः परिशानं न पुनर्पक्षादेः, एवं जिनप्रतिमादावपि भाष्य, मत एष समवसरणेऽहंदूपत्रयम
हत्परिक्षानहेतव एव मुरैविधीयत्त इति जैनप्रवने प्रतीतमेव, तथा च सिद्धं श्रीषभदेवशरीरकदर्शनमपि यावत्श्रीषभदेवव्यतिकरस्पतिपरिहानदेवः, तद्विषयं
वज्ञानं महानिर्जराहेतरित्यागमे प्रतीतं । किं च-तीर्थकृच्छरीरस्याचदिकं तीर्थकरविषयकपरमरागेणैव संभवति, अत एव भगवता तीर्थकृता दंष्ट्रा अपि प्रतिमा|| भिव शमादयः पूजयन्तीत्यत्रैवाये वक्ष्यते, नन तथाविध शारीर नामादिषु नान्तर्भवतीति कपमाराध्यामिति घेत, मैत्र, नोआगमतो शरीरमध्यकारीरतपतिदि॥जयतीर्थकरस्वेन हव्येऽन्तर्भावात, अतः शाकस्याप्याराध्यमिति शक्रेण पर्युपास्वमानमासीदिति । इति ही पत्ती
॥१५९॥
E
~321~
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप
वैर्देवीभिश्च सार्च संपरिवृतः तया-देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया-प्रशस्तविहायोगतिषूत्कृष्टतमत्वात् , यावत्पदान 'तुरि-18 | आए चवलाए चंडाए जयणाए उडुआए सिग्याए दिवाए देवगईए वीईवयमाणे 'त्ति, अत्र व्याख्या-त्वरितया मानसौत्सुक्यात् चपलया कायतः चण्डया क्रोधाविष्टयेव श्रमासंवेदनात् जवनया परमोत्कृष्टवेगवत्वात् , अत्र च समयप्रसिद्धाश्चण्डादिगतयो न ग्राह्याः, तासां प्रतिक्रम संख्यातयोजनप्रमाणक्षेत्रातिक्रमणात् , तेनैतानि पदानि देवग-18 तिविशेषणतया योज्यानि, देवास्तु तथाभवस्वभावादचिन्त्यसामर्थ्यतोऽत्यन्तशीघ्रा एव चलन्तीति, अन्यथा जिनज-18 न्मादिषु महिमानिमित्तं तत्रैव दिवसे झटित्येवात्यन्तदूरे कल्पादिभ्यः सुराः कथमागच्छेयुरिति, उद्धृतया उद्धृतस्य ? दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा तया, अत एव निरन्तरं शीघ्रत्वयोगाच्छीघया दिव्यया-देवोचितया देवगत्या 8 | व्यतित्रजन् २, सम्धमे द्विर्वचनं, तिर्यगसोयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यमध्येन-मध्यभागेन यत्रैवाष्टापदः पर्वतः यत्रैव |
भगवतस्तीर्थकरस्य शरीरकं तत्रैवोपागच्छति, अत्र सर्वत्रातीतनिर्देशे कर्तव्ये वर्तमान निर्देशखिकालभाविष्वपि तीर्थकरेग्वे|तच्यायप्रदर्शनार्थ इति,न हि निर्हेतुका अन्धकाराणां प्रवृत्तिरिति,उपागत्य च तत्र यत्करोति तदाह-उवागच्छित्ता' इत्यादि, उपागत्य विमना:-शोकाकुलमनाः अश्रुपूर्णनयनस्तीर्थकरशरीरकं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोतीति प्राग्वत,नाल्यासन्ने। नातिदूरे शुभूपन्निव तस्मिन्नप्यवसरे भक्त्याविष्टतया भगवद्ध चनश्नवणेच्छाया अनिवृत्तेः, यावत्पदात् 'णमंसमाणे अभि| मुहे विणएणं पंजलिउडे पजुवासइत्ति परिग्रहः, अत्र व्याख्या--नमस्यन् पश्चाङ्गप्रणामादिना अभि-भगवन्तं लक्षीकृत्य
अनुक्रम [४६]
Simillenniti
~322~
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
तिचन्द्री-181
| २वक्षस्कारे संहूननादि
प्रत सूत्रांक [३३]
celseseeee
दीप
श्रीजम्यू-1 मुखं यस्य स तथा विनयेन-आन्तरबहुमानेन प्राञ्जलिकृत इति माग्वत् पर्युपास्ते-सेवते इति, अथ द्वितीयेन्द्रवक्तव्यद्वीपशा- || वामाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, सर्व स्पष्टं, नवरं अरजांसि-निर्मलानि यान्यम्बरवस्त्राणि-स्वच्छतया आकाशकल्पानि ||
वसनानि तानि धरतीति यावत्करणात् 'आलइअमालमउडे णवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिजमाणगले महिद्धीए निर्वाणममया वृत्तिः
महजुईए महाबले महायसे महाणुभावे महासुक्खे भासुरबोंदीपलंबवणमालघरे ईसाणकप्पे ईसाणव.सए विमाणे सुह-नंच मू.३३ ॥१६॥ माए सभाए ईसाणंसि सिंहासणंसि से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं असीईए सामाणिअसाहस्सीणं तायत्ती-16
| साए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अहण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्ह परिसाणं सत्तण्हं अणीआणं सत्तण्हं ||
अणीआहिवईणं चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च ईसाणकप्पवासीणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टितं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणगीअवाइअतंतीतलताल-18 | तुडिअधणमुइंगपडपडहवाइअरवेणं' इति संग्रहः, सर्व स्पष्टं, नवरं आलगिती-यथास्थानं स्थापिती मालामुकुटौ | येन स तथा, नवाभ्यामिव हेममयाभ्यां चारुभ्यां चित्रकृयां चञ्चलाभ्यां-इतस्ततश्चलनयां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ 18 गल्ली यस्य स तथेति, 'तए ण'मित्यादि, यथा शक्रः सौधर्मेन्दो निजकपरिवारेण सह तथा भणितन्य ईशानेन्द्रः, यावत्पर्युपास्ते इत्यन्त पाच्य इत्यर्थः, 'एवं सर्वे' इत्यादि, एक-शम्यावेन सर्वे देवेन्द्रा वैमानिकाः अत एव पाच-18|| दच्युत इत्युचरसूत्रं संवदति, निजकपरिवारेण-आत्मीयमस्वीबसायानिकादिलियारेण सझवेतन्या-भगवरीरासिक
अनुक्रम [४६]
JinEleinitinental
~323~
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----..........-----
----- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
प्रापणीया मन्थवाचकेनेत्यर्थः, ग्रन्यापेक्षया वेदं सूत्र योजनीय, एवं वैमानिकप्रकारेण यावद् भवनवासिना-दक्षिणो-11 ISRरभवनपतीनामिन्द्रा विंशतिरित्यर्थः, अत्र यावच्छब्दो न गर्भगतसंग्रहसूचकः समाह्यपदाभावात्, किन्तु सजा-1
तीयभवनपतिसूचकः, वानमन्तराणां-व्यन्तराणां पोडशेन्द्रा:-कालादयः, ननु स्थानाङ्गादिषु द्वात्रिंशष्यन्तरेन्द्रा अभिहिताः, इह तु कथं षोडश', उच्यते, मूलभेदभूतास्तु षोडश महर्धिकाः कालादय उपात्ताः सदवान्तरभेदभूतास्तु षोडश अणपन्नीद्रादयोऽल्पर्चिकत्वात् नेह विवक्षिताः, अस्ति हि एपाऽपि सूत्रकृन्प्रवृत्तिििचत्रा यदन्यत्र प्रसिद्धा अपि भावाः कुतश्चिदाशयविशेषात् स्वसूत्रे सूत्रकारो न निवभाति, यथा प्रतिवासुदेवा अम्बत्रावश्यकनियुक्त्यादिषु उत्तमपुरुषत्वेन प्रसिद्धा अपि चतुर्थाश चतुष्पश्चाशत्तमसमवाये नोक्ताः "भरहेरवएसुण वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीए चउवण्णं चउवणं ( महापुरिसा) उपजिसु वा ३ तं०-चाबीसं तित्थयरा बारस चकवट्टी नव बलदेवा नव वासु-18 देवा" इति, परमुपलक्षणात् तेऽपि ग्राह्याः। ज्योतिष्काणां द्वौ चन्द्रौ सूर्यो, जात्याश्रयणात्, व्यक्त्या तु तेऽसङ्ग्याता:, | निजकपरिवारा:-सहवर्त्तिवपरिकराः नेतन्याः । ततः शक्रः किं करोतीत्याह-'तए 'मित्यादि, ततः शक्रो । देवन्द्रो देवराजः तान् बहून् भवनपत्यादीन् देवान् एचमवादीत्-क्षिप्रमेव-निर्विलम्बमेव भो देवानां प्रिंया 1-18 देवान-स्वामिनोऽनुकूलाचरणेन अनुप्रीष्णन्ति इति देवानुभियाः नन्दनवनात् सरसनि स्निग्धानि जतु रूक्षाणि मोशीर्ष गोशीर्षचयना वरचन्दवं वस्या काग्रचि हरव-पापयत संहत्य चविसःचितीः कारवन-पका अपववस्तीर्थ
दीप अनुक्रम [४६]
~324 ~
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू-
प्रत
द्वीपशान्तिचन्द्री
सूत्रांक
या वृत्तिः
[३३]
॥१६॥
दीप
करस्य एकां गणधराणां एकामवशेषाणामनगाराणामिति । 'तए ण'मित्यादि, स्पष्ट, अनार्य आवश्यफवृत्त्याधु-18 वक्षस्कारे कश्चितारचनदिग्विभागः-नन्दनवनानीतचन्दनदारुभिर्भगवतः प्राच्या वृत्तां चितां गणधराणामपाच्या व्यनां शेषसा- संहननादि घूनां प्रतीच्या चतुरस्रां सुराश्चक्रुरिति, नन्यावश्यकादाविश्वाकूणां द्वितीया चितोक्ता इह तु गणधराणां कथमिति,
28 निवाणगम| उच्यते, अन प्रधानतया गणधराणामुपादानेऽप्युपलक्षणाद् गणधरमभृतीनामियाकूणां द्वितीया चिता ज्ञेयेति न नच काऽप्याशङ्का, ततश्चितारचनानन्तरं शक्रः किं करोतीत्याह-तए णमित्यादि, स्पष्ट, ततः क्षीरोदकसंहरणानन्तरं स शक्रः किं करोतीति दर्शयति-तए ण'मित्यादि, ततः शक्रस्तीर्थकरशरीरकं क्षीरोदकेन नपयति स्नपयित्वा गोशीर्षवर|चन्दनेनानुलिम्पति अनुलिप्य हंसलक्षणो हंसविशदत्वात् शाटको-वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पट्ट इत्यभिधीयते ते 18 हंसनामक पटशाटकं निवासयति, परिधापयतीत्यर्थः, परिधाप्य च सर्वालङ्कारविभूषितं करोति, 'तए ण'मित्यादि, | ततस्ते भवनपत्यादयो देवा गणधराणामनगाराणां च शरीराणि तथैव चक्रुः, अहतानि-अखण्डितानि दिव्यानि-18 वर्याणि देवदूष्ययुगलानि निवासयन्ति, शेष व्यक्तं, 'तए 'मित्यादि, ततः शको भवनपत्यादीनेवमवादीत-क्षिप्रमेव | भो देवानुप्रिया ! ईहामृगादिभक्तिचित्रास्तिस्रः शिविका विकुर्वत, विकुर्व इति सौत्रो धातुस्तस्माद्रूपसिद्धिः, शेष 1 | स्पष्टं, 'तए ण'मित्यादि, ततः शक्रो भगवच्छरीरं शिविकायामारोहयति महर्या च चितिकास्थाने नीत्वा चिति-18|| कायां स्थापयति शेष स्पष्ट, 'तए णमित्यादि, ततः स शक्रोऽग्निकुमारान् देवान् शब्दयति-आमन्त्रयति ।
अनुक्रम [४६]
12॥१६॥
~325~
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
Decemen
दीप
शब्दापयित्वा एवमवादीत्-भो अग्निकुमारा ! देवास्तीर्थकरचितिकायां गणधरचितिकायामनगारचितिकायां चाग्निकार्य विकुर्वत विकुर्वित्था एतामाज्ञप्तिका-आज्ञा प्रत्यर्पयत, शेष व्यक्तं, 'तए णं अग्गिकुमारा देवा' इत्यादि, व्याख्या
तप्रायमेव, 'तए णं से सके इत्यादि, एतत्सूत्रद्वयमपि व्यक्तं, उज्ज्वालयत-दीपयत तीर्थकरशरीरकं यावदनगारशरी-18 ॥ रकाणि च ध्मापयत-स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत, अग्निसंस्कृतानि कुरुतेति, 'तए ण' मिसादि, ततः स शको |भवनपत्यादिदेवानेवमवादीत्-भो देवानुप्रियास्तीर्थकरचितिकायां यावदनगारचितिकायां च अगुरुं तुरुक-सिल्हकं | घृतं मधु च एतानि द्रव्याणि कुम्भारश:-अनेककुम्भपरिमाणानि भारामश:-अनेकविंशतितुलापरिमाणानि अथवा Si पुरुषोत्क्षेपणीयो भारः सोऽयं-परिमाणं येषां ते भारानाः ते बहुशो भारामशः संहरतेति प्राग्वत् , अथ मांसादिषु |मापितेषु अस्थिष्ववशिष्टेषु शकः किं चक्रे इत्याह-तए णमित्यादि, स्पष्ट, नवरं क्षीरोदकेन-क्षीरसमुद्रानीतजलेन | निर्वापयत, विध्यापयतेत्यर्थः, अथास्थिवक्तव्यतामाह--'तए णमित्यादि, ततश्चितिकानिर्वापणादनु भगवतस्तीर्थ
करस्योपरितनं दक्षिणं सक्थि दाढामित्यर्थः शक्रो गृह्णाति ऊर्ध्वलोकवासित्वात् दक्षिणलोकार्दाधिपत्वाच्च, ईशा| मयं भावः-जिनदंष्टादिकं जिन इचारामं, जिनसंविवस्तुलात, जिनप्रतिमावत् जिनस्थापिततीर्थबहा, तथा व येषां जिनभक्तिस्तेषामेव तत्संबंधिदंष्ट्रा| दो भक्तिः, अन्यथा तथा भक्तरसंभयात, न शामित्रस्याकृति दृष्ट्वा नामादि च शुला मोदमानतद्भक्ति वा कुर्वाणः कोऽपि केनापि यः श्रुतो बा,तेन दंष्ट्राविभक्तिजिंनभक्तिरेय, ननु जिनप्रतिमायाखावबिनाकृतिमत्त्वेन जिनस्पतिहेतुखान् तीर्थस्य पशीर्थकरस्थापितलात् सर्वगुणानामाश्रयलान, तीर्थकृतोऽपि नमस्करणी-18
eroeaa80880
अनुक्रम [४६]
~ 326~
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
S| संहननादि
प्रत सूत्रांक [३३]
या वृचिः
श्रीजम्बू- नेन्द्रः उपरितनं वाम, ऊर्ध्वलोकवासित्वात् उत्तरलोकार्बाधिपतित्वाच, चमरश्चासुरेन्द्रोऽसुरराजोऽधस्तनं दक्षिणं वक्षस्कारे द्वीपशा-1| सक्थि गृह्णाति, अधोलोकवासित्वात् दक्षिणश्रेणिपतित्वाच्च, वलिः दाक्षिणत्यासुरेभ्यः सकाशाद् वि इति विशिष्टं | न्तिचन्द्री
निर्वाणगमरोचनं-दीपनं दीप्तिरितियावत् येषामस्ति ते वैरोचनाः , स्वार्थेऽण, ओदीच्यासुराः, दाक्षिणात्येभ्यः औत्तराहाणा
नंच मू.३३ मधिकपुण्यप्रकृतिकत्वात् , तेषामिन्द्रः, एवं वैरोचनराजोऽपि अधस्तनं वामं सक्थि गृह्णाति, अधोलोकवासित्वात् । ॥१६२॥ उत्तरश्रेण्यधिपत्वाच, अवशेषा भवनपतयो यावत्करणात् व्यन्तरा ज्योतिष्काच ग्राह्याः, वैमानिका देवा यथाई
यथामहर्द्धिकं अवशेषाणि अङ्गानि-भुजाधस्थीनि उपाङ्गानि-अङ्गसमीपवर्तीनि अङ्गुल्याद्यस्थी/ने गृह्णन्तीति योगः, अयं भावः-सनत्कुमाराद्यष्टाविंशतिरिन्द्रा अवशिष्टानष्टाविंशतिदन्तान अन्येऽवशिष्टा इन्द्रा अङ्गोपाङ्गास्थीनीति, || ननु देवानां तहणे क आशय इत्याह-केचिजिनमत्या जिने निर्वृते जिनसक्थि जिनवदाराध्यमिति, केचिजीत
दीप
अनुक्रम [४६]
aeraeeeeeeeeeries
॥१६२।।
यलाचं युक्तमेवाराधनं, पगला जिनाराधनसादेव, पर दंष्ट्राचाराधनं कर्ष जिनमकिरति चेत्, नभ्यते, यथैकमेव हरिवंशकुलं इदं श्रीनेमिनाथकुलभियादिकपेण श्रीनेमिनाथोपलक्षितं महाफलं भवति, न तयेदं श्रीकृष्णवामदेवकुलमित्यादिना कृष्णवासुदेवोपलक्षितमपि, एवं दंष्ट्रापि श्रीऋषभदेवसंबंधिनीत्यादि तीर्थकरनामोपल-1 [क्षिता श्रवणपचमवतीर्णापि महाफलहेतुः किमंग पुनः तत्पूजनादिकमपि !, कि च-प्रतिमाखावतीर्थकरस्साकृतिमात्रमेव न पुनः शरीरं तदवयनो बा, दंष्ट्रातु | साक्षाच्छरीरावसन एव, इयं इष्ट्रिा श्रीऋषभदेवसंबंधिनीत्येवंरूपेण खयं सिमाना भूयमाणा का महानिरादेवरिधिकृत्वा खयमेच सम्यग् विचारयवो नाशंकासम्बोअपि न केयाचित् सभ्यता तस्म्याक्लिाहम पूजनं कजिनभक्त्वैकेति विद्याम् विपत्ती
XU
~327~
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----.............---
----- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
मिति पुरातनैरिदमाचीर्णमित्यस्माभिरपीदे कर्त्तव्यमिति, केचिद्धर्म:-पुण्यमितिकृत्वा, अत्र ग्रन्थान्तरप्रसिद्धोऽयमपि
हेतु:- पूति अ पइदिअहं अह कोइ पराभवं जा करेजा। तो पक्खालिअ ताओ सलिलेण फरेंति नियरक्खं ॥१॥18 SIrपजयन्ति च प्रतिदिवस अथ कोऽपि पराभव यदि कुर्यात् । तहि प्रक्षाल्य तानि सलिलेन कुर्वन्ति निजरक्षाम् ॥१॥]
सौधर्मेन्द्रेशानेन्द्रयोः परस्परं सवैरयोस्तच्छटादानेन वैरोपशमोऽपि इत्यादिको ज्ञेयः, तथा 'व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः' अतो विद्याधरनराश्चिताभस्म शेषामिव गृह्णन्ति, सर्वोपद्वविद्रावणमितिकृत्वा, आस्तां त्रिजगदाराध्यानां तीर्थकृता, योगभृचक्रवर्तिनामपि देवाः सक्थिग्रहणं कुर्वन्तीति ॥अथ तन्त्र विद्याधरादिभिरहपूर्विकया भस्मनि गृहीते | अखातायामेव गर्गयां जातायां मा भूत्तत्र पामरजनकृताशातनाप्रसङ्गः सातत्येन तीर्थप्रवृत्तिश्च भूयादिति स्तूपविघिमाह-तए ण'मित्यादि, सर्व स्पष्टं, नवरं सर्वात्मना रत्नमयान्-अन्तर्बहिरपि रत्नखचितान् महातिमहत:अतिविस्तीर्णान् , आलप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतप्रभवः, त्रीन् चैत्यस्तूपान् चैत्याः-चित्ताल्हादकाः स्तूपाश्चैत्यस्तूपा-18 स्तान् कुरुत चितात्रयक्षितिष्वित्यर्थः, आज्ञाकरणसूत्रे ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवास्तथैव कुर्वन्ति, ननु यथाऽऽज्ञाकरणसूत्रे यावत्करणेन सूत्रकृतो लाघवसूचा तथा पूर्वसूत्रेऽपि कथं न लाघवचिन्ता कृता ?, उच्यते, विचित्रत्वात् सूत्रप्रवृत्तेरिति, 'तए ण'मित्यादि, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवास्तेषु स्तूपेषु यथोचितं तीर्थकरस्य परि-18 निर्वाणमहिमां कुर्वन्ति, कृत्वा च यत्रैवाकाशखण्डे नन्दीश्वरवरो द्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, ततः स शक्रः पौरस्त्ये अञ्ज-18
SOOGU09398eeeeeeeeeee
दीप
अनुक्रम [४६]
बीजम्, २८18
~328~
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३]
दीप
श्रीजम्प- नकपर्वते अष्टाहिका-अष्टानामहां-दिवसानां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति पखां महिमायां सा अष्टाहिका तां महामहिमा
मटाहका ता महामाहमा २वक्षस्कार द्वीपशा-1 करोति ततः शक्रस्य चत्वारो लोकपालाः सोमयमघरुणवैश्रमणनामानस्सत्पावसिषु चतुर्यु दधिमुखपर्वतेषु अष्टा-1 संहननाति म्तिचन्द्री
हिको महामहिमां कुर्वन्ति, नन्वत्र नन्दीश्वरवरादिशब्दानां कोऽन्धर्व इति', उच्यते, नन्द्या-पर्वतपुष्करिणीप्रमुख-निवाणगमया वृत्तिः
पदार्थसार्थसमझतात्यजतसमृज्या ईश्वर:-स्फातिमानन्दीश्वरः स एव मनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरसिद्धायतनादिसनावेन नच. २२ ॥१६॥
बरो नन्दीश्वरवरा,तथा अञ्जनरलमयत्वादजनास्ततः स्वार्थे कप्रत्ययः यद्वा कृष्णवर्णत्वेनाञ्जनतुल्या इत्यञ्जनकाः,उपमाने
प्रत्यया तथा दधिवदुज्वलवर्ण मुख-शिखरं रजतमयत्वाद् येषां ते तथा,पहुव्रीही कप्रत्ययः,अधेशानेन्द्रस्य नन्दीश्वरा-18
यतारवक्तव्यतामाह-ईसाण'त्ति इंशानो देवेन्द्र ओत्तराहे अञ्जनके अष्टाहिकां तस्य लोकपाला औत्तराहाजनकपरिवार-18 18|| केषु चतुर्ष दधिमुखकेषु अष्टाहिका, चमरश्च दाक्षिणात्येऽजनके तस्य लोकपाला दधिमुखकपर्वतेषु बलीन्द्रः पाश्चात्येs-18
जनके तस्य लोकपाला दधिमुखकेषु, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा अष्टाहिकाः महामहिमा-महोत्सवभूताः कुर्व|न्तीति, बहुवचनं चात्राष्टाहिकानां सौधर्मेन्द्रादिभिः पृथक् २ क्रियमाणत्वात् , 'करित्ता इत्यादि अथाष्टाहिका महामहिमाः कृत्वा यत्रैव लोकदेशे स्वानि २-स्वसम्बन्धीनिर विमानानि यत्रैव स्वानिए भवनानि-निवासप्रासादाः यत्रैव स्वाः ॥१६३॥ २ सभाः-सुधर्माः यत्रैव स्वकाः २-स्वसम्बन्धिनो २ माणवकनामानश्चैत्यस्तम्भाश्चैत्यशब्दार्थः प्राग्वत् तत्रैवोपागच्छन्ति | उपागत्य च वज्रमयेषु गोलकेषु समुद्केषु-वृत्तभाजनविशेषेषु जिनसक्थीनि प्रक्षिपन्तीति, सक्थिपदमुपलक्षणपरं तेन
अनुक्रम [४६]
~ 329~
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
DeceaeeResese
दशनाद्यपि यथार्ह प्रक्षिपन्तीति, अत्र असिाधर्मकथासोक्तमल्लिनाथनिर्वाणमहिमाधिकारगतसूत्रवृत्त्यनुसारेण माणव-18 कस्तम्भावृत्तसमुद्गकानवतार्य सिंहासने निवेश्य तन्मध्येवर्तीनि जिनसक्थीन्यपूपुजन् , वृषभजिनसक्थि प तत्र! प्राक्षिपन्निति ज्ञेयं, प्रक्षिप्य अप्रै-प्रखरमौल्येच गन्धश्चायन्ति, अर्चयित्वा च विपुलान-भोगोचितान् भोगान भुजाना विहरन्ति-आसत इति, अत्राह परन्ननु चारित्रादिगुणविकलस्य भगवच्छरीरस्य पूजनादिकं पूर्वमपि ममान्तप्रणमिव बाधते, तदनु इदं जिनसक्थ्वादिपूजन "बसे क्षार इच' सुतरां बाधते, मैवं वादी, नामस्थापनाद्रव्यजिनानां भावजिनस्खेव वन्दनीयत्वात् , तदा भगवच्छरौरवं च धजिनरूपत्वात् , सक्थ्यादीनां च तदवयवत्वाद् भावजि-1 नादभेदेन वन्दनीयत्वमेव, अन्यथा गर्भतयोस्पसमात्रस्य भगवतः समणे भगवं महावीरे' इत्याद्यभिलापेन सूत्रकृता सूत्ररचना शकाणी शकस्तवपयोगमादिक नोचितीमदिति, अत एव जिनसक्थ्याधोशातनाभीरवो हि देवास्तत्र कामांसेषनादौ न प्रवर्तन्ते, इति गतवतीकारः। अब चतुर्थारकस्वरूपं निरूप्यते
से में समाए र सागसmraatee मत प्रणपहि संदिप भाव पर्णतेहि अट्टाणकम्म जाव परिहासाचे त्य समmm
ससपास 49 साए मरहस्स पासस्स कैरिसव गारमा kisatanाने
प र नियुक्तरेव का भाव मची िस्वतो.
दीप
अनुक्रम [४६]
B
ANGAL.
30AHARASHTRAHMAN..
Sinileonitemato
अथ चतुर्थ-पञ्च-षष्ठं आरकस्य स्वरुपम् कथ्यते
~330~
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
श्रीजम्बद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१६॥
वक्षस्कारे चतुर्थपञ्चमषष्ठारकाः म.३४-३५
नेसि मणुआणं छविहे संघयणे छबिहे संठाणे बहूई धणूई उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णेणं अतोबहुत उकोसेणं पुवकोबीआउभं पालेति २ त्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव देवगामी अप्पेगइया सिझंति बुझति जाव सावदुक्खाणमंतं करेंति, तीसे समाए तओ वंसा समुपजित्था, ' तंजहा-अरहंतवंसे चकवट्टिवंसे इसारवंसे, तीसे णं समाए तेवीस तिजायरा इकारस चकवट्टी णव बलदेवा णव वासुदेवा समुष्पज्जित्था । (सूत्र ३४) तीसे गं समाए एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए वायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइकते अणंतेहिं वणपनवेहिं तहेव जाव परिहाणीए परिहायमाणे २ एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो, तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ !, गोअमा ! बहुसमरमणिो भूमिभागे भविस्सइ से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव, तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स मणुआणं केरिसए आयारभावपद्धोयारे पण्णत्ते !, गो० तेसि मणुआणं छविहे संघयणे छबिहे संठाणे बहुइओ रयणीओ उर्दू उच्चत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आच पालेंति २ ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव सबदुक्खाणमंतं करेंति, तीसे णं समाए पचिंद्रमे विभागे गणधम्मे पासंडधम्मे रायधम्मे जायतेए धम्मचरणे अ वोच्छिजिस्सइ । (सूत्र३५) तीसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइकते अणतेहिं वण्णपजवेहिं गंधरस०फासपज्जवेहिं जाव परिहायमाणे २ एत्य णं दूसमदूसमाणामं समाकाले पडिवजिस्सइ समणाउसो1, तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकहपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ !, गोमा ! काले भविस्सई हाहाभूए भंभाभूए कोलाइलभूए समाणुभावेण य खरफरुसंधूलिमइला दुधिसहा वाउला भयंकरा य वाया संबट्टगा य वाईति, इह अभिक्खणं २ धूमाहिति अ दिसा समंता
eese deceaesesesea
दीप अनुक्रम [४७-४९]
॥१६॥
Jimillennition
jammtartey
~331~
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
रतस्सला रेणुकलुसतमपडलणिरालोमा समयलुक्खयाए णं अहिभं चंदा सी मोच्छिहिंति अहि सूरिभा तविसति, अदुत्तरं चणं गोभमा ! अभिक्खणं अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा खत्तमेहा अम्गिमेहा विजुमेहा विसमेहा अजवणिमोदगा पाहिरोगवेदणोदीरणपरिणामसलिला अमणुण्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वासिहिति, जेणं भरहे वासे गामागरणगरखेडकबडमदंबदोणमुहपट्टणासमगयं जणवयं चउप्पयगवेलए सहयरें पक्खिसंघे गामारण्णप्पवारणिरए तसे अ पाणे बटुप्पयारे रुक्सगुच्छगुम्मलयवलिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्धंसेहिंति पचयगिरिडोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअगिरिवजे विरावहिति, सलिलविलविसमगत्तणिण्णुष्णयाणि अगंगासिंधुबजाई समीकरोहिंति, तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ, गोयमा! भूमी भविस्सइ इंगालभूभा मुग्गुरभूमा छारिमभूभा तत्तकबेलुअभूभा तत्तलमजोहभूआ धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणयबहुला चलणिबहुला बहूर्ण धरणिगोभराणं सत्ताणं दुनिकमा यावि भविस्सई । तीसे ण भंते ! समाए भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपटोआरे भविस्सइ!, गोयमा ! मणुभा भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुगंधा दुरसा दुफासा मणिहा अकंवा अप्पिा असुभा अमणुना भमणामा हीणस्सरा दीणस्सरा अणिहस्सरा अर्कतस्सरा अपिअस्सरा अमणामस्सरा अमणुण्णस्सरा अणादेज्जवयणपञ्चायाता जिल्ला कूडकवडकलहपंधवेरनिरया मजायातिकमप्पहाणा अकजणिकचुजुया गुरुणिभोगविणयरहिआ य विकलरूवा परूढणहकेसमंसुरोमा काला सरफरुससमावण्णा फुसिरा कविलपलिअकेसाबरण्डारुणिसंपिणदुरंसमिजरूवा संकुडिअवलीतरंगपरिवेढिअंगमंगा जरापरिणयब थेरगणरा पविरलपरिसडिअदंतसेढी उन्मउघडमुद्दा विसमणयणवंकणासा बंकवली विगयभेसणमुद्दा दुहुविकिटिभसिन्भफुडिअफसच्छवी चित्तलंगभंगा कच्छूखसरामिभूभा
aeseroes
~332 ~
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१६५॥
२वक्षस्कारे चतुर्थपञ्च| मषष्ठारकाः
दीप अनुक्रम [४७-४९]
खरतिक्षणक्सकंदरअविकवर्तणू टोलगतिविसमसंविधणा नाहअहिनषिमतदुव्बलकुसंघयणकुप्पमणिकुसठिया सुरुवा कुहाणासणकुसेजकुमोक्षणो असुइणो अणेगवाहिपीलिअंगमंगा खलंतविम्भलगई णिच्छाहा सत्तपरिवनिता विगयट्ठा महत्ता अमिक्खणं सीधहसरफरसवायविज्झडिअमलिणपसुरोपेडिअंगमंगा बहुकोरिमाणमायालोमा बहुमोहा असुमदुक्समागी ओसणं धम्मसण्णसम्मतपरिमहा कोसेणं रणिप्पमाणमेत्ता सोलसवीसइयासपरमाउसो गहुपुत्तर्णसुपरियालपणयबाहुला गंगासिंधूलो महागईमो वेभहुंच पाय नीसाए बापतरि णिगोंगवी पीजमत्ता बिलवासिणो मणुभामविस्संति, सेण भंते ! मणुभा किमाहारिस्संति !, गोमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगासिंधूओ महाणईमो रहपहामिवित्थराओ अक्ससोभनमाणमेतं जलमोजिसहिति, सेविक्षणं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव गं आउबहुले भविस्सइ, तए ण ते मणुआ सूरुग्गमणमुपति म सूरत्यमणमुहुर्तसि अ विलहितो णिद्वाइस्सति विले. त्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहे हिंति मच्छकच्छभे थलाई गहिता सीआतवनमार मच्छकच्छमेहि इकायीसं पाससहस्साई वित्ति कप्पेसाणा विहरिस्सति । तेणं भंते ! मणुआ णिस्सीला णिवया णिग्गुणा णिम्मेरा णिप्पणखाणपोसहोववासा ओसणे मंसाहारा मच्छाहारा खुड्डाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति',गो० ओसणं णरगतिरिक्खजोणिपंसुं उववणिहिति । तीसे ण भंते ! समाए सीहा बग्धा विगा दीविआ अच्छा तरस्सा परस्सर सरमसियालविरालसुणगा कोलसुणगा ससगा चित्तंगा चिलगा ओसणं मंसाहारा मच्छाहास खोदाहारा कुणिमाहारा कालानि कालं किचा कहिं गरिदिति कहि उपजिहिंति !, गो.1 ओसण्ण णरगतिरिक्खजीणि सुं० उववजिहिति, ते भंते 1 का पीलगा मग्गुगा सिही ओसणं मंसाहारा जाब काहिं गपिछहिति कादि उवजिहिंति !, गोमा ! ओसण्यं शरगतिरिक्सजोणिए जाप उपवजिदिति (सूत्र ३६)
eserceneraceaesesecessocceste
18 ॥१६॥
Jimillennitine
Jio
~333~
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
Reaceaeeeeeeeeepe
दीप अनुक्रम [४७-४९]
| तीसे म' मित्यादि, संस्खा अनन्तरवर्णितायां समाया द्वाभ्यां सागरकोटाकोटीभ्यां-ढे सागरोपमकोटाकोटी इत्येवं प्रकारेण काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैस्तथैव द्वितीयारकप्रतिपत्तिक्रमवद्ज्ञेयं यावदनन्तरुत्थानबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमैरनन्तगुणपरिहाण्या हीयमानो हीयमानोऽत्रान्तरे दुष्षमसुषमा नाम्ना सभा-कालःप्रत्यपद्यत हे श्रमण! हे आयुष्मन्!, IS अथ पूर्वारकवद्भरतस्वरूपं प्रष्टुमसह-तीसे णमित्यादि, अथ तत्र मनुष्यस्वरूपप्रश्नमाह-तीसे ग'मित्यादि, इदं च सूत्रद्वयमपि प्रायः पूर्वसूत्रसदृशगमकत्वात् सुगर्म, नवरं जघन्येनान्तर्मुहुर्तमायुस्तत्कालीनमनुष्या उत्कृष्टं पूर्वको-18 |टिमायुः पालयन्ति, पालयित्वा च पञ्चस्वपि गतिवतिधीभवन्ति, अथ पूर्वसमाप्तौ विशेषमाह-तीसे ण' मित्यादि.
तस्यां समायां त्रयो वंशा इव वंशाः-प्रवाहाः आवलिका इत्येकार्थाः न तु सन्तानरूपाः परम्पराः, परस्परं पितृपुत्र|पोचमपीत्रादिव्यवहाराभावात्, समुदपद्यन्त, तद्यथा-अहवंशः चक्रवर्तिवंशः दशार्हाणां-बलदेववासुदेवानां वंशः। । यदत्रं दशारशब्देन द्वयोः कवनं तदुत्तरसूत्रबलादेव, अन्यथा दशाहंशब्देन वासुदेवा एवं प्रतिपाद्या भवन्ति, 'अहयं
च दसाराण मिति वचनात्, यत्त प्रतिवासुदेववंशो नोक्तस्तत्र प्रायोऽङ्गानुयायीन्युपाडानीति स्थानाङ्गे वंशत्रयस्यैव] प्ररूपणात्, येन हेतुना तत्रैवं निर्देशस्तत्रायं वृद्धाम्नाय:-अतिवासुदेवानां वासुदेववध्यत्वेन पुरुषोत्तमत्वाविवक्षणात्, एनमेवार्थ व्यनक्ति-तस्यां समायां योविंशतिस्तीर्थकराः एकादश चक्रवर्तिनः अपभभरतयोस्तृतीयारके भवनात् नव बलदेवा नव वासुदेवाः ज्येष्ठबन्धुत्वात् प्रथम बलदेवग्रहणं उपलक्षणात् प्रतिवासुदेववंशोऽपि ग्राह्यः, समुद
Jintillecommiting
~334~
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
श्रीजम्य- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१६॥
a
दीप अनुक्रम [४७-४९]
पद्यन्त, गतश्चतुर्थोऽरका, अथ पञ्चमः-'तीसे 'मित्यादि, तस्या समायां एकया सागरोपमकोटाकोठ्या द्विच-1 वक्षस्कारे त्वारिंशद्वर्षसहरूनितया-नीभूतया, अनयैव प्रत्येकमेकविंशतिसहनवर्षप्रमाणयोः पञ्चमषष्ठारकयोः पूरणात्, काले चतुर्थपश्चव्यतिक्रान्तेऽनन्तैर्वर्णादिपर्यवैस्तथैव यावत् परिहाण्या परिहीयमाणा २, अत्र समये दुष्पमानाम्ना समा-कालः प्रति-मषष्ठारकाः पत्स्यते वक्तरपेक्षया भविष्यकालप्रयोगः, अथात्र भरतस्य स्वरूपं पृच्छन्नाह-तीसे णं भंते! समाए भरह'इत्यादि
सू.३४-३५ | सर्व प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं भविष्यतीति प्रयोगः पृच्छकापेक्षया, अत्र भूमेहुसमरमणीयत्वादिक चतुर्थारकतो हीय-1
मानं २ नितरां हीनं ज्ञातव्यं, ननु 'खाणुबहुले कण्टकबहुले विसमबहुले' इत्यादिनाऽधस्तनसूत्रेण लोकमसिद्धेन च || विरुध्यते, मैवं अविचारितचतुरं चिन्तयेः, यतोऽत्र बहुलशब्देन स्थाण्कादिवाहुल्यं चिन्तितं, न च षष्ठारक इका-18 |न्तिकत्वं, तेन च क्वचिद् गङ्गातटादी आरामादौ वैताब्यगिरिनिकुञ्जादौ वा बहुसमरमणीयत्वादिकमुपलभ्यत एवेति न || | विरोधः, अथ तत्र मनुजस्वरूपं प्रष्टुकाम आह-तीसे णमित्यादि, पूर्व ब्याख्यातार्थमेतत् , नवरं बढयो रक्षयोहस्ताः सप्तहस्तोच्यत्वात् तेषां, यद्यपि नामकोशे बद्धमुष्टिको हस्तो रनिरुक्तस्तथापि समयपरिभाषया पूर्ण इति, ते मनुजा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षेण सातिरेके त्रिंशदधिकं वर्षशतमायुः पालयन्ति, अप्येकका नैरयिकगतिगामिनः
॥१६६॥ यावत् सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, अत्र चान्तक्रिया चतुर्थारकजातपुरुषजातमपेक्ष्य तस्यैव पञ्चमसमायां सिद्ध्यमा-18 नत्वाजम्बूस्वामिन इव, न च संहरणं प्रतीत्येदं भावनीयम्, तथा च सति प्रथमषष्ठारकादावपि एतत्सूत्रपाठ उपलभ्येत
mmstoney
~335~
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
--- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
एवेति, आह-अत्र पालयन्ति अन्तं कुर्वन्ति इत्यादौ भविष्यत्कालप्रयोगे कथं वर्तमाननिर्देशः?, उच्यते, सर्वास्वष्यवसर्पिणीषु पञ्चमसमासु इदमेव स्वरूपमिति नित्यप्रवृत्तवर्तमानकाले वर्तमानप्रयोगः, यथा द्वे सागरोपमे शको राज्य कुरुते इत्यादौ, तर्हि दुःपमासमा कालः प्रतिपत्स्यते इत्यादिप्रयोगः कथमिति चेत्, उच्यते, प्रज्ञापकपुरुषापेक्षयैतत्प्रयोगस्यापि साधुत्वात्, पुनरपि तस्यां किं किं वृचमित्याह-तीसे ण'मित्यादि, तस्या दुष्पमानाच्याः समायाः पश्चिमे त्रिभागे वर्षसहस्रसप्तकप्रमाणेऽतिक्रामति सति न तु अवशिष्टे तथा सति एकविंशतिसहस्रवर्षप्रमाणश्रीवीर-15 तीर्थस्यान्युच्छित्तिकालस्यापूर्तेः गणः-समुदायो निजज्ञातिरितियावत् तस्य धर्मः-स्वस्वप्रवर्तितो व्यवहारो विवाहा-15 दिकः पाखण्डाः-शाक्यादयस्तेषां धर्मः प्रतीत एवं राजधर्मो-निग्रहानुग्रहादिः जाततेजा:-अग्निः, स हि नातिस्निग्धे, सुषमसुषमादौ नातिरूक्षे दुष्पमदुष्पमादौ चोत्पद्यत इति, चकारादग्निहेतुको व्यवहारो रन्धनादिरपि, चरणधर्म:-चारिधर्मः, चशब्दाद् गच्छब्यवहारश्च, अत्र धर्मपदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , व्युच्छेत्स्यति-विच्छेदं प्राप्स्यसि, सम्यक्त्वधर्मस्तु केपाश्चित्सम्भवत्यपि, बिलवासिनां हि अतिक्लिष्टत्वेन चारित्राभावः, अत एवाह प्रज्ञत्यां-'ओसणं धम्मसन्न-11 पन्भडा' इति, ओसन्नमिति प्रायोग्रहणात् कचित्सम्यक्त्वं प्राप्यतेऽपीति भावः, गतः पञ्चम आरः ॥ अथ पष्ठारक | उपक्रम्यते-तीसे ण'मित्यादि, तस्यां समायां एकविंशत्या वर्षसहस्त्रैः प्रमिते काले व्यतिकान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवरेवं गन्धस्पर्शपर्यवैर्यावत् परिहीयमाणः २, दुष्षमादुष्पमा नाम्ना समा कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, अथ
दीप अनुक्रम [४७-४९]
Smileuanition
WOM
~336~
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्मू
तत्र भरतस्वरूपप्रश्नाबाह-'तीसे 'मिलादि, तस्यां समायामुत्तमकाष्ठांप्रॉप्तायां उत्तमावस्थागतोयामित्यर्थः परमक-18|श्वक्षस्कारे द्वीपशा- प्राप्तायां वा, भरतस्य कीदृशः कः आकारभावस्य-आकृतिलक्षणपर्यायस्य प्रत्यवतार:-अवतरणं आकारभावप्रत्यवतारः 8| चतुर्थपश्चन्तिचन्द्री
प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गीतमेश्यामन्य वक्ष्यमाणविशिष्टः कालो भविष्यति, कीटश इत्याहि-'हाहाभूताः' हाहा इत्येया चिः
तस्य शब्दस्य दुःखालोकेन करणं हाहोच्यते ततः-प्राप्तो यः कालः स हाहाभूता, भाम्भा इत्यस्य दुःखार्तगवा-18 ॥१६७॥ | दिभिः करणं भम्भोच्यते तद्भूतो यः स भम्भाभूतः, द्वावप्यनुकरणशब्दाविमौ, भम्भा वा भेरी सा चान्तः शून्या 8
शततो भम्भव यः कालो जनक्षयात्तच्छ्न्यः स भम्भाभूत इत्युच्यते, कोलाहल इहार्तशकुनसमूहध्वनिः तं भूतः-प्राप्तः,
कोलाहलभूतः समानुभावेन-कालविशेषसामध्येन च, चकारोऽत्र वाच्याम्तरदर्शनार्थः, णमित्यलङ्कारे, सरपरुषा:-18 अत्यन्तकठोरा धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा दुर्विषहाः-दुस्सहाः व्याकुला असमञ्जसा इत्यर्थः भयङ्कराः, 18 विशेषणसमुच्चयसूचकः, वास्यन्तीत्यनेन सम्बन्धः,संवर्तकाश्च-तृणकाष्ठादीनामपहारका वातविशेषाश्च तेऽपि वास्वन्तीति, | इहास्मिन् काले अभीक्ष्णं-पुनः पुन—मायिष्यन्ते च-धूममुदमिष्यन्ति दिशः, किम्भूतास्ता इत्याह-समन्तात्-18
| सर्वतो रजस्वला-रजोयुक्ताः, अत एव रेणुना-रजसा कलुषा-मलिनास्तथा तमःपटलेन-अन्धकारवृन्दन निरालोका-8॥१६७॥ 18| निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिग्रसरा वा, ततः पदद्वयकर्मधारयः, समयरूक्षतया च कालरूक्षतया चेत्यर्थः, अधिकं अहितं
वा अपथ्यं चन्द्राः शीतं हिमं मोक्ष्यन्ति-वक्ष्यन्ति तथैव सूर्यास्तप्स्यन्ति, ताप मोक्ष्यन्तीत्यर्थः, कालरोक्ष्येण शरीर-18
Santleman
1
jimmitrinyoury
~337~
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
रौक्ष्यं तस्माश्चाधिकशीतोष्णपराभव इति, अथ पुनस्तत्वरूपं मंगवाम् स्वयमेवाह-'अदुत्तर मित्यादि, अथापरं च हे गौतम! अमीषण-पुनः पुनः अरसा-मनोहरजितला ये मेघास्ते तथा विरसा-विरुद्धरसा ये मेघास्ते तथा, एतदे-18|| हावाभिव्यज्यते-झारमेघा:-संजीविधारसमाजलीपत मेधाः खात्रमधा:-करीपसमानरसजलोपेतमेघाः खट्टमेहेति क्वचिद् ॥
रश्यते तत्राम्लजला मेषाः अनिमेषा अनिवहारिजला इत्यर्थः विद्यधामा ऐवं जलवर्जिता इत्यर्थः विद्युत्रिपा-18M शतवन्तो वा विधुनिपातकार्यकारिजलनिवतियतो वा मेघाः विषमेषा:-जनमरणहेतुजलाः अत्र असणिमेहा इत्यपि |
पदं कचिद् श्यते त्रियिम-कारकाविनिपातवम्तः पर्वतादिदारणसमजलत्वेन वा वज्रमेघाः अयापनीयं-न याप-18 नाप्रयोजकमुक्कं पातेसंवा, असमाधानकारिजली इत्ययः, कपिद-अपिवैणिजोदगा' इति संत्रीपतिव्यजला इत्यर्थः। एतदेव व्यनक्ति-व्यापिसमवेदाचारणापरिणामसालिल' व्यापय:-स्विराः कुटदियो रोगा:-सोचातिनः शूलादवस्तदुस्थाया वेदनायां उदारणसमये पण सैव परिणामारपाकी वस्य सलिलस्य सत्तथा, तदेवविध | सलिलं येषां ते तथा, अत एवाम पानिलेन प्रेहतीनी पार्टिसांना तीक्ष्णानी-वेगवतीमो धाराणां निपातः स प्रचुरो यत्र बस म्ति परिचन्तालयाती एवं क्षारमेधोदयो वर्षशतो
नैकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणकुण E NTR, चम अनारसमेषादवः किं करिष्यन्तीत्याह12||'जणं भरहे'त्यादि, बेन वर्षमा पतीति सम्वन्या, भरतवर्षे प्रामाधा।
eceserseeeeeeeseseseseseoes
दीप अनुक्रम [४७-४९]
~338~
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू-18 ह्रीपशा
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
तिची
दीप अनुक्रम [४७-४९]
आश्रमान्ताः प्राग्व्याख्यातास्तत्र गतं जनपद-मनुष्यलोकं तथा चतुष्पदा-महिष्यादयो गोशब्देन गोजातीया एलका- २वक्षुस्कारे
|उरभ्रास्तान् तथा खचरान्-वैतादयवासिनो विद्याधरान् तथा पक्षिसंघान् तथा प्रामारण्ययोर्यः प्रचारस्तत्र निर- चतुर्थपञ्चया वृत्तिः
तान्-आसक्कान् असांश्च प्राणान-द्वीन्द्रियादीन् बहुप्रकारान् तथा वृक्षान्-आम्रादीन् गुच्छान्-पृन्ताकीप्रभृतीन मषष्ठारकाः
गुल्मान्-नवमालिकादीन् लता-अशोकलताद्याः वल्ली:-वालुक्यादिकाः प्रवालान-पल्लवान् अङ्कुरान्-शाल्यादिबी-1|| ॥१६॥ जसूचीः इत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान्-यादरवनस्पतिकायिकान् , सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानां तेरुपघातासम्भवात् , ||
तथा औषधीश्च-शाल्यादिकाः चोऽभ्युच्चये, 'पचए' इत्यादि यद्यपि पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रूढास्तथाऽपीह विशेषो । |दृश्यः, तथाहि-पर्वतननाद्-उत्सवविस्तारणात् पर्वता:-क्रीडापर्वताः उज्जयन्तवैभारादयः गृणन्ति-शब्दायन्ते जनं | निवासभूतत्वेनेति गिरयः गोपालगिरिचित्रकूटमभृतयः डुङ्गानि-शिलावृन्दानि चोरवृन्दानि वा सन्त्येषु इत्यस्त्यर्थे प्रत्ययः डुकरा:-शिलोचयमात्ररूपाः उन्नतानि-स्थलानि धूल्युच्छ्रयरूपाणि भट्टित्ति चाहाः पांस्वादिवर्जिता भूमयः18 तत एतेषां द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां ते तथा तान् , आदिशब्दात् प्रासादशिखरादिपरिग्रहः, मकारोऽलाक्षणिकः, चशब्दो
मेघानां क्रियान्तरद्योतकः, विद्रावयिष्यन्तीति क्रियायोगः, अत्रार्थेऽपवादसूत्रमाह-वैतात्यगिरिवर्जान् पर्वतादीनित्यर्थः,18| ॥१६॥ || शाश्वतत्वेन तस्याविध्वंसात्, उपलक्षणाद् ऋषभकूटं शाश्वतप्रायनीशत्रुञ्जयगिरिप्रभृतींश्च वर्जयित्वा, तथा सलिल18| बिलानि भूनिर्झराः विषमगर्ताश्च-दुष्पूरग्वधाणि, कचिदुर्गपदमपि दृश्यते, तत्र दुर्गाणि च-खातवलयप्राकारादि
Jinni
~339~
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार २], ---------....-----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दुर्गमाणि निन्नानि च तान्युन्नतानि च निम्नोन्नतानि-उच्चावचानीत्यर्थः, पश्चाद् द्वन्द्वः, तानि च कर्मभूतानि शाश्वतनदीत्वाद् गङ्गासिन्धुवर्जानि समीकरिष्यन्ति । अथ तत्र भरतभूमिस्वरूपप्रश्नमाह-तीसे ण'मित्यादि, तस्यां भदन्त ! समायां भरतस्य भूमेः कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः भविष्यति !, भगवानाह-गौतम ! भूमी भविष्यति, अङ्गार-18 भूता-ज्वालारहितवहिपिण्डरूपा मुर्मुरभूता-विरलाग्निकणरूपा क्षारिकभूता-भस्मरूपा तप्तकवेलुकभूता-वहिप्रतप्तकवेठुकरूपा 'तप्तसमज्योतिर्भूता' तप्तेन भावे तप्रत्ययविधानात् तापेन समा-तुल्या ज्योतिषा-वह्निना भूता-जाता या सा तथा, पदव्यत्यय एवं समासश्च प्राकृतत्वात् ,धूलिबहुलेत्यादौ धूलि:-पांशुः रेणुः-वालुका पङ्क:-कईमः पनक:-प्रतलः कईमः चलनप्रमाणकद्देमश्चलनीत्युच्यते, अत एव बहूनां धरणिगोचराणां सत्त्वानां दुःखेन नितरां क्रमः-18 |क्रमणं यस्यां सा दुर्निष्कमा, दुरतिक्रमणीयेत्यर्थः, चः समुच्चये, अपिशब्देन दुर्निषदादिपरिग्रहः, अत्र बहूनामित्यादितः प्रारभ्य भिन्नवाक्यत्वेनोत्तरसूत्रवर्त्तिना भविष्यतिपदेन न पौनरुक्त्यं । अथ तत्र मनुष्यस्वरूपं पृच्छति-18 'तीसे णमित्यादि, प्रश्नसूत्र प्राग्वत् , निर्वचनसूत्रे गौतम ! मनुजा भविष्यन्ति, कीदृशा इत्याह-दूरूपा-दुःस्वभावाः |दुर्वर्णाः-कुत्सितवर्णाः, एवं दुर्गन्धाः दूरसाः-रोहिण्यादिवत् कुत्सितरसोपेताः दुःस्पर्शा:-कर्कशादिकुत्सितस्पशाः | अनिष्टा-अनिच्छाविषयाः, अनिष्टमपि किश्चित्कमनीयं स्वादित्यत आह-अकान्ताः-अकमनीयाः, अकान्तमपि किश्चिकारणवशात् प्रीतये स्यादतोऽप्रिया-अप्रीतिहेतवः, अप्रियत्वं च तेषां कुत इत्याह-अशुभा-अशोभनभावरूपत्वात् ,
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्बू. १९
~340~
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार २], ---------....-----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
अशुभत्वं च विशेषत आह--- मनसा-अन्तःसंवेदनेन शुभतया ज्ञायन्ते इत्यमनोज्ञाः, अमनोज्ञतयाऽनुभूतमपि। द्वीपशा- स्मृतिदशायां दशाविशेषेण किश्चिन्मनो स्यादत आह-अमनोऽमाः' न मनसा अम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः स्मृल्या इल्म-18
चतुर्थपश्चन्तिचन्द्री- मनोमाः एकाधिका वा एते शब्दा अनिष्टताप्रकर्षवाचका इति, मूल् अनिष्टादिविशेषणोपेता अपि केचिद् हुम्बा | मषष्ठारकाः या वृत्तिः
इव सुस्वराः स्युरित्याह-हीनो-लानस्येच स्वरो येषां ते तथा, दीनो दुःखितस्पेन स्वरो येषां ते तथा, अनिष्टादिशब्दाम.२४-३५ ॥१६९॥ उतार्था एवात्र स्वरेण योजनीयाः, 'अनादेयवचनप्रत्याजाताः' अनादेयं-असुभगत्वाद् अग्राह्यं वचनं-वचः प्रत्याजात
च-जन्म येषां ते तथा, निर्लजाः व्यक्तं, कूट-भ्रान्तिजनकद्रव्यं कपट-परवञ्चनाय वेपान्तरकरणं कलहा-प्रतीतः। |वधो-हस्तादिभिस्ताडनं बन्धो-रजभिः संयमनं वैरं-प्रतीतं तेषु निरताः, मर्यादातिक्रमे प्रधाना-मुख्याः, अकार्ये
नित्योद्यताः, गुरूणां-मात्रादिकानां नियोगः-आज्ञा तत्र यो विनय:-ओमित्यादिरूपस्तेन रहिताः, चः पूर्ववत् , विकलं18 असम्पूर्ण काणचतुरङ्गुलिकादिस्वभावत्वाद्रूपं येषां ते तथा, अरूढा-गर्तासूकराणामिवाजन्मसंस्काराभावात् वृद्धिं गता
नखाः केशाः श्मश्रुणि रोमाणि च येषां ते तथा, काला:-कृतान्तसदृशाः क्रूरप्रकृतित्वात् कृष्णा वा खरपरुषा:-स्पर्शतोऽ-11 तीव कठोराः श्यामवर्णा-नीलीकुण्डे निक्षिप्तोत्क्षिप्ता इव, ततः कर्मधारयः, क्वचिद् ध्यामवर्णा इत्यपि पदं दृश्यते,
॥१६९॥ तत्रानुज्वलवर्णा इत्यर्थः, स्फुटितशिरस:-स्फुटितानीव स्फटितानि राजिमत्त्वात् शिरांसि-मस्तकानि येषां ते सथा, कपिला केचन पलिताश्च-शुक्लाः केचन केशा येषां ते तथा, बहुस्नायुभिः-प्रचुरस्नसाभिः संपिनई-बद्धमत एष दुःखेन |
~341~
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार २], ---------....-----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
दर्शनीय रूपं येषां ते तथा, सङ्घटितं-सङ्कुचितं वन्यो-निर्मासत्वग्विकारास्ता एव तदनुरूपाकारत्वात् तरजा-बीचIS यस्तैः परिवेष्टितानि अङ्गानि-अवयवा यत्र तदेवंविधमङ्ग-शरीरं येषां ते तथा, के इवेत्याह-जरापरिणता इव, स्थवि| रनरा इवेत्यर्थः, स्थविराश्चान्यथापि व्यपदिश्यन्ते इति जरापरिणतग्रहणं, प्रविरला सान्तरालत्वेन परिशटिता च दन्तानां केपाश्चित्पतितत्वेन दम्तश्रेणिर्येषां ते तथा, उद्भटं-विकरालं घटकमुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते 12 तथा, कचित्तु उन्भडघाडामुहा इति पाठा, तत्र उद्भटे-स्पष्टे घाटामुखे-कृकाटिकावदने येषां ते तथा, विपमे नयने येषां ते तथा, वका नासा येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, वक्रं पाठान्तरेण व्यङ्गं सलाञ्छनं वलिभि-11 विकृतं च-बीभत्स भीषणं-भयजनक मुखं येषां ते तथा, ददुकिटिभसिध्मानि-क्षुद्रकुष्ठविशेषास्तत्प्रधाना स्फुटिता परुषाच 8 छविा-शरीरत्वग्येषां ते तथा, अत एव चित्रलाङ्गाः-कर्बुरावयवशरीराः कच्छू:-पामा तया कसरैश्च खसरैरभिभूता
व्याप्ता ये ते सथा, अत एव खरतीक्ष्णनखाना-कठिनतीनखानां कण्डूयितेन-खर्जूकरणेन विकृता-कृतत्रणा तनुः-18 | शरीर येषां ते तथा, दोलाकृतयः-अप्रशस्ताकाराः, कचित् टोलागइत्ति पाठस्तत्र टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः, ॥3 K तथा विषमाणि दीर्घहस्वभावेन सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः, तथा उत्कटुकानि-यथास्थान-13॥
मनिविष्टानि अस्थिकानि-कीकसानि विभक्तानीव च-दृश्यमानान्तराणीव येषां ते तथा, अत्र विशेषणपदव्यत्ययः || प्राग्वत्, अथवा उत्कुटुकस्थितास्तथास्वभावत्वात् विभक्ताश्च-भोजनविशेषरहिता येते तथा, 'दुर्बला' बलहीनाः18
E
misins
~342~
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३४-३६]
दीप
अनुक्रम
[४७-४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३४-३६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृत्तिः
॥ १७० ॥
'कुसंहनना' सेवार्चसंहननाः 'कुप्रमाणा:' प्रमाणहीनाः 'कुसंस्थिताः' दुःसंस्थानास्तत एषां टोलाकृत्यादिपदाना कर्मधारयः, अत एव 'कुरूपाः ' कुमूर्त्तयः तथा कुस्थानासनाः- कुत्सिताश्रयोपवेशनाः कुशय्याः कुत्सितशयनाः कुभोजिनो-दुर्भोजनास्ततः एभिः पदैः कर्मधारयः, अशुचयः स्नानत्रह्मचर्यादिवर्जिताः अश्रुतयो वा शास्त्रवर्जिताः अनेकव्याधिपरिपीडिताङ्गाः स्खलन्ती बिहुला च वा-अर्दवितर्दा गतिर्येषां ते तथा, निरुत्साहाः सत्त्वपरिवर्जिताः विकृतचेष्टा नष्टतेजसः स्पष्टानि, अभीक्ष्णं शीतोष्णखर परुषवातैर्विज्झडिअं-मिश्रितं व्याप्तमित्यर्थः, मलिनं पांसुरूपेण रजसा न तु पौष्परजसाऽवगुण्ठितानि - उद्धूलितान्यङ्गानि - अवयवा यस्य एतादृशमङ्गं येषां ते तथा, बहुकोधमानमाया लोभाः बहु| मोहाः न विद्यते शुभं - अनुकूलवेद्यं कर्म येषां ते तथा, अत एव दुःखभागिनः, ततः कर्मधारयः, अथवा दुःखानुवन्धिदुःखभागिनः, 'ओसण्णं ति बाहुल्येन धर्मसंज्ञा - धर्मश्रद्धा सम्यक्त्वं च ताभ्यां परिभ्रष्टाः, बाहुल्य ग्रहणेन. यथा सम्यग्दृष्टित्वमेषां कदाचित् सम्भवति तथाऽधस्तनग्रन्थे व्याख्यातं, उत्कर्षेण रते :- हस्तस्य यच्चतुर्विंशत्यङ्गुललक्षणं प्रमाणं तेन मात्रा - परिमाणं येषां ते तथा, इह कदाचित्पोडश वर्षाणि कदाचिच्च विंशतिर्वर्षाणि परममायुर्वेषां ते तथा, श्रीवीरचरित्रे तु 'पोडश स्त्रीणां वर्षाणि विंशतिः पुंसां परमायुरिति, बहूनां पुत्राणां नमृणां पौत्राणां यः परिवारस्तस्य प्रणयः स्नेहः स बहुलो येषां ते तथा, अनेनाल्पायुष्केऽपि बहुपत्यता तेषामुक्ता, अल्पेनापि कालेन यौवनसद्भावादिति, ननु तदानीं गृहाद्यभावेन व ते वसन्तीत्याह- गङ्गासिन्धू महानद्यौ वैताढ्यं च पर्वतं निश्रां
Fur Fate & Pune Cy
~343~
२वक्षस्कारे
चतुर्थपश्चमषष्ठारकाः सू. ३४-३५ -१६
॥ १७० ॥
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
| कृत्वा 'बावचरिंति द्वासप्ततिः स्थानविशेषाश्रिता निगोदा:-कुटुम्बानि, द्विसप्ततिसङ्ख्या चैव-वैताळ्यादर्वाग् गङ्गाया
स्तटद्वये नवनवबिलसम्भवादष्टादश, एवं सिन्ध्वा अपि अष्टादश, एषु च दक्षिणार्बभरतमनुजा वसन्ति, वैताब्यात 18 परतो गङ्गातटद्वयेऽष्टादश, एवं तत्रापि सिन्धुतटद्वये अष्टादश, एषु चोत्तरार्द्धभरतवासिनो मनुजा वसन्ति, बीजमिव 18 बीजं भविष्यतां जनसमूहानां हेतुत्वात् बीजस्येव मात्रा-परिमाणं येषां ते तथा, स्वल्पाः स्वरूपत इत्यर्थः, बिलवा
सिनो मनुजा भविष्यन्तीति पुनः सूत्रं निगमनवाक्यत्वेन न पुनरुकमवसातव्यं, अथ तेषामाहारस्वरूपं पृच्छन्नाह-18 'ते णं भंते ! मणुआ' इत्यादि, ते भगवन् ! मनुजाः किमाहरिष्यन्ति ?-किं भोक्ष्यन्ते, भगवानाह-गौतम ! तस्मिन्,18 काले-एकान्तदुष्पमालक्षणे तस्मिन् समये-षष्ठारकप्रान्त्यरूपे गङ्गासिन्धू महानद्यौ रथपथः-शकटचक्रद्वयममितो मार्गस्तेन मात्रा-परिमाणं यस्य स तारशो विस्तर:-प्रवाहव्यासो ययोस्ते तथा, अक्ष-चक्रनाभिक्षेप्यकाष्ठं तत्र स्रोतोधुरः प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणं तेन मात्रा-अवगाहना यस्य तत्तथाविधं जलं वक्ष्यतः, इयत्प्रमाणे न गम्भीरं जलं धरिप्यत इत्यर्थः, ननु क्षुल्लहिमवतोऽरकव्यवस्थाराहित्येन तद्गतपद्मद्रहनिर्गतयोरनयोः प्रवाहस्य नैयत्येनोकरूपा (प्रवाही) कथं सङ्गच्छेते ?. उच्यते, गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरं क्रमेण कालानुभावजनितभरतभूमिगततापवशादपरजलशोपे | समुद्रप्रवेशे तयोरुक्तमात्रावशेषजलवाहित्वमिति न काप्यनुपपत्तिरिति, तदपि च जलं बहुमत्स्यकच्छपाकीर्ण न चैव । अब्बहुलं-बहप्कार्य सजातीयापरापूकायपिण्डबहुलमित्यर्थः, ततस्ते मनुजाः सूरोद्गमनमुहूर्ते सूरास्तमयनमुहूः च,
~344 ~
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्बू- यकारलोपोऽन्त्र प्राकृतत्वात् , चकारौ परस्परं समुच्चयार्थी, विलेभ्यो निर्धाविष्यन्ति-शीघ्रया गत्या निर्गमिष्यन्ति,
|२वक्षस्कारे द्वीपशा- मुहर्तात्परतोऽतितापातिशीतयोरसहनीयत्वात्, बिलेभ्यो निर्धाव्य मत्स्यकच्छपान् स्थलानि-तटभूमीः णिगन्तत्वाद् चपनन्तिचन्द्री- द्विकर्मकत्वं ग्राहयिष्यन्ति-प्रापयिष्यन्ति, ग्राहयित्वा च शीतातपतप्तः रात्रौ शीतेन दिवा आतपेन तप्तैः-रसशोष प्रापि- मषष्ठारकाः या वृत्तिः
18 तैराहारयोग्यता प्रापितैरित्यर्थः, अतिसरसानां तज्जठराग्निनाऽपरिपाच्यमानत्वाद् मत्स्यकच्छपैरेकविंशति वर्षसहस्राणिसू.३४-३५ ॥१७॥ यावद्वृत्ति-आजीविका कल्पयन्तो-विदधाना विहरिष्यन्ति । अथ तेषां गतिस्वरूपं पृच्छन्नाह-'ते ण'मित्यादि.
18 ते मनुजा भगवन् ! निश्शीला-गताचाराः निर्णता-महाव्रताणुव्रतविकलाः निर्गुणा-उत्तरगुणविकलाः निर्मर्यादा:-अवि-॥
द्यमानकुलादिमर्यादाः निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासा-असत्पौरुष्यादिनियमा अविद्यमानाष्टम्यादिपर्थोपवासाश्चेत्यर्थः, 8 ओसणं' प्रायो मांसाहाराः, कथमित्याह-मत्स्याहारा यतः, तथा 'चौद्राहाराः' मधुभोजिनः क्षीणं या-तुच्छावशिष्ट-18 18 तुच्छधान्यादिकं आहारो येषां ते तथा, इदं विशेषणं सूपपन्नमेव, पूर्वविशेषणे प्रायोग्रहणात्, केषुचिदादर्शेषु अत्र || 1% गड्डाहारा इति दृश्यतें, स लिपिप्रमाद एव सम्भाव्यते, पञ्चमाझे सप्तमशते षष्ठोद्देशे दुषमदुष्षमावर्णनेऽदृश्यमान-18
त्वात्, अथवा यथासम्प्रदायमेतत्पदं व्याख्येयं, कुणप:-शवस्तद्रसोऽपि वसादिः कुणपस्तदाहारा', 'कालमासे | ॥१७१।। इत्यादिकं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रमपि प्राग्वत्, नवरं ओसण्ण'मिति ग्रहणात् कश्चित् क्षुद्राहारवान् देवलोकगाम्यपि अफ्लिष्टाध्यवसायात्, अथ ये तदानी क्षीणावशेषाश्चतुष्पदास्तेषां का गतिरिति पृच्छति-'तीसे णमित्यादि, तस्यां 8
JinEleinitimes
~345~
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
-- मूलं [३४-३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
भगवन् ! समायां चतुष्पदाः-सिंहादयः प्राग्व्याख्यातार्थाः श्वापदाः प्रायो मांसाहारादिविशेषणविशिष्टाः क गमिप्यन्ति क उत्पत्स्यन्ते ?, भगवानाह-गौतम! प्रायः नरकतिर्यग्योनिकेषु उत्पत्स्यन्ते, प्रायोग्रहणात् कश्चिदमांसादी || | देवयोनावपि, नवरं चिल्ललगा-नाखरविशेषा इति, अथ तदानीं तत्पक्षिगति प्रश्नयति-'ते णमित्यादि, कण्ठ, नवरं || || ते णमिति क्षीणावशिष्टा ये पक्षिण इति यच्छन्दबलाद् ग्राह्य, ढङ्का:-काकविशेषाः कङ्का:-दीर्घपादाः पिलका18 रूढिगम्याः मद्का-जलवायसाः शिखिनो-मयूरा इति, गतः पष्ठारकः, तेन चावसर्पण्यपि गता ॥ साम्प्रतं प्रागुदि18ष्टामुत्सर्पिणी निरूपयितुकामस्तत्प्रतिपादनकालप्रतिपादनपूर्वकं तत्प्रथमारकस्वरूपमाह
तीसे पं समाए इकवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइकते आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिकए बालवकरणंसि अभीइणक्स चोरसपढमसमये अणतेहिं वण्णपज्जयहिं जाव अणंतगुणपरिषद्धीए परिवुद्धमाणे २ एस्थ पं दूसमदूसमाणामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो!। तीसे गं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ!, गोअमा! काले भविस्सद हाहाभूए भंभाभूए एवं सो चेव दूसमदूसमावेढओ मधो, तीसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सेहिं काले विदकते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि जाव अणंतगुणपरिचुद्धीए परिवखेमाणे २ एत्थ ण दूसमाणामं समा काले परिवजिस्साह समणाउसो! (सूत्र-३७) 'तीसे 'मित्यादि, तस्यां समायामवसप्पिणीदुष्षमदुष्षमानाम्नयां एकविंशत्या वर्षसहस्रः प्रमिते काले व्यतिक्रान्ते आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां श्रावणमासस्य बहुलप्रतिपदि-कृष्णप्रतिपदि पूर्वावसर्पिण्या: आषाढपूर्णिमापर्यन्तसमये
SAERSacrosses Occa
दीप अनुक्रम [४७-४९]
उत्सर्पिणीकालस्य प्रथम-आरकस्य स्वरुपम
~346~
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----
---- मूलं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
विचन्द्री
सूत्रांक
[३७]]
दीप अनुक्रम [५०]
श्रीजम्बू- पर्यवसानत्वात् बालबनाम्निकरणे कृष्णप्रतिपत्तिथ्यादिमाऽस्यैव सद्भावात् , अभीचिनक्षत्रे चन्द्रेण योगमुपागते, वक्षस्कारे द्वीपशा- चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमसमये-प्रारम्भक्षणेऽनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावदनन्तगुणपरिवृझ्या परिवर्द्धमानः परिवर्द्धमानः ॥8॥ उत्सर्पियों
अत्रान्तरे दुष्पमदुषमानाना समा कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, वर्णादीनां वद्धिश्च येनैव क्रमेण प्रथमाहितीया वृत्तिः पूर्वमवसपिण्यरकेषु हानिरुक्ता तथैवात्र वाच्या, चतुर्दशकालविशेषा पुनः निःश्वासादुश्वासाद्वा गण्यन्ते, समयस्य
यारको सू. ॥१७॥ 18 निर्विभागकालवेनाद्यन्तव्यवहाराभावादावलिकायाश्चाव्यवहारार्थत्वेनोपेक्षा, तन्त्र निःश्वासः उच्छासो वा १ प्राणः २,10
| स्तोकः ३, लवः ४, मुहूर्त ५, अहोरात्रं ६, पक्षः ७, मासः ८, ऋतुः ९, अयनं १०, संवत्सरः ११, युगं १२, करणं ||
|१३, नक्षत्रं १४, इति, एतेषां चतुर्दशानां मध्ये पञ्चानां सूत्रे साक्षादुक्ताना अपरेषा चोपलक्षणसङ्गृहीतानां प्रथमसमये, 18 कोऽर्थः-य एव हि एतेषां चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमः समयः स एवोत्सर्पिणीप्रथमारकप्रथमसमयः, अव
सर्पिणीसत्कानामेषां द्वितीयापाढापौर्णमासीचरमसमय एव पर्यवसानात्, इदमुक्तं भवति ?-अवसर्पिण्यादी महा-18 काले प्रथमतः प्रवर्त्तमाने सर्वेऽपि तदवान्तरभूताः कालविशेषाः प्रथमत एव युगपत्मवर्तन्ते तदनु स्वस्वप्रमाणसमाप्तौ ६ समामुवन्ति, तथैव पुनः प्रवर्तन्ते पुनः परिसमानुवन्ति यावन्महाकालपरिसमाधिरिति, यद्यपि प्रन्थान्तरे' ऋतोराषा
IS॥१७॥ ढादित्वेन कथनादुत्सपिण्याश्च श्रावणादित्वेन अस्य प्रथमसमयो न सङ्गच्छते ऋत्वर्द्धस्य गतत्वात् तथापि प्रावृर-18 श्रावणादिवरात्रोऽश्वयुजादिः शरन्मार्गशीर्षाविहेमन्तो माषाविर्वसन्तश्चैत्रादिर्मीमो ज्येष्ठादिरित्यादिभगवतीवृत्तिव
JinEllennition
~347~
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----..........-----
----- मूलं [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]]
ISचनात् श्रावणादित्वपक्षाश्रयणेन समाधेयमिति न दोषः, किञ्चेदं सूत्र गम्भीरं ग्रन्थान्तरे च व्यक्त्यानुपलभ्यमानभा-18 IS|वार्थक तेनान्यथाप्यागमाविरोधेन मध्यस्थैः बहुश्रुतैः परिभावनीयमिति । अथांत्रकालस्वरूपं पृच्छति-'तीसे ण'मि-18
त्यादि, सर्व सुगम, नवरं दुष्पमदुष्पमायाः अवसर्पिणीषष्ठारकस्य वेष्टको-वर्णको नेतव्यः-पापणीयस्तरसमानत्वा-1 दस्याः । गतः उत्सप्पिण्या प्रथम आरः, अथ द्वितीयारकस्वरूपं वर्णयति-'तीसे 'मित्यादि, सर्व मुगर्म, नवरं | उत्सर्पिणीद्वितीयारक इत्यर्थः, अथावसर्पिणीदुष्षमातोऽस्या विशेषमाह
तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए णामं महामेहे पाउन्मविस्सइ भरहप्पमाणमित्वे आयामेण तदाणुरुवं च णं विक्संभयाहल्लेणं, तए ण से पुक्खलसंवट्टए महामेहे सिप्पामेव पतणतणाइस्सइ सिप्पामेव पतणतणाइत्ता सिप्पामेव पविग्नुआइस्सइ खिप्पामेव पविजुआइत्ता सिप्पामेव जुगमुसलमुद्विपमाणमित्ताहिं धाराहिं ओघमे, सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूअं मुम्मुरभू छारिअभूअं तत्तकवेलुगभूमं तत्तसमजोइभूअं णिवाविस्सतित्ति, संसिं च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणसि एत्य णं खीरमेहे णाम महामेहे पाउन्भविस्सइ भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं तवणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं, नए णं से सीरमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाब खिप्पामेव जुगमुसलमुहि जाव सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहवासस्स भूमीए वण्णं गंधं रसं फासं च जणइस्सइ, तंसि च णं खीरमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि इत्थ णं धयमेहे णामं महामेहे पाउभविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, नदणुरूवं च णं विक्संभवाहलेणं,
दीप अनुक्रम [५०]
9a8%eo
~348~
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------
---- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८]
श्रीजम्यू- तए णं से घयमेहे महामेहे सिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाव वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमीए सिणेहभावं जगइस्सा,
वक्षस्कारे द्वीपशा- तसिं च णं घयमेहंसि सत्तरतं जिवतितंसि समाणसि एत्थ णं अमयमेहे णामं महामेहे पाउभविरसइ भरहप्पमाणमित्तं आया--
पुष्कलसंवन्तिचन्द्री- मेणं जाव वासं वासिस्सह, जेणं भरहे वासे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्वगहरितगओसहिपवालंकुरमाईए तणवणस्सइकाइय क्षीरघृताया वृत्तिः
जणइस्सइ, तंसि च णं अमयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एल्थ गं रसमेहे णामं महामेहे पातम्भविस्सइ भरहपमा- मृतरसमे॥१७३॥
गमित्ते आयामेणं जाव वास वासिस्सइ, जेणं तेसिं बहूर्ण रुक्थगुच्छगुम्मलयवलितणपक्षणहरितओसहिपयालंकुरमादीणं तित्त कडु- पा.सू.३८ अकसायअंबिलमहुरे पंचविहे रसविसेसे जणइस्सइ, तए णं भरहे वासे भविस्सइ फरूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवलितणपवयगद्दरिषओसहिए, उवचियतयपत्तपवालंकुरपुष्फफलसमुइए सुहोवभोगे आवि भविस्सइ (सूर्व ३८)
'ते णमित्यादि, तस्मिन् काले-उत्सर्पिण्या द्वितीयारकलक्षणे तस्मिन् समये-तस्यैव प्रथमसमये, पुष्कलं-सर्व |अशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्ष्यदाहादिकं प्रशस्तस्वोदकेन संवर्तयति-नाशयतीति पुष्कलसंवर्तकः स च पर्जन्यप्रभृतिमे-18||
धत्रयापेक्षया महान् मेघो-दशवर्षसहस्रावधि एकेन वर्षणेन भूमेर्भावुकत्वात् महामेघः प्रादुर्भविष्यति-प्रकटीभवि-1॥ प्यति, भरतक्षेत्रप्रमाणेन साधिककसप्ततिचतुःशताधिकचतुर्दशयोजनसहन्नरूपेण १४४७१ मावा-प्रमाण यस सIS| ॥१७॥ । तथा, केन ?-आयामेन-दीर्घभावेन, अयं भावः-पूर्वसमुद्रादारभ्य पश्चिमसमुद्रं यावत् तस्य वार्दलकं च्या भविष्य-18 18|| तीत्यर्थः, तदनुरूपश्च-तस्य भरतक्षेत्रस्थानुरूपः-सदृशः, सूत्रे च लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, क्रियाविशेषणं वा, केने-18||
दीप अनुक्रम
[१]
9806080
~ 349~
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----
---- मूलं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८]
दीप अनुक्रम [५१]
| त्याह-विष्कम्भबाहल्येन, अत्र समाहारद्वन्द्ववशादेकवद्भावः, कोऽर्थः-यावान् व्यासो भरतक्षेत्रस्य इषुस्थाने पश्च-18 | शतयोजनानि षविंशतिर्योजनानि षट् च कला योजनेकविंशतिभागरूपाः तदतिरिक्तस्थाने तु अनियततया तथाऽस्यापि | विष्कम्भः, बाहल्यं तु यावता जलभारेण यावदवगाढभरतक्षेत्रतप्तभूमिमाद्रीकृत्य तापः उपशाम्यते तावज्जलदलनि| पन्नमेव ग्राह्यमिति, अथ स प्रादुर्भूतः सन् यत्करिष्यति तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततश्च स-पुष्कलसंवर्तकमेघः | क्षिप्रमेव-उन्नमनकाल एव 'पतणतणाइस्सईति अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षण स्तनितं करिष्यति, गर्जिष्यतीत्यर्थः, ॥ तथा च कृत्वा क्षिप्रमेव युगं-रथावयवविशेषः मुसलं-प्रतीतं मुष्टिः-पिण्डिताङ्गुलिकः पाणिः एषां यत्प्रमाणमायाम-18 वाहल्यादिभिस्तेन मात्रा यासां ताभिः, इयता प्रमाणेन दीर्घाभिः-स्थूलाभिरित्यर्थः धाराभिः ओघेन-सामान्येन | सर्वत्र निर्विशेषेण मेघो यत्र तं तथाविधं सप्तरात्रं-सप्ताहोरात्रान् वर्ष वर्षिष्यति करिष्यतीत्यर्थः, 'जे णमिति पूर्ववत् भरतस्य वर्षस्य-क्षेत्रस्य भूमिभागं अङ्गारभूतं मुर्मुरभूतं क्षारिकभूतं तप्तकवेल्लुकभूतं तप्तसमज्योतिर्भूतं निर्वापयिष्यति स पुष्करसंवतको महामेघः, अथ द्वितीयमेघवकव्यतामाह-तसिं च णमित्यादि, तस्मिंश्च चशब्दो वाक्यान्तरप्रा. रम्भार्थः,पुष्कलसंवर्तके महामेघे सप्तरात्रं यावनिपतिते सति-निर्भरं वृष्टे सति अत्रान्तरे क्षीरमेघो नामतो महामेघः प्रादुर्भविष्यति, शेषं 'भरते त्यादि प्राग्वत्, अथ स प्रादुर्भवन् किं करिष्यतीत्याह-'तए णमित्यादि, अत्र वासिस्सइत्ति पर्यन्तं प्राग्वत् , यो मेघो भरतस्य भूम्या वर्ण गन्धं रसं स्पर्श च जनयिष्यति, अत्र वर्णादयः शुभा एव ग्राह्याः,
Se
~350~
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३८]
दीप
अनुक्रम
[५१]
वक्षस्कार [२],
मूलं [३८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥१७४॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Crimin
येभ्यो लोकोऽनुकूलं वेदयते, अशुभवर्णादयः प्राक्कालानुभावजनिता वर्त्तन्त एवेति, ननु यदि शुभवर्णादीन् जनयति तदा तरुपत्रादिषु नीलो वर्णो जम्बुफलादिषु कृष्णः मरिचादिषु कटुको रसः कारवेल्लादिषु तिकः चणकादिषु रूक्षः स्पर्शः सुवर्णादिषु गुरुः क्रकचादिषु खरः इत्यादयोऽशुभवर्णादयः कथं सम्भवेयुरिति १, उच्यते, अशुभपरिणामा अप्येतेऽनुकूलबेद्यतया शुभा एव, यथा मरिचादिगतः कटुकरसादिः प्रतिकूलवेद्यतथा शुभोऽप्यशुभ एव, यथा कुष्ठादिगतः श्वेतवर्णादिरिति, अथ तृतीयमेघवक्तव्यतामाह-'तंसि' इत्यादि, तस्मिन् क्षीरमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्रान्तरे | घृतवत् स्निग्धो मेघो घृतमेघो नाम्ना महामेघः प्रादुर्भविष्यतीत्यादि सर्व प्राग्वत्, अथ स प्रादुर्भूतः किं करिष्यतीत्याह-- 'तए णमित्यादि, सर्वं प्राग्वत्, नवरं यो घृतमेघो भरतभूमेः स्नेहभावं-स्निग्धतां जनयिष्यतीति, अथ चतुमेघवतव्यतामाह-'तंसि' इत्यादि, तस्मिंश्च घृतमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्र - प्रस्तावेऽमृतमेघो यथार्थनामा महामेघः प्रादुर्भविष्यति यावद्वर्षिष्यति इति पर्यन्तं पूर्ववत्, यो मेघो भरते वर्षे वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वल्यः तृणानि प्रतीतानि पर्वगा - इक्ष्वादयः हरितानि - दूर्वादीनि औषध्यः - शाल्यादयः प्रवाला:- पल्लवाः अङ्कुराः - शास्यादिबीजसूचयः इत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान् वादर वनस्पतिकायिकान् जनयिष्यतीति । अथ पञ्चममेघस्वरूपवक्तव्यतामाह-'तंसि च ण'मित्यादि, व्यक्कं परं रसजनको मेघो रसमेघः, यो रसमेघस्तेषाममृतमेघोत्पन्नानां बहूनां वृक्षाद्यङ्कुरान्तानां वनस्पतीनां तिको निम्बादिगतः कटुको मरिचादिगतः कषायों विभीतकामलकादिगतः अम्बोऽग्लिकाद्याश्रितः
Fur Fate & C
~351~
२ वक्षस्कारे पुष्कलसंवनक्षीरघृतामृतरसमे
घाः सू. ३८
॥१७४॥
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३८]
दीप
अनुक्रम
[५१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्री १०
मधुरः शर्कराचाश्रितः, एतान् पञ्चविधान् रसविशेषान् जनयिष्यति, लवणरसस्य मधुरादिसंसर्गजत्वाद् तदभेदेन | विवक्षणात्, सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वोत्पत्तेः तेन न पृथनिर्देशः, एषां च पश्चानां मेघानां क्रमेणेदं प्रयोजनं सूत्र उक्तमपि स्पष्टीकरणाय पुनर्लिख्यते - आद्यस्य भरतभूमेर्दाहोपशमः द्विती| यस्य तस्या एव शुभवर्णगन्धादिजनकत्वं तृतीयस्य तस्या एव स्निग्धताजनकत्वं न चात्र क्षीरमेघेनैव शुभवर्णगन्धरसस्पर्शसम्पत्तौ भूमिस्निग्धतासम्पत्तिरिति वाच्यं, स्निग्धताधिक्यसम्पादकत्वात् तस्य, नहि यादृशी घृते स्निग्धता तादृशी क्षीरे दृश्यत इत्यनुभव एवात्र साक्षी, चतुर्थस्य तस्यां वनस्पतिजनकत्वं पञ्चमस्य वनस्पतिषु स्वस्वयोग्यरसविशेषजनकत्वं यद्यप्यमृतमेघतो वनस्पतिसम्भवे वर्णादिसम्पत्तौ तत्सहचारित्वात् रसस्यापि सम्पत्तिस्तस्मादेव युक्तिमती तथापि स्वस्वयोग्यरसविशेषान् सम्पादयितुं रसमेघ एव प्रभुरिति, तदा च यादृशं भरतं भावि तथा चाह'तर णं भरहे वासे' इत्यादि, ततः उक्तस्वरूप पञ्चमेघवर्षणानन्तरं णमिति पूर्ववत् भारतं वर्षं भविष्यति, कीदृश| मित्याह-प्ररूढा - उद्गता वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वल्यस्तृणानि पर्वजा हरितानि औषधयश्च यत्र तत्तथा, अत्र समासे कप्रत्ययः, एतेन वनस्पतिसत्ताऽभिहिता, उपचितानि - पुष्टिमुपगतानि त्वक्पत्रप्रवा उपलवांकुरपुष्पफलानि समुदितानि सम्यक् प्रकारेण उदयं प्राप्तानि यत्र तत्तथा कान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, एतेन वनस्पतिषु पुष्पफलानां रीतिर्दर्शिता, अत एव सुखोपभोग्यं - सुखेनासेवनीयं भविष्यति, अत्र वाक्यान्तरयोजनार्थमुपात्तस्य भविष्यतिपदस्य
Furwale rely
~ 352~
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३९-४०]
दीप
अनुक्रम [५२-५३ ]
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१७५॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३९-४० ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
im
-
न पौनरुक्त्यं भावनीयमिति । अथ तत्कालीना मनुजास्तादृशं भरतं दृष्ट्वा यत् करिष्यंति तदाह
तए णं ते मणुआ भरहं वासं परूढरुक्ख गुच्छगुम्मलयवहितणपचय हरिभओसहीयं उवचिअतयपत्तपवालपवंकुर पुप्फफल समुद सुहोवभोगं जायं २ चावि पासिद्दिति पासिता बिलेहिंतो णिढाइस्संति निदाइसा हट्टतुट्टा अण्णमण्णं सदावित्संति २ ता एवं वदिस्संति - जाते णं. देवाणुप्पि ! भरहे वासे पटरुक्ख गुच्छ गुम्मलय वलितणपश्यरिमजान सुहोबभोगे, तं जे णं देवाणुपिआ ! अम्हं केइ अज्जप्पभिइ असुमं कुणिनं आहारं आहारिस्सइ से णं अणेगाहिं छायाहिं वज्रणितिकट्टु संठिई ठवेस्संति २ भरहे वासे सुसुणं अभिरममाणा २ विहरिस्संति (सूत्रं ३९) तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासरस केरिसए आयारभाव पडोआरे भविस्सइ ?, गो० बहुसमरमणिजे भूमिभागे भविस्सद् जाब कित्तिमेहिं चैव अकित्तिमेहिं चैव, तीसे णं भंते! समाए मणुआ केरिसए आयारभाव पडोआरे भविस्सइ ?, गोअमा! तेसि णं मणुआणं छवि संपयणे छबिहे संठाणे बहूईओ रवणीओ उ उच्चणं जहणणं अंतोमुहुतं उकोसेणं साइरेगं वासस्यं आउअं पालेहिंति २ ता अप्पेगइमा निरयगामी जाव अप्पेगइआ देवगामी, ण सिज्यंति। तीसे णं समाए एकवीसाए बाससहस्सेहिं काले वीइकंते अनंतेहिं वण्णपनवेहिं जाव परिवमाणे २ एयणं समसूसमाणामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो !, तीसे णं भंते! समाए भरहस्य वासस्स केरिसए आधारभावप ढोरे भविस्सद ?, गोअमा ! बहुसमरमणिजे जाव अकित्तिमेहिं चैत्र, तेसि णं भंते! मणुआणं केरिसए आयारभाव पडोआरे भवि रसइ ?, गो० ! तेसि णं मणुआणं छन्हेि संघयणे छविहे संठाणे बहूई घणूई उद्धं उच्चतेणं जगेणं अंतोमुहतं उकोसेण पुत्रकोडी आउ पालिहित २ सा अप्पेगइआ गिरयगामी जाव अंतं करेहिंति, वीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पजिस्संति, तं-.
अथ उत्सर्पिणीकाले भरतक्षेत्रस्य स्वरुपं वर्ण्यते
F Ervale & Puna e Oly
~ 353 ~
मांसवर्जन
व्यवस्था स्. ३९ शेषोरसर्पिणीव
र्णनं सू. ४०
॥१७५॥
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३९-४०]
दीप
अनुक्रम
[५२-५३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [ ३९-४०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
तित्थगरवंसे चकट्टिवंसे दुसारवंसे, तीसे णं समाए तेवीसं तित्थगरा एकारस चकवट्टी णव बलदेवा णव वासुदेवा समुपज्जिस्संति, तीसे णं समाए सागरोवमकोडाकोडीए वायालीसाए बाससहस्सेहिं ऊणिआए काले बीइते अनंतेहिं वण्णपजवेहिं जाव अनंतगुणपरिवुद्धीए परिवुद्धेमाणे २ एत्थ णं सुसमद्समाणामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो !, साणं समा तिहा विभजिरस, पढमे विभागे मज्झिमे विभागे पच्छिमे तिभागे, तीसे णं भंते! समाए पढने तिभाए भरहस्त वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सद्द !, गोजमा ! बहुसमरमणिजे जाव भविस्सइ, मणुआणं जा बेव ओसपिणीय पच्छिमे तिभागे वन्यया सा भाणिअन्वा, कुलगरवज्जा उसमसामिवजा, अण्णे पठति तीसे णं समाए पढने तिभाए इमे पण्णरस कुछगरा समुप्पनिस्संति तंजासुमई जाय उसमे सेसं तं चैव दंडणीईओ पडिलोमाओ अब्बाओ, तीसे णं समाए पढने तिभाए राजधम्मे जाय धम्मचरणे अवोच्छिजिस्सर, तीसे णं समाए मज्झिमपच्छिमेसु तिभागेसु जाव पढममज्झिमे यत्तव्वया ओसलिणीए सा भाणिभण्या, सुसमा तहेब सुसमासुसमावि तद्देव जाव छन्विहा मणुस्सा अणुसज्जिस्संति जाव सष्णिचारी (सूत्रं ४० )
'तए 'मित्यादि, ततस्ते मनुजा भरतवर्षं यावत्सुखोपभोग्यं चापि द्रक्ष्यन्ति दृष्ट्वा बिलेभ्यो निर्द्धाविष्यन्तिनिर्गमिष्यन्ति निर्द्धाव्य दृष्टा - आनन्दितास्तुष्टाः सन्तोषमुपगताः पश्चात् कर्मधारयः अन्योऽन्यं शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा च एवं वदिष्यन्तीति, अथ ते किं वदिष्यन्तीत्याह - 'जाते ण'मित्यादि, जातं भो देवानुप्रिया ! भरतं वर्ष प्ररूढवृक्षं यावत् सुखोपभोग्यं तस्माद् ये देवानुप्रिया ! अस्माकं - अस्मज्जातीयानां कश्चिदद्यप्रभृति अशुभं कुणिमं -मांसमाहारमाहारयिष्यति स पुरुषोऽनेकाभिरछायाभिः इत्थंभावे तृतीया, सह भोजनादिपङ्किनिषण्णानां
Fur Fate &P Cy
~354~
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
--- मूलं [३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया पृत्तिः ॥१७६॥
दीप
याश्छायाः शरीरसम्बन्धिन्यस्ताभिर्वर्जनीयः, अयमर्थ:-आस्तां तेषामस्पृश्यानां शरीरस्पर्शः तच्छरीरच्छायास्पोऽपि वक्षस्कारे | वर्जनीयः, कचिदर्ज इति सूत्रपाठे तु बज्यों वर्जनीय इत्यर्थः, इतिहरवा संस्थिति-मर्यादा स्थापयिष्यन्ति, मांसवर्जनस्थापयित्वा च भरते वर्षे सुर्खसुखेनाभिरममाणाः २-सुखेन क्रीडन्तो २ विहरिष्यन्ति-प्रवर्तिष्यन्त इति । अथव्यवस्था सू. भरतभूमिस्वरूपं पृच्छति-'तीसे ण'मित्यादि सर्व पूर्ववत् , ननु कृत्रिममण्यादिकरणं तदानीं तन्मनुजानामसम्भवि
१३९ शेषो| शिल्पोपदेशकाचार्याभावाद् , उच्यते, द्वितीयारे पुरादिनिवेशराजनीतिव्यवस्थादिकृज्जातिस्मारकादिपुरुषविशेषद्वारा या क्षेत्राधिष्ठायकदेवप्रयोगेण वा कालानुभावजनितनैपुण्येन वा तस्य सुसम्भवत्वात् , कधमन्यथाऽत्रैव प्रन्थे प्रस्तुता-TRI रकमाश्रित्य पुष्करसंवतकादिपञ्चमहामेघवृष्टयनन्तरं वृक्षादिभिरौपध्यादिभिश्च भासुरायां सञ्जातायां भरतभूम्यां । तत्कालीनमनुजा बिलेभ्यो निर्गत्य मांसादिभक्षणनियममर्यादां विधास्यन्ति तल्लोपकं च पंक्तर्यहिः करिष्यन्तीत्यर्थाभिधायकं प्रागुकं सूत्रं सङ्गच्छत इति । अथ मनुजस्वरूपमाह-तीसे ण'मित्यादि, सर्व अवसर्पिणीदुष्पमारकमनुजस्वरूपवद् भावनीयं, नवरं न सिद्ध्यन्ति-सकलकर्मक्षयलक्षणां सिद्धिं न प्राप्नुवन्ति, चरणधर्मप्रवृत्त्यभावात् , अत्र भविष्यनिर्देशे प्राप्ते वर्तमाननिर्देशः पूर्वयुक्तितः समाधेयः। इत्युत्सपिण्यां द्वितीयारकः। 'तीसे णं समाए एकवीसाए ॥१७६॥ वास' इत्यादि, तस्यां समायां दुष्पमानास्यां एकविंशत्या वर्षसहस्रः काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवेर्यावत्परिवर्द्ध-11 मानः २ अत्रावसरे दुष्पमसुषमानामा समा काल उत्सर्पिणीतृतीयारका प्रतिपत्स्यते हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत् , 'सीसे
अनुक्रम [५२-५३]
enereka
JintilemnitiION
I
ndianmarg
~355~
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------...----
-- मूलं [३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
ममित्यादि, सर्व प्राग्वत् , अवसर्पिणीचतुर्थारकसदृशत्वमुत्सर्पिणीतृतीयारकस्येति तत्सादृश्यं प्रकटयन्नाह-'तीसे 'मित्यादि,प्रायः प्राग्व्याख्यातार्थ तीर्थङ्कराखयोविंशतिः पद्मनाभादयः चतुर्विंशतितमस्य भद्रकृन्नाम्नश्चतुर्थारके उत्पत्यमानत्वात् , एकादश चक्रवर्त्तिनो भरतादयो वीरचरित्रे तु दीर्घदन्तादयः द्वादशस्यारिष्ठनाम्नश्चतुर्थारके एव भावित्वात् , नव बलदेवा जयन्तादयः, नव वासुदेवा नन्द्यादयः, यत्तु तिलकादयः प्रति विष्णवो नेहोकास्तत्र पूर्वोक्त
एव हेतुरवसातव्यः, समुत्पत्स्यन्ते । गतस्तृतीयारक उत्सर्पिण्यामथ चतुर्थः-'तीसे ण'मित्यादि, तस्या समायां सागरो 18 पमकोटाकोव्या द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्ररूनितया काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावद्वद्धमानोऽत्र प्रस्तावे सुपम-11 & दुष्पमानामा समा कालः उत्सर्पिणीचतुर्थारकलक्षणः प्रतिपत्स्यते, 'सा णमित्यादि 'सा' समा त्रिधा विभक्ष्यति- The | विभागं प्राप्यति, प्रथमखिभागः मध्यमस्त्रिभागः पश्चिमस्त्रिभागश्चेति, तत्राद्यविभागस्वरूपमाह-तीसे ण'मित्यादि, | तस्यां समायां भदन्त ! प्रथमे त्रिभागे भरतस्य वर्षस्य कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारो भविष्यति ?, गौतम ! बहुस-1 | मरमणीयो यावद्भविष्यति, यावत्करणात् पूर्णोऽपि भूमिवर्णकगमो ग्राह्यः, मनुजप्रश्नमपि मनसिकृत्य भगवान् स्वयमेवाह-मणुआण'मित्यादि, मनुजानां तत्कालीनानां या अवसपिण्यास्तृतीयारकस्य पश्चिमत्रिभागे वक्तव्यता ||
सा अत्रापि भणितव्या, अत्रैवापवादसूत्रमाह-कीदृशी च सा वक्तव्यतेत्याह-कुलकरान् वर्जयतीति कुलकरवजो, 2 जण वर्जने' इत्यस्याचि प्रत्यये रूपसिद्धिः, एवं ऋषभस्वामिवर्जाः, अवसर्पिण्या कुलकरसम्पाद्यानां दण्डनीत्यादी
808080900380sae
दीप
अनुक्रम [५२-५३]
~356~
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
|[३९-४०]
दीप
अनुक्रम [५२-५३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३९-४०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥ १७७॥
नामित्र ऋषभस्वामिसम्पाद्यानां चान्नपाकादिप्रक्रियाशिल्पकठोपदर्शनादीनामिवोत्सपिण्यामपि द्वितीयारकभाविकुलकरवर्त्तितानां तेषां तदानीमनुवर्त्तिष्यमाणत्वेन तत्प्रतिपादक पुरुषकथनप्रयोजनाभावात् यथा अवसर्पिणीतृतीयारकतृतीयभागे कुलकराणां स्वरूपं ऋषभस्वामिस्वरूपं च प्राक् प्ररूपितं तथा नात्र वक्तव्यमिति भावः, अथवा ऋषभस्वामिवज्र्जेत्यत्र ऋषभस्वामिअभिलापवर्जेति तात्पर्य, तेन ऋषभस्वाम्यभिलापं वर्जयित्वा भद्रकृत्तीर्थकृतोऽभिलापः कार्य इत्यागतं, उत्सर्पिणीचरमतीर्थकरस्य प्रायोऽवसर्पिणी प्रथमतीर्थ कृत्समानशीलत्वात्, अन्यथोत्सर्पिणीचतुर्विंशतित18. मतीर्थकृतः क सम्भयः स्यादिति संशयादयोऽपि स्यात्, कलाद्युपदर्शनस्य तु अर्थादेव निषेधप्राप्ते तद्विपयकोऽभिलाप एवं नास्तीति, अत्र कुलकरविषयकं वाचनाभेदमाह- 'अण्णे पठति'त्ति, अन्ये आचार्याः पठन्ति तस्याः समायाः 8 प्रथमे त्रिभागे इमे वक्ष्यमाणाः पञ्चदश कुलकराः समुत्पत्स्यन्ते, तद्यथा-सुमतिर्यावत् ऋषभः, क्वचित्संमुई इति पाठस्तत्र सम्मतिः, उकारस्तु 'स्वराणां स्वरा' (श्रीसिद्ध० ८-४- सू०.२३८) इत्यनेन सूत्रेण प्राकृत शैली प्रभवः, यद्वा संमुचिरिति, यावच्छब्दात्पूर्वोक्ताः प्रतिश्रुतिप्रमुखा एव ग्राह्याः, वाचनान्तरानुसारेण यत्कुलकरसम्भवो निरूपितस्तद्व्यतिरिक्तं शेषं पच २ पुरुषपर्वसम्पाद्यमाननवर दंडनीत्यादिकं तदेव पूर्वोक्तमेवावसेयं, अत्रैव दण्डनीतिक्रमविशेषस्वरूपमाह| दण्डनीतयः कुलकरसम्पाद्या हाकारादयः प्रतिलोमा:- पश्चानुपूर्व्या जाता नेतव्याः प्रापणीयाः बुद्धिपधमिति शेषः, | प्रथमपञ्चकस्य धिक्कारादयः उत्कृष्टमध्यमजघन्यापराधिनां यथाहं तिस्रः द्वितीयपञ्चकस्य कालानुभावेनोत्कृष्टापराध
Fur Frate&Personal Use Oy
~ 357~
२वक्षस्कारे मांसवर्जन
व्यवस्था सू.
३९ शेषोत्सर्पिणीव
न सू. ४०
॥ १७७॥
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------
--- मूलं [३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
विधुराणां मध्यमजघन्यापराधयोर्माकारहाकाररूपे द्वे तृतीयपञ्चकस्य पूर्षापराधद्वयविधुराणां जघन्येऽपराधे हाकारलक्षणा प्रथमेति, अत्र दण्डनीतय इत्युपलक्षणं तेन शरीरायुष्कप्रमाणादिकमपि यथासम्भवं प्रतिलोमतया ज्ञेयमिति, | वाचनान्तरसूत्रस्यायं भावः-अत्र व्यवच्छिन्ने राजधर्म कालानुभावेन प्रतनु २ कषायाः शास्तारो नोग्रस्तेजरकं दण्डं।
करिष्यन्ति नापि शासनीयास्तदुचितमपराधं करिष्यन्ति ततोऽरिष्ठनामकचक्रवर्तिसन्तानीयाः पञ्चदश कुलकराः। 18 भविष्यन्ति शेषाश्च तत्कृतमर्यादापालकाः क्रमेण च सर्वेऽप्यहमिन्द्रनरत्वं प्रपत्स्यन्ते, अत्र च ऋषभनामा कुलकरो 18न तु ऋषभस्वामिनामा तीर्थकृत्, तत्स्थानीयस्य भद्रकृतस्तीर्थकृतः प्रस्तुतारकस्यैकोननवती पक्षेष्वतिक्रान्तेषु उत्प
स्थमानत्वेनागमेऽभिहितत्वादिति, फिश्च स्थानाङ्गसप्तमे स्थानके सप्त कुलकरा उक्तास्तत्र सुमतिनामापि नोक्तं, दश-16 मे तु सीमङ्करादयो दशोक्तास्तत्र सुमतिनामोक्तं, परं प्रान्ते न, समवायाङ्गे तु सप्त तथैव, दश तु विमलवाहनादयः सुमतिपर्यन्ता उक्ताः, स्थानानवमस्थानके च सुमतिपुत्रत्वेन पद्मनाभोत्पत्तिरुक्ता तथा प्रस्तुतग्रन्थे द्वितीयारके कुलकरा मूलत एव नोक्ताश्चतुर्थारके तु मतान्तरेण सुमत्यादयः पञ्चदशोक्तास्तेन कुलकरानाधित्य भिन्न २ नामता-1 व्यस्तनामतान्यूनाधिकनामतारूपसूत्रपाठदर्शनेन व्यामोहो न कार्यो, वाचनाभेदजनितत्वात् तस्य, भवति हि वाचनाभेदे पाठभेदस्तत्त्वं तु केवलिगम्यमिति । अथात्रैव त्रिभागे किं किं व्युच्छेदं यास्यतीति दर्शयन्नाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्यां समायां प्रथमे त्रिभागे राजधर्मों यावद्धर्मचरणं च व्युच्छेत्स्यति, यावत्करणात् गणधर्मः पाख
ececececenecesscenese
दीप
अनुक्रम [५२-५३]
~358~
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------.
--- मूलं [३९-४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा- न्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
या वृतिः
॥१७८॥
दीप
व्हंधम्मोऽग्निधर्मश्चेति, अथ शेषद्विभागवक्तव्यतामाह-तीसे णमित्यादि, तस्याः समाया मध्यमपश्चिमयोखिभागयो-18|श्वक्षस्कारे यो, प्रथममध्यमयोरित्यत्र यथासम्भवमर्थयोजनाया औचित्येन मध्यमप्रथमयोरित्यवसेयं, अन्यथा शुद्धप्रतिलोम्याभा- मांसवर्जनवादनुपपत्तिः स्यादिति, अवसर्पिण्या वक्तव्यता सा भणितव्या, गतश्चतारक इति, अथ पञ्चमषष्ठावतिदेशेनाह-| |'सुसमा' इत्यादि, सुषमा-पञ्चमसमालक्षणः कालस्तथैव-अवसप्पिणीद्वितीयारकवदिति, सुषमसुषमा-पष्ठारकः सोऽपि ॥९॥
| ३९ शेपो
त्सर्पिणीवतथैव-अवसर्पिणीप्रथमारकसदृश इत्यर्थः, कियत्पर्यन्तमत्र ज्ञेयमित्याह-यावत्पविधा मनुष्या अनुसत्यन्ति-संतत्या M e
अनुवर्तिप्यन्ति यावच्छनैश्चारिणः यावत्पदात् पद्मगन्धादयः पूर्वोक्ता एवं ग्राह्याः । गतौ पश्चमपष्ठी, तगमने || |चोत्सर्पिणी गता, तस्यां च गतायामवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपं कालचक्रमपि गतम् । इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकब्बरसुरप्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुचयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयु. गप्रधानोपमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां
॥१७८॥ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमञ्जूषानाभ्यां भरतक्षेत्रखरूपवर्णनप्रस्तावनागताव
सपिण्युत्सर्पिणीद्वयरूपकालचक्रवर्णनो नाम द्वितीयो वक्षस्कारः॥
अनुक्रम [५२-५३]
अत्र द्वितिय-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~359~
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अथ तृतीयो वक्षस्कारः ॥३॥
प्रत
सूत्राक [४१]
दीप
अथ वर्ण्यमानस्यैतद्वर्षस्य नाम्नः प्रवृत्तिनिमित्तं पिपृच्छिषुराह-- से केणद्वेणं भंते! एवं वुञ्चई-भरहे वासे २१, गोअमा ! भरहे गं वासे वेअद्धस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं चोइसुत्तरं जोअणसयं एगस्स य एगूणवीसइमाए जोअणस्स अवाहाए लवणसमुदस्स उत्तरेणं चोरसत्तरं जोअणसय एकारस य एगूणवीसहभाए जोअणस्स अवाहाए गंगाए महाणईए परस्थिमेणं सिंघूए महाणईए पुरथिमेणं दाहिणभरहमज्जिालतिभागरस बहुमन्मदेसभाए एत्व णं विणीआणामं रायहाणी पण्णता, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिन्ना दुवालसजोभणायामा णवजोअणविच्छिण्णा धणवइमतिणिम्माया चामीयरपागारा णाणामणिपञ्चवण्णकविसीसगपरिमंडिआभिरामा अलकापुरीसंकाशा पमुइयपकीलिमा पबक्सं देवलोगभूमा रिद्धिस्थिमिश्रसमिद्धा पमुइअजणजाणवया जाव पडिरूवा (सूत्रम् ४१)
अथ-सम्पूर्णभरतक्षेत्रस्वरूपकथनानन्तरं केनार्थेन भगवन् ! एवमुच्यते-भरतं वर्ष २१, द्विर्वचनं प्राग्वत् , भगवा-3 HO नाह-गौतम! भरते वर्षे वैताव्यस्य पर्वतस्य दक्षिणेन चतुर्दशाधिकं योजनशतमेकादश चैकोनविंशतिभागान् योज-18
नस्याबाधया-अपान्तरालं कृत्वा तथा लवणसमुद्रस्योत्तरेणं, दक्षिणलवणसमुद्रस्योत्तरेणेत्यर्थः, पूर्वापरसमुद्रयोगङ्गासि-IS
Se0%a8er282909298990
अनुक्रम [१४]
अथ तृतिय-वक्षस्कारः आरभ्यते
अथ भरतवर्षस्य नाम्न: हेतु प्रदर्श्यते
~360~
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४१]
दीप
अनुक्रम [५४]
वक्षस्कार [3],
मूलं [४१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ १७९ ॥
Ju Ekemitin
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
न्धुभ्यां व्यवहितत्वान्न तद्विवक्षा, गङ्गाया महानद्याः पश्चिमायां सिन्ध्वा महानद्याः पूर्वस्यां दक्षिणार्द्ध भरतस्य मध्यम| तृतीयभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र - एतादृशे क्षेत्रे विनीता - अयोध्यानाम्नी राजधानी - राजनिवासनगरी प्रज्ञप्ता मयाऽ न्यैश्च तीर्थकृद्भिरिति, साधिक चतुर्दशाधिकयोजनशताङ्कोत्पत्तौ त्वियमुत्पत्तिः- भरतक्षेत्रं ५०० योजनानि २६ योजनानि षट् ६ कला योजनैकोनविंशतिभागरूपा विस्तृतं, अस्मात् ५० योजनानि वैताढ्य गिरिव्यासः शोध्यते, जातं ४७३ कलाः, दक्षिणोत्तर भरतार्द्धयोर्विभजनयैतस्यार्द्ध २३८३ कलाः, इयतो दक्षिणार्द्ध भरतव्यासात् 'उदीणदा| हिणविच्छिण्णा' इत्यादिवक्ष्यमाणवचनाद्विनीताचा विस्ताररूपाणि नव योजनानि शोध्यन्ते, जातं २२९१ कलाः, | अस्य च मध्यभागेन नगरीत्यर्द्ध करणे ११४ योजनानि अवशिष्टस्यैकस्य योजनस्यैकोनविंशतिभागेषु कलान्त्रयक्षेपे | जाताः २२ तदर्द्ध ११ कला इति, तामेव विशेषणैर्विशिनष्टि - 'पाईणपडीणायया' इत्यादि पूर्वापरयोदशोरायता, उत्तरदक्षिणयोर्विस्तीर्णा, द्वादशयोजनायामा नवयोजनविस्तीर्णा धनपतिमत्या- उत्तरदिक्पालबुद्ध्या निर्माता- निर्मि तेत्यर्थः, निपुणशिल्पिविरचितस्यातिसुन्दरत्वात्, यथा च धनपतिना निर्मिता तद् ग्रन्थान्तरानुसारेण किञ्चिद् व्यक्तिपूर्वकमुपदर्श्यते, “श्रीविभो राज्यसमये, शक्रादेशान्नवां पुरीम् । धनदः स्थापयामास, रत्नचामीकरोत्करैः ॥ १ ॥ द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तृता । अष्टद्वारमहाशाला, साऽभवत्तोरणोज्वला ॥ २ ॥ धनुषां द्वादशशतान्युच्चै - | स्त्वेऽष्टशतं तले । व्यायामै शतमेकं स, व्यधाद्वनं सखातिकं ॥ ३ ॥ सौवर्णस्य च तस्यार्द्धं, कपिशीर्षावलिर्वभौं । मणि
अत्र विनितानगरी वर्णनं क्रियते
Fu Pale & Punal Use Only
~ 361~
| ३वक्षस्कारे विनीताबर्णनं सू. ४१
॥ १७९॥
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [४१]
दीप
जाऽमरशैलस्थनक्षत्रालिरिवोगता ॥४॥ चतुरस्राश्च व्यस्राश्च, वृत्ताश्च स्वस्तिकास्तथा । मन्दाराः सर्वतोभद्रा, एकभूमा
द्विभूमिकाः॥५॥ त्रिभूमाधाः सप्तभूमं, यावत्सामान्यभूभुजाम् । प्रासादाः कोटिशस्तत्राभूवन् रलसुवर्णजाः ॥६॥ IN/ युग्म ॥ दिश्यशान्यां सप्तभूम, चतुरखं हिरण्मयम् । सवप्रखातिकं चक्रे, प्रासादं नाभिभूपतेः ॥७॥ दिश्यन्द्रचा सर्वतो
भद्रं, सप्तभूमं महोन्नतम् । वर्तुलं भरतेशस्य, प्रासादं धनदोऽकरोत् ॥८॥ आग्नेय्यां भरतस्यैव, सौधं बाहुबलेरभूत् । शेषाणां च कुमाराणामन्तरा घभवन तयोः॥९॥ तस्यान्तरादिदेवस्य, चैकविंशतिभूमिकम् । त्रैलोक्यविभ्रमं नाम.. प्रासादं रत्नराजिभिः॥१०॥ सहमखातिकं रम्यं, सुवर्णकलशावृतम् । चञ्चद्ध्वजपटव्याजान्नत्यन्तं निर्ममे हरिः॥ ॥११॥ युग्मम् । अष्टोत्तरसहस्रेण, मणिजालैरसौ बभौ । तावत्सायमुखैभूरि, ध्रुवाणमिव तद्यशः ॥ १२॥ कल्पदुमैर्वृताः सर्वेऽभूवन् सेभहयौकसः । सप्राकारा बृहदासःपताकामालभारिणः ॥ १३ ॥ सुधर्मसदृशी चारु, रत्नम| य्यभवत्पुरी । युगादिदेवपासादात, सभा सर्वप्रभाभिधा ॥ १४ ॥ चतुर्दिा विराजन्ते, मणितोरणमालिकाः । पञ्चव
प्रभाकूरपूरडम्बरिताम्बराः ॥१५॥ अष्टोत्तरसहस्रेण, मणिबिम्बैर्विभूषितम् । गव्यूतिद्वयमुत्तुङ्गं, मणिरत्नहिरण्मयम् ॥१६॥ नानाभूमिगवाक्षाढ्यं, विचित्रमणिवेदिकम् । प्रासादं जगदीशस्य, व्यधाच्छ्रीदः पुरान्तरा ॥ १७॥ युग्मम् । सामन्तमण्डलीकाना, नन्द्यावर्त्तादयः शुभाः । प्रासादा निर्मितास्तत्र, विचित्रा विश्वकर्मणा ॥ १८ ॥ अष्टोत्तरसहस्रं तु, जिनानां भवनान्यभुः। उच्चै जाग्रसंक्षुब्धतीक्ष्णांशुतुरगाण्यथ ॥१९॥ चतुष्पथप्रतिबद्धा, चतुरशीतिरुचकैः ।
अनुक्रम [१४]
~362~
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशातिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१८॥
[४१]
दीप अनुक्रम [१४]
प्रासादाश्चाहता रम्या, हिरण्यकलशैर्वभुः ॥ २० ॥ सौधानि हिरण्यरत्नमयान्युच्चैः सुमेरुवत् । कौवे- सपताकानि, ३ वक्षस्कारे |चक्रे स व्यवहारिणाम् ॥ २१ ॥ दक्षिणस्यां क्षत्रियाणां, सौधानि विविधानि च । अभूवन साखागाराणि. तेजांस्यवनि-विनीताववासिनाम् ॥ २२ ॥ तद्वमान्तश्चतुर्दिक्षु, पौराणां सौधकोटयः । व्यराजन्त घुसद्यानसमानविशदश्रियः ॥ २३ ॥
नसू.४१ सामान्यकारुकाणां च, वहिः प्राकारतोऽभवत् । कोटिसङ्ख्याश्चतुर्दिा, गृहाः सर्वधनाश्रयाः ॥ २४ ॥ अपाच्यां च । प्रतीच्यां च, कारुकाणां बभुर्ग्रहाः । एकभूमिमुखास्यनास्त्रिभूमि यावदुच्छ्रिताः ॥ २५ ॥ अहोरात्रेण निर्माय, तां || पुरी धनदोऽकिरत् । हिरण्यरनधान्यानि, वासांस्याभरणानि च ॥ २६ ॥ सरांसि वापीकूपादीन, दीर्घिका देवताल-13 यान् । अन्यच्च सर्व तत्राहोरात्रेण धनदोऽकरोत् ॥ २७ ॥ विपिनानि चतुर्दिक्षु, सिद्धार्थश्रीनिवासके । पुष्पाकार। नन्दनं चाभवन भूयांसि चान्यतः ॥२८॥ प्रत्येक हेमचैत्यानि, जिनानां तत्र रेजिरे । पवनाहृतपुष्पालिपूजितानि दुमैरपि ॥ २९ ॥ प्राच्यामष्टापदोपाच्या महाशैलो महोन्नतः । प्रतीच्या सुरशैलस्तु, कौवे-मुदयाचलः ॥३०॥ तवमभवन शैलाः, कल्पवृक्षालिमालिताः । मणिरत्नाकराः प्रोचैर्जिनावासपवित्रिताः ॥ ३१ ॥ शकाज्ञया रसमयीमयोध्यापरनामतः। विनीता सुरराजस्य, पुरीमिव स निर्ममे ॥ ३२ ॥ यद्धास्तव्यजना देवे, गुरौ धर्मे च सादराः । | स्थैर्यादिभिर्गुणैर्युक्ताः, सत्यशौचदयान्विताः ॥ ३४ ॥ कलाकलापकुशलाः, सत्सङ्गतिरताः सदा। विशदाः शान्त-18 | सद्भावा, अहमिन्द्रा महोदयाः ॥ ३४ ॥ युग्मम् । तत्पुर्यामृषभः स्वामी, सुरासुरनरार्चितः । जगत्सृष्टिकरो राज्य,
~363~
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [४१]
पाति विश्वस्य रञ्जनात् ॥ ३५ ॥ अन्बयोध्यमिह क्षेत्रपुराण्यासन् समन्ततः । विश्वस्रष्ट्रशिल्पिवृन्दघटितानि तवुक्तिभिः ॥२६॥” इति, सङ्केपेण त्वेतत्स्वरूपं सूत्रकारोऽप्याह-चामीअरपागारे'त्यादि, चामीकरमाकारा नानामणिकपिशीर्षपरिमण्डिता अभिरामा अलकापुरी-लौकिकशाने धनदपुरी तत्संकाशा-तत्सन्निभा प्रमुदितजनयोगानगर्यपि 'वात्स्थ्यात्
तव्यपदेश' इति न्यायात् प्रमुविता तथा प्रक्रीडिता:-क्रीडितुमारब्धवन्तः क्रीडावन्त इत्यर्थः तादृशा के जनास्तद्यो18 गानगर्यपि प्रक्रीडिता, पश्चाद्विशेषणसमासः, प्रत्यक्ष-प्रत्यक्षप्रमाणेन तस्यानुमानाद्याधिकेक विशेषप्रकाशकत्वात् शतजन्यज्ञानस्य सकलप्रतिपत्तणां विप्रतिपत्त्यविषयत्वात् , देवलोकभूता-स्वर्गलोकसमाना, 'ऋस्तिमितसमृद्धेला
दिविशेषणानि प्राग्वत्, इतिः परिसमाप्तौ, नवरं प्रमुदितजनजानपदेति विशेषणं प्रमुदितप्रक्रीडितेति विशेषणस्य हेतुतयोपन्यस्तं तेन न पौनरुक्त्यमाङ्कनीयं। नन्वेवं प्रस्तुतक्षेत्रस्य नामप्रवृत्तिः कथं जातेत्याह
क्य णं विणीआर रायहाणीए सरहे णाम राया पारंतचकवट्ठी समुपजित्था, महया हिमक्तमहतमलयमवर जाब र पसासेमाणे विहव । बिहओ गमो रायवण्णगस्स इमो, तत्थं असंखेजकालनासंतरेण उप्पज्जए संसी उत्तमे अभिजाय पत्कीरिजन परकमगुणे पसत्थवष्णसरसारसंघयणतणुगबुद्धिधारणमेहासंठाणसीलप्पगई पहाणगारवछायागकर अगायापदाणे तेअभाजयलबीरिअजुसे अशुसिरघणणिचिअलोहसंकलणारायवहरउसहसंघयणदेहधारी झस १ जुग २ भिंगार ३ वज्रमाणग १ भरमाणग५ संखच ७ वीअणि ८ पहाग ९ पक १० णंगल ११ गुसळ १२ रह १३ सोस्थिभ १४ अंकुस १५ चंदा १६ इ
दीप
अनुक्रम [१४]
SaRO
श्रीषम्
॥
अथ चक्रवर्तीराजा-भरतस्य वर्णनं क्रियते
~364~
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१८॥
भरतराजवर्णनं सु. ४२
[४२]
दीप अनुक्रम [१५]
१७ अग्गि १८ जूय १९ सागर २० इंदझय २१ पुहवि २२ परम २३ कुंजर २४ सीहासण २५ पंड २६ कुम्म २७गिरिवर २८ तुरगवर २९ वरमउड ३० कुंडल ३१ गंदावच ३२ घणु ३३ कोंत ३४ गागर ३५ भवणविमाण ३६अणेगलक्खणपसत्थसुविभत्तचित्तकरचरणदेसभागे उद्धामुहलोमजालमुकुमालणिमउआवत्तपसत्थलोमविरइअसिरिवच्छच्छण्णविजलवच्छे देसखेत्तसुविभत्तदेहधारी तरुणरविरस्सिबोहिअवरकमलवियुद्धगम्भवण्णे हयपोसणकोससण्णिभपसत्यपिहृतणिरुपलेवे पलमुष्पलकुंदजाइजूहियवरचंपगणागपुष्फसारंगतुलगंधी छत्तीसाअहिअपसत्यपस्थिवगुणेदि जुत्ते अवोच्छिण्णात्तपत्ते पागडउभयजोणी वि. सुद्धणिअगकुलगयणपुण्णचंदे चंदे इव सोमयाए णयणमणणिन्वुईकरे अक्सोभे सागरो व थिमिए धणवइव भोगसमुदयसदबयाए समरे अपराइए परमविक्रमगुणे अमरवइसमाणसरिसरूवे मणुअवई अरइचकवट्टी भरहं भुंजइ पण्णसत्तू (सूत्र ४२)
'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र विनीताया राजधान्यां भरतो नाम राजा, सच सामन्तादिरपि स्यादत आह-चक्रवत्ती सच वासुदेवोऽपि स्यादतश्चत्वारोऽन्ताः-पूर्वापरदक्षिणसमुद्रास्त्रयः चतुर्थों हिमवान् इत्येवस्वरूपास्ते वश्यतयाऽस्य सन्तीति चातुरन्तः पश्चाच्चक्रवर्तिपदेन कर्मधारयः समुदपद्यत, महाहिमवान्-हैमवतहरिवर्षक्षेत्रयोर्विभाजकः कुल-18 गिरिः स इव महान् शेषपृथ्वीपतिपर्वतापेक्षया मलयः-चन्दनदुमोत्पत्तिप्रसिद्धो गिरिः मन्दरो-मेरुः यावत्पदात्प्रथमोपाङ्गतः समग्रो राजवर्णको ग्राह्यः कियत्पर्यन्त इत्याह-राज्यं प्रशासयन्-पालयन् विहरतीति, नन्वेवमपि शाश्वती भरतनामप्रवृत्तिः कथं , तदभावे च 'सेत्त'मित्यादि वक्ष्यमाणं निगमनमप्यसम्भवीत्याशङ्कया प्रकारान्त
॥१८॥
~365~
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
रेण तत्तत्कालभाविभरतनामचक्रवर्युदेशेन राजवर्णनमाह-'विइओ गमों' इत्यादि, द्वितीयो गमः-पाठविशेषोप
लक्षितो ग्रन्थो राजवर्णकस्याय, 'तत्र' तस्यां विनीताया, असञ्जयः कालो यैवर्षेस्तानि वर्षाणि असङ्ख्येयानीत्यर्थः, IS तेषामन्तरालेन-विचालेन, अयमर्थः-प्रवचने हि कालस्यासङ्ख्मयता असङ्ख्येयैरेव च वयंवड़ियते, अन्यथा समया-18
पेक्षयाऽसोयत्वे ऐदंयुगीनमनुष्याणामसङ्ख्येयायुष्कत्वब्यवहारप्रसङ्गः, तेनासङ्ख्येयवर्षात्मकासरेयकाले गते एक| स्माद् भरतचक्रवर्तिनोऽपरो भरतचक्रवती यतः प्रकृतक्षेत्रस्य भरतेति नाम प्रवर्तते स उत्पद्यते इति क्रियाकारक-18 सम्बन्धः, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् , आवश्यकचूणौ तु "तत्य व संखिजकालवासाउए" इति पाठः, तत्र च-भरते | सङ्ख्यातकालवर्षाणि आयुर्यस्य स सङ्ख्यातकालवर्षायुष्का, तेनास्य युग्मिमनुष्यत्वव्यवहारो व्यपाकृतो द्रष्टव्यः तेषाम-II सङ्ख्यातवर्षायुष्कत्वादिति, ननु भरतचक्रिणोऽसयातकालेऽतीयुषि सगरचयादिभिरिदं सूत्रं व्यभिचारि, तेषां
भरतनामकत्वाभावात् , उच्यते, नहीदं सूत्रमसख्येयकालवर्षान्तरेण सकलकालवर्तिनि चक्रवर्तिमण्डले नियमेन | | भरतनामकचक्रवर्तिसम्भवसूचकं किन्तु कदाचित्तत्सम्भवसूचकं, यथा आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भरताख्यः प्रथ-18
॥ मचक्री, यत आह-भरहे अ दीहदंते अ, गूढदंते अ सुद्धदंते अ । सिरिअंदे सिरिभूई, सिरिसोमे अ सत्तमे ॥१॥" ॥ इत्यादिसमवायाइतीर्थोद्गारप्रकीर्णकादौ, सच कीश इत्याह-'यशस्वी ति व्यक्तं, उत्तमः शलाकापुरुषत्वात्,
अभिजात:-कुलीनः श्रीऋषभादिवश्यत्वात् सत्त्व-साहसं वीर्य-आन्तरं बढ़ पराक्रमः-शत्रुवित्रासनशक्तिरेते गुणा
दीप
अनुक्रम [१५]
~366~
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
४१
[४२]
दीप
भीजम्ब- यस्य, एतेन राजन्योचितसर्वातिशायिगुणवत्त्वमाह, प्रशस्ता:-तत्कालीनजनापेक्षया श्लाघनीयाः वर्ण:-शरीरच्छविः३वक्षस्कारे द्वीपशा-1 स्वरो-वनिः सार:-शुभपुद्गलोपचयजन्यो धातुविशेषः शरीरदायहेतुः संहननं-अस्थिनिचयरूपं तमुक-शरीरंग भरुवराबन्तिचन्द्री- बद्धिः-औत्पत्त्यादिका धारणा-अनुभूतार्थवासनाया अविच्युतिः मेधा-हेयोपादेयधीः संस्थानं यथास्थानमङ्गोपाङ्ग-8 वर्णन इ. या वृत्तिः
॥ विन्यासः शील-आचारः प्रकृति:--सहजं ततो द्वन्द्वे, प्रशस्ता वर्णादयोऽर्था यस्य स तथा, भवन्ति च विशिष्टाः वर्ण॥१८॥ || स्वरादयः आज्ञैश्वर्यादिप्रधानफलदाः, प्रधाना-अनन्यवचिनो गौरवादयोऽर्था यस्य स तथा, तत्र गौरच-महानाम
न्ताविकृताभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिः छाया-शरीरशोभा गतिः-सश्चरणमिति, अनेकेषु-विविधप्रकारेषु वचनेषु-वक्तव्येषु प्रधानो-मुख्यः, अनेकधावचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्तनादौ “आदौ तावन्मधुरं मध्ये रूक्षं ततः परं कहुकम् ।। भोजन विधिमिव विबुधाः स्वकार्यसिस वदन्ति वचः॥१॥" अथवा "सत्यं मित्रः प्रियं खीभिरलीकमधुरं द्विषा। अनुकूलं च सत्संच, वक्तव्यं स्वामिना सह ॥२॥" इति, तेजः-परासहनीयः पुण्यः प्रतापः अभेदोपचारेण तवान् । 'तेजसां. हि न वयः समीक्ष्यते' इत्यादिवत् , आयुर्वलं-पुरुषायुषं तदू यावद्वीयं तेन युक्तः, तेब जरारोगाविनोपहत-13 वीर्यत्वं नास्येति भावः, पुरुषायुपं च तदानीन्तनकाले प्राकृतजनानां पूर्वेकोटिसद्भावेऽप्यस्य त्रुटिताजप्रमाण बोद्धव्यं, नरदेवस्यैतावत एवायुषः सिद्धान्ते भणनात्, एतेन भेदः पूर्वविशेषणादस्येति, अशुपिरं-निश्छिद्रं अत एव घननिचित-निर्भरभृतं यशोहश्यवलं तदिव नाराचवज्रऋषभ प्रसिद्ध्या वज्रऋषभनाराचं संहननं यत्र तं तथाविध देहं ।
Scooteeseae
अनुक्रम [१५]
~367~
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
| परन्तीत्येचंशीला, झपो-मीनः १ युग-शकटाङ्गविशेषः २ भृङ्गारो-जलभाजनविशेषः ३ वर्द्धमानक ४ भद्रासनं ५81 18| शो-दक्षिणावर्तः छत्र-प्रतीतं ७ बजन-पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् ब्यालव्यजन अथवा 'ते लुग्वा' (श्रीसि-118
ख० म.पा.२ सू.१०८) इत्यनेन वालपदलोपः, चामरं आर्यत्वात् खीत्वं तेन व्यजनीतिनिर्देशः ८ पताका ९ चक्रं १08 18| लाल ११ मुशलं १२ रथः १३ स्वस्तिकं १४ अङ्कुशः१५ चन्द्र १६ आदित्या १७नयः प्रतीताः १८ यूपो-यज्ञस्तम्भः18
|११ सागर:-समुद्रः २० इन्द्रध्वज २१ पृथ्वी २२ पद्म २३ कुञ्जराः २४ कण्ठ्याः , सिंहासन-सिंहातितं नृपासनं २५ | दण्ड २६ कर्म २७ गिरिवर २८ तुरगवर २९ मुकुट ३० कुण्डलानि ३१ व्यक्तानि, नन्द्यावतः-प्रतिदिग् नवकोणका ३२ | स्वस्तिकः धनु।कुन्ती व्यक्ती ३३-३४ गागरः स्त्रीपरिधान विशेषः ३५ भवन-भवनपतिदेवावासः विमानं वैमानिक-8 | देवावासः ३६ एतेषां द्वन्द्वः, तत एतानि प्रशस्तानि-माङ्गल्यानि सुविभक्तानि-अतिशयेन विविक्तानि यान्यनेकानि| अधिकसहनप्रमाणानि लक्षणानि तैश्चित्रो-विस्मयकरः करचरणयोर्देशभागो यस्य स तथा, अत्र पदव्यत्ययः प्राकृत| त्वात् , तीर्थकृतामिव चक्रिणामष्यष्टाधिकसहस्रलक्षणानि 'सिद्धान्तसिद्धानि, यदाह निशीथचूर्णो-पागयमणुआणं | बत्तीस लक्खणानि अहसयं बलदेववासुदेवाणं अहसहस्सं चलचहितित्थगराणं'ति, ऊर्ध्व मुखं भूमेरुद्गच्छतामङ्कुराणामिव येषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि लोमानि तेषां जालं-समूहो यत्र स तथा, अनेन च श्रीवत्साकारण्यक्तिदर्शिता, | अन्यथाऽधोमुखैस्तैः श्रीवत्साकारानुन्नवः स्यात् , सुकुमालस्निग्धानि-नवनीतपिण्डादिगव्याणि तानीव मृदुकानि आव
दीप
अनुक्रम
[५५]
~368~
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]]
दीप
श्रीजम्बू-1|| -चिकुरसंस्थानविशेषैः प्रशस्तानि-मङ्गल्यानि दक्षिणावर्तानीत्यर्थः यानि लोमानि तैरिचितो यः श्रीवत्सो-महा-1३वक्षस्कारे द्वीपशा- पुरुषाणां वक्षोऽन्तर्वी अभ्युनतोऽवयवस्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तेन छन्नं-आच्छादितं विपुलं वक्षो यस्य स तथा,
भरतराजविदेशे-कोशलदेशादी क्षेत्रे-तदेकदेशभूतविनीतानगऱ्यादौ सुविभक्तो-यथास्थान विनिविष्टावयवो यो देहस्तं धरतीत्ये-11
वर्णनं स. या प्रत्तिः
.४२ 18| वंशीलः, तत्कालावच्छेदेन भरतक्षेत्रे न भरतचक्रितोऽपरः सुन्दराङ्ग इत्यर्थः, तरुणस्य-उद्गच्छतो रखेयें रश्मयः-किरणा-18 ॥१८३॥18|स्तैर्वोधित-विकासितं यदरकमलं-प्रधानसरोज हेमाम्बुजमित्यर्थस्तस्य विबुधो-विकस्वरो यो गर्भो-मध्यभागस्तद्वंद्वर्णः-९
18 शरीरच्छविर्यस्य स तथा, हयपोसनं-'पुस उत्सर्गे' इति धातोरनटि हयापानं तदेव कोश इब कोशः सुगुप्तत्वात् || | तत्सन्निभः प्रशस्तः पृष्ठस्य-पृष्ठभागस्यान्तः-चरमभागोऽपानं तत्र निरुपलेपो लेपरहीतपुरीषकत्वात् , पा प्रतीतं |
उत्पल-कुष्ठं कुन्दजातियूथिकाः प्रतीताः वरचम्पको-राजचम्पक: नागपुष्प-नागकेसरकुसुम सारङ्गानि-प्रधानदलानि|| | अथवा पदैकदेशे पदसमुदायग्रहणात् सारङ्गशब्देन सारङ्गमदः-कस्तूरी द्वन्द्वे कृते एतेषां तुल्यो गन्धः-शरीरपरिमलो|8| यस्य स तथा, तद्धितलक्षणादिप्रत्ययात् रूपसिद्धिः, षट्त्रिंशता अधिकप्रशस्तैः पार्थिवगुणयुक्तः, ते चेमे-'अव्यङ्गो १18 लक्षणापूर्णो २, रूपसम्पत्तिभृत्तनुः । अमदो ४ जगदोजस्वी५, यशस्वी ६ च कृपालुहत् ७॥१॥ कलासु कतकर्मा ८च, शुद्धराजकुलोद्भवः । वृद्धानुग १० खिशक्ति ११च, प्रजारागी १२ प्रजागुरुः १३ ॥२॥ समर्थनः
विरचिता-अलङ्कतो या श्रीवत्सः जिनप्रतिमायां प्रसिद्धो वक्षोऽन्तः सुप्रमाणोनतमासलप्रदेशाविशेषसेन ज्मं ( इति ही पत्ती)
अनुक्रम [१५]
॥१८॥
~369~
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
पुमर्थानां, त्रयाणां सममात्रया १४ । कोशवान् १५ सत्यसन्धश्च १६, चरदृग् १७ दूरमन्त्रहम् १८॥३॥ आसिद्धि कर्मोद्योगी १९ च, प्रवीणः शस्त्र २० शास्त्रयोः २१। निग्रहा २२ नुग्रहपरो २३, निलचं दुष्टशिष्टयोः २४ ॥४॥18 | उपायार्जितराज्यश्री २५र्दानशौण्डो २६ ध्रुवजयी २७ । न्यायप्रियो २८ न्यायवेत्ता २९, व्यसनानां व्यपासका ||३०॥ ५॥ अवार्यवीयर्यो ३१ गाम्भीयौँ ३२ दार्य ३३ चातुर्यभूपितः-३४ । प्रणामावधिकक्रोध ३५ स्तात्त्विकः 18 सात्त्विको नृपः३६॥६॥" एते पाठसिद्धार्थाः, नवरमौदार्य-दाक्षिण्यं, तेनं दानशौण्डतागुणादस्य भेदः, यद्यप्येते-18 पामेव मध्यवर्तिनः केचन गुणाः सूत्रकृता साक्षात् पूर्वसूत्रे उक्ता उत्तरसूत्रे च वक्ष्यन्ते तथापि षट्त्रिंशसंख्यामेलना-18 र्थमत्र ते उक्ता इति न दोषः, उपलक्षणाच मानोन्मानादिवृद्धिकृत्त्वभक्तवत्सलत्वादयोऽन्येऽपि उक्तातिरिका माह्या इति, अव्यवच्छिन्न-अखण्डितमातपत्र-छत्रं यस्य स तथा, एतेन पितृपितामहक्रमागतराज्यभोक्तति सूचितं, अथवा संयमकालादर्वाग् न केनापि बलीयसा रिपुणा तस्य प्रभुत्वमाच्छिन्नमिति, प्रकटे-विशदाबदाततया जगत्प्रतीते उभययोन्यौ-मातृपितृरूपे यस्य स तथा, अत एव विशुद्ध-निष्कलई यन्निजककुलं तदेव गगनं तन्न पूर्णचन्द्र:-चन्द्र इव सोमव्या-मृदुखभावेन नयनमनोनिवृतिकर: आल्हादक इत्यर्थः, अक्षोभो-भयरहितः सागरः-प्रस्तावात् क्षीरसमुद्रादिः स इव स्तिमित:-स्थिरश्चिन्ताकल्लोलवर्जितो न पुनर्वेलावसरवर्द्धिष्णुकल्लोललवणोद इवास्थिरस्वभाव इत्यर्थः, | धनपतिरिव-कुबेर इव भोगस्य समुदयां सम्यगुदयस्तेन सह सद्-विद्यमानं द्रव्यं यस्य स भोगसमुदयसद्रव्यस्तस्य
See Reeeeeeeee
दीप
अनुक्रम
[५५]
Saeeeee
~370~
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४२]
दीप अनुक्रम [१५]
श्रीजम्यू- भावस्तत्ता तया, भोगोपयोगिभोगाङ्गसमृद्ध इत्यर्थः, समरे-संग्रामे अपराजितो-भङ्गमप्राप्तः परमविक्रमगुणः व्यक्त.१३वक्षस्कारे द्वीपशा- अमरपतेः समानं सहशमत्यर्थतुल्यं रूपं यस्य स तथा मनुजपतिः-नरपतिर्भरतचक्रवती उत्पद्यते इति तु प्राग्यो- चक्रात्यन्तिचन्द्री-18|जितमेव, अथोत्पन्नः सन् किं कुरुते इत्याह--'भरहे'त्यादि, अनन्तरसूत्रे एव दर्शितस्वरूपो भरतचक्रवती भरतं 81
तितत्पूजोया वृत्तिः
त्सवास. भुले-शास्तीति, प्रनष्टशत्रुरिति व्यक्त, अत इदं भरतक्षेत्रमुच्यते इति निगमनमने वक्ष्यते । अथ प्रस्तुतभरतस्य | ॥१८॥
दिग्विजयादिवतव्यतामाह-- वए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ आउहघरसालाए दिवे चकरयणे समुष्पज्जित्था, तए णं से आजपरिए भरहस्स रण्णो आउधरसालाए दिवं चारवणं समुप्पण्णं पासह पासित्ता हतुह चित्तमाणदिए नंदिप पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहिभए जेणामेव दिवे चकारयणे तेणामेव उवागच्छइ २त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपवाहिणं करेइ २ चा करयल जाव कट्ट चक्करयणस्स पणामं करेइ २ ता आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणामेव बाहिरिमा उबढाणसाला जेणामेव भरहे राया तेणामेव पवागच्छह २ ता करयल जाव जएणं विजएणं वद्धावेह २ एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिआणं आउधरसालाए विखे चकरयणे समुप्पणे सं पअण्णं वेवाणुप्पिआणं पिअट्टयाए पिनं णिवएमो पि भे भवर, तते णं से भरहे राया तस्स भाउहपरिभस्म अंतिए एनम सोचा णिसम्म हह जान सोमणस्सिए विअसिअवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुसिभ
॥१८४॥ केकरमउडकुंडलहारविरायंतराअवच्छे पालंचपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरि पवलं गरिदे सीहासणाओ अब्भुढेह २ चा पायपीटामो पयोमहा २ सा पाउमाओ ओमुअइ २ चा पगसादिअं उत्तरासंग करेइ २ चा अंजलिमलिअम्गहस्ये चकारयणा
अथ भरतस्य दिग्विजय-आदि वक्तव्यता---
~371~
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Paatasalaa
[४३]
गाथा:
भिमुहे सत्तद्वपयाई अणुगच्छाइ २ चा वाम जाणुं अंचेइ २ चा वाहिणं जाणु धरणितलंसि णिहहु करयलजावभंजलि कहु चकारयणस्स पणामं करेइ २ चा तस्स आउहधरिअस्स अहामालिों मउडवलं ओमोरं दलद २ चा विउलं जीविभारिहं पीइचार्ण दलह २ त्ता सकाइ सम्माणेद २ सा पडिषिसइ २ सा सीहासणवरगए पुरत्याभिमुंहे सण्णिसण्णे । सए से भरहे राया को९विअपुरिसे सद्दावेइ २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा! विणीअं रायहाणि सभितरबाहिरिभ आसिमसमजिभसित्तसुगरत्थंतरचीहि मंचाइमंचकलिअं णाणाविहरागवसणऊसिअझयपडागाइपडागमंडिअं लाउल्लोइअमहिलं गोसीससरसरक्षचंदणकलसं चंदणघड्कयजावगंधुभाभिरामं सुगंधवरगंधिों गंधवटिभूअं करेह कारखेह करेत्ता कारवेत्ता य एभमाणसिक पञ्चप्पिणछ । तए णं ते कोडंविअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता इह० करयल जाव एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं परिणति २त्ता भरहस्स अंतिमो पडिणिक्खमंति २ ता विणीभं रायहाणि जाव करेचा कारवेत्ता य तमाणत्ति पञ्चप्पिणंति । तए यं से भरहे राया जेणेव मजणघरे तेणेव उबागच्छह २ चा मज्जणघर अणुपविसइ २ ता समुत्तजालाकुलाभिरासे विचित्तमणिरयणकुद्धिमतले रमणिजे ण्हाणमंडवंसि णाणामपिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढ़सि मुहणिसण्णे सुहोदएहि गंधोदएहिं पुष्कोदएहिं सुद्धोदएहि अ पुणे कलाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं कल्याणगपवरमजणावसाणे पम्हसुकुमालगंधकासाइमलद्विअंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगचे अयसुमहग्जदूसरयणमुसंवडे सुश्मालावण्णयविलेवणे आविवमणिसुवण्णे कपिमहारहारतिसरिअपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेबिज्वगअंगुलिजगललिअगयललिअफयाभरणे गाण्णमणिकहगतुडिअर्थमिभभूए अहिअसस्सिरीए कुंबळ उज्जोइआणणे मनवित्तसिरए हारोत्ययमुकयवच्छे पालंबपलंचमाणसुकयंपड उत्तरिजे मुदिापिंगलं
दीप अनुक्रम [५६-६०]
n eerines
~372 ~
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक
३वक्षस्कारे चक्रोत्यतितत्पूजोत्सवः स. ४३
द्वीपशान्तिचन्द्री-18
या चिः I૮
[४३]
गाथा:
गुलीए णाणामणिकणगविमलमहरिहणिउणोअविअमिसिमिर्सितविरइअसुसिलिट्ठषिसिट्ठलट्ठसंठिअपसत्थआविद्धवीरवलए, कि बहुणा!, कप्परुक्सए व अलंकिअविभूसिए णरिये सकोरंट जाव चउचामरवालबीइअंगे मंगलजयजयसदकयालोए अणेगगणणायगदंडणायगजावदूअसंधिवाल सद्धिं संपरिवुढे धवलमहामेहणिग्गए इव जाव ससित पियदसणे गरवई धूवपुष्फगंधमलहत्वगए मजणघरामो परिणिक्खमइ र त्ता जेणेव आउधरसाला जेणेव चक्करयणे तेणामेव पहारेत्य गमणाए । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बाहवे ईसरपभिइओ अप्पेगइआ पउमहत्वगया अप्पेगइया उप्पलहत्वगया जाव अगइआ सयसहस्सपत्तहस्थगया भरहं रायाण पिडओ २ अणुगछति । तए णं तस्स मरहस्स रण्णो वहूईओ-बुजा चिलाइ वामणिवडभीओ बब्बरी बउसिआओ। जोणिअपल्हविआओ इसिणिअथारुकिणिआओ ॥१॥ लासिअलउसिअदमिलीसिंहलि तह आरचीपुलिंदी अ । पकणि बहलि मुरुंडी सबरीओ पारसीओ अ॥२॥ अप्पेगइया वंदणकलसहत्यगयाओ चंगेरीपुष्फपडलहत्यगयाओ भिंगारआईसथालपातिमुपइहगवायकरगरयणकरंडपुष्पचंगेरीमहवण्णचुण्णगंधहत्यगयाओ वत्याभरणलोमहत्थयचंगेरीपुष्फपडलहत्थगयाओ जाव लोमहत्वगयाओ अप्पेगहभाभो सीहासणहत्यगयाओ छत्तचामरहत्थगयाओ तिल्लसमुग्णयहत्थगयाओ-'तेल्ले कोट्ठसमुम्गे पत्ते चोए म सगरमेला य। हरिआले हिंगुलए मणोसिला सासवसमुग्गे ॥ १ ॥ अप्पेगइआओ तालिअंटहत्यगयाओ अप्पे० धूवकडुच्छुभहत्थगयाओ भरएं रायाणं पिडभो २ अणुगच्छंति, नए णं से भरहे राया सचिड्डीए सबजुइए सबबलेणं सबसमुदयेणं सपायरेणं समविभूसाए सबविभूईए सववस्थपुष्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सवतुडिअसहसणिणारणं महया इडीए जाब महया वरतुभिजमगसमगपवाइएणं संखपणबपडहभेरिशहरिखरमुहिमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसणाइएणं जेणेव आउद्दघरसाला सेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता
दीप अनुक्रम [५६-६०]
॥१८॥
~373~
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
गाथा:
ecoccedeoesseseseoecenese
आलोए चक्करयणस्स पणामं करेइ २ त्ता जेणेव चक्करयणे तेणेव उवागच्छइर ता लोमहत्वयं परामुसइर त्ता चकरयणं पमजइ २ त्ता दिवाए उद्गधाराए अभुक्खेइ २ ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ २ ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहि अ अक्षिणइ पुष्फारुहर्ण मल्लगंधवण्णचुण्णवत्थारुहणं आभरणारुहर्ण करेइ २ चा अच्छेदि सहेहि सेएहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहि चक्करयणस्स पुरओ अमंगलए आलिहह तं०-सोस्थिय सिरिवच्छ णंदिआवत्त वद्धमाणग भद्दासण मच्छ कलस दप्पण अट्ठमंगलए आलिहित्ता काऊणं करेइ उवयारंति, किं ते !, पाडलमल्लिअचंपगअसोगपुण्णागचूअमंजरिणवमालिअबकुलतिलगकणवीरकुंदकोजयकोरंटयपत्तदमणयवरसुरहिसुगंधगंधिअस्स कयग्गगहिअकरयलपन्भट्ठविप्पमुचास्स दसवण्णस्स कुसुमणिगरस्स तत्य चित्तं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करेत्ता चंदप्पभवइरवेरुलिअविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवहि विणिम्मुअंतं वेरुलिअमयं कडुच्छुभं पग्गहेत्तु पयतें धूर्व वहइ २ ता सत्तट्ठपयाई मशोसकाइ २ त्ता वामं जाणुं अंचेइ जाव पणामं करेइ २ चा आउघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ मित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेब सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सष्णिसीअइ २ चा अट्ठारस सेणिपसेणीओ सद्दावेइ २ ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! उस्मुकं उकरं उकिटं अदिजं अमिजं अभडप्पबेस अदंडकोदंटिम अधरिमं गणिआवरणाडइबकलिअं अणेगतालावराणुचरिअं अणु अमुइंगं अमिलायमझदाम पमुइअपकीलिअसपुरजणजाणवयं विजयकेजइ चकरयणस्स अट्टाहिअं महामहिमं करेह २ ता ममेअमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चप्पिणह, तए णं वाओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वुत्ताओ
दीप अनुक्रम [५६-६०]
ease
~374~
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशा
[४३]
४३
गाथा:
श्रीजम्बू- समाणीओ हट्ठाओ जाब विणएणं परिसुणेति २ चा भरहस्स रणो अंतिभाओ पद्धिणिक्लमेन्ति २ ता उस्सुकं एकरं जाव। 1३वक्षस्कारे करेंति अ कारवेंति अ२ त्ता जेणेब भरहे राया तेणेव उवागच्छति २ ता जाव तमाणत्तिों पचप्पिणति (सूत्र ४३)
चक्रोत्यन्तिचन्द्री'तए ण'मित्यादि, ततो-माण्डलिकत्वप्रावेरनन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञोऽन्यदा कदाचित् माण्डलिकत्वं भुञ्जानस्य
तितत्पूजोया वृत्तिः वर्षसहने गते इत्यर्थः, आयुधगृहशालायां दिव्यं चकरनं समुदपद्यत, 'तए पं से'इत्यादि, ततः-चकरलोत्पत्तेरनन्तरं ।
त्सवाः ॥१८॥
स:-आयुधगृहिको यो भरतेन राज्ञा आयुधाध्यक्षः कृतोऽस्तीति गम्यं भरतस्य राज्ञः आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररलं समुत्पन्नं पश्यति, दृष्ट्वा च हृष्टतुष्ट-अत्यर्थ तुष्टं दृष्टं वा-अहो मया इदमपूर्व दृष्टमिति विस्मितं तुष्ट-मुष्ठु जात | यन्मयैव प्रथममिदमपूर्व दृष्टं यनिवेदनेन स्वस्वामी प्रीतिपात्रं करिष्यति इति सन्तोषमापनं चित्तं यत्र तद् यथा
भवति तथा आनन्दित:-प्रमोदं माप्तः यद्वा हृष्टतुष्टः-अतीव तुष्टः तथा चितेन आनन्दितः मकार। माकृतत्वात् |अलाक्षणिकः ततः कर्मधारयः नन्दितो-मुखसोमतादिभावैः समृद्धिमुपागतः प्रीति:-प्रीणनं मनसि यस्य स तथा चक्ररले बहुमानपरायण इत्यर्थः परमं सौमनस्य-सौमनस्कत्वं जातमस्येति परमसौमनस्थितः, एतदेव व्यनक्ति-हर्षव-18 शेन विसर्पद्-उल्लसद् हृदयं यस्य स तथा, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वान्नैतानि विशेषणानि पुनरुक्ततया दुष्टानि, यतः
॥१८६॥ 'वक्ता हर्षेति [वक्ता हर्पभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवन तथा निन्दन् । यत् पदमसकृत् ब्रूयात् तत् पुनरुक्तं न दोषाय K॥१॥] यत्रैव तदिव्यं चक्ररतं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च त्रिकृत्व-त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिण-दक्षिणहस्ता
oeseserserseeness
imensenswers
दीप अनुक्रम [५६-६०]
~375~
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཝཱ + ཚིལླཱ ཡྻ
[५६-६०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४३] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
दारभ्य प्रदक्षिणं करोति, त्रिः प्रदक्षिणयतीत्यर्थः, तथा कृत्वा च 'करतल'ति अत्र यावत्पदात् 'करयल परिग्गहिअं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलि'ति, अत्र व्याख्या करतलाभ्यां परिगृहीतः - आत्तस्तं दश करद्वयसम्बन्धिनो नखाः समुदिता यत्र तं शिरसि मस्तके आवर्त्तः- आवर्त्तनं प्रादक्षिण्येन परिभ्रमणं यस्य तं शिरसाऽप्राप्तमित्यन्ये मस्तके अञ्जलिं - मुकुलितकमलाकारकरद्वयरूपं कृत्वा चक्ररलस्य प्रणामं करोति, कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति- निर्याति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाहिरिका - आभ्यन्तरिकापेक्षया वाह्या उपस्थानशाला- आस्थानमण्डपो यंत्रेव च भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च 'करतल जाव'ति पूर्ववत् जयेन - परानभिभवनीयत्वरूपेण विजयेन परेषामसहमानानामभिभावकत्वरूपेण वर्द्धयति-जयंविजयाभ्यां त्वं वर्द्धयस्वेत्याशिषं प्रयुङ्क्ते वर्द्धयित्वा चैवमवादीत् किं तदित्याह'एवं खलु' इत्यादि, इत्थमेव यदुच्यते मया, न च विपर्ययादिना यदन्यथा भवति, यद्देवानुप्रियाणां राजपादानां आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररनं समुत्पन्नं तदेव तत् णमिति प्राग्वत् देवानुप्रियाणां प्रियार्थतायै- प्रीत्यर्थं प्रियं इष्टं निवे| दयामः 'एतत्' प्रियनिवेदनं प्रियं 'मे' भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह- 'तते ण' मित्यादि, ततः स भरतो राजा तस्यायुधगृहि कंस्य समीपे एनमर्थं श्रुत्वा आकर्ण्य कर्णाभ्यां निशम्य अवधार्य हृदयेन तुष्टो यावत्सौमनस्थितः प्राग्वत्, प्रमोदातिरेकाद्ये ये भावा भरतस्य संवृत्तास्तान् विशेषणद्वारेणाह -- विकसित कमलवन्नयनवदने यस्य स तथा प्रचलितानि-चक्ररनोत्पत्तिश्रवणजनितसम्भ्रमातिरेकात् कम्पितानि वरकटके प्रधानवलये त्रुटि के बाहरक्षको
१ जयः सामान्यत उपवादिविषयः विजयः स एव विशिष्टतरः परममुद्भवः इति ही वृती)
श्री. ३२ ॥५॥
FE&P Cy
~376~
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
गाथा:
श्रीजम्बू- केयूरे-बाहोरेव भूषणविशेषौ मुकुटं कुण्डले च यस्य स तथा, सिंहावलोकनन्यायेन प्रचलितशब्दो ग्राह्यः तेन प्रच-18वक्षस्कारे SHAR|लितहारेण विराजद्रतिदं च वक्षो यस्य स तथा, पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, प्रलम्बमानः सम्भ्रमादेव पालम्बो- चक्रोत्यन्तिचन्द्रीमाझु म्बनकं यस्य स तथा, घोलद्-दोलायमानं भूषणं-उकातिरिक्तं धरति यः स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः चितत्पूजा[अत्र पदविपर्यय अर्थत्वात् , ससम्नम-सादरं त्वरितं-मानसौत्सुक्यं यथा स्यात्तथा चपलं कायौत्सुक्यं यथा स्यात् ।
A सवाःसू. ॥१८॥ तथा नरेन्द्रो-भरतः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय च पादपीठात्-पदासनात् प्रत्यवरोहति-अवतरति प्रत्यव-18
| रुह्य च-अवतीर्य पादुके-पादत्राणे अवमुश्चति भक्त्यतिशयात् अवमुच्य च एकः शाटो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण | इकप्रत्ययः अखण्डशाटकमय इत्यर्थः एतादृशमुत्तरासङ्गो-वक्षसि तिर्यग्विस्तारितवस्त्र विशेषस्तं करोति कृत्वा च अजलिना मुकुलितौ-कुइमलाकारीकृतावग्रहस्तौ-हस्ताग्रभागी येन स तथा, चक्ररत्नाभिमुखः सप्त वा अष्टौ वा पदानि, अनूपसर्गस्य सन्निधिवाचकत्यादनुगच्छसि-आसन्नो भवति, दृष्टश्चानुशब्दप्रयोगः सन्निधौ, यथा 'अनुनदि शुश्रुविरे चिरं रुतानि' इति, पदानां सङ्ख्याषिकल्पदर्शनमेतादृशभाषाव्यवहारस्य लोके दृश्यमानत्वात् , अनुगल्य च वार्म जानु | आकुश्चयति-उर्व करोतीत्यर्थः, दक्षिणं जानुं धरणीतले निहत्य-निवेश्य 'करतले'त्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् अञ्जलिं कृत्वा चकरलस्य प्रणाम करोति, कृत्वा च तस्यायुधगृहिकस्य 'यधामालित' यथाधारितं यथापरिहितमित्यर्थः, इदं च विशेषणं दानरसातिशयादानं निर्विलम्बन देयमिति ख्यापनार्थ, यदाह-सव्यपाणिगतमप्यपसव्यप्रापणावधि न
दीप अनुक्रम [५६-६०
॥ १७॥
enecene
INElimitimes
~377~
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
गाथा:
देयविलम्बः । न ध्रुवत्वनियमः किल लक्ष्म्यास्तद्विलम्बनविधौ न विवेकः ॥१॥ अविलम्बितदानगुणात् समुज्ज्वल मानवो
यशो लभते । प्रथम प्रकाशदानाद्विशदः पक्षोऽपरः कृष्णः ॥२॥" अवमुच्यते-परिधीयते यस्सोऽवमोचकः-आभरणं, । मुकुटवर्ज-मुकुटमन्तरेणेत्यर्थः, अत्र 'उतोऽन्मुकुलादिष्वि' (श्रीसिद्ध-अ.८ पा.१सू.१०७) त्युकारस्याकारः तस्य राजचि-18 इन्हालङ्कारत्वेनादेयत्वात्, न कार्पण्यादिना न ददातीति, एतेनान्यमनुष्याणां मौलिवेष्टनस्य राजचिन्हत्वमभ्युपग-1
च्छन्तो ये केचन जिनगृहाच भिगमविधी मौलिवेष्टनमपाकुर्वन्ति ते अशुभदर्शनत्वादपशकुनमितीवाभ्युपगच्छता आगमोकविध्यनुष्ठानजन्यफलेन दूरतो मुक्ता इति बोध्यं, दत्त्वा चान्यत् किं करोतीत्याह-विपुलं जीविताह-आजीविकायोग्यं प्रीतिदानं ददाति, सत्कारयति वस्त्रादिना सन्मानयति वचनबहुमानेन, सत्कृत्य सन्मान्य च प्रतिविसर्जय
ति-स्वस्थानगमनतो ज्ञापयति, प्रतिविसर्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्ण:-उपविष्ट इति । अव भरतो IS| यत्कृतवान् तदाह-'तए ण'मित्यादि, निगदसिद्धं, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव'त्ति, क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया |
विनीता राजधानी सहाभ्यन्तरेण-नगरमध्यभागेन बाहिरिका-नगरबहिर्भागो यत्र तत्वथा, क्रियाविशेषणं, आसिक्ता| ईपत्सिका गन्धोदकच्छटकदानात् सम्मार्जिता-कचवरशोधनात् सिक्का जलेनात एव शुचिका संमृष्टा-विषमभूमि
भञ्जना रथ्या-राजमार्गोऽन्तरवीथीच-अवान्तरमार्गों यस्यां सा तथा, इदं च विशेषणं योजनाया विचित्रत्वात् A सम्मृष्टसम्मार्जितसितासिक्तशुचिकरथ्यान्तरवीथिकामित्येवं दृश्य सम्मृष्टाद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, मंचा-माल
दीप अनुक्रम [५६-६०]
Sanelems
~378~
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
श्रीजम्बू
[४३]
गाथा:
काः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्तं अतिमञ्चा:-तेषामप्युपरि ये तैः कलिता ता नानाविधो रागो-रञ्जनं येषु तानि द्वीपशा-18| कौसुम्भमाजिष्टादिरूपाणि वसनानि-वस्त्राणि येषु तादृशा ये ऊचीकृता-उच्छ्रिता ध्वजाः-सिंहगरुडादिरूपकोपल-11
क्षिता बृहत्पदृरूपाः पताकाश्च-तदितररूपा अतिपताका:-तदुपरिवर्तिन्यस्ताभिर्मण्डितां, अत्र च 'लाउल्लोइय'इत्या-चितत्पूजोया वृत्तिः
दिको 'गंधवट्टिभु'मित्यन्तो विनीतासमारचनवर्णकः प्रागभियोग्यदेवभवनवर्णके व्याख्यात इति न व्याख्यायते, सवाः सू. ॥१८॥| ईदृशविशेषणविशिष्टां कुरुत स्वयं कारयत परैः कृत्वा कारयित्वा च एतामाज्ञप्ति-आज्ञा प्रत्यर्पयत, ततस्ते किं कुर्व
न्तीत्याह-'तए णमित्यादि, ततो-भरताज्ञानन्तरं कौटुम्बिका:-अधिकारिणः पुरुषाः भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हृष्टाः करतले त्यारभ्य यावत्पदग्राह्यं पूर्ववत्, एवं स्वामिन् ! यथाऽऽयुष्मत्पादा आदिशन्ति तथेत्यर्थः, इति कृत्वा-इति ॥ प्रतिवचनेनेत्यर्थः, आज्ञायाः-स्वामिशासनस्योक्तलक्षणेन नियमेन, अत्र च 'आणाए विणएण'मिति एकदेशग्रहणेन | पूर्णोऽभ्युपगमालापको ग्राह्यः, अंशेनांशी गृह्यते, इति 'वयणं पडिसुणंति ति वचनं प्रतिशृण्वन्ति अङ्गीकुर्वन्तीति, ततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह-'पडिसुणित्ता इत्यादि, प्रतिश्रुत्य तस्यान्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति प्रतिनिष्क्रम्य च विनीतां 81 राजधानी यावत्पदेनानन्तरोक्तसकलविशेषणविशिष्टां कृत्वा कारयित्वा च तामाज्ञप्तिं भरतस्य प्रत्यर्पयन्ति । अथ |
R an भरतः किं चके इत्याह-तए णं से भरहे'इत्यादि, ततः स भरतो राजा यत्रैव मजनघरं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य " च मज्जनगृहं अनुपविशति, अनुप्रविश्य च समुक्तन-मुक्ताफलयुतेन जालेन-गवाक्षेणाकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्च यस्त
दीप अनुक्रम [५६-६०]
SElegmi
~379~
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཟླ + ཋལླཱ ཡྻ
[५६-६०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......
Jan Eikeitin
मूलं [४३] + गाथा:
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
|
स्मिन् विचित्रमणिरक्षमयकुट्टिमतलं - बद्धभूमिका यत्र से तथा तस्मिन् अत एव समभूमिकत्वात् रमणीये स्नानमण्डपे, नानाप्रकाराणां मणीनां रज्ञानां च भक्तयो - यथौचित्येन रचनास्ताभिर्विचित्रैः स्नानपीठे-स्नानयोग्ये आसने | सुखेन निषण्णः - उपविष्टस्सन् शुभोदकैः - तीर्थोदकैः सुखोदकैर्वा नात्युष्णैर्नातिशीतैरित्यर्थः गन्धोदकैः - चन्दनादिरसमिश्रः पुष्पोदकैः- कुसुमवासितैः शुद्धोदकैश्च-स्वाभाविकैस्तीर्थान्यजलाशयै (यजलै रित्यर्थः, 'मजिए 'ति उत्तरसूत्रस्थपदेन सह सम्बन्धः, एतेन कान्तिजननश्रमज (ह) ननादिगुणार्थं मज्जनमुक्तं, अधारिष्ठ विधातार्थमाह पुनः कल्याणकारिप्रवरमज्जनस्य - विरुद्ध ग्रहपीडानिवृत्त्यर्थक विहितीपध्यादिस्नानस्य विधिना 'दुमस्जीत् शुद्धी' इत्यस्य शुद्धार्थकत्वेन स्नानार्थकत्वान्मज्जितः स्नपितोऽन्तःपुरवृद्धाभिरिति गम्यं, कैर्मजित इत्याह तंत्र स्नानावसरे कौतुकानां रक्षादीनां | शतैर्यद्वा कौतूहलिकजनैः स्वसेवासम्यक्प्रयोगार्थं दर्श्यमानैः कौतुकशतैः भाण्डचेष्टादि कुतूहलैर्बहुविधैः - अनेकप्रकारैः, अत्र करणे तृतीयेति, अथ स्नानोत्तर विधिमाह - 'कलाणग' इत्यादि, कल्याणकप्रवरमंज्जनावसाने स्नानानन्तरमित्यर्थः पक्ष्मलया-पक्ष्मवत्या अत एव सुकुमालया गन्धप्रधानया कपायेण - पीतरक्तवर्णाश्रयरञ्जनीयवस्तुना रक्ता कापायिकी तथा कपायरक्कया शाटिकयेत्यर्थः रूक्षितं निर्लेपतामापादितं अङ्गं यस्य स तथा सरससुरभिगोशीर्षचन्दनानुदिसगात्रः, अहतं- मलमूषिकादिभिरनुपतं प्रत्यग्रमित्यर्थः सुमहार्घ - बहुमूल्यं यद्दृप्यरणं- प्रधानवस्त्रं तत्सुसंवृतं सुष्ठु परिहितं येन स तथा अनेनादौ वस्त्रालङ्कार उक्तः, अत्र च वस्त्रसूत्रं पूर्व योजनीयं चन्दनसूत्रं पश्चात् क्रमप्राधा
For P&P Cy
~ 380~
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
त्सवाः सू.
गाथा:
श्रीजम्बू-13 न्याव्याख्यानस्य, न हि स्नानोत्थित एव चन्दनेन वपुर्विलिम्पतीति विधिक्रमः, शुचिनी-पवित्रे मालावर्णकविलेपने-18|३वक्षस्कारे द्वीपशा-18
01 पुष्पग्मण्डनकारिकुंकुमादिविलेपने यस्य स तथा, अनेन पुष्पालङ्कारमाह, अधस्तनसूत्रे वपुःसौगन्ध्यार्थमेव विलेपन-18 न्तिचन्द्री
चक्रोल्प
तितत्पूजोया वृत्तिः
मभिहितं अत्र तु वपुर्मण्डनायेति विशेषः, आविद्धानि-परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, एतनास्य रजतरीरी-18 ।
| मयाद्यलङ्कारनिषेधः सूचितः, मणिस्वर्णालङ्कारानेव विशेषत आह-कल्पितो-यथास्थानं विन्यस्तो हार:-अष्टादशसरि-1 ॥१८॥
18 कोऽर्द्धहारो-नवसरिकस्त्रिसरिकं च प्रतीतं येन स तथा प्रलम्बमानः पालम्बो-मुम्बनकं यस्य स तथा, सूत्रे च पदव्य
त्ययः प्राकृतत्वात् , कटिसूत्रेण-कव्याभरणेन सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा, अत्र पदत्रयस्य कर्मधारयः अथवा कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा, पिनद्धानि-बद्धानि अवेयकाणि-कण्ठाभरणानि अङ्गलीयकानि| अङ्गल्याभरणानि येन स तथा, अनेनाभरणालङ्कार उक्तः, तथा ललिते-सुकुमालेऽपके-मीदी ललितानि-शोभा-181 18वन्ति कचानां-केशानां आभरणानि-पुष्पादीनि यस्य स तथा, अनेन केशालङ्कार उक्तः, अथ सिंहावलोकनन्यायेन 18पुनरप्याभरणालङ्कारं वर्णयन्नाह-नानामणीनां कटकत्रुटिकैः-हस्तबाह्वाभरणविशेषैर्वहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भिती
भुजी यस्य स तथा, अधिकसश्रीक इति स्पष्ट, कुण्डलाभ्यामुयोतितं आनन-मुखं यस्य स तथा मुकुटदीप्तशिरस्कः ॥१८॥ स्पष्ट, हारेणावस्तृत-आच्छादितं तेनैव हेतुना प्रेक्षकजनानां सुकृतरतिकं वक्षो यस्य स तथा, प्रलम्बेन-दीपेण प्रलम्ब-1%81 मानेन-दोलायमानेन सुकृतेन-मुटु निर्मितेन पटेन-वस्त्रेण उत्तरीयं-उत्तरासको यस्य स तथा, प्राकृतत्वात् पूर्वपदस्य
दीप अनुक्रम [५६-६०]
esesesed
SinElemnitimals
~381~
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཝཱ + ཛལླཱ ཡྻ
[५६-६०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४३] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jin Eben
दीर्घत्वं, मुद्रिकाभिः - साक्षराङ्गुलीयकैः पिङ्गला अङ्गुल्यो यस्य स तथा बहुव्रीहिलक्षणः कः प्रत्ययः, नानामणिमयं विमलं महा बहुमूल्यं निपुणेन शिल्पिना 'ओअविशन्ति परिकर्मितं 'मिसिमिसेंत'ति दीप्यमानं विरचितंनिम्मितं सुलिष्टं सुसन्धि विशिष्टं - अन्येभ्यो विशेषवत् लष्टं - मनोहरं संस्थितं संस्थानं यस्य तत् पश्चात् पूर्वपदैः कर्मधारयः, एवंविधं प्रशस्तं आविद्धं परिहितं वीरवलयं येन स तथा अन्योऽपि यः (दि) कश्चिद्वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतद्वलयमिति स्पर्द्धयन् (यत्) परिदधाति तद्वीरवलयमित्युच्यते, किं बहुना ? वर्णितेनेति शेषः, 'कप्परुक्खए चेव'त्ति अत्र चैत्रशब्द इवार्थे तेन कल्पवृक्षक इवालङ्कृतो विभूषितश्च तत्रालङ्कृतो दलादिभिर्विभूषितः | फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलङ्कृतो विभूषितस्तु वखादिभिरिति, नरेन्द्रः 'सकोरंट जाव'ति अत्र यावत्करणात् 'सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेण 'मिति ग्राह्यं तत्र सकोरण्टानि - कोरण्टाभिधानकुसुमस्तवकवन्ति, कोरण्टपुष्पाणि हि पीतवर्णानि मालान्ते शोभार्थं दीयन्ते, मालायै हितानि माल्यानि - पुष्पाणीत्यर्थः, तेषां दामानि - माठा यत्र तत्तथा, एवंविधेन छत्रेण प्रियमाणेन शिरसि, विराजमान इति गम्यं चतुर्णा अग्रतः पृष्ठतः पार्श्वयोश्च वीज्यमानत्वाच्चतुःसङ्ख्याङ्कानां चामराणां वाल्वजितमङ्गं यस्येति, मङ्गलभूतो जयशब्दो जनेन कृत आलोके-दर्शने यस्य स तथा, अनेके गणनायका-मलादिगणमुख्याः दण्डनायकाः-तन्त्रपालाः यावत्पदात् 'ईसरतलवरमाडंविअकोबिअमंत्तिमहामंतिगणगदोवारि अअम च चेडपीढ मद्दणगरणिगम से डिसेणाव इसत्थवाह' इति द्रष्टव्यं,
Fur Fate &POC
~382~
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३]
जिम्म
द्वीपशा
त्सवा.सू.
गाथा:
18 अत्र व्याख्या-तत्र राजानो-माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानो मतान्तरेण आणमाद्यैश्वर्ययुक्ताः तलवरा:-परितुष्टन-1 पदत्तपट्टबन्धविभूपिता राजस्थानीयाः माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौद्धम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः18|चक्रोप
श्ववस्कारे न्तिचन्द्री-18 मन्त्रिण:-प्रतीताः महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः गणका-गणितज्ञा भाण्डागारिका वा दौवारिका:-प्रतीहाराः तितत्पूजाया धृतिः अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेटाः-पादमूलिका दासा वा पीठमी-आस्थाने आसन्नासन्नसेवकाः वयस्या इत्यर्थः18 ॥१९॥
वेश्याचार्या वा नगरं-तास्थ्यात्तद्यपदेशेन नगरनिवासिप्रकृतयः निगमा:-कारणिका वणिजो वा श्रेष्ठिन:-श्रीदेवता-18 ध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गाः अथवा नगराणां निगमानां च-वणिग्वासानां श्रेष्ठिनो-महत्तराः सेनापतयः-चतु-18 | रङ्गसैन्यनायकाः सार्थवाहाः-सार्थनायकाः दूता अन्येषां राज्यं गत्वा राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला-राज्यसन्धिर-18 |क्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, अत्र तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह न केवलं तत्सहितत्वमेव अपि तु तैः समिति समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मजनगृहात् प्रतिनिष्कामतीति सम्बन्धः, किम्भूतः ?-प्रियदर्शनः, क इव || धवलमहामेघः-शरन्मेघस्तस्मानिर्गत इव, अत्र यावत्पदात् 'गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मण्झे इति संग्रहः, तेन 8 शक्षिपदाग्रस्थ इवशब्दो ग्रहगणेति विशेषणेन योज्यः, ततोऽयमर्थः सम्पन्न उपमानिर्वाहाय-यथा चन्द्रः धारदन-18॥१९॥ पटलनिर्गत इव प्रहगणानां दीप्यमानऋक्षाणां-शोभमाननक्षत्राणां तारागणस्य च मध्ये वर्तमान इव प्रियदर्शनो भवति || तथा भरतोऽपि सुधाधवलान्मज्जनगृहान्निर्गतोऽनेकगणनायकादिपरिवारमध्ये वर्तमानः प्रियदर्शनोऽभवत्, पुनः
दीप अनुक्रम [५६-६०]
39393809000
Jintlemail
NOmjimmitrina
~ 383 ~
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
1 कीटशो नृपतिः प्रतिनिष्कामतीत्याह--धूपपुष्पगन्धमाल्यानि पूजोपकरणानि हस्तगतानि यस्य स तथा, तत्र धूपो
| दशाङ्गादिः पुष्पाणि-प्रकीर्णककुसुमानि गन्धा-वासाः माल्यानि-प्रथितपुष्पाणीति, प्रतिनिष्क्रम्य च किं कृतवानि
| त्याह-'जेणेव' इत्यादि, यत्रैवायुधगृहशाला यत्रैव च चक्ररतं तत्रैव प्रधारितवान् गमनाय गन्तुं प्रावर्त्तत इत्यर्थः । IS| अथ भरतगमनानन्तरं यथा तदनुचराश्चक्रुस्तथाऽऽह-तए ण'मित्यादि, ततो-भरतागमनादनु तस्य भरतस्य राज्ञो
बहव ईश्वरप्रभृतयः यावत्पदसंग्राह्यास्तलवरप्रभृतयः पूर्ववत् अपि ढाथै एके केचन पद्महस्तगताः एके केचन उत्पलहस्तगताः, एवं सर्वाण्यपि विशेषणानि वाच्यानि, यावत्पदात् 'अप्पेगइआ कुमुअहत्थगया अप्पेगइया नलिणहत्धगया अप्पेगइया सोगन्धिअहत्थगया अप्पेगइया पुंडरीयहत्थगया अप्पेगइआ सहस्सपत्तहत्थगया' इति संग्रहः, अत्र व्याख्या प्राग्वत् , नवरं भरतं राजानं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, पृष्ठे २ परिपाट्या चलन्तीत्यर्थः, सर्वेषामपि सामन्तानामेकैव वैनयिकी गतिरिति ख्यापनार्थ चीप्सायां द्विर्वचनं, न केवलं सामन्तनृपा एव भरतमनुजग्मुः, किन्तु किङ्करीजनोऽपीत्याह-तए ण'मित्यादि, ततः सामन्तनृपानुगमनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सम्बन्धिम्यो बहवो दास्यो भरत ||
राजानं पृष्ठतोऽनुगच्छन्तीति सम्बन्धः, कास्ता इत्याह-कुब्जा:-कुन्जिका वक्रजना इत्यर्थः चिलात्यः-चिलातदेशो-18 & पन्नाः वामनिका-अत्यन्तहस्वदेहा इस्वोन्नतहृदयकोष्ठा वा वडभिका-महडकोष्ठा वक्राध:काया वा इत्यर्थः बर्बयों-18 18 वर्वरदेशोत्पन्नाः बकुशिका:-बकुशदेशजाः जोनिक्यो-जोनकनामकदेशजाः पल्हविका:-पल्हवदेशजाः ईसेणिआ था-10
गाथा:
दीप अनुक्रम [५६-६०]
~384 ~
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशान्तिचन्द्री
[४३]
गाथा:
श्रीजम्बू- [ रुकिणिआओत्ति देशव्यभवाः इसिनिकाः थारुकिनिकाः, लासिक्यो-लासकदेशजाः लकुशिक्यो-लकुशदेशजा द्रवि-18||३वक्षस्कारे
ब्यो-द्रविडदेशजाः सिंहल्या-सिंहलदेशजाः आरब्यः-आरबदेशजाः पुलिन्द्रयः-पुलिन्द्रदेशजाः पक्कण्य:-पक्षणदेशजाः चकोत्य
बहल्यो-बहलिदेशजाः मुरुण्ड्यो-मुरुडदेशजाः शबर्यः-दशबरदेशजाः पारसीका:-पारसदेशजाः, अन चिलात्यादया वृतिः
चितत्पूजो
त्सवाः स. योऽष्टादश पूर्वोक्तरीत्या तत्तद्देशोद्भवत्वेन तत्तन्नामिका ज्ञेयाः, कुब्जादयस्तु तिम्रो विशेषणभूताः, अथ यथाप्रकारे॥१९॥ णोपकरणेन ता अनुययुस्तथा चाह-अप्येकिका वन्दनकलशा-मङ्गल्यघटा हस्तगता यास तास्तथा, एवं भृङ्गारा-11
दिहस्तगता अपि वाच्याः, तब्याख्यानं तु प्राग्वत् , नवरं पुष्पचङ्गरीत आरभ्य मालादिपदविशेषितास्तच्चङ्गेय्यों ज्ञातव्याः,
लोमहस्तकचङ्गेरी तु साक्षादुपात्ताऽस्ति, अन्यास्तु लाघवार्थकत्वेन सूत्रे साक्षात्रोकार, आद्यन्तग्रहणेन मध्यग्रहणस्य । 18| स्वयमेव लभ्यमानत्वात् , एवं पुष्पपटलहस्तगता माल्यादिपटलहस्तगताश्च वाच्याः, अप्येकिकाः सिंहासनहस्तगताः
अप्येकिकाः छत्रचामरहस्तगताः तथा अप्ये किकाः तैलसमुदाः-तैलभाजनविशेषास्तद्धस्तगताः एवं कोष्ठसमुद्कहस्तगता | यावत्सर्पपसमुद्गकहस्तगताः, अत्र समुद्गकसंग्रहमाह-'तेल्ले कोहसमुग्गे' इति सूत्रोक्ताः, एतदर्थस्तु राजप्रश्नीयवृत्तितोऽ-18 वगन्तव्यः, अप्येकिकास्तालवृन्तहस्तगता:-व्यञ्जनपाणयः अप्येकिका धूपकडुच्छुकहस्तगता इति, अथ यया समृङ्ख्या 3 | भरत आयुधशालागृहं प्राप तामाह-'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा यौवायुधगृहशाला तत्रैवोपागच्छतीति | ॥११॥ सम्बन्धः, किम्भूत इत्याह-सर्वर्या-समस्तया आभरणादिरूपया लक्ष्म्या युक्त इति गम्यं, एवमन्यान्यपि पदानि ।
दीप अनुक्रम [५६-६०]
~385~
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
गाथा:
योजनीयानि, नवरं युतिः-मेलः परस्परमुचितपदार्थानां तया बलेन-सैन्येन समुदयेन-परिवारादिसमुदयेन आद॥रण-प्रयत्नेन आयुधरनभक्त्युत्थबहुमानेन विभूषया-उचितनेपथ्यादिशोभया विभूत्या-विच्छन एवंविधविस्तारेण, IN
उक्तामेव विभूषा व्यक्त्याऽऽह-'सवपुप्फे त्यादि, अत्र पुष्पादिपंदानि प्राग्वत् , नवरं अलङ्कारो-मुकुटादिरेतद्रूपया | सर्वेषां त्रुटितानां-तूर्याणां यः शब्दो-ध्वनिर्यश्च स सङ्गतो निनादः-प्रतिध्वनिस्तेन, अत्र शब्दसन्निनादयोः समाहारद्वन्द्वः, अथ 'सर्वमनेन भाजनस्थं घृतं पीत'मिति लोकोक्तः प्रसिद्धत्वात् सर्वशब्देनाल्पीयोऽपि निर्दिष्टं भवेत्ततश्च न तथा विभूतिर्वर्णिता भवतीत्याशङ्कमानं प्रत्याह-'महया इड्डीए'इत्यादि, योजना तु प्राग्वदेव, यावत्शब्दात् महायुत्यादिपरिग्रहः, महता-बृहता वरत्रुटितानां-निःस्वानादीनां तूर्याणां यमकसमकं-युगपत्प्रवादित-भावे कप्रत्ययविधा
नात् प्रवादनं ध्वनितमित्यर्थस्तेन, शङ्ख:-प्रतीतः पणवो-भाण्डपटहो लघुपटह इत्यन्ये पटहस्त्वेतद्विपरीतः भेरी-18 1 ढका झल्लरी-चतुरङ्गुलनालि; करटिसदृशी वलयाकारा खरमुही-काहला मुरजो-महामईलः मृदङ्गो-लघुमईलः । दुन्दुभिः-देववाद्यं, एषां निर्घोषनादितेन, तत्र निर्घोषो-महाध्वनि दितं च प्रतिरवः, एकवद्भावादेकवचनं, पूर्ववि
शेषणं तूर्यसामान्यविषयमिदं तु तद्व्यक्तिसूचकमित्यनयोर्भेदः, आयुधगृहशालाप्राप्त्यनन्तरं विधिमाह-'उवागच्छित्ता' ॥ इत्यादि, तत्रोपागत्य आलोके-दर्शनमात्र एव चक्ररलस्य प्रणाम करोति, क्षत्रियैरायुधवरस्य प्रत्यक्षदेवतात्वेन सङ्कल्प-13
| नात् , यत्रैव चक्ररलं तत्रैवोपागच्छति, लोमहस्तक-प्रमार्जनिकां परामृशति-हस्तेन स्पृशति गृह्णातीत्यर्थः, परामृश्य
दीप अनुक्रम [५६-६०]
Recene
~386~
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཝཱ + ཚིལླཱ ཡྻ
[५६-६०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४३] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
१९२॥
च चक्ररलं प्रमार्जयति, यद्यपि न तादृशे रले रजः सम्भवस्तथापि भक्तजनस्य विनयप्रक्रियाज्ञापनार्थमयमुपन्यासः, | प्रमार्ण्य च दिव्ययोदकधारया अभ्युक्षति-सिञ्चति पयतीत्यर्थः अभ्युक्ष्य च सरसेन गोशीर्ष चन्दनेनानुलिम्पति, अनु| लिप्य च अप्रैः- अपरिभुक्तैरभिनवैर्वरैर्गन्धमाल्यैश्चार्चयति, एतदेव व्यक्त्या दर्शयति- पुष्पारोपणं माल्यारोपणं वर्णारोपणं चूर्णारोपणं वस्त्रारोपणं आभरणारोपणं करोति, कृत्वा च अच्छे :- अमलैः श्लक्ष्णैः- अतिप्रतलैः श्वेतैः- रजत| मयैरत एवं अच्छो रसो येषां ते अच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः एतादृशैस्तण्डुलैः, अत्र पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात्, स्वस्तिकादयोऽष्टाष्टमङ्गलकानि - मङ्गस्यवस्तूनि आलिखति-विन्यस्यति, अत्र चाष्टाष्टेति वीप्सावचनात् प्रत्येकमष्टाविति ज्ञेयं, यद्वा अष्टेति सङ्ख्याशब्दः अष्टमङ्गलकानीति चाखण्डः संज्ञाशब्दः, अष्टानामपि मङ्गलकानां, अथोक्तानामेव मङ्गलकानां व्यक्तितो नामानि कथयन् पुनर्विध्यन्तरमाह - 'तद्यथा - स्वस्तिक' मित्यादि, व्याख्या तु प्राग्वत्, अत्र द्वितीयालोपः प्राकृतत्वात्, इमान्यष्टमङ्गलकानि आलिख्य| आकारकरणेन कृत्वा - अन्तर्वर्णकादिभरणेन पूर्णानि कृत्वेत्यर्थः, करोति उपचारं - उचितसेवामिति, तमेव व्यनक्ति - किन्ते इति तद्यथेत्यर्थे तेन विवक्षित उपचारः उपन्यस्त इत्यर्थः, पाटलं - पाटलपुष्पं मल्लिका विच किलपुष्पं, यलोके वेलि | इति प्रसिद्धं, चम्पकाशोकपुन्नागाः प्रतीताः चूतमञ्जरी - आम्रमञ्जरी बकुल:- केसरो यः स्त्रीमुखसीधुसिक्तो विकसति तत्पुष्पं, तिलको यः स्त्रीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति तत्पुष्पं, कणवीरं कुन्दं च प्रतीते, कुजकं कूबो इति नाम्ना वृक्ष
Fu Prate & Pine Cy
~387~
३ वक्षस्कारे चक्रोत्पचितत्पूजो
त्सवाः सु. ४३
॥१९२॥
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
soerase
[४३]
गाथा:
विशेषस्ततपुष्पं, कोरण्टकं प्राग्वत् , पत्राणि-मरुबकपत्रादीनि दमनकः-स्पष्टः एतैर्वरसुरभिः-अत्यन्तसुरभिः तथा सुगन्धाः-शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः, पश्चाद्विशेषणद्वयस्य कर्मधारयस्तस्य, तथा कचग्रहो-मैथुनसंरम्भे मुखचुम्बनाद्यर्थ युवत्याः पश्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहणं तच्यायेन गृहीतस्तथा तदनन्तरं करतलाद्विपमुक्तः सन् प्रचष्टः, प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तस्य, दशार्द्धवर्णस्य-पञ्चवर्णस्य कुसुमनिकरस्य-पुष्पराशेः तत्र-चक्ररनपरिकरभूमी चित्रं-आश्चर्यकारिणं जानूत्सेधप्रमाणेन-जानुं यावदुच्चत्वप्रमाणं प्रमाणो-16 पेतपुरुषस्य चतुरङ्गुल चरणचतुर्विशत्यङ्गलजोच्चत्वमीलनेनाष्टाविंशत्यङ्गलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा तं, अव-16 |धिना-मर्यादया निकर-विस्तारं कृत्वा चन्द्रप्रभा:-चन्द्रकान्ता वज्राणि-हीरका वैडूर्याणि-बालवायजानि तन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काश्चनमणिरतानां भक्तयो-विच्छित्तयो रचनास्ताभिश्चित्रं, कृष्णागुरुः प्रतीतः कुन्दुरुक:-18
चीडा तुरुष्का-सिल्हकस्तेषां यो धूपो गन्धोत्तमः-सौरभ्योत्कृष्टः, अत्र विशेषणपरनिपातः, प्राकृतत्वात्, तेनानुविद्धा-18 R मिश्रा व्याप्त्यर्थः तां चशब्दो विशेषणसमुच्चये स च व्यवहितसम्बन्धः, तेन धूमवत्ति च-धूमश्श्रेणि विनिर्मुश्चन्तं, पैडूर्य
मयं-केवलवैडूर्यरत्नघटित स्थालकस्थगनकाद्यवयवेषु दण्डवच्चन्द्रकान्तादिरलमयत्वे तु अङ्गारधूमसंसर्गजनिता विच्छायता प्रादुर्भवेत् , 'कडुच्छुक' धूपाधानकं 'प्रगृछ' गृहीत्वा 'प्रयतः' आद्रियमाणो धूपं दहति, धूपं दग्ध्वा च प्रमार्ज-18 नादिकारणविशेषेण सन्निधीयमानमपि चक्ररत्नं अत्यासन्नतया मा आशातितं भूषादिति सप्ताष्टपदानि प्रत्यपसपति
दीप अनुक्रम [५६-६०]
cिeaeseseseserce
~388~
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सुत्रांक [४३]
श्रीजम्यू- पश्चादपसरति प्रत्यपसर्दी च वाम जानु अञ्चति यावत्करणाद् दाहिणं जाणुं धरणिअलंसि निहङ करयलपरिग्गहि वक्षस्कारे द्वीपशा-1| दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट' इति संग्रहः, व्याख्या च पूर्ववत् , प्रणामं करोति-समीहितार्थसम्पादकमिहे- पक्रोत्यू न्तिचन्द्रीदमिति बुझ्या प्रीतः प्रणमति, प्रणाम कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छतीति, 'पडिणिक्खमिचा
चितत्पूजीया वृत्तिः इत्यादि, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव वाद्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासनवरगतः
त्सवाः सू.
४३ ॥१९॥ पूर्वाभिमुखः सन्निषीदति-उपविशति, संनिषद्य च अष्टादश श्रेणी:-कुम्भकारादिप्रकृतीः प्रश्रेणीस्तदवान्तरभेदान् ।
| शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति, अष्टादश श्रेणयश्चेमा:-"कुंभार १ पट्टइला २ सुवण्णकारा य ३ सूचकारा या ४ । गंधवा ५ कासवगा ६ मालाकारा य ७ कच्छकरा ८॥शा तंबोलिआ९य एए नवप्पयारा य नारुआ भणिआ।
गाथा:
दीप अनुक्रम [५६-६०]
BASERepseeo
अष्टादश श्रेणिप्रवेणी:-अष्टावशसंख्याकान् सदेशचिन्ता नियुक्ततन्त्रपालावधिकारिविशेषान् शब्दापयति-भावति, यत्तु केचित् 'सूआर-ति गाथात्रयमालोक्य एत एवाटादश श्रेणिप्रश्रेणय इति विकल्पयन्ति तन्न संभवति, यतो राज्याभिषेकावसरे देवादीनामिव श्रेणिप्रवेणीनामप्यभिषेकाधिकार वक्ष्यते, तत्र च काफ-18 नारूणां प्रवेषास्यायसंभव इति (इति हीपत्ती) भयं संभवास्पद-गदा हि मजनगृहाद निगंगाम चक्री तवैव बभूव सार्थ तवपालाद्या इति च तेषामाकारणीय-101
18॥१९३॥ ता,मच पामकाँडम्बिकानां महणं तेषामपि मजनराहार सौष परिणा निर्गमान, तया च प्रजानियका ये प्रामा प्रेसराः खखज्ञातीयाधिकारपराशन निम-LXI अणिशब्देन पन्त, कानार्यादीनामपि प्रजाजनरवात करबद्धयादीनां सस्सोमोनापि मापनात् युक्तमत्र प्रजाजनासराणां श्रेणिप्रवेणिवाच्यानामाहानं | अभिषेकऽपि च तन्त्रपालाना सदा सहचर्तिस्वाभावात् मागवतीर्थसाधनाद्युत्सवावसरे तबाहानामावात, अभिषेकतेषां सूपकाराभिषेकादन्विति सार्थवाहाद्याच पश्चादभिपिषिचुवक्रि रोभ्य इति च तवपालना नोचिताऽऽसां ॥
~ 389~
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ལྦ + ཚིལླཱཡྻ
[५६-६० ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........
Jan Ebenih
मूलं [४३] + गाथा:
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अह णं णवप्पयारे कारुअवण्णे पवक्खामि ॥२॥ चम्मयरु १ जंतपीलग २ गंडिअ ३ छिंपाय ४ कंसकारे ५ य । सीवंग ६ गुआर ७ भिल्ला ८ धीवर ९ वण्णाइ अट्ठदस ॥ ३ ॥” चित्रकारादयस्तु एतेष्वेवान्तर्भवन्ति, अथ पीरान् प्रति किमवादीदित्याह -- खिप्पामेव त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाश्चक्ररलस्याष्टानां अह्नां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां सा अष्टाहिका तां महामहिमां कुरुतेत्यन्वयः कृत्वा च मम एतामाज्ञतिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयतेति, अथ | क्रमेण विशेषणानि व्याकरोति कीदृशी १- उन्मुक्तं शुल्कं विक्रेतव्यभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यं यस्यां सा तथा तां, एवमु. त्करां उत्कृष्टां च तत्र करो गवादीन् प्रति प्रतिवर्षं राजदेयं द्रव्यं, कृष्टं तु कर्षणं लभ्यग्रहणायाकर्षणं, अदेयांविक्रयनिषेधेन अविद्यमानदातव्यां, न केनापि कस्यापि देयमित्यर्थः, अमेयां - क्रयविक्रयनिषेधादेव अविद्यमानमातव्यां, | अभटप्रवेशां-अविद्यमानो भटानां - राजपुरुषाणामाज्ञादायिनां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा तां दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्डः कुदण्डेन निर्वृत्तं कुदण्डिनं- राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तां तत्र दण्डो यथापराधं राजग्राह्यं द्रव्यं कुदण्डस्तु कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधात् महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यं, अधरिमं-न विद्यते धरिमं - ऋणद्रव्यं यस्यां सा तथा तां उत्तमर्णाधमर्णाभ्यां परस्परं तद्ऋणार्थं न विवदनीयं किन्तु अस्मत्पार्श्वे द्युनं गृहीत्वा ऋणं मुत्कलनीयमित्यर्थः, गणिकावरैः - विलासिनी प्रधानैर्नाटकीयै:- नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा तां, अनेके ये ताला| चराः- प्रेक्षाकारिर्विशेषास्तैरनुचरितां- आसेवितां, 'अनुद्धृत' आनुरूप्येण यथामार्दङ्गिकविधि उद्भूता - यादनार्थमु
Fur Fraternae Cy
~390~
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३]
२५
गाथा:
भीजम्ब-क्षिप्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा तां, अम्लानानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यस्यां सा तथा तां, म्लानाः पुष्पमाला उत्साये हीपशा- नवा नवा आरोपणीया इत्यर्थः, प्रमुदिता-हृष्टाः प्रक्रीडिता:-क्रीडितुमारब्धाः सपुरजना-अयोध्यावासिजनसहिताः
18/श्वक्षस्कारे
सचक्रस्य जनपदा:-कोशलदेशवासिनो जना यत्र सा तथा तां, विजयवैजयिकी-अतिशयेन विजयो विजय विजयः स प्रयो
"सप्रथा- मागपतीIN जनं यस्यां सा तथा तां, इदमायुधरलं सम्यगाराधितं मदभिप्रेतं महाविजयं साधयतीत्यर्थः, 'प्रत्यये डीर्वा' इति (श्री-IST ॥१९४॥
| सिद्ध. अ.८ पा.३ सू.३१) प्राकृत सूत्रेण डीविकल्पस्तेन विजयवेजइअमिति पाठः, कचिद्विजयवैजयन्तचकरयणस्सत्ति सिद्ध० अ.८ पा.३ सू.३१) प्राकृत पाठस्तत्र विजयसूचिका वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती साऽस्यास्तीति विजयवैजयन्तं विजयग्रहणे किमपि परं । न मत्त उत्कृष्टमिति ध्वजबन्धं विधत्ते इत्यर्थः एतादृशं यच्चक्ररक्षं तस्याष्टाहिकामिति प्राग्वदिति । अथ श्रेणिप्रश्रेणयो यचक्रुस्तदाह-'तए ण'मित्यादि सर्व पाठसिद्धं । अथाष्टाहिकामहामहिमापरिसमाप्त्यनन्तरं फिमभूदित्याह
तए ण से दिव्ये चक्करयणे अट्ठाहिआए महामहिमाए निवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिवतुडिअसहसण्णिणाएणं आपूरेते चेच अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झमझेणं णिम्गच्छह २ त्ता गंगाए महाणईए दाहिणिले णं फूलेणं पुरथिमं दिसि मागइवित्याभिमुहे पयाते आवि होत्था, तए णं से भरहे राया तं दिवं
॥१९॥ चकरवणं गंगाए महाणईए दाहिणिलणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसि मागहतित्थामिमुहं पयात पासइ २ त्ता हतुह जाब हियए को - बिअपुरिसे सद्दावेद २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ। आमिसेकं हथिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवरजोहक
दीप अनुक्रम [५६-६०]
Jistianition
दिग्विजयकथा एवं चक्ररत्नस्य गमनं
~391~
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४४]
Secessaeaseeeeeeees
दीप
लिभ चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह, एतमाणत्ति पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुविस जाव पञ्चपिणति, तए णं से भरहे राया जेणेव मजणधरे तेणेव उवागच्छइ २ ता मजणघरं अणुपविसइ २ ता समुत्तजालाभिरामे तहेव जाच धक्लमहामेहणिम्गए इव ससिन्य पियदसणे जरवई मजणघराओ पडिणिक्खमह २त्ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उबढाणसाला जेणेब आमिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छद २ ता अंजणगिरिकहगसग्णिभं गयवई गरवई दुरुढे । तए णं से भरहादिवे णरिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुंडलउजोइआणणे मजडविचसिरए णरसीहे णरवई परिंदे णरवसहे मरुअरायवसभकप्पे अब्भहिअरायतेअलच्छीए विष्पमाणे पसत्यमंगळसएहिं संथुधमाणे जयसरकयालोए हत्यिखंधवरगए सफोरंटमलदामेणं छत्तेणं परिजमाणेणं सेअवरचामराहिं उद्धन्नमाणीहि २ जक्खसहस्ससंपरिखुदे वेसमणे व धणबई भमरवइसपिणभाइ इट्टीए पहिअकित्ती गंगाए महाणईए दाहिणिले णं कूले णं गामागरणगरखेडकब्बडमचदोणमुहपट्टणासमसंबादसहस्समंदिरं थिमिभमेदणीअं वसुई अभिजिणमाणे २ अम्गाई बराई रयणाई पहिच्छमाणे २ तं दिवं चकरवणं अणुगच्छमाणे २ जोभणंतरिआदि वसहीहि समाणे २ जेणेव मागइतित्थे तेणेव उवागच्छइ २ ता मागइतित्यस्स अदूरसामते दुवालसजोषणायाम णवजोन अणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ २ चा वड्डइरवणं सदावेद सदावहत्ता एवं बयासी-खिप्पामेब भो देवाणुप्पिा ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि करेत्ता ममेअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, तए णं से बहरयणे भरहेणं रण्णा एवं बुचे समाणे इतुट्टचित्तमाणदिए पीइमणे जाव अंजलि कट्ठ एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २ ता भरहस्स रण्यो भावसई पोसहसाकं च करे २ ता एमाणत्ति खियामेव पञ्चप्पिणति, तए णं से भरहे राया आभिसेकाओ हस्थिरय
अनुक्रम [६१]
seas
~392~
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्रीया प्रतिः ॥१९५॥
४४
[४४]
दीप
णाओ पच्चोरुहइ २ चा जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा पोसहसालं अणुपविसइ २ चा पोसहसालं पमज्जइ २ त्ता ४३वक्षस्कारे दब्भसंथारगं संघरद २ सा दम्भसंधारगं दुरुहइ २ चा मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्इ २ ता पोसहसालाए
सचक्रस्य पोसहिए बंभयारी उम्मुकमणिमुक्ण्णे वगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्यमुसले दम्भसंथारोवगए एगे अबीए अट्ठमभत्तं
मागधतीपडिजागरमाणे २ विहरइ । ए णं से भरहे राया अहमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव
बागमन सू. बहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद २ चा कोडंबिअपुरिसे सहावेइ २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिआ हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह चाउरघंटं आसरह पलिकप्पेहत्तिकटु मजणघरं अणुपबिसइ २ ता समुत्त तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए. जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ चा हयगयरहपवरवादण जाव सेणावह पहिअकित्ती जेणेव माहिरिआ उबढाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ चा चाउघंटे मासरुई दुरूढे (सूत्र-४४) 'तए णं से' इत्यादि, ततस्तहिव्यं चकरने अष्टाहिकायां महामहिमायां निर्वृताया-जातायां सत्या आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तरिक्षं प्रतिपन्नं-नभः प्राप्तं, यक्षसहस्रसंपरिवृत-चक्रधरचतुर्दशरक्षानां 81 |प्रत्येक देवसहस्राधिष्ठितत्वात्, दिव्यत्रुटितशब्दसन्निनादेन पूर्वव्याख्यातेन आपूरयदिवाम्बरतल-शब्दाद्वैतं नभः | | कुर्वदिवेत्यर्थः, विनीतायाः राजधान्याः मध्यमध्येन मध्यभागेनेत्यर्थः निर्गच्छति, निर्गत्य च गङ्गानाच्या महानद्या 8 दाक्षिणात्ये कूले उभयत्र गंशब्दो वाक्यालंकारे समुद्रपार्श्ववर्तिनि तटे इत्यर्थः, अयं भावः-विनीतासमश्रेणी हि
अनुक्रम
[६१]
eeseseaeservee
~393~
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४४]
दीप
प्राच्या वहन्ती गङ्गा मागधतीर्थस्थाने पूर्वसमुद्रं प्रविशति, इदमपि मागधतीर्थसिसाधयिषया पूर्ण दिशं पियासुः |
अनुनदीतटमेव गच्छति, तच्च तटं दक्षिणदिग्वर्तित्वेन दाक्षिणात्यमिति व्यवह्रियते, अत एव दाक्षिणात्येन कूलेन |81 18| पूर्वी दिशं मागधतीर्धाभिमुखं प्रयात-चलितं चाप्यभवत्, एतच्च प्रयाणप्रथमदिने यावत् क्षेत्रमतिक्रम्य स्थितं तावद् । 1881 योजनमिति व्यवहियते, तच्च प्रमाणाङ्कलनिष्पन्नतया भरतचक्रिणः स्कन्धावारः स्वशक्त्यैव निवति, अन्येषां तु। &/ दिव्यशक्त्या इति वृद्धाः, ततः किं जातमित्याह-'तए ण'मित्यादि, उक्तार्थप्राय, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव'त्ति |81 क्षिप्रमेव भो देवानुपिया! आभिषेक्यं-अभिषेकयोग्यं हस्तिरलं पट्टहस्तिनमिति भावः प्रतिकल्पयत-सज्जीकुरुत,181
हयगजरथप्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिनी, अत्र चतुःशब्दस्याऽऽत्त्वं प्राकृतसूत्रेण, उक्कैरेवाश्चतुःप्रकारां सेनां सन्नाहयत-18 ६. सन्नद्धां कुरुत, शेष प्राग्वत्, 'तए णमित्यादि, अत्र यावत्शब्दात् 'पुरिसा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता समाणा 8 18 हतुट्ठचित्तमाणदिआ' इति ग्राह्य, इदं चाभ्युपगमसूत्रमिश्रमाज्ञाकरणसूत्रं स्पष्टमिति, अथ भरतो दिग्यात्रायियासयार 1% विधिमकार्षीत् तमाह-'तए ण'मित्यादि, स्नानसूत्रं पूर्ववत्, 'हये'त्यादि, हयगजरथाः प्रवराणि वाहनानि-18
वेसरादीनि भटा-योद्धारस्तेषां चडगरपहकरत्ति-विस्तारवृन्दं. इदं च देशीशब्दद्वयं, तेन संकुलया-व्याप्तया सेनया
सामिति शेषः, प्रथितकीर्तिर्भरतो यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव चाभिषेक्यं हस्तिरनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य कच अञ्जनगिरेः कटको-नितम्बभागस्तत्सन्निभमेतावत्प्रमाणमुच्चत्वेनेत्यर्थः गजपति-राजकुञ्जरं नरपतिदुरूढे इति
अनुक्रम [६१]
~ 394 ~
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
दीप
अनुक्रम
[६१]
वक्षस्कार [3],
मूलं [४४ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूडीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥१९६॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Ebeiting
आरूढ इति । आरूढश्च कीदृशया ऋया चक्ररलोपदर्शितं स्थानं याति तदाह - 'तए ण' मित्यादि, ततः स भरताधिपो - भरतक्षेत्रपतिः स च भरताधिपदेवोऽप्यतो नरेन्द्रः प्रस्तावाद्वृषभसूनुः चक्की इत्यर्थः, एतेनास्यैवालापकस्योत्तरसूत्रे नरिंदेत्तिपदेन न पौनरुक्त्यमिति, 'हारोत्थये त्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत्, नरसिंहः सूरत्वात्, नरपति: स्वामित्वात्, नरेन्द्रः परमैश्वर्ययोगात्, नरवृषभः स्वीकृतकृत्यभर निर्वाहकत्वात्, 'मरुद्राजवृषभकल्पो' मरुतो देवा व्यन्त| रादयस्तेषां राजानः सन्निहितादय इन्द्रास्तेषां मध्ये वृषभा - मुख्याः सौधर्मेन्द्रादयस्तत्कल्पः- तत्सदृश इत्यर्थः, अभ्य धिकराजते जोलक्ष्म्या दीप्यमान इति स्पष्टं, प्रशस्तैर्मङ्गल शतैः - मङ्गलसूचकवचनैः कृत्वा स्तूयमानो वन्दिभिरिति शेषः, 'जयसद्दकथालोए' इति प्राग्वत्, हस्तिस्कन्धवरं गतः प्राप्तः, केन सहेत्याह- 'सकोरण्टमाल्यदाना छत्रेण प्रियमाणेन सह, कोऽर्थः ? -यदा नृपो हस्तिस्कन्धगतो भवति तदा छत्रमपि हस्तिस्कन्धगतमेव प्रियते, अन्यथा छत्रधरणस्यासङ्गतत्वात् एवं श्वेतवर चामरैरुडूयमानैः - वीज्यमानैः सह इति, तेन गयबई णरवई दुरूढे इति पूर्वसूत्रेण | सहास्य भेदः, अधिकार्थप्रस्तावनार्थकत्वादस्य यक्षाणां देवविशेषाणां सहस्राभ्यां संपरिवृतः, चक्रवर्त्तिशरीरस्य व्यन्त|रदेवसहस्रद्वयाधिष्ठितत्वात्, 'बेसमणे चैव धणवई'ति वैश्रमण इव धनपतिः अमरपतेः सन्निभया या प्रथितकीतिर्गङ्गाया महानया दाक्षिणात्यकुले उभयत्र णंशब्दो प्राग्वत् अथवा सप्तम्यर्थे तृतीया ग्रामाकरादीनां - प्राक्प्रथमारकवर्णने युग्मिवर्णनाधिकारे उक्तस्वरूपाणां सहस्रैमेण्डितां तदानीं वास बहुलत्वाद्भरतभूमेः स्तिमितमेदिनीकां प्रस्तु
For Free Cry
~ 395~
२वक्षस्कारे सचक्रस्य मागधतीथंगमनं सू. ४४
।।१९६।।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
eseseseseam
[४४]
तनृपस्य प्रजाप्रियत्वात् स्तिमिता-निर्भयत्वेन स्थिरा मेदिनी-मेदिन्याश्रितजनो यस्यां सा तथा तां, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, अत्र मेदिनीशब्देन 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश' इति न्यायात्तभिवासी जनो लक्ष्यते, एवंविधां वसुधां अभिजयन
२-तत्रत्याधिपवशीकरणेन स्ववशे कुर्वन् २ इत्यर्थः, अग्र्याणि वराणि-अत्यन्तमुत्कृष्टानि रक्षानि-तत्तजातिप्रधान18 वस्तूनि आज्ञावशंवदीकृततत्तद्देशाधिपादिप्राभृतीकृतानि प्रतीच्छन् २-गृण्हन २ तद्दिव्यं चक्ररक्षमनुगच्छन् , चक्ररक्ष
गत्यङ्कितमार्गेण चलमित्यर्थः,योजनं-चतुःकोशात्मकं तदन्तरिताभिर्वसतिभिर्विश्रामैर्वसनर,अयमर्थः-एकस्माद्विश्रामा-19 योजनं गत्वा परं विश्राममुपादत्ते इति, यत्रैव मागधतीर्थ तत्रैवोपागच्छति, तत्रोपागतः सन् किं चकारेत्याह-उवागच्छित्ता इत्यादि,उपागत्य च मागधतीर्थस्य दूरं च-विप्रकृष्टं सामन्त च-आसनं दूरसामन्तं ततोऽन्यत्र, नातिदूरे नात्या-1
सन्न इत्याशयः, द्वादशयोजनायामं नवयोजनविस्तीर्ण वरनगरसदृशं विजययुक्तःस्कन्धावार:-सैन्यं तस्य निवेश-स्थापना 13 करोति, कृत्वा च वर्द्धकिरसं-सूत्रधारमुख्यं शब्दयति,शब्दयित्वा च एवमवादीदिति, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेय'त्ति
क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! मम कृते आवास पौषधशालां च, तत्र पौषधं-पर्वदिनानुष्ठेयं तप उपवासादिः तदर्थ शालागृहविशेषः तां कुरु, कृत्वा मम एतामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयेति । 'तए ण'मित्यादि, स्पष्ट,नवरं 'आवसह' आवासमिति, अथ18
भरतः किं चके इत्याह-'तए णमित्यादि,ततः स भरतोराजा आभिषेक्यान् हस्तिरक्षात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च 1 यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च पौषधशालामनुप्रविशति, अनुपविश्य च पौषधशालां प्रमार्जयति,प्रमाl 181
दीप
seventiceaestseesesese
अनुक्रम [६१]
~396~
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४]
दीप
श्रीजम्यू- चदर्भसंस्तारकं संस्तृणाति,संस्तीर्य च दर्भसंस्तारकं दुरूहति-आरोहति,आरुह्य च मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य साध- ३वक्षस्कारे
नायेति शेषः, अथवा चतुर्य षष्ठी, तेन मागधतीर्थकुमाराय देवाय, अष्टमभक्तं समयपरिभाषयोपवासत्रयमुच्यते, न्तिचन्द्री-18
| यद्वा अष्टमभक्तमिति सान्वयं नाम, तचैव-एकैकस्मिन् दिने द्विवारभोजनौचित्येन दिनत्रयस्य षण्णां भक्तानामुत्त-18
रपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च त्यागेनाष्टम भक्तं त्याज्यं यत्र तथा, प्रगृह्णाति, अनेनाहारपौषधमुक्तं, प्रगृह्य च पौषध-|| ॥१९७॥ शालायां 'पौषधिकः' पौषधवान् , पौषधं नामेहाभिमतदेवतासाधनार्थकव्रतविशेषोऽभिग्रह इतियावत्, नत्वेकादश[व्रतरूपस्तद्वतः सांसारिककार्यचिन्तनानौचित्यात् , नन्वेवमेकादशप्रतिकोचितानि तद्वत्तो ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठानानि सूत्रे कथमु-1॥
पात्तानि ?, उच्यते. ऐहिकार्थसिद्धिरपि संवरानुष्ठानपूर्विकैव भवतीत्युपायोपेयभावदर्शनार्थ, अभयकुमारमन्निश्रीवि-18 18 | जयराजधम्मिल्लादीनामिव, अत एव परमजागरूकपुण्यप्रकृतिकाः संकल्पमात्रेण सिसाधयिपितसुरसाधनसिद्धिनिश्चयं । 19 जानाना जिनचक्रिणोऽतिसातोदयिनः कष्टानुष्टानेऽष्टमादौ नोपतिष्ठन्ते, किन्तु मागधतीर्थाधिपादिः सुरः प्रभुणा हदि || 18| चिन्तितः सन् गृहीतमाभृतकः सहसैव सेवार्थमभ्युपैति, यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः श्रीशान्तिनाथचरित्रे-"ततो 181 IS मागधतीर्थाभिमुखं सिंहासनोत्तमे । जिगीषुरप्यनाबद्धविकारो न्यपदत् प्रभुः ॥१॥ ततो द्वादशयोजन्यां, तस्थुषो माग-181
| धेशितुः । सिंहासनं तदा सद्यः, खञ्जपादमिवाचलत् ॥ २॥" इत्यादि, यत्तु श्रामण्ये जगद्गुरवो दुर्विषहपरिषहादीन,181 18| सहन्ते तत्कर्मक्षयार्थमिति, अनेनैव साधम्र्येण पौषधशब्दप्रवृत्तिरपि, यथा चास्य पौषधनतेन साधर्म्य तथा चाह
अनुक्रम
[६१]
Jimileoanition
~397~
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
दीप
अनुक्रम
[६१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [४४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
ब्रह्मचारी - मैथुनपरित्यागी, अनेन ब्रह्मचर्यपौषधमुक्तं, उन्मुक्तमणिसुवर्ण:- त्यक्तमणिस्वर्णमयाभरणः, व्यपगतानि मालावर्णकविलेपनानि यस्मात् स तथा, वर्णकं चन्दनं, अनेन पदद्वयेन शरीरसत्कारपौषधमुक्तं, निक्षिप्तं हस्ततो विमुक्तं | शस्त्रं-धुरिकादि मुसलं च येन स तथा अनेनेष्टदेवताचिन्तनरूपमेकं व्यापारं मुक्त्वाऽपरव्यापारत्यागरूपं पौषधमुक्तं, दर्भसंस्तारोपगत इति व्यक्तं, एकः आन्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात् अद्वितीयस्तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्, अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रत् २- पालयन् २ विहरति आस्ते इति । 'तए ण' मित्यादि, ततः स भरतो राजाऽष्टमभके परिणमति- पूर्यमाणे, परिपूर्णप्राये, इत्यर्थः, अत्र वर्तमान निर्देशः आसन्नातीतत्वात् 'सत्सामीप्ये' (श्रीसिद्ध० अ. ५ पा. ४ सू. १) इत्यनेन, पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! हयगजरथप्रबरयोधकलितां चतुरङ्गिनीं सेनां सन्नाहयत, चतस्रो घण्टाश्छत्रिकैकदिशि तत्सद्भावात् अवलम्बिता यत्र स तथा तं चकारः समुच्चये, स चाश्वरथमित्यत्र योजनीयः, अश्ववहनीयो रथोऽश्वरथो नियुक्तोभयपार्श्वतुरङ्गमो रथ इत्यर्थः, अनेनास्य सांग्रामिकरथत्वमाह, तं प्रतिकल्पयत सज्जीकुरुत इतिकृत्वा कथयित्वा आदिश्येत्यर्थः, मज्जनगृहमनुप्रविशतीति, 'अणुपविसित्ता' इत्यादि, अनुप्रविश्य च मज्जनगृहं समुक्ताजालाकुलाभिरामे इत्यादि, तथैव प्रागुक्तास्थानाधिकारगंमवदित्यर्थः, यावद् धवलमहामेघनिर्गतो यावन्मज्जनगृहात्प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च हयगजरथप्रवरवाहन यावत्प
Fur Pate&P Cy
~ 398~
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
दीप
अनुक्रम
[६१]
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥१९८॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
Jan Elem
-
वक्षस्कार [3],
मूलं [४४ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
दात् 'भडचडगर पहगरसंकुल'त्ति ग्राह्यं, 'सेणाए (ई) पहिअकित्ती' इत्यादि प्राग्वत्, अत्र निष्ठितपौषधस्य सतो मागधतीर्थमभियियासोर्भरतस्य यत् स्नानं तदुत्तरकालभाविबलिकर्माद्यर्थं यदाह श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः आदिनाथचरित्रे"राजा सर्वार्थनिष्णातस्ततो बठिविधिं व्यधात् । यथाविधि विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधिं न हि ॥ १ ॥” इति, अत्र च सूत्रेऽनुक्तमपि बलिकर्म “व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायेन ग्राह्यमिति ॥ अथ कृतस्नानादि विधिर्भरतो यच्चक्रे तदाह
तणं से भर राया चारघंटं आसरहं दुरूढे समाणे हयगवरहपवरजोहकलिआए सद्धिं संपरिवुडे महयाभङचङगरपहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्सा आयमग्गे महया उकिसीहणायचोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूपि करेमाणे २ पुरस्थिमदिसाभिमुद्दे मागहतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहइ जाव से रहबरस्त कुप्परा उल्ला, तए णं से भरहे राया तुरगे निमिन्हई २ ता रहं ठवेइ २ ता धणुं परामुसद्द, तर णं तं अइरुग्गयबालचन्ददधणुसंकासं वरमहि सदअिद पिअरघणसिंगर असारं उरगवरपवरगव उपवरपरहु अभमर कुणी लिणितघोजपट्टे णिउणोविअ मिसि मिसितमणिरयणघंटिआजालपरिखितं afsतरुण किरणतवणिज्जबद्धचिंधं दद्दरमलयगिरिसिह केसरचामरवालचंद चिंधं कालहरिअरत्तपी असुकिडवटुहारुणिसंपिीणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीवं घणूं गहिऊण से णरवई उसुं च वरबइरकोडिअं वइरसारतोंडं कंचणमणिकणगरयणधोइ सुकपुंखं अणेगमणिरयण विविधसुविरइयनाम चिंधं बइसाहं ठाऊण ठाणं आयतकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाई वयणाई तत्थ भाणिअ
Futriglee y
~ 399~
३ वक्षस्कारे मागधवीकुमारसाधनं सू. ४५
॥१९८॥
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ----------
--------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
से परवई-हवि सुजंतु भवंतो वाहिरओ खलु सरस्स जे देवा । जागामुरा सुवण्णा तेसिं खु णमो पणिवयानि ॥ १॥ हंदि सुर्णतु भवंतो अम्भितरओ सरस्स जे देवा । णागामुरा सुवष्णा सो मे ते विसयवासी ॥२॥ इतिक उमुं णिसिरहत्ति-'परिगरणिगरिअमलो वाउडुअसोभमाणकोसेज्जो । चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोष पञ्चक्खं ॥३॥ तं चंचलायमाणं पंचमिचंदोवमं महाचार्य । छनइ वामे हत्थे णरवइणों तमि विजमि ॥ ४ ॥ तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसहे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवर्णसि निवइए, तए से मागहतित्थाहिबई देवे भवर्णसि सर णिवइ पासह ता आसुकत्ते रुढे चंटिफिए कृषिए मिसिमिसेमाणे तिवलिज मिडि पिडाले साहह २ता एवं वयासी-केस णं भो एस अपत्थिापत्थए दुरंतफ्तलक्षणे हीणपुण्णचारसे हिरिसिरिपरिवजिए जेणं मम इमाए एआणुरूवार दिवाए देविशीए दिवाए देवजुईए दिवेणं दिवाणुभावेणं लाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उर्षि अप्पुम्सए भवर्णसि सरं णिसिरइत्तिफट्ट सीहासणाओ अम्भुढेश २ ता जेणेच से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छद २ चा तं णामाहयकं सरं गेहइ णामक अणुप्पवाए णामक अणुष्पवाएमाणस्स एम एआरूवे अब्भत्थिए चिंतिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्या-उप्पण्णे खलु भो! जंबुडीवे दीवे भरहे पासे भरहे णामं राया चाउरंतचकवट्टी त जीअमे तीअपचुप्पण्णमणागयाणं' मागहतित्थकुमाराण देवाणं गणमुवस्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि गं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणी करेमित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ संपेहेत्ता हारं मउड कुंडलाणि म कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि बाभरणाणि अ सर च णामाहयंक मागहतित्थोदगं च गेण्डइ गिणिहत्ता ताए उकिवाए तुरिआए पचलाए जयणाए सीहाए सिग्याए उबुआए दियाए देवगईए वीईवयमाणे २ जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छद २ ता अंतालिक्खपटिवण्णे ससिंखिणीआई
दीप अनुक्रम [६२-६७]
090090899003
~400~
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [३], -----------
...............---------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशा-18
सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[४५]
३वक्षस्कारे मागपतीथैकुमारसाधनं म्.
४५
या वृति॥१९९॥
गाथा:
पंचवण्णाई वत्थाई पवर परिहिए करयलपरिणहिलं दसणहं सिर जाव अंजलि कटु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ २ चा एवं वयासी अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वांसे पुरच्छिमेणं मागह तित्थमेराए तं अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसवासी अहणं देवाणपिआणं आणतीकिंकरे अहणं देवाणुप्पिआणं पुरक्छिमिले अंलबाले तं पविल्छंतु णं देवाणुप्पिा ! ममं इमेआरूवं पीइदाणंतिकट्ठ. हार माडं कुंडलाणि अ कडगाणि अ जाब मागहतित्थोदगं च उवणेइ, तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छइ २ ता मागह तित्यकुमारं देवं सकारेइ सम्माणेइ २ चा पडिविसजेइ, तए णं से भरहे राया रह परावतेइ २ ता मागहतित्थेणं लवणसमुदाओ पचुत्तरइ २ ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता तुरए णिगिण्हइ २ त्ता रहं ठवेइ २ रहाओ पञ्चोकहति २त्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उबागल्छति २ मजणधरं अणुपविसइ २ चा जाव ससिब पिअदसणे गरवई मजणघराओ पडिणिक्खमह २ ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छ२त्ता भोभणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभ पारेइ २ ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव बाहिरिआ उवठ्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसीअइ २त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ त्ता एवं बवासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया उस्सुक्क उकरं जाव मागहतित्यकुमारस्स देवस्स अट्टाहि महामहिमं करेह २ ता मम एअमाणत्ति पञ्चप्पिणह, तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीओ हट जाव करेंति २ चा एअमाणत्ति पञ्चप्पिणंति, तए णं से दिवे चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयारए जंबूणवणेमीए णाणामणिबुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणंदिघोसे सखिखिणीए दिव्ये तरुणरविमंडलणिभे णाण
e00000000000saeroeaeasee
दीप अनुक्रम [६२-६७
AUGUSUA000000
| ॥१९९॥
Jintlemniti
~ 401~
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
मणिरयणघंटिआजालपरिक्खिसे सबोउअसुरभिकममबासत्तमल्लदामे अंतलिक्खपतिवणे जक्खसहस्ससंपरिबुढे विवतटिअसइसणिणादेणं पूरेते चेव अंबरतलं णामेण य मुदसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमारस्त देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउधरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता दाहिणपञ्चत्थिमं दिसि वरदामतिस्थाभिमुद्दे पयाए यावि होत्था (सूत्रं ४५)
'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्षण्टमश्वरथमारूढः सन् हयगजरथमवरयोधकलितया, अर्थात् सेनया 8 18 इति गम्यं, सार्द्ध संपरिवृतो 'महया' इति महाभटानां चडगरत्ति-विस्तारवन्तः पहगरत्ति' समूहास्तेषां यद्वृन्द-18 18 समूहो विस्तारवत्समूह इत्यर्थः, तेन परिक्षिप्त:-परिकरितः चक्ररत्नादेशितमार्गः, अनेकेषां राजवराणां-आबद्ध| मुकुटराज्ञां सहस्रैरनुयात:-अनुगतो मार्ग:-पृष्ठं यस्य स तथा, महता-तारतरेण उत्कृष्टि:-आनन्दध्वनिः सिंहनादः
प्रतीतः बोलो-वर्णव्यकिरहितो ध्वनिः कलकलव-तदितरो ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन प्रक्षुभितो-महावायुवशादु| कल्लोलो यो महासमुद्रस्तस्य रवं 'भूर प्राताविति सौत्रो धातुरिति वचनाद् भूत-प्राप्तमिव दिग्मण्डलमिति गम्यते
कुर्वन्नपि चशब्दोऽत्र इवादेशो ज्ञातव्यः, पूर्वदिगभिमुखो मागधनान्ना तीर्थेन-घटेन लवणसमुद्रमवगाहते-प्रविशति, | कियदवगाहते इत्याह-यावत् से तस्य रथवरस्य कूर्पराविव कूर्परौ कूपराकारत्वात् पिञ्जनके इति प्रसिद्धी रथावयवौं आर्दो स्यातां, अत एव सूत्रबलादन्यत्र एतदासन्नभूतो रथचक्रनाभिरूपोऽवयवो विवक्ष्यते, यदाह-रथाङ्गनाभिदयस, गत्वा जलनिर्जलम् । रथस्तस्थौ रथामस्थसारथिस्खलितईयैः॥१॥" इति, 'तए णमित्यादि, ततः स भरतो
390920000Rssagas
गाथा:
दीप अनुक्रम [६२-६७
~ 402~
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
------..------------ मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
बेकुमार
गाथा:
राजा तुरगान निगृह्णाति, अत्र तुरगाविति द्विवचनेन हयद्धिके व्याख्यायमाने सूत्रार्थसिद्धौ सत्यामपि बरदामसूत्रे || ३वक्षस्कारे
हयचतुष्टयस्य वक्ष्यमाणत्वात् बहुवचनेन व्याख्या, निगृह्य च रथं स्थापयति, स्थापयित्वा च धनुः परामृशति-स्पृ- मागपतीन्तिचन्द्री- शति, अथ यादृशं पराममर्श तादृशं धनुर्वर्णयन्नाह-'तए णमित्यादि, ततो-धनुःपरामर्शानन्तरं स नरपतिरिमाया वृत्तिः नि-वक्ष्यमाणानि वचनानि 'भाणी'त्ति अभाणीदिति सम्बन्धः, किं कृत्वेत्याह-धनुर्ग्रहीत्वा, किंलक्षणमित्याह-- ॥२०॥
तत्-प्रसिद्ध अचिरोगतो यो बालचन्द्रः-शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रस्तेन यत्त उत्तरसूत्रे पंचमिचंदोवममिति तदारोपितगुण॥ स्थातिवक्रताज्ञापनार्थमिति, इन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाश-सदृशं यत्तत्तथा, दृप्तः-दर्पितो द्वयोः समानार्थयोरति
शयवाचकत्वेन सञ्जातदातिशयो यो चरमहिषः-प्रधानसेरिभो विशेषणपरनिपातः प्राकृतत्वात् तस्य दृढानि-निबिड-18 | पुद्गलनिष्पन्नानि अत एव धनानि-निच्छिद्राणि यानि शृङ्गामाणि ते रचितं सारं च यत्तत्तथा, उरगबरो-भुजगवरः
प्रवरगवलं-वरमहिषशृङ्ग प्रवरपरभृतो-वरकोकिलो भ्रमरकुलं-मधुकरनिकरो नीली-गुलिका एतानीव स्निग्धं-काल-18 । कान्तिमत् ध्मातमिष ध्मातं च-तेजसा ज्वलद्धौतमिव धौतं च-निर्मलं पृष्ठ-पृष्ठभागो यस्य तत्तथा, निपुणेन शिल्पि
ना ओपितानां-उज्यालितानां 'मिसिमिसित'त्ति देदीप्यमानानां मणिरत्नघण्टिकानां यज्जालं तेन परिक्षिप्त-वेष्टितं ॥२०॥ यत्तत्तथा तडिदिव-विद्युदिव तरुणा:-प्रत्ययाः किरणा यस्य तत्तथा, एवंविधस्य तपनीयस्य सम्बन्धीनि बद्धानि || चिहानि-लान्छनानि यत्र तत्तथा, दर्दरमलयाभिधौ धौ गिरी तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्बन्धिनो ये केसरा:-सिंहस्क-18
दीप अनुक्रम [६२-६७
~ 403~
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
धकेशाः चामराला:-यमरपुरछकेशाः, एषां चोक्कगिरिदयसकानामतिसुन्दरत्वेनोपादानं, अर्द्धचन्द्राश्च-खण्डवम्द्रप्रतिबिम्बानि चित्ररूपाणि एतादृशानि चिन्हानि यत्र तत्सथा, यस्य धनुपि सिंहकेसराः बध्यन्ते स महान् शूर इति शौर्यातिशयस्यापनार्थ, चमरवालवन्धनं अर्द्धचन्द्रप्रतिविम्वरूपं प शोभातिशयार्थमिति, कालाविवर्णा याः महारुणि'त्ति स्नायवः शरीरान्तर्वर्धास्ताभिः सम्पिनद्धा-बडा जीवा-प्रत्यञ्चा यस्य तत्तथा, जीवितान्तकरणं शत्रूणा-8
मिति गम्य, ईशधनुर्मुक्तो पाणोऽवश्य रिपुजयीत्यर्थः, चलजीवमिति विशेषणं त्वेतवर्णकवृत्तौ षष्टाने श्रीमभयदेव18 सूरिभिर्न व्याख्यातमिति न व्याख्यायते, यदि च भूयस्सु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादर्शेषु दृश्यमानत्वाद् व्याख्यातं विलो
क्यते तदा रकारकरणक्षणे पला-चञ्चला जीवा यस्य तत्तथा, पुनः किंकृत्वेत्याह-'उसुंच'त्तिएं च गृहीत्या, तमेव | विशिनष्टि-परषजमग्यौ कोव्या-उभयपान्तौ यस्य स तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, परवजयत् सारं-अभेद्यत्वे-18 नाभङ्गुरं तुण्ड-मुस्खविभागो भालीरूपो यस्य स तथा तं, काश्चनबद्धा मणयः-चन्द्रकान्ताचा कनकबद्धानि रसानिकर्केतनादीनि प्रदेशविशेपे यस्य स धौत इव धौतो निर्मलत्वात् इष्टो-धानुष्काणामभिमतः सुकृतो-निपुणशिल्पिना निर्मितः पुंख:-पृष्ठभागो यस्य स तथा तं, अनेकर्मणिरबैर्विविध-नानाप्रकारं सुविरचितं नामचिन्ह-निजनामवर्णपतिरूपं यत्र स तथा तं, पुनरपि किं कृत्वेत्याह-वैशाख-वैशासनामक स्थान-पादन्यासविशेषरूपं स्थित्वा-कृत्वा, वैशाखस्थानकं चैवं-'पादौ सविस्तरी कायौं, समहस्तप्रमाणतः । वैशाखस्थानके वत्स!, कूटलक्ष्यस्य वेधने ॥१॥ इति,
दीप अनुक्रम [६२-६७
~404 ~
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
...............---------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
श्रीजम्बू-IS भूयोऽपि किं कृत्वेत्याह-इघुमुदारं-उद्भट आयतं-प्रयत्नवद् यथा भवत्येवं कर्ण यावदायतं-आकृष्ट कृत्वा इमानि | ३वक्षस्कारे द्वीपशा-1
वचनान्यभाणीदिति, अन्वययोजनं तु पूर्वमेव कृतं, कानि तानि वचनानीत्याह-हंदि इति सत्ये, तेन यथाशयं वदामी-18 मागधतीन्तिचन्द्री
थेकुमारत्यर्थः, अथवा हंदीति सम्बोधने, शृण्वन्तु भवन्तः, शरस्य-मत्प्रयुक्तस्य बहिस्तात् त्वग्भागे ये देवा अधिष्ठायकाया वृत्तिः
साधन म. | स्त्वग्दाादिकारिणस्ते इत्यर्थः, खलु वाक्यालङ्कारे, ते के इत्याह-नागा असुराः सुपर्णा-गरुडकुमाराःतेभ्यः खुः-नि-10 ॥२०॥ श्चये नमोऽस्तु विभक्तिपरिणामात् तान् प्रणिपतामि-नमस्करोमि, नम इत्यनेन गतार्थत्वेऽपि प्रणिपतामीति पुनर्व-18
चनं भक्त्यतिशयख्यापनार्थ, अनेन शरप्रयोगाय साहाय्यकर्तृणां बहिर्भागवासिनां देवानां सम्बोधनमुक्तं, अथाभ्य-1 न्तरभागवर्तिदेवानां सम्बोधनायाह-हन्दीति प्राग्वत्, नवरं अभ्यन्तरतो गर्भभागे शरस्य येऽधिष्ठायकास्तहानादिकारिण इत्यर्थः, तेऽत्र सम्बोध्या इत्यर्थः, सर्वे ते देवा मम विषयवासिनो-मम देशवासिन इत्यर्थः, सूत्रे चैकवचनं १ प्राकृतत्वात् , इदं च वचनं सर्वे एते देवा मदाज्ञावशंवदत्वेन मदिष्टस्य शरप्रयोगस्य साहायकं करिष्यन्तीत्याशयेनेति,
यथाऽत्रादिचरित्रादौ शरस्य पुंखमुखरूपं देवाधिष्ठातव्यं स्थानद्वयमधिकमुक्तमस्ति तत्तयोः शरे प्राधान्यख्यापनार्थ, 8|| ननु यद्येते देवा आज्ञावर्शवदास्तहिं नमस्कार्यत्वमनुपपन्न, उच्यते, क्षत्रियाणां शस्त्रस्य नमस्कार्यत्वे व्यवहारदर्शनात् ॥ ॥२०१॥ 18|चक्ररलस्येव, तेन तदधिष्ठातूणामपि स्वाभिमतकृत्यसाधकत्वेन नमस्कार्यत्वं नानुपपन्न मिति, इतिकृत्वा-निवेद्य इ 18
निसृजति-मुश्चति । अथ भरतस्यैतत्प्रस्ताववर्णनाय पद्यद्वयमाह-'परिगर'त्ति परिकरण-मल्लकच्छबन्धेन युद्धोचित
seaeseedeocacaceaeeseakce
दीप अनुक्रम [६२-६७
homRI
~ 405~
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--...................--- मूल [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
वस्त्रबन्धविशेषेणेत्यर्थः, निगडितं-सुबद्धं मध्यं यस्य स तथा, वातेन-प्रस्तावात् समुद्रवातेनोद्भूत-उत्क्षिप्तं शोभमान | कौशेय-वस्खविशेषो यस्य स तथा, चित्रेण धनुर्वरेण शोभते स भरत इत्यध्याहार।, इन्द्र इव प्रत्यक्ष-साक्षात्तत्प्रागुक्त-10 स्वरूपं महाचापं चञ्चलायमान-सौदामिनीयमानं कान्तिझात्कारेणेत्यर्थः, आरोपितगुणत्वेन पञ्चमीचन्द्रोपर्म 'छजइत्ति || राजते 'राजेरग्घछज्जसहरीहरहा इति ( श्रीसिद्ध०८-४-१००) प्राकृतसूत्रेण रूपसिद्धिः, वामहस्ते नरपतेरिति, तस्मिन् |विजये-मागधतीर्थेशसाधने इति । 'तए 'इत्यादि, ततः स शरो भरतेन राज्ञा निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्वादश योज18|नानि गरवा मागधतीर्थाधिपतेर्देवस्य भवने निपतितः, ततः किं वृत्तमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः स मागधपति
| देवो भवने अर्थात् स्वकीये शरं निपतितं पश्यति दृष्ट्वा च आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोधोदयाद्विमूढः, 'रुप लुप च विमोहने' 18|| इति वचनात् , स्फुरितकोपलिङ्गो वा, रुष्ट:-उदितकोधः चाण्डिक्यितः-सज्जातचाण्डिक्यः, प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, 18
कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः, 'मिसिमिसेमाणे ति क्रोधाग्निना दीप्यमान इच, एकाथिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपाद-18 नार्थमुक्ताः, त्रिवलिका-तिम्रो पलया-प्रकोपोत्थललाटरेखारूपा यस्यां सा तथा र्ता भृकुर्टि-कोपविकृतभूरूपां संह-18 |रति-निवेशयति, संहृत्य च एवमवादी, किमवादीदित्याह-केस णमित्यादि, केसत्ति-कः अज्ञातकुलशीलसहज-181 || त्वादनिर्दिष्टनामकः सकारः प्राकृतशैलीभवः 'मणसा वयसा कायसा' इत्यादिवत् णमिति प्राग्वत् भो इति सम्बो-18 राधने देवानां एषः-बाणप्रयोका अप्रार्थित-केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावात् मरणं तस्य प्रार्थको-अभिलाषी, अय-18
दीप अनुक्रम [६२-६७
~406~
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
---.............-------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मागधवी
[४५]
गाथा:
श्रीजम्यू- ॥ मर्थः यो मया सह युयुत्सुः स मुमूर्परेवेति, दुरन्तानि-दुष्टावसानानि प्रान्तानि-तुच्छानि लक्षणानि यस्य स सथा, हीनायां ॥ ३वक्षस्कारे
| पुण्यचतुर्दश्या जातो हीनपुण्यचातुर्दशः, तत्र चतुर्दशी किल तिथिर्जन्माश्रिता पुण्या पवित्रा शुभा इतियावत् भवति, 181 सा च पर्णाऽत्यम्तभाग्यवतो जन्मनि भवति अत आक्रोशता इत्यमुक्त, कचित् 'भिन्नपुण्णचाउदसे'त्ति, तत्र भिना-18
कुमारया वृचिः
| परतिथिसङ्गमेन भेदं प्राप्ता या पुण्यचतुर्दशी तस्यां जात इति, हिया-उज्जया श्रिया-शोभया च परिवर्जितः यो णमिति । ॥२०२॥ पूर्ववत् मम अस्याः-प्रत्यक्षानुभूयमानायाः एतद्रूपायाः एतदेव न समयान्तरे भङ्गरत्वादिरूपान्तरभाक् रूपं-स्वरूपं
यस्याः सा तथा तख्या दिव्याया:-स्वर्गसम्भवा याःप्रधानाया था देवानामृद्धिः-श्रीभवनरनादिसम्पत् तस्याः, एवं सत्र,187 18|नवरं पुतिः-दीप्तिः शरीराभरणादिसम्पत् तस्याः युतिर्वा-इष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा तस्याः दिव्येन-प्रधानेन देवानु
भावेन-भाग्यमहिनाऽथवा दिव्येन-देवसम्बन्धिनाऽनुभावेन-अचिन्त्यवैक्रियादिकरणमहिना सह 'पिता पुत्रेण सहा-8 गत' इत्यादिवत्,लब्धाया-जन्मान्तरार्जितायाः प्राप्ताया-इदानीमुपस्थितायाः अभिसमन्वागताया:-भोग्यतां गतायाः उपरि आत्मना उत्सुको-मनसोत्कण्ठुला परसम्पश्यभिलाषी पदव्यत्ययावुत्सुकात्मा वा भवने निसृजति, इतिकृत्वा । सिंहासनादन्युत्तिष्यतीति । उत्थानानन्तरं यत्कर्त्तव्यं सदाह-जेणेव से णा इत्यादि, यत्रैष स नामरूपोऽहतः-अखण्डि- २०२॥
अक्का-चिन्हं यत्र स तथा मामाङ्क इस्यर्थः, एवंविधः शरतत्रैवोपागच्छति, तं नामाइताई शरं गृह्णाति नामक अनुप्रवाधयति-वर्णानुपूर्वीक्रमेण पठति, नामकमनुप्रवाचयतोऽयं-यक्ष्यमाण एतदूपो-वश्यमाणस्वरूपः आत्मन्यधि रा
।
दीप अनुक्रम [६२-६७
~407~
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཟླ + ཋལླཱ ཡྻ
守
[६२-६७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः आत्मविषय इत्यर्थः, सङ्कल्पश्च द्विधा ध्यानात्मकः चिन्तात्मकश्च तत्र आद्यः स्थिराध्यवसायलक्षणस्तथाविधदृढसंहननादिगुणोपेतानां द्वितीयश्चलाध्यवसायलक्षणस्तदितरेषामिति, तयोर्मध्येऽयं चिन्तितः| चिन्तारूपश्चेत सोऽनवस्थितत्वात् स चानभिलाषात्मकोऽपि स्यादित्यत आह- प्रार्थितः - प्रार्थनाविषयः, अयं मम | मनोरथः फलेग्रहिर्भूयादित्यभिलाषात्मक इत्यर्थः, मनोगतो-मनस्येव यो गतो न बहिर्वचनेन प्रकाशित इति, सङ्कल्पः | समुदपद्यत, तमेवाह-उत्पन्नः खलुः - निश्चये भो इत्यामन्त्रणे विचाराभिमुख्यकरणाय स्वात्मन एव तेनेह मागधकुमारेति योज्यं, जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे भरतो नाम राजा चातुरन्तचक्रवर्त्ती तत् तस्माज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां 'मागधतीर्थकुमाराणा' मिति मागधतीर्थस्याधिपतिः कुमारो मागधतीर्थकुमारः मध्यपदलोपेन समासः, | कुमारपदवाच्यत्वं चास्य नागकुमारजातीयत्वात् तन्नामकानां देवानां राज्ञां नरदेवानां उपस्थानिकं--प्राभृतं कर्तु | सद् गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिकं करोमि, इतिकृत्वा - इति मनसिकृत्य एवं वक्ष्य| माणं निजर्द्धिसारं संप्रेक्षते-पर्यालोचयति, ततः किं करोतीत्याह - 'संपेहेत्ता' इत्यादि सम्प्रेक्ष्य च हारादीनि प्रतीतानि | चकारः सर्वत्र समुच्चये शरं च भरतस्य प्रत्यर्पणाय नामाहतं नामाहताङ्कमिति निर्देशे कर्त्तव्ये लाघवार्थमित्थमुपन्यासः यद्वा नाम आहतं लक्षणया लिखितं यत्र स तथा तं मागधतीर्थोदकं च राज्याभिषेकोपयोगि एतानि गृहावीति सम्बन्धः, तदनन्तरं किं विदधे इत्याह- 'गिण्डित्ता ताएं उकिट्टाए' इत्यादि, गृहीत्वा च तया दिव्यया देव
Fur Fraternae Cy
~ 408~
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ལྦ , ཏུལླཱ ཡྻ
[६२-६७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [४५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृतिः
॥२०३॥
गत्या गत्यालापकव्याख्या प्राग्वत् नवरं सिंहया - सिंहगतिसमानया अतिमहता बलेनारब्धत्वात् यच्च पूर्व ऋषभ| देव निर्वाणकल्याणाधिकारे गत्यालापककथनं यावत्पदेन अत्र च तत्कथनं विस्तरेण तद्विचित्रत्वात् सूत्रकारप्रवृत्तेरिति मन्तव्यं यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नो नभोगतो देवानामभूमिचारित्वात् सकिंकिणीकानि-क्षुद्रघण्टिकाभिः सह गतानि पञ्चवर्णानि च वस्त्राणि प्रवरं विधिपूर्वकं यथा स्यात् तथा परिहितः| परिहितवान्, यथा पञ्चवर्णानि वस्त्राणि परिहितवान् तथा किंकिणीरपीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?- किंकिणीग्रहणेन तस्य | नटादियोग्यवेषधारित्वदर्शनेन भृशं तस्य भरते भक्तिः प्रकटिता, अथवा किंकिणीसमुत्थशब्देन सर्वजनसमक्षं सेवकोऽस्मि न तु छन्नमिति ज्ञापनार्थं तत्सहित उपागतः, अथवा सकिंकिणीकानि - बद्धकिंकिणीकानि तद्बन्धश्च शोभातिशयार्थ, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा भरतं राजानं जयेन विजयेन वर्द्धयति, वर्द्धयित्वा चैवमवादीत्, अत्र प्राग्वद् व्याख्यानमिति । किमवादीदित्याह - 'अभिजिए णमित्यादि, अभिजितं आज्ञावशं वदीकृतं देवानुप्रियैः- वन्द्यपादैः केवलकल्पं - सम्पूर्णत्वात् केवलज्ञानसदृशं भरतं वर्ष भरतक्षेत्रं पूर्वस्यां मागधतीर्थमर्यादया- मागधतीर्थं यावत्, तदहं देवानुप्रियाणां विषयवासी देशवासी अत एवाहं देवानुप्रियाणामाज्ञतिकिङ्करःआज्ञाकारी सेवकः, अहं देवानुप्रियाणां पौरस्त्यः- पूर्वदिकसम्बन्धी अन्तं त्वदादेश्यदेशसम्बन्धिनं पालयति-रक्षयति उपद्रवादिभ्य इत्यन्तपालः पूर्वदिग्देशलोकानां देवादिकृतसमस्तोपद्रवनिवारक इत्यर्थः, 'अहणणं देवाणुप्पिआणं'
Fur Free & Use Cy
~ 409~
| श्वक्षस्कारे मागधतीकुमारसाधनं सू. ४५
॥२०३॥
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------
..............--------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
R
प्रत
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
इत्यादिपदानां भिन्नभिन्नप्रकारेण योजनीयत्वादत्र न पौनरुक्त्य, तत्प्रतीच्छन्तु-गृहन्तु देवानुप्रिया ! मम इदम्-अग्रत उपनीत एतद्रूपं प्रत्यक्षानुभूयमानस्वरूपं प्रीतिदानं-सन्तोषदान प्राभृतरूपमित्यर्थः, इतिकृत्वा-विज्ञप्य हारादिकमुपनयति-प्राभृतीकरोतीति, 'तए 'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य इदमेतद्रूपं प्रीतिदानं तत्प्रीत्युत्पादनार्थमलुब्धतया प्रतीच्छति-गृह्णाति, प्रतीष्य च' मागधतीर्थकुमारं देवं सत्कारयति वस्त्रादिना सन्मानयति तदुचितप्रतिपत्त्या सत्कार्य सन्मान्य च प्रतिविसर्जयति-स्वस्थानगमनायानुमन्यते । अथ तदुत्तरकत्र्तव्यमाह
'तए णं से भरहे राया रह'मित्यादि, ततः स भरतो राजा रथं परावर्त्तयति-भरतवर्षाभिमुखं करोति, परावर्त्य च 18| मागधतीर्थेन लवणसमुद्रात् प्रत्यवतरति प्रत्यवतीर्य च यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च-बाह्या उपस्थान-MS 18 शाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तुरगान् निगृह्णाति निगृह्य च रथं स्थापयति स्थापयित्वा च रथात् प्रत्यवरोहति
प्रत्यवरुह्य च यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च मजनगृहमनुप्रविशति अनुप्रविश्य 'जावति यावत्करणात् || संपूर्णः स्नानालापको वाच्यः 'ससिब पिअदसणे इति विशेषणं यावत्,स च प्राग्वत् ,नरपतिर्मज्जनगृहात प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव भोजनमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च भोजनमण्डपे सुखासनवरगतः सन्नष्टमभकं पारयति पारयित्वा च भोजनमण्डपात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बायोपस्थानशाला यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवो-18 पागच्छति उपागत्य च याचत्सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखो निषीदति निषध च अष्टादश श्रेणिप्रश्नेणीः शब्दयति शब्द
दीप अनुक्रम [६२-६७]
Jistilennitinा
~ 410~
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
...............---------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४५]
र्थकुमार
श्रीजम्ब- पित्वा चैवमवादीदिति, अनसूखे गावच्छग्यो लिपिनमादापतिस एव श्यते, संग्राहकपदाभाषात, अभ्यन्त्र तगमा- वक्षस्कार द्वीपशा- दावरश्यमानत्वाचेति, अथ किमवादीविल्याह-खिप्पामेति, सर्व प्राग्वत्, यथा राजाज्ञां पौरा विदधुस्तथा चाह
मागधवीन्तिचन्द्री
तए णमित्यादि, न्यक्तं, ततो मागधतीर्थकुमारदेवविजयाप्ताहिकामहामहिमानन्तरं चकरसं कीदृशं क्व च सञ्चचारेया वृत्तिः
साधनं सू. त्याह-'सए 'मित्यादि, ततस्तद्दिव्य चक्ररतं वनमयं तुम्ब-अरकनिवेशस्थानं यत्र तत्तथा, लोहिताक्षररक्षमया ॥२०॥ अरका यत्र तत्तथा, जाम्बूनद-पीतसुवर्ण तन्मयो नेमिः-धारा यत्र तत्तथा, नानामणिमयं अन्तः क्षुरपाकारत्वात् ।
क्षुरमरूपं स्थालं-अन्तःपरिधिरूपं तेन परिगतं यत्तसथा, मणिमुक्काजालाभ्यां भूपित, नन्दिा-भम्भामृदङ्गादिदिश-18 | विधसूर्यसमुदायस्तस्य योषस्तेन सहगतं यत्तत्तथा, सकिङ्किणीकं-क्षुद्रघण्टिकाभिः सहितं, दिव्यमिति विशेषणस्य प्रागु
तत्वेऽपि प्रशस्ततातिशयख्यानार्थ पुनर्वचनं, तरुणरविमण्डलनिभं नानामणिरत्नघण्टिकाजालेन परिक्षिप्त-सर्वतो व्याप्तं, S'सबोउ'इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत् नाम्ना च सुदर्शनं नरपतेः-चक्रिणः प्रथम-प्रधानं सर्वरलेषु तस्य मुख्य-18 स्वाद्वैरिविजये सर्वत्रामोघशक्तिकत्वाच चक्ररलं, प्रथमशब्दस्य पढमे चंदयोगे' इत्यादी प्रधानार्थकत्वेन प्रयोगदर्श-13 नान्नेबमसङ्गतिभार व्याख्यानमिति, मागधतीर्थकुमारस्य देवस्य अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यां आयुध-18 | गृहमालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिश्क्रम्य च दक्षिणपश्चिमां दिश-नैर्ऋती विदिशं प्रतीति शेषः, वरदामतीर्थाभिमुखं प्रपात-चलितं चाप्यभवत् , अयं भावा-शुद्धपूर्वास्थितख शुद्धदक्षिणवर्जिवरदामतीर्थ बजतः आग्नेय्या
eseaksesences
गाथा:
दीप अनुक्रम [६२-६७
JinElemnitiaNI
~ 411~
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
Boerseserces
सूत्रांक
[४५]
गाथा:
| विदिशागमने-प्रतीचीदिशागमने वक्रः पन्थाः तेनैवमुक्त, यच्च ऋषभचरित्रे-"दक्षिणस्यां वरदामतीथ प्रति ययौ ततः । चक्रं तच्चक्रवती च, धातुं प्रादिरिवान्वगाद् ॥१॥" इत्युक्तं तन्मूलजिगमिषितदिग्विवक्षणात्, यच्चात्र चक्र-18 रत्नस्य पूर्वतः दक्षिणदिशि गमनं तत्सृष्टिक्रमेण दिग्विजयसाधनार्थम् ।
तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं दाहिणपञ्चत्थिमं दिसिं वरदामतित्याभिमुहं पयातं चावि पासह २ का हशुढ० कोढुंबिअपुरिसे सरावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! हयगयरह पवर चाउरंगिर्णि सेण्णं सण्णाहेह आमिसेकं हत्थिरयणं परिकप्पेहत्तिकटु मजणघरं अणुपविसइ २ ता तेणेव कमेणं जाव धवलमहामेहणिग्गए जाव सेभवरचामराहि उद्धमाणीहिं २ माइअवरफलयपवरपरिगरखेडयवरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उकडबरमउद्धतिरीडपडागझववेजयंतिचामरचलंतछत्तधयार कलिए असिखेवणिखग्गचावणारायकणयकप्पणिसूललउडभिडिमालवणुहतोणसरपहरणेहि अ कालणीलरुहिरपीअमु. फिल्लअणेगचिंधसयसण्णिविढे अप्फोडिअसीहणायडेलिभयहेसिअहस्थिगुलगुलाइअअणेगरहसयसहस्लघणघणेतणीहम्ममाणसहसहिएण जमगसमगर्भमाहोरंभकिर्णितखरमुहिमुगुंबसंखिअपरिलिवच्चगपरिवाइणिसवेणुवीपंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिअकलतालकंसतालकरमाणुत्पिदेण महता सहसणिणादेण सयलमबि जीवलोगं पूरयते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिखुढे वेसमणे व धणवई अमरपतिसण्णिभाइ इद्धीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकच्चड तहेब सेसं जाब विजयखंधावारणिवेसं करेइ २ ता बद्धारयण सदावह २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! मम आवसहं पोसहसालं च करेहि, ममेप्रमाणत्ति पथप्पिणादि (सूत्र ४६)
दीप अनुक्रम [६२-६७]]
senee
Senercesere
श्रीजम्बू. ३५
अत्र चक्ररत्नस्य दिग्विजय-साधनार्थे गमनं वक्तव्यता वर्तते
~ 412~
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा
प्रत सूत्रांक [४६]
न्तिचन्द्री
दीप अनुक्रम
'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररलं दक्षिणपश्चिमा दिशं प्रति घरदामतीर्थाभिमुख प्रयातं ||३वक्षस्कारे चापि पश्यति, दृष्ट्वा च हहतुकृत्ति आलापकादिपदैकदेशग्रहणात् सम्पूर्णालापको ग्राह्यः, स चायं-'हहतुकृचित्तमा-1 वरदामवी
| दिए' इत्यादिकः प्रागुक्त एव, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्, किमवादीदित्याह-'खिप्पा-1 या वृत्तिः
थेसाधन मेवत्ति प्राग्व्याख्यातार्थ, अत्र लाघवार्धमतिदेशवाक्येनाह-'तेणेव कमेण मित्यादि, तेनैव क्रमेण-पूर्वोक्तस्नानाधि
म. ४६ ॥२०५॥ कारसूत्रपरिपाव्या तावद् वाच्यं यावद् 'धवलमहामेहणिग्गए' इत्यादि निगमनसूत्र, तदनु यावच्छेतघरचामरैरुद्भूयमानै-13
। रित्यन्तं राजकुञ्जराधिरोहणसूत्रं वाच्यमिति, अथ यथाभूतो भरतो वरदामतीर्थ प्राप्तो यथा च तत्र स्कन्धावारनि| वेशमकरोत्तथाऽऽह, अत्र च सूत्रे वाक्यद्वयं, तत्र चादिवाक्ये तहेव सेसमित्यतिदेशपदेन सूचिते ग्रन्थे 'जेणेव वरदाम|तित्थे तेणेव उवागच्छई' इत्यनेनान्वययोजना कार्या, सा चैवम्-स भरतो यत्रैव वरदामतीर्थ तत्रैवोपागच्छतीति,8 द्वितीयवाक्ये च विजयस्कन्धावारनिवेशं करेइ इत्यनेनेति, किंलक्षण इत्याह-माइयत्ति हस्तपाशितं वरफलक-प्रधा|नखेटक यैस्ते तथा प्रवरः परिकरः-प्रगाढगात्रिकाबन्धः खेटकं च येषां ते तथा, फलक दारुमयं खेटकं च वंशश-18 |लाकादिमयमिति न पौनरुत्य, वरवर्मकवचमान्या-सन्नाहविशेषा येषां ते तथा, एषां च विशेषस्तकलाकुशलेभ्यो| || ॥२०॥
वेदितव्यः, यथा वर्म लोहकुतूहलिकामयं इत्यादि, ततः पदत्रयकर्मधारयः, तेषां सहस्रः-वृन्दवृन्दैः कलितो यः स । ॥ सथा, राज्ञां हि प्रयाणसमये युद्धाङ्गानां सह सञ्चरणस्थावश्यकत्वात् , उत्कटवराणि-उन्नतप्रवराणि मुकुटानि प्रतीतानि ||
[६८]
JAREitesnilin
~ 413~
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६]
seesesesee Serenesear
दीप
| किरीटानि-तान्येव शिखरत्रयोपेतानि पताका-लघुपटरूपा ध्वजा-वृहत्पटरूपा वैजयन्स्यः-पार्थतो लघुपताकिकाद्वय-1 युक्ताः पताका एव, चामराणि चलम्ति छत्राणि तेषां सम्बन्धि यदन्धकार-छायारूपं तेन कलितः, अत्रान्धकारशब्दान्तसमासपदाने आर्षत्वात् तृतीयैकवचनलोपो द्रष्टव्यः कलित इति च वृधगेव तेन वक्ष्यमाणानन्तरसूत्रे कलित-| शब्दो योजनीयोऽन्यथा तत्स्थचकारस्य नैरीक्थापत्तो, यद्वा अत्र समस्तोऽपि कलितशब्दश्चकारकरणवलादेव तत्रापि योजनीय इति, प्रस्तुतविशेषणस्यायं भावार्थ:-चलतश्चक्रिणो मुकुटादिका तत्सैन्यस्य च छत्रव्यतिरिक्ता सामग्री तथा
अस्ति यथाऽध्वनि मनागपि आतपक्केशो नास्तीति, अत्र भरतसैन्यसम्बद्धा छाया भरतस्य विशेषणत्वेन सम्बयते, 1 8 सैन्यकृतो जयः स्वामिन्येषेति व्यवहारदर्शनाद, पुनर्भरतमेव विशिनष्टि-असय:-सङ्गविशेषाः क्षिप्यन्ते सीसकगु8 टिका आभिरिति पिण्यो-हयनालिरिति डोकप्रसिद्धा खड्गा: सामान्यतः पापा:-कोदण्डा नाराचा:-सर्वलोह
बाणाः कणका-बाणविशेषाः कल्पम्पा-पाण्यालानि-प्रतीतानि लकुटा:-प्रसीता मिन्दिपाला-हस्तक्षेप्याः महाफला दीर्घा मायुधविशेष परि-वंशमयमाणासनानि किरातजनप्रामाणि तूणा:-तूणीराः शराः-सामान्यतो बाणाः इत्यादिभिः पहरणैः, अबकारेण विशेषणाच्या समस्खोऽसमस्तों वा कलितशब्दो योज्या, तेन तैः संयुक्त इति, दिग्विजयोपताना राज्ञां शिवामिनावहीनि भवन्तीति शापित, कधमुक्काहरणैः कलित इत्याह-काले-' त्यादि, अत्र धिरजम्दो रकाः तेन मानीसरकपीवशतानि नातितः पावर्णानि ब्यक्तितस्तु तदवान्तरभेदादने-18
अनुक्रम
[६८]
Jistenit
~ 414 ~
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशा
[४६]
दीप
श्रीजम्यू- करूपाणि यानि चिह्नशतानि तानि सन्निविष्टानि येषु तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणतया बोध्यं, कोऽर्थः-राज्ञां हि ||३वक्षस्कार
शस्त्राध्यक्षास्तत्तजातीयतत्तद्देशीयशस्त्राणां निविलम्ब परिज्ञानाय शस्त्रकोशेषु उक्तरूपाणि चिह्नानि निवेशयन्ति शस्त्रेषु वदामती न्तिचन्द्री
|च तत्तद्वर्णमयान् केशान् कुर्वन्तीत्यर्थः, अथ तूर्यसामग्रीकधनद्वारा भरतमेव विशिनष्टि-आस्फोटित-करास्फोटरूपं साधने या वृत्तिः ॥ सिंहनादः-सिंहस्येव शब्दकरणं 'छलिअत्ति सेंटितं हर्षोत्कर्षेण सीत्कारकरणं हवहेषितं-तुरङ्गमशब्दः हस्तिगुलुगुला-18
सू.४६ ॥२८॥ यित-गजगजितं अनेकानि यानि रथशतसहस्राणि तेषां 'घणघणेत'त्ति अनुकरणशब्दस्तथा निहन्यमानानामश्वानां
च तोत्रादिजशब्दास्तैः सहितेन तथा यमकसमक-युगपत् भम्भा-ढका होरम्भा-महाढका इत्यादि तूर्यपदव्याख्या प्रागु-18 कचुटिताङ्गकल्पद्रुमाधिकारतो ज्ञेया नवरं कलो-मधुरस्तालो-घनवाद्यविशेषः कंसताला-प्रसिद्धा करध्मान-परस्परं 13 हस्तताडनं एतेभ्य उत्थितः-उत्पन्नो यस्तेन महता शब्दसन्निनादेन सकलमपि जीवलोकं-ब्रह्माण्डं पूरयन् , बलंचितुरङ्गसैन्य वाहन-शिविकादि एतयोः क्रमेण समुदयो-वृद्धिर्यस्य स तथा, णमिति वाक्यालङ्कारे, अथवा बलवाह-18 नयोः समुदयेन युक्त इति गम्यं, एवमुक्तेन प्रकारेण भरतचक्रिविशेषणत्वेनेत्यर्थः, मागधतीर्थप्रकरणोक्कानि यक्षसह
सम्परिवृतं इत्यादीनि विशेषणानि ग्राह्याणि, तत्र सूत्रे साक्षाल्लिखितानीति, अथ प्रथमवाक्ये अत्र लिखितानि तहेवसेस'मित्यतिदेशपदेन सूचितानि च विशेषणानि वाचयितॄणां सौकुमार्यायैकीकृत्य लिख्यन्ते, यथा-'जक्ससहस्ससंपरिवुडे वेसमणे चेव धणवई अमरवई सण्णिभाए इहीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणा
अनुक्रम
[६८]
॥२०६॥
~ 415~
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ४६ ]
दीप
अनुक्रम [६८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ४६ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
समसंवाह सहस्समंडिअ थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिणमाणे २ अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छमाणे २ तं दिवं चकरयणं अणुगच्छमाणे २ जोअनंतरिआहिं बसहीहिं वसमाणे २ जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छत्ति व्याख्या च प्राग्वत्, अथ द्वितीयवाक्येऽपि अत्रोक्तविशेषणसहितो यावत्पदसूचितो प्रन्थो लिख्यते यथा- 'उवागच्छित्ता वरदामतित्थस्स अदूरसामंते दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेस करेइति प्राग्वत्, अथ ततः किं चक्रे इत्याह- 'करिता' इत्यादि, सर्वमुक्तार्थं । अथ राजाऽऽज्ञध्यनन्तरं कीदृग् वर्द्धकिर | कीदृशं च वैनयिकमाचचारेत्याह
तर णं से आसमदोणमुहगामपट्टणपुरवरसंधावारगिदावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु समेसु चैव वत्थू णेगगुणजाणए पंडिए विहिष्णू पणयालीसाए देववाणं वत्थुपरिच्छार मिपासेसु भत्तसालासु फोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छेजे वे अ दाणकम्मे पाणबुद्धी जलवाणं भूमियाण य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तदेव स वत्थुप्पएसे पहाणे भिणिकण्णरुक्खवलिबेडिअगुणदोसाविआणए गुणट्टे सोडसपासावकरणकुसले चचसट्ठिविकल्पवित्थियमई मंदावतेय वद्धमाणे सोत्थिroor तह सवओभरण्णिवेसे अ बहुविसेसे इंडिअदेवको दारुगिरिखायवाद्दणविभागकुसले-इअ तस्स बहुगुण थवईरयणे गरिदचंदस्स । तवसंजमनिविद्वे किं करवाणीतुवद्वाईं ॥१॥ सो देवकम्मविहिणा संधावारं परिद्वयणेणं । आवसहभवणकलिअं करेइ सवं मुहणं ||२|| करेता पवरपोसहघरं करेइ २ ता जेणेव भरहे राया जाव एतमाणत्तिअं खिप्पामेव पक्षप्पिणइ, सेसं
अथ वास्तु-निवेशविधि: वर्ण्यते
Fur Fraternae Cy
~ 416~
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
...............---------- मूलं [४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४७]
॥२०७॥
गाथा:
श्रीजम्बू- तहेब जाव माणघराजोपडिजिक्समा सामेणेव माहिरिया स्वट्ठाणसाका गणेव पावाटे भासरहे तेणेव उवागच्छा (सूत्र ४७) ३वक्षस्कारे द्वीपशा
'तए 'मित्यादि, ततस्तदफिरतमहं कि करवाणि आदिशन्तु देवानुप्रिया इतिकर्तव्यमित्युवित्वोपतिष्ठते, स्तिचन्द्री
शविवि पाराजानमिति शेषः, राज्ञ आसन्नमायातीत्यर्थः, इत्यन्वययोजनमतनपदैः सह कार्य, कीदृशं तद्वर्द्धकिरक्षमित्याह
.४७ 1 आश्रमादयः प्राग्व्याख्यातार्थाः नवरं स्कन्धावारगृहापणाः प्रतीताः एतेषां विभागे-विभजने उचितस्थाने तदवयंव|| निवेशने कुशलम्, अथवा-'पुरभवनमामाणां ये कोणास्तेषु निवसतां दोषाः । श्वपञ्चादयोऽन्त्यजातास्तेष्वेव विवृद्धि|| मायान्ति ॥१॥' इत्यादियोग्यायोग्यस्थानविभागझं, एकाशीतिः पदानि-विभागाः प्रतिदैवतं विभक्तग्यवास्तुक्षेत्रखण्डा-1
नीतियावत् तानि यत्र तानि तथा एवंविषेषु पास्तुषु-गृहभूमिषु सर्वेषु चैव-चतुःषष्टिपदशतपदरूपेषु वास्तुषु,
चैवशब्दः समुचये, स च वास्त्वन्तरपरिग्रहार्थः, अनेकेषां गुणानामुपलक्षणाद् दोषाणां च ज्ञायक, पण्डा जाता अस्येति 18 तारकावित्वाविते पण्डित-सातिशयबुद्धिमत्, अथ यदि वास्तुक्षेत्रस्यैकाशीत्याचा विभागास्तहिं तावतां विभागानां
विभाजकास्तावत्यो देवता भविष्यन्तीत्याशवाह-विधिज्ञ-पञ्चचत्वारिंशतो देवतानां रचितस्थाननिवेशनानादिषि-1॥२०७॥ 18 विज्ञमित्यर्थः । अथ यथा पञ्चचत्वारिंशतोऽपि देवानामेकाशीत्यादिपदवास्तुभ्यासस्तथा तसिस्पिशास्त्रानुसारेण
दश्यते, यथा स्थापना
दीप अनुक्रम [६८-७२]
~417~
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
पर
एकाशीतिपदवास्तुम्यासः॥ चापरिपपासायास
शतपदवास्तन्यासः। प.ज. इ. स. स.म.न. म. बिवर . प.ज. मा.स.प.मी भ. विवर. प.ज.1 ई. मूबसामान मावि अपव
पष
को
अपचलावि.
दा
T
सूत्रांक [४७]
बर्यमा
सो. पृथ्वीवर अमादेवः विवस्वा.
पृथ्वीधर मझा देव विवस्वा.
ISESSIST
पीधरामधाच
गाथा:
BaeeeeeeeeeesecRcated
मरा
accticeseae0008cisesentatweet
यशो ..भ.
ज.
1.सु.पि.पूत पारो. यशो .
..
ज.पु.म.वी. पि. पपा म. . शो।
नावार
दीप अनुक्रम [६८-७२]
एतत्संवादनाय सूत्रधारमण्डनकृतवास्तुसारोक्तिरपि लिख्यते, यथा-चतुपमा पदैर्वास्तु, पुरे राजगृहेऽर्चयेत् । एकाशीत्या गृहे भागः, शतं प्रासादभण्डये ॥१॥ई पर्जन्यो २ ज ३ न्द्री ४, सूर्यः ५ सयो । भृशो 18
EDIA
~418~
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཟླ + ཙལླཱཡྻ
單
[६८-७२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ४७ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशाविचन्द्रीया वृचिः
॥२०८॥
नभः ८ । अग्निः ९ पूषा १० थ वितथो ११, गृहक्षत १२ यमौ १३ ततः ॥ २ ॥ गन्धर्वो १४ भृङ्गराज १५ श्च, मृगः १६ पितृगण १७ स्तथा । दौवारिकोऽथ १८ सुग्रीव १९ पुष्पदन्तौ २० जलाधिपः २१ ॥ ३ ॥ असुरः २२ शोष २३ यक्ष्माणौ २४, रोगो २५७हि २६ मुख्य २७ एव च । भल्वाट २८ सोम २९ गिरय ३० स्तथा वाह्येऽदिति| ३१ दितिः ३२ ॥ ४ ॥ आपो ३३ ऽपवत्सा ३४ वीशेऽन्तः, सावित्रः ३५ सविता ३६ ऽग्निगौ । इन्द्र ३७ इन्द्रजयो३८ ऽन्यस्मिन् वायौ रुद्र ३९ व रुद्रराट् ४० ॥ ५ ॥ मध्ये ब्रह्मा ४१ ऽस्य चत्वारो देवाः प्राच्यादिदिग्गताः । अर्यमाख्यो ४२ विवस्वां ४३ श्च, मैत्रः ४४ पृथ्वीधरः ४५ क्रमात् ॥ ६ ॥ ईशकोणादितो वाह्ये, चरकी १ च विदा| रिका २ । पूतना ३ पापा ४ राक्षस्यो, हेतुकाद्याश्च निष्पदाः ॥ ७ ॥ चतुःषष्टिपदैर्वास्तु, मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः । अर्थमाद्याश्चतुर्भागा, द्विव्यंशा मध्यकोणगाः ॥ ८ ॥ बहिः कोणेष्वर्द्धभागाः, शेषा एकपदाः सुराः । एकाशीतिपदे ब्रह्मा, |नवार्याद्यास्तु षट्पदाः ॥ ९ ॥ द्विपदा मध्यकोणेऽष्टौ बाह्ये द्वात्रिंशदेकशः । शते ब्रह्माष्टसत्यांशो, बाह्यकोणेषु सार्द्धगी | ॥ १० ॥ अर्यमाद्यास्तु वस्त्रंशाः, शेषाः स्युः पूर्ववास्तुवत् । हेमरलाक्षताद्यैस्तु, वास्तुक्षेत्राकृतिं लिखेत् ॥ ११ ॥ अभ्यर्च्य | पुष्पगन्धाढ्यैर्बलिदध्याज्यमोदनम् । दद्यात् सुरेभ्यः सोङ्कारैर्नमोऽन्तैर्नामभिः पृथक् ॥ १२ ॥ वास्त्वारंभे प्रवेशे वा, श्रेयसे वास्तुपूजनम् । अकृते स्वामिनाशः स्यात् तस्मात्पूज्यो हितार्थिभिः ॥ १३ ॥ अत्र च वराहमिहिरोक्त एकाशीतिपदस्य स्थापनाविधिरयं - "एकाशीतिविभागे दश २ पूर्वोत्तरायता रेखाः । अंतस्त्रयोदश सुरा द्वात्रिंशद्वाह्य कोष्ठस्थाः
Fur Fate &POC
~ 419~
३वक्षस्कारे वास्तुनिये
सू. ४७
॥२०८||
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [ ४७ ]
*
गाथा:
दीप
अनुक्रम [६८-७२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [ ४७ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Emitini
॥ १ ॥” इति । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते - 'वत्थुपरिच्छाए ति, अत्र चशब्दोऽध्याहार्यस्तेन वास्तुपरीक्षायां च विधिज्ञमिति योज्यं, "गृहमध्ये हस्तमितं खात्वा परिपूरितं पुनः श्वस्वम् । ययूनमनिष्टं तत् समे समं धन्यमधिकं चेत् ॥ १||" इत्यादि, अथवा वास्तूनां परिच्छदे - आच्छादनं- कटकम्बादिभिरावरणं तत्र विधिज्ञं यथार्हकटकम्बादिविनियोजनात्, तथा | नेमिपार्श्वेषु सम्प्रदाय गम्येषु भक्तशालासु - रसवतीशालासु कोनीषु-को-दुर्गं स्थायिराजसत्कं नयन्ति - प्रापयन्ति यायिराज्ञामिति व्युत्पत्त्या कोहन्यः - याः कोट्टमहणाय प्रतिको दृभित्तय उत्थाप्यन्ते तासु चशब्दः समुच्चये, तथा वासगृहेषु शयनगृहेषु विभागकुशलं यथौचित्येन विभाजकं, चः समुच्चये, तथा छेद्यं-छेदनाई काष्ठादि वेध्यं - वेधनाई तदेव चः समुच्चये दानकर्म-अङ्कनार्थं गिरिकरतसूत्रेण रेखादानं तत्र प्रधानबुद्धिः, तथा जलगानां - जलगतानां भूमिकानां | जलोत्तरणार्थकपथाकरणाय भाजनं यथौचित्येन विभाजकं, चः समुच्चये, उन्मग्नानिमग्नानद्याद्युत्तरे तस्यैतादृश सामर्थ्यस्य सुप्रतीतत्वात्, जलस्थलयोः सम्बन्धिनीषु गुहाविव गुहासु सुरङ्गास्त्रित्यर्थः तथा यन्त्रेषु - घटीयन्त्रादिषु परिखासु-प्रती| तासु, चः पूर्ववत् कालज्ञाने चिकीर्षितवास्तुप्रशस्ताप्रशस्तलक्षणपरिज्ञाने, "वैशाखे श्रावणे मार्गे, फाल्गुने क्रियते गृहम् । | शेषमासेषु न पुनः, पौषो वाराहसम्मतः ॥ १ ॥" इत्यादिके, तथैवेति वाच्यान्तरसंग्रहे शब्दे - शब्दशास्त्रे सर्वकलाव्यु| त्पत्तेरेतन्मूलकत्वात् वास्तुप्रदेशे गृहक्षेत्रैकदेशे “ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम् । नैर्ऋत्यां भाण्डोपरकरोऽर्थधान्यानि मारुत्याम् ॥ १ ॥" इत्यादिगृहावयवविभागे शास्त्रोक्तविधिविधाने प्रधानं मुख्यं गर्भिण्यो जात
Fur Prat&P Cy
~420~
seatststoe
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
भावमा
सूत्रांक
[४७]
शावाधा स.१७
गाथा:
द्वीपक्षा- वास्तुक्षेत्राचा पलिटितानि-मायें कात्ययविधानात् वल्लिवेष्टनानि-वास्तुक्षेत्रोद्तवृक्षेप्यारोहणानि एगी । न्तिचनी- दोषारतेषां विज्ञविर्क-विशेषज्ञ, ते मे गम्भिणीवल्लिास्तुपरूढा आसनफलदा, कन्या च सा तत्रैव नासशफला, या प्रति
॥ वृक्षाच प्लक्षवटाश्वत्थोदुम्बराः प्रशस्ताः आसमाः कण्टकिनो रिपुभयदा"इत्यादि, प्रशस्त दुमकाष्ठ वा गृहादि प्रशस्त, ॥२०९॥ शवलिवेष्टितानि प्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि प्रशस्तानि गृहमहीषु न चाप्रशस्तवल्लिसम्बधीनि, एनमेवार्थमाह वराहा-शस्त्री-110
|पधिदुमलतामधुरा सुगन्धा, स्निग्धा समा न शुषिरा च मही नृपाणाम् । अध्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां, धत्ते श्रियं । | किमुत शाश्वतमन्दिरेषु १॥१॥" पुनस्तदेव विशेषयन्नाह-गुणाढ्यः-प्रज्ञाधारणाबुद्धिहस्तलाघवादिगुणवान पोडश
प्रासादा:-सान्तनस्वस्तिकादयो भूपतिगृहाणि तेषां करणे कुशलः, चतुःषष्टिविकल्पाः गृहाणां वास्तुप्रसिद्धाः तत्र विस्तृ-18। |ता-अमूढा मतिर्यस्य स तथा, विकल्पानां चतुःषष्टिरेव-प्रमोदविजयादीनि षोडश गृहाणि पूर्वद्वाराणि स्वस्तनादीनि | दापोडश दक्षिणद्वाराणि धनदादीनि पोडश उत्तरद्वाराणि दुर्भगादीनि षोडश पश्चिमद्वाराणि सर्वमीलने चतुःषष्टिरिति, IS
नन्द्यावर्ते-गृहविशेषे एवमग्रेतनविशेषणेष्वपि, चः समुच्चये, वर्द्धमाने स्वस्तिके रुचके तथा सर्वतोभद्रसन्निवेशे च बहु-31 ॥२०९॥ || विशेष:-प्रकारो ज्ञेयतया कर्तव्यतया च यस्य तत् तथा, सूत्रे च कचित् सप्तमीलोपः प्राकृतस्यात्, नन्यावादि-MS र गृहविशेषस्त्वयं वराहोक्तः-"नन्द्यावर्त्तमलिन्दैः शालाकुड्यात् प्रदक्षिणान्तगतैः। द्वार पश्चिममस्मिन् विहाय शेषाणि ॥
दीप अनुक्रम [६८-७२]
Acceedeceaee
E
mail
~ 421~
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [४७] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
esese
सूत्रांक
[४७]
गाथा:
कार्याणि ॥१॥द्वारालिंदोऽन्तगतः प्रदक्षिणोऽन्यः शुभस्ततश्चान्यः । तद्वच्च वर्द्धमाने द्वारं तु न दक्षिणं कार्यम् ॥२॥ | अपरान्तगतोऽलिन्दः प्रागन्तगती तदुत्थितौ चान्यौ। तदवधिविधृतश्चान्यः प्रारद्वार स्वस्तिकं शुभदम् ॥ ३ ॥ अप्रति18| पिद्धालिन्द समन्ततो वास्तु सर्वतोभद्रम् । नृपविबुधसमूहाना कार्य द्वारैश्चतुर्भिरपि ॥४॥" पुनस्तदेव विशिनष्टि
ऊर्ध्व दण्डे भव उद्दण्डिकः, भवार्थे इकः, अर्थात् ध्वजा, देवाः-इन्द्रादिप्रतिमाः कोष्ठः-उपरितनगृहं धान्यकोष्ठो । 19 वा दारूणि-वास्तूचितकाष्ठानि गिरयो-दुर्गादिकरणार्थ जनावासयोग्याः पर्वताः खातानि-पुष्करिण्यादिकानि वाह-18॥ |नानि-शिविकादीनि एतेषां विभागे कुशल, ध्वजविभागस्त्वेवं-"दण्डः प्रकाशे प्रासादे, प्रासादकरसलया। सान्धकारे || पुनः कार्यो, मध्यप्रासादमानतः॥१॥" शेषं तत्तद्ग्रन्थेभ्योऽवसेयं, इत्युक्तप्रकारेण बहुगुणाढ्यं तस्व नरेन्द्रचन्द्र-|| स्थ-भरतचक्रिणः स्थपतिरक्ष-वर्द्धकिरतं तपःसंयमाभ्यां करणभूताभ्यां निर्विष्टं-लब्धमिति, किं करवाणीत्यादि तु| माग्योजितमेव, अथोपस्थितः सन् वर्द्धकिर्यदकरोत्तदाह-'सो देव' इत्यादि, स-वईकिः देवकर्मविधिना-देवकृत्यप्रकारेण चिन्तितमात्रकार्यकरणरूपेणेत्यर्थः स्कन्धावारं नरेन्द्रवचनेन आवासा-राज्ञां गृहाणि भवनानीतरेषां तैः कलितं करोति सर्व मुहूर्सेन निर्विलम्बमित्यर्थः, कृत्वा च प्रवरपौषधगृहं करोति, कृत्वा च भरतो राजा यावत्पदात् 'तेणेव | |उवागच्छइ २त्ता' इति प्राह्यम्, एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयति, 'सेसं तहेवे'त्यादि सर्व प्राग्वत् ।
उवागच्छित्ता. तते तं धरणितलामणलहूं ततो बहुलक्खणपसत्यं हिमवतकदरंतरणिवायसंवद्धिअचित्ततिणिसदलिअं जंबू
Saeos90saa00000000000
दीप अनुक्रम [६८-७२]
अथ चतुर्घन्टा अश्वरथस्य वर्णनं क्रियते
~422~
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
३ वक्षस्कारे
प्रत
श्रीजम्बू-18 द्वीपशान्तिचन्द्री
सूत्रांक
श्वरधव. सू.४८
[४९]
या वृत्तिः ॥२१॥
दीप
णयमुकंयकूबरं कणयदंडियारं पुलववरिंदणीलसासगपवालफलिहवररयणलेटमणिविहुमविभूसिनं अडयालीसारख्यतयणिजपतृसंगहिमजुत्त पसिभपसिभनिम्मिअनवपट्टपुट्ठपरिणिहिलं विसिट्ठलढणवलोहबद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसपर्क फफयणईवणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्यविच्छिण्णसमधुरं पुरवरं च गुत्तं सुकिरणतवणिजजुत्तकलिअं कंफटयणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजाय खेडगकणगवणुमंडलग्गवरसत्तिकोततोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंखिों कणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबलागगयदत- . चंदमोत्तिअलणसोल्लिभकुंवकुडयवरसिंदुवारकंदलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणजइणचवलसिग्धगामीहि चाहिं चामराकणगविभूसिअंगेहिं तुरगेहिं सच्छत्तं सज्झयं सघंट सपडार्ग सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिअसमरकणगगंभीरतुल्लघोसं वरकुप्पर सुचकं वरनेमीमंडलं वरधारातोंड वरवइरबद्धतुंबं वरकंचणभूसिों वरावरिअणिम्मिों परतुरगसंपउत्तं वरसारहिसुसंपग्गहिरं चरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे पवररयणपरिमंडिअं कणयखित्रिणीजालसोमिअं अउझं सोआमणिकणगतविभपंकयजासुअणजलणजलिअमुअतोडराग गुंजद्धबंधुजीवगरत्तहिंगुलगणिगरसिंदूररुइलकुंकुमपारेवयचलणणयणकोइलदसणावरणदतातिरेगरतासोगकणगकेसुअगयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं विवफलसिलप्पवालउटुिंतसूरसरिसं सबोउअसुरहिकुसुमआसत्तमदाम ऊसिअसेअ
झयं महामेहरसिअगंभीरणिधोसं सत्तुहिअयकंपणं पभाए अ सस्सिरी णामेणं पुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्मुतज. सोऽयं चाउग्धंट आसरह पोसहिए णरवई दुरूडे, तए णं से मरहे राया पाउग्घंट आसरहं दुरुढे समाणे सेसं तहेब दाहिणाभिमुहे. वरदामत्तित्येणं लवणसमुई ओगाहा जाव से रहवरस्स कुप्परा उला जाव पीइदाणं से, णवरि चूडामाणि च दिवं उरस्थगेविजगं सोणिअमुत्तर्ग कगाणि भ तुडिआणि अजाव दाहिणिले अंतबाले जाव अट्ठाहिरं महामहिम करेति २ ता एमाण
29090saa00000000000
सररररर
अनुक्रम [७३]
॥२१॥
~423~
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----
---- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९]
त्तिों पचप्पिणति, तए णं से विधे धपारयणे वरदामतित्यकुमारस्स देवरस अहाहिआए महामहिमाए निधत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ परिणिक्खमह २ चा अंतलिक्खपढिवण्णे जाव पूरंते चेव अंबरतलं उत्तरपञ्चत्यिम दिसि पभासतिस्थाभिमुहे पयाते वावि होत्या, तए णं से भरहे राया तं दिवं चकरयणं जाव उत्तरपञ्चस्थिमं दिसिं तहेब जाव पचत्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ २ चा जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाब पीइदाणं से णवरं मालं माडि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि अ तुडिआणि अ आभरणाणि अ सरं च णामायकं पभासतित्योदगं च गिहाइ २ त्ता जाव पचत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पिाणं विसयवासी जाव पञ्चथिमिल्ले अंतवाले, सेसे तहेव जाब अहाहिआ निवत्ता । (सूत्र ४९)* 'उषागच्छित्ता तते णमित्यादि, उपागत्य चणमिति प्राग्वत् तं प्रसिद्धं वरपुरुषो-भरतचक्री परमहारचं आरूढ इति सम्बन्धः, कीरशमित्याह-धरणितलगमने लघु-शीमं शीघ्रगामिनमित्यर्थः, कीडशो वरपुरुष इत्याह-तत:-सर्वत्र || जयसम्भाधनाजनितप्रमोदरसपुलकिततया विस्तीर्णः प्रफुल्लाहदय इत्यर्थः, अथ पुना रथं विशिनष्टि-बहुलक्षणप्रशस्त | हिमवत:-क्षुद्रहिमवगिरेः निर्यातामि-पातरहितानि यानि कन्दरान्तराणि-दरीमध्यानि तत्र संवर्द्धिताश्चित्रा-विधि
धास्तिनिशा-रथडमास्त एव दलिकानि-दारूणि यस्य तं, सूत्रे च पदव्यत्ययः आर्षत्वात् , जाम्बूनदसुवर्णमयं सुकृतं18सुघटितं कूचरं-युगन्धरं यत्र तं, कनकदण्डिका:-कनकमयलधुदण्डरूपाः अरा यत्र तं, पुलकानि वरेन्द्रनीलानि सास
कानि रसविशेषाः प्रबालानि स्फटिकचररलानि च प्रतीतानि लेटवो-विजातिरतानि मणयः-चन्द्रकान्तायाः विद्रुमः-18
दीप अनुक्रम [७३]
+अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू० ४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
~ 424 ~
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४९]
दीप
श्रीजम्यू- प्रवालविशेषः अमयोश्च वर्णादितारतम्यकृतो विशेषो बोध्यः सैविभूषितं, रचिताः प्रतिदिशं द्वादश २ सद्भावात् 18|३वक्षस्कारे | अष्टाचत्वारिंशदरा यत्र ते तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तपनीयप?-रक्तस्वर्णमयपट्टकैलोंके महलू इति ||
महलू इतिप्रभासतीर्थ || प्रसिद्धैः संगृहीते-दृढीकृते तथा युक्ते-उचिते नातिलघुनी नातिमहती इत्यर्थः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः एतादृशे | साधन या वृत्तिः
॥ तुम्बे यस्य स तथा तं, प्रघर्षिता:-प्रकण पृष्टाः प्रसिताः-प्रकर्षण बलाः ईशा निर्मिता-निवेशिताः नवा:-अजीर्णाः || ॥२१॥ 1 पट्टा:-पट्टिका यत्र तत्तथाविधं यत्पृष्ठ-चक्रपरिधिरूपं यल्लोके पूंठी इति प्रसिद्धं तत्परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्न कार्यनिर्वाह-18
कत्वेन यस्य स तं, अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , विशिष्टलष्टे-अतिमनोज्ञे नवे-सद्यस्के लोहवर्धे-अयश्चर्मरजुके तयोः 15 कर्म-कार्य यत्र स तं, अयमर्थः-तत्र रथे येऽवयवास्ते लोहवर्धाभ्यां बद्धा इति, हरिः-वासुदेवस्तस्य प्रहरणरत्नं-चक्र
'चकमुसलजोहीति वचनात् तत्सदृशे चके यस्य स तं, कर्केतनेन्द्रनीलशखकरूपरत्नत्रयमयं सुष्ठु-सम्यग् आहितं18 निवेशितं कृतसुन्दरसंस्थानमित्यर्थः ईदृशं बद्धं जाल कटक-जालकसमूहो यत्र स तथा तं, अयं भावः-रथगुप्ती जाल
कपदवाच्या सच्छिद्ररचनाविशिष्टा अवयवविशेषा बहवस्तत्र शोभां जनयन्तीति, तथा प्रशस्ता विस्तीर्णा समा-अवका 1 धूर्यत्र स तं, पुरमिव गुप्तं समन्ततः कृतवरूथ, रथे हि प्रायः सर्वतो लोहादिमयी आवृतिर्भवति, पुरवरदृष्टान्तकथने ॥२१ IS नायमर्थः सम्पन्न:-यथा पुरं गोपुर भागपरित्यागेन समन्ततो वप्रगुप्तं भवति तथाऽयमप्यारोहस्थानसारथिस्थाने विहाय ॥९| गुप्त इति, सुकिरणं-शोभमानकान्तिकं यत्तपनीय-रक्तं सुवर्ण तन्मयं योकं तेन कलितं, योक्रेण हि वोढस्कन्धे युगं|
अनुक्रम [७३]
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू०४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
~425~
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [3], ----..........-----
---- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९]
बजयत इति, अत्र च एतत्सूत्रादशेषु तवणिज्जजालकलिअ'मिति पाठोऽशुद्ध एव सम्भाव्यते, आवश्यकचूणौ अस्यैव पाठस्य दर्शनात् , कंकटकाः-सन्नाहास्तेषां नियुक्ता-स्थापिता कल्पना-रचना यत्र स तथा तं, यथाशोभं तत्र सन्नाहाः स्थापिताः सन्तीति भावः, तथा प्रहरौरनुयात-भृतमित्यर्थः, एतदेव व्यकित आह-खेटकानि प्रतीतानि कणका|वाणविशेषाः धनषि मण्डलायाः-तरवारयः वरशक्तयः-त्रिशूलानि कुन्ता-भल्लाः तोमराच-बाणविशेषाः शराणां । | शतानि येषु तादृशा ये द्वात्रिंशत्तूणा-भखकास्तैः परिमण्डितं-समन्ततः शोभितं कनकरत्नचित्रं, तथा युक्तं तुरगैरित्यनेन सम्बयते, किंविशिष्टरित्याह-हलीमुखं रूढिगम्यमिति बलाको-बकः गजदन्तचन्द्रौ प्रतीतो मौक्तिक-मुक्ता| फलं तणसोल्लिअत्ति-मल्लिकापुष्पं कुन्द-श्वेतः पुष्पविशेषः कुटजपुष्पाणि-वरसिन्दुवाराणि निगुण्डीपुष्पाणि कन्दलानि-कन्दलवृक्षविशेषपुष्पाणि वरफेननिकरो हारो-मुक्ताकलापः काशा:-तृणविशेषास्तेषां प्रकाश:-औज्वल्यं | तद्वद्धवलैः अमरा-देवा मनांसि-चित्तानि पवनो-वायुस्तान वेगेन जयतीति अमरमनःपवनजयिनः, अत एव च-18 पलशी-अतिशीघ्र गामिनो-गमनशीला, ततः पदद्वयकर्मधारयः, तैश्चतुर्भि:-चतुःसङ्ख्याकैः तथा चामरैः कनकैश्च भूषितमहं येषां ते तथा तैः, चामरस्य स्त्रीत्वं आषेत्वात् , अथ पुना रथं विशिनष्टि-सच्छन सध्यजं सघण्टं सपताकमिति प्राग्वत्, भुकृत-सुष्टु निर्मितं सन्धिकर्म-सन्धियोजनं यत्र स तं, सुसमाहितः-सम्यग्यथोचितस्थाननिवेशितो यः समरकणक:-संग्रामवाद्यविशेषस्तस्य वीराणां वीररसोत्पादकत्वेन तुल्यो गम्भीरो घोषः-चीत्काररूपो ध्वनिर्यस्य
दीप अनुक्रम [७३]
~ 426~
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
न्तिचन्द्री-18
सूत्रांक
[४९]
दीप अनुक्रम [७३]
श्रीजम्बू-18 स तं, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , बरे कूप्परे पिञ्जनके इति प्रसिद्धे यस्य स तं, सुचक्रं वरनेमीमण्डल-प्रधानचक्रधा
वक्षस्कारे द्वीपशा- 18|रावृतं बरे-शोभमाने धूस्तुंडे-पूर्षीकूबरे यस्य स तं, परवजैर्बद्धे मुंबे यस्य स तं, वरकाश्चनभूषितं, वराचार्य:-प्रधान- प्रभासतीर्थ या वृत्तिः PE शिरूपी तेन निर्मितं वरतुरगैः सम्प्रयुक्तं वरसारथिना सुषु समगृहीतं स्वायत्तीकृतमिति, इह च चक्रादीनां पुनर्वचनं । साधनं
रथावयवेषु प्रधानताख्यापनार्थ, 'बरपुरिसे' इत्यादि तु पूर्व योजितं, 'दुरूढे आरूढे' इत्यत्र समानार्थक पदद्वयोपा- सू.४९ ॥२१२॥18 दान सुखारूदताज्ञापनार्थ, अथवा दुरुढे इत्यस्य सौत्रशब्दस्य विवरणरूपोऽयमारूढशब्द इति, अथार्थान्तरारम्भार्थं |
पुनरुक्तिर्न दोषायेति उक्तमेवार्थ नामप्रकटनाय रथस्यारोहकालप्रकटनाय चाह-'पपररयणपरिमंडिअ'मित्यादि, | प्रवररक्षपरिमण्डितं कनककिङ्किणीजालशोभितं, अयोध्यमनभिभवनीयमित्यर्थः, सौदामिनी-विद्युत् , तप्तं यत्कनकं | तच्चानलोत्तीर्ण रक्तवर्ण भवतीति तप्तशब्देन विशेषितं पङ्कजं-कमलं तच्च सामान्यतो रकं वर्ण्यते 'जासुअण'त्ति जपाकुसुमं ज्वलितज्वलनो-दीसाग्निः अत्र पदविपर्यासः प्राकृतशैलीभवः शुकस्य तुण्डं-मुखं एतेषामिव रागो-रक्तता यस्य स तं, गुञ्जार्द्ध-रक्तिकारागभागः बन्धुजीवक-विग्रहरविकाशिपुष्पं रक्त-संमस्तिो हिंगुलकनिकरः सिन्दूरप्रतीतं रुचिरं कुडाम-जात्यघुसणं पारापत्तचलनः प्रतीतः कोकिलनयने पदव्यत्ययः आपत्वात् दशनावरणं-अधरोष्ठं ।
२१२॥ तब सामुद्रिकेऽत्यरुणं व्यावय॑ते इति रतिदो-मनोहरोअतिरका अधिकारुणोऽशोकतरुः ईदृशं च कनकं किंशुकपलाशपुष्पं तथा गजता सुरेन्द्रगोपको-वर्षा रकवर्णः धनजन्तुविशेष पभिः समा-सरसा प्रभा-विर्य सथा।
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू०४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
~ 427~
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९]
दीप अनुक्रम [७]
एवंविधःप्रकाश:-तेजःप्रसरो यस्य स तं, बिम्बफलं-गोल्हकं सिलप्पवालं'ति अत्र अश्लीलशब्द इवे श्रियं लातीति ऋफिडादित्वाल्लत्वे श्लील एवंविधं यत्प्रवालं श्लीलप्रवाल-परिकम्मितविद्रुमःशिलाप्रवालं वा विद्रुमः उत्तिष्ठत्सूरः-उद्गच्छत्सूर्यः | स्तेषां सदृशं सर्व कानि-षडतुभवानि सुरभीणि कुसुमानि-अप्रथितपुष्पाणि माल्यदामानि च-प्रथितपुष्पाणि यत्र सतं, 18 उच्छ्रित:-ऊध्वीकृतः श्वेतध्वजो पत्र स तं, महामेघस्य यद्रसितं-गर्जितं तद्वद् गम्भीरः स्निग्धो घोषो यस्य स तं, शत्रुहदयक-18 म्पनं, प्रभाते च-अष्टमतपःपारणकदिनमुखे चतुर्घण्टमवरथ पौषधिक:-आसन्नपारितपौषधनतो नरपतिरारूढ इति सम्ब-18 न्धः,सश्रीकं नाम्ना पृथ्वीविजयलाभमिति विश्रुतं,अनारूढः पुरुषो भूविजयं लभते इति सान्यर्थनामकमित्यर्थः, कीदृशी नर-18 पतिरित्याह-लोकविश्रुतयशाः,अहत-क्वचिदप्यवयवेऽखण्डितं सर्वत्रास्खलितप्रचारंवारथमित्यर्थः रथारोहानन्तरं भरतः किं चक्रे इत्याह--'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्घण्टमश्वरथमारूढः सन् शेष तथैवेति,कियत्पर्यन्तमित्याह'जाव दाहिणाभिमुहे' इत्यादि, शेष सूत्र मागधतीर्थगमानुसारेण ज्ञेयं, अथोतं यावदक्षिणाभिमुखो वरदामतीर्थेन वरदामनाम्नाऽवतरणमार्गेण लवणसमुद्रमवगाहते, 'सेसं तहेचति वचनात् 'हयगयरहपवरजोहकलिआए सझिं संपरि-12 बुडे महया भडचडगरपहगरवंदपरिखित्ते चकरयणदेसिअमग्गो अणेगरायवरसहस्साणुभायमग्गे महया उकिट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअंपिय करेमाणे २' इत्यन्तं सूत्रं हश्य, किंबरं लवणसमुद्रमवगाहते। इत्याह-यावत्तस्य रथवरस्य कूपरावाद्रौं भवतः, अत्र यावच्छब्दो न संग्राह्यपदसंग्राहकः किन्तु जलावगाहप्रमाण
Sanile
~ 428~
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
दाहिणिल्ले -प्रभासती
साधनं मू.४९
सूत्रांक [४९]
दीप
श्रीजम्बू- सूचनार्थः, 'जाय पीइदाणं'ति, अत्रापि मागधदेवसाधनाधिकारोक्तं सूत्रं तावद्वक्तव्यं यावत्प्रीतिदान, 'से' तस्य तीर्था-1 विक्षस्कारे
द्वीपशा-10 धिपसुरस्य प्रीतिदानशब्देनोपचारात् प्रीतिदानार्थकविवक्षितचूडामण्यादि वस्तूच्यते, अत्र तु 'जाव दाहिणिले अं-18 न्तिचन्द्री-18 तवाले' इति सूत्रस्याग्रतो न्यासान्यथानुपपस्या तस्य ग्रहणं ज्ञेयं, न तु दान, तस्य 'जाव अट्टाहि महामहिम करेंति'त्ति | या वृत्तिः
सूत्रस्थयावच्छब्देन गृहीतत्वात् , तेनायमर्थः-प्रीतिदाननिमित्तकचूडामण्यादिवस्तुग्रहणप्रतिपादकसूत्रं यावद्वक्तव्यमिति, ॥२१३| तत्राय पिण्डार्थः-तुरगनिग्रहणरथस्थापनधनुःपरामर्शशरमोक्षकोपोत्पादकोपापनोदनिजद्धिसारसंप्रेक्षणप्रीतिदानसूत्राणि ||
मागधतीर्थसूत्राधिकारवद् ज्ञेयानीति, नवरमयं विशेषः प्रीतिदाने चूडामणिं च दिव्यं-मनोहरं सर्वविपापहारि शिरोभूष-18 णविशेष उरस्थ:-वक्षोभूषणविशेपं अवेयर्क-ग्रीवाभरणं श्रोणिसूत्रक-कटिमेखलां कटकानि-च त्रुटिकानि च, कियहर। वक्तव्यमित्याह-यावहाहिणिले अंतवाले' इति यावद्दाक्षिणात्योऽहमन्तपाल इति, प्रीतिवाक्यप्राभृतोपटौकनभरतकृततत्स्वीकरणदेवसम्माननविसर्जनरथपरावृत्तिस्कन्धावार प्रत्यागमनमजनगृहगमनस्नानभोजनकरणश्रेणिप्रश्रेणिशब्द
नादिप्रतिपादकसूत्रं वक्तव्यम्, किमन्तमित्याह-'अट्ठाहिरं महामहिमं करेंति' अष्टादश श्रेणिमश्रेणयोऽष्टाहिकां 8 महामहिमा प्रकुर्वन्ति, एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्तीति । अथ प्रभासतीर्थाधिपसाधनायोपक्रमते-'तए णमित्यादि.18॥२१॥ | सर्व प्राग्वत्, नवरं उत्तरपश्चिमां-वायवी दिशं शुद्धदक्षिणवर्तिनो वरदामतीर्थतः शुद्धपश्चिमावर्तिनि प्रभासे गमनाय इत्थमेव पथः सरलत्वात् , अन्यथा वरदामतः पश्चिमागमने अनुवारिधिवेलं गमनेन प्रभासतीर्थप्राप्तिरेण स्या-18
अनुक्रम [७३]
eemesese
Sinelentinue
अत्र मूल संपादने सूत्रक्रमांकने एका स्खलना दृश्यते - सू०४८ स्थाने मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् 'सू० ४९' इति मुद्रितं
~429~
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[४९ ]
दीप
अनुक्रम [७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [४९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jin Eiken
दिति, प्रभासनामतीर्थं यत्र सिन्धुनदी समुद्रं प्रविशति, अथ तादृक् चक्ररलं दृष्ट्वा यन्नृपश्चक्रे तदाह- 'तए ण'मित्यादि, सर्वं पूर्ववत् परं प्रीतिदाने विशेषः, तमेव च सूत्रे दर्शयति- 'णवरि'त्ति नवरं मालां - रत्नमालां मौलिं-मुकुटं मुक्ताजालं दिव्यमौक्तिकराशिं हेमजाल - कनकराशिमिति, 'सेसं तहेब'ति शेषं-उक्तातिरिक्तं प्रीतिदानोपढौकनस्वीकरणसुरसन्माननविसर्जनादि तथैव - मागधसुराधिकार इव वक्तव्यं, आवश्यकचूर्णौ तु वरदामप्रभाससुरयोः प्रीतिदानं व्यत्यासेनोक्तमिति । अथ सिन्धुदेवी साधनाधिकारमाह
तणं से दिवे चकरयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ चा जाव पूरेंते चैव अंबरतलं सिंधू महाणईए दाहिणिलेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसिं सिंधुदेवीभवणाभिमुद्दे पाते आवि होत्या । तए णं से भरहे राया तं दिवं चकरयणं सिंधूए महाणईए दाहिणिलेणं कूलेणं पुरत्थिमं दिसिं सिंधुदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइत्ता हतुचित्त सहेब जाव जेणेव सिंधूए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइ २त्ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते दुवा सजोअणायामं णवजोयणविच्छिष्णं वरणगरसारिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ जाब सिंधुदेवीए अद्रुमभत्तं परिहद्द २ त्ता पोसहसालार पोमहिए बंभवारी जाब दम्भसंथारोवगए अमभत्तिए सिंधुदेवं मणसि करेमाणे चिट्ठर । तए णं तस्स भरहस्स रणो अट्टममसंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चल, तए णं सा सिंधुदेवी आसणं चलिअं पासइ २ ता ओहिं पजइर ता भरहं रावं ओहिणा आभोएइ २ ता इमे एआरूवे अम्भस्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे बासे भरहे णामं राया चाउरंतचकवट्टी, तं जीअमेअ तीअपप्पण्ण मनागयाणं सिंधूणं देवीणं भरहाणं राईणं
अथ सिन्धुदेवी साधना अधिकारः वर्तते
Fur Ele&Pay
~430~
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वक्षस्कारे
[५०]
दीप
श्रीजम्बू- पवत्थाणिों करेत्तए, संगच्छागि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उबत्थाणिों करेमित्ति कटू कुंभहसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगर
द्वीपशा-18 यणभत्तिचित्ताणि अ दुबे कणगभद्दासणाणि य कहगाणि अ तुडिआणि अ जाव आभरणाणि अ गेण्ड्इ २ चा ताए उनिहाए जाव सिन्धदेवीन्ति चन्द्री- एवं वयासी-अमिजिए णं देवाणुपिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे अहणं देवाणुप्पिाणं बिसयवासिणी अहष्णं देवाणुप्पिाण या चिः
आणत्तिकिंकरीतं पढिच्छंतु णं देवाणुप्पिमा ! मम इमं इमं एआरूवं पीइदाणंतिकह कुंभट्ठसहस्सं रखगचित्तं णाणामणिकणग- मू.५० ॥२१॥
कडगाणि अ जाव सो चेव गमो जाव पडिविसजेइ, वए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव मनणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता पहाए कयवलिकम्मे जाब जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोअणमंडसि सुहासणवरगए अट्टममत्तं परियादियइ २ चा जाव सीहासणवरगए पुरत्यामिमुहे णिसीअइ २त्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ २ त्ता जाव अट्टाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिों पञ्चप्पिणंति । (सूत्रम् ५०)
'तए ण'मित्यादि, व्यक्तार्थ, नवरं पूर्व दिशमित्यत्र पश्चिमदिग्वर्तिनः प्रभासतीर्थत आगच्छन् वैतान्यगिरिकुमारदेवसिसाधयिषया तद्वासकूटाभिमुखं यियासुः प्रथमतः अनुपूर्वमेव याति, एतच्च दिग्विभागज्ञानं जम्बूद्वीपपट्टा-18 दावालेख्यदर्शनाद् गुरुजनसंदर्शितात् सुबोधं, सिन्धुदेवीगृहाभिमुखं च चक्ररत्नं प्रयातं, ननु सिन्धुदेवीभवनं अत्रैव ॥२१॥ सूत्रे उत्तरभरतार्द्धमध्यमखण्डे सिन्धुकुण्डे सिन्धद्वीपे वक्ष्यते तत्कथमत्र तत्सम्भवः', उच्यते, महर्द्धिकदेवीनां मूल-8 स्थानादन्यत्रापि भवनादिसम्भवो नानुपपन्नो यथा सौधर्मेन्द्राद्यममहिषीणा सौधर्मादिदेवलोके बिमानसद्भावेऽपि
अनुक्रम
[७४]
NEKimmitime
~ 431~
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०]
नन्दीश्वरे कुण्डले वा राजधान्यः, यथा वाऽस्या एव देव्या असङ्ख्येयतमे द्वीपे राजधानी सिन्ध्वावर्तनकूटे च प्रासादावतंसक इति, एवं सिन्धुद्वीपे सिन्धुदेवीभवनसद्भावेऽपि अत एव सूत्रबलादत्रापि तदस्तीति ज्ञायते, तथा च सति । 'सिन्धूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते' इत्यादिकं 'खंधावारनिवेसं करेइ' इत्यन्तं वक्ष्यमाणसूत्रमप्युपपद्यतेऽन्यथा | तदपि विघटतेति । तदनु भरतः किं कृतवानित्याह-'तए णमित्यादि, सुबोधं 'जाव सिंधूए'इत्यादि, अत्र याब-18
करणात् वर्द्धकिरनशब्दापनपौषधशालाविधापनादि सर्व ग्राह्यं, तेन पौषधशालायां सिन्धुदेव्याः साधनायेति शेषः। अष्टमभक्तं प्रगृह्णाति प्रगृह्य च पौषधिक:-पूर्वव्याख्यातपौषधव्रतवान् अत एव ब्रह्मचारी 'जाव दब्भसंथारोवगए' इत्यादि यावदर्भसंस्तारकोपगतः, अत्र यावत्करणात् उन्मुक्तमणिसुवर्ण इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं पाहा, अष्टमभक्तिक:-18 कृताष्टमतपाः सिन्धुदेवी मनसि कुर्वन्-ध्यायंस्तिष्ठति । 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्के परिणमति-परिपूर्णप्राये जायमाने सिन्ध्वा देव्या आसनं चलति, ततः सा सिन्धुदेवी आसनं चलितं पश्यति दृष्ट्वा अवधि प्रयुनक्ति प्रयुज्य च भरतं राजानं अवधिना आभोगयति-उपयुके आभोग्य च स्थितायास्तस्या इत्यध्याहार्य अय-18 मेतद्रूपः आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितो मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत इत्थमेवान्वयसङ्गतिः स्यात् अन्यथा भिन्न-18 कर्तृकयोः क्रिययोः क्त्वाप्रत्ययप्रयोगानुपपत्तिः स्थात् , भिन्नकर्तृकता चैव-सिन्धुदेवी आभोगयित्री सबाल्पश्च समुत्पादकः, इयं च सिन्धुदेवी आसनकम्पनाहतोपयोगा सती स्मृतजातीया स्वत एवानुकूलाशया संजज्ञे, तेन न शरप्रमो
दीप अनुक्रम [७४]
~ 432~
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०]
दीप
श्रीजम्यू- क्षणायन वक्तव्यं, एवं च कर्मचक्रिणां वैताब्यसुरादीनां साधनेऽपि जिनचक्रिणां तु सर्वत्र दिग्विजययात्रायां शरण-18| ३वक्षस्कारे
द्वीपशा-1 मोक्षणादिकमन्तरेणैव प्रवृत्तिः यतस्तत्र तेषां तथैव साध्यसिद्धिरिति, सच कः सङ्कल्प इत्याह-'उप्पण्णे ति उत्पन्नः सिन्धुदेवी न्तिचन्द्रीखला-निश्चये जम्बूद्वीपनाम्नि द्वीपे भरतनामनि वर्षे-क्षेत्रे भरतो नाम राजा चतुरन्त चक्रवर्ती तज्जीतमेतत्-आचार ||
साधन या वृतिः
एषः अतीतवर्तमानानागतानां सिन्धुनाम्नीनां देवीनां भरतानां राज्ञां, अत्र बहुवचनं कालत्रयवर्तिनां चयर्द्धचक्रिणां ॥२१॥ शपरिग्रहार्थ, उपस्थानिक-याभृतं कर्तुं वर्तते इति, तद् गच्छामि णमिति प्राग्वत् , अहमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक
३ करोमीति, चिन्तितं हि कार्य कृतमेव फलदं भवतीत्याह-'इतिकट्ठ'इत्यादि, इतिकृत्वा-चिन्तयित्वा कुम्भानाम-10
ष्टोत्तरं सहस्रं रत्तचित्रं नानामणिकनकरत्नानां भक्ति:-विविधरचना तया चित्रे च द्वे कनकभद्रासने ऋषभचरित्रे 18| तु रलभद्रासने उक्त कटकानि च त्रुटिकानि च यावदाभरणानि च गृह्णाति, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टयेत्यादि यावदेव18| मवादीदिति, अत्र यावत्पदसंग्रहो व्यक्तः, किमवादीदित्याह-'अभिजिए ण'मित्यादि, अभिजितं देवानुप्रियैः-श्रीमद्भिः
| केवलकल्प-परिपूर्ण भरत वर्ष तेनाहं देवानुप्रियाणां विषयवासिनी-देशवास्तव्या अहं देवानुप्रियाणामाज्ञप्तिकिङ्करी-18 18 आज्ञासेविका तत् प्रतीच्छन्तु-गृह्णन्तु देवानुप्रियाः! ममेदमेतद्रूपं प्रीतिदानमिति, अत्र णं सर्वत्र प्राग्वत्, इति-18॥२१५॥
| कृत्वा कुम्भाष्याधिकसहस्रं रत्नचित्रं नानामणिकनकरलभक्तिचित्रे वा द्वेकनकभद्रासने कटकानि च यावत् स एव 18| |मागधसुरगमोऽत्रानुसर्तव्यः तावद्यावत्प्रतिविसर्जयति। तत उत्तरविधिमाह-'तए ण मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवर।।
अनुक्रम
[७४]
~ 433~
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०]
दीप अनुक्रम [७४]
eseeeeeeeeeeeeeeese
तावद् वक्तव्यं यावत्ताः श्रेणिप्रश्रेणयोऽष्टाहिकाया महामहिमायास्तामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति यथाऽष्टाहिकोत्सवः कृत इति । अथ वैताव्यसुरसाधनमाहतए णं से दिवे चकारयणे सिंधूर देवीए अवाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ तदेव जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपत्याभिमुहे पयाए आवि होत्या, तए णं से भरहे राया जाव जेणेव अद्धपधए जेणेव वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंये येणेव उवागच्छद २त्ता वेअद्धस्स पब्वयस्स दाहिणिले णितंवे दुवालसजोअणायामं णवजोअणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेई २ ता जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ चा पोसहसालाए जाब अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्टइ, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स आसणं पलद, एवं सिंधुगमो णेभन्यो, पीइदाणं आभिसेकं रयणालंकारं कडगाणि अतुडिआणि अबस्थाणि अाभरणाणि अगेहद २ ता ताए उकिवाए जाव अट्ठाहिरं जाव पञ्चप्पिणंति । तए ण से दिने चकरयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए जाव पञ्चत्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आदि होत्था, तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चकरयणं जाव पञ्चत्धिर्म विर्सि तिमिसगुहामिमुहं पयातं पासइ २ चा हतुहचित्तजावतिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोषणायाम णवजोअणविच्छिण्णं जाव कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ ता पोसहसालाए पोसहिए वंभयारी जाव कयमालगं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ, तए णं तस्स भरहस्स रणो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव वेभवगिरिकुमारस्स
JinElainine
अथ वैताट्यसुर-साधनाधिकार: वर्ण्यते
~434~
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक [५१]
या कृत्तिः
॥२१॥
दीप
seeeeeeeeesed
पारे पीक्षा इत्थीरयणस्स तिलंगचोरस भंडालंकार कम्गाणि म आन आमरणाणि अ गेम्ह २ साताए सकिटाए जाव ३ वक्षस्कारे सकारे सम्माणेइ २'चा परिविसजेह जाब भोभणमंटने, तहेच महामहिमा कयमालस्स पचप्पिणति (सूर्व ५१) . IS बताया'तए णमित्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं उत्तरपूर्वा दिशमिति-ईशानकोणं चक्ररत्नं वैतान्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चा
मारकृत
पा- मालसुर प्यभवत् , अयमर्थ:-सिन्धुदेवीभवनतो वैतान्यसुरसाधनार्थं वैताब्यसुरावासभूतं वैतादय कूटं गच्छतः ईशानदिश्येव ऋजुः || साधन पन्थाः, 'तए ण'मित्यादि, उक्तप्राय सर्व नवरं वैतान्यपर्वतस्य दाक्षिणात्ये-दक्षिणार्द्धभरतपार्श्ववर्तिनि नितम्बे इति, मू.५१ ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमति वैताब्यगिरौ कुमार इव क्रीडाकारित्वात् वैताब्यगिरिकुमारस्तस्य देवस्थासनं चलति, एवं सिन्धुदेव्याः गमः-सदृशपाठो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, परं सिन्धुदेवीस्थाने वैताब्यगिरिकु-18 |मारस्तस्य देवस्यासन चलति, एवं सिन्धुदेव्याः गमः-सदृशपाठो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, परं सिन्धुदेवीस्थाने
वैताब्यगिरिकुमारदेव इति वाच्यं, यच्च सिन्धुदेव्या अतिदेशकथनं तद्बाणब्यापारणमन्तरेणैवायमपि साध्य इति साह| श्यख्यापनार्थमिति, प्रीतिदानं आभिषेक्य-अभिषेकयोग्यं राजपरिधेयमित्यर्थः, रलालङ्कार-मुकुटमिति आवश्यक-1 चूणों तथैव दर्शनात् , शेषं तथैव यावच्छब्दाभ्यां ग्राह्य, तत्र प्रथमो यावच्छब्दः उक्तातिरिक्तविशेषणसहितां गति |
| ॥२१६॥ प्रीतिवाक्यं प्राभूतोपनयनप्रणे सुरसन्माननविसर्जने स्नानभोजने श्रेणिपश्रेण्यामन्त्रणं सूचयति, द्वितीयस्तु अष्टा-181 हिकादेशदानकरणे इति । अथ तमिस्रागुहाधिपकृतमालसुरसाधनार्थमुपक्रमते-'तएण'मित्यादि, ततस्तहिन्यं चक्ररत्नं |
अनुक्रम
[७५]
PA
~ 435~
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१]
अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यां अर्थाद्वैताळ्यगिरिकुमारस्य देवस्य यावत् पश्चिमादिशं तमिश्रागुहाभिमुर्ख प्रयातं चाप्यभवत् , वैताब्यगिरिकुमारसाधनस्थानस्य तमिस्रायाः पश्चिमावर्तित्वात् , 'तए ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत्, प्रीतिदानेऽत्र विशेषः, स चायं-स्त्रीरत्नस्य कृते तिलकं-ललाटाभरणं रसमयं चतुर्दशं यत्र तत्तिलकचतुर्दशं ईदृशं भाण्डालङ्कार-प्राकृतत्वादलङ्कारशब्दस्य परनिपाते अलङ्कारभाण्डं आभरणकरण्डकमित्यर्थः, चतुर्दशाभरणानि चैवम्"हार १ ब्रहार २ इग ३ कणय ४ रयण ५ मुत्तावली ६ उ केऊरे ७ । कडए ८ तुडिए ९ मुद्दा १० कुंडल ११ उरसुत्त १२ चूलमणि १३ तिलयं १४ ॥१॥"ति, कटकानि च, अत्र कटकादीनि स्त्रीपुरुषसाधारणानीति न पौनरु. स्यमित्यादि तावद् वक्तव्यं यावद् भोजनमण्डपे भोजनं, तथैव-मागधसुरस्येव महामहिमा अष्टाहिका कृतमालस्य प्रत्यर्पयन्त्याज्ञां श्रेणिप्रश्रेणय इति ।
तए णं से भरहे राया कयमालस्स अवाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सदावेइ २ ता एवं क्यासीगच्छाहि णं भो देवाणुप्पिभा ! सिंधूए महाणईए पञ्चस्थिमिळ णिक्खुढं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाई बराई रयणाई पडिच्छाहि अग्गाई० पडिच्छिच्चा ममेमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे बासंमि विस्सुअजसे महाबलपरकमे महप्पा ओअंसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि णिखुडाणं निष्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए अत्यंसत्यकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे
sesesedesesesercedesee
दीप अनुक्रम [७५]
श्रीजम्,
~ 436~
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यूद्वीपशा
प्रत
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२१७॥
सूत्रांक
३वक्षस्कारे सुषेणेन सिन्धुपश्चिमनिष्कुट
।
[१२]
साधनं
दीप
हतुद्दचित्तमाणदिए जाव करयलपरिग्गहि दसणई सिरसावतं मत्थए अंजलि कद्र एवं सामी! तहत्ति आणाए विणएणं बर्ष परिसडरता भरास्स रणो अंतिआओ परिणिक्समा २ साजेणेव सए भावासे तेणेव उवागच्छह २ मा कोदुविभपुरिस महावडरता एवं पेयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा | आमिसेकी हस्विरयणं परिकप्पेह हयगयरहपवर जाव चाउरगिर्णि सेणं सण्णाहेहत्तिकटू जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मजणघरं अणुपविसइ २ ता हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिभकवए उत्पीलिअसरासणपट्टिए पिणखगेविजबद्धाविद्धविमलवरचिंघपट्टे गहिमाउहप्पहरण अणेगगणनायगदंडनायगजावसद्धि संपरिवुढे सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसहकयालोए मजणघराओ पडिणिस्यमय २ ता जेणेव बाहिरिआ उबढाणसाला जेणेब आभिसेके हत्विरयणे तेणेव उवागच्छर २ ता आभिसेक हस्थिरयणं दुरुढे । तएणं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लयामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिनुढे महयाभडबडगरपड्गरवंदपरिक्खित्ते महयाउकिडिसीहणायबोलकलकलसणं समुदरवभूयंपिव करेमाणे २ सविडीए सबजुईए सबवलेणं जाव निग्घोसनाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छद २ ता पम्मरपणं परामुसह, तएणं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकर्ष अभेजकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरर्ण दिव्वं चम्मरवर्ण सणसत्तरसाई सबधण्याई जत्थ रोहंति एगदिवसेण बाविआई, वासं णाऊण चक्कपट्टिणा परागुहे दिवे चम्मरयणे दुवालस जोमणाई तिरिमं पवित्थरद तत्व साहिआई, तए णं से दिवे चम्मरयणे सुसेणसेणावणा परामुढे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए आवि होत्था, तए णं से सुसेणे सेणावई सखंधावारचलवाहणे णावाभूयं चम्मरयणं दुरूपाइ २ ता सिंधु महाणई विमल
अनुक्रम [७६]
esesence
२१७॥
~ 437~
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
अनुक्रम
[ ७६ ]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...
-
मूलं [१२]
...आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
.........
जलतुंगनीचि णावाभूषणं पम्मरयणेणं सथळवाहणे ससेणे समुत्तिष्णे, तओ महाणईमुत्तरितु सिंधु अप्पडिहद्यसासणे अ सेणावई कर्हिचि गामागरणगरपवयाणि खेटकब्बडमडवाणि पट्टणाणि सिंहलए बम्बरए अ सव्यं च अंगलोअं बलायालोअं च परमरम्मं जवणदीवं च पवरमणिरयणकोलागारसमिद्धं आरबके रोमके अ अडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुद्दे जोणार अ उत्तरवेअर्ससिआभो अ मेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणअवरेण जाव सिंधुसागरतोत्ति सब्बपवरकडं ओभर्वेण पडिणिअन्तो बहुसमरमणिजे अ भूमिभागे तस्स कच्छस्स सुइणिसण्णे, ताहे ते जणवयाण गगराण पट्टणाण य जे अ तहिं सामिआ पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सव्वे घेतॄण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणानि य वत्याणि अ महरिहाणि अणं च जं वरि रायारिहं जं च इच्छिअन्वं एवं सेणावइस्स उबर्णेति मत्थयफवंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलि मत्थयंमि पणया तुभे अम्हेत्य सामिआ देवयंव सरणागया मो तुम्भं बिसयवासिणोन्ति विजयं जंपमाणा सेणावणा जहारिहं रविअ पूइम बिसजि णिभत्ता सगाणि नगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणओ घेतून पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि सं सिंधुणामयेनं उत्तिष्णे अणहसासणवले, तहेव भरहस्स रण्णो णिवेन्द्र णिवेद्दत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सकारिअसम्माणिए सहरिसे विसजिए सगं पडमंडवमइगए, तते णं सुसेणे सेणावई व्हाए कयबलिकम्मे कयको अमंगलपायच्छते जिमिअनुत्तरागप समाणे जाव सरसगोसीसचंदणुक्खितगायसरीरे उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइवहिं णापहं वरतरुणी संपत्तेर्हि उवणविजमाणे २ उवगिजमाणे २ उछालि (लभि) माणे २ महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुदिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं. इहे सहफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोगे भुंजमाणे विहरद्द ( सूत्रं ५२ )
F Frale & Pune Cy
~ 438 ~
senesises
toesents
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप अनुक्रम [७६]
श्रीजम्यू-18
'तए ण'मित्यादि, निगदसिद्धं, नवरं सुषेणनामान सेनापति-सेनानीरलमिति, किमवादीदित्याह-'गच्छाहि ण-18|३वक्षस्कारे द्वीपशा- मित्यादि, गच्छ भो देवानुप्रिय! सिन्ध्वा महानद्याः पाश्चात्य-पश्चिमदिग्वतिनं निष्कुट-कोणवर्तिभरतक्षेत्रखण्डरूपं, सुपेणेन न्तिचन्द्री
एतेन पूर्वदिग्वर्तिभरतक्षेत्रखण्डनिषेधः कृतो बोध्यः, इदं च कैविभाजकैर्विभक्तमित्याह-पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च सिन्धु दी सिन्धुपाय या वृत्तिः पश्चिमायां सागर:-पश्चिमसमुद्रः उत्तरस्यां गिरिर्वैताब्यः एतैः कृता मर्यादा-विभागरूपा तया सहितं, एभिः कृतवि-15THIS ॥२१॥
भागमित्यर्थः, अनेन द्वितीयपाश्चात्यनिष्कुटात् विशेषो दर्शितः, तत्रापि समानि च-समभूभागवत्तींनि विषमाणि चदुर्गभूमिकानि निष्कुटानि च-अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि ततो द्वन्द्वस्तानि च-ओअवेहित्ति साधय अस्मदाज्ञाप्रवर्त| नेनास्मद्वशान् कुरु, अनेन कथनेन प्रथमसिन्धुनिष्कुटसाधनेऽल्पीयसोऽपि भूभागस्य साधने न गजनिमीलिका विधेयेति ज्ञापित, एवमेवाखण्डषखंडक्षितिपतित्वप्राप्ते, 'ओअवेत्ता साधयित्वा अग्याणि-सधस्कानि वराणि-प्रधा- नानि रत्नानि-स्वस्वजाताबुत्कृष्टवस्तूनि प्रतीच्छ-गृहाण, प्रतीष्य च ममैतामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयेति, ततः सुपेणो यथा
चक्रे तथाऽऽह--'तते ण'मित्यादि, ततो भरताज्ञानंतरं स सुषेणः एवं स्वामिस्तथेत्याज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृणोतिर 1 इति पर्यन्तपदयोजना, व्याख्या त्वस्य प्राग्वत्, किंभूतः सुषेणः-सेना-हस्त्यादिस्कन्धस्तद्रूपस्य बलस्य नेता-प्रभुः ॥२१॥
स्वातन्येण प्रवर्तकः भरते वर्षे विश्रुतयशाः महतः-अतुच्छस्य बलस्य-सैन्यस्य प्रक्रमात् भरतचक्रवर्तिसम्बन्धिनः || पराक्रमो यस्मात् तथा, दृष्टं हि बलवति प्रभौ बलं बलवद्भवतीति, एतेन 'ओअंसी'ति पदे न पौनरुक्त्य, महात्मा
Jimilam
~ 439~
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२]
उदात्तस्वभावः ओजस्वी-आत्मना वीर्याधिकः तेजसा शारीरेण लक्षणैश्च-सत्त्वादिभिर्युक्तः, म्लेच्छभाषासु-पारसीआ-18 रवीप्रमुखासु विशारदः-पण्डितः, तत्सम्लेच्छदेशभाषाज्ञो हि तत्तद्देशीयम्लेच्छान सामदानादिवाक्यैोंटुं समर्थो भवति, अत एव चित्र-विविधं चारु-अग्राम्यतादिगुणोपेतं भाषत इत्येषंशीला, भरतक्षेत्रे निष्कुटानां निम्नानां च-गम्भीर-18 | स्थानानां दुर्गमानां च-दुःखेन गन्तुं शक्यानां दुष्प्रवेशानां-दुःखेन प्रवेष्टुं शक्यानां भूभागानां विज्ञायकस्तत्र तद्धा-18| 18| सीव प्रचारचतुरः, अत एवेनां योग्यतां विभाव्यैतादृशे शासने नियुक्तः, अर्थशास्त्र-नीतिशास्त्रादि तत्र कुशल र सेना-18
पति:-सैन्येशेषु मुख्या, भरतेन राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टेत्यादि प्राग्वत्, ततः स किं करोतील्याह-'पडिसुणेत्ता' इत्यादि, सर्व चैतत् पाठसिद्ध, नवरं सुपेणविशेषणं सन्नद्धं शरीरारोपणात् बद्धं कसावन्धनतः वर्म-छोहकत्तलादिरूपं सञ्जातमस्येति वम्मितं ईदृशं कवच-तनुत्राणं यस्य स तथा, उत्पीडिता-गाढं गुणारोपणाद् दृढीकृता शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डो येन स तथा, पिनद्धं ग्रैवेय-ग्रीवात्राणं ग्रीवाभरणं पा येन स तथा बद्धो-प्रन्धिदानेन आविद्धः परिहितो मू वेष्टनेन विमलवरचिलपट्टो-वीरातिवीरतासूचकवस्त्र विशेषो येन स तथा, पश्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः गृहीतान्यायुधानि प्रहरणानि च येन स तथा, आयुधप्रहरणयोस्तु क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषो वोध्यः, तत्र क्षेप्यानि बाणा-15 दीनि अक्षेप्यानि खगादीनि अथवा गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाय येन स तथेति । 'तए ण'मित्यादि, प्राग्व्या-12 ख्यातार्थ, नवरं वाक्ययोजनायां ततः सुषेणश्चम्मरत्नं परामृशति-स्पृशति, इत्यन्तं सम्बन्ध इति, एतत्प्रस्तावाचर्म-2
दीप
अनुक्रम [७६]
antillenniti
~440~
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
रसवर्णनमाह-'तएणं त'मित्यादि, तच्चर्मरतं वक्तविशेषणविशिष्ट भवतीत्यन्वयः, ततो-विस्तीणों विस्तृतनामक18 | ३वक्षस्कारे
इत्यर्थः एवंविधः इनः-स्वामी चक्रवर्तिरूपो यस्य तत्ततेनं, यस्य हस्तस्पर्शतः इच्छया वा विस्तृणाति स स्वामीत्यर्थः,191 न्तिचन्द्री
श्रीवत्ससहश-श्रीवत्साकारं रूपं यस्य तत्तथा, नन्यस्य श्रीवत्साकारत्वे चत्वारोऽपि प्रान्ताः समविषमा भवन्ति तथा या वृत्तिः
मनिष्कुटचास्य किरातकृतवृष्टयुपद्रवनिवारणार्थ तिर्यविस्तृतेन वृत्ताकारेण छत्ररत्नेन सह कथं सङ्घटना स्यादिति !, उच्चरी,
साधनं ॥२१९॥ स्वतः श्रीवत्साकारमपि सहनदेवाधिष्ठितत्वाद्यथावसरं चिन्तिताकारमेव भवतीति न काप्यनुपपत्तिः, मुक्तानां मौक्ति
कानां ताराणां-तारकाणां अर्धचन्द्राणां नित्राणि-आलेख्यानि यत्र तत्तथा, अचलं अकम्प-द्वौ सदृशार्थकी शब्दा-1 18वतिशयसूचकावित्यत्यन्तदृढपरिणाम चक्रिसकलसैन्याक्रान्तत्वेऽपि न मनागपि कम्पते, अभेधं-दुर्भेदं कवचमिवामे-18
चकवचं लुप्तोपमा, वनपञ्जरमिव दुर्भेदमित्याशयः, सलिलासु-नदीषु सागरेषु चोत्तरणयन्त्र पारगमनोपायभूतं दिव्यं| देवकृतमातिहार्य चर्मरत्नं-चर्मसु प्रधान, अनलजलादिभिरनुपधात्यवीर्यत्वात् , यन्त्र शणं-शणधान्यं सप्तदशं-सप्तदश-10 18 समापूरकं येषु तानि शणसप्तदशानि सर्वधान्यानि रोहन्ते-जायन्ते एकदिवसेनोप्तानि, अयं सम्प्रदायः-गृहपतिरने-16 18| नास्मिंश्चमेणि धान्यानि सूर्योदये उष्यन्ते अस्तमनसमये च लूयन्ते इति, सप्तदश धान्यानि त्विमानि, "सालि १ २१॥ 8 जव २ वीहि ३ कुडव ४ रालय ५ तिल ६ मुग्ग ७ भास ८चवल ९चिणा १०। तभरि ११ मसूरि १२ कुलस्था |१३ गोहुम १४ णिष्फाष १५ अयसि १६ सणा १७ ॥१॥" प्रायो बहूपयोगिनीमानीतीयन्त्युक्तानि, अन्यत्र चतु-18
अनुक्रम [७६]
~441~
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------------
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२]
दीप
विशतिरप्युक्तानि, लोके च क्षुद्रधान्यानि बहून्यपि, पुनरस्वैव गुणान्तरमाह-वर्ष-जलदवृष्टिं ज्ञात्वा चक्रवर्तिना पराभृष्टं दिव्यं चर्मरलं द्वादशयोजनानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति-वर्द्धते, तत्रोत्तरभरतमध्यखण्डवर्तिकिरातकृतमेघोपद्वनिवारणादिकार्य साधिकानि-फिनिवधिकानि, ननु द्वादशयोजनावधि तस्थुषश्चकिस्कन्धावारस्थावकाशाय द्वादशयोजन-18 प्रमाणमेवेदं विस्तृत युज्यते किमधिकविस्तारेण !, उच्यते, चर्मच्छत्रयोरन्तरालपूरणायोपयुज्यते साधिकविस्तार इति, पञ्चात्र प्रकरणाद् बच्छब्देनैव विशेष्यप्राप्ती सूत्रे पुनरपि दिब्वे चम्मरयणे इति ग्रहणं तदालापकान्तरव्यवधानेन , विस्मरणशीलस्य विनेयस्य स्मारणार्थ, अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-'तए णमित्यादि, ततस्तदिव्यं चर्मरलं सुषेणसेनापतिना
परामृष्ट-स्पृष्टं सत् क्षिप्रमेव-निर्विलम्वमेव नौभूत-महानद्युत्ताराय नौतुल्यं जातं चाप्यभवत् , नावाकारेण जातमि18|मित्यर्थः, 'तप गौमित्यादि, ततः-धर्मरखनीभवनानन्तरं सुषेणः सेनापति:-सेनानीः स्कन्धावारत्य-सैन्यस्य ये बिख्याहने-हस्त्यादिचतुरङ्गशिबिकादिरूपे ताभ्यां सह वर्त्तते यः सः स्कन्धावारबलवाहनः नौभूतं चर्मरत्नमारोहति, || सिन्धुमहामदी विमलजलस्य तुङ्गा-अत्युचा वीचया-कल्लोला यस्यां सा तथा तां नौभूतेन चर्मरोन बलवाहनाभ्यां 18 सह वर्तते यः स सबलवाहनः, एवं सशासनो-भरताज्ञासहितः समुत्तीर्ण इति । 'तओ महाणइ'न्ति तत इति कथा-18 न्तरप्रस्तावनायां महानदी सिन्धुमुत्तीर्याप्रतिहतशासन:-अखण्डिताज्ञः सेनापति:-सेनानीः कचिद् प्रामाकरनगरपर्वतान् !% सूत्रे क्लीवत्वं प्राकृतत्वात्, खेडेत्यादि, सिंहावलोकनन्यायेन कचिच्छब्दोऽत्रापि ग्राह्यतेन कचित् खेटमडम्बानि क्वचि
Dececeicestoecessodesesestate
अनुक्रम [७६]
O
matayeg
~442~
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२]
दीप
श्रीजम्ब-1त्पत्तनानि तथा सिंहलकान-सिंहलदेशोदवान् बर्बरकाश्च-वर्वरदेशोद्भवान, सर्व च अङ्गलोक बलावलोकं च पर-18/३वक्षस्कारे द्वीपशा-18| मरम्य, इमे च हे अपि म्लेच्छजातीयजनाश्रयभूते स्थाने, यवनद्वीप-द्वीपविशेष, अत्र चकाराः समुच्चयार्थाः एवम-10
सुषेणेन
सिन्धुपश्चिन्तिचन्द्री-18 प्रेऽपि त्रयाणामप्यमीषां साधारणविशेषणमाह-प्रवरमणिरक्षकनकानां कोशागाराणि-भाण्डागाराणि तैः समृद्धं-भृशं या वृचिः
| मनिष्कुट18| भृतं, आरवकान्-आरवदेशोद्भवान् रोमकांश्च-रोमकदेशोद्भवान् अलसण्ड विषयवासिनश्च पिक्खुरान् कालमु-18 ॥२२०॥ खान् जोनकांश्चम्लेच्छविशेषान् 'ओअवेऊण'त्ति पदेन योगः, अर्थतैः साधितैरशेषमपि निष्कुटं साधितमुत नेत्याह-18
उत्तरः-उत्तरदिग्वर्ती वैतान्यः, इदं हि दक्षिणसिन्धुनिष्कुटान्तेन, अस्माद्वैताब्य उत्तरस्यां दिशि वर्त्तते इत्यर्थः, तं18 संचिता:-तदुत्पत्तिकायां स्थिताश्च म्लेच्छजातीबहुप्रकाराः उक्तव्यतिरिक्का इत्यर्थः, अत्र सूत्रे क्वचिद् विभक्तिव्यत्ययः18 प्राकृतत्वात् , दक्षिणापरेण-नैऋतकोणेन यावत् सिन्धुसागरान्त इति-सिन्धुनदीसङ्गतः सागरः सिन्धुसागरः मध्यपदलोपे साधुः स एवान्तः-पर्यवसानं तावदवधि इत्याशयः, सर्वप्रवरं कच्छ च-कच्छदेशं 'ओअवेऊण'त्ति साधयित्वा स्वाधीनं कृत्वा प्रतिनिवृत्तः-पश्चादलितो बहुसमरमणीये च भूमिभागे तस्य कच्छदेशस्य सुखेन निषण्ण:-सुस्थस्तस्थौ, स सुषेण इति प्रकरणालभ्यते, ततः किं जातमित्याह-'ताहे ते जणवयाण' इत्यादि, 'ताहे' तस्मिन् काले ते इति-8॥२२०॥ |तच्छब्दस्योत्तरवाक्ये 'सधे घेतणे त्यत्र योजनीयत्वेन व्यवहितः सम्बन्धः आर्थत्वात् जनपदाना-देशानां नगराणां पत्तनानां च प्रतीतानां ये च तर्हि तत्र निष्कुटे स्वामिका:-चक्रवर्तिसुषेणसेनाम्योरपेक्षया अल्पर्दिकत्वेनाज्ञात स्वा
अनुक्रम [७६]
Sanileon
~ 443~
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
eee
प्रत सूत्रांक
[१२]
३ मिन इत्यज्ञातार्धे कप्रत्ययः, ये च प्रभूता-बहवः आकरा:-स्वर्णाद्युत्पत्तिभुवस्तेषां पतयः मण्डलपतयो देशकार्यनि
युक्ताः पत्तनपतयश्च, ते गृहीत्वा प्राभृतानि-उपायनानि आभरणानि-अङ्गपरिधेयानि भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि रत्नानि च वस्त्राणि च महा_णि च-बहुमूल्यानि अन्यच्च यद्वरिष्ठं-प्रधानं वस्तु हस्तिरथादिकं राजाह-राजप्राभृतयोग्यं यच्च एटव्यं-अभिलपणीयं एतत्सर्व पूर्वोक्त सेनापतेरुपनयन्ति-उपढोकयन्ति मस्तककृताञ्जलिपुटाः, ततस्ते किं कृतवन्त इत्याह-'पुणरवि'इत्यादि, ते-तत्रत्यस्वामिनः प्राभृतोपनयनोत्तरकाले प्रकृताअलिपरित्यागानिवर्तनावसरे पुनरपि मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा प्रणता-नयत्वमुपागताः यूयमस्माकमत्र स्वामिनः प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययस्तेन देव-18 तामिव शरणागताः स्मो वयं युष्माकं विषयवासिन इति विजयसूचकं वचो जल्पन्तः सेनापतिना यथार्ह-यथोचित्येन 8 स्थापिता:-नगराधाधिपत्यादिपूर्वकार्येषु नियोजिताः पूजिता वस्त्रादिभिः विसर्जिताः-स्वस्थानगमनायानुज्ञाताः निवृत्ताः-प्रत्यावृत्ताः सन्तः स्वकानि निजानि नगराणि पत्तनानि चानुप्रविष्टाः। विसर्जनानन्तरं सेनापतिर्यञ्चकार तदाह'ताहे सेणावई' इत्यादि, तस्मिन् काले सेनापतिः सविनयोऽन्तर्धतस्वामिभक्तिको गृहीत्वा प्राभूतानि आभरणानि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि तां सिन्धुनामधेयां महानदीमुत्तीर्णः अणहशब्दोऽक्षतपर्यायो देश्यस्तेनाणह-अक्षतं क्वचि-19 दण्यखण्डितं शासन-आज्ञा बलं च यस्य स तथा, तथैव यथा २ स्वयं साधयामास तथा २ भरतस्य राज्ञो निवेदयति २ त्वा प्राभृतानि अर्पयित्वा च अत्र स्थित इति गम्यं, अन्यथा क्त्वान्तपदेन सह सङ्गतिर्न स्यात् , ततः प्रभुणा सत्का
दीप
अनुक्रम [७६]
~ 444~
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या वृत्तिा
[५२]
दीप
श्रीजम्-रितो वखादिभिः सन्मानितो बहुमानवचनादिभिः सहर्षः प्राप्तप्रभुसत्कारत्वात् विसृष्टः-स्वस्थानगमनार्थमनुज्ञातः३वक्षस्कारे द्वीपशा- स्वकं-निजं पटमंडपं-दिव्यपटकृतमण्डपं मध्यपदलोपी समासः पटमण्डपोपलक्षितं प्रासादं वा अतिगतः-प्राविशत्,81
सुषेणेन न्तिचन्द्री-18 | अथ स्वकावासप्रविष्टो यथा सुषेणो विललास तथा चाह-'तते ॥'मित्यादि, ततः स सुषेणः सेनापतिः 'हाए
सिन्धुपश्चि
मनिष्कुट इत्यादि प्राग्वत् , जिमितो-भुक्तवान् राजभोजनविधिना भुक्त्युत्तरं-भोजनोत्तरकाले आगतः सन् उपवेशनस्थाने साधन
इति गम्यं, अत्र यावत्पदादिदं दृश्यं-'आयंते चोक्खे परमसुईभूए' इति, अत्र व्याख्या-आचान्त:-शुद्धोदकयोगेन । सू. ५२ 18कृतहसमुखशौचः चोक्षो-लेपसिकथाद्यपनयनेन अत एव परमशुचीभूतः-अत्यर्थ पावनीभूतः, इदं च पदवयं योज
मायाः क्रमप्राधान्येन भुत्तरागए समाणे इति पदात् पूर्व योज्यं, इस्थमेव शिष्टजनक्रमस्य दृश्यमानत्वात, वन्यथा मुक्त्युत्तरकाले आचमनादिकं पामराणामिव जुगुप्सापात्रं स्यात् , पुनः सेनापति विशिनष्टि-सरसेन गोशीर्षचन्दनेनोक्षिता-सिक्काः गावे-शरीरे भवा गात्रा:-शरीरावयवा वक्षाप्रभृतयो यत्र तदेवंविधं शरीरें यस्य स तथा, अत्र यच्चन्दनेन सेचनमुक्तं तन्मार्गश्रमोत्थयपुस्तापव्यपोहाय, सितं हि चन्दनमलितापविरहितत्वादतिशीतलस्पर्श भवतीति. 'उपिति उपरि प्रासादवरस्य सूत्रे च लुप्तविभक्तिकतया निर्देश आपत्वात् गत:-प्राप्तः स्फुटनिरिव-अतिरभसा- २२१॥ | स्फालनवशाद्विदलगिरिव मृदङ्गाना-मईलाना मस्तकानीव मस्तकानि-उपरितनभागा उभयपाचे चर्मोपनद्धपुटानीति | १ तैरुपनृत्यमान इत्यादि योज्यं, अत्र करणे तृतीया, तथा द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारैः राजप्रश्नीयोपागसूत्रविवृतैः पात्रयो ।
अनुक्रम [७६]
areaseer
~ 445~
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [५२]
दीप
अनुक्रम
[ ७६ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [५२ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
बद्धैः - उपसम्पन्नैर्नाटकैः प्रतीतैर्वरतरुणीभिः - सुभगाभिः खीभिः भूभुजंगरागेषु परममोहनत्वेन तासामेवोपयोगात्, | सम्प्रयुक्तैः - प्रारब्धैरुप नृत्यमानो नृत्यविषयीक्रियमाणस्तदभिनयपुरस्सरं नर्त्तनात् उपगीयमानस्तद्गुणगानात्, उपलभ्यमानस्तदीप्सितार्थसम्पादनात् महता इति विशेषणं प्राग्वत् दृष्टान् इच्छाविषयीकृतान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान् | पञ्चविधान् मानुष्यकान् - मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् कामांश्च भोगांश्च इति प्राप्तसंज्ञकान्, तत्र शब्दरूपे कामौ | स्पर्शरसगन्धा भोगा इति समय परिभाषा, भुञ्जान:- अनुभवन् विहरतीति । अथ तमिस्रागुहाद्वारोद्घाटनायोपक्रमते ।
तए णं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ २ त्ता एवं क्यासी-गच्छ णं खिप्पामेव भो देषाणुपिआ ! तिमि - सगुहाए दाहिणिल्लस्स दुबारस्स कवाडे विहाडेहि २ सा मम एजमाणसिअं पञ्चप्पिणाहित्ति, तए णं से सुसेणे सैणाबाई भरणं र णा एवं चुत्ते समाणे तुट्ठचित्तमानंदिए जान करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु जाप पढिसुणे २ सा भरस्सरणो अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव सए आवासे जेणेव पौसहसाला तेणेव उवागच्छर २ त्ता दब्भसंधारगं ires व कमालरस देवस्स अट्टमभतं पगिन्हइ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव अट्टमभसंसि परिणममाणंसि पोससाला पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ ता पहाए कयबलिकम्मे कयको अमंगलपायच्छते सुद्धप्यावेसाई मंगलाई बत्थाई पवर परिहिए अप्पमहन्याभरणालंकियसरीरे धूवपुष्पगंधमहहत्थगए मजणराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेम तिमिसगुहाए दाहिणिस्स हुमारस्स कवाडा तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तर णं तस्स मुसेगस्स सैणावहस्स वहवे राईस
अथ तमिस्रागुफ़ायाः द्वरोद्घाटनस्य वर्णनं --
Fur Fate & Pine Cy
~ 446 ~
°°°°°
www.janyar
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५३ ]
दीप
अनुक्रम [66]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥२२२॥
वक्षस्कार [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
मूलं [ ५३ ]
-
...........................
तलवरमावि जाव सत्थवाहप्पभियओ अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया जाव सुसेणं सेणावई पिओ २ अणुगच्छति, तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइरस बहूईओ खुजाओ चिलाइआओ जाव इंगिअचितिपत्थिभविआणिआड णिउणकुसलाओ विणीआओ अप्पेआओ कलसहत्थगयाओ जाब अणुगच्छंतीति । तए णं से सुसेणे सेणावई सम्बिद्धीए सब्बजुई जाव विग्घोसणाइएवं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिस्स दुधारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ२त्ता आलोए पणामं करेइ२त्ता ढोमहत्यगं परामुसहरत्ता तिमिसगुहाए दाहिणिस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्येणं पमाइ २ चा दिव्वाए उद्गधाराए अन्भुक्खेइ २ ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचगुलितले चषण दल २ ता अमोहिं बरेहिं गंधेहि अ महेहि अ अचिणे २ त्ता पुष्फारुहणं जाव त्यारुणं करेइ २ ता आसत्तोसत्तविपुलवट्ट जान करेइ २ त्ता अच्छेहिं सहेहिं रययामपहिं अच्छरसातंडुलेहिं तिमिस्सगुद्दाए दाहिणिस्स दुबारस्स कबाडा पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ तं०-सोत्थिय सिरिवच्छ जाव कयग्गहगकिरयलपब्भट्ट चंदप्पभवइरवे रुलि अनिमलदंड जान धूर्व दलय २ वामं जाणुं अंचे २ ता करयल जान मत्थए अंजलि कट्टु कवाडाणं पणामं करे २ त्ता दंडरवणं परामुसद्द, तप णं तं दंडरयणं पंचलइअं बइरसारमइअं विणासणं सङ्घसत्तुसेण्णाणं खंधावारे णरवद्दस्स गडदरिविसमपन्भारगि रिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकरं हितकरं रण्णो हिअइच्छिअमणोरहपूरगं दिवमप्पडियं दंडरयणं गद्दाय सत्तट्ट पयाई पथोसकर पचोतकित्ता तिमिस्सगुहाए दाहिणिस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया २ सदेणं तिक्खुत्तो आउडेर तए णं तिमिसगुहाए दाहिणिस्स दुवारस्स कवाडा सुसेणसेणावरणा दंडरवणेणं महया २ सद्देणं तिलुत्तो आउडिआ समाणा महया २ स देणं कोंचार करेमाणा सरसरस्स सगाई २ ठाणाई पश्चोतकित्था, तप णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिहस्स
For Evate & Pune Cy
~ 447 ~
सुषेणेन
तिमिश्रगुहादक्षिणकपाटोदा
टस. ५३
॥२२२॥
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [3], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दुबारस्स कबाडे बिहादेइ २ ता जेणेव भरऐ रावा तेणेव उवागच्छइ २त्ता जाव भरहं रायं करपलपरिग्गहि जएणं विजएणं वचाइ २ सा एवं क्यासी-विहाडिआ गं देवाणुप्पि! तिमिसगुहाए वाहिणिलस्स दुवारस्स कवाचा एभणं देवाणुष्पिआणं पिकं णिवेएमो पियं भे भवन, नए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एअमढ सोपा निसम्म हत्तुद्दचित्तमाणदिए जाब हिअए सुसेणं सेणावई सकारेर सम्माणेइ सकारिता सम्माणित्ता कोडंबिअपुरिसे सदावर २ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आमिसेक हस्थिरयणं परिकप्पेह हयगयरहपवर नहेब जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवर णरवाई दूरूढे (सूत्र-५३) 'तए णं से भरहे राया अण्णया' इत्यादि, एतञ्च निगदसिद्धं, सम्बन्धसन्तत्यन्युच्छित्त्यर्थं संस्कारमात्रेण वित्रियते, ततः स भरतो राजा अन्यदा कदाचित् सुसेणं सेनापति शब्दयति-आकारयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-पच्छ क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ विघाटय-सम्बद्धौ वियोजय उदूघाटयेति-18
यावत्, ममतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पय, 'तए ण'मित्यादि, अत्र भरताज्ञाप्रतिश्रवणादिकं मजनगृहमतिनिष्क्रमणान्तं 18 प्राग्वाल्याख्येयं, नवरं यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्-गमनसङ्कल्प-18
मकरोत. 'तए णमित्यादि, ततस्तमिस्रागुहागमनसङ्कल्पकरणानन्तरं तस्य सुषेणस्य बहवो राजेश्वरादयो जनाः सुषेणं 8 18| सेनापति पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, सर्व चात्र भरतस्य चक्ररत्नाचा चिकीर्षोरिव वाच्यं, एवं चेटीसूत्रमपि पूर्ववदेव, नवरं
किंलक्षणाश्चेव्यः ?-इङ्गितेन-नयनादिचेष्टयैव आस्तां कथनादिभिःचिन्तितं-प्रभुणा मनसि संकल्पितं यद्यत्प्रार्थितं तत्तत्
दीप अनुक्रम [७७]
Saegenerac0000000000000000000000
भोप, ३०
A
rjimmitrayog
~448~
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू- जानन्ति यास्ताः तथा निपुणकुशला:-अत्यन्तकुशलाः तथा विनीता-आज्ञाकारिण्यः अप्येकका वन्दनकलशहस्त- वक्षस्कारे
द्वापशा-12गता इत्यावि, 'तए ण'मित्यादि, ततस्तमिम्रागुहाभिमुखचलनानन्तरं स सुपेणः सेनापतिः सर्बो सर्वयुक्त्या सर्व- सुषेणेन न्तिचन्द्रीयुत्या वा यावन्नि?पनादितेन यत्रैव तमिनागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैवोपागच्छति, उपागत्व चय
| तिमिश्रगुया वृत्तिः आलोके-दर्शने प्रणाम करोति, तदनु सर्व पक्ररत्नपूजायामिव बाध्य, यावदन्ते पुनरपि कपाटयोः प्रणामं करोति.
हादक्षिण
कपाटोदा॥२२३॥ नमनीयवस्तुन उपचारे क्रियमाणे आदावन्ते च प्रणामस्य शिष्टव्यवहारौचित्यात , प्रणामं कृत्वा च दण्डरलं परामू-14
18 शति, अथावसरागतं दण्डरलस्वरूपं निरूपयन् कथा प्रबध्नाति-'तए णमित्यादि, ततो-दण्डरलपरामर्शानन्तरं तहकण्डर-दण्डेषु दण्डजातीयेषु र उत्कृष्ट अप्रतिहतं-क्वचिदपि प्रतिघातमनापलं दण्डनामक रसं गृहीत्वा सप्ताष्ट
पदानि प्रत्यवष्वकते-अपसर्पतीत्यनेन सम्बन्धः, अथ कीदृशं तदित्याह-रलमय्यः पश्चलतिका:-कत्तलिकारूपा अवयवा यत्र तत्तथा, वज्ररतस्य यत्सारं-प्रधानद्रव्यं तम्मयं तद्द लिकमित्यर्थः, विनाशनं सर्वशत्रुसेनाना, नरपतेः स्कन्धाबारे || || प्रस्तावादू गन्तुं प्रवृत्ते सति गादीनि प्रारभारान्तपदानि प्राग्वत् गिरय:-पर्वताः, अत्र विशेषणानभिधानेऽपि प्रस्ता-18||
वाद् गिरिशब्देन क्षुद्रगिरयो ग्राह्याः, ये सञ्चरतः सैन्यस्य विघ्नकराः यात्रोन्मुखानां राज्ञां त एवोच्छेद्याः, महागिरयस्तु ॥२२॥ | तेषामपि संरक्षणीया एव, प्रपाता-च्छज्जनस्खलनहेतवः पाषाणाः भृगवो-वा तेषां समीकरणं समभागापादकमित्यर्थः, शान्तिकरं-उपद्रवोपशामक, ननु यापद्वोपशामक तर्हि सति दण्डरले सगरसुतानां ज्वलनप्रभनागाधिपकृतोपद्रवो SI
[७७]
Rimting
~449~
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप
न कथमुपशशामेति, उच्यते, सोपक्रमोपद्वविद्रावण एव तस्य सामर्थ्यात् , अनुपक्रमोपद्वस्तु सर्वथाऽनपासनीय
एव, अन्यथा विजयमाने वीरदेवे कुशिष्यमुक्ता तेजोलेश्या सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ कथं भस्मतां निनाय ?, अत ॥ एषावश्यंभाविनो भावा महानुभावैरपि नापनेतुं शक्या इति, शुभकर-कल्याणकरं हितकरं-उक्तैरेव गुणैरुपकारि
| राज्ञः-चक्रवर्तिनो हृदयेप्सितमनोरथपूरक गुहाकपाटोद्घाटनादिकार्यकरणसमर्थत्वात् दिव्यं यक्षसहस्राधिष्ठितमित्यर्थः, || अत्र सेनापतेः सप्ताष्टपदापसरणं प्रजिहीपोंर्गजस्येव दृढप्रहारदानायाधिकप्रहारकरणार्थमिति, प्रत्यवष्वष्कणादनु कि | चक्रे इत्याह-'पचोसकित्ता इत्यादि, प्रत्यवष्वष्क्य च तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ दण्डरलेन महता
२ शब्देन त्रिकृत्वः-त्रीन वारान् आकुट्टयति-ताडयति, अत्र इत्यंभावे तृतीया, यथा महान् शब्द उत्पद्यते तथा-18 |प्रकारेण ताडयतीत्यर्थः, अत्र गुहाकपाटोद्घाटनसमये द्वादशयोजनावधिसेनानीरलतुरगापसरणप्रवादस्तु आवश्यक
टिप्पनके निराकृतोऽस्ति, यथा-"यश्चात्र द्वादशयोजनानि तुरगारूढः सेनापतिः शीपमपसरतीत्यादिपवादः सोऽना|| गामिक इव लक्ष्यते, कचिदप्यनुपलभ्यमानत्वादिति." ततः किं जातमित्याह-तए ण 'मित्यादि, ततः-ताडना
दनु तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ सुषेणसेनापतिना दण्डरलेन महता २ शब्देनाकुट्टितौ सन्तो महता | २ शब्देन दीर्घतरनिनादिनः क्रौंचस्येव बहुल्यापित्वाद् बनुनादित्वाच्च य आरय:-शब्दस्तं कुर्वाणो 'सरसरस्स'त्ति अनुकरणशब्दस्तेन तादृशं शब्दं कुर्वाणी कपाटावित्यर्थः स्वके २-स्वकीये २ स्थानेऽवष्टम्भभूततोड़करूपे यत्रागमय
अनुक्रम [७७]
Receasoesco
8
~ 450~
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप
श्रीजम्यू-18 चलतया तिष्ठत इति ते यावत् प्रत्यवाष्बष्किपातां-प्रत्यपससर्पतुः, 'तए ण'मित्यादि, इदं च सूत्रमावश्यकचूणों वर्द्ध-1| ३वक्षस्कारे
मानसरिकतादिचरित्रे च न रश्यते, ततोऽनन्तरपूर्वसूत्र एवं कपाटोघाटनमभिहितं, यदि चैतत्सूत्रादर्शानुसारेणेदं । मणिरलं
सूत्रमवश्यं व्याख्येयं तदा पूर्वसूत्रे सगाई २ ठाणाई इत्यत्रार्थत्वात् पश्चमी व्याख्येया तेन स्वकाभ्यां २ स्थानाभ्यां काकिणीरया वृत्तिः कपाटद्वयसम्मीलनास्पदाभ्यां प्रत्यवस्तृताविति-किश्चिद्विकसितावित्यर्थः तेन विघाटनार्थकमिदं न पुनरुक्तमिति, ततः-18
बेन मण्ड
त लालेखनं च ॥२२४॥ ॥|| कपाटप्रत्यपसर्पणादनु स सुषेणः सेनापतिः तमिम्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ विघाटयति-उद्घाटयति, IS
सू.५४ ततः किं कृतमित्याह-विहाडेत्ता' इत्यादि, प्रायः प्राग् व्याख्यातार्थ, नवरं विघाटितौ देवानुप्रियाः! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ एतद्देवानुप्रियाणां प्रियं निवेदयामः, अत्र निवेदकस्य सेनानीरत्तस्यैकत्वात् क्रियायां एकवचनस्यौचित्ये यनिवेदयाम इत्यत्र बहुवचनं तत्सपरिकरस्याप्यात्मनो निवेदकत्वल्यापनार्थ तच्च बहूनामेकवाक्यत्वेन प्रत्ययोत्पादनार्थ, एतत् प्रियं-इष्ट भे-भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह-'तए ण'मित्यादि, व्यकं. गजारूढः सन् यन्नृपतिश्चक्रे तदाह• तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्यं तंसि छलंसं अणोवमजुई दिवं मणिरयणपति
॥२२४॥ समं वेरुलिअं सबभूजकतं जेण य मुबागएणं दुक्खं ग किंचि जाव हबइ आरोग्गे अ सबकालं तेरिच्छिमदेवमाणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरेंतो ठिअजोवणकेसअवविअणहो हबह अ
अनुक्रम [७७]
ReR
अथ मण्डल-आलेखनस्य वर्णनं क्रियते
~ 451~
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४]
दीप अनुक्रम [७८]
सबभयविप्पमुको, त मणिरयणं गहाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिलाए कुंभीए णिक्खिया, नए णं से भरहादिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इडीए पहिअकित्ती मणिरयणकउञ्चोए पारयणदेसियमम्गे अणेगरायसहस्सागुआयमग्गे महयाउकिसीहणायबोलकलकलरवेणं समुदरवभूअंपिव करेमाणे २ जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिले दुवारे तेणेव उवागाइ २ ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुबारेणं अईइ ससिब मेहंधयारनिवहं । तए णं से भरहे गया छत्तलं दुवालससि अट्ठकणिों अहिंगरणिसंठिों अटुसोवणिों कागणिरयणं परामुसइत्ति । तए णं तं चउरंगुलप्पमाणमित्तं असुवणं च विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठिों समतलं माणुम्माणजोगा जतो लोगे चरति सधजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्व सूरे : ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं दिवं भावजुत्तं दुवालसजोषणाई तस्स लेसाउ विवद्धति तिमिरणिगरपडिसेहिआओ, रत्तिं च सबकालं संधाबारे करेइ आलोभ दिवसभूशं जस्स पभावेण चकवट्टी, तिमिसगुई अतीति सेण्णसहिए अभिजेतुं वितिअमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपचाथिमिल्लेर्मु कडएसुं जोअर्णतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोअणुज्जोअकराई चवणेमीसंठिभाई चंदमंडलपखिणिकासाई एगूणपणं मंडलाइं आलिहमाणे २ अणुप्पविसइ, तए णं सा तिमिसगुहा भरहेणं रण्णा तेहिं जोअणंतरिपहिं जाव जोअणुजोअकरेहिं एगूणपण्णाए मंडलहिं आलिहिजमाणेहिं २ सिप्पामेव आलोगभूमा उजोअभूआ दिवसभूभा जाया बावि होत्था (सूत्र-५४) 'तए णं से भरहे राया मणिरयण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मणिरतं परामृशति, किंविशिष्ट इत्याह
HESABPS
JinEleinitinuN
~ 452 ~
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४]
दीप
श्रीजम्यू- 'तोत'मिति सम्प्रदायगम्यं चतुरङ्गुलप्रमाणा मात्रा दैर्येण यस्य तत्तथा, शब्दाद् व्यङ्गुलपृथुलमिति ग्राह्य, यदाह- ३वक्षस्कारे
द्वीपशा- "चतुरंगुलो दुअंगुलपिठुलो अ मणी"इति, अनर्षित-अमूल्यं न केनापि तस्याः , कर्तुं शक्यते इत्यर्थः तिम्रो माणरत्न न्तिचन्द्री
काकिणीर॥ यः-कोटयो यत्र तत्तथा, ईदृशं सत् षडनं-षट्कोटिक, लोकेऽपि प्रायो वैडूर्यस्य मृदङ्गाकारत्वेन प्रसिद्धत्वान्मध्ये या वृत्ति
| उन्नतवृत्तत्वेनान्तरितस्य सहजसिद्धस्योभयान्तवर्तिनोऽनित्रयस्य सत्त्वात्, अत्राह-पडसमित्यनेनैव सिद्धे व्यस्रषड-लालेखन च ॥२२५॥ समिति किमर्थ ?, उच्यते, उभयोरन्तयोनिरन्तरकोटिषट्कभवनेनापि षडनता सम्भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ त्र्यनं . ५४
सत् षडसमित्युक्तं, तथा अनुपमद्युति दिव्यं मणिरत्नेषु-पूर्वोक्तेषु पतिसमं सर्वोत्कृष्टत्वात् , वैडूर्य वैडूर्यजातीयमित्यर्थः, | सर्वेषां भूतानां कान्तं-काम्यं, इदमेव गुणान्तरकथनेन वर्णयन्नाह-'जेण य मुद्धागएण'मित्यादि, येन मूर्द्धगतेनशिरोधृतेन हेतुभूतेन न किञ्चिद् दुःखं जायते आरोग्यं च सर्वकालं भवति, तिर्यन्देवमनुष्यकृताः चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धादुपसर्गाश्च सर्वे न कुर्वन्ति तस्य दुःखं, संग्रामेऽपि च-बहुविरोधिसमरे आस्तामल्पविरोधिसमरे अशखवध्यः,18
अत्र न शखवध्योऽशखवध्य इति, नसमासो वा, 'अः स्वल्पार्थेऽप्यभावेऽपी'त्यनेकार्थवचनात् अ इति पृथगेव नस|| मानार्थनिपासो वा ज्ञेयस्तेन न शस्त्रैर्वध्यो भवति, नरो मणिवरं धरन स्थित-विनश्वरभावमप्राप्तं यौवनं यस्य स स्था, | ||२२५|| स्थायियौवन इत्यर्थः, केशैः सहावस्थिता-अवर्द्धिष्णवो नखा यस्य स तथा, पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, भवति | च सर्वभयविषमुक्ता, अत्र 'सर्व भाजनस्थं जलं पीत'मित्यादाविव एकदेशेऽपि सर्वशब्दप्रयोगस्य सुप्रसिद्धत्वादेवम
अनुक्रम
[७८]
~ 453~
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५४ ]
दीप
अनुक्रम [७८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ५४ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Ebenitie
नुष्यादिप्रतिपक्षोत्थं भयमिह ज्ञेयं, अन्यथाऽश्लोकादिभयानि महतामेव भवेयुरिति, अथैतद् गृहीत्वा नृपतिर्यच्चकार तदाह-'तं मणिन्ति तन्मणिरलं गृहीत्वा स नरपतिर्भरतो हस्तिरत्वस्य दाक्षिणात्ये कुम्भे निक्षिपति - निवनाति, 'कुंभीए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, 'तए ण' मित्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतेत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् मणिरत्नकृतोद्योतश्चक्ररलदेशितमार्गों यावत् समुद्ररयभूतामिव गुहामिति गम्यं कुर्वन् २ यत्रैव तमिस्रा| गुहाया दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च तमिस्रागुहा दाक्षिणात्येन द्वारेणात्येति प्रविशति, शशीव मे| घान्धकारनिवहं । प्रवेशानन्तरं यत्कृत्यं तदाह — 'तए ण' मित्यादि, ततः स भरतो राजा काकणीरलं परामृशतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह चत्वारि चतसृषु दिक्षु द्वे तूर्ध्वमधश्चेत्येवं षट्सयाङ्कानि तलानि यत्र तत्तथा, तानि चात्र मध्यखण्डरूपाणि, यैर्भूमावविषमतया तिष्ठन्तीति, द्वादश अध उपरि तिर्यक् चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकं चत| सृणामश्रीणां भावात् अभ्रयः-कोटयो यत्र तत्तथा, कर्णिका:- कोणाः यत्र अश्रित्रयं मिलति तेषां चाध उपरि प्रत्येकं चतुर्णां सद्भावादष्टकर्णिकं, अधिकरणिः-सुवर्णकारोपकरणं तद्वत् संस्थितं संस्थानं यस्य तत्तथा तत्सदृशाकारं समचतुरस्रत्वात्, आकृतिस्वरूपं निरूप्यास्य तौल्यमानमाह – अष्टसुवर्णा मानमस्येत्यष्टसौवर्णिकं, तत्र सुवर्णमानमिदं चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एकं धान्यमाषफलं द्वे धान्यमापफले एका गुञ्जा पञ्च गुञ्जा एकः कर्ममाषकः पोडश कर्मभाषकाः एक सुवर्ण' इति, एतादृशैरष्टभिः सुवर्णैः काकणीरलं निष्पद्यते इति,
Fur Fate &PO
~ 454 ~
sesesenes
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू- द्वापशा- न्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक [५४]
या वृत्तिः
॥२२६॥
दीप
अत्र चाधिकारे "एतानि च मधुरतुणफलादीनि भरतचक्रवर्तिकालसम्भवीन्येव गृह्यन्ते, अन्यथा कालभेदेन तद्वैषम्य- ३वक्षस्कारे सम्भवे काकणीरनं सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात् , तुल्यं चेष्यते तदि"त्येतस्मादनुयोगद्वारवृत्तिवचनात् एतद्देशीयादेवमाणरन | स्थानावृत्तिवचनात्, "चरंगुलो मणी पुण तस्सद्ध चेव होइ विच्छिण्णो । चउरंगुलप्पमाणा सुवण्णवरकागणी
काकिणीर
बेन मण्डनेया ॥१॥हाल-प्रमाणाङ्गलमवगन्तव्यं, सर्वचक्रवनिनामपि काकण्यादिरलानां तुल्यप्रमाणत्वादिति” मलय-लालेखनन गिरिकृतवृहत्संग्रहणीबृहदृत्तिवचनाच केचनास्य प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नत्वं, केचिच "एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक-18.५४ वट्टिणो अट्ठसोवपिणए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिगरणिसंठाणसंठिए पपणत्ते, एगमेगा कोडी8 उस्सेहगुलविक्खम्भा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं” इत्यनुयोगद्वारसूत्रबलादुत्सेधाङ्गलनिष्पन्नत्वं, केऽपि |च एतानि सप्तैकेन्द्रियरत्नानि सर्वचक्रवर्तिनामात्माङ्गुलेन शेयानि, शेषाणि तु सप्त पञ्चेन्द्रियरलानि तत्कालीनपुरुषो-18 चितमानानीति प्रवचनसारोद्धारवृत्तिवलादारमाङ्लनिष्पन्नत्वमाहुः, अत्र च पक्षत्रये तत्त्वनिर्णयः सर्वविद्वेयः, अत्र || |तु बहु वक्तव्यं तत्तु ग्रन्थगौरवभिया नोच्यते इति । अस्य परामर्शानन्तरं यच्चक्रे तदाह-'तए णमित्यादि, ततः-18 परामर्शानन्तरं तत्काकणीरनं राजवरो गृहीत्वा यावदेकोनपश्चाशतं मण्डलान्यालिखन्नालिखन् अनुप्रविशतीत्युत्तरेण | ॥२२६॥ सम्बन्धः, कथम्भूतमित्याह-चतुरङ्गलप्रमाणमात्रं, अस्यैकका अनिश्चतुरजलप्रमाणविष्कम्भा द्वादशाप्यचयः प्रत्येक चतुरङ्गुलप्रमाणा भवन्तीत्यर्थः, अस्य समचतुरस्रत्वादायामो विष्कम्भश्च प्रत्येकं चतुरङ्गुलप्रमाण इत्युक्तं भवति, यैवाग्नि
अनुक्रम [७८]
~ 455~
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४]
रूध्वींकृता आयाम प्रतिपद्यते सैव तिर्यग्व्यवस्थापिता विष्कम्भभाग् भवतीत्यायामविष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपर| निर्णयः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं, तग्रहणे चायामोऽपि गृहीत एव, समचतुरनत्वात्तस्येति, तदेवं सर्वत|श्चतुरङ्गलप्रमाणमिदं सिद्धं, यत्तु 'तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं च समणस्स भगवओ महावीरस्स IS| अद्धंगुलं, इत्यनुयोगद्वारसूत्रे उक्तं तन्मतान्तरमवसेयं, तथाऽष्टभिः सुवर्णैर्निष्पन्नमष्टसुवर्ण, अष्टसुवर्णमूलद्रव्येण |S
निष्पन्नमित्यर्थः, चकारो विशेषणसमुच्चये सर्वत्र, तथा विषं जङ्गमादिभेदभिन्नं तस्य हरणं, स्वर्णाष्टगुणानां मध्ये विष-IS हरणस्य प्रसिद्धत्वात्, अस्य च तथाविधस्वर्णमयत्वादिति, अतुलं-तुलारहितमनन्यसदृशमित्यर्थः, चतुरस्रसंस्थानसं-18 |स्थितमिति तु विशेषणं पूर्वोक्ताधिकरणिदृष्टान्तेन भाव्यमिति, ननु अधिकरणिदृष्टान्ते भाव्यमाने नास्य पूर्वोक्ता चतुरं
गुलतोपपद्यत अधिकरणेरधः संकुचितत्वेन विषमचतुरस्रवादित्याह-'समतल मिति, समानि न न्यूनाधिकानि ९ तलानि षडपि यस्य तत्तथा, अथैतदेव यच्छन्दगभितवाक्यद्वारा विशिनष्टि-यतः काकणीरत्नात् मानोन्मान [प्रमाTeण] योगा:-एते मानविशेषव्यवहारा लोके चरन्ति प्रवर्तन्ते इत्यर्थः, तत्र मानं धान्यमानं सेतिकाकुडवादि, रसमान र KI चतुःषष्टिकादि, उन्मानं कर्षपलादि खण्डगुडादिद्रव्यमानहेतुः, उपलक्षणात् सुवर्णादिमानहेतुः प्रतिमानमपि ग्राह्य
गुञ्जादि, किंविशिष्टास्ते व्यवहाराः-सर्वजनानां-अधमर्णोत्तमर्णानां प्रज्ञापका-मेयद्रव्याणामियत्तानिर्णायकाः, अय-1K माशयो-यथा सम्पति आप्तजनकृतनिर्णयात कुडवादिमानं जनमत्यायकं व्यवहारप्रवर्तकं च भवति तद्वच्चक्रवर्तिकाले ६
Socceederaesecenesesecene
दीप अनुक्रम [७८]
~ 456~
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४]
दीप
श्रीजम्बू कारणिकपुरुषैः काकणीरताङ्कितं तत्तादृशं भवेदित्यर्थः, यच्छब्दगभ्रेणैव वाक्येन माहात्म्यान्तरमाह-वापि चन्द्र वक्षस्कारे
द्वीपशा- तत्र तिमिरं नाशयतीति योजनीयं, न वा सूर्यः, अत्र इक्यालङ्कारे एवं सर्वत्र, नवाऽग्निदीपादिगतः न वा मणयः। मणिर विचन्द्री सत्र तिमिरं नाशयन्ति, प्रकाशं कर्तुमलंभूष्णव इत्यर्थः, यत्राधिकारें अन्धकारयुक्तत्वेनाभेदोपचारात् अन्धकार
का काकिणीरया वृचिः
| लेन मण्ड1|| मत्रास्तीति अभ्रादित्वादप्रत्यय विधानाद्वा अन्धकारवतिगिरिगुहादी तकत्-काकणीरलं दिव्य-प्रभावयुक्तं सिमिरे ।
लालेखनंच ॥२२७॥ नाशयति, अथ यदीदं प्रकाशयति तदा कियत् क्षेत्रं प्रकाशयतीत्याह-द्वादश योजनानि तस्य लेश्याः-प्रभा विवर्धन्ते,
| अमन्दाः सत्यः प्रकाशयन्तीत्यर्थः, किंविशिष्टा लेश्याः?-तिमिरनिकरप्रतिषेधिकास्तमित्रादिगुहायाः पूर्वापरतो द्वादश-18 योजनविस्तारयोस्तासां प्रसरणात् 'रतिं चति प्रथमान्तयच्छब्दाध्याहारादर्थवशाद्विभक्तिपरिमाणाच यद्रवं रात्री
चो वाक्यान्तरारम्भार्थः सर्वकालं स्कन्धावारे दिवससदृशं, यथा दिवसे आलोकस्तथा रात्रावपीयर्थः, आलोकं करोति, ISI IS|| यस्य प्रभावेण चक्रवती तमिस्रां गुहां अत्येति-प्रविशति सैन्यसहितो द्वितीयमर्द्धभरतमभिजेतुं उत्तरभरतं वशीकर्तु-13
मित्यर्थः, न चात्रान्तरा यच्छन्दगभितवाक्यावतारेण वाक्यान्तरप्रवेशो नाम सूत्रदूषणमिति वाच्यं, आपत्वात् 18 | तस्यादुष्टत्वेन शिष्टव्यवहारात् , यथा आर्षे छन्दस्सु वर्णाद्याधिक्यादावपि न छन्दोभ्रष्टत्वदोषो महापुरुषोपज्ञत्वेनापर्व-ISil ॥२२॥ | त्वात् तथैव शिष्टव्यवहारात् , राजवरो-भरतः 'कागणिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् काकणीरसं गृहीत्वा-लात्वा || | तमिस्रागुहायाः पौरस्त्यपाश्चात्ययोः कटकयो:-भित्त्योः प्राकृतत्वाद् द्विवचने बहुवचन, योजनान्तरितानि प्रमाणांगुल-18
अनुक्रम
[७८]
immitrinary
~ 457~
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४]
निष्पन्नयोजनमपान्तराले मुक्त्वा कृतानीत्यर्थः, अवगाहनापेक्षयोत्सेधांगुलनिष्पन्नपञ्चधनुःशतमानविष्कम्भाणि, वृत्तत्वाद् विष्कम्भग्रहणेनायामोऽपि तावानेवावगन्तव्यः, उत्सेधांगुलप्रमीयमाणावगाहनाकेन चक्रिणा हस्तात्तत्काकणीरलेन क्रियमाणत्वान्मण्डलानां, अयं च मण्डलावगाहः स्वस्वप्रकाश्ययोजनमध्ये एव गण्यते, अन्यथा ४९ मण्डलानामवगाहे पिण्डीक्रियमाणे गुहाभित्त्योरायाम उक्त प्रमाणाधिकप्रमाणः प्रसज्येतेति, अत एव च योजनोद्योतकराणि-योजनमात्रक्षेत्रप्रकाशकानि, यावन्मण्डलान्तराल तावन्मण्डलप्रकाश्यं गुहाभित्तिक्षेत्रमित्यर्थः, चक्रस्य नेमिः-परिधिस्तत्संस्थानानि वृत्ता| नीत्यर्थः तथा चन्द्रमण्डलस्य प्रतिनिकाशानि-भास्वरत्वेन सदृशानि, एकोनपञ्चाशतं मण्डलानि-वृत्तहिरण्यरेखारू| पाणि, काकणीरत्नस्य सुवर्णमयत्वात् , आलिखन् २-विन्यस्यन् २ अनुप्रविशति गुहामिति प्रकरणाद् ज्ञेयं, वीप्साव
चनमाभीक्ष्ण्यद्योतनाथ, मण्डलालिखनक्रमश्चार्य-गुहायां प्रविशन् भरतः पाश्चात्यपान्धजनप्रकाशकरणाय दक्षिणद्वारे | IS पूर्वदिकपाटे प्रथम योजनं मुक्त्वा प्रधर्म मण्डलमालिखति, ततो गोमूत्रिकान्यायेनोत्तरतः पश्चिमदिकपाटतोडके
तृतीययोजनादौ द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तेनैव न्यायेन पूर्वदिकपाटतोडुके चतुर्थयोजनादौ तृतीय, ततः पश्चिम-19 18 दिग्भित्तौ पश्चमयोजनादौ चतुर्थ ततः पूर्वदिग्भित्तौ षष्ठयोजनादौ पञ्चमं ततः पश्चिमदिग्भित्तौ सप्तमयोजनादौ षष्ठं |
ततः पूर्वदिग्भित्तौ अष्टमयोजनादौ सप्तमं एवं तावद् वाच्यं यावदष्टचत्वारिंशत्तममुत्तरदिग्द्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे प्रथमयोजनादी एकोनपञ्चाशत्तमं चोत्तरदिग्द्वारसत्कपूर्वदिक्कपाटे द्वितीययोजनादावालिखति, एवमेकस्यां भित्ती पश्च
TAGSasasasasaca0e0%acapa
दीप अनुक्रम [७८]
~ 458~
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशान्तिचन्द्री
[५४]
दीप
श्रीजम्यू- 12 विंशतिरपरस्यां चतुर्विंशतिरित्येकोनपशाशत्मण्डलानि भवन्ति, एतानि च किल गुहायां तिर्यग द्वादश योजनानि प्रका-||||३ वक्षस्कारे
शयन्ति, ऊर्ध्वाधोभावेन चाष्टौ योजनानि, गुहाया विस्तरोच्चत्वस्य च क्रमेण एतावत एव भावात् , अग्रतः पृष्ठतश्च मणिरलं योजनं प्रकाशयन्तीति, ननु गोमूत्रिकाविरचनक्रमेण मण्डलालिखने कथमेषां योजनान्तरितत्वं ?, योकभित्तिगतम-11
काकिणीरया वृत्तिः
लेन मण्डण्डलापेक्षया तर्हि योजनद्वयान्तरितत्वमापद्येत अन्यधा द्वितीयमण्डलस्यैकभित्तिगतत्वप्रसङ्गः तथा च सति गोमूत्रि-लालेखनंच ॥२२॥ काभङ्गः, अन्यभित्तिगतमण्डलापेक्षया तु तिर्यक् साधिकद्वादशयोजनान्तरितत्वमिति, उच्यते, पूर्वभित्ती प्रथम मण्डल-18 म.५४
मालिखति, ततस्तरसम्मुखप्रदेशापेक्षया योजनातिकमे द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तत्सम्मुखप्रदेशापेक्षया योजनातिशक्रमे पूर्वभित्तौ तृतीयमण्डलमालिखतीत्यादिक्रमेण मण्डलकरणात् गोमूत्रिकाकारत्वं योजनान्तरितत्वं च व्यक्तमे-13
वेति सर्व सुस्थं, अथ पश्चाशयोजनायामायां गुहायामेकोनपश्चाशता मण्डलैर्यत्प्रकाशकरणमुक्तमित्यस्थार्थस्य सुखावबोधाय संक्षेपेण मण्डलपश्चकस्य स्थापना दयते, यथा- एवं पद्कोष्ठकपरिकल्पितषड़योजनक्षेत्रे एकस्मिन् पक्षे त्रीणि अन्यत्र तु द्वे इत्युभयमीलने पञ्च मण्डलानि भवन्ति, एवमनेन गोमूत्रिकामण्डलकविरचनक्रमेण | पश्चाशयोजनायामायां गुहायामेकोनपञ्चाशतोऽपि मण्डलकानां स्थापना स्वयं ज्ञेयेति, अन्ये तु पूर्वदिकपाटे आदी ॥२२८॥ योजनं मुक्त्वा प्रथमं मण्डलं करोति, ततः पश्चिमदिकपाटे तत्सम्मुखं द्वितीय, ततः पूर्वदिकपाटगतप्रथममंडलातु-18
त्तरतो योजनं मुक्त्वा पूर्वदिकपाटतोड़के तृतीयं, ततः पश्चिमदिवपाटतोडुके तत्सम्मुखं चतुर्थ, ततः पूर्वदिकपाट-19 Suntleman
Hanumarimination
Serenceaeses
अनुक्रम
[७८]
~ 459~
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Sence
प्रत सूत्रांक
[५४]
दीप अनुक्रम [७८]
तोहके तृतीयान्मंडलायोजनं मुक्त्वा पञ्चम, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिकपाटतोडके षष्ठं, पुनस्तावतैवान्तरालेन पूर्वदि| ग्भित्ती सप्तम, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिग्भित्तौ अष्टम, ततः पूर्वदिग्भित्ती सप्तमान्मंडलायोजनान्तरे नवम, ततः पश्चि|| मभित्ती अष्टमात् तावतैवान्तरालेन दशममित्येवं पूर्वभित्तौ पश्चिमभित्तौ च मंडलान्यालिखस्तावद् गच्छति यावच्चरममष्टनवतितमं मंडलमुत्तरद्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे, एवं चैकैकस्यां भित्तावेकोनपञ्चाशत् मंडलानि उभयमीलने चाष्टनवतिरिति, अत्र चोभयोः पक्षयोर्मध्ये आद्यः आवश्यकवृहदत्तिटिप्पनकप्रवचनसारोद्धारवृहद्वत्यादाबुक्को द्वितीयस्तु मलयगिरिकतक्षेत्रविचारवृत्त्यादाविति । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते--तए 'मित्यादि, ततो-मंडलालिखनानन्तरं सा | तमिस्रागुहा भरतेन राज्ञा तैयोजनान्तरितर्यावयोजनोयोतकरैरेकोनपञ्चाशता मंडलैरालिख्यमानैः क्षिप्रमेवालोक-18 । सौरप्रकाशं भूता-प्राप्ता, एवमुद्योतं-चान्द्रप्रकाशं भूता, किं वहना, दिवसभूता-दिनसदृशी जाता चाप्यभवत् । 18|चः समुच्चये, अपिः सम्भावनायां, तेन नेयं गुहा मंडलप्रकाशपूर्णा किन्तु सम्भाव्यते आलोकभूता, एवमतनपद-18 काद्वयमपि, कचिदिवसभूअ इत्यस्य स्थाने दीवसयभूया इति पाठस्तत्र दीपशतानि भूतेति व्याख्येयं, अथान्तगुहं वत्त-18 मानयोः परपारं जिगमिषूणां प्रतिबन्धकभूतयोरुन्मन्नानिमझानामकनयोः स्वरूपं प्ररूपयितुकामः प्राहतीसे णं तिमिसगुहाए बहुमादेसभाए एत्थ णं उम्मगणिमग्गजलाओ णाग दुने महाणईओ पण्णताओ, जाओ णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिलामो भित्तिकलगाओ पथूढाओ समाणीओ पञ्चत्यिमेणं सिंधु महाणई समप्पेंति, से केणद्वेणं भंते! एवं बुभइ समग
श्रीजम्यू.
अथ उन्मग्ना-निमग्ना स्वरुपम् वर्ण्यते
~ 460~
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
३वक्षस्कारे उन्मन्नानि मनाखरूपं
सू. ५५
सूत्रांक [१५]
॥२२९॥
दीप
णिमाजलामो महाणईमो १, गोलमा ! जाणं सम्मग्गजलाए महाणईए तण वा पत्तं वा कह वा सकर या आसे पा हत्यी व रहे वा जोहे वा मणुस्से वा पक्खिप्पइ तणं उम्मग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणि २ एगते यळंति एडेइ, अण्णं णिमग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कटु वा सक्करं वा जाव मणुस्से वा पक्खिप्पा तणं णिमग्गजलामहाणई तिक्खुत्तो आहुणि २ अंतो जलंसि णिमजावेइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं बुधइ-उम्मग्गणिमम्गजलाओ महाणईओ, तए पं से भरहे राया चकरयणदेसिअमग्गे अणेगराय० महया उक्किट्ठसीहणाय जाव करेमाणे २ सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले ण कूडे ण जेणेव उम्मगजला महाणई तेणेव उवागच्छइ २त्ता बद्धहरयणं सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! उम्मग्गणिमगजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिबिट्टे अयलमकंपे अभेजकवए सालंबणवाहाए सबरयणामए सुहसंकमे करेहि करेता मम एमाणत्तिों खिषामेव पञ्चप्पिणाहि, तए णं से वारयणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे हतुट्ठचित्तमाण दिए जाब विणएण पडिसुणेइ २ त्ता खिप्पामेव उस्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिबिहे जाव सुहसंकमे करेइ २ ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छह २त्ता जाव एअमात्ति पञ्चप्पिणइ, तए णं से मरहे राया सबंधाबारबले उम्मम्मणिमम्गजलाओ महाणईओ तेहिं अणेगखंभसयसण्णिविट्ठोहिं जाव सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिस्सगुहाए उत्तरिलस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया २ कोचारवं करेमाणा सरसरस्सग्गाई २ ठाणाई पगोसकिस्था (सूत्रं ५५) 'तीसे णमित्यादि, तस्यास्तमिस्रागुहायाः बहुमध्यदेशभागे दक्षिणद्वारतस्तोडकसमेनकविंशतियोजनेभ्यः परतः
अनुक्रम
[७९]
seenecesब
~ 461~
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
ececene
प्रत सूत्रांक
[१५]
e
दीप
18| उत्तरद्वारतस्तोडकसमेनकविंशतियोजनेभ्योऽर्थाक् च उन्मन्नजलानिमग्नजलानाम्यौ महानद्यौ प्रज्ञप्ते, ये तमिस्रागुहायाः
पौरस्त्यात् भित्ति कटकादू-भित्तिप्रदेशात् प्रन्यूढे निर्गते-सत्यौ पाश्चात्येन कटकेन विभिन्न सिन्धुमहानदी समामुतः। 19 प्रविशत इत्यर्थः, नित्यप्रवृत्तत्वाद्वर्तमानानिर्देशः, अधानयोरन्वर्थ पृच्छन्नाह-से केण?ण'मित्यादि, अथ केनार्थेन | | भदन्त ! एवमुच्यते उन्मनजलनिमग्नजले महानद्यौ ?, गौतम! यत् णमिति प्राग्वत् उन्मग्नजलायां महानद्यां तृणं
वा पत्रं वा काष्ठं वा शर्करा वा-पत्खण्डः, अत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः, अन्धो वा हस्ती वा रथो वा योधो वा-13 १ सुभटः सेनायाः प्रकरणाचतुर्णा सेनाङ्गानां कथनं मनुष्यो वा प्रक्षिप्यते तत् तृणादिकं उन्मन्नजला महानदी विकृ-18
त्व:-श्रीन वारान् आधूय २-भ्रमयित्वा २ जलेन सदाऽऽहत्याहत्येत्यर्थः एकान्ते-जलप्रदेशाद्दवीयसि स्थाने निर्जलप्रदेशे 'एडेत्ति छईयति, तीरे प्रक्षिपतीत्यर्थः, तुम्बीफलमिव शिला उन्मग्नजले उन्मजतीत्यर्थः, अत एवोन्मज्जति | शिलादिकमस्मादिति उन्मन्नं, 'कृयू बहुल'मिति वचनात् अपादाने क्तप्रत्ययः, सन्मनं जलं यस्यां सा तथा, अथ द्वितीयाया नामान्वर्थ:-तत्पूर्वोकं वस्तुजातं निमनजला महानदी विकृत्वः आधूयाधूय अन्तर्जलं किं? मज्जयति शिलेव तुम्बीफलं निमग्नाजले निमज्जतीत्यर्थः, अत एव निमज्जयत्यस्मिन् तृणादिकमखिलं वस्तुजातमिति निमग्नं, बहुलव|चनादधिकरणे क्तप्रत्ययः, निमग्नं जलं यस्यां सा तथा, अवैतन्निगमयति-से तेणटेण'मित्यादि, सुगर्म, अनयोश्च यथाक्रममुन्मजकत्वे निमजकत्वे वस्तुस्वभाव एव शरणं, तस्य चातर्कणीयत्वात् ,इमे च द्वे अपि त्रियोजनविस्तरे गुहाविस्ता
अनुक्रम
[७९]
Sanileon
~ 462~
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५५]
दीप
श्रीजम्यू- रायामे अन्योऽन्यं द्वियोजनान्तरे बोध्ये,अनयोर्यथा गुहामध्यदेशवत्तित्वं तथा सुखावबोधाय स्थापनया दश्यते, यथा-12वक्षस्कारे
द्वीपशा- IRIT.10३३" ।।अथ दुरवगाहे नद्यौ विबुध्य भरतो यच्चकार तदाह-'तएण' मित्यादि, ततः स भरती | उन्मन्नानि न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
___ राजा चक्ररलदेशितमार्गः'अणेगराये'त्यादि सूत्र व्याख्या च प्राग्वत् सिन्ध्वा महानद्याः मनांखरूपं | पौरस्त्ये कूले-पूर्वतटे उभयत्रापिणंशब्दो वाक्यालङ्कारे,अयमर्थः-तमिनाया अधो वहन्ती सिन्धुस्तमिस्रापूर्वकटकमवधीकृ॥२३०॥
त्येवेति,उन्मनाऽपिपूर्वकटकान्निर्गताऽस्तीत्युभयोरेकस्थानतासूचनार्थकमिदं सूत्र,यत्रैवोन्मग्नजला महानदी तत्रैवोपागच्छ. |ति, उपागत्य च वर्द्धकिरनं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति, यदवादीत् तदाह-खिप्पामेव'त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय! उन्मग्ननिमग्नजलयोर्महानद्योः अनेकानि स्तम्भशतानि तेषु सन्निविष्टौ-सुसंस्थिती अतएवाचली महाबलाक्रान्तत्वेऽपि न स्वस्थानाच्चलतः अकम्पो-दृढी,सकम्पसेतुबन्धे तु तितीर्पूणां सज चलन स्यादिति दृढतरनिर्माणावित्यर्थः, अथवा अचलो-गिरिस्तद्वत् अकम्पो,मकारोऽलाक्षणिकः अभेद्यकवचाविवाभेद्यकवची अभेद्यसन्नाहा विति, जलादिभ्यो न भेदं यात इत्यर्थः,नन्वनन्तरोक्तविशेषणाभ्यामुत्तरतां तदुपरि पातशङ्का न स्यात्तथापि उभयपार्थयोर्जलपातशङ्का नापनीता भवतीत्याह-सालम्बने-उपरि गच्छतामवलम्बनभूतेन हदतरभित्तिरूपेणालम्बनेन सहिते बाहे-उभयपाश्वों ययोस्ती तथा, IS|॥२०॥
सर्वात्मना रसमयी आदिदेवचरित्रप्रवचनसारोद्धारवृत्त्योस्तु क्रमेण पाषाणमयकाष्ठमयौ तावुक्तौ स्त इति, तथा सुखेन. । संक्रमः-पादविक्षेपो यत्र ती तथा, इरशी संक्रमी-सेतू कुरुष्व कृत्वा च मामेतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्ययेति । अथ स
अनुक्रम
ekese
[७९]
~ 463~
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५]
18| किं चकारेत्याह-'तए ण'मित्यादि, अनुवादसूत्रत्वात् सर्व प्राग्वत्, ननु उन्मग्नजलाजलस्योन्मजकत्वस्वभावत्वेन 18| कथं तत्र संक्रमार्थकशिलास्तम्भादिन्यासः सुस्थितो भवति?, स च दीर्घपट्टशालाकारो न च जलोपरिकाष्ठादिमयः 18| सम्भवति, तस्यासारत्वेन भारासहत्वात् , उच्यते, वर्द्धकिरतकृतत्वेन दिव्यशकेरचिन्त्यशक्तिकत्वात् , अनेन चा पकि
राज्यपरिसमाप्तेः सर्वोऽपि लोक उत्तरति, गुहा च तावन्तं कालमपावृतैवास्ते मण्डलान्यपि तथैव तिष्ठन्ति, उपरते तु चक्रिणि सर्वमुपरमत इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तेरभिप्रायः, त्रिषष्टीयाजितचरित्रे तु "उद्घाटितं गुहाद्वार, गुहान्त| मण्डलानि च । तावत्तान्यपि तिष्ठन्ति, यावज्जीवति चक्रभृत् ॥१॥" इत्युक्तमस्ति । 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो
| राजा स्कन्धावाररूपवलसहितस्ताभ्यां सङ्कमाभ्यां उन्मन्ननिमग्नजले महानद्यी उत्तरति-परपारं गच्छति, एवं उत्तरसो 18|| गच्छति राजराजे उत्तरद्वारे यज्जातं तदाह-'तए 'मित्यादि. ततो-नयतिक्रमणानन्तरं तस्यास्तमिस्रागुहाया उत्तरा-12
हस्य द्वारस्य कपाटी स्वयमेव सेनानीदण्डरलापातमन्तरेणेत्यर्थः महया २ इति सूत्रदेशेन पूर्वसूचस्मरणं तेन महया || २ सहेणमिति बोध्यं क्रौञ्चारवं कुर्वाणी सरस्सरत्ति कुर्वन्तौ च स्वके स्वके स्थाने प्रत्यवाय्वष्किषातां व्याख्या तु
प्राग्वत्, ननु यदि दाक्षिणात्यद्वारकपाटौ सेनापतिप्रयोगपूर्वकमुघटेते तथा इमावपि कथं न तथा ?, उच्यते, एकशः || सेनापतिसत्यापितकपाटोद्घाटनविधिसन्तुष्टगुहाधिपसुरानुकूलाशयेन द्वितीयपक्षकपाटौ स्वयमेवोघटेते इति ॥ अथो[त्तरभरतार्द्धविजयं विवक्षुस्तत्रत्यविजेतव्यजनस्वरूपमाह
दीप
अनुक्रम
[७९]
अथ उत्तरार्ध-भरतक्षेत्रस्य विहाय-वर्णनं क्रियते
~464~
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
peeselse
JO
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया कृत्तिः ॥२३१॥
|३वक्षस्कारे
आपातचिलातयुद्ध मू.५६
सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम
ceaeesecomesese
तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरभरहे वासे बहवे आवाहाणाम चिलाया परिवसंति अड्डा दित्ता वित्ता विच्छिण्णविउलभवणसंयणासणजाणवाहणाइन्ना बहुधणबहुजायस्वरयया आओगपओगसंपउत्ता विच्छडिअपउरभत्ताणा बहुदासीदासगोमहिसगबेलापभूआ बहुजणस्स अपरिभूआ सूरा वीरा विकता विच्छिण्णविउलबलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु उद्धलक्खा यावि होत्था, तए णं तेसिमाबाडचिलायाण अण्णया कयाई विसयसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भवित्या, तंजहा-अकाले गजिअं अकाले विज्जुआ अकाले पायवा पुष्प॑ति अमिक्खणं २ आगासे देवयाओ णचंति, दए गं ते आवादचिलाया विसबसि बहूई उप्पाइमसयाई पाउब्भूयाई पासंति पासित्ता अण्णमणं सदाति २ ता एवं बवासी-एवं खलु देवाणुप्पिा! अम्हं विससि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भूआई तंजहा-अकाले गनिमे अकाले विजुआ अकाले पायथा पुष्फति अमिक्खणं २ आगासे देवयाओ णचंति, तंण णजइ णं देवागुप्पिा ! अम्ह विसयस के मन्ने उबदवे भविस्सईत्तिक? ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागर पविट्ठा करपल पल्हत्थमुद्दा अट्टरमाणोवगया भूमिगयदि डिआ झिआयंति, तए णं से भरहे राया चकरयणदेसिअमग्गे जाव समुहरवभूअं पिव करेमाणे २ तिमिसगुहाओ उत्तरिलेणं दारेणं णीति ससिब मेहंधवारणिबहा, तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणी एजमाणं पासंति २चा आसुरुत्ता सहा चंडिकिया कुविआ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णं सहाति २ सा एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिा! केह अप्पत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउदसे हिरिसिरिपरिवजिए जे णं अम्हं विसयस्स उरि विरिएणं धमागच्छद तं तहा गं पत्तामो देवाणुप्पिा ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरिं चिरिएणं णो हब्वमागच्छइत्तिकटू अण्णमण्णस्स अंतिए एअमठु पडिसुति २चा सण्णबद्धवम्मियकवआ उप्पीलिअसरासणपट्टिा पिणद्धगेविज्जा बद्धआविबीमलवरचिंधपट्टा
[८०]
10
॥२३॥
JinEleinitinAL
~ 465~
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५६]
दीप अनुक्रम
गहिआम्हप्पहरणा जेणेव भरहस्स रणो अगाणीकं तेणेव उवागच्छति २ चा भरहस्स रणो अगाणीएण पद्धि संपलग्गा यावि होत्या, वए णं ते आवाउचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं हयमहिजपवरवीरघाइभविवडिअचिंधदयपदार्ग किच्छप्पा
णोवगयं विसोदिसि पडिसेहिंति । (सूत्र ५६) । 'तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि, तस्मिन् काले-तृतीयारकप्रान्ते तस्मिन् समये-यंत्र भरत उत्तरभरतार्द्धविजिगीषया तमिस्रातो निर्याति, उत्तरार्धभरतनाम्नि वर्षे-क्षेत्रे आपाता इति नाना किराताः परिवसन्ति, आढ्या-धनिनः हप्ता-दर्पवन्तः वित्ताः-तज्जातीयेषु प्रसिद्धाः विस्तीर्णविपुलानि-अतिविपुलानि भवनानि येषां ते तथा शयनासनानि प्रतीतानि यानानि-रथादीनि वाहनानि-अश्वादीनि आकीर्णानि-गुणवन्ति येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः,
बहु-प्रभूतं धन-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदात् चतुर्विध येषां ते तथा, बहु-बहुनी जातरूपरजते-स्वर्णरूप्ये येषां ते तथा 8 ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, आयोगो-द्विगुणादिवृक्ष्यर्थ प्रदानं प्रयोगश्च कलान्तरं ती संप्रयुक्तौ-व्यापारितौ यैस्ते तथा, 18| विच्छर्दिते-त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसम्भवात् सञ्जातविच्छई वा-सविस्तारे बहुप्रकारत्वात् प्रचुरे
प्रभूते भक्तपाने-अन्नपानीये येषां ते तथा, बहवो दासीदासाः गोमहिषाश्च प्रतीताः गवेलका-उरभ्राः एते प्रभूता येषां ते || हा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, बहुजनेनापरिभूताः, सूत्रे षष्ठी आर्षत्वात् , सूराः प्रतिज्ञातनिर्वहणे दाने वा वीराः संग्रामे | 18| विक्रान्ता-भूमण्डलाक्रमणसमर्धा विस्तीर्णविपुले-अतिविपुले बलवाहने-सैन्यगवादिके दुःखानाकुलत्वात् येषां ते तथा,
बहुषु समरेषु-सम्परायेषु, अनेन चातिभयानकत्वं सूचित, समररूपेषु संपरायेषु-युद्धेषु लब्धलक्षा-अमोपहस्ताश्चाय
Được managemens
[८०]
~ 466~
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
49
भीज
प्रत
सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम
भवन् , सामान्यतो युद्धेषु च वल्गनादिरूपेषु केचन लब्धलक्षा भवेयुः परं तव्यवच्छेदाय समरेष्वित्युक्तं, अथ यत्तेषां विक्षस्कारे द्वीपशा-18| मंडले जातं तदाह-तए ण'मित्यादि, तत इति-कथान्तरप्रबन्धे तेपामापातकिरातानां अन्यदा कदाचित-चक्रव-1|| आपातचिागमनकालात्पूर्व, अत्र तेषामित्येतावतैयोकेन प्रकरणाद् विशेष्यप्राप्ती यदापातकिरातानामित्युक्तं तद्विस्मरणशीलानां
| लातयुद्ध या वृत्तिः
&| विनेयानां व्युत्पादनायेति, विषये-देशे बहूनि औत्पातिकशतानि-उत्पातसत्कशतानि, अरिष्ठसूचकनिमित्तशतानीत्यर्थः,। ॥२३२॥ |प्रादुरभूवन्-प्रकटीवभूवुः, तद्यथा-अकाले प्रावृटू कालव्यतिरिक्तकाले गजितं अकाले विद्युतः अकाले-स्वस्वपुष्पकालव्य-10
|तिरिक्तकाले पादपाः पुष्प्यन्ति अभीक्ष्णं २-पुनः २ आकाशे देवता-भूत विशेषा नृत्यन्ति, अथ ते किं चकुरित्याह-18 18| तए णमित्यादि, ततः-उत्पातभवनानन्तरं ते आपातकिराता विषये बहूनि औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतानि पश्यन्ति, 18 18 दृष्ट्वा चान्योऽन्यं शब्दयन्ति-आकारयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमयादिषुः कीदृशाश्च तेऽभूवनित्याह-'एवं 8
खलु'इत्यादि, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण खलुनिश्चये देवानुप्रिया-ऋजुस्वभावा अस्माकं विषये बहूनि औत्पातिकशतानि || प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-अकाले गर्जितं इत्यादि प्राग्वत्, तन्न ज्ञायते देवानुप्रिया! अस्माकं विषयस्य को मन्ये इति 18 |वितकार्थे निपातः, तेन मन्ये इति सम्भावयामः उपद्रवो भविष्यति इतिकृत्वा अपहतमनःसंकल्पा-विमनस्काः 81 |चिन्तया-राज्यभ्रंशधनापहारादिचिन्तनेन यः शोक एव दुष्पारत्वात् सागरस्तत्र प्रविष्टा करतले पर्यस्तं-निवेशितं मुखं यैस्ते तथा आर्तध्यानोपगताः भूमिगतदृष्टिका ध्यायन्ति, आपतिते सङ्कटे किं कर्त्तव्यमिति चिन्तयन्तीति, अथ
[८०]
॥२३२॥
~ 467~
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ५६ ]
दीप
अनुक्रम [८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ५६ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
प्रस्तूयमानं भरतस्य चरितमाह — 'तए ण' मित्यादि, ततस्तेषामुत्पातचिन्तनानन्तरं स भरतो राजा चक्ररत्नादेशितमागों यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहां कुर्वन् २ तमिस्रागुहातः औत्तराहेण द्वारेण निरेति- निर्याति शशीव मेघान्ध| कार निवहात् । 'तए ण' मित्यादि, ततो गुहातो निर्गमानन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञः अग्रानीकं सैन्याप्रभागं 'एज्यमाणंति इयत्, आगच्छत् पश्यति दृष्ट्वा च आसुरुता इत्यादि पदपंचकं प्राग्वत् अन्योऽन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा चैवमवादिपुरिति, किमवादिपुरित्याह- 'तए ण' मित्यादि, एष देवानुप्रियाः ! कश्चिदज्ञातनामकोऽप्रार्थित प्रार्थकादिविशेषणविशिष्टो वर्त्तते योऽस्माकं विषयस्य – देशस्योपरि वीर्येणात्मशक्त्या 'हव्वं'ति शीघ्रमागच्छति, तत्तस्मातथा णमिति - इमं भरतराजानमित्यर्थः 'घत्तामो' त्ति क्षिपामो दिशो दिशि विकीर्णसैन्यं कुर्म्म इत्यर्थः, यथा एषोऽस्माकं विषयस्योपरि वीर्येण नो शीघ्रमागच्छेत्, सूत्रे सप्तम्यर्थे वर्त्तमानानिर्देशः प्राकृतत्वात् एतस्मिन् समये किं जात| मित्याह -' इतिकट्टु' इत्यादि, इति - अनन्तरोदितं कृत्वा - विचिन्त्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति - ओमिति प्रतिपद्यन्ते, प्रतिश्रुत्य च सन्नद्धबद्धेत्यादिपदानि प्राग्वत् यत्रैव भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकेन सार्धं संप्रलग्नाश्चाप्यभूवन्, योद्धुमिति शेषः, युद्धाय प्रवृत्ता इत्यर्थः अथ ते किं कुर्वन्ती| त्याह- 'तए णं ते आवाडचिलाया' इत्यादि, ततो युद्धप्रवृत्त्यनन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकं हताः केचन प्राणत्याजनेन मथिताः केचन मानमथनेन घातिताश्च केचन प्रहारदानेन प्रवरवीराः - प्रधानयोधा यत्र तत्तथा
Fur Fraternae Cy
~ 468~
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
न्तिचन्द्री
मरने
सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्मू-18 पदव्यत्ययः माकृतस्यात्, विपतिताः-स्वस्थानतो भ्रष्टाश्चिप्रधाना ध्वजा-गरुडध्वजादयः पताकाच-सवित्तरध्वना३वक्षस्कारे यत्र तत्तथा ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः, कृच्छ्रेण-महता कष्टेन प्राणान् उपगत-प्राप्तं कथमपि धृतप्राणमितियावत् ,
अधरनखया इतिः 18 दिशः सकाशादपरदिशि-स्वाभिमतदिक्त्याजनेनापरस्यां दिशि प्रक्षिप्य इति शेषः प्रतिषेधयन्ति-युद्धान्निवर्तयन्ती- "५७
त्यर्थः ॥ इतो भरतसैन्ये किं जातमित्याह॥२३३॥
वएणं से सेणापलस्स णेआ वेढो जाव भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाइचिलाएहिं यमहिवपवरवीर जाव दिसो दिसं पडिसेहि पासइ २ ता आसुरुत्ते रुढे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं आसरयणं दुरूह २ ता तए णं तं असीइमंगुलमूसि णवणउइमंगुलपरिणाहं अट्ठसयमंगुलमाय बत्तीसमंगुलमूसिअसिरं चउरंगुलकन्नागं वीसइअंगुलबाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलसअंगुलजंघागं चउरंगुलमूसिअखुरं मुत्तोलीसंवत्तवलिअमझं इसिं अंगुलपणयपहुं संणयपढे संगयप? सुजायपहुं पसत्यपद्धं विसिहपर्ट एणीजाणुग्णयवित्थयथद्धपट्ट वित्तलयकसणिवायअंकेडणपहारपरिवजिअंगं तवणिजयासगाहिलाणं वरकणगसुफुलथासगविचित्तरयणरज्जुपार्स कंचणमणिकणगपयरगणाणाविहघंटिआजालमुत्तिआजालएहि परिमंदिवेणं पढण सोभमाणेण सोभमाणं कोयणइंदनीलमरगयमसारगलमुहमंडणरइमं आविद्धमाणिकसुत्तगविभूसियं कणगामयपउगसुकयतिलकं देवमइविकप्पि सुरव- ॥8॥२३॥ रिंदवाणजोगगावयं सुरूवं दूइज्जमाणपंचमारुचामरामेलग धेरैतं अणभवाई अभेलणवर्ण कोकासिमनहलपत्तलच्छ सयावरणनवकणमतविभववणिजतालुजीहासयं सिरिआमिसेअघोणं पोक्खरपत्तमिव सलिलविंदुजुर्म अचंचलं चंपलसरीर चोक्खचरग
E
[८०]
X
nimationyms
अथ अश्वरत्न आदि १४ रत्नानाम् स्वरुपम् तत् कार्याणि सह वर्ण्यते
~ 469~
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
-----.........------ मूलं [१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
परिवायगोविच हिलीयमाणं २ खुरचलणचचपुडेहिं धरणिअलं अभिहणमाण २ दोषि अचलणे जमगसमग मुहायो विणिग्गर्म व सिग्घयाए मुलाणतंतुउदगमवि णिस्साए पकमंत जाइकुलरूवपश्यपसत्यवारसावत्तगविसुद्धलक्खणं सुकुलप्पसूर्य मेहाविभहयविणीभ अणुभतणुअमुकुमाललोमनिच्छर्षि सुजायभमरमणपवणगालजणचवलसिग्धगामि इसिमिव खंतिसमए मुसीसमिव परक्सवाविणीयं उदगहुतवहपासाणपसुकरमससफरसबालुइल्लतडकढगविसमपन्भारगिरिदरीमुलंघणपिल्लणणियारणासमत्वं अचंडपावियं वरावाति अजंसुपाति अकालतालुच कालहसि मिअनिदंगवेसन लिमपरिसह जञ्चजातीर्थ मलिहाणि सुगपत्तसुबण्णकोमलं मणाभिरामं कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावई कमेण समभिरुढे कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडलनिभं सत्तुजणवि. पासणं कणगरयणदंड णवमालिअपुष्फसुरहिगंधि णाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोत्तमिसिमिसिंततिक्खधार दिवं सम्परयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो सरुक्ससिंगद्विवंतकालायसविपुललोहदंडकवरवइरभेदकं जाव सवत्थअप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं -पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो। अचंगुलसोणीको जेडपमाणो असी भणिओ ॥ १ ॥ असिरयणं परवइस्स हत्याओ तं गहिऊग जेषेव भावाडचिलाया तेणेव बागल्छइ २ ता आवाचिलाएहिं सद्धिं संपलग्गे आवि होत्था ॥ तए णं से सुसेणे सेणाषा ते आवाडचिलाए हयमहिअपवरवीरघाइअजावदिसोदिसि पडिसेहेइ (सूत्र ५७)
'तए 'मित्यादि, ततः-खसैन्यप्रतिषेधनादनम्तरं सेनाबलस्प-सेनारूपस्य बलस्य नेता-स्वामी वेष्टक:-वस्तुIS विषयवर्णकोऽत्र सेनानीसत्कः संपूर्णः पूर्वोको माह्या यावद् भरतख राज्ञोऽयानीकं आपातकिरातैर्यावत्प्रतिषेषितं ।
eceneseseseseseRececenter
दीप
26
अनुक्रम [८१-८३]
~ 470~
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [३], ---------
-----.........------ मूलं [१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
५७
या वृत्तिः
गाथा
श्रीजम्बू- पश्यति दृष्ट्वा च आशुरुप्तादिविशेषणविशिष्टः कमलापीडं कमलामेलं वा नामाश्वरलमारोहति, अथ प्रस्तावागतं तद्वर्ण- ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- नमाह-'तएणं तं असीइमंगुलमूसि इत्यारभ्य सेणावई कमेण समभिरूढे' इत्येतदन्तेन सूत्रेण, पदयोजना तत इति
अश्वरलखन्तिचन्द्री
FISI|क्रियाक्रमसूचकं वचनं ते प्रसिद्धगुणं नाना कमलामेलं अश्वरलं सेनापतिः क्रमेण-सन्नाहादिपरिधानविधिना सम-||
IN भिरूढ-आरूढा, किंविशिष्टमित्याह-अशीत्यङ्गुलानि उच्छ्रितं, अंगुलं चात्र मानविशेषः, नवनवत्यंगुलानि-एको-18 ॥२३४॥ नशतांगुलप्रमाणः परिणाहो-मध्यपरिधिर्यख तत्तथा, अष्टोत्तरशतांगुलानि आयतं-दीर्घ, सर्वत्र मकारोऽलाक्षणिकः,
तुरगाणां तुङ्गत्वं खुरतः प्रारभ्य कर्णावधि परिणाहः पृष्ठपार्बोदरान्तरावधि आयामो मुखादापुच्छमूलं, यदाह परासरःISI"मुखादापेचकं देय, पृष्ठपार्बोदरान्तरात् । आनाह उच्छ्यः पादाद, विज्ञेयो यावदासनम् ॥१॥" तत्रोच्चत्वस
यामेलनाय साक्षादेव सूत्रकृदाह-'बत्तीस मित्यादि, द्वात्रिंशदंगुलोच्छ्रितशिरस्कं चतुरंगुलप्रमाणकर्णकं, हस्वकर्णत्वस्य जात्यतुरगलक्षणत्वात्, अनेन कर्णयोरुचत्वेनास्य स्थिरयौवनत्वमभिहितं शंकुकर्णत्वात् , हयानां यौवनपाते वनिता|| स्तनयोरिव अनयोः पातः स्यात् , दीर्घत्वं चार्षत्वात् , अत्र योजनायाः क्रमप्राधान्येन पूर्व कर्णविशेषणं ज्ञेयं पश्चाच्छिरसः, अश्वश्रवसो मूर्ध्न उच्चतरत्वात् , विंशत्यङ्गुलप्रमाणा बाहा-शिरोभागाधोवती जानुनोरुपरिवर्ती प्राक्चरणभागो यस्य तत्तथा, चतुरंगुलप्रमाणं जानु-बाहुजंघासंधिरूपोऽवयवो यस्य तत्तथा, तथा षोडशांगुलप्रमाणा जंघाजान्षधोवर्ती खुराबधिरवयवो यस्य तत्तथा, चतुरंगुलोच्छ्रिताः खुराः पादतलरूपा अवयवा यस्य तत्तथा, एषामवयवा
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
॥२३॥
~ 471~
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
སྦྲ + ཊྛལླཱ ཡྻ
[८१-८३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५७] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........ आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
नामुञ्चत्वमीलने सर्वसङ्ख्या पूर्वोक्ता अशीत्यंगुलरूपा, मकारः सर्वत्रालाक्षणिकः, यतु श्रेष्ठाश्वमानमाश्रित्य लौकिकपारासरग्रन्थे 'जघन्यमध्यश्रेष्ठानामश्वानामायतिर्भवेत् । अंगुलानां शतं हीनं विंशत्या दशभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ परिणाहोऽकुलानि स्यात्, सप्ततिः सप्तसप्ततिः । एकाशीतिः समासेन, त्रिविधं स्याद् यथाक्रमम् ॥ २ ॥ तथा षष्टिश्चतुःषष्टिरष्टषष्टिः समुच्छ्रयः । द्विपञ्चसप्तकयुता, विंशतिः स्यान्मुखायतिः ॥ ३ ॥ इत्यत्र सप्तनवत्यंगुलान्यायतिः एकाशीत्यंगुलानि परिणाहः अष्टषष्ट्यंगुठानि समुच्छ्रयः सप्तविंशत्यंगुलानि मुखायतिरित्युक्तमस्ति तदपरश्रेष्ठह्यानाश्रित्य न तु हयरलमाश्रित्य दृष्टश्चायं विशेषः पुरुषोत्सेधे सामुद्रिके उत्तमपुरुषाणामष्टोत्तरशतांगुलान्युत्सेधः उत्तमोत्तमानां तु विंशत्युत्तरशतांगुलानि, अनेनास्य प्रमाणोपेतस्वं सूचितं, सम्प्रत्यवयवेषु लक्षणोपेतत्वं सूचयति - मुकोलीनाम अध उपरि च सङ्कीर्णा मध्ये त्वीपद्विशाला कोष्ठिका तद्वत् संवृत्तं सम्यग्वर्तुलं वलितं-वलनस्वभावं न तु स्तब्धं मध्यं यस्य तत्तथा परिणाहस्य मध्यपरिधिरूपस्यात्रैव चिन्त्यमानत्वादु चितेयमुपमा, ईपदंगुलं यावत् प्रणतं नन्तुमारब्धं अतिप्रणतस्योपवेष्टुर्दुःखावहत्वात् पृष्ठं पर्याणस्थानं यस्य तत्तथा आरोहक सुखावहपृष्ठ कमित्यर्थः, सम्यग् - अधोऽधः क्रमेण नतं पृष्ठं यस्य तत्तथा, सङ्गतं - देहप्रमाणोचितं पृष्ठं यस्य तत्तथा, सुजातं जन्मदोषरहितं पृष्ठं यस्य तत्तथा, प्रशस्तंशालिहोत्रलक्षणानुसारि पृष्ठं यस्य तत्तथा, किं बहुना ?, विशिष्टपृष्ठं- प्रधानपृष्ठमितियावत् उक्तं पृष्ठे पर्याणस्थानवर्णनं, अथ तत्रैवावशिष्टभागं विशिनष्टि-एणी-हरिणी तस्या जानुवदुन्नतं उभयपार्श्वयोर्विस्तृतं च चरमभागे स्तब्धं
Fur Fate &POC
~472~
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
---------------- मूलं [५७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
[१७]
गाथा
I सुदृढं पृष्ठं यस्य तत्तथा, वेत्रो-जलवंशः लता-कम्बा कशा-चर्मदण्डस्तेषां निपातैस्तथा अंकेलणप्रहारैः-तर्णनकवि-३ वक्षस्कारे द्वीपशा- । शेषाघातैश्च परिवर्जितं अश्ववारमनोऽनुकूलचारित्वात् अङ्ग यस्य तत्तथा, तपनीयमयाः स्थासका-दर्पणाकारा अश्वा-18| अश्वरणसन्तिचन्द्री- लङ्कारविशेषा यत्र तदेवंविघं अहिलाणं-मुखसंयमनविशेषो यस्य तत्तथा, वरकनकमयानि सुष्टु-शोभनानि पुष्पाणिं गरज या वृत्तिः
३ स्थासकाश्च तैर्विचित्रा रत्नमयी रजुः पार्श्वयोः-पृष्ठोदरान्तवर्त्यवयवविशेषयोर्यस्य तत्तथा,बध्यन्ते हि पट्टिकाः पर्याणदृढी-1 ॥२३५॥ १ करणार्थमश्वानामुभयोः पार्श्वयोरिति, काश्चनयुतमणिमयानि केवलकनकमयानि च प्रतरकाणि-पत्रिकाभिधानभूषणानि
अन्तरान्तरा येषु तानि तथाभूतानि नानाविधानि घण्टिकाजालानि मौक्तिकजालकानि च तैः परिमण्डितेन पृष्ठेन शोभमा|नेन शोभमान कतनादिरसमयं मुखमण्डनार्थ रचितं आविद्धमाणिक्य-प्रीतमाणिक्यं सूत्रक-हयमुखभूपणविशेषस्तेन
विभूषितं कनकमयपझेन मुष्ठु कृतं तिलकं यस्य तत्तथा, देवमत्या-स्वर्गिचातुर्येण विविधप्रकारेण कल्पितं-सज्जितं IS सुरवरेन्द्रवाहनम्-उच्चैःश्रवा हयस्तस्य योग्या-मण्डलीकरणाभ्यासस्तस्या 'वज गता'वित्यस्याचप्रत्यये प्रज-पापकं, ये
गत्यर्थास्ते प्राप्त्यर्था इति वचनात् अयं भावः-यादशं खुरलीश्रममुच्चैःश्रवाः करोति ताशमयमपि, अत्र षष्ठ्यर्थे द्वितीया |
प्राकृतत्वात् , तथा सुरूप-सुन्दरं द्रवन्ति-इतस्ततो दोलायमानानि सहजचञ्चलाङ्गत्वाद् गलभालमौलिकर्णद्वयमूलविनिवे-18| ॥२३५॥ & शितत्वेन पञ्चसयाकानि यानि चारूणि चामराणि तेषां मेलक-एकस्मिन् मूर्द्धनि सङ्गमस्तं घरद्-वहत, चामरा इत्यत्र || 18 त्रीनिर्देशः समयसिद्ध एव; गौडमतेन वा चामरा इत्यावन्तः शब्दः, अत्रापीडशब्दे व्याख्यायमाने मूओलंकार एवोक्तो
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
Examil
~ 473~
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
.----....-------- मूलं [५७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
IS भवति, न तु कर्णाचलङ्कारः, दृश्यन्ते च लोके एक चामरं मूर्द्धालङ्कारभूतं चामरद्वयं च कर्णालङ्कारभूतं एकं च भाला
लङ्कारभूतं एकं च कंठालङ्कारभूतमिति, तेन यथोक्तव्याख्यानमेव सुन्दरं, अथ देवमतिविकल्पितादिविशेषणविशिष्ट उच्चैःश्रवानाम शकयोऽपि स्थादित्याह-अनभ्रवाह-अनचारी अभ्रवाहः अश्वः उच्चैःश्रवास्तदन्यं 'अदम्भवाह-18 | मिति पाठे तु अदच-भूरि वहतीति अदभ्रवाहस्तत्, अभेले-दोषादिना असंकुचिते नयने यस्य तत्तथा, अत एवं कोकासिते-विकसिते बहले-दृढे अनभुपातित्वात् पत्रले-पक्ष्मवती न तु ऐन्द्रलुप्तिकरोगवशाद्रोमरहिते अक्षिणी यस्य तत्तथा, सदावरणे-शोभा दंशमशकादिरक्षार्थ वा प्रच्छादनपटे नवकनकानि-नव्यस्वर्णानि यस्य तत्तथा स्वर्णतन्तु| व्यूतपच्छादनपटमित्यर्थः, तप्ततपनीयं तद्वदरुणे तालुजिहे यत्र तदेवंविधमास्वं यस्य तत्तथा, ततः पूर्वविशेषणेन
कर्मधारयः, श्रीकाया-लक्ष्म्या अभिषेक:-अभिषेचनं नाम शारीरलक्षणं घोणायां-नासिकायां यस्य तत्तथा, क्वचित्पा-15 | ठान्तरे तु सिरिसातिसेअघोणमिति दृश्यते, तत्र शिरीष-शिरीषपुष्पं तद्वदतिश्वेता घोणा यस्येति, तथा पुष्करपत्रमिव-कमलदलमिव सलिलस्य विम्दयो यत्र तदेवंविध, कोऽर्थः-यथा पुष्करपत्र जलान्तरस्थं वाताहतजलबिन्दु-18 | युतं भवति तथेदमपि सलिलं-पानीयं लावण्यमित्यर्थः तस्य बिन्दवः-छटोस्तैर्युत, बिन्दुग्रहणेनात्र प्रत्यङ्गं लावण्यं । || सूचितं, लोकेऽपि प्रसिद्धमेतत् मुखेऽस्य पानीयमिति, अचंचल-स्वामिकार्यकरणे स्थिरं, साधुवाहित्वात् , चञ्चल-
शरीरं जातिस्वभावात् , अथ यदि चञ्चलाङ्गस्तदाऽमेध्यवस्तुष्वपि स्वाङ्गप्रवर्तको भविष्यतीत्याह-चोक्षः-कृतस्नान
comneeeeeeeeeeeeeeeeeeeasraerner
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
naheme
~ 474~
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ཙྪཱ + བྷུལླཱ ཡྻ
守
[८१-८३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [३],
मूलं [५७] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२३६॥
श्वरको धाटिभिक्षाचरः परिव्राजको-मस्करी ततश्चरकसहितः परिव्राजकश्चरकपरिव्राजकः, प्रथमा द्वितीयार्थे तेन चरकपरिव्राजकमिव प्राकृतशैल्या अकारमश्लेषादभिलीयमानं २ - अशुचिसंसर्गशङ्कया आत्मानं संवृण्वन्तं २, आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विर्वचनं, एवमग्रेऽपि भाव्यं, अथास्य क्रियाविशेषैर्जात्यत्वं लक्षयति- खुरप्रधानश्चरणाः खुरचरणास्तेषां चचपुटाःआघातविशेषास्तैर्धरणितलमभिन्नदभिन्नद्, ननु भूतलविलिखनं सामान्यतः पुंस इवाश्वस्यापलक्षणमिति, न, एतस्य लक्षणत्वेन शालिहोत्रे प्रतिपादनाद्, यतः “खुरैः खनेद्यः पृथिवीमश्यो लोकोत्तरः स्मृत" इति, अश्ववारप्रयोगनर्त्तितो हि हयोऽप्रपादावुदस्यति, तत्रास्य शक्तिं विशेषणद्वारेण दर्शयति-द्वावपि च चरणौ यमकसमकं युगपत् मुखाद्विनिर्गम दिव- निस्सारयदिव, कोऽर्थः १ - इदमप्रपादादूर्ध्वं नयत्तथा मुखान्तिकं प्रापयति यथा जन उत्प्रेक्षते - इमौ मुखाद्विनिर्गमयति, पुनः क्रियान्तरदर्शनेनैतद्विशिनष्टि- शीघ्रतया - लाघवविशेषेण मृणालं - पद्मनाउं तस्य तन्तुः - सूत्राकारोऽवयवविशेषः स च उदकं च ते अपि निश्राय-अवलंब्य आस्तामन्यद् दुर्गादिकं प्रक्रामत्-सशरत्, अयमर्थ:यथा अभ्येषां सञ्चरिष्णूनां मृणालतंतूद के पादावष्टम्भके न भवतः तथा नास्येति सूत्रे चैकवचनमार्थत्वात्, तथा जातिः - मातृपक्षः कुलं - पितृपक्षः रूपं - सदाकारसंस्थानं तेषां प्रत्ययो विश्वासो येभ्यस्ते च ते प्रशस्ताः प्रदक्षिणावहत्वात् शुभस्थानस्थितत्वाच्च ये द्वादशावर्त्तास्ते यत्र तत्तथा, बहुमीहिलक्षणः कप्रत्ययः, विशुद्धानि - दोषामिश्रितानि लक्षणानि अश्वशास्त्रप्रसिद्धानि यस्य तत्तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, द्वादशावर्त्ताश्च इमे वराहोक्ताः-"ये प्रमाण
Fur Prate&Pay
~ 475~
३वक्षस्कारे अश्वरबखझरने व.
५७
॥२३६॥
ww.jellyys
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
.----....-------- मूलं [५७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
18| गलकर्णसंस्थिताः, पृष्ठमध्यनयनोपरिस्थिताः । ओष्ठसक्थिभुजकुक्षिपार्श्वगास्ते ललाटसहिताः सुशोभनाः ॥११॥"
अन वृत्तिलेश:-प्रपाणं-उत्तरोष्ठतलं गल:-कण्ठः यत्र स्थित आवों देवमणिनामा हयानां महालक्षणतया प्रसिद्धः को-प्रतीती एतेषु स्थानेषु संस्थिताः तथा पृष्ठ-पर्याणस्थानं मध्य प्रतीतं नयने अपि तथैव तदुपरि स्थिताः, तथा 8 | ओष्ठौ प्रतीतौ सक्थिनी-पाश्चात्यपादयोर्जानूपरिभागः भुजौ-पापादयोर्जानूपरिभागः कुक्षिः-अत्र वामो दक्षिण-18 कक्ष्यावर्तस्य गहितत्वात् पाचौं प्रसिद्धौ तद्गताः ललाट-प्रतीतं तदावर्तेन सहिताः, अत्र कर्णनयनादिस्थानानां द्विस-8 क्याकत्वेऽपि जात्यपेक्षया द्वादशैव स्थानानि, स्थानभेदानुसारेण स्थानिभेदा अपि द्वादशैवेति, तथा सुकुलप्रसूत-8 हयशास्त्रोतक्षत्रियाश्वपितृक मेधावि-स्वामिपदसंज्ञादिप्राप्ताधारक भद्रक-अदुष्ट विनीतं-स्वाभीष्टकारित्वात् अणु-8 कतनुकानां-अतिसूक्ष्माणां सुकुमालाना लोनां स्निग्धा छवियत्र तत्तथा, सुष्ठ यात-मनं यस्य तत्तथा, अमरमनःपवनगरुडाः प्रतीताः तान् वेगाधिक्येन जयतीति अमरमनःपवनगरुडजयि, अत एव चपलशीघ्रगामि च-अतिशीघ्र-8 |गतिकं पश्चात्पदद्वयकर्मधारयः क्षान्त्या-क्रोधाभावेन न त्वसामर्थेन या क्षमा तया ऋषिमिव-अनगारमिव, क्षमाप्रधानत्वात्तस्य, न चरणैर्लत्तादायकं न च मुखेन दशकं न च पुच्छाघातकरमिति, सुशिष्यमिव प्रत्यक्षताविनीतं, अत्र ताकारः प्राकृतशैलीभवस्तेन प्रत्यक्षविनीत, उदकं हुतवहः-अग्निः पाषाणः पासू-रेणुः कर्दमः सशर्कर-सलपपलखण्ड | स्थानं सवालुक-अत्र स्वार्थे इलप्रत्ययः बहुलसिकताकणं स्थानं तट-नदीतट कटको-गिरिनितम्बः विषममाग्भारौ |
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
NElenni
Tol
~ 476~
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
.---.........------ मूलं [१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
५७
गाथा
श्रीजम्यू-18 प्राग्व गिरिवर्यः प्रतीतास्तासुलंघन-अतिक्रीमणं प्रेरणं-आरूहस्य पुंसोऽभिमुखदर्शनधापनादिना संज्ञाकरणपूर्व प्रवर्तन || वक्षस्कारे
द्वीपशा-18 निस्तारणा-तत्पारप्रापणा तत्र समर्थ, न चण्डै:-उप्रैः सुभटैः रणे पातितं दण्डवत् पततीत्येवंशीलं दण्डपाति अतर्कि- अश्वरबखन्तिचन्द्री-18| तमेव प्रतिपक्षस्कन्धावारे पतनशीलं, अनेनास्योत्पतनस्वभावोऽपि सूचितः, मार्गादिखेंदमेदस्यपि नाश्रु पातवतीत्येया वृत्तिः
| वंशीलमननुपाति, तथा अकालतालु-अश्यामतालुकं, पूर्व रक्ततालुत्वे वर्णितेऽपि यत्पुनरकालतालु इति विशेषणं । ॥२३७॥ तत्तालुनः श्यामत्वमतितरामपलक्षणमिति तनिषेधख्यापनार्थ, चः समुच्चये, काले-अराजकानां राजनिर्णयार्थ के अधि-18
वासनादिके समये हेपते-शब्दायतीत्येवंशीलं कालहेषि, जिता निद्रा-आलस्यं वेन तत् जितनिद्रं त्यकालस्यमित्यर्थः, कार्येष्वप्रमादित्वात्, यथाश्रुतार्थे व्याख्यायमाने हयशास्त्रविरोधः-तथाहि-"सदैव निद्रावशगा, निद्राच्छे-18 दस्य सम्भवः । जायते सगरे प्राप्ते, कर्करस्य च भक्षणे ॥१॥” इति, यद्वा जितनिद्रत्वं समरावसरप्राप्तत्वादश्वरलत्वेनाल्पनिद्राकत्वाच्च, तथा गवेषक-सूत्रपुरीपोत्सर्गादौ उचितानुचितस्थानान्वेषक, जितपरीपह-शीतातपाद्यातुरत्वेऽपि अखिन्नं, जात्या प्रधाना जाति:-मातृपक्षस्तत्र भवं जात्यजातीयं निर्दोषमातृकमित्यर्थः, निर्दोषपितृकत्वं तु प्रागुकं, ईद|ग्गुणयुक्तो हि समये स्वामिने न द्रुह्यति मातृमुखापगतस्वकाणत्वव्यतिकरप्रकुपितचिन्तितस्वामिद्रोहककिशोरवत , 181॥२३७॥ मलि:-विवकिलकुसुम सदच्छुनः अश्लेष्मलत्वेनानाविलमपूतिगन्धि च प्राण-पोथो यस्य तत्तथा, ईकारः प्राकृतशेलीभवः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, शुकपत्रवत्-शुकपिच्छवत् सुष्टु वर्णो यस्य तत्तथा, कोमलं च कायेन, ततः पदव
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
~ 477~
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
-----.........------- मूलं [१७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५७]
गाथा
यस्य कर्मधारयसमासः, मनोऽमिरामं 'कमलामेलं णामे णमित्यादि प्राग्वद् व्याख्येयमिति । ततः स किं कृतवानि-18 त्याह-'कुवलय'इत्यादि, तदसिरलं नरपतेर्हस्ताद् गृहीत्वा स सेनानीर्यत्रैवापातकिरातास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य || चापातकिरातैः सार्द्ध सम्पलग्नश्चाप्यभूथोडुमिति शेषः, तच्छन्दवाक्यं यच्छदवाक्यमपेक्षत इत्याहियते यदिति, 18
यत् किंविशिष्टमित्याह-कुवलयदलश्यामलं नीलोत्पलदलसदृशमित्यर्थः, च समुच्चये, रजनिकरमण्डल-चन्द्रबिम्ब || तस्य निर्भ-सदृशं परिभ्राम्यमाणं यद्वर्तुलिततेजस्कत्वेन चन्द्रमण्डलाकारं दृश्यते इत्यर्थः, अथवा रजनिकरमण्डल-181 | निमें मुखे इति शेषः, शत्रुजनविना शनं, कनकरत्नमयो दण्डो-हस्तग्रहणयोग्यो मुष्टियस्य तत्तथा, नषमालिकानामकं 18 यत्पुष्पं तद्वत् सुरभिगन्धो यस्य तत्तथा, नानामणिमय्यो लता-बझ्याकारचित्राणि तासां भक्तयो-विविधरचनाताभिश्चित्रं-आश्चर्यकृत् , चा विशेषणसमुच्चये, प्रधौता-शाणोत्तारेण निष्किट्टीकृता अत एव 'मिसिमिसेंति'त्ति दीप्यमाना तीक्ष्णा धारा यस्य तत्तथा, दिव्यं खजरल-खड्गजातिप्रधानं लोकेऽनुपमान अनन्यसारंशत्वात् , तच्च पुनर्वहुगुणमस्तीति शेषः, कीदर्श-शा-वेणवः रूक्षा-वृक्षाः शृङ्गाणि महिषादीनां अस्थीमि प्रतीतानि दन्ता हस्त्यादीनां कालायसं-लोहं विपुललोहदण्डकश्च-वरवनं हीरकजातीय तेषां भेदक, अब बनधमेन दुर्भेद्यानामपि भेदकत्वं कथितं, किं बहुना?-यावत्सर्वत्राप्रतिहतं, दुर्भेदेऽपि वस्तुनि अमीघशक्तिकमित्यर्थः, किं पुनर्जङ्गमानां-चराणां पशुमनुयादीनां देहेषु, अत्र यावच्छब्दो न संग्राहकः किन्तु भेदकशक्तिप्रकोक्तयेऽवधिवधानः, अथ तस्य मानमाह-पश्चा
दीप
985090393
अनुक्रम [८१-८३]
न
JinEleinitia
~ 478~
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
------....-------- मूलं [५७] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]
न्तिचन्द्री
या वृचिः
गाथा
भीजम्बू-
शदङ्गलानि दीपों यः षोडशांगुलानि विस्तीर्णः अौगुलप्रमाणा श्रोणि:-वाहल्य पिण्डो यस्य स तथा, ज्येष्ठ-उत्कृष्ट || शदालान'
३वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रमाणं यस्य स तथा, एवंविधः सोऽसिर्भणितः, यदन्यत्रासेात्रिंशदंगुलप्रमाणत्वं श्रूयते तन्मध्यममानापेक्षया, यदाह है
| मेघमुखदे18 वराहा--"अंगुलशता.मुत्तम ऊनः स्यात्पञ्चविंशतिः खङ्गः।" एतयोः सङ्ख्ययोर्मध्ये मध्यम इति, उत्तरवाक्ययोजना |
वाराधना|त प्राक कता, अथ सैन्येशायोधनादनन्तरं किं जातमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः आयोधनादनन्तरं स सुपेणः |
|दृष्टिय स. ॥२३८॥
|| सेनापतिस्तानापातकिरातान् हतमथितेत्यादिविशेषणविशिष्टान् यावत्करणात् विहडिअधिद्धयपडागे किच्छप्पा-| णोवगए इति ग्राह्य, दिशो दिशि प्रतिषेधयति । अथ ते किं कुर्वन्तीत्याहतए गं ते आवाडचिलाया सुसेणसेणावइणा हयमहिमा जाब पडिसेहिया समाणा भीआ तत्था वहिआ उविग्गा संजायभया अस्थामा अबला अवीरिआ अपुरिसकारपरकमा अधारणिजमितिकगु अणेगाई जोअणाई अवकमति २ चा एगयओ मिलायति २ चा जेणेच सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छंति २ ता वालुआसंथारए संथरेंति २त्ता वालुआसंथारए दुरूहंति २ ता अट्ठमभचाई पगिण्हति २त्ता वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ जे सेसि कुलदेवया मेहमुद्दाणामं णागकुमारा देवा ते मणसी करेमाणा २ चिट्ठति । तए ण तेसिमावाढचिलायाणं अट्ठमभत्तसि परिणमाणसि मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं आस
॥२३॥ णाई चलंति, तए 4 ते मेहमुहा णागकुमारा देवा आसणाई चलिआई पासंति २ चा ओहिं पति २ ता आवाढचिलाए ओहिणा आभोएंति २त्ता अण्णमण्णं सहाति २ चा एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिा ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे आवाढचि
दीप
अनुक्रम [८१-८३]
~ 479~
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८]
लाया सिंधूए महाणईए वालासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुद्दे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा २ चिट्ठति, तं से खलु देवाणुप्पिा ! अम्हं आवाडचिलायाणं अंतिए पाउम्भवित्तएत्तिक? अण्णमण्णस्स अंतिए एअमढ परिसुणेति पडिमुणेत्ता ताए उचिट्ठाए तुरिआए जाव वीतिवयमाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे उत्तरतभरहे बासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छवि २ त्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणिआई पंचवण्णाई वत्थाई पवर परिहिआ ते आवाढपिलाए एवं क्यासी- भो आवाडचिलाया ! जणं तुम्भे देवाणुप्पिआ! वालुभासंथारोवगया उत्ताणगा अपसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा २ चिट्ठह तए णं अम्हे मेहमुहा गागकुमारा देवा तुभं कुलदेवया तुम्हें अंतिअण्णं पाउन्भूना, तं वदह णं देवाणुप्पिा ! किं करेमो के व भे मणसाइए!, तए णं ते आवाढचिलाया मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं अंतिए एअमहं सोचा णिसम्म हहतुद्वचित्तमाणदिआ जाव हिअया खडाए उट्ठन्ति २ चा जेणेव मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छति २ ता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलि कटु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्वाति २ ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिए! केइ अपत्थिअपत्थर दुरंतपंतलक्खणे जाव. हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं अम्हं विसयस्स उवरि विरिपणं हवमागच्छा, तं तहा णं धत्तेह देवाणुप्पिा ! जहा णं एस अन्दं विसयस्स उबरि विरिएणं णो हल्बमागच्छद, तए ण ते मेहमुहा मागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं वयासी-एस णं भो देवाणुप्पिा ! भरहे णाम राया पाउरतचकवट्टी महिद्धीए महज्जुईए जाव महासोक्खे, णो खलु एस सको केणइ देवेण वा दाणवेण वा किष्णरेण चा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधवेण वा सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पओगेण वा मतप्पओगेण वा उहवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहावित्र
दीप अनुक्रम
[८४]
~ 480~
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
181 मेघमुखदे
प्रत सूत्रांक [५८]
या चिः
५८
दीप अनुक्रम
श्रीजम्म
ण तुम्म पिहयाएं भैरहस्स रणी उपसर्ग करेगोसिकट तर्सि आवाडचिलायणि अतिआओ अकमन्ति २ सा वैअिसम्पारण वक्षस्कारे द्वीपशा- सम्मोहणति २ सा महाणीम विसवति ती अॅणैव भरहस्स रैणी विजयक्खंधारिणिवैसे तेणेव उजागति सा ऑप न्तिचन्द्री- विजयपखंधावारणिधेसस खिप्पामेव पतणुतणायंति खिप्पामेव विजुवायन्ति २ सा सिप्पामैव जुगर्मुसलमुद्विपमाणमेत्ताहि
8 वाराधना
वृष्टिश्च सू. धाराहि ओधमेषं सत्तर वासं वासिङ पवत्ता याचि होत्था । ( सूत्र ५८) ॥२३९॥ "तए णमित्यादि, ततस्ते आपातकिराताः सुपेणसेनापतिना हतमथिता यावत्प्रतिषेधिताः सन्तो भीता-भयाकुलाः
विस्ता-जष्टाः व्यथिता:-महारादिताः उद्विग्नाः-अथ पुनर्नानेन सार्द्ध युद्ध्यामहे इत्यपुनःकरणाशयवन्तः, ईदृशाः ।
कुत इत्याह-सञ्जातभया:-सम्यक् प्राप्तभयाः अस्थामान:-सामान्यतः शक्तिविकलाः अबला:-शारीरशक्तिविकलाः पुरुषIS|| कार:-पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमस्ताभ्यां रहिताः अधारणीयं-धारयितुमशक्यं परवलमिति-1|| | कृत्वा अनेकानि योजनान्यपकामन्ति-अपसरन्ति पलायन्ते इत्यर्थः, ततः किं कुर्वन्तीत्याह-अवकमित्ता'इत्यादि,181
अपक्रम्य ते आपातकिराता एकतः-एकस्मिन् स्थाने मेलयन्ति मेलापकं कुर्वन्तीत्यर्थः, मेलयित्वा च यत्रैव सिन्धुर्म-18 HR हानदी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च वालुकासंस्तारकान् संस्तृणन्ति-सिकताकणमयान् संस्तारान् कुर्वन्ति, ISI ॥२३९॥
संस्तीयं च वालुकासंस्तारकानारोहन्ति, आरुह्य चाष्टमभकं प्रगृह्णन्ति, प्रगृह्य च वालुकासंस्तारोपगता उत्तानका:ऊर्ध्वमुखशायिनः अवसना-निर्वस्त्राः, एवं च परमातापनाकष्टमनुभवन्त इत्युक्त, अष्टमभक्तिका-दिनत्रयमनाहारिणः,
[८४]
eceaeseseeeee
JinElimitina-
mil
~ 481~
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८]
दीप अनुक्रम
18| ये तेषां कुलदेवताः-कुलवत्सला देवा मेघमुखा नाम्ना नागकुमारा देवास्तान मनसि कुर्वन्तः २ तिष्ठन्तीति । अथ | ॥ ते देवाः किमकुर्वन्नित्याह-तए ण'मित्यादि, ततः-चेतसि चिन्तानन्तरं तेपामापातकिरातानां अष्टमभक्ते परिण-1 18 मति सति परिपूर्णप्राये इत्यर्थः, मेघमुखानां नागकुमाराणां देवानामासनानि चलन्ति, ततस्ते मेघमुखा नागकुमारा IS| देवा आसनानि चलितानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चावधि प्रयुञ्जन्ति, प्रयुज्य चावधिना आपातकिरातानाभोगयन्ति, आभो-18
ग्य चान्योऽन्य शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमयादिषुरित्याह-एवं खलु'इत्यादि, एवं-इत्थमस्ति खलु:-18 निश्चये हे देवानुप्रियाः! किं तदित्याह-जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे आपातकिराताः सिन्ध्वां महानद्यां वालुकासंस्तारकान् उपगता:-प्राप्ताः सन्तः उत्तानका अवसना अष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवतान् भेषमुखनामकान || | नागकुमारान् देवान् मनसि कुर्वाणाः २ तिष्ठन्तीति , ततः श्रेयः खलु भो देवानुप्रिया । अस्माकमापातकिराता-S | नामन्तिके प्रादुर्भवितुं-समीपे प्रकटीभवितुमितिकृत्वा-पर्यालोच्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थ-अनन्तरोक्तमभिधेयं ||
प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, परस्परं साक्षीकृत्य प्रतिज्ञातं कार्य कर्त्तव्यमवश्यमिति दृढीभवन्तीत्यर्थः, प्रतिश्रवणा-SI ॥ नन्तरं ते यच्चकुस्तदाह-'पडिसुणेत्ता इत्यादि, प्रतिश्रुत्य च ते देवास्तयोत्कृष्टया त्वरितया गत्या यावद् व्यतित्रजन्तो।
२ यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपो यत्रैव चोत्तरभरताई वर्ष यत्रैव च सिन्धुर्महानदी यत्रैव चापातकिरातास्तत्रैवोपागच्छन्ति II उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपक्षाः सकिंकिणीकानि पञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितास्तानापातकिरातानेवमवादिषुः, ॥
[८४]
~ 482~
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [५८]
दीप
अनुक्रम [८४]
श्रीजम्बू- किमवादिषुरित्याह-हं भो!'इत्यादि, हं भो! इति सम्बोधने आपातकिराताः यत् णं वाक्यालङ्कारे सर्वत्र यूयं ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- | देवानुप्रिया! वालुकासंस्तारकोपगता यावदष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवता मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् मनसि |8| मेघमुखदेन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
|| कुवोणा २ स्तिष्ठत, ततो वयं मेघमुखा नागकुमारा देवा युष्माकं कुलदेवताः सन्तो युष्माकमन्तिकै प्रादुर्भूताः तद्ध- वाराधना
दत देवानुप्रियाः किं कुर्मः-किं कार्य विदध्मः किं आचेष्टामहे-कां चेष्टां कुर्मः-कस्मिन् व्यापारे प्रवामहे किं ॥२४॥ वा भे-भवतां मनःस्वादितं-मनोऽभीष्टमिति कुलदैवतप्रश्नानन्तरं ते यदचेष्टन्त तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततस्ते,
आपातकिराता मेघमुखानां नागकुमाराणां देवानामन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य च 'हहतुढे' त्यादि प्राग्वत् उत्थानं । उत्था-कध्वं भवनं तया उत्तिष्ठन्ति-ऊलींभवन्ति इत्यर्थः, उत्थाय च यत्रैव मेघमुखा नागकुमारा देवास्तत्रैवोपा-18 गच्छन्ति, उपागत्य च 'करयले'त्यादि प्राग्वत्, मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति, ISIN वर्धयित्वा चैवमवादिषुरिति, यदवादिषुस्तदाह-एस 'मित्यादि, देवानुप्रिया ! एष कश्चिदप्रार्थितप्रार्थकादिविशे-MS |पणविशिष्टो अस्मद्देशोपर्यागच्छति, तेन तथा प्रकारेण णमिति-एनं धत्तेह-प्रक्षिपत यथा पुन यातीति पिण्डार्थः,181 | अथ यन्मेघमुखा ऊचुस्तदाह-'तए णमित्यादि, व्यकं, किमवोचुस्ते इत्याह-एस 'मित्यादि, हे देवानुप्रिया ! ॥२४॥ एष भरतो नाम राजा चतुरंतचक्रवत्ती महर्द्धिको महाद्युतिको यावन्महासौख्यःनो खलु एष भरतः शक्यः केनचि-118
देवेन वा-वैमानिकेन दानवेन वा-भवनवासिना किन्नरेणेत्यादि पदचतुष्क व्यन्तरविशेषवाचकं तेन वा शस्त्रप्रयोयेण SaneleanISH
~ 483 ~
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८]
|| वा अग्निप्रयोगेण वा मन्त्रप्रयोगेण वा, त्रयाणामप्युत्तरोत्तरवलाधिकता ज्ञेया, शस्त्रेभ्योऽग्निस्तस्मान्मन्त्री बलाधिक 18| इति, उपद्रवयितुं वा-उपद्रवं कर्तुं प्रतिषेधयितुं वा-युष्मद्देशाक्रमणरूपपापकर्मतो निवर्तयितुमिति, सर्वत्र वाशब्दः 18|समुच्चयार्थः, तथापि-इत्थं दुस्साघे कार्ये सत्यपि युष्माकं प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्ग कुर्म इतिकृत्वा
तेपामापातकिरातानामन्तिकादपकामन्ति-यान्ति निस्सरन्तीत्यर्थः इति प्रतिज्ञातवन्तः, ततः किं कृतवन्त इत्याह|| 'अबक्कमित्ता वेउविअसमुग्याएण'मित्यादि, अपक्रम्य च-अजित्वा वैक्रियसमुपातेन-उत्तरवैक्रियार्थकप्रयत्नविशेपेण समवन्नन्ति-आत्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति शरीराद् बहिर्विकिरन्तीत्यर्थः समवहत्य च तैरात्मप्रदेशैर्गृहीतः पुद्गलै
पानीक-अचपटलक विकुर्वन्ति विकुळ च यत्रैव भरतस्य विजयस्कन्धावारनिवेशस्तवैवोपगच्छन्ति उपागत्य च 181 विजयस्कन्धावारनिवेशस्योपरि क्षिप्रमेवेत्यादि सर्व पुष्कलसंवर्तकमेघाधिकार इव वाच्यं यावद्धर्षितुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवंस्ते | देवा इति । इति व्यतिकरे यदरताधिपः करोति तदाह
तए णं से भरहे राया उपि विजयक्खंधावारस्स जुगमुसळमुहिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिँ ओघमेषं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ २ चा चम्मरयणं परामुसइ, तए पंसं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिवो जाव दुवालसजोषणाई तिरि पवित्यरइ तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया ससंधावारवले चम्मरवणं दुरूहइ २ त्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसद, लए ण णवणासहस्सकंचणसलापपरिमंदिभ महरिहं अउझं णिवणसुपसत्यवि सिहलकंचणसुपुढदद मिचराययवट्टलद्वअरविंदकण्णिभसमाणरूवं पस्थिपएसे
दीप अनुक्रम
[८४]
~484 ~
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [३], ---------
------------------- मल ५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [५९]]
म.५९
गाथा
अ पंजरवियाहस, विविहभचिचिचं मणिमुत्पदालतत्ततणिजपंचवपिात्रोअयणरूवरयं, रयणमरीईसमोप्पणाकप्पकारमपुरंजित विक्षस्कारे द्वीपशा
पलिय रायलच्छिविध मणमुवपणपंडूरपञ्चत्युअपह्रदेसभामा तहेव तवाणिज्जपट्टधम्मतपरिगय अहिअसस्पिरीभ सारपरयणिभरविम.. छत्ररतवर्णन्तिचन्द्री
उपडिपुष्णचंदमंजक्समाप्तरूवं. परिंदवामप्पमाणपगइवित्लाई कुमुद्रसंडघवलं रणो- संचारिमं विमाणं सूरातववायबुद्धिदोसाण म या वृतिः
सयकर नवापहि लई-अहवं बहुगुणदार्थ उऊण विवीममुहक्यच्छायें । छचायणं पहाणं सुद्धमई अप्पपुष्णाणं ॥१॥ पमा॥२४॥
णराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुबइतरं वग्धारिसमझदामकलावं सारयधवलंब्भरययणिगरप्पगासं दिवं उत्तरयणं महिवइस्ल धरणिमलपुण्णाईदौ । तप में से दिने छत्तरयणे भरहेण रण्णा परामुढे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोषणाई पवि. त्थरइ साहिआई तिरिस (सूत्र १९)
'तए कमित्यादि, ततो-दिव्यवनन्तरं स भरतो राजा स्वसैन्ये, उत्ताकारण सप्तराविप्रमाणाकालेन वर परत18 मेषवृष्टिं जायमानां पश्यति दृष्टा व चर्मर परामृशति, अत्रविसरागतं चर्मरतवर्णकसूत्रमतिविशलाह-तप पीमित्यादि, 1 सर्व पूर्ववत्, सपण'मित्यादि कण्ठ्यं, अथेदं छत्ररलं कीदृशमिति जिज्ञासूनां तत्वरूपप्रकटनायाहतप प'मिल्सदि.
तत इति प्रस्तावत्याबायोपम्यासे, छत्ररलं महीपतेः-भरतस्य धरणिवलस्म पूर्णचन्द्र इव पूर्णचन्द्रो वर्चदे. इदि योगा, || किंविशिकीननवतिसहस्रममाणाभिःकाशनमयबालाकामिा परिमण्डितं. महाप-बहुमूल्यं अथवा मान-पक्रवारी वास
मह-योग्यं अयोध्य-अयोधनीयं अस्मिन् हटेन हि प्रतिभटान्नं भखमुनिष्ठते इति भावः, निर्बण:-छिद्र तथ्यादिदोष-18
दीप अनुक्रम
[८५-८७]
~485~
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
------....-------- मूलं [५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९]
रहितः सुप्रशस्तो-उमणोपेतावान् विशिष्टता-अतिमनोजः अथवा विशिष्ट अतिभारतया एकदण्जेन दुर्यहत्वाद प्रतिद॥ण्डसहितः ईशश्च यो लटः कासनमकः सूपुष्टोऽतिभारसहत्वात् वण्डो यव तत्तथा, मूतु-सुकमालं पृथ्मृष्टत्वात राजत
रूप्यसम्बन्धि वृत्तं लष्टं यदरविन्दं तस्य कर्णिका-बीजकोशस्तेन समानं श्वेतत्वावृत्तत्वाच रूप-आकारों यस्य तत्तथा, बस्तिप्रदेशो नाम छत्रमध्यभागवती दण्डप्रक्षेपस्थानरूपस्तत्र, चः समुबवे, पअरेण-पञ्जराकारेण विराजितं, विविधाभिर्भकिमिा-विच्छित्तिभी रचनामकारश्चित्रं-चित्रकर्म यत्र तत्तभा, एतदेव विशिष्याइ-मणयः-प्राग्व्यावर्णितख| रूपा मुक्काप्रकाले प्रतीते तप्त-मूषोतीर्ण यचपनीयं-रकसुवर्ण पञ्चवर्णिकानि, सूत्रे मत्वर्थीय इकप्रत्यया, धौतानिशाणोत्सारेण दीसिमन्ति कृतानि रक्षानि मागव्यावर्णितस्वरूपाणि तैः रचितानि रूपाणि-पूर्णकलशादिमत्यवस्तूनामाकारा यत्र तत्तथा, पदव्यत्ययः माकृतत्वात्, तथा रत्नानां मरीचिसमर्पणा-समारचना तस्यां कल्पकरा-विधिकारिणः परिकर्मफारिण इत्यर्थः तैरतुसम्प्रदायक्रम रञ्जितं, यथोचितस्थानं रजदानात, मकारोऽलाक्षणिकः स्वार्थे ।
इलेको प्रत्यची प्राकृतशैलीभवी, राजलक्ष्मीचिन्हं अर्जुनाभिधानं यत्पाण्डुरस्वर्ण तेन प्रत्यवस्तृतः-आच्छादितः पृष्ठदेशIS भागो यस्य तत्तथा, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तश्चैवेति विशेषणान्तरपारम्भे मायमानं तत्कालध्मातमित्यर्थः यत्तप1 नीयं तस्य पलसेन परिगत-परिवेष्टितं, चतुर्वपि प्रान्तेषु रक्कसुवर्णपट्टा योजिताः सन्तीति, पदव्यत्ययः पूर्वक्त् 19 अत पषाधिकसश्रीकं शारद-शरत्कालसत्को रजनिकर:-चन्द्रस्तद्विमळ-निर्मल प्रतिपूर्णचन्ब्रमण्डलसमानरूपं ततो
3000202900aecse5000900
गाथा
दीप अनुक्रम
[८५-८७]
~486~
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
-----...-....------ मूलं [५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [५९]
गाथा
विशेषणसमासः, नरेन्द्रः-प्रस्तावाद् भरतस्तस्य व्यायामः-तिर्यप्रसारितोभयबाहुप्रमाणो मानविशेषस्तेन प्रमाणेन वक्षस्कारे
प्रकृत्या--स्वभावेन विस्तृत, यत्तु चक्रिपरामृष्ट साधिकद्वादशयोजनानि विस्तृणाति तदस्य कारणिको विस्तार इति छत्ररतवर्णया वृत्तिः
सूचितं, कुमुदानि-चन्द्रविकाशीनि तेषां खण्डं-वनं तद्वद्धबलं राज्ञो-भरतस्य 'संचारिम'त्ति सञ्चरणशीलं जङ्गमन सू. ५९
हाविमान आश्रयिणां सुखावहत्वात्, सूरातपवातवृष्टयः प्रतीतास्तासां ये दोषास्तेषां क्षयकरं यद्वा सूरातपवातवृष्टीनां || ॥२४२॥181दोषाणां च-विषादिजन्यानां क्षयकर, एतच्छत्रच्छायसमाश्रितानां हि विषादिदोषा अपि न प्रभवन्तीति विशेषः, तपो- ॥
गुण:-पूर्वजन्माचीर्णतपोगुणमहिम्ना लब्धं भरतेनेति शेषः, अथ गाथाबन्धेन विशेषणान्याह विचित्रत्वात्सूत्रकार-17 प्रवृत्तेः, अहतं-न केनापि योधमन्येन रणे खण्डितमित्यर्थः, बहूनां गुणानां-ऐश्वर्यादीनां दानं यस्य तत्तवा, ऋतूनां| हेमन्तादीनां विपरीता अथवा आर्षत्वात् पट्यर्थे पञ्चमीव्याख्यानेन ऋतुभ्यो विपरीता उष्णतौं शीता शीतत्तौ उष्णा 18 अत एव कृतसुखा छाया यस्य, सूत्रे कान्तस्य परनिपातो 'जातिकालसुखादेवा' (श्रीसिद्ध० अ०३ पा.१-सू०१५२)
इत्यनेन विकल्पविधानात्, छत्रेषु रलं-उत्कृष्टं प्रधानं छत्रगुणोपेतत्वात्, सुदुर्लभमल्पपुण्यानामिति, प्रमाणराज्ञास्वस्वकालोचितशरीरप्रमाणोपेतराज्ञां अष्टसहस्रलक्षणलक्षितत्वात् प्रमाणीभूतराज्ञां वा-षट्खण्डाधिपत्वेन सर्पराज-18
सम्मतत्वात्, एतेन वासुदेवादिब्युदासस्तेषां त्रिखण्डभोत्कृत्वात्, चक्रवर्तिना तपोगुणाना-सुचरितविशेषाणां फलानां | RI एकदेशभागरूपं, सूत्रे क्लीवलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात् , कोऽर्थः-चक्राधिपपूर्वार्जिततपसां फलं-सर्वस्वं नवनिधानचतुर्द-18
दीप अनुक्रम
2009880800
[८५-८७]
~ 487~
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--.....................- मूलं [५९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९]
गाथा
शरमादिषु विभक्तं, तेन तदेकदेशभूतमिदं छत्ररतं विमानवासेऽपि-देवत्वेऽपि दुर्लभतर, तत्र चक्रवर्तित्व-18| | स्थासम्भवात् , 'बग्धारिअ'त्ति प्रलम्बितो लम्बतयाऽवलम्बितो माल्यदाम्नां-पुष्पमालानां कलापः-समूहो यत्र तत्तथा, समन्ततः पुष्पमालावेष्टितमिति भावः, शारदानि-शरत्कालभावीनि धवलान्यभ्राणि-वाईछानि शारदश्च रजनिकर:-18 चन्द्रः तद्वत्प्रकाशो-भास्वरत्वजनित उद्द्योतो यस्य तत्तथा, दिव्यं-सहनदेवाधिष्ठितं शेषपदयोजना प्राक् कृतवास्ति, 18 अथ प्रकृतम्-'तए ण'मित्यादि, ततस्तद्दिव्यं छत्ररक्ष भरतेन राजा परामृष्टं-स्पृष्टं सक्षिप्रमेव चर्मरक्षवत् द्वादश-| योजनानि साधिकानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति, साधिकत्वं चात्र परिपूर्णचर्मरतपिधायकत्वेन, अन्यथा किरातकृतमपद्रवः स्वसैन्यस्य दुर्वारः स्यादिति ॥ अथ छत्ररक्षप्रविस्तरणानन्तरं यच्चके तदाहवए से भरहे राया छत्तरवणं संधावारस्सुवरि ठवेइ २ चा मणिरयणं परामुसइ वेढो जाव छत्तरयणस्स पत्थिभागसि ठवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअस्थमंतमेत्तसालिजबगोहूममुग्गमासतिलकुलत्यसद्विगनिष्फावचणगकोदवकोत्युंभरिकंगुवरगराळगअ
गधण्णावरणहारिअगअल्लगमूलगहलिहलाअवसतुंबकालिंगकविट्ठअंबबिलिअसवणि फायए सुकुसले गाहावहरवणेत्ति सव्वजणवीसुअगुणे । तए णं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूआणं सधण्णाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उबढवेति, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकमजोए समुयभूएणं सुदंसुदेणं सत्तरतं परिवसह'वि से बहाण विलिभं णेव भयं व विजए दुक्खं । भरहाहिवस्स रण्णो खंधावारस्सवि तहेव ॥ १॥ (सूत्र ६०)
दीप अनुक्रम
[८५-८७]
antillenni
~ 488~
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
---------------------- मल [६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०]
गाथा
श्रीजम्यू-18| 'तए भ'मित्यादि, ततः स भरतः छत्रस्तं स्कन्धाकारस्योपरि स्थापयति स्थापयित्वा च ममिरवं परामृशति,8श्वक्षस्कारे द्वीपशा-1|| वेढो जाति अत्र मणिरतस्य बेधको-वर्णको यावदिति सम्पूर्णो बक्तव्यः पूर्वोका, सब तोतं चतरंगुबप्पसाण'-8|चमेरले धान्तिचन्द्री
मित्यादिका, परामृश्य च चर्मरत्नछत्ररलसम्पुटमिलनमिरुखसूर्यचन्द्राचालोके सैन्येऽहर्निशमुद्योतार्थ खबरलास स्ति- न्याधुत्ता या वृत्तिः
भागे मणिरले स्थापयति, ननु एवं सति सकलसैम्यावरोधः समजनि, त्या च तत्र कथं भोजनादिविधिरित्याशमानं ॥२४३॥ प्रत्याह-'तस्त व अणतिवर मित्यादि, तस्य भरतस्य राज्ञः चो वाध्यान्तरथोतनार्थः गृहपतिरक-कौटुम्बिकरलम
स्तीति गम्यते, किंविशिष्ट !-इति-अमुना प्रकारेण सर्वजनेषु विश्रुता गुण्या यस्य सत्तया, इतीति किन विद्यते । मतिषर-अतिप्रधान वस्तु अपरं यस्मात्तत्तथा, चारुरूपमिति व्यक, तथा शिला व शिला अतिस्थिरत्वेन चर्मरतं तत्र 1 निहितमात्राणां-उप्तमात्राणां न तु लौकिकप्रसिद्धभूमिखेटनप्रभृतिकर्मसापेक्षाणां 'अत्थमंतत्ति अर्थवतां-प्रयोजनकता
भक्षणाधणामित्यर्थः शाल्यादीनां निष्पादक, यद्वा शिलानिहितानां प्रात इति गम्यं शाल्यादीनां अधर्मसमेतक्तिअस्तमवति मित्रे-सूर्ये सायमित्यर्थः निष्पादक, संवादी चायमप्यर्थी, यदुक्तं श्रीहेमाचार्यकृते ऋषभचरित्र"चर्म-101 रले च सुक्षेत्र, इवोप्तानि विषामुखे । सायं धान्यान्यजावन्त, गृहिरसप्रभावतः॥३॥" इत्यादि, उभयत्र व्याक्काने | ॥२४॥
पदानां व्यत्ययेन निर्देश प्राकृतत्वात्, तत्र शालयः कलमाचा: यवा-हयप्रियाः गोधमा मुना मापालिमा कुलत्या 18| प्रतीताः पष्टिकार पयहोरात्रैः परिपच्यमानास्तन्दुलाः निष्पावा-याला चणकाः कोद्रवा: प्रतीताः 'कोभरिसि
दीप अनुक्रम
[८८-९०
का
HElosonilon
~ 489~
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [३], ----------
--------------------- मल [६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०]
गाथा
|| कुस्तुम्मन्यो-धान्यककगार कङ्गावो-हमिछरस्काः 'वरगति वरट्टाः रालका-अल्पशिरस्कार उपलक्षणात् मेराव
योऽन्येऽपि धान्यभेदा प्रायाः, अनेकानि धाम्या इति-धाम्यापत्राणि वरणो-यनस्पतिविशेषस्तत्पत्राणि पनत्रभृतीनि है यानि हरितकानि पत्रचाकानि मेघमाववास्तुलकादीनि, पूर्व च कुस्तुंबरीशब्देन धान्यभेदः संगृहीतः इवानी तत्पत्राणां भक्ष्यत्वेन पत्रशाखेषु संग्रह इति न पौनरुत्य, अल्लगमूलगहलिह'त्ति आईकहरिने प्रतीते,पते च सूरणकन्दाघुपलक्षणभूते, मूलक-हस्तिदन्तकं, इदं च गृञ्जनादिमूलकोपलक्षणं, पतेन कन्दमूलशाके कथिते, अथ फलशाकान्याह-अलबुतुम्ब वपुष-चिर्भटजातीयं सुम्बकलिङ्गकपित्थामाम्लिकाः प्रतीताः, इदमपि फलशाकोपलक्षणं तेन जीवम्ल्यादिपरिग्रहः, अलाबुतुम्बयोर्लम्वत्ववृत्तत्वकृतो भेवा, सच तज्जातीयबीजकृत इति जनप्रसिद्धिः, सर्वशब्देन चोक्तातिरिकशाकादीनां ग्रहः, ननु यदि गृहपतिरक्षमचिरक्रियया मासंस्क्रियया धान्यादिकं निष्पादयति तर्हि किं चर्मरक्षे वीजयपमेन?, तभिरपेक्षत्यैव तत् निष्पादयतु, तस्प दिव्यशक्तिकत्वात् , उच्यते, इसरकारणकलापसंघटनपूर्वकत्वमेव कारणस्य कार्यजनकत्वनियमात् , अन्यथा सूर्यपाकरसवतीकारा नलादयः सूर्यविद्यामहिम्ना रसवती परिपचन्तोऽपि तन्दुलसूप-18 शाकवेषधारादिसामग्रीनापेक्षेरनिति, अत एव सुकुशलं-अतिनिपुणं निजकार्यविधावतिनिपुर्ण शेपं प्राग्योजितं, अधो
क्तगुणयोगि गृहपतिरसं यदवसरोचिसं चकार लदाह-तप ग'मित्यादि, ततः चर्मरक्षच्छन्नरलसम्पुनसंघटनानन्तरं 18| तव गृहपतिरसं भरतख राज्ञः स एव विवसस्तदिवस---उपस्थानविक्सस्तस्मिन् प्रकीर्णकानां-उप्तानां निष्पाविताना
दीप अनुक्रम
[८८-९०
~ 490~
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [3], -----
----------------- मुलं [६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू
[६०]
गाथा
परिपाकदशा प्रापितानां पूतानां-निर्बुसीकृतानां सर्वधान्यानामनेकानि 'कुम्भसहस्राणि' कुम्भाना राशिरूपमानविशे-18|३वक्षस्कारे द्वीपशा- |पणां सहस्राणि उपस्थापयति-उपढौकयति प्राभृतीकरोतीत्यर्थः, कुम्भमानं त्वेवमनुयोगद्वारसूत्रोक्तं-"दो असईओ || न्तिचन्द्री-18|| पसई दो पसईओ सेइआ चत्वारि सेइआओ कुडओ चत्तारि कुडया परथो चत्तारि पत्थया आढयं चत्तारि आढया ||
न्यायुत्पाया वृत्तिः दोणो सहि आढयाई जहण्णए कुंभे असीति आढयाई मज्झिमए कुंभे आढयसयं उकोसए कुंभे"त्ति, अत्र व्याख्या
दिन सू.६० अत्राशतिः-अपाङ्मुखहस्ततलरूपा मुष्टिरित्यर्थः तत्प्रमाणं धान्यमयशतिरेवोच्यते, तद्वत्प्रसूतिः-नावाकारतया व्यव-18 स्थापिता प्राञ्जलकरतलरूपोच्यते, द्वे प्रसृती सेतिका-मगधदेशप्रसिद्धो मानविशेषो, न तु इह प्रसिद्धा, तस्याः प्रस्थच-18 तुर्गुणत्वात् , चतस्रः सेतिकाः कुडवः-पल्लिकासमानो माप्यविशेषः, चत्वारः कुडवाः प्रस्थो माणकसमानं माथ्य, चत्वारः प्रस्थाः आढका-सेतिकाप्रमाणः चत्वार आढका द्रोण:-चतुःसेतिकाप्रमाणः षष्ट्या आढकैः पञ्चदशभिद्ोणेरित्यर्थः जघन्यः अशीत्या आढकैविंशत्या द्रोणरित्यर्थः मध्यमः कुम्भः तथा आढकानां शतेन पञ्चविंशत्या द्रोणरित्यर्थः | उत्कृष्टः कुम्भ इति, अत्र च 'सबधण्णाणं ति सूत्रमुपलक्षणपरं तेनान्यदपि यत्सैन्यस्य भोजनोपयोगि तत् सर्वमुपन-12 यति, एवं सति तत्र भरतः कथं कियत्काल च स्थितवानित्याह-तए 'मित्यादि, ततो-गृहपतिरनकृतधान्योप-12||
॥२४४॥ स्थापनानन्तरं स भरतः चर्मरलारूढश्छत्ररत्नेन समवच्छन्न:-आच्छादितो मणिरतकृतोद्योतः समुद्रकसम्पुटं भूत 1 इव-प्राप्त इव सुखसुखेनेत्यर्थः सतरावं-सप्त दिनानि यावत्परिवसति, एतदेव व्यकीकुर्वनाह-णचि से खुहा ।
दीप अनुक्रम
[८८-९०]
~ 491~
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
...----------------------- मल [६०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०]
गाथा
इत्यादि, न से-तस्य भरताधिपस्य राज्ञः क्षुद्-बुभुक्षा अपिशब्दः पद्यबन्धरवेन पादपूरणार्थ एवकारार्थो वा न ISI ग्यलीक-वैलक्ष्यं दैन्यमित्यर्थः, नैव भयं नैव विद्यते दुःखं, इयमेव गाथा श्रीवर्द्धमानसूरिकृत ऋषभचरित्रे तु एवं-18 'णवि से खुहा णवि तिसा व भयं' शेष प्राग्वत्, 'खंधे'त्यादि, स्कन्धावारस्यापि तथैव, यथा भरतस्य न क्षुदादि तथा सैन्यस्यापि नेत्यर्थः॥ ततः किं जातमित्याहतए णं तस्स भरहस्स रणो सत्तरसि परिणममाणंसि इमेआरूवे अन्मथिए चिंतिए पथिए मणोगए संकापे समुष्पमित्था केस गंभो! अपत्थिअपत्थए बुरंतपतलक्खणे जाव परिवज्जिए जे णं ममं इमाए एआणुरूवाए जाव अमिसमण्णागयाए उप्पि विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुहि जाव वासं वासइ। नए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेआरूवं अन्भस्थिों चिंतियं पत्थिों मणोगय संकप्पं समुष्पण्णं जाणिचा सोलस देवसहस्सा सण्यझिालं पर्वत्ता याविहोत्या, तए णं ते देवा सण्णबद्धवम्भिअकवया जाव गहिआउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुद्दा णागकुमारा देवा वेणेव उवागच्छंति २ ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासी-ई भो ! मेहमुद्दा णागकुमारा ! देवा अप्पत्थिअपत्थगा जाव परिवजिआ किण्णं तुभि ण याणह भरहं रायं चाउरंतचावहि महिद्विरं जाव उद्दवित्तए वा पडिसेहिचए वा तहावि णं तुम्मे भरहस्स रण्णो विजयखंघाचारस्स उपि जुगमुसलमुद्विपमाणमित्यादि धाराहि ओपमेघ सत्तरत्तं वासं वासह, तं एवमवि गते इत्तो खिप्पामेव अवक्रमह अहव अब पासह चित्तं जीवलोग, तर णं ते मेहमुद्दा णागकु. मारा देवा तेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा भीआ तत्था वहिा उबिग्गा संजायभया मेघानी पडिसाहरंति २ चा जेणेन आवाड
दीप अनुक्रम [८८-९०
eaceae
~492~
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री-18
आपातकिरातसाधन
सूत्रांक [६१]
या चिः
म.६१
bacaepdeoaeness
॥२४५॥
गाथा:
चिलामा तेणेष बागच्छति २ चा आवाइपिसाप एवं वासी-एस पं देवाशुनिया! परहे राक महितीप जाव णो सड़ यस सका केप वेषेण का जाप अग्गिप्पभोग वा जान उपदवित्तए बा पडिसेहिलप ना वहाम्य अमं ते अम्हेविं देवाणुषिमा! तुम्भ पिभट्ठयार भरहस्स रण्णो अवसग्गे कए, गच्छह तुम्भे देवाणुप्पिा ! हाया छपवालिकम्मा कयकोउवमंगलपायपिछत्सा उपासाङगा ओचूलगलिअच्छा अगाई बराई रवणाई गहाय पंजलिजा पायवडिभा भरई रायाणं सरणं उबेह, पणिबइअवच्छला खलु उत्तमपुरिसा पवि मे भरहस्स रण्यो अंलिआओ भथमिसिकटु, एवं बदित्ता जामेव दिसि पाउब्यूआ नामेव विसि पढिगया । सए से आयातनिहाया मेहमुहेहि गागकुमारेहिं देवेहिं एवं कुत्ता समाणा उखाए उठेलि २ सा पहाया कबपतिकाम्या कक्कोडमंगलपावच्छित्ता सापडसाडगा ओचूलगगिअच्छा अगाई बराई रमाई गहाय जेणेव भरहे राबा तेणेव उकागच्छंति २ सा करयलपरिग्महिलं जाय मस्थए बंजर्सि का भरदं राये जपणं विजएषां बद्धाविति २ ता अमगाई वराई रवणाई उक्णेति र ता एवं बवासी-बसुहर गुणहर जयहर, हिरिसिरिधीकिचिधारकरिव । लक्षणसहस्सधारक सत्यमिक मे चिरं धारे ॥ १॥ हयवइ गयवइ गरवा णवणिहिवइ भरहवासपढ़मबई । बचीसजणवयसहस्सराव सामी चिरं जीव ।।२॥ पळमणरीसर ईसर हिमईसर महिमिधासहस्साणं । देवसयसाहसीसर चोइसरयणीसर जसंसी ॥३॥ सागरगिरिमेराग उत्तरवाईणमभिजि तुमए । ता अम्हे देवाणुस्फिअस्स विसए परिवसामो ॥४॥ही मं देवासुप्पिाणं इसी जुई असे बले वीलिए पुलिसकारपरचमे दिन्या देवसुई-दिवे देशाभाके उसे पत्ते अमिसमग्णालय, तं विद्या देवाणुपिआण इसी व जाये अमिसमण्णागर, त खामेनुक देवाणुप्पिा! खमंतु काशुप्पिला! संगम देवापुष्पिना माई सुनो २ एकरक्या
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
॥२४५॥
JinElemnition
~ 493~
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
---------------------- मूल [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१]
गाथा:
चिकटू पंजलिउडा पायवडिओ मरहे रायं सरणं विति । तए 4 से मरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अम्गाई पराई रयणाई पहिच्छति २ ता ते आवाडचिलाए एवं क्यासी-गच्छह णं भो तुम्मे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिन्भया णिरुधिग्गा सुईसुहेणं परिवसह, गस्थि मे कत्तोकि मयमस्थिन्तिक सकारेइ सम्माणेइ सकारेत्ता सम्माणेचा पडिक्सिज्जेइ । तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सहावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं मो देवाणुप्पिआ! दोचपि सिंधूए महागईए पञ्चत्थिमं णिक्खुढं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्सुखाणि अ ओअवेहि २ ता अम्गाई वराई रयणाई पढिच्छाहि २ चा मम एअमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चत्पिाहि जहा दाहिणिलस्स ओयवर्ण सहा सर्व भाणिअई जाव पचणुभषमाणा विहरंति (सूत्र ६१)
'तएणं तस्स मरहस्स रण्णो सत्तरच मित्यादि, ततः समुद्गकभूततयाऽवस्थानानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सप्त-1 शराबे परिणमति सति अयमेतद्पो यावत्सल्पः समुदपद्यत, तमेव प्रादुर्भावयन्नाह-'केस 'मिलादि, कः एष भोः | सैनिकाः अप्रार्थितमार्थकादिविशेषणविशिष्टो यो ममं अस्यामेतद्पायर्या यावद्दिन्यायां देवानामिव ऋद्धिर्देवस्य वा-राज्ञ ऋद्धिदेवर्धितस्यां सत्यां एवं दिव्यायां देवद्युतौ दिव्येन देवानुभावेन देवानुभागेन वा देवानामिव योऽनुभागोऽनुभावो | वा-प्रभावस्तेन सह लब्धायां-पासायामभिसमग्वागतायां सत्या उपरि स्कन्धाधारस्य 'जुगमुसलमुटि जाति युगमु| सलमुष्टिप्रमाणमात्राभिर्धाराभिर्व वर्षति-पृष्टिं रीति, अन किरातगृहाणामेव केषाश्चिदयमुपद्रवोपक्रम इति सामा-13 ग्यतो झानेऽपि 'मानधनानी प्रणी गर्षगर्मिता गिरस्त्यकाररेकारबहुला एय भवेयुरिति क एप इत्यादिक आहो
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
Seareeeeaasex
JAREitesnilin
~ 494 ~
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
---------------------- मूलं [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१]
गाथा:
श्रीजम्बू-1|| शस्तन्त्र एकवचन निर्देशः यथा उपस्थितेष्वपि बहुषु वैरिषु स को वर्त्तते यो मामुपतिष्ठते इत्यादी, इति भूपतिभावं परि-1|३ वक्षस्कारे द्वीपशा- | भाव्य यक्षा यच्चस्तदाह-'तए णमित्यादि, ततश्च-उक्तचिन्तासमुत्पत्त्यनन्तरं भरतस्येममेताइवां यावत्सङ्कल्प आपातकि
18|| समुत्पन्नं ज्ञात्वा चतुर्दशरशापिष्ठायकदेवसहस्राणि चतुर्दश द्वे सहने स्वाङ्गाधिष्ठातृदेवभूते इत्येवं पोडशदेवसहस्राः। रातसाधन या वृत्ति
। यद्यपि स्त्रीरत्नस्य वैतान्यसाधने सम्पत्स्यमानत्वेन रलानां त्रयोदशसहस्रा एव सम्भवेयुस्तथापि सामान्यत एतद्वच-I7.११ ॥२४६॥ नमिति, सन्नडुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवन्-युद्धायोद्यता अभूवन्नित्यर्थः, कथमित्याह-'तए णमित्यादि, अनुवादसूत्रत्वा
प्राग्वत् , किमवोचुस्ते भरतस्य सन्निहिता देवा इत्याह-हं भो! मेघमुखा इत्यादि प्राग्वत् ,किमिति प्रश्ने न जानीयेत्यत्र 1 काकुपाठेन व्याख्येयं, तेन न जानीथ किं यूयं ?, अपि तु जानीथ, भरतं राजानं चतुरन्तचक्रवर्तिनं यदेष न कैश्चि19 दपि देवदानवादिभिः शस्त्रप्रयोगादिभिरुपद्रवयितुं वा प्रतिषेधयितुं वा शक्यते इति, अज्ञानपूर्विका हि प्रवृत्तिर्मह- 11
तेऽनाय प्रवर्तकस्य च वाढं वालिशभावोद्भावनाय च भवेदिति भापयन्तस्ते यथा उत्तरवाक्यमाहुस्तथाऽऽह-तथापि-19 जगत्यजय्यं जानन्तोऽपीत्यर्थः यूयं भरतस्य राज्ञो विजयस्कन्धावारस्योपरि यावर्ष वर्षत तत्-तस्मादेवमविमृष्टकारितायां सत्यामपि गते-अतीते कार्ये किं बहु अधिक्षिपामः!, तस्य क्रियान्तरापादनेन संस्कारानईत्वात् , इतः क्षिप्र-8 ॥२६॥ मेवापकामत-मत्कुणा इवापयात, अथवेति विकल्पान्तरे यदि नापकामत तहिं अद्य-साम्प्रतमेव पश्यत चित्रं जीवलोक-वर्तमानभवादन्यं भवं पृथिवीकाथिकादिकं, अपमृत्यु प्रामुतेत्यर्थः, क्रियादेशेऽत्र पञ्चमीप्रयोगः, ननु निरुपक-18
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
~ 495~
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१]
गाथा:
मायुपां देवानामपमृत्योरसम्भवात् सवाधमिदं वचनं, उच्यते, सूत्राणां विचित्रत्वेन भयसूत्रत्वेन विवक्षणान्न दोषः। 'तए ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं मेघानीकं प्रतिसंहरन्ति-पनघटामपहरन्ति, वृष्टयुपरमे च ततः सम्पुटाञ्चक्रिसैन्यं निर्गच्छदुपलभ्य लौकिकैरुक्तं ब्रह्मणा सृष्टमिदमण्डकं तत इयं जगतः प्रसूतिरित्येवं सर्वत्र प्रवादोऽभूत्ततोऽपि च ब्रह्माण्डपुराणं नाम शास्त्रमभूदिति प्रसङ्गाद्धोध्यमिति, अथ यदुक्तमेवं क्यासित्ति तत्र किमवादिषुरित्याह-'तए - मित्यादि, हे देवानुप्रिया ! एष भरतो राजा महर्द्धिको यावन्नो खलु एष शक्यते देवादिभिरखप्रयोगादिभिर्यावन्नि
धयितुं तथापि अस्माभिर्देवानुप्रिया! युष्माकं प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्गः कृतः, तद्गच्छत देवानुप्रिया! यूर्य स्नाना| दिविशेषणाः आर्ची-सद्यःमानवशाजलक्लिनी पटशाटकी-उत्तरीयपरिधाने येषां ते तथा, एतेन सेवाविधाबविलम्बः ४ सूचितः, अवचूलक-अधोमुखाञ्चलं मुत्कलाञ्चलं यथा भवत्येवं नियत्थं येषां ते तथा, एतेन परिहितवस्त्रबन्धनकाला8 वध्यपि न विलम्बो विधेय इति सूचितं, अथवाऽनेनाबद्धकच्छत्वं सूचितं, तदुपदर्शनेन स्वदैन्यं दर्शितमिति, बद्धक-18 ४च्छत्वदर्शने हि उत्कटत्वसम्भावनाया जनप्रसिद्धत्वात् , अग्र्याणि वराणि रलानि गृहीत्वा प्राञ्जलिकृता:-कृतमाञ्जलयः
पादपतिता:-चरणन्यस्तमौलयो भरतं राजानं शरणमुपेत-यात प्रणिपतितवत्सला:-प्रणम्रजनहितकारिणः खलु उत्तमपुरुषाः, नास्ति भे-भवतां भरतस्य राज्ञोऽन्तिकानयमिति कृत्वा इति उदित्वेत्यर्थः यस्या दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रति गता इति । अथ भग्नेच्छा म्लेच्छा यच्चक्रुस्तदाह-'तए णमित्यादि, सर्व गतार्थ, नवरं रलान्युपनयन्ति
RSSGOOGee
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
~ 496~
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------
---------------------- मूल [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 प्राभृतीकुर्वन्तीत्यर्थः, अथ यदुक्तं 'एवं वयासित्ति तत्र किमवादिषुरित्याह-'वसुहर' इत्यादि, हे वसुधर !-द्रव्यधर ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- पटूखण्डवर्तिद्रव्यपते इतियावत् , अथवा तेजोधर गुणधर-गुणवान् जयधर-विद्वेषिभिरधर्षणीय! ही:-राजा श्री:- आपातकिन्तिचन्द्री लक्ष्मीधृतिः-सन्तोषः कीर्तिः-वर्णवादः एतेपा धारक नरेन्द्रलक्षणसहस्राणां-अनेकलक्षणानां धारक णो-अस्माकं रातसा या वृत्तिः
शता राज्यमिदं चिरं धारय-पालय इत्यर्थः, अस्मद्देशाधिपतिर्भव चिरकालं यावदिति प्रथमगाथार्थः । 'हयवद गयई ॥२४७॥ इत्यादि, हे हयपते ! गजपते! हे नरपते! नवनिधिपते! हे भरतवर्षप्रथमपते ! द्वात्रिंशज्जनपदसहस्राणां-देशसह
स्राणां ये राजानस्तेषां स्वामिन् ! चिरंजीव २ इति द्वितीयगाथार्थः । 'पढमणसरीसर ईसर इत्यादि, हे प्रथमनरेश्वर!
ऐश्वर्यधर महिलिकासहस्राणां-चतुःषष्टिस्त्रीसहस्राणां हृदयेश्वर-प्राणवल्लभ देवशतसहस्राणां-रताधिष्ठातृ-10 मागधतीर्थाधिपादिदेवलक्षाणामीश्वर ! चतुर्दशरत्नेश्वर ! यशस्विन् इति तृतीयगाथार्थः। तथा 'सागर' इत्यादि । |सागर:-पूर्वापरदक्षिणाख्यः समुद्रः गिरि:-क्षुदहिमाचलस्तयोमर्यादा-अवधिर्यत्र तत्तथा. उक्तदिकत्रये समुद्राव-18| धिकमुत्तरतो हिमाचलावधिक, उत्तरापाचीन-उत्तरार्द्धदक्षिणार्द्धभरतं परिपूर्णभरतमित्यर्थः, त्वयाऽभिजितं, यदत्र भरतस्य हिमवगिरिपर्यन्तता व्याख्याता तदवश्यं साधयिष्यमाणत्वेन भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् , अन्यथा | ॥२४॥ नवनिधिपते ! चतुर्दशरलेश्वर.इत्यादिविशेषणानामप्यनुपपत्तिः,नवनिधीनां तथा सम्पूणचतुर्दशरलानामथैव सम्पत्स्यमा/ नत्वात् , ता-तस्माद् वयं देवानुप्रियस्य विषये परिवसामः, युष्माकं प्रजारूपाः म इत्यर्थः, इति चतुर्थगाथार्थः ।
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
~ 497~
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
----------------------- मूल [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१]
का तथा अहो इति आश्चर्ये देवानुप्रियाणां ऋद्धिर्युतिर्यशो बलं वीर्य पुरुषकारः पराक्रमः एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत्, ऋयादीन्याश्चर्यकारीणि कुत इस्याह-दिव्या-सर्वोत्कृष्टा देवस्येव युतिः, एवं दिव्यो देवानुभावो देवानुभामो वा लब्धःप्राप्तः अभिसमन्वागतो देवपादरित्यध्याहार्य, परतः श्रुतेऽपि गुणातिशये आश्चर्योत्पत्तिः स्यात् दृष्टे तु सुतरामित्याशयेनाह-तद् दृष्टा देवानुप्रियाणां ऋद्धिः-सम्पत्, चक्षुःप्रत्यक्षेणानुभूतेत्यर्थः, श्रवणतो दर्शनस्यातिसंवादकत्वात् , एवं चैवेति उक्तन्यायेन रष्टा देवानुप्रियाणां गतिः, एवं यशोबलादिकमपि रष्टमित्यादि वाच्यं, यावदभिसमन्वा-13 गत इति पदं, यावत्पदसंग्रहस्तु 'इड्डी जसे बले वीरिएं' इत्यादिकोऽनन्तरोक्त एव, तत्क्षमयामो देवानुप्रिया वयं, सानुशयाशयत्वात् स्वबालचेष्टितं क्षमन्तां देवानुप्रियाः!, क्षन्तुमर्हन्ति-क्षमा कतुं योग्या भवन्ति देवानुप्रियाः महाशय-18 त्वात् , अत्र प्राकृतत्वाद्वर्तमानार्थे पञ्चमी, 'णाइ'त्ति नैव आई इति निपातोऽवधारणे भूय एवंकरणतायै सम्पत्स्या- ISI
मह इति शेषः, अत्र ताकारः प्राकृतशैलीभवः, इति कृत्वा प्राञ्जलिकृताः पादपतिता भरतं राजानं शरणमुपयान्ति, || अथ प्रसादाभिमुखभरतकृत्यमाह-'तए से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा
तेषामापातकिरातानामन्याणि वराणि रनानि प्रतीच्छति-गृह्णाति प्रतीच्छच च तानापातकिरातानेवमवादीतू-गच्छत भो! देवानुप्रियाः यूर्य स्वस्थानमिति शेषः, मम बाहुच्छायया परिगृहीता:-स्वीकृताः मया शिरसि दत्तहस्ताः निर्भया 187 | निरुदिनाः-
नगरहिताः सुखसुखेन परिवसत, अत्र 'छायायां हो कान्ती बा' इत्यनेन (श्रीसिद्धहै ० अ०८ पा०१सू०२४९)
गाथा:
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
~ 498~
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
बीपशा
सूत्रांक [६१]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 सूत्रेण वैकल्पिकविधित्वान्न हकारत्वं, नास्ति भे-भवतां कुतोऽपि भयमिति कृत्वा सत्कारयति सन्मानयति सत्कृत्य 8 वक्षस्कारे
सन्मान्य च प्रतिबिसर्जयति-स्वस्थानगमनायातिदिशति । अथ किरातसाधनोत्तरकालं नरेन्दुः किं चक्रे इत्याह- क्षुल्लकहिमन्तिचन्द्री- 'तए णं से भरहे राया सुसेण'इत्यादि, ततः-किरातसाधनानन्तरं भरतः सुषेणं सेनापति शब्दयति, शब्दयित्वा च वगिरिदवया वृतिः
एवमवादीत्-गच्छ भो देवानुप्रिय । द्वितीयं अपिः समुच्चये पूर्वसाधितनिष्कुटापेक्षया सिन्ध्वा महानद्याः पश्चिम॥२४॥ पश्चिमभागवत्ति निष्कुट-प्राग्व्यावर्णितस्वरूपं सिन्धुः नदी सागरः-पश्चिमाब्धिः उत्तरतः क्षुल्लहिमवगिरिदक्षिणतो
वैताम्यगिरिश्च तैमर्यादा यस्य तत्तथा, एतैः कृतविभागमित्यर्थः, शेष प्राग्वत् , लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह-'जहा दाहिणिल'इत्यादि, यथा दाक्षिणात्यस्य सिन्धुनिष्कुटस्य ओभवणं-साधनं तथा सर्व भणितव्यं, तावद्धकव्यं यावत्सेनानीर्भरतविसृष्टः पञ्चविधान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरति ॥ अथ तदनन्तरं किं जातमित्याहतए णं दिवे चक्करयणे अण्णया कयाइ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुहिमवंतपबयाभिमुद्दे पयाते आवि होत्था, तए णं से भरहे राया तं दिख चकारयणं जाव चुलहिमवंतवासहरपवयस्स अदूरसामते दुवालसोभणायाम जाप घुलहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिहा, तहेव जहा मागहतित्थस्स जाव समुहरब- २४८॥ भूपिव करेमाणे २ उत्तरदिसाभिमुद्दे जेणेव चुलहिमवंतवासहरपञ्चए तेणेव उवागच्छइ २ ता चुहिमवंतवासहरपवयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ फुसित्ता तुरए णिगिण्इ णिगिण्डित्ता तहेब जाव आयतकण्णायतं च फाऊण उमुमुपार इमाणि वयणाणि तत्थ
दीप अनुक्रम [९१-९५]]
Eleons
Shrimetrinary
~ 499~
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Sese
प्रत सूत्रांक
[६२]
माणीम से णरवई जाव सबे मे ते विसयवासित्तिक? उद्धं बेहास उसु णिसिरइ परिगरणिगरिअमझे जाव तए ण से सरे भरहेणं रण्णा उर्ल्ड वेहासं णिसट्टे समाणे खिप्पामेव बावत्तरि जोषणाई गंता चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराप णिवहए, नए णं से चुलहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सर णिवइ पासइ २ ता आसुरुत्ते रुढे जाव पीइदाणं सधोसहिं च मालं गोसीसचंदण कढगाणि जाब दहोदगं च गेहइ २ ता ताए उक्ट्ठिाए जाव उत्तरेणं चुलहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुपिआणं विसयवासी जाव अण्णं देवाणुप्पिआणं उत्तरिल्ले अंतवाले जाव पडिविसजेइ (सूत्र६२)
'तए णं दिवे चकरयणे इत्यादि,ततः-औत्तराहसिंधुनिष्कुटसाधनानन्तरं तदिव्यं चकरने अन्यदा कदाचित् आयु| धगृहशालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्कम्य च अंतरिक्षप्रतिपन्नं यावत्पदात् 'जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिवतुडिअसहसण्णिणाएणं पूरेन्ते चेव अंबरतल'मिति, उत्तरपूर्वस्यां दिशि-ईशाने कोणे क्षुद्रहिमवत्पर्वताभिमुख प्रयातं चाप्यभवत्,
ततः-शिबिरनिवेशात् क्षुद्रहिमवगिरिमध्यं यियासोंत्तरपूर्वायां चलनमेव ऋजुमार्गः, ततो नरेन्दुर्यत्कृतवांस्तदाह18 'तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणमित्यादि, ततः स भरतस्तदिव्यं चक्ररलं अभिक्षुद्रहिमवगिरि प्रयातं दृष्ट्वा 18| कौटम्बिकपुरुषाज्ञापन हस्तिरलप्रतिकल्पनं सेनासन्नाहनं स्नानविधानं हस्तिरलारोहणं मार्गागतपुरनगरदेशाधिपवशी-18 IS करणं तत्माभूतस्वीकरणं चक्ररत्नानुगमनं योजनान्तरितवसतिवसनं च करोतीत्यादिपिण्डार्थः प्रथमयावत्पदग्राह्यः, 18| अत्र यावत्पदसंग्राह्यसूत्रलिखने बहुविस्तरः स्यादिति तदुपेक्षा, ततः क्षुल्लहिमवनिरिसमीपे द्वादशयोजनायाम अत्र
दीप
अनुक्रम
[९६]
S
Simillennia
l
~500~
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू- 18 यावच्छन्दानवयोजनविस्तीर्णादिविशेषणविशिष्टं स्कन्धावारं निवेशयति, वर्द्ध किरनं शब्दयति पौषधशाला बिधापयति || स्वक्षस्कारे
यावा द्वीपशा-8 पौषधं च करोतीत्यादि ज्ञेयं, क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्य साधनायेति शेषः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावत्समुद्ररवभूत- क्षुल्लकहिमविचन्द्री- मिव कुर्वाणः कुर्वाण इति, अत्र 'तहेव'त्ति पदवाच्यमष्टमभक्तपतिजागरणं तत्समापन कौटुम्बिकाज्ञापन सेनासन्नाहन | वद्भिरिदेवया चिः अश्वरथप्रतिकल्पनं स्नानविधानं अश्वरथारोहणं चक्ररतमार्गानुगमनं च करोतीत्यादि ज्ञेयं, सैन्यसमुत्थकलकलरवेणी
६२ ॥२४९॥ समुद्ररवभूतमिव पृथिवीमण्डलं कुर्वन् २ उत्तरदिगभिमुखो यत्रैव च क्षुद्रहिमवर्षधरपर्वतः तत्रैवोपागच्छति उपागत्य
च क्षुलहिमवर्षधरपर्वतं त्रिकृत्वा-त्रीन् वारान् रथशिरसा-रथाप्रभागेन काकमुखेनेत्यर्थः स्पृशति, अतिवेगप्रवृत्तस्य 8 वेगिवस्तुनः पुरस्थप्रतिबन्धकभित्यादिसंघटने विस्ताडनेन वेगपातदर्शनादत्र त्रिरित्युक्तं, स्पृष्टा च तुरगान् निगृहाति-वेगप्रवृत्तान् वाजिनो रक्षति, तदनु वृत्तं यत्तदाह-णिगिण्हित्ता' इत्यादि, तुरगांश्चतुरोऽपि निगृह्य च तथैव-18॥ मागधतीर्थाधिकारवद्वक्तव्यं, कियडूरं यावदित्याह-यावदायतकर्णायतं च कृत्वा इषुमुदारमिति, अत्र 'तहेव'त्ति वच-18 नात् रथस्थापनं धनुर्ग्रहणं शरग्रहणं च वक्तव्यं, ततस्तं शरं तथाविधं कृत्वा तत्र इमानि वचनाम्यभाणीत् स नरपतिरत्र
यावत्पदेन 'हंदि सुणंतु भवंतो' इत्यादि गाथाद्वयं वाच्यं सर्वे मे ते विसयवासीतिपर्यन्तं इति कृत्वा-इत्युच्चार्य ऊर्ध्व-R२४९॥ 1] उपरि, एतच्च शुभपर्यायं स्यात् यथोललोकः शुभलोक इत्यादि अत उक्तं विहायसि-आकाशे क्षुद्रहिमवनिरिकु
मारस्य तत्रावाससम्भवात् इषु निसृजति, 'परिगरणिगरिअमज्झो जाव'त्ति अत्रावसरे वाणमोक्षप्रकरणाधीतं 'मरिग-2
[९६]
909a%eseaso900
~501~
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------------
---- मूलं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२]
10 रणिगरिअमज्जो' इत्यादिपदोपलक्षितं यावच्छब्देन परिपूर्ण गाथाद्वयं वाच्यमिति । ततः किं जातमित्याह-तए थे।
से इत्यादि, ततः स शये भरतेन राज्ञा ऊचं विहायसि निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्विसप्तति योजनानि यावद् गत्वा क्षुद्र-18 हिमवद्गिरिकुमारस्य देवस्य मर्यादायामुचितस्थाने निपतति, 'तए णमित्यादि, ततः स क्षुद्रहिमवनिरिकुमारो देवो निजमर्यादायां शरं निपतितं पश्यति, दृष्ट्वा च आसुरुप्तो रुष्ट इत्यादिविशेषणविशिष्टो यावत्करणात् कुटिं करोति
अधिक्षिपति शरं गृह्णाति नाम च वाचयतीत्यादि ग्राह्य, प्रीतिदानं सर्वोषधीः-फलपाकान्तवनस्पतिविशेषान् राज्या||भिषेकादिकार्योपयोगिनः माला-कल्पद्रुमपुष्पमालां गोशीर्षचन्दनं च-हिमवतकुञ्जभवं कटकानि यावत्पदात् त्रुटितानि
वस्त्राणि आभरणानि शरं च नामाङ्कमिति ग्राह्य, ब्रहोदकं च-पद्मद्रहोदकं गृह्णाति, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टयाऽत्र याव-18 ॥ पदात् देवगल्या व्यतिब्रजति-भरतान्तिकमुपसर्पति विज्ञपयति चेति ज्ञेयं, उत्तरस्यां क्षुद्रहिमवतो गिरेमर्यादायां
। अहं देवानुप्रियाणां विषयवासी यावत्पदात् अहं देवाणुप्पिआणत्तीकिंकरे इति ग्राह्यं, अहं देवानुप्रियाणां औत्तरा18|| हो ठोकपालः, अन्न यावत्पदात् भीतिदानमुपनयति तद भरतः प्रतीच्छति, देवं सत्कारयति सम्मानयतीति ग्राह्य. |तथा कृत्वा च प्रतिविसर्जयति, अथाधिकोत्साहादष्टमभकं तपस्तीरयित्वा कृतपारणक एवावधिप्राप्तदिग्विजयाई कर्तृकामः श्रीऋषभभूः ऋषभकूटगमनायोपक्रमते
तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्डद २ ता रई परावत्तेइ २ चा जेणेव उसहकूडे तेणेच उवागच्छद्र २ चा उसहकूर्व पव्यय
दीप अनुक्रम
aeeeeee
[९६]
भरतस्य ऋषभकूट-गमनं, तत्र नामलिखनं
~502~
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
SON
सूत्रांक
३वक्षस्कारे ऋषभकूटे नामलिखनं
[६३]]
गाथा:
विक्खुत्तो रहसिरेणं फुसद २ ता तुरए निगिण्हइ २ चा रहं ठवेई २ चा छत्तलं दुबालसंसिरं अहकणि अहिंगरणिसंठिों द्वीपशा- सोवणिों कागणिरयणं परामुसइ २ चा उसभकूडस्स पब्वयस्स पुरथिमिलंसि कडगंसि णामगं आउडेर-ओसप्पिणीइमीसे न्तिचन्द्री- तइआएँ समाइ पच्छिमे भाए । अहमंसि चकवट्टी भरहो इअ नामधिज्जेणं ॥१॥ अहमंसि पडमराया अहयं भरहाहिवो णरवया चिः
रिंदो। णत्यि मई पडिसत्तू जिअं भए भारहं बासं ॥२॥ इतिकटु णामगं आउडेइ णामर्ग आउदित्ता रहं परावत्तेइ २ चा ॥२५॥
जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छा २ ता जाव चुहिम वंतगिरिकुमारस्स देवस्स अढाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिजिमखमइ २ ता जाब दाहिणि दिसि वेअद्धपच्चयामिमुहे पयाते आवि होत्था (सूत्र ६३) 'तए ण'मित्यादि, ततो-हिमवत्साधनानन्तरं स भरतो राजा तुरगान् निगृह्णाति-दक्षिणपार्श्वस्थहयावाकर्षति वामपार्श्वस्थहयौ पुरस्करोति, निगृह्य च रथं परावर्त्तयति परावय॑ च यत्रैवर्षभकूटं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च
ऋषभकूट पर्वतं त्रिकृत्वो रथशीर्षण स्पृशति, स्पृष्ट्वा च रथं स्थापयति स्थापयित्वा च षट्तलं द्वादशान्त्रिक अष्टकमणिकं अधिकरणिसंस्थितं सौवर्णिक स्वर्णमयमष्टसुवर्णमयत्वात् काकणीरत्नं परामृशति, एतेषां पदानां व्याख्यानं
प्राग्वत्, परामृश्य च ऋषभकूटस्ख पर्वतस्य पौरस्त्ये कटके नामैव नामक स्वार्थे कप्रत्ययः 'आउडेइ'त्ति आजुडति IS सम्बद्धं करोति लिखतीत्यर्थः, कथं लिखतीत्याह-'ओसप्पिणि'इत्यादि, अवसर्पिण्याः, अन पष्ठीलोपः प्राकृतत्वात् ,
दीप अनुक्रम [९७
Coopadosasawa
२५०॥
-१००
~ 503~
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [६३] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६३]]
Rememesesesesed
गाथा:
| अस्या तृतीयायाः समायाः-तृतीयारकस्य पश्चिमभागे तृतीये भागे इत्यर्थः, अहमस्मि चक्रवर्ती भरत इति नामधेयेननाम्ना ॥१॥ अहमस्मि प्रथमराजा-प्रधानराजा, प्रथमशब्दस्य प्रधानपर्यायत्वाद्यथा 'पढमे चंदजोगे' इत्यादौ, एतद्-18 व्याख्यानेन ऋषभे प्रधमराजत्वं नागमेन सह विरुध्यते, अहं भरताधिपः-भरतक्षेत्राधिपः नरवरा:-सामन्तादयस्ते-10 पामिन्द्रः नास्ति मम प्रतिशत्रु:-प्रतिपक्षः जितं मया भारतं वर्षमिति कृत्वा नामकं 'आउडेइचि लिखति, अस्य सूत्रस्य निगमार्थकत्वान्न पौनरुक्त्यं, अथ कृतकृत्यो यद् व्यवस्थति तदाह-णामगं आउडित्ता' इत्यादि, नामक लिखित्वा रथं परावयति परावर्त्य च यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपामच्छति उपागत्य च अत्र यावत्पदात् तुरगानिगृह्णाति रथं स्थापयति ततः प्रत्यवरोहति मजनगृहं प्रविशति नाति ततः|| प्रतिनिष्कामति भुङ्क्ते बाह्योपस्थानशालायां सिंहासने उपविशति श्रेणीप्रश्रेणी: शब्दापयति खुल्लहिमवद्भिरिकुमारदेवस्थाष्टाहिकाकरणं सन्दिशति ताश्च कुर्वन्ति आज्ञा च प्रत्यर्पयन्तीति ग्राह्य, ततस्तदिव्यं चकरतं धुलहिमवद्भिरिकु-18 मारस्य देवस्याष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्कम्य च यावच्छब्दादन्तरिक्षप्रतिपन्नादिविशेषणग्रहः, दक्षिणां दिशमुद्दिश्य वैताढ्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत् ।
तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चकरयणं जाव वेअद्धस्स पञ्चयस्स उत्तरिः णितंचे तेणेव उवागच्छइ २ चा वेअद्धस्स पवयस्स उचरिले णितंबे दुबालसजोयणावामं जाक पोसहसालं अणुपविसइ जाव णमिविणमीणं विजाहरराईणं अहमभत्तं पगिण्हद २ चा
दीप अनुक्रम [९७
-१००
अथ चक्रवर्तीभरतं स्त्रीरत्नस्य प्राप्ति-अधिकार: वर्ण्यते
~ 504 ~
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६४ ]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[tot
-१०३]
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री
या पृचिः
।। २५१॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...
Jan Eibensiinie
-
मूलं [६४] + गाथा
..........
.... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पोसहसालार जाव णमिचिणमिविज्जाहररायाणो मणसी करेमाणे २ त्रिइड, जए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्टमभतं परिणममासि णमिचिणमीविज्वादस्रायानो दिव्याए मईए चोइअमई अण्णमण्णस्स अंतिमं पाउडभवंति २त्ता एवं वयासी उप्पण्णे खलु भो देवाप्पि ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे राया चाउरंतचक्रवट्टी तं जीसमे वीमपच्पणमणारायाणं विज्जाहरराईणं चक्वट्टीणं उत्थाणिअं करेशर, तं गच्छामो र्ण देवाणुप्पिया ! अम्देवि भरहस्स रणणो उवत्थाणिअं करेमो इति कट्टु विणमी teri hai दिवाए मईए चोइअमई माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेअस्सि रूवलापजुतं ठिअजुणकेसवहिमणहं सर्वरोगणासा बलकरिं इच्छिअसीउन्हफासजुत्तं-तिसुवणुअं तिसु तंबं तिवलीगतिउण्णयं तिगंभीरं तिसु कालं तिसु सेभं तिआयतं ति अ विच्णं ॥ १ ॥ समसरीरं भरहे वासंमि सङ्घमहिलप्पहाणं सुंदरथणजघणवरकरचळणणयणसिरसिजदसणजणहिअयरमणमणहरि सिंगारागार जान जुत्तोवयारकुसलं अमरवहूणं सुरूवं रूवेणं अणुहरंतीं सुभदं भमि जोडणे बट्टमाणिं इत्थीरयणं णमी अर यणाणि य काणि य तुडिआणि अ गेन्हइ २ ता ताए डक्ट्ठिाए तुरिआए जाव उद्भूभाए बिनाहरगईए जेणेव भरद्दे राया तेणेव वागच्छति २ चा अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणीयाई जाव जरणं विजएणं वद्धावेति २ ता एवं व्यासी- अभिजिए णं देवाणुप्पि ! जान अन्हे देवाणुप्पिआणं आणतिकिंकरा इतिकट्टु तं परिच्छंतु णं देवाणुप्पिक्ष ! अम्हं इमं जाव विणमी इत्थीरयणं मी रवणाणि समप्पे । तर णं से भरहे गया जान पडिविसलेइ २ ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ सा मनणघरं अणुपबिस २ ता भोअणमंडवे जाब नमिविनमीणं विनाहरराईणं अट्ठाहिअमहामहिमा, तप से दिवे चकरयणे आउचर सालाम
F Ervale & Puna e Oly
~ 505 ~
Presentninenesisese
३वक्षस्कारे नमिविनमिसाधनं
स्त्रीरत्नासिः
सू. ६४
॥२५१॥
janntraryarg
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
-----.........------- मूलं [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४]
गाथा:
9999990000000000000
पविणिक्खमइ जाब उत्तरपुरस्थिमं दिसि गंगादेवीभाषणाभिमुद्दे पयार भावि होत्था, सक्षेत्र संवा सिंधुवत्ताया जाव नवरं कुंभट्टसहस रयणचित्तं णाणामणिकणारयणभत्तिचिचाणि अ हुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति (सूर्य ६४) 'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा सदिव्यं चकरा दक्षिणादिशि पैतात्यपर्वताभिमुख प्रयातं पश्यति, दृष्टा च प्रमोदादि तावद् वक्तव्यं यावद् भरतो यत्रैव वैतान्यस्य पर्वतस्योत्तरपार्थवी नितम्बः-कटकस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य च वैतादयस्य पर्वतस्योत्तरभागवर्तिनि नितम्बे द्वादशयोजनायाम यावत्पदकरणात् नक्योजनविस्तीर्णमित्यादिकं । स्कन्धावारमिवेशादि वाच्यं, पौषधशालामनुप्रविशति भरतः, अत्र यावत्पदात् पौषधषिशेषणानि सर्वाणि वाच्यानि, नमिविनम्यो-श्रीऋषभस्वामिमहासामन्तकच्छमहाकच्छसुतयोर्विद्याधस्राज्ञोः साधनायाष्टमभकं प्रगृह्णाति प्रगृह्य च पौषधशालायां यावच्छब्दात् पौषधिकादिविशेषणविशिष्टो नमिविनमिविद्याधरराजानी मनसि कुर्वाणो मनसि कुर्वाणस्ति
ति, एते खगा अनुकम्प्याः एतेषामुपरि बाणमोक्षणेन प्राणदर्शनं न क्षत्रियधर्म इति सिन्ध्वादिसुरीणामिवानयोर्म| नसि करणमात्ररूपे साधनोपाये प्रवृत्तः, तेन न द्वादशवार्षिकयुद्धमप्यत्राभिहितं, यत्तु हेमचन्द्रसूरिभिरादिनाथचरित्रे शरमोचनादि चूर्णिकृता तु युद्धमात्रं द्वादशवर्षावधि अण्णे भणंतीत्युक्त्वा उक्कं तन्मतान्तरमवसेयमिति, अत्रा-18 न्तरे यजातं तदाह-तए णमित्यादि, तस्य भरतस्याटमभक्त परिणमति सति नमिविनमी विद्याधरराजानी दिव्यया दिव्यानुभावजनितत्वात् मत्या-ज्ञानेन चोदितमती-प्रेरितमतिको अवधिज्ञानाद्यभावेऽपि यत्तयोर्भरतमनोविषयक-18
9999999999999aca
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
~ 506~
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------------------- मल [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू-
[६४]
न्तिचन्द्र: या वृत्तिः ॥२५२॥
गाथा:
ज्ञानं तत्सौधर्मेशानदेवीनां मनःप्रविचारिदेवानां कामानुषकमनोज्ञानमिव दिव्यानुभावादवगन्तव्यं, अन्यथा तासा-३ वक्षस्कारे मपि स्वविमानचूलिकाध्वजादिमात्रविषयकावधिमतीनां तद्विरसाज्ञानासम्भवेन सुरतानुकूलचेष्टोन्मुखत्वं न सम्भवेदिति, नमिविनएतादृशावन्योऽन्यस्यान्तिकं प्रादुर्भवतः, प्रादुर्भूय च एवमवादिषातां, किमवादिषातामित्याह–'उप्पण्णे खलु इत्यादि,
खीरत्नाप्तिः उत्पन्नः खलु:-अवधारणे भो देवानुप्रिया! जम्बूदीपे द्वीपे भरतवर्षे भरतनामा राजा चतुरन्तचक्रवती तस्माजीतमेतत् -कल्प एषोऽतीतवर्तमानानागतानां विद्याधरराज्ञा चक्रवर्त्तिनामुपस्थानिक-प्राभृतं कर्तु, तद् गच्छामो देवानुप्रिया! वयमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक कुर्म 'इति कट्ट'इत्यादि इति कृत्वा-इति अन्योऽन्य भणित्वा विनमिरु-181 त्तरश्रेण्यधिपतिः सुभद्रां नाम्ना स्त्रीरत्तं नमिश्च दक्षिणश्रेण्यधिपती रक्षानि कटकानि त्रुटिकानि च गृह्णातीत्यन्वयः,
अथ कीदृशः सन् विनमिः किं कृत्वा सुभद्रां कन्यारतं गृह्णातीत्याह-दिन्यया मत्यां नोदितमतिः सन् चक्रवर्तिन | ज्ञात्वा, अत्रानन्तरोकसूत्रतश्चक्रवर्तित्वे लब्धेऽपि यत् णाऊण चक्कवट्टिमित्याधुकं तत् सुभद्रा स्त्रीरत्नमस्यैवोप| योगीति योग्यताख्यापनार्थ, किंलक्षणां सुभद्रामित्याह-'मानोन्मानप्रमाणयुक्तां, तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता उन्मानं
॥२५॥ तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता यश्च स्वमुखानि नव समुच्छ्रितः स प्रमाणोपेतः स्यात्, अयमर्थ:-जलपूर्णायां पुरुषप्र-8॥ माणादीपदतिरिकायां महत्यां कुण्डिकायां प्रवेशितो यः पुरुषः सारपुद्गलोपचितो जलस्य द्रोणं विटङ्कसौवर्णिकगणनापेक्षया द्वात्रिंशत्सेरप्रमाणं निष्काशयति जलद्रोणोना वा तां पूरयति स मानोपेतः, तथा सारपुद्गलोपचितत्वादेव
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
दर
~507~
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
-------------------- मल [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४]
गाथा:
। यस्तुलायामारोपितः सन्नीभारं पलसहस्रात्मकं तुलयति स उन्मानोपेतः, तथा यद्यस्यात्मीयमङ्गुलं तेनाङ्गुलेन द्वादशां18 गुलानि मुखं प्रमाणयुक् अनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात् , प्रत्येक द्वादशांगुलैर्नवभिर्मुखै
रष्टोत्तरशतमङ्गलानां सम्पद्यते, ततश्चैतावदुच्छ्यः पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात् , एवं सुभद्राऽपि मानोन्मानप्रमाणयुक्ता, तथा तेजस्विनी व्यक्तं रूपं-सुन्दराकारो लक्षणानि च-छत्रादीनि तैर्युकां, स्थितमविनाशित्वाचौवनं यस्याः सा तथा, | केशवदवस्थिता-अवर्द्धिष्णवो नखा यस्याः सा तथा, ततः पदद्वयकर्मधारये तां, अयं भावः-भुजमूलादिरोमाण्यजहद्रोमस्वभावान्येव तस्याः स्युरिति, अन्यथा तत्केशपाशस्य प्रलम्बतया व्याख्यानं उत्तरसूत्रे करिष्यमाणं नोपपद्येत, सर्वरोगनाशनी, तदीयस्पर्शमहिना सर्वे रोगा नश्यन्तीति, तथा बलकरी सम्भोगतो बलवृद्धिकरी नापरपुरन्ध्रीणामिवास्याः परिभोगे परिभोक्तुलक्षय इति भावः, ननु यदि श्रूयते समये हस्तस्पृष्टाश्वग्लानिदर्शनेन स्त्रीरतस्य स्वकामुक-18 पुरुषविभीषिकोत्पादनं तर्हि कथमेतदुपपद्यते ?, उच्यते, चक्रवर्तिनमेवापेक्ष्यैतद्विशेषणद्वयस्य व्याख्यानात्, यत्तु सत्यपि स्त्रीरले ब्रह्मदत्तचक्रभृतो दाहानुपशमः तत्र समाधानमधस्तनग्रन्थे दण्डवर्णनव्याख्यातोऽवसेयं, ईप्सिताऋतुविपरीतत्वेनेच्छागोचरीकृता ये शीतोष्णस्पर्शास्तैर्युकां उष्णतौं शीतस्पर्शा शीततौँ उष्णस्पर्शा मध्यमत्तौं मध्यम-18
१ तस्याः स्पर्शः चक्रवर्तिनः सर्वदोषनाशक इसथः, न चैवमन्तरामये दाघज्वरोपगते प्रदत्तचक्रवर्तिनि ब्यमिचारः, प्रवासभमृत्योसादानी वत्स्पर्शसहने सामाभावात् अवश्यंभाविवस्तुत्वाथ (ही वृत्ती)
20000eaoneamac0000000000
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
श्रीजम्यू.ali
~508~
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [३], ---------
------------------- मल [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 स्पर्शामिति भावः, त्रिषु स्थानेषु-मध्योदरतनुलक्षणेषु तनुकां-कृशां तनुमध्या-तनूदरी तन्वङ्गीतिकविप्रसिद्ध, ननु सामु- ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- क्रिकेऽग्यान्यपि दन्तत्वगादीनि तनूनि कथितानि तथा च सति कर्थ तनूनां त्रिसङ्ग्याङ्कता युज्यते इति , उच्यते, 18
नमिविन
मिसाधनं न्तचन्द्रा विचित्रत्वात कविरुचेस्त्रिकसङ्ग्याविशिष्टानुप्रासभासुरं बन्धं निवन्नता अन्धकारेण स्खीपुंससाधारणानि यानि त्रिक-18 मीरजाप्ति या वृचिः
| रूपाणि लक्षणानि तानि तथैव निवद्धानि, यानि तु व्यधिकसङ्ख्याकानि तेभ्योऽत्र रत्नप्रस्तावात केवलं खीजात्यचि- म.६४ ॥२५३॥ तानि लक्षणानि समुचिस्यानुप्रासाभङ्गार्थ त्रिकरूपत्वेन निवद्धानि तेन नेहापरग्रन्थविरोधः, अत एव दन्तत्वगादीनि ।
तनून्यपि तस्या अब न विवक्षितानीति, एवमुत्तरत्रापि भाव्य, त्रिषु-दृगन्ताधरयोनिलक्षणेषु स्थानेषु ताम्रा-रक्तां, हगन्तरक्तत्वं हि स्त्रीणां दक्चुम्बने पुरुषस्यातीव मनोहरं भवतीति, यो वलयो-मध्यवर्तिरेखारूपा यस्याः सा तथा शता, अत्र द्वितीयैकवचनलोपः प्राकृतत्वात् , त्रिवलीकत्वं स्त्रीणामतिप्रशस्वं पुंसां तु तथाविधं न, यदाह-"शस्त्रान्तं शास्त्रीभोगिनमाचार्य बहुसुतं यथासख्यम् । एकद्वित्रिचतुर्भिवेलिभिर्विद्यान्नृपं त्ववलिम् ॥१॥" तथा त्रिषु-स्तनजघन-10 | योनिलक्षणेषु उन्नतां त्रिषु-नाभिसत्त्वस्वररूपेषु गम्भीरां त्रिषु-रोमराजीचूचुककनीनिकारूपेष्ववययेषु कृष्णां त्रिषुदन्तस्मितचक्षुर्लक्षणेषु श्वेता त्रिषु-वेणीबाहुलतालोचनेषु आयतां-प्रलम्बां त्रिषु-श्रोणिचक्रजघनस्थलीनितम्बबिम्बेषु ॥२५३।। विस्तीर्णा समशरीरां समचतुरस्रसंस्थानत्वात् , भरते वर्षे सर्वमहिलाप्रधानां, सुन्दरं स्तनजघनवरकरचलननयनं यस्याः सा तथा तां, शिरसिजा:-केशाः दशना-दन्तास्तैर्जनहृदयरमणी-द्रष्टुलोकचित्तक्रीडाहेतुकं अत एव मनोहरी पश्चात्
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
8080900a
minine
~509~
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ུཊྛཝོལཱ ཝཱ + ༤ཡྻཱཡྻ
-१०३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [६४] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'सिङ्गारागारे 'त्यत्र यावत्पदात् सिङ्गारागारचारुवेसं संगयगयहसि अभणिअचिठ्ठिअविलाससल| लिअसंलावनिउण इति संग्रहः शृङ्गारस्य- प्रथमरसस्यागारं - गृहमिव चारुर्वेषो यस्याः सा तथा तां सङ्गता - उचिता गतहसितभणितचेष्टितविलासा यस्याः सा तथा, तत्र गतं गमनं हसितं स्मितं भणितं वाणी चेष्टितं च-अपुरुषचेष्टा विलासो-नेत्रचेष्टा तथा सह ललितेन प्रसन्नतया ये संलापा:- परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, तथा युक्ताः| सङ्गताः ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा ततः पदत्रयकर्मधारयः तां, अमरबधूनां सुरूपं-सौन्दर्य रूपेणानुहरन्तीं - अनुकुर्वतीं भद्रे - कल्याणकारिणि यौवने वर्त्तमानां, शेषं तु प्राग्योजितार्थं, 'गिन्हित्ता' इत्यादि, गृहीत्वा तयोत्कृष्टया त्वरितया यावदुद्भूतया विद्याधरगत्या यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छतः, उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नौ सकिंकिणीकानि यावत्पदात् पश्ञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिती इत्यादि जयेन विजयेन वर्द्धयतः वर्द्धयित्वा चैवम| वादिपातां - अभिजितं देवानुप्रियैः यावत्शब्दात् सर्वं मागधगमवद्वाच्यं, नवरमुत्तरेणं चुल्लहिमवंतमेराए इति 'अम्हे णं देवाणुप्पि आणं विसयवासिणोत्ति आवां देवानुप्रियाणां आज्ञप्तिकिंकरावितिकृत्वा तत्प्रतीच्छन्तु देवानुप्रिया ! | अस्माकमिदं यावच्छन्दादेतद्रूपं प्रीतिदानमितिकृत्वा विनमिः स्त्रीरत्नं नमिश्च रत्नानि समर्पयति । अथ भरतो यदकापत्तदाह-- 'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा यावच्छन्दात् प्रीतिदानग्रहणसत्कारणादि ग्राह्यं, प्रतिविसर्जयति प्रतिविसृज्य च पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्राम्य च मज्जनगृहमनुप्रविशति अनुप्रविश्य च स्नानविधिः
Fur Fate &P Cy
~ 510~
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
------------------- मल [६४] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
द्वीपशा
[६४]
गाथा:
श्रीजम्बू- TRI पूर्णोऽत्र वाच्यः ततो भोजनमण्डपे पारणं वांच्य, यावच्छब्दादन श्रेणिप्रश्रेणिशब्दनं अष्टाहिकाकरणाज्ञापनमिति, पूणाऽत्र का
वक्षस्कारे ततस्ता नमिविनम्योर्विद्याधरराज्ञोरष्टाहिका महामहिमां कुर्वन्तीति शेषः, आज्ञां च प्रत्यर्पयन्तीति प्रसङ्गाद् बोध्यमिति, नमिचिनः न्तिचन्द्री
मिसाधनं अथ दिग्विजयपरमाङ्गभूतस्य चक्ररत्नस्य को व्यतिकर इत्याह-'तए णमित्यादि, ततो-नमिचिनमिखचरेन्द्रसाधनाया वृत्तिः
स्त्रीरतातिर नन्तरं तद्दिन्यं चक्ररलमायुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामतीत्यादिकं प्राग्वत् , नवरमुत्तरपौरस्त्यां दिशम्-ईशानदिशं, वैता
म.६४ ॥२५४॥ व्यतो गङ्गादेवीभवनाभिमुखं गच्छतः ईशानकोणगमनस्य ऋजुमार्गत्वात् , अत्र निर्णेतुकामेन जम्बूद्वीपालेख्य द्रष्टव्यं,
गङ्गादेवीभवनाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, सैव सर्वा सिन्धुदेवीवक्तव्यता गङ्गाभिलाषेन ज्ञेया यावत्प्रीतिदानमिति 1 गम्यं, नवरं तत्रायं विशेषः-रत्नविचित्रं कुम्भाष्याधिकसहनं, नानामणिकनकरसमयी, भक्तिः-विच्छित्तिस्तया विचित्रे
च द्वे कनकसिंहासने, शेष प्राभृतग्रहणसन्मानदानादिकं तथैव, थावदष्टाहिका महिमेति, यच्च ऋषभकूटतः प्रत्यावृत्तो 18न गङ्गां साधयामास तद्वैताब्यवर्त्तिविद्याधराणामनात्मसात्करणेन परिपूर्णोत्तरखण्डस्यासाधितत्वात् कथं गङ्गानिष्कु-18 18.टसाधनायोपक्रमते इत्यवसेयं, यच्चास्य गङ्गादेवीभवने भोगेन वर्षसहस्रातिवाहन श्रूयते तत्प्रस्तुतसूत्रे चूर्णी चानु-13 कमपि ऋषभचरित्रादवसेयम् ॥ अथातो दिग्यात्रामाह
२५४॥ तए णं से दिखे चक्करयणे गंगाए देवीए अवाहियाए महामहिमाए निवत्ताए समाणीए आउघरसालाओ पडिणिक्खमइरत्ता जाव गंगाए महाणईए पञ्चथिमिलेणं कूलेणं दाहिणदिसि खंडप्पवायगुहामिमुहे पयाए आवि होत्या, तते णं से भरहे राया जाव
दीप अनुक्रम [१०१-१०३]
JinElimiti
~511~
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [3], -----
---- मूलं [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६५]
जेणेब खंडपवायगुहा तेणेव ख्वागच्छह २त्ता सवा कयमालकवत्तव्वया अवा णवरि णमालगे देवे पीतिदाणं से आलंकारिअभंड कढगाणि अ सेसं सर्व तहेब जाव अहाहिआ महामः । तए णं से भरहे राया णहमालगस्स देवस्स अट्ठाहिआए म० णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सहावेइ २ चा जाव सिंधुगमो अब्बो, जाव गंगाए महाणईए पुरथिमिल्छ णिक्खुढं सगंगासागरगिरिमेराग समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेइ २ चा अग्गाणि वराणि रयणाणि पडिच्छह २ ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ २ ता दोचंपि सक्त्रंधावारवले गंगामहाणई विमलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणेणं उत्तरइ २ ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पञ्चोरुहइ २ चा अम्गाई वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ २ ता करयलपरिग्गहिरं जाव अंजलि कट्ट भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ २ ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेइ । तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अगाई वराई रयणाई पडिच्छइ २ ता सुसेणं सेणावई सकारेइ सम्माणेइ २ ता पडिविसजेइ, तर गं से सुसेणे सेणाबई भरहस्स रण्णो सेसपि तहेब जाव विहरद, तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ सुसेणं सेणावइरयणं सदावेइ २ ता एवं वयासी-आच्छणणं भो देवाणुप्पिा ! खंडगप्पवायगुहाए उत्तरिलस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि २ ता जहा तिमिसगुहाए तहा भाणिअव्वं जाव पि भे भवउ सेसं वहेब जाव भरहो उत्तरिखेगं दुवारेणं अईइ, ससिब्ब मेहंधयारनिवहं तहेव पविसंतो मंडलाई आलिहद, तीसे गं खंडगप्पवायगुहाए बहुमज्जादेसभाए जाव उम्ममाणिमग्गजलाओ णामं दुबे महाणईमो तहेव णवरं पश्चथिमिल्लाओ कडगाओ पढाओ समाणीओ पुरस्थिमेणं गंगं महाणई समति, सेसं वहेब णवरि पञ्चस्थिमियेणं फूलेणं गंगाए संकमवत्तन्वया तहेवत्ति, तए
दीप अनुक्रम [१०४]
Sa090989096800
~512~
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [ ६५ ]
दीप
अनुक्रम
[१०४ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६५ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीवम्पूद्वीपशाविचन्द्रीया वृत्तिः
॥२५५॥
खंडगप्पवायगुहाए दाहिणिस्स दुबारस्स कवाडा. सयमेव महया २ कोंचारखं करेमाणा २ सरसरस्सगाई ठाणाई पचोसकित्था, ए णं से भरहे राया चक्करयणदेसियमग्गे जाव खंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णीणेइ ससिब्व मेघयारनिवहाओ (सूत्र६५ ) 'तए 'मित्यादि, ततो- गङ्गादेवी साधनानन्तरं तद्दिव्यं चक्ररलं गङ्गाया देव्या अष्टाहिकायां महिमायां निवृत्तायां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति यावत्पदादन्तरिक्षप्रतिपन्नपदादिपरिग्रहः गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले दक्षिणदिशि खण्डप्रपातगुहाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, ततः स भरतो राजा चक्ररनं पश्यतीत्यादिकं तावद्वक्तव्यं यावत्खण्डप्रपात गुहायामागच्छतीति पिण्डार्थः, सर्वा कृतमालच कव्यता - तमिनागुहाधिपसुरवक्तव्यता नेतव्या - ज्ञातव्येत्यर्थः, नवरं नाव्यमालको नृत्तमालको वा देवो गुहाधिपः प्रीतिदानं 'से' तस्य आलङ्कारिकभाण्डं - आभरणभृतभाजनं कटकानि च शेषं-उक्तविशेषातिरिकं सर्वं तथैव - सरकारसन्मानादिकं कृतमालदेवतावद्वक्तव्यं यावदष्टाहिका, अथ दाक्षिणात्यगङ्गानिष्कुटसाधनाधिकारमाह-- 'तए ण'मित्यादि, ततः - खण्डप्रपात गुहापतिसाधनानन्तरं स | भरतो राजा नाव्यमालकस्य देवस्याष्टाहिकायां पूर्णायां सुषेणं सेनापतिं शब्दयति, शब्दयित्वा च 'जांव सिन्धुगमो 'ति यावत्परिपूर्णः 'एवं बयासी - गच्छाहि णं भो देवाणुप्पि ! सिन्धुप' इत्यादिकः सिन्धुगमः - सिन्धुनदीनिष्कुटसाधन| पाठो गङ्गांभिलापेन नेतव्यः यावद् गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटं - गङ्गायाः पश्चिमतो वहन्त्या सागरेण पूर्वतः परिक्षेपकारिणा गिरिभ्यां दक्षिणतो वैतायेन उत्तरतो उघुहिमवता कृता या मर्यादा-व्यवस्था तथा सह वर्त्तते यत्त
Fur Fraternal Use O
~ 513 ~
वक्षस्कारे खण्डप्रपाताचिपनतमालसा
धनं निर्ग
मध सू. ६५
॥२५५॥
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६५]
तथा, अन्यत्सर्व प्राग्वत् सूत्रतो व्याख्यातश्च गङ्गागमेन परिभावनीयं, अथ नाट्यमालदेवस्य वशीकरणप्रयोजनमाह
'तए ण'मित्यादि, ततो-गङ्गानिष्कुटसाधनानन्तरं स भरतः सुषेणं सेनापतिरनं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदि18 त्यादिकं अत्र गुहाकपाटोद्घाटनाज्ञापनादिकं एकोनपश्चाशम्मण्डलालेखनान्तं सर्व तमिस्रागुहायामिव ज्ञेयं, अत्र यो
विशेषस्तन्निरूपणार्थमाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्याः-खण्डप्रपातगुहायाः बहुमध्यदेशभागे यावत्पदात् 'एत्य ण'1 मिति पदमात्रमवसेयं, उन्मन्नजलानिमग्नजले नाना द्वे महानद्या स्तः, तथैव-तमिस्रागुहागतोन्मनानिमग्नानदी
गमेन ज्ञातव्ये, नवरं खण्डमपातगुहायाः पाश्चात्यकटकात् प्रन्यूढे सत्यौ पूर्वेण गङ्गां महानदी समामुत:-प्रविशतः, शेष विस्तारायामोद्वेधान्तरादिकं तथैव-तमिनागतनदीद्वयप्रकारेणावसेयं, नवरं गङ्गायाः पाश्चात्यकूले संक्रमवक्तव्यता| सेतुकरणाज्ञादानतद्विधानोत्तरणादिकं ज्ञेयं, तथैव-प्राग्वद् ज्ञेयमिति, अर्थतस्मिन्नवरे दक्षिणतो यज्जातं तदाह
'तए ण'मित्यादि,माग्व्याख्यातार्थ, अथोपाटितयोर्गुहादक्षिणद्वारकपाटयोः प्रयोजनमाह-तए ण'मित्यादि, ततः8कपाटोद्घाटनानन्तरं स भरतो राज्ञा चक्ररत्नदेशितमार्गः यावत्करणात् 'अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया
उकिट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअंपिव करेमाणे' इति पदानां परिग्रहा, खण्डप्रपातगुहातो 18| दक्षिणद्वारेण मिरेति शशीव मेहान्धकारनिवहात्, प्राग्व्याख्यातं, ननु चक्रिणां तमिस्रया प्रवेशः खण्डप्रपातया 181
निर्गमः किंकारणिकः, खण्डमपातया प्रवेशस्तमिस्रया निर्गमोऽस्तु, प्रवेशनिर्गमरूपस्य कार्यस्योभयत्र तुल्यत्वात् , उच्यते, 18|
Segoeae
दीप अनुक्रम [१०४]
~ 514 ~
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
३वक्षस्कारे गङ्गाकूले | निधिप्राप्तिः पश्चिमसाधनं विनीतागमश्च
[६५]
दीप
श्रीजम्बू-18|तमिस्रया प्रवेशे खण्डप्रपातानिर्गमे च सृष्टिः, तया च क्रियमाणस्य तस्य प्रशस्तोदकत्वात्, अन्यच्च खण्डप्रपातया
द्वीपशाः18 प्रवेशे आसन्नोपस्थीयमान ऋषभकूटे चतुर्दिकपर्यन्तसाधनमन्तरेण नामन्यासोऽपि न स्यादिति ॥ अथ दक्षिणभरता - न्तिचन्द्री
गतो भरतो यच्चके तदाह॥२५६॥
तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पञ्चस्थिमिले कूले दुवालसजोअणायाम णवजोअविच्छिणं जाब विजयखंधावारणिवेसं करेइ, अवसिह तं चेव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभवं पगिण्हह, नए णं से भरहे राया पोसहसालाए जाव णिहिरवणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइत्ति, तस्स व अपरिमिअरत्तरयणा धुमक्खयमन्बया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुअजसा, तंजहा-"नेसप्पे १ पंडुअए २ पिंगलए २ सब्बरयण ४ महपउमे ५। काले ६ अ महाकाले ७ माणवगे महानिही ८ संखे ९॥१॥णेसप्पंमि णिवेसा गामागरणगरपट्टणाणं च । दोणमुहमडवाणं खंधावारावणगिहाणं ।। १॥ गणिअस्स य उप्पत्ती माणुम्माणस्स जं पमाणं च । घण्णस्स य बीआण य उप्पत्ती पंहुए भणिआ ॥२॥ सव्वा आभरणविही पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं | आसाण य हत्यीण व पिंगलगणिहिमि सा भणिआ ॥ ३॥ रयणाई सव्वरयणे चउदसवि वराई चक्कवहिस्स । उपजते एगिदिआई पंचिंदिआई च ॥४॥ वत्याण व उप्पत्ती णिप्फची चेव सबभत्तीणं । रंगाण य घोबाण य सव्वाएसा महापउमे ॥ ५॥ काले कालण्णाणं सब्बपुराणं च तिसुवि बसेसु । सिप्पसयं कम्माणि अतिणि पवाए हिअकराणि ॥६॥ लोहस्स व उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमुत्तसिळप्पवालाणं ॥ ७॥ जोहाण य उत्पत्ती
अनुक्रम [१०४]
॥२५६॥
उधकएछ
भरतस्य दक्षिनार्धभरते दिग्विजय-अर्थे गमनं, नव-निधय: प्राप्ति: वर्ण्यते
~ 515~
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धणीई माणवगे दंडणी मागविही गाडगविही कम्बस्स य पबिहस्स अप्पत्ती। संखे महाणिहिंमी तुभिंगाणं च सव्वेसि ॥ ९॥ चक्कट्ठपहाणा अहस्सेहा व णव य विखंभा । बारसदीहा मंजूससंठिआ जण्हवीइ मुहे ॥१०॥ वेरुलिभमणिकवाडा कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा । ससिसूरचकाळपखण अणुसमवयणोववत्ती या ॥ ११॥ पलिओचमहिई णिहिसरिणामा य तत्व खलु देवा । जेसि ते आवासा अविना आदिवचा य ।। १२॥ एए णव णिहिरयणा पभूयधणरथणसंचयसमिद्धा । जे वसमुपगच्छंति भरहाविवचकवट्टीणं ॥ १३ ॥ वए णं से भरदे राया अहमभरसि परिणममाणसि पोसहसालाओ पविणिक्खमइ, एवं मजणघरपवेसो जाव सेणिपसेणिसावणया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहि महामहिमं करेइ, तए णं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिआए महामहिमाए णिब्वत्ताप समाणीए सुसेणं सेणावहरयणं सदावेश २ चा एवं क्यासी-गच्छण्णं भो देवाणुप्पिा ! गंगामहाणईए पुरथिमिलं णिक्खुढं दुचंपि सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुढाणि अ ओअवेहि २ चा एनमाणत्ति पञ्चप्पिणाहित्ति । तए णं से सुसेणे तं व पुववणिों भाणिअव्वं जाव ओअवित्ता तमाणत्ति पञ्चप्पिणइ पडिविसज्जेइ जाव भोगभोगाई मुंजमाणे विहरदातए णं से दिव्वे पकरयणे अन्नया कयाइ 'आउहघरसालाओ पद्धिणिक्खमइ २ चा अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिखुड़े दिन्वतुढिल जाव आपूरेते चेव विजयक्खंधावारणिवेसं मझमजोणं णिग्गच्छद दाहिणपञ्चस्थिमं दिसि विगीअं रायहाणि अभिमुहे पयाए आदि होत्या । तए णं से भरहे राया जाव पासइ २त्ता हतुट्ठ जाव कोढुंबिअपुरिसे सदावेद २ चा एवं वयासी-सिप्पामेव भो देवाणप्पिा ! आमिस जाब पञ्चप्पिणंति ( सूत्र ६६)
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
~516~
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----------
--------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
निधित्रा
गाथा:
श्रीजम्बू- 'तए ण'मित्यादि, ततो-गुहानिर्गमानन्तरं स भरतो राजा गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले द्वादशयोजनायाम 8 विक्षस्कारे
नवयोजनविस्तीर्ण यावत्पदात् 'वरणगरसरिच्छं' इति ग्राी, विजयस्कन्धावारनिवेशं करोति, अवशिष्ट-वर्द्धकि-18 गाकले न्तिचन्द्रीया चिः
रत्नशब्दाज्ञापनादिकं तदेव-यन्मागधदेवसाधनावसरे उक्तमिति, यावच्छब्दात्पौषधशालादर्भसंस्तारकसंस्तरणादि ज्ञेयं, निधिरलानामष्टमभक्तं प्रगृह्णाति, ततः स भरतो राजा पौषधशालायों यावत्पदात् 'पोसहि' इत्यादिकं 'एगे अचीएर
तिः पश्चिम
साधनं वि ॥२५७॥ इत्यन्तं पदकदम्बकं ग्राह्य, निधिरत्नानि मनसि कुर्वन् २ तिष्ठति, इत्थमनुतिष्ठतस्तस्य किं जातमित्याह-'तस्य यानीतागमश्च
Ri इत्यादि, तस्य-भरतस्य चशब्दोऽर्थान्तरारम्भे नव निधयः उपागता-उपस्थिता इत्यन्वयः, किंभूताः-अपरिमितानि सू. ६६
| रक्तानि उपलक्षणादनेकवर्णानि रत्नानि येषु ते तथा, इदं च विशेषणं तन्मतापेक्षया बोध्यं यन्मते निधिष्वनन्तरमेव | शवक्ष्यमाणाः पदार्थाः साक्षादेवोत्पद्यन्ते इति, अयमर्थः-एकेषां मते नवसु निधिषु कल्पपुस्तकानि शाश्वतानि सन्ति, शतेषु च विश्वस्थितिराख्यायते, केषांचित्तु मते कल्पपुस्तकप्रतिपाद्याः अर्थाः साक्षादेव तत्रोत्पद्यन्ते इति, एनयोरपर
मतापेक्षया अपरिमिए इत्यादि विशेषणमिति, तथा ध्रुवास्तथाविधपुस्तकवैशिष्ट्यरूपस्वरूपस्यापरिहाणेः अक्षयाः अवय
विद्न्यस्यापरिहाणेः अव्ययास्तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः, अत्र प्रदेशापरिहाणियुक्तिः समयसंवादिनी पद्मवरवेदिका-II ॥२५॥ 18|| व्याख्यासमये निरूपितेति ततोऽवसेया, अन पदद्वये मकारोऽलाक्षणिका, ततः पदत्रयकर्मधारयः, सदेवा अधि-15
| ठायकदेवकृतसानिध्या इति भावः लोकोपचयङ्कराः, अब नवा खित्कृदन्ते रात्रे (श्रीसि०अ०५पा०४ सू०११०
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
~ 517~
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
रिति सूत्रे योगविभागेन व्याख्याने तीर्थकरादिशब्दवत् साधुत्वं ज्ञेयं, यद्वा 'देवनागसुवण्णकिंनरगणस्सम्भूअ-18
भावच्चिए' इत्यादिवदार्पत्वादनुस्वारे लोकोपचयकरा:-वृत्तिकल्पककल्पपुस्तकप्रतिपादनेन लोकानां पुष्टिकारकाः लोकश विख्यातयशस्का इति, अथ नामतस्तानुपदर्शयति-तद्यथेत्युपदर्शने नैसर्पस्य देवविशेषस्थायं नैसर्पः, एवमग्रेऽपि भाव्यं, अथ यत्र निधौ यदाख्यायते तदाह-सप्प'मित्यादि, नैसर्पनामनि निधी निवेशा:-स्थापनानि स्थापनवि
यो मामादीनां गृहपर्यन्तानां व्याख्यायन्ते, तत्र ग्रामो-वृत्त्यावृतः आकरो-यत्र लवणाद्युत्पद्यते नगरं-राजधानी पत्तन-रत्नयोनिद्रोणमुख-जलस्थल निर्गमप्रवेशं मडम्ब-अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तर्यामरहितं स्कन्धावार:-कटकं आपणोहट्टः, गृह-भवनं उपलक्षणात् खेटकर्बटादिग्रहः १ ॥ अथ द्वितीयनिधानवक्तव्यतामाह-गणिअस्स'इत्यादि, गणितस्य-सण्याप्रधानतया व्यवहर्त्तव्यस्य दीनारादेः नालिकेरादेवो चशब्दात् परिच्छेद्यधनस्य मौक्तिकादेरुत्पत्ति| प्रकारः तथा मान-सेतिकादि तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, तथा उन्मानं-तुलाकर्षादि तद्विषय | यत्तदप्युन्मानं खण्डगुडादि धरिमजातीयं धनमित्यर्थः, ततः ममाहारद्वन्द्वस्तस्य च यत्प्रमाणं लिङ्गविपरिणामेन तत्पा॥ण्डुके भणितमिति सम्बन्धः, धान्यस्य-शाल्यादेवींजानां च-वापयोग्यधान्यानामुत्पत्तिः पाण्डुके निधौ भणिता २॥
अथ तृतीयनिधिस्वरूपं निरूप्यते-'सबा आभरण'इत्यादि, सर्व आभरणविधिर्यः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथा-19 || श्वानां हस्तिनां च स यथौचित्येन पिङ्गलकनिधौ भणितः लिङ्गविपरिणामः प्राकृतौलीभवः ॥ अथ चतुर्थनिधि:
pragatangapa900000008corneraoradabas
209929899298999990s
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
~518~
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
श्रीजम्बू- 'रयणाई इत्यादि, रक्षानि चतुर्दशापि वराणि चक्रवर्तिनश्चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि च सप्त पञ्चेन्द्रि- श्वक्षस्कारे
याणि सर्वरत्नाख्ये महानिधावुत्पद्यन्ते, तदुत्पत्तिः तत्र व्यावयेत इत्यर्थः, अन्ये वेवमाहुः-उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् गङ्गाकूले न्तिचन्द्री- स्फातिमद्भवन्तीत्यर्थः ४॥ अथ पञ्चमो निधिः-'वत्थाण य'इत्यादि, सर्वेषां वस्त्राणां च या उत्पत्तिस्तथा सर्वषिभ- या वृचिः
ना
प्तिः पश्चिमकीनां-वस्त्रगतसर्वरचनानां रङ्गानां च-मञ्जिष्ठाकृमिरागकुसुम्भादीनां 'धोब्याण यत्ति सर्वेषां प्रक्षालनविधीनां च या ॥२५८॥ IN| निष्पत्तिः सर्वा एषा महापानिधी ५॥ अथ षष्ठो निधिः-काले कालपणाण'मित्यादि, कालनामनि निधी काल-नीतागमच
ज्ञान-सकलज्योतिःशास्त्रानुवन्धि ज्ञान तथा जगति वयो वंशाः वंशः प्रवाहः आवलिका इत्येकार्थाः, तद्यथा-तीर्थ
करवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्च तेषु त्रिष्वपि वंशेषु यद्भाव्यं यच्च पुराणमतीतमुपलक्षणमेतद्वर्तमानं शुभा-15 ISM शुभ तत्सर्वमत्रास्ति, इतो महानिधितो ज्ञायत इत्यर्थः, शिल्पशत-विज्ञानशतं घटलोहचित्रवखनापितशिल्पानां पञ्चा
नामपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात् कर्माणि च-कृषिवाणिज्यादीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि त्रीण्येतानि प्रजाया Is हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वात् एतत्सर्वमत्राभिधीयते ६॥ अथ सप्तमो निधिः-'लोहस्स य'इत्यादि, लोहस्य च नानाविधस्योत्पत्तिर्भवति महाकाले निधौ, तत्र तदुत्पत्तिराख्यायते इत्यर्थः, तथा रूप्यस्य सुवर्णस्य च मणीनां-81
॥२५ ॥ चन्द्रकान्तादीनां मुक्कानां-मुक्ताफलानां शिलानां-स्फाटिकादीनां प्रवालानां च सम्बन्धिनां आकराणामुत्पत्तिर्भवति,18 || महाकाले निधाविति योगः ॥७॥ अथाष्टम:-'जोहाण यइत्यादि, योधानां-सूरपुरुषाणां चशब्दात, कातराणा
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
~ 519~
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
---------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
गाथा:
मुत्पत्तिरभिधीयते, यथा योधत्वं कातरत्वं च जायते तथाऽत्राभिधीयते इत्यर्थः, तथा आवरणानां च-खेटकानां सन्नाहाना वा प्रहरणानां-अस्यादीनां च सर्वा च युद्धनीति:-प्यूहरचनादिलक्षणा सर्वापि च दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिः-सामादिश्चतुर्विधा माणवकनाम्नि निधावभिधीयते, ततः प्रवर्तत इति भावः ॥ अथ नवमः'णट्टविही णाडगविहीं'इत्यादि, सर्वोऽपि नृत्यविधिः-नाव्यकरणप्रकारः सर्वोऽपि च नाटकविधिः-अभिनेयप्रबन्ध-18 प्रपञ्चनप्रकारः तथा चतुर्विधस्य काव्यस्य ग्रन्थस्य-धमश्र्थिश्कामश्मोक्षलक्षणपुरुषार्थनिबद्धस्याथवा संस्कृत १-18 प्राकृता २ पभ्रंश ३ संकीर्ण ४ भाषानिबद्धस्य गद्य १ प २ गेय ३ चौर्ण ४ पदवद्धस्य वा उत्पत्ति:निष्पत्तिस्तद्विधिः, तत्राद्यं काव्यचतुष्कं प्रतीतं, द्वितीयचतुष्के संस्कृतप्राकृते सुबोधे अपभ्रंश:-तत्तद्देशेषु शुद्ध भाषितं । | सङ्कीर्णभाषा-शौरसेन्यादिः, तृतीयचतुष्के गद्य-अच्छन्दोबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत् पर्व-छन्दोबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत् गेयं-गन्धा रीत्या बद्धं गानयोग्यं चौर्ण-बाहुलकविधिवहलं गमपाठबहुलं निपातबहुल निपाताव्ययबहलं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवत् , अत्र चेतरयोर्गद्यपद्यान्तर्भावेऽपि यत्पृधगुपादानं तद्गानधर्माधेयधर्मविशिष्टतया विशेषणविवक्षणार्थ, शंखे महानिधी, तथा त्रुटिताङ्गानां च-तूर्याङ्गाणां सर्वेषांवा तथातथावाद्यभेदभिन्नानामुत्पत्तिः शङ्के महानिधाविति ९॥ अथ नवानामपि निधीनां साधारणं स्वरूपमाह-'चकट्ट'इत्यादि, प्रत्येकमष्टसु चक्रेषु प्रतिष्ठानं-अवस्थानं गयेषां ते तथा, यत्र यत्र वाह्यन्ते तत्र तत्राष्टचक्रप्रतिष्ठिता एव वहन्ति, प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य परनिपातः, अष्टी योज-1K
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
हमान
~520~
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
--------- मूलं [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]]
गाथा:
श्रीजम्यू- नानि उत्सेधा-पुच्चस्त्वं वे ते तथा, नव च योजनानीति गम्यते विष्कम्भेन-विस्तारेण नक्योजन विस्तारा इल द्वीपशा- बादशयोजनदीर्घाः मंजूपावरसंस्थिताः, जाहव्या-गलाचा मुखे यत्र समुद्र गङ्गां प्रविशति तत्र सम्सीत्यर्थः, 'हत्वपलेवा गङ्गाकूल न्तिचन्द्रा व महामुखमागधवासिनः । वागतास्त्वां महाभाग!, त्वद्भाग्येन वशीकृताः ॥१॥” इति विषष्टीवचरित्रोकेIEWS या वृत्तिः
चयुत्पत्तिकाले च भरतविजयानन्तरं चक्रिणा सह पातालमार्गेण भाग्यवत्पुरुषाणां हि पदाचास्थितचो निधय इति । ॥२५९॥ चकिपुस्मनुयान्ति, तथा बैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मक्ट्पत्ययस्थ वृत्या पुतार्थता, कनकमया:-सौक-1|| नीतागमश्च
ः विविधस्तपतिपूर्णाः शशिसूरचक्राकाराणि लक्षयानि-चिहानि येषां ते तथा, प्रथमावहुवचनलोपः प्राकृलत्वात्।। अनुरूपा समा-अविषमा वदनोपपत्तिः-द्वारघटना येषां ते तथा, पल्योपमस्थितिका निधिसदृशामानः खल, तत्र च निधिषु ते देका येषां देवाना त एव निधयः आवासा:-आश्रयाः, किंभूता:-अक्रेया-अक्रवणीयाः, किमर्थमित्वाइ-18| |आधिपत्याय-आधिपत्य निमित्तं, कोऽर्थः-तेषामाधिपत्यार्थी कश्चित्क्रयेण-मूल्यदानादिरूपेण तान् न लभते इति, किन्तु पूर्वसुचरितमहिनैवेत्यर्थः, एते नव विधयः प्रभूतधनरलसंचयसमृद्धाः ये भरताधिपाना-पखण्डभरतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्तिनां वशमुपगच्छन्ति-वश्यतां यान्ति, एतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽप्येतद्विशेषणव्युदासः, निधिपकरणे
॥२५॥ ॥ चात्र स्थानाङ्गप्रवचनसारोद्धारादिवृत्तिगतानि बहूनि पाठान्तराणि ग्रन्थविस्तरभयादुपेक्ष्यैतत्सूत्रादर्शदृष्ट एव पाठो है। व्याख्यातः। अथ सिद्धनिधानो भरतो यथके तदाह-'तए 'मित्यादि खतं, अथ पदसण्डदसदष्टिभरतो यथो-1॥
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
।
Simillennisma
~521~
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], ---------
----------------------- मूल [६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६]
tweseases
गाथा:
सत्सहते तथाऽऽह-तएण'मित्यादि, इदमपि प्रायो व्यक, नवरं गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटमित्युक्ते उदीचीनमपि3 स्यादिति द्वितीयमित्युक्तं, अवशिष्टे न अस्मैव प्राप्तावसरत्वात् , मजायाः पश्चिमतो वहन्त्याः सागराभ्यां-याच्यापाच्याभ्यां मिरिणा-वैताब्येनोत्तरवर्तिना कृता या मर्यादा-क्षेत्रविभागस्तया सह वर्तते यत्तत्तथा, अथ सुषेणो यश्चके
तदाह-सए 'मित्यादि, तत:-स्वाम्बाज्ञप्त्यनन्तरं सुषेण निष्कुटं साधयतीत्यादि, तदेव पूर्ववर्णितं-दाक्षिणात्यIS सिन्युनिष्कुटवर्णितं भणितव्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावन्निएकुटं साधयित्वा तामाज्ञविका प्रत्यर्पयति, प्रतिविसृष्टो
यावद भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति ॥ अथ साधिताखण्डपखण्डे भरते सति वचक्रमुपचक्रमे तदाहतप 'मित्यादि, ततो-मङ्गादक्षिणनिफुटविजयानन्तरं तद् दिव्यं चक्रर अन्यदा कदाचिदायुधगृहात् प्रतिनि-RI कामति, विशेषणेकदेशा अमाशेषविशेषणस्वारणार्थ तेनान्तरिक्षप्रतिपच पक्षसहस्रर्सपरिवृत्तं दिव्यत्रुटिलसचिनादेनापूरकविकाम्परतलं विजयस्कम्धाचारविषेश मध्यमध्येन-विजयस्कन्धावारस्य मध्यभागेच निर्गच्छति, दक्षिणपश्चिमां दिसिं-मैत्रीती विदिशं प्रति विनीता राजधानी क्षीकृत्वाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, अयं भावः-खण्डप्रपातगुहा-10 सनस्कन्धावारनिवेशाद् विनीता जिगमियो त्वभिमुखगमनं लापवायेति भावः, अथाभिविनीतं प्रस्थिते चक्रे भरतः चिके इलाह-तए पमित्यादि, स्ता-चक्रप्रस्थानादनन्तरं स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररत्नमित्यादि यावत्पश्यति ।
परतुष्टाविविशेषणः कौबुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया 1 आभिषेक्यं ६
दीप अनुक्रम [१०५-१२०]
Palaenestoerseene
Sanelentlemand
~522 ~
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६६]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१०५
-१२०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [३],
मूलं [६६] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥२६०॥
यावत्करणात् हस्तिरलं प्रतिकल्पयत सेना सन्नाहयत ते च सर्वं कुर्वन्ति आज्ञां च प्रत्यर्पयन्ति ॥ अथोक्तमेवार्थं | दिग्विजयकालाद्यधिकार्थविवक्षया विस्तरवाचनया चाह
तणं से भरहे राया अजिअरजो विजिअसत्तू उप्पण्णसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धको से बत्तीसरायवरसहस्साआमगे सीए वरिससहस्सेहि केवलकप्पं भरहं वासं ओयवे ओअवेचा कोडबियपुरिसे सहावेइ२ ता एवं व्यासी - खिप्पामेव भो देवाप्पा | आभिसेक हत्यिरयणं हयगयरह तद्देव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयबई णरवई दुरूढे । वए णं तस्स भरहस्स रण्णो अभिसेकं हत्यिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्टिआ, संजहा- सोत्थिअसिरिवछजाव दुष्पणे, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्या य छतपडागा जाब संपट्टिभ, तयणंतरं च वेरुलिअमितविमलदंड जान अहाणुपुब्बीए संपट्टि, तयणंतरं च णं सत्त एगिंदिअरयणा पुरओ अहाणुपुवीए संपत्थि, सं०-चक्करयणे १ छत्त रणे २ चम्मरयणे ३ वंडरयणे ४ असिरवणे ५ मणिरयणे ६ कागणिरयणे ७ तयणंतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओ अहाणुपुथ्वी संपट्टि, तंजा—-सपे पंडुयए जाब संखे, तयणंतरं च णं सोलस देवसहस्सा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपद्विआ, वयणंतर बत्तीसं रायवरसहस्सा अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तयणंवरं चणं सेणावद्दरयणे पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्टिए एवं गाडावरयणे रयणे पुरोहिअरयणे, तयनंतरं च णं इत्थिरवणे पुरओ अहाणुपुवीए० तथणंतरं च णं बत्तीसं उदुकहाणिना सहस्सा पुरओ अणुपुब्बी तयणंतरं च णं बत्तीसं जणवयकलाणासहस्सा पुरओ अहाणुपुब्वीप तयणंतरं च णं बत्तीस बत्तीसहबद्धा णा
Funvalerely
~ 523 ~
७,०
३ वक्षस्कारे
भरतस्य
विनीतायां प्रवेश: सं. ६७
॥२६० ॥
astrayag
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
बगसहस्सा पुरओ अहाणुगुब्बीए. तयणतरं च णं तिष्णि सट्टा सूअसया पुरओ अहाणुपुवीए० तयणतरं च णं अट्ठारस सेणिप्पसेणीमो पुरओ० तथणतर चणं चउरासीई आससबसहस्सा पुरओ० तयणंतरं च णं चउरासीई हत्यिसयसहस्सा पुरजो भहाणुपुबीए. तयणतरं च णं छण्णउई मणुस्सकोडीओ पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तयणंतरं च ण बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पमिईओ पुरओ अहाणुपुव्वीइ संपडिआ तयणतरं च णं बहले असिग्माहा लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरगाहा पासग्गाहा फलगम्गाहा परसुग्गाहा पोत्थयम्गाहा वीणग्गाहा कूधग्गाहा हडप्फग्गाहा दीविअंगाहा सएहिं सएहिं रूवेडिं,एवं वेसेहिं विधेहि निओएहिं सएहिं २ वत्थेहिं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपत्विा , तयणंतर पणं बहवे इंडिणो मुंडिणो सिहडिणो जडिणो पिच्छिणो हासकारगा खेडकारगा दुवकारगा चाहुकारगा कंदपिआ कुकुहा मोहरिआ गायंता य दीवंता य (वार्यता) नचंता य इसंता य रमंवा य कीलंता य सासेंता य साता व जावेंता य रावेंदा य सौ ता य सोभावेंता य आलोअंता य जयजयसरं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुत्वीए संपविआ, एवं उववाइअगमेणं जाव तस्स रण्णो पुरमो महासा आसधरा उभओ पासिं णागा णागधरा पिढओ रहा रहसंगेही अहाणुपुवीए संपद्विआ इति । तए णं से भरहादिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे जाव अमरवइसण्णिभाए इडीए पहिमकित्ती चक्करयणदेसिभमम्गे अणेगरायवरसहस्साणुभायमग्गे जाव समुश्वभूअंपिव करेमाणे २ सनिडीए सव्व. ज्जुईए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं गामागरणगरखेडकम्बदमडंच जाव जोअर्णतरिआर्हि वसहीहि वसमाणे २ जेणेव विणीआ रायहाणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता विणीभाए गयहाणीए अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम णवजोयणविच्छिणं जाव खंधावारणिवेसं करेइ २ चा बद्धहरयणं सदावेश २ ता जाव पोसहसालं अणुपविसइ २ चा विणीभाए रायहाणीए अट्ठमभत्तं पगिण्हा
दीप
अनुक्रम [१२१]
SOAPPS
Emainine
~ 524 ~
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
श्वक्षस्कारे भरतस्य विनीतायां प्रवेश सू. ६७
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२६१॥
सूत्रांक
[६७]]
Receaee
२ता जाव अहमभत्तं पडिजागरमाणे २ विहरइ । तए पं से भरहे सया अवमभत्तसि परिणममाणलि पोसहसालाओ पडिषिक्खमइ २ चा कोडंचिभपुरिसे सहावेइ २ ता तहेब जाव अंजणगिरिकूडसमिभं गयवई परवई दूरूदे तं चेव सबं जहावेश णपरिणव महाणिहिओ चत्तारि सेणाओ ण पविसंति सेसो सो चेव गमो जाव जिग्घोसणाइपणं विणीआए रायवाणीए मज्जामोणं जेणेव सए गिहे. जेणेव भवणवस्वडिसगपडिदुवारे वेणेव पहारेत्व गमणाए, लए गं तस्स भरहस्स रण्णो विजी रायवाणि मज्झमझेणं अणुपविसमाणस्स अप्पेगइआ देवा विणीअं रावहाणि सम्भंतरबाहिरिअं आसिअसम्मजिओवलितं करेंति अप्पेगइआ मंचाइमंचकलिअं करेंति, एवं सेससुवि परसु, अप्पेगइआ णाणाविहरागवसमुस्सियधयपडागामंडितभूमि अप्पेगा लाउल्लोइअमहिअं करेंति, अप्पेगइआ जाय गंधवटिभू करेंति, अप्पेगइआ हिरण्णवासं असिंति सुवण्णरवणक्दरआवरणवासं वासेंति, तए पं तस्स भरहस्स रणो विणीअं रायहाणि मझमझेणं अणुपविसमाणस्स सिंघाडम जाव महापहेसु बहवे अत्यत्थिआ कामस्थिआ भोगस्थिआ लाभत्थिा इद्धिसिआ किन्धिसिआ कारोडिा कास्त्राहिआ संखिया चकिमा मंगलिआ गृहमंगलिभा पूसमाणया बद्धमाणया लखमखमाइआ ताहि ओरालाहिं इवाहिं कताहिं पिशाहिं मणुनाहिं मणामाहिं सिवादि घण्याहिं मंगाहिं सस्सिरीआहिँ हिअयगमणिजाछि हिअवपल्हायणिज्नाहिं काहिं अणुवरवं अमिणदत्ता में अभिक्षुणता य एवं क्यासी-जय जय णया! जय जय भवा! भरं ते अजिअं जिणाहि जिअं पाळयाहि जिजमो क्साहि दो विक देवाण चंदो विव ताराणं चमसे बिव असुराण धरणे चित्र नागाणं बतूद पुक्सयसहस्साई बहूईओ पुब्बकोडीओ बने पुवकोटाकोडीओ विणीआए रायहाणीए पुणहिमवंतगिरिसागरमेरागस ब केवलकप्पस्स भरहस्स कासरस गामागरणगरखेडकच्चामडंबदोणशक्फ
दीप
अनुक्रम [१२१]
२६१॥
BARA
JAtEllenni
~525~
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [ ६७ ]
दीप
अनुक्रम
[१२१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६७ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
वृष्णासमसण्ण्रिवेसेसु सम्मं पयापालणोबज्बिअलद्वजसे महया जाव आहेवचं पोरेवनं जाव विहराहित्तिकट्टु जयजयसचं पडंजंति, त णं भरहे राया णयणमालासहस्सेहिं पिच्छिलमाणे२ वयणमालासहस्सेहिं अभिधुव्यमाणे २ हिजयमालासहस्सेईि उष्णदिनमाणे २ मणौरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे २ कंतिरूवसोहग्गगुणेहिं पिच्छिजमाणे २ अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइनमाणे २ दाहिणहत्थेणं बहूणं णरणारीसहस्साणं अंजलिमाळासदस्साई पडिन्छेमाणे २ भवणपतीसहस्साई समइच्छमाणे २ तंती तळतुडिअगीअवाइअरवेणं मधुरेण मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे २ जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरवर्डिसय दुधारे तेणेव उवागच्छ रत्ता आमिसेकं इत्विरयणं ठबेइ २ त्ता अभिसेकाओ इत्थिरयणाओ पचोरुहइ २ ता सोलस देवसहस्से सकारेइ सम्माणेइ २ चा बत्तीसं रायसहस्से सकारेइ सम्माणेइरत्ता सेणावइरयणं सकारेइ सम्माणेइ २ चा एवं गादावइरयणं वद्धइरयणं पुरोहियरयणं सकारेइ सम्माणेइ २ तातिष्णि सट्टे असए सकारेइ सम्माणइर का अहारस सेणिप्पसेणीओ सकारेइ सम्माणेइ २त्ता अण्णेति बहवे राईसर जाव सत्यवाइपनिईओ सकारेइ सम्माणे २ ता पडिबिसज्जे, इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाहिस्सेहिं बत्तीसाए बचीसइवोहिं णाढयसहस्सेहिं सर्द्धि संपरिबुडे भवणवरवसिगं अईइ जहा कुबेरो व देवराया कैलाससिहरिसिंगभूअंति, तए णं से भरहे राया वित्तणाइणिअगसयणसंबंधिपरिअणं पशुवेक्खइ २ त्ता जेणेव मनणघरे तेणेत्र उदागच्छ २ चा जाब मज्जणघराज पडिणिक्खम २ ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अद्रुमभत्तं पारे २त्ता उपि पासाववरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थपहिं बत्तीसहबद्धेहिं गाडएहिं उपलालिनमाणे २ उवणविज्जमाणे २ उगमाणे २ मदया जाव भुंजमाणे बिहरइ (सूत्रम् ६७ )
Frate&ae Oxy
~ 526~
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६७]]
श्रीजम्बू-18
'तए णमित्यादि, ततः स भरतो राजा अर्जितराज्यो-लब्धराज्यो निर्जितशत्रुरुत्पन्नसमस्तरत्नस्तत्रापि चकरलप्रधानो वक्षस्कारे नवनिधिपतिः समृद्धकोशः-सम्पन्नभाण्डागार द्वात्रिंशद्राजवरसहखैरनुयातमार्गः षष्ट्या वर्षसहस्रैः केवलकल्पं-परिपूर्ण भरतस्य.
विनीतायां न्तिचन्द्री- भरतवर्ष साधयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! आभिषेक्यं. या वृत्तिः निवि
प्रवेशः सू. IT'हत्थि'त्ति हस्तिवर्णकस्मारणं हयगयरह'त्ति सेनासन्नाहनस्मारणं तथैव पूर्ववत् स्नानविधिभूषण विधिसैन्योप-18 ॥२६॥
|स्थितिहस्तिरलोपागमनानि वाच्यानि, अजनगिरिशृङ्गसदृशं गजपतिं नरंपतिरारूढवान् । अथ प्रस्थिते नरपती के पुरतः के पृष्ठतः के पार्श्वतश्च प्रस्थितवन्त इत्याह-तए णमित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञः आभिषेक्यं हस्ति
रत्नमारूढस्य सतः इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यथानुपूर्व्या-यथाक्रमं संपस्थितानि-चलितानि, तद्यथा-स्वस्तिकश्रीव18| त्सयावत्पदात् पूर्वोक्कमङ्गलकानि ग्राह्यानि, यद्यप्येकाधिकारप्रतिबद्धत्वेनाखण्डस्याधिकारसूत्रस्य लिखनं युक्तिमत्तथापि IS सूत्रभूयिष्ठत्वेन वृत्तिर्दूरगता वाचयितणां सम्मोहाय स्यादिति प्रत्येकालापकं वृत्तिलिख्यते इति, 'तयणंतरं च णमित्यादि
तदनन्तरं च पूर्णजलभृतं 'कलशभृङ्गार'कलश:--प्रतीतः भृङ्गार:-कनकालुका ततः समाहारादेकवद्भावः, इदं च जलपूर्ण-11 वेन मूर्तिमद् ज्ञेयं, तेनालेख्यरूपाष्टमङ्गलान्तर्गतकलशादयं कलशो भिन्नः, दिव्येव दिव्या-प्रधाना चः समुच्चये स च ॥२६॥
व्यवहितसम्बन्धः छत्रविशिष्टा पताका च यावत्पदात् 'सचामरा दसणरइअ आलोअदरिसणिजा वाउडुअविजयवेजयंती | ॥ अम्भुस्सिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए' इति ग्राह्य, अत्र व्याख्या-सचामरा-चामरयुक्ता दर्शने-प्रस्थातु
दीप
be
अनुक्रम [१२१]
SION
~ 527~
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
दृष्टिपथे रचिता मङ्गल्यत्वात् अत एवालोके-बहिःप्रस्थानभाविनि शकुनानुकूल्यालोकने दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या, ततो | विशेषणसमासः,काऽसावित्याह-वातोडूता विजयसूचिका वैजयन्ती-पार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तः पताकाविशेषः प्राग्वत् । | उच्छ्रिता-उच्चा गगनतलमनुलिखन्ती अत्युच्चतया एते च कलशादयः पदार्थाः पुरतो यथानुपूळ संपस्थिता इति, 'तएण'मित्यादि, ततो वैडूर्यमयो भिसंत'त्ति दीप्यमानो विमलो दण्डो यस्मिंस्तत्तथा, यावत्पदात् पलम्ब कोरण्टमल्लदा-18 मोचसोहि चन्दमंडलनिभं समूसि विमलं आयवत्तं पवरं सिंहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउआजोगसमाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिअंति, अत्र व्याख्या-प्रलम्बेन कोरण्टाभिधानवृक्षस्य माल्यदाम्ना-पुष्पमालयोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं समुच्छ्रितं-ऊचीकृतं विमलमातपत्र-छत्रं प्रवरं सिंहासन च मणिरत्नमयं पादपीठ-पदासनं यस्मिंस्तत्तथा, स्वः-खकीयो राजसत्क इत्यर्थः पादुकायोगः-पादरक्षणयुगं तेन | समायुक्तं, बहवः किरा:-प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः कर्मकरा:-ततोऽन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः पादात-|| | पदातिसमूहस्तैः परिक्षिप्त-सर्वतो वेष्टितं तैर्धतत्वादेव पुरतो यथानुपूर्ध्या संप्रस्थितं; 'तए ण'मित्यादि, ततः सप्त एकेन्द्रियरत्नानि पृथिवीपरिणामरूपाणि पुरतः संप्रस्थितानि, तद्यथा-चकरलादीनि प्रागभिहितस्वरूपाणि, चक्ररत्नस्य च एकेन्द्रियरलाखण्डसूत्रपाठगदेवात्र भणनं, तस्य मार्गदर्शकत्वेन सर्वतः पुरः संचरणीयत्वाद् , अत्र च गत्यानन्तर्यस्य वक्तु-16 | मुपक्रान्तत्वादिति, 'तयणंतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओं' इत्यादि, ततो नव महानिधयोऽयतः प्रस्थिताः पाता-18
दीप
अनुक्रम [१२१]
JinElimil
~528~
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६७]
दीप
अनुक्रम [१२१]
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६७ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२६३॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Eibentine
लमार्गेणेति गम्यं, अन्यथा तेषां निधिव्यवहार एव न सङ्गच्छते, तद्यथा नैसर्णः पाण्डुको यावच्छतः सर्व प्रान्त, | उक्ता स्थावराणां पुरतो गतिः किङ्करजनधृतत्वेन दिव्यानुभावेन वा, जथ जङ्गमानां गतैरवसर इति 'तयणेतरं चणं सोलस देव' इत्यादि, ततः षोडश देवसहस्राः पुरतो यथामुपूर्व्वा संप्रस्थिताः, 'तयणंतरं च णं बत्तीस 'मित्यादि, व्यक्तं'तर ष'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं पुरोहितर- शान्तिकर्मकृत् रणे महाराहितानां मणिरलजलच्छया वेदनोपशामकं, हस्त्यश्वरलगमनं तु हस्त्यश्वसेनया सहैव विवक्ष्यते तेन मात्र कथनं, 'तर ण'मित्यादि, ततो द्वात्रिंशत् ऋतुकल्या|णिका:-ऋतुषु षट्स्वपि कल्याणिकाः ऋतुविपरीत स्पर्शत्वेन सुखस्पर्शाः अथवाऽमृतकम्यात्वेन सदा कल्याणकारिण्यः न तु चन्द्रगुप्तसहाय पर्वतभूपतिपाणिगृहीतमात्रप्राणहारिनन्दनृपनन्दिनीष द्विपकन्यारूपास्तासां सहस्राः पुरतः प्रस्थिताः, समर्थविशेषणाद्विशेष्यं लभ्यते इति लक्षणगुणयोगाद्राजकन्या अत्र ज्ञेयास्तासामेव जन्मान्तरोपचितप्रकृष्टपुण्य| प्रकृतिमहिना राजकुलोत्पत्तिवत् यथोक्तलक्षणगुणसम्भवात् जनपदाग्रणीकन्यानामप्रेतनसूत्रेणाभिधानाच तासां | सहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्या-यथाज्येष्ठलघुपर्यायं संप्रस्थिताः, तथा द्वात्रिंशत् 'जणवय'ति जनपदाप्रणीनां देशमु| ख्यानां कल्याणिकानां सहस्राः अग्रे तथैव, अत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराजनपदग्रहणेन जनपदाम्रण्यो ज्ञेयाः, न चैवं स्वमतिकल्पितमिति वाच्यं, 'तावतीभिर्जनपदाग्रणी कन्याभिरावृतः' इति श्री ऋषभचरित्रे साम्मत्यदर्शनात्, तदनन्तरं द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशता पात्रै: - अभिनेतव्यप्रकारैर्वद्धा:- संयुक्ता नाटकसहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्या
Fur Fraternal Use O
~ 529~
serenessesentssa
३वक्षस्कारे.
भरतस्य विनीतायां प्रवेशः स्.
६७
॥२६३॥
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६७]
दीप
अनुक्रम [१२१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६७ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Ebemitin
प्रथमं प्रथमोढा पितृप्राभृतीकृतनाटकं ततस्तदनन्तरोढानाटकमिति क्रमेण सम्प्रस्थिताः, एतेषां चोकसलयाकता द्वात्रिं| शता राजवरसहस्रैः स्वस्वकन्यापाणिग्रहणकारणे प्रत्येकं करमोचनसमयसमर्पितैकैकनाटकसद्भावात्, 'तयणंतरं च णं तिष्णि सट्टा सूयसया' इत्यादि ततः त्रीणि सूपानां पूर्ववदुपचारात् सूपकाराणां शतानि षष्टानि - षष्टधधिकानि वर्षदिवसेषु प्रत्येकमेकैकस्य रसवतीवारकदानात्, ततः कुम्भकाराद्या अष्टादश श्रेणयः तदवान्तरभेदाः प्रश्रेणयः ततः चतुर| शीतिरश्वशतसहस्राः ततश्चतुरशीतिर्हस्तिशतसहस्राः ततः पण्णवतिर्मनुष्याणां पदातीनां कोव्यः पुरतः प्रस्थिताः, 'तयणंतरं चणमित्यादि, ततो बहवो राजेश्वर तलवराः यावत्पदात् माडंत्रिअकोटुंबिय इत्यादिपरिग्रहः सार्थवाहप्रभृतयः पुरतः सम्प्रस्थिताः अर्थः प्राग्वत्, 'तयणंतरं च णमित्यादि, ततो बहवोऽसि: खङ्गः स एव यष्टिः- दण्डोऽ| सियष्टिस्तग्राहा:- तद्ग्राहिणः अथवा असिश्च यष्टिश्वेति द्वन्द्वे तद्ग्राहिण इति, एवमग्रेऽपि यथासम्भवैमक्षरयोजना कार्या, नवरं कुन्ताश्चामराणि च प्रतीतानि पाशा- द्यूतोपकरणानि उच्चस्ताश्वादिवन्धनानि या फलकानि- सम्पुटक| फलकानि खेटकानि वा अवष्टम्भानि वा द्यूतोपकरणानि वा पुस्तकानि - शुभाशुभपरिज्ञानहेतुशास्त्रपत्रसमुदायरूपाणि वीणामाहा व्यक्तं, कुतपः - तैलादिभाजनं, हडप्फो- द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थे पूगफलादिभाजनं वा पीढग्गाहा दीविअग्गाहा इति पदद्वयं सूत्रे दृश्यमानमपि संग्रहगाथायामदृष्टत्वेन न लिखितं, तद्व्याख्यानं त्वेवं पीठं- आसन| विशेषः दीपिकाचं प्रतीतेति, स्वकैः २ – स्वकीयैः २ रूपैः- आकारैः एवं स्वकीयैः २ इत्यर्थः वेषैः - वस्त्रालङ्काररूपैः चिहै:
Fur Frate & Pine Cy
~ 530~
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२६४||
सूत्रांक
[६७]]
Recemercentercelseseseseaee
अभिज्ञानैः नियोगः-व्यापारैः स्वकीयैर्नेपथ्यैः-आभरणैः सहिता इति, अबद्धसूत्रे च पदानि न्यूनाधिकान्यपि लिपि-8 | ३वक्षस्कारे प्रमादात् सम्भवेयुरिति तन्नियमार्थ संग्रहगाथा सूत्रबद्धा क्वचिदादर्श दृश्यते, यथा “असिलडिकुंतचावे चामरपासे || भरतस्य अ फलगपोत्थे अ। वीणाकूचग्गाहे तत्तो य हडप्फगाहे अ॥१॥" 'तय ण'मित्यादि, ततो बहवो दण्डिनो
विनीतायां दण्डधारिणः मुण्डिन:-अपनीतशिरोजाः शिखण्डिनः-शिखाधारिणः जटिनो-जटाधारिणः पिच्छिनो-मयूरादिपि-1॥
प्रवेशः सू. |च्छवाहिनः हास्यकारका इति व्यकं खेडु-द्यूतविशेषस्तत्कारकाः द्रवकारकाः-केलिकराः चाटुकारका:-प्रियवादिनः ।। कान्दपिका:-कामप्रधानकेलिकारिणः कुक्कुइआ इति-कौत्कुच्चकारिणो भाण्डाः, मोहरिआ इति-मुखरा वाचाला असम्बद्धप्रलापिन इति यावत् , गायन्तश्च गेयानि वादयन्तश्च वादित्राणि नृत्यन्तश्च हसन्तश्च रममाणाश्च अक्षा-18 दिभिः क्रीडयन्तश्च कामक्रीडया शासयन्तश्च-परेषां गानादीनि शिक्षयन्तः श्रावयन्तश्च-इदं चेदं च परुत् परारि भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रवणविषयीकारयन्तः जल्पन्तश्च-शुभवाक्यानि रावयन्तश्च शब्दान् कारयन्तः स्वजल्पि| तान्यनुवादयन्त इत्यर्थः शोभमानाच-स्वयं शोभयन्तः परान् आलोकमानाश्च-राजराजस्थावलोकनं कुर्वन्तः जयज
शब्दं च प्रयुञ्जानाः पुरतो यथानुपूर्व्या पूर्वोक्तपाठक्रमेण सम्पस्थिताः, इह गमे क्वचिदाद” न्यूनाधिकान्यपि पदानि ॥२६॥ दृश्यन्ते इति, एवमुक्तक्रमेण औपपातिकगमेन-प्रथमोपाङ्गगतपाठेन तावद् वक्तव्यं यावत्तस्य राज्ञः पुरतो महाश्वाः| बृहत्तरङ्गाः अश्वधरा-अश्वधारकपुरुषाश्च उभयतो-भरतोपवाह्यगजरलस्य द्वयोः पार्चयो गा-गजा नागधरा-गज-18
दीप
Soticeseceversesersesesecaca
अनुक्रम [१२१]
mimetronomy
~531~
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [3], -----------------
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
eeeeer
| धारकपुरुषाश्च, पृष्ठतो रथाः रथसङ्गेली-रथसमुदायः, देश्योऽयं शब्दः, चः समुच्चये, आनुपूर्ध्या सम्पस्थिताः, अत्र 18| यावत्पदसंग्रहश्चार्य-सवर्णकसेनाङ्गानि, तत्राश्याः-'तयणतरं च णं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउलमलिअच्छाणं चंचुच्चिI अललिअलिअचलचवलचंचलगईर्ण लंघणवग्गणधावणधोरणतिवइजइणसिक्खियगईणं ललंतलामंगललायवरभूसणार्ण Tell मुहभंडगओचूलगथासगअहिलाणचामरगण्ड परिमण्डिअकडीणं किंकरवरतरुणपरिग्गहिआ अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरओ
अहाणुपुषिए संपडिति तदनन्तरं 'तरमलिहायणाण'ति तरो-वेगो बलं वा तथा 'मल्ल मलि धारणे' ततश्च तरोमल्ली|तरोधारको वेगादिकृत् हायन:-संवत्सरो वर्चते येषां ते तथा यौवनवन्त इत्यर्थः, अतस्तेषां वरतुरङ्गाणामिति योगः, IS 18 वरमलिभासणाणं'ति कचित्पाठः तत्र प्रधानमाल्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्धः, हरिमेला-बनस्पतिविशेषस्तस्या
मुकुल-कुडमलं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां तथा तेषां ते शक्काक्षाणामित्यर्थः, 'चंचुचिय'ति प्राकृतत्वेन ।
चंचुरितं-कुटिलगमनं अथवा चंचुः-शुकचंचुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः उच्चित-उच्चिताकरणं पादस्योत्पाटनं चंचुचितं च ॥ तच्चलितं च-विलासवद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एव एवंरूपा चलो-वायुराशुगत्यात् तद्वचपलचञ्चला-181
अतीव चपला गतिर्येषां ते तथा तेषा, शिक्षित-अभ्यस्तं लंघन-ग देरतिक्रमणं बलान-उत्कूर्दनं धावन-शीघ्रगमनं । || धोरणं-तिचातुर्य तथा त्रिपदी-भूमौ पदत्रयन्यासः पदत्रयस्योन्नमनं वा जयिनी-गत्यन्तरजयनशीला गतिश्च येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, ललन्ति-दोलायमानानि लामत्ति-भापत्वादू रम्याणि गललातानि-कण्ठे ||
दीप
अनुक्रम [१२१]
eseeee
~532~
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
तिची
सूत्रांक [६]]
श्रीजम्यू-
ग्यस्तानि वरभूषणाणिवेषां ते तथा तेषा, तथा मुखमाण्डफ-मुखाभरणे भरपूजा-प्रलम्बगुच्छाः स्वासका-रणा- म्यस्तानिय
वक्षस्कारे द्वीपशा- कारा अन्वालङ्काराः अहिलाणं-गुरुसंयमनं एताम्येषां सन्तीति मुखमाण्डकाक्लखासकाहिलाणाः मत्वर्थीवलोपट-18| भरतस्य
नादेवं प्रयोगः, तथा चमरीगण्डैः-चामरदण्डैः परिमण्डिता कटियेषां ते तथा ततः कर्मधारयस्तेषां, किरमता विनीताया या वृत्तिः
8 वरतरुणा-परयुवपुरुषास्तैः परिगृहीतानां दवरकितानामित्यर्थः, अष्टोत्तरे सतं मरतुरगाणा पुरतो बथाना सम्भ॥२६५॥
| खितं । अथेभा:-'तयणतरं चणे ईसिदंताणं इसिमत्तार्ण इसितुंगार्ण इसिपलंगडायविसालधवलदैताणे कंचणकोसीपविट्ठदन्ताणं कंचणमणिरयणभूसिआणं पैरपुरिसांरोहगसंपउत्ताणं गयाणे अट्ठसवं पुरओं अहाणुपुषीए संपत्थिति।
पहान्तानां-मनाग्माहितशिक्षाणां गजानामिति योगः ईषन्मत्तानो यौवनारम्भवत्तिस्वात् ईपत्तहानी-शानां तम्मा. A देव उच्छङ्ग इवोत्सङ्ग:-पृष्ठदेशः ईषदुत्सङ्गे उन्नता विशालाश्च यौवनारम्भंवर्तित्वादेव तेच ते धवलदस्तावेति समा-18 1. सोऽतस्तेषां, काशनकोशी-सुवर्णखोला तस्यां प्रविष्टा दन्ताः अर्थाद् विषाणाख्या येषां ते तथा तेषां, काश्चनमणिरत
भूपितानामिति व्यक, वरपुरुषा-ये आरोहका निषादिनस्तैः सम्प्रयुक्ताना-सजिताना गजाना-नाजकलभामामष्टोत्तरे
शतं पुरतो यथानुपूर्ध्या सम्प्रस्थितं । अथ रथा:-'तयणतरं च णं सछत्ताण सम्झवाणे सघंटाणं सपडागाणं सतोरण-1 ॥२६५॥ है वराणं सनंदिघोसाणं सखिखिणीजालपरिक्खिसाणं हेमवयचित्ततिणिसकणगणिजुसदारुगाणं कालायससुकपणेमिर्जतक
माणं सुसिलिद्ववत्तमण्डलधुराणं आइण्णवरसुरगसुसंपउत्ताणं कुसलणरच्छेअसारहिसुसंपग्गहिआणं बत्तीसतोणपरि-13
दीप
డాలలో
अनुक्रम [१२१]
JinEleinitinusiall
~ 533~
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
मंडिआणं सकंकडवडेंसगाणं सधावसरपहरणावरणभरिअजुद्धसज्जाणं असर्व रहाणे पुरओ अहाशुपुपीए संपट्टि
इति, उतार्थ चेदं प्राक् पद्मपरवेदिकाधिकारगतरवर्णने, नवरमा विशेषणामा बहुवचन निर्देशः कार्यः, ततः उक्त-18 19 विशेषणानां स्थानामष्टशतं पुरतो यथानुपूO सम्पस्थित । अथ पदातयः-'तयणतरं ष णं असिसत्तिकुंततोमरसूलल-18
उडभिंडमालधणुपाणिसज पाइताणी पुरओ अंहाणुपुबीए संपत्थिअंति, सतः पदात्यनीक पुरतः सम्प्रस्थितं, कीर-3 शमिस्याह-अस्यादीनि पाणौ हस्ते या तत्तथा, सज च समामादिस्वामिकायें, तत्राखादीनि प्रसिद्धानि, नवरं शक्किा-त्रिशूलं शुलं तु पकशलं 'लउ'
तिलकुदो मिंदिपालः प्रागुक्तस्वरूप इति । अथ भरता प्रस्थितः सन् पषि यद्यत् कुर्वन् यत्रागच्छति तदाह-'तए 'मित्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतसुकृतरतिदक्षा ॥ यावदमरपतिसन्निभया ऋखा प्रथितकीर्तिश्चक्ररक्षोपदिष्टमार्गोऽनेकराजवरसहस्रामुयातमागों यावत्समुद्ररवभूतामिव है | मेदिनी कुर्वन् २ सर्व सर्वधुस्था यावनिर्घोषनादिसेन युक्त इति गर्य, प्रामाकरनगरखेटकर्षटमडम्बयावत्पदात् द्रोणमुखपत्तनाश्रमसम्बाधसहन्नमण्डितां स्तिमितमेदिनीका वसुधामभिजयन् १ अध्याणि-वराणि रसानि प्रतीच्छन् ।
२ सदिव्यं चक्ररममनुगच्छन् योजनान्तरिताभिर्षसतिभिर्वसन् २ यत्रैव विनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छति। 18 तत्रागतः सन् यदकरोत्तदाह-उबागडित्ता इत्यादि, व्यक्तं, मवरं विनीताया राजधाम्या भष्टमभक्तमित्यन्न विनी
ताधिष्ठायकदेबसाधनाय विनीता राजधानी मनसि कुर्षन् । मष्टम परिसमापयतीत्यर्थः, नम्विइमष्टमानुष्ठानमनर्थक 8
दीप
अनुक्रम [१२१]
SinElentinel
~534~
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६७]]
श्रीजम्यू-18 वासनगर्याश्चक्रवर्तिनां पूर्वमेव वश्यत्वात् , उच्यते, निरुपसर्गेण वासस्थैर्यार्थमिति, यदाह-'निरुवसग्गपञ्चयत्थं विणीअं8/३ वक्षस्कारे
रायहाणि मणसी करेमाणे २ अट्ठमभत्तं पगिण्हई' इति प्राकृतऋषभचरित्रे, अथाष्टमभक्तसमात्यनन्तरं भरतो यच्चके 8 भरतस्य न्तिचन्द्री- तदाह-तए णमित्यादि, स्पष्ट, 'तहेव'त्ति पदसंग्रहश्चाभिषेक्यगजसज्जनमज्जनगृहमज्जनादिरूपः, अथ विनीताप्रया वृत्तिः वेशवर्णके लाघवायातिदेशमाह-'तं चेव सब'मित्यादि, तदेव सर्व वाच्यं यथा हेडा-अधस्तनसूत्रे विनीता प्रत्याग-81
प्रवेशःम.
६७ ॥२६६।।। मने वर्णनं तथाऽत्रापि प्रवेशे वाच्यमित्यर्थः, अत्र विशेषमाह-नवरं महानिधयो नव न प्रविशन्ति, तेषां मध्ये एकै-12
कस्य विनीताप्रमाणत्वात् कुतस्तेषां तत्रावकाश:, चतस्रः सेना अपि न प्रविशन्ति, शेषः स एव गमः-पाठो
वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह--यावन्नि?पनादितेन युको विनीताया राजधान्या मध्यंमध्येन-मध्यभागेन यववश लाखक गृहं यत्रैव च भवनवरावतंसकस्य-प्रधानतरगृहस्य प्रतिद्वार-बाह्यद्वारं तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्-चिन्तित
वान् , प्रवृत्तवानित्यर्थः, प्रविशति चक्रिण्याभियोगिकसुरा यथा २ वासभवन परिप्कुर्वन्ति तथाऽऽह-तए णमित्यादि,
ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीतां राजधानी मध्यभागेन प्रविशतः अपि-बाढं एके केचन देवा विनीता साभ्यन्तरहा बाहिरिका आसिक्कसम्मार्जितोपलितां कुर्वन्ति, अप्येकके तां मञ्चातिमञ्चकलितां कुर्वन्ति, अप्येकके नानाविधराग-18॥२९॥ 18| वसनोतिध्वजपताकामण्डितां अप्येकके लाइउल्लोइअमहितां कुर्वन्ति, अध्येकके गोशीर्षसरसरतचन्दनददेरदत्त
पञ्चाङ्गुलितलेत्यादिविशेषणां कुर्वन्ति, कियद्यावदित्याह-यावद् गन्धवर्सिभूतां कुर्वन्ति, अमीषां विशेषणानामथे
दीप
अनुक्रम [१२१]
Jimillenni
~535~
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
माग्वत् , अप्येकके हिरण्यवर्ष वर्षन्ति-रूप्यस्याघटितसुवर्णस्य वा वर्ष वर्षन्ति, एवं सुवर्णवर्ष रक्षवर्ष बज्रवर्ष आभर
वर्ष वर्षन्ति, वाणि-हीरकाणि, पुनः प्रविशतो राज्ञो यदभूत्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीतां राजधानी मध्यंमध्येनानुप्रविशतः शृङ्गाटकादिषु यावच्छब्दादत्र त्रिकचतुष्कादिग्रहः महापथपर्यन्तेषु स्थानेषु बहवोऽार्थिप्रभृतयस्ताभिरुदारादिविशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरभिनन्दयन्तश्चाभिष्टुवन्तश्च एवमवादिषुरिति सम्बन्धः, तत्र शृङ्गाटकादिव्याख्या प्राग्वत् , अार्थिनो-द्रव्यार्थिनः कामार्थिनो-मनोज्ञशब्दरूपार्थिनः भोगार्थिनो-मनोज्ञगन्धर-1 सस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनो-भोजनमात्रादिप्रात्यर्थिनः ऋद्धि-गवादिसंपदं इच्छन्त्येषयन्ति वा ऋोषाः स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानात् ऋत्येषिकाः किल्बिषिका:-परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डादयः कारोटिकाः-कापालिकाः ताम्बूलस्थगीवाहका वा करं-राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीला कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः कारबाधिता वा शांखि|| कादयः शब्दाः श्रीऋषभनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याख्याता इति ततो व्याख्येया इति, अथ ते किमवादिषुरित्याह-'जय
जय नन्दा।' इत्यादि पदद्वयं प्राग्वत् , भद्रं ते-तुभ्यं भूयादिति शेषः, अजितं प्रतिरिपुं जय जितं-आज्ञावशंवदं पालय,181 | जितमध्ये-आज्ञावशंवदमध्ये वस-तिष्ठ विनीतपरिजनपरिवृतो भूया इत्यर्थः, इन्द्र इव देवानां-बैमानिकानां मध्ये ऐश्वर्य-18|
भृत् , चन्द्र इव ताराणां-ज्योतिष्काणां चमर इवासुराणां दाक्षिणात्यानामित्यर्थः, एवं धरण इव नागानामित्यत्रापि ज्ञेयं, 18 I अन्यथा सामान्यतोऽसुराणामित्युक्के वलीन्द्रस्य नागानामित्युक्ते च भूतानन्दस्योपमानत्वेनोपन्यासो युतिमान् स्यात्,
दीप
अनुक्रम [१२१]
~536~
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६७ ]
दीप
अनुक्रम [१२१]
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६७ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षान्तिचन्द्री - या पुचि
॥२६७॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Eibensto
दाक्षिणात्येभ्य उदीयानामचिकतैजस्कत्वात्, बहूनि शतसहस्राणि यपि महीः पूर्वकोटी ही पूर्वकोटाकोटी पिनीतायां राजधान्याः शुलहिमवद्भिरिसागरमर्यादाकस्य केवलकल्पस्य भरतवर्षस्य प्राभाकरनगरलेटकटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमसचिवेशेषु सम्यक् प्रजापालनेनोपार्जितं सहवधं निजभुजवीर्यार्जितं न तु ममुचिनेव सेवा युवावस यशो येन स तथा, 'महया जाव'ति यावत्पदात् 'हयणगी अवाह भसंतीतलता तुडि अघणमुगपडुष्पवाइअरवेर्ण विडलाई भोगभोगाई भुंजमाणे' इति संग्रहः, आधिपत्यं पौरपत्यं अत्रापि यावत्पदात् 'खामिसं मट्टितं महत्तरग आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे ति ग्राह्यं, अत्र व्याख्या प्राग्वत्, विचर इति कृत्वा जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति । अथ विनीतां प्रविष्टः सन् भरतः किं कुर्वन् काजगामेत्याह- 'तए र्ण से भरहे रावा जवणमालासहस्सेहिं पिच्छि जमाणे २' इत्यादि, ततः स भरतो राजा नयनमालासहस्रैः प्रेक्ष्यमाण २ इत्यादिविशेषणपदानि श्री ऋषभनिष्क्रमण| महाधिकारे व्याख्यातानीति ततो ज्ञेयानि, नवरं 'अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २' इत्यत्र जनपदागतानां जनानां | पौरजनैरङ्ग लिमालासहस्रैर्दर्श्यमान इत्यपि, यत्रैव स्वकं गृहं पित्र्यः प्रासादः यत्रैव च भवनवरावतंसकं जगद्वर्त्तिवासगृहशेखरभूतं राजयोग्यं वासगृहमित्यर्थः तस्य प्रतिद्वारं तत्रैवोपागच्छति, ततः किं करोतीत्याह- 'उवागच्छिवा' इत्यादि, उपागत्य आभिषेक्यं हस्तिरक्षं स्थापयति स्थापयित्वा च तस्मात्प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य च विसर्जनीयजनी हि विसर्जनावसरेऽवश्यं सत्कार्य इति विधिज्ञो भरतः षोडश देवसहस्रान् सत्कारवति सम्मानपति, ततो द्वात्रिंशत
Fur Fate & Use Cy
~ 537 ~
श्वक्षस्कारें
भरतस्य
विनीतायां
प्रवेशः स्. ६७
॥२६७॥
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७]]
राजसहमान , ततः सेनापतिरसगृहपतिरनादीनि त्रीणि सत्कारयति सम्मानयति, तप्तः श्रीणि पटानि माथिकानि सूपशतानि-रसवतीकारशतानि, ततः अष्टादश श्रेणिप्रश्श्रेणीः ततः अन्यानपि बहून् राजेश्वरतलवरादीन सत्कारयति सन्मानयति सत्कार्य सम्मान्य च पूर्ण उत्सवेऽतिथीनिष प्रतिविसर्जयति, अथ यावत्परिच्छदो राजा यथा वासगृहं प्रविवेश तथाऽऽह-'इत्थीरयणेण'मित्यादि, स्त्रीरलेन-सुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहस्रर्द्वात्रिंशता जनपदकल्याणिकासहस्रः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्धबेर्नाटकसहस्रः सार्द्ध संपरिवृती भवनवरावर्तसकमतीति-प्रविशति, प्राकरणिकशत्वादनुकोऽपि भरतः कर्त्ता गम्यतेऽत्र वाक्ये, यथा कुबेरो-देवराजा धनदो-लोकपालः कैलास-स्फटिकाचलं, किल
क्षणं-भवनवरावतंसकं शिखरिशृङ्ग-गिरिशिखरं तद्भूत-तत्सदृशमुच्चत्वेनेत्यर्थः, लौकिकव्यवहारानुसारेणार्य दृष्टान्ता, । अन्यथा कुबेरस्य सौधर्मावतंसकनाम्न इन्द्रकविमानावुत्तरतो वल्गुविमाने वासस्य श्रूयमाणत्वादागमेन सह विरुझ्यते ॥ प्रविश्य यच्चके तदाहतए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कथाइ रजधुरै वितेमाणस्स इमेआरूवे जाव समुपवित्था, अमिजिए ण मए णिअगवल. वीरिअपुरिसकारपरकमेण चुलहिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं से खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अमिसेएणं अमिसिंचाचित्तपत्तिकदु एवं संपेहेति २ ता कहं पाउप्पभाए जाव जलते जेणेव मजणघरे जाव पडिणिक्त्रमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उबट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ सा सौहासणवरगए पुरत्याभिमुहे णिसीअति निसीइत्ता
299999000000000000
दीप
अनुक्रम [१२१]
0
00
भरतस्य चक्रवर्तित्वेन अभिषेक:
~ 538~
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बून्तिचन्द्री
Benesecen
प्रत सूत्रांक
18|३वक्षस्कारे
भरतस्य
चक्रवर्चि18 स्वाभिषेक
या इतिः
[६८]
।।२६८॥
सोलस देवसहस्से बत्ती रायवरसहस्से सेणावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणि सढे सूअसा अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पमिअमओ सदावेइ २ ता एवं वयासी-अभिजिए ण देवाणुप्पिा ! मए णिअगवलवीरिज जाव केवलकप्पे भरहे वासे वं तुब्भे णं देवाणुप्पिा ! ममं मयारायाभिसेविअरह, तए णं से सोलस देवसहस्सा जावप्पमिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा द्रुतुहकरयल मत्थए अंजलिं कटू भरहस्स रण्णो एअम सम्मं विणएणं पडिसुणेति, तए णं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा जाव अहमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरइ, तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्ससि परिणममाणसि अभिजोगिए देवे सहावेइ २ चा एवं बयासी-खिप्पामेव भो पेवाणुप्पिआ! विणीआए राय हाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एगं महं अभिसेअमण्डवं विउब्वेह २ चा मम एमाणचिरं पञ्चप्पिणह, तए णं ते आमिओगा देवा भरहेणं रण्णा एवं बुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा जाव एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिमुणेति पडिसुणित्ता विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकर्मति २ ता वेउविअसमुग्घाएणं समोहणति २ चा संखिजाई जोअणाई दंडं णिसिरंति, तंजहारयणाणं जाव रिहाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेति २ चा अहासुहुमे पुग्गले परिआदिअंति २ चा दुचंपि उबियसमुग्घायेणं जाव सभोहणंति २ ता बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग विउति से जहाणामए आलिंगपुक्खरेद वा० तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एग अभिसेअमण्डवं विजयंति अगेगखंभसयसण्णिविट्ठ जाव गंधवट्टिभूअं पेच्छाघरमडबवण्णगोत्ति, तस्स णं अमिसेअमंढवस्स बहुमझदेसभाए एत्य णं मई एणं अमिसेअपेढं विउव्वंति अच्छे सण्हं, तस्स णं अमिसेअपेढस्स तिदिसि तओ विसोवाणपडिरूवए विउब्बति, तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेभारूवे वण्णावासे पण्णचे जाव
दीप
अनुक्रम [१२२]
Deceoes
॥२६८॥
SINEllenni
रा
~ 539~
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----------------
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
चोरणा, तस्स णं अमिसेअपेढस्स बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्य णं महं एग सीहासणं बिउम्बंति, तस्स णं सीहासणस्स अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव दामवण्णगं समति । तए गं ते देवा अभिसेअमंड विउठवंति २ ता जेणेव भरहे राया जाक पञ्चप्पिणंति, तए णं से भरहे राया भाभिओगाणं देवाणं अंतिए एअमहं सोचा णिसम्म हहतुह जाव पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता कोडुंबिअपुरिसे सरावेद २'ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आमिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह २'त्ता हयगय जाव सण्णाहेत्ता एअमाणत्तिों पचप्पिणह जाव पञ्चप्पिगंति, तए णं से भरहे राया मजणघरं अणुपविसइ जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दूरूडे, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आमिसेफ हस्थिरयणं दूरूढस्स समाणस्स इमे अवमंगलगा जो चेव गमो विणी पविसमाणस सो व णिक्खममाणस्तवि जाव अप्पडिबुझमाणे विणीअं रायहाणि मझमज्ोणं जिग्गच्छद २ चा जेणेव विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए अमिसेअमंडवे तेणेव उवागच्छइ २ चा अभिसेअमंडवदुवारे आमिसेकं हत्यिरयणं ठावेइ २. ता आमिसेक्काओ हस्थिरयणाओ पशोरुहइ २ ता इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बचीसाए बत्तीसइबद्धेहिं गाडगसहस्सेहिं सविं संपरिखुढे अभिसेजमंडवं अणुपविसइ २ ता जेणेव अमिसेअपेढे तेणेव उवागच्छा २त्ता अभिसेअपेठं अणुप्पदाहिणीकरमाणे २ पुरथिमिलेणं तिसोवाणपविरूवएणं दूरूहइ २ चा जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छह २ ता पुरत्यामिमुहे सण्णिसण्णेति । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा जेणेव अमिसेअमण्डने तेणेव उबागल्छंति २ ता अमिसेभमंड अणुपविसंति २ त्ता अमिसेभपेदं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छति
sesesesesedesesesesesedesesesee
दीप
अनुक्रम [१२२]
~540~
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया पुचिः ॥२६९॥
श्वक्षस्कारे Nभरतस्य
चक्रवर्तिवाभिषेक सू. ६८
ececemesesese
२ ला करयल जाव अंजलि कह भरहं राया जएणं विजएणं वाति महसणी वाषणे जाप समसमामा जाव पञ्जुवासंति, तए णं तस्स भरहस्स रणो सेणावहरयणे जाव सत्ववाहनामिईओ तेऽवि तह चेव ण दाहिणिही तिसीवाणपहिरूबएणं जाव पजुबासंति, तए में से भरहे राया आमिओगे देवे सदावेद २ एवं बवासी-खिप्पमित्र भी देवाणुपिमा! ममं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाअमिसेमै उवट्ठवेह, तए 4 ते आमिओविश्य देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हहतुहुचिता जाव पत्तरपुरस्थिम दिसीभार्ग अवकमंति अवक्कमित्ता केउचिअसमुग्याएवं समीणति, एवं जहा विजयस्स हा इल्यान नाव पंचगवणे एगओ मिलायंति एगओ मिलाइत्ता जेणेव दाहिणभरहे वासे जेणेव विपीया राबहाणी तैष स्वागच्छति २ सा चिणीभं रावहाणि अणुप्पयाहिणीकरेमाणा २ जेणेच अमिसेअमंडये जेणेव भरहे गया तेणेव ज्यागच्छति २ सा तं गहत्य महग्धं महरिई महाराथामिसेअं उपवेंति, तए णं वं मरह रावाणं बत्तीस रावसहस्सा सोमणसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहससि उत्तरपोट्टवयाविजयंसि तेहिं साभाविपहि अ उत्तरवेउन्विएहि अ वरकमलपाटाणेहिं सुरभिकरवारिपडिपुण्णेहिं जाय महा महया रायामिसेएणं अभिर्सिचंति, अंमिसेओ जहा विजयस्स, अमिर्सिचित्ता पचे २ जाव अंजॉल कटु ताहि इटाहिं जहा पविसंतस्स भणिआ जाब विहराहित्तिकटु जयजयसई पर्यजति । तए णं है भरई रायाणं सेणावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणि म सहा सूअसया अट्ठारस सेणिप्पणीओ अण्णे अ बहवे जाब सत्ववाहप्पमिइली एवं व भनिसियति तेहिं परकमलपंइहाणेहिं तहेव जाव अमिथुणंति असोलस देवसहस्सा एवं चेष णवरं पम्हसुकुमालाए जाव मउड पिणद्वेति, तयणंतरं च दुहरमलयसुगंधिपहिं गंधेहिं गायाई अम्भुक्छेति दिन्वं च सुमणोदामं पिणद्वेति, किं बाहुणा !, गहिमवेटिभ भाव विभूसि
[६८]
दीप अनुक्रम [१२२]
॥२६९॥
~541~
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Scree
करेंसि, तए ण से भरहे राया नहया २ रायामिरीएणं अभिसिंचिए समाणे कोर्दुषिअपुरिस सहायड २चा एवं पयासी-सिपामेव मो देवाणुप्पिा ! हत्यिखंधवरगया विणीयाए रायहाणीए सिंघाडगतिगचउवायचर जाब महापहपहेसु महथा २ सरेणं उग्घोसेमाणा २ उस्मुकं उकरं उकिट्ठ अविणं अमिजं अभडपवेस अदंडकुदंडिमं आव सपुरनणवयं दुवालससंपच्छरिज पमोरं घोसेह २ ममेत्रमाणत्तिों पञ्चप्पिणहत्ति, तए ण ते कोडुंबिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हहतुहचिप्तमार्णदिया पीइमणा हरिसवसविसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पडिसुणेति २ ता खिप्पामेब हत्विखंभवसाया जाव पोसंति ९सा एभमापत्ति पञ्चप्पिणंति, नए णं से भरहे राया महया २ रायामिसेएणं अमिसित्ते समाणे सीहासणान्यो अब्भुढेइ २ ता इत्विरयणेयं जाव णाडगसहस्सेहिं सद्धि संपरिखुड़े अमिसेअपेढाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहाइ २ ता अभिसेअमंडवामो पडिणिक्समइ २ चा जेणेव आमिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई जाव दूरूदे, तए थे तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा अमिसेअपेढाओ उत्तरिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहंवि, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणाचहरयणे जाव सत्यवाहप्पभिईओ अमिसेअपेढाओ दाहिणिलेणं विसोवाणपडिरूवरण पश्चोरुहंति, 'तए णं तस्स भरहस्स रण्णो मानिसको हत्थिरथणं दूरुबस्स समाणस्स इमे अवमंगलगा पुरजो जाव संपत्थिना, जोऽविज मगरहमाणस्स गमो पढमो कुराचसाणो सो चेव इहपि कमो सफारजहो भयो जाव कुवेरोष देवराया कैलासं 'सिहरिसिंगभूमंति । तए णं से भरे राया मजणघरं अणुपविसइ २ ता जाव भीषणमंडबसि सुहासणवरगए अट्टममतं पारेर २ ता भीषणमंसपाभो पतिणिक्समा २ सा नपि मासायवरगए फुलमाणेहिं मुइंगमस्थाहिं जाव भुंजमाणे विहरण, लए ण से भरहे राचा दुवालससंव.
Decemesesesesesedesese
[६८]
दीप
अनुक्रम [१२२]
5GERCANCE
Simritannilink
~542~
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६८ ]
दीप
अनुक्रम [१२२]
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६८ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२७०॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Elemin
सिमोस वित्तंसि समाणंसि जेणेव मज्जणपरे तेणेव उवागच्छद्द २ चा जाब मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव बाहिरिआ उवद्वाणसाला जाब सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुद्दे णिसीअर २ ता सोलस देवसहस्से सकारेह सम्माणे २ ता पडिविसले २ सा बत्तीस रायवरसहस्सा सकारेइ सम्माणे २ ता सेणावइरवणं सकारेह सम्माणेह २ ता जाव पुरोहियरयणं सकाइ सम्माणे २ ता एवं विणि सट्टे सूआरसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सकारे सम्माणेइ २त्ता अण् अ बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाप्पभिइओ सकारेह सम्माणेइ २ ता पडिविसजेति २ ता उपि पासायवरगए जाव विहरइ (सूत्रं ६८ )
'तर ण 'मित्यादि, ततः स भरतो राजा मित्राणि सुहृदः ज्ञातयः सजातीयाः निजकाः- मातापितृभ्रात्रादयः स्वजनाः- पितृव्यादयः सम्बन्धिनः- श्रादयः परिजनो दासादिः, एकवद्भावे कृते द्वितीया, प्रत्युपेक्षते - कुशलप्रश्नादिभिरापृच्छय २ संभाषत इत्यर्थः, अथवा चिरमदृष्टत्वेन मित्रादीनुत्कण्डुलतया पश्यति स्नेहदृशा विलोकयति, प्रत्युपेक्ष्य च यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च यावच्छब्दात् स्नानविधिः सर्वोऽपि वाच्यः, मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामतीत्यादि प्राग्वत् । अत्र च बाहुबल्यादिनवनवतिभ्रातृराज्यानामात्मसात्करणपूर्वकं चक्ररक्षस्यायुधशालायां प्रवेशनमन्यत्र प्रसिद्धमपि सूत्रकारेण नोकमिति नोच्यते इति, एवं विहरतस्तस्य यदुदपद्यत तदाह- 'तए ण'मित्यादि, ततः तस्य भरतस्य राज्यधुरं चिन्तयतोऽन्यदा कदाचिदयमेतद्रूपः-उक्तविशेषणविशिष्टः सङ्कल्पः समुदपद्यत, स च कः सङ्कल्प इत्याह-- ' अभिजिए णमित्यादि, अभिजितं मया निजकबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण क्षुल्लहिमवद्भिरिसा
Fur Fraternal Use O
~ 543~
३वक्षस्कारे
भरतस्य चक्रवर्तित्वाभिषेका
सू. ६८
॥२७०॥
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [3], -----............--.
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
8 गरमर्यादया केवलकल्प भरतं वर्ष तच्छ्रेयः खलु ममात्मानं महाराज्याभिषेकेणाभिषेचयितुं-अभिषेकं कारयितुं इति
कृत्वा-भरतं जितमिति विचार्य एवं सम्प्रेक्षते-राज्याभिषेकं विचारयति, अर्थतद्विचारोत्तरकालीनकार्यमाह-संपेहिता' इत्यादि, व्यक्त, सिंहासने निषद्य यच्चके तदाह-निसीइत्ता'इत्यादि, कण्ठ्यं, किमवादीवित्याह-अभिजिएण[मित्यादि, अभिजितं मया देवानुप्रिया ! निजकषलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण क्षुद्रहिमवनिरिसागरमर्यादया केवलकल्पं ॥ भरतं वर्ष तयूयं देवानुप्रिया! मम महाराज्याभिषेक वितरत दत्त कुरुतेत्यर्थः, आवश्यकचूण्यादौ तु भक्त्या सुर-18 नरास्तं महाराज्याभिषेकाय विज्ञपयामासर्भरतश्च तदनमेने, अस्ति हि अयं विधेयजनव्यवहारो यत्पभूणां समयसेवा-1 विधी ते स्वयमेवोपतिष्ठन्ते, सत्यप्येवं विधे कल्पे यद्भरतस्यात्रानुचरसुरादीनामभिषेकज्ञापनमुक्कं तद् गम्भीराधेकत्वा-13 दस्मादृशां मन्दमेधसामनाकलनीयमिति । अथ यथा ते अङ्गीचकुस्तथाह-'तए णमित्यादि, ततस्ते पोडश देवसहस्राः यावत्शब्दात् द्वात्रिंशद्राजसहस्रादिपरिग्रहः यावद्राजेश्वरतलचरा दिसार्थवाहप्रभृतयः इति, भरतेन राज्ञा इत्युक्ताः सन्तो 'हद्वतु'त्ति इहैकदेशदर्शनमपि पूर्णतदधिकारसूत्रदर्शकं तेन हतुद्वचित्तमाणदिआ इत्यादिपदानि ज्ञेयानि, | करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरस्थावर्च मस्तके अञ्जलिं कृत्वा भरतस्य राज्ञः एतं-अनन्तरोदितमर्थ सम्यम्-विनयेन
प्रतिशृण्वन्ति-अङ्गीकुर्वन्ति, अथ 'जलाल्लब्धात्मलाभा कृषिर्जलेनैव वर्द्धत' इति ज्ञातात्तपसाऽऽतं राज्यं तपसैवाभिन1न्दतीति चेतसि चिन्तयन् भरतो यदुपचक्रमे तदाह-'तए णमित्यादि, प्राग्वत्, 'तए णं से भरहे' इत्यादि, ततः
दीप
अनुक्रम [१२२]
श्रीज
~ 544~
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६८ ]
दीप
अनुक्रम
[१२२]
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६८ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशातिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२७१ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Emini
स मरतोऽष्टमभके परिणमति सति आभियोग्यान् देवान् शब्दवति चन्दवित्वा च एवमवादीत्, किमवादीदित्वाह| 'खिप्पामेव 'ति क्षिप्रमेव भी देवानुप्रिया विनीताया राजधान्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थः तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात्, अभिषेकाय मण्डपः अभिषेकमण्डपलं विकुर्वत विकुर्व्य च मम तामाज्ञातिं प्रत्यर्पयत, 'तए 'मित्यादि, ततस्ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो दृष्टतुष्टादिपदानि प्रायत् एवं स्वामिन् 1 यथैव यूयमादिशत | आइया-खामिपादानामनुसारेण कुर्म्म इत्येवंरूपेण विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति - अभ्युपगच्छन्ति, 'पंडिसुणित्ता' इत्यादि, प्रतिश्रुत्य च विनीताया राजधान्या उत्तरपौरस्त्यं दिग्भानमपक्रामन्ति गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्| घासेन-उत्तरवैक्रियकरणार्थकप्रयलविशेषेण समवनन्ति - आत्मप्रदेशान् द्दूरतो विक्षिपन्ति, तरस्वरूपमेव व्यनकि| सोयानि योजनानि दण्ड इव दण्ड:- ऊर्ध्वाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशस्तं निसृजन्ति-शरीराद्वहिर्निष्काशयन्ति निसृज्य च तथाविधान् पुद्गलान आददते इति एतदेव दर्शयति, तद्यथा-रखानों-कर्केतनादीनां माघत्पदात् 'वइराणं वेरुलिआणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुलयाणं सोगन्धिआणं जोईरसाणं अजणानं | अंजणपुलयाणं जागरूवाणं अंकाणं फलिहाण' मिति संग्रहः, रिह्मणमिति साक्षादुपासं, एतेषां सम्बन्धिनीबाबादरान्-असारान् पुद्गलान् परिशातयन्ति-त्यजन्ति यथासूक्ष्मान-सारान् पुनान पर्याददते-गृहन्ति चर्यादाय च | चिकीर्षित निर्माणार्थं द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवनन्ति, समवहत्य च बहुसमरमणीयं भूमिभाणं विदु
Fraterne Oy
~ 545~
३वक्षस्कारे भरतस्य चक्रवर्त्ति त्वाभिषेकः
सू. ६८
॥२७१॥
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
यन्ति, तद्यथा-'से जहा पामए आलिंगषुक्खरे हवा' इत्यावि, सूत्रतोऽर्थतञ्च प्राग्वत् , ननु रलादीनां पुर्णला औदा-1 ISRकास्ते च वैक्रियसमुद्घाते कथं ग्रहणायः१, उच्यते, इह रक्षादिग्रहण पुद्गलानी सारतामात्रप्रतिपादनार्थ, म ।
तदीयपुनलमहणार्थ, ततो रमादीनामिवेवि द्रष्टव्यं, अथवा औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिण-18 || मन्ते, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशाचधातथापरिणमनभावादतो न कबिदोष इति, पूर्ववैक्रियसमुद्धातस्य जीवप्रयत
रूपत्वेन क्रमक्रममन्दमन्दतरभावापनत्वेन बीणशक्तिकत्वात् इष्टकार्यासिद्धेः, अव समभूभागे ते यश्चक्रुस्तदाह'वस्स बीमित्यादि, तस्स बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे जब महान्तमेकमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति । बनेकसम्भशासन्निविष्टं बावत्पदात् राजप्रश्नीयोपाङ्गगतसूर्याभदेवयामविमानवर्णको प्रायः, सब कियत्वर्थतमिबाह-पावन पन्धर्विभूतमिति विशेषणं, अब एव सूत्रकृदेव साक्षादाह-प्रेक्षाहमण्डपपर्णको ग्राह्य इति, पतसूत्रयाख्ये सिद्धाक्तनाविवर्य के प्रारदाते इति नेहोच्यते, "तस्स पमित्यादि, तस्याभिषेकमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे
-अस्मिन् देखे महान्तवेकममिकपीः विकुन्ति अ अस्तरजस्कत्वात् सण सूक्ष्मपुद्गलनिर्मितत्वात् , तस्स पमित्यादि, सापानिसोपानमतिपकवर्षकवदन वर्णव्यासो शेयः पावत्तोरणवर्णने । अधाभिषेकपौठभूमिवर्ण-13 | नादि प्रतिपादयभाह-सबमिलावि लामिकपीठस्य बहुसमरमधीपो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस सममूभागस IS| मध्ये एक महत् सिंहासन निर्णन्ति लवकण्यासो विजयदेवसिंहासनखेव ज्ञेयः थावद्दानां, वर्णको यत्र तहाम
दीप
अनुक्रम [१२२]
JimillennilindAR
Rimtinu
~546~
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
दीपशा
प्रत सूत्रांक
[६८]
श्रीजम्बू
| वर्णकं सम्पूर्ण समस्तं सूत्रं वाच्यमिति शेषः, एनमेवार्थ निगमयन्नाह–'तए ण'मित्यादि, ततो-भरताज्ञानन्तरं ते ३ वक्षस्कारे
॥२॥ देवा उक्तविशेषणविशिष्टमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति विकुळ च यत्रैव भरतो राजा यावत्पदात् 'तेणेव उवागच्छन्ति २भरतस्य न्तिचन्द्री- एअमाणत्तिों' इति ग्राह्य, 'तए ण'मित्यादि, व्यक, अर्थतत्समयोचितं भरतकृत्यमाह-'तए णमित्यादि, प्राग्वत्, चक्रवर्तिया वृत्तिः
|'तए ण'मिति ततस्तस्य भरतस्य राज्ञः आभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टावष्टौ मालकानि पुरतः सम्प्र- खामिका ॥२७२॥
स्थितानीति शेषः, अथ ग्रन्थलाघवार्थमतिदिशति-य एव गमो विनीतां प्रविशतः स एव तस्य निष्कामतोऽपि भरतस्य, | कियदन्तमित्याह-यावदप्रतिबुद्ध्यन् २ विनीतां राजधानी मध्यंमध्येन निर्गच्छति, शेष व्यक्तं, ततः किं चके इत्याह'पचोरुहिता इत्थीरयणेण'मित्यादि, ततः स भरतो राजा खीरलेन सुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहौः द्वात्रिं-1ST शता जनपदकल्याणिकासहस्रः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्वर्नाटकसहस्रः सार्द्ध संपरिवृतोऽभिषेकमण्डपमनुप्रविशति अनु-18 प्रविश्य च यत्रैवाभिषेकपीठं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चाभिषेकपीठमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् २ 'स्वामिदृष्टे भकजनः | प्रमोदतेतरा मिति आभियोगिकसुरमनस्तुष्ट धुत्पादनहेतोरित्थमेव सृष्टिक्रमाच पौरस्त्येन त्रिसोपानकप्रतिरूपकेण आरो-I181 हति, आरुह्य च यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च पूर्वाभिमुखः सनिषण्णः-सम्यग् पौचित्येनोपविष्टः, ॥ ॥२७॥ अचानुचरा राजादयो यथोपचेरुस्तथाऽऽह-तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो द्वात्रिंशाद्राजसहस्राणि यत्रैवाभिकमण्डपः-तत्रैवोपागच्छतीत्यादि व्यकं, नवरमभिषेकपीठ अनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः २ उत्तरत आरोहतां प्रदक्षिणाकरणे
दीप
अनुक्रम [१२२]
SinElemmu
~547~
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
नैव सृष्टिक्रमस्य जायमानत्वात् , 'तए णमित्यादि पाठसिद्ध, तए णमित्यादि ततः स भरतो राजा आभियोग्यान् देवान् शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! मम महान् अर्थों-मणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स तथा तं महान् अर्ष:-पूजा यत्र स तथा तं महं-उत्सवमहेंतीति महार्हस्तं महाराज्याभिषेकमुपस्थापयतसम्पादयत, आज्ञप्तास्ते यच्चक्रुस्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः-आज्ञस्यनन्तरं ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एव-16 मुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्टचित्तेत्यादिरानन्दालापको ग्राह्यः यावत्पदात् 'करयलपरिग्गहिअंदसणहं सिरसाव मत्थए अंजलिं|
कटु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति २त्ता' इति ग्राह्य, व्याख्या च माग्वत्, अत्रातिदेशसू-18 18|त्रमाह-एवं-इत्थंप्रकारमभिषेकसूत्रं यथा विजयस्य-जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपदेवस्य तृतीयोपाने उकं तथानापि शेय-| | मिति, अत्र च सर्वाभिषेकसामग्री वक्तव्या, सा चोत्तरत्र जिनजन्माधिकारे वक्ष्यते, तत्र तत्सूत्रस्य साक्षादर्शितत्वात्, तथापि स्थानाशून्यार्थ तथाशब्दसूचितसंग्रहदर्शनार्थ किश्चिल्लिख्यते, तदपि लाघवार्थ संस्कृतरूपमेव युक्तमिति 8 तथैव दयते, अष्टसहस्र सौवर्णिककलशानां तथा रूप्यमयकलशानां तथा मणिमयकलशानामित्याद्यष्टजातीयकलशानां । एवं भृङ्गाराणां आदर्शानां स्थालानां पात्रीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानां वातकरकाणां चित्ररत्नकरण्डकानां पुष्पचङ्ग-18 रीणां यावल्लोमहस्तकचङ्गेरीणां पुष्पपटलकानां यावलोमहस्तपटलकानां सिंहासनानां छत्राणां चामराणां समुद्कानां ध्वजानां धूपकडुच्छुकानां प्रत्येकमष्टसहस्रं विकुर्वन्ति विकुळ च स्वाभाविकान् वैक्रियांश्चैतान् पदार्थान् गृहीत्या
दीप
अनुक्रम [१२२]
~548~
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
श्रीजम्यू-18 क्षीरोदे उदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, पुष्करोदे तथैव, ततो भरतैरावतयोर्मागधादितीर्थत्रये उदक मृदासपो-181 द्वीपशा-1
३वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
महानदीचूदकं मृदं च ततः क्षुल्लहिमाद्रौ सर्वतूबरसर्वपुष्पादीनि, ततः पद्मद्रहपुण्डरीकद्रहयोरुदकमुत्पलादीनिक, पव मरतय HTTRI प्रतिवर्ष महानद्योरुदकं दं च प्रतिवर्षधरं च सर्वतबरसर्वपुषादीनि च ब्रहेषु च उदकोत्पलादीमि तवतोन्येषु सर्वतूबरादीनि विजयेषु तीर्थोदक मृदं च वक्षस्कारगिरिषु सर्वतूबरादीन् तथा अन्तरमदीषु उदकं मृदंच, ततो मेरी
वाभिषेक
मू.६८ ॥२७३॥ भद्रशालबने सर्वतूबरादीन ततो नन्दनवने सर्वतूबरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसवने सर्वतूवरादीन
सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम ततः पण्डकवने सर्वतूबरपुष्पगन्धादीम् गृहन्ति, गृहीत्वा पैकतः एकत्र मिलन्ति, एकत्र मिलित्वा यत्रैव दक्षिणार्द्धभरतवर्ष यत्रैव च विनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्व च विनीता राजधानीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः १ यत्रैवाभिषेकमण्डपो यत्रैव च मरतो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति अपागत्य च तत् पूर्वोकं महाथै महाघ महाई महाराज्याभिषेकोपयोगिक्षीरोदकाथुपस्करमुपस्थापयन्ति-उपडीकयन्ति । अथोत्तर-18 त्यमाई-'तए प'मित्यादि, ततस्तं भरतं राजानं द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि शोभने-नि:पंगुणपोषे 'तिधिकरणदिषस-18 नक्षत्रमुहूर्ते' तिथ्यादिपदानां समाहारद्वन्द्वस्ततः सप्तम्येकवचनं, तत्र तिथि:-रिकाम्दुदग्धादिदुष्टतिविम्यो मिश्रा ॥२७३॥ तिधिः करणं-विविष्टिदिवसो दुनिग्रहणोत्पातदिनादिभ्यो मिन्नदिवसा नक्षत्र-राज्याभिषेकीपयोगि श्रुत्यादित्रयोदश-18 नक्षत्राणामन्यतरत्, पदाह-अभिषिक्तो महीपाठः, अतिज्येष्ठालघुधुवैः । मंगानुराधापौष्णैश्च, चिर शास्ति यमुम्क-11
दीप
अनुक्रम [१२२]
~549~
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
राम् ॥१॥"इति, मुहूर्त:-अमिषेकोकनक्षत्रसमानदैवत इति, अत्रैव विभेपमाह-उत्तरपौष्ठपदा-उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र तस्य विजयो नाम मुहूर्स:-अभिजिदाहयः अणस्तस्मिन् , अयं भावा-मुहूर्तापरपर्यायः पञ्चदशमणात्मके दिवसेऽष्टमक्षणः, तल्लक्षणं चेदं ज्योति शास्त्रप्रसिद्धं-"द्वौ यामौ घटिकाहीनी, द्वौ यामौ घटिकाधिको । विजयो नाम योगोऽयं, सर्वकार्यप्रसाधकः ॥ १॥" ततस्तैः पूर्वोकैः स्वाभाविकैरुत्तरवैक्रियैश्च वरकमले आधारभूते प्रतिष्ठान-स्थितिषों ते तथा तैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णः, अत्र चंदणकयवश्वएहि आविद्धकैठेगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहि करयलपरिग्गहिएहि मसहस्सेणं सोपण्णिअकलसाणं जाव अडसहस्सेणं भोमेजाण'मित्याविको अग्थो बावत्पदसंग्राह्य उत्तरत्र जिमजम्माभिषेकप्रकरणे व्यास्यास्यते सत्रास साक्षाद्दर्शितत्वात् , वाक्यसङ्गत्यर्थ च करणक्रियाविभागो दयते, उकविशेष-18 विशिष्टैः कलशैः सर्वोदकसर्वमृत्सर्वोपधिप्रभृतिवस्तुभिर्महता २-गरीयसा ३ राज्याभिषेकेणाभिषिचन्ति, अभिषेको यथा विजयस्य जीवाभिगमोपाने उक्तस्तथाऽत्र बोद्धव्या, अभिषिच्य च प्रत्येकं २ प्रतिनृपं यावत्पदात् 'करयलपरिमहिमं सिरसावत्तं मत्थए' इति ग्राह्यं, अंजलिं कृत्वा तामिरिष्टाभिः अत्रापि 'कताहि जाव वग्गूहि अमिणेवंता में अभिधुणंता य एवं वयासी-जब २णंदा जय जय महा! मईते अजिर्ज जिणाहि' इत्यादिको ग्रन्थस्तथा प्राधी वा | बिनीतां प्रविशतो मरतस्यार्थिप्रमुखयाचकजनैराशीरित्यर्थाद् गम्यं भणिता, कियरपर्यन्तमित्याह-यावद्विहरेति-181 18| कृत्वा जय २ शब्द प्रयुञ्जन्ति, नम्वत्र सूत्रेऽभिषेकसूत्र जीवाभिगमगतविजयदेवाभिषेकसूत्रातिदेशेनोक, साम्प्रतीन-IRI
POORom092darasacasawalas20
दीप
अनुक्रम [१२२]
~ 550~
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
श्रीजम्बू-18 तदीयादशेषु च 'अट्ठसएणं सोवण्णिअकलसाण'मित्यादि दृश्यते, अत्र च वृत्ती असहस्सेणं सोवण्णिअकलंसाण'मित्यादि ||३वक्षस्कारे द्वीपशा-18 दर्शितं तत्कथमनयोर्न विरोधः?, उच्यते, जीवाभिगमवृत्तौ तानेव विभागतो दर्शयति, अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां भरतस्य न्तिचन्द्री- कलशानामष्टसहस्रेण रूप्यमयानां कलशानां अष्टसहस्रेण मणिमयानामित्यादिपाठाशयेनात्र लिखितत्वान्न दोषः, यदि |
चक्रवर्चिया वृत्तिः | चात्र कलशानामष्टोत्तरशतसङ्ग्या स्यात्तदा तत्रैव सर्वसमवया अष्टभिः सहस्ररित्युत्तरग्रन्थोऽपि नोपपद्येत, किं च-दृश्यमान-18
खाभिषेका ॥२७॥ तत्सूत्रे विकुर्वणाधिकारे अट्ठसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं जाव भोमेजाणमित्यादि, अभिषेकक्षणे तु अट्टसएणं सोवण्णि
म.६८ | अकलसाणमित्यादीत्यपि विचार्य । अथ शेषपरिच्छदाभिषेकवक्तव्यतामाह-तए ण'मित्यादि, ततो-द्वात्रिंशद्राज| सहस्राभिषेकानन्तरं भरतं राजानं सेनापतिरत्नं यावत्पदात् गाहावइरयणे वडइरयणे इति ग्राह्यं, गृहपतिवर्द्धकिपु-18 रोहितरक्षानि त्रीणि च षष्टानि-अध्यधिकानि सूपशतानि अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणयः अन्ये च बहवो यावच्छन्दात् राजेश्वरादिपरिग्रहः, ततो राजेश्वरतलवरमाडम्बिअकौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतय एवमेव-राजान इवा-18 | भिपिश्चन्ति, तैर्वरकमलप्रतिष्ठानैस्तथैव कलशविशेषणादिकं ज्ञेयं, यावदभिनन्दन्ति अभिष्टुवन्ति च, ततः पोडशदे-181 वसहस्राः एवमेव-उक्तन्यायेनाभिषिञ्चन्ति, यत्तु आभियोगिकसुराणां चरमोऽभिषेकः तदरतस्य मनुष्येन्द्रत्वेन मनु-18||२७en ध्याधिकारान्मनुष्यकृताभिषेकानन्तरभावित्वेनेति बोध्यं, यद्वा देवानां चिन्तितमानतदात्वसिद्धिकारकत्वेन. पर्यन्ते || | तथाविधोत्कृष्टाभिषेकविधानार्थमिति, ऋषभचरित्रादौ तु पूर्वमपि देवानामभिपेकोऽभिहित इति, अब यो विशेषस्त
दीप
Ccccccesesepseee
अनुक्रम [१२२]
~551~
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
eceaesesercedese
[६८]
माह-'णवर'मिति, अयं विशेष:-आभियोगिकसुराणामपरेभ्योऽभिषेचकेभ्यः पक्ष्मलया-पक्ष्मवत्या सुकुमारया च अत्र यावत्पदग्राह्यमिदं 'गन्धकासाइआए गायाई लूहॅति सरसगोसीसचन्दणेणं गायाई अणुलिपति २त्ता नासाणीसास-1 वायवोझ चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेग धवलं कणगखइअंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहयं । | दिवं देवदूसजुअलं णिसावेंति २त्ता हारं पिणझैंति २ ता एवं अद्धहारं एगावलि मुत्तावलिं रयणावलिं पालम्ब अंगयाई तुडिआई कडयाई दसमुद्दिआणंतर्ग कडिसुत्तर्ग वेअच्छगसुत्गं मुरविं कंठमुरविं कुण्डलाई चूडामणि चित्तस्यणुकर्ड'ति, अत्र व्याख्या-गन्धकापायिक्या-सुरभिगन्धकषायगव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया इति गम्य, गात्रा-18 णि-भरतशरीरावयवान् रूक्षयन्ति, रूक्षयित्वा च सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पन्ति, अनुलिष्य च देवदू-13 प्ययुगलं निवासयन्ति-परिधापयन्तीति योगः, कथम्भूतमित्याह-नासिकानिःश्वासवातेन वाह्य-यूरापनेयं श्लक्ष्णतरमित्यर्थः, अयमर्थ:-आस्वा महावातः नासावातोऽपि स्वबलेन तद्वलंयुगलं अन्यत्र प्रापयति, चक्षुहरं रूपातिशयत्वात्
अथवा चक्षुर्द्धर-चक्षुरोधकं घनत्वात् , अतिशायिना वर्णेन स्पर्शेन च युक्तं हयलाला-अश्वमुखजलं तस्मादपि पेलव-13 | कोमलमतिरेकेण-अतिशयेन अतिविशिष्टमुदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः धवलं प्रतीतं कनकेन खचितानि-विच्छु-18 रितानि अन्तकर्माणि-अश्चलयोर्वानलक्षणानि यस्य तत् तथा आकाशस्फटिको नाम-अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्सदशमभं अहतं दिव्यं निवास्य च हारं पिनह्यन्ति-ते देवाश्चक्रिणः कण्ठपीठे बनन्ति, 'एव'मिति एतेनाभिलापेनार्द्ध
दीप
अनुक्रम [१२२]
~ 552 ~
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या वृचिः
[६८]
श्रीजम्यू-18 हारादीनि वाध्यानि बावन्मुकुटमिति, तत्र हारार्द्धहारी प्रतीती, एकावली प्राग्वत्, मुक्तावली-मुक्ताफलमयों कनक-18३वक्षस्कारे
द्वापशावली-कनकमणिमयी रमावली-रसमयी पालम्ब:-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आत्मप्रमाण आभरण- भरतस्य न्तिचन्द्री
विशेषः अङ्गादे त्रुटिके च प्राग्क्त् कटके प्रसिद्धे दशमुद्रिकानन्तक-हस्तांगुलिमुद्रादशकं कटिसूत्रक-पुरुषकव्यामरण चक्रवात्तवैकल्यसूत्रक-उत्तरासङ्ग परिघानीय-शृङ्खलकं मुरवी-मृदङ्गाकारमाभरण कण्ठमुरवी-कण्ठासनं तदेव कुण्डले व्यकि
वाभिषेक ॥२७५ पडामणिः प्राम्बत् चित्ररत्नोत्कट-विचित्ररकोपेतं मुकुट व्यक्त । 'तयणतरं च ददरमलय इत्यादि, तदनन्तर वर्वर
मलक्सम्बन्धिनो के सुगन्धा:-शोभनवासास्तेषां गन्धः-शुभपरिमलो येषु ते तथा न्य-काश्मीरकर्पूरकस्तुरीमा मृतिगन्धबद्रव्यैः प्रकरणाद्रसभावमापावितैरभ्युक्षन्ति-सिञ्चन्ति ते देवा. भरत, कोऽर्थः 1-अनेकसुरमितव्यमिश्रघुसपरसच्छटकान् कुर्वन्ति, भरतवाससीति भावः, क्वचित् 'सुगन्धगन्धिएहिं गन्धेहिं भुकुति' इति पाठसत्र मकुर्वतीतिउलयन्ति, मन्धैः सुरभिचूर्णैः-सुरभिचूर्ण भरतोपरि क्षिपन्ति दिन्यं चः समुचये सुमनोदाम-कुसुममाली पिनयन्ति, किंबहुना उत्तेनेति गम्य, 'मंढिमवेढिम' वावत्पदात् 'पूरिमसंघाइमेण चउविहेणं महण कप्परक्सयपिव समल-IST किवति ग्राह्य, अत्र व्याख्या-पन्थन ग्रन्थस्तेन निवृत्त प्रन्धिर्म, भावादिमप्रत्ययः, यत् सूत्राविना प्रथ्यते तद् अम्बि-18|२७५।। ममिति भावः, प्रचितं सद्धेष्यते यत्तद् वेष्टिमं, स्था पुष्पलंबूसको गेन्दुक इस्यर्थ पूरिमं येन वंशशलाकाविम -ISI रादि पूर्यते संघातिम यरपरस्परतो नालं संपात्यते, स्वविवेन चतुर्विधेन मास्येन कल्पवृक्षमिवालङ्कृतविभूषितं मरत
दीप
अनुक्रम [१२२]
~553~
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६८]
चक्रिणं कुर्वन्ति ते देवाः। आप कृताभियेको यचके तदाह-तए 'मित्यादि, ततः स भरतो राजा महतातिशायिना राज्याभिषेकेणाभिषिक्तः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत, तदेवाह-वियमेव भो देवानुप्रिया ! यूयं हस्तिस्कन्धयरमताः विनीतायाः राजधान्याः शृङ्गाष्टकत्रिकचतुष्कचत्वरादिषु प्राग्व्याख्यातेषु मारपदे महता र शब्देलोद्घोषयन्तो-जत्पन्तो जल्पन्तः, अब शत्रन्तस्यापि अविक्क्षणान कर्मनिर्देशः, आमीक्ष्ण्ये शियन, -
छुल्क यावक् द्वादश संवत्सरा कालो मानं यस्यातीति द्वादशसंवत्सरिकस्तं प्रमोदहेतुत्वात् प्रमोद-उत्सव पोषक्त लोपयित्वा च ममतामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयता, उच्छुल्कादिपदव्याख्या प्राग्वत्, अथ ते आज्ञप्ताः यथा प्रवृत्तवन्तस्तथाऽह
तए कामिति, ततसे कौटुम्बिकपुरुषाः भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हटतुष्टचित्तानन्दिताः 'हस्सियस'ति हर्षवधा-13 विसर्पदयाः विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य च क्षिप्रमेय हस्तिस्कन्धधरगताः यावत्पदात् विणीबार राय-13 हागीए सिंघाउमतिगे'त्यादि प्राचं, कियदंतमित्याह-यावद् घोषयन्ति र स्वा च एतामाज्ञक्षिका प्रत्यार्पयन्ति । अथ
भरतः किचके इत्याह-साए ण'मिति, तत्तः स. भरतो राजा महत्ता २ राज्याभिषेकेणाभिपित्तः सन् सिंहासनाकम्युपातिष्ठति अभ्युत्थाय रखीस्तेन यावत् 'बत्तीसाए उडुकल्लाणिमासहस्सेहिं बत्तीसाए जणषयकल्लाणिासहस्सेहि शक्तीसाए बच्चीसइब हिं' इति आय, झात्रिंशता द्वाविंशबैनाटकसहती साई संगरिवृतोऽभिषेकपीठात पौरस्बेन । निसोपानप्रतिरूपकेणः प्रत्यकोहति प्रत्यक्सा चाभियामण्डपात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्कम्प च क्वैवाभिपेक्य
दीप
अनुक्रम [१२२]
JinElemnitiniented
~554~
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ६८ ]
दीप
अनुक्रम
[१२२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [3],
मूलं [ ६८ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२७६॥
हस्तिरलं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चाञ्जनगिरिकूटसन्निभं गजपतिं यावच्छब्दात् नरवइति ग्राह्यं, नरपतिरारूढः, | तदनु अनुचरजनो यथाऽनुवृत्तवांस्तथाह - 'तए ण' मित्यादि, व्यक्त, अथ यया युक्त्या चक्री विनीतां प्रविवेश तामाह'तर ण'मित्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञ आभिषेक्यं हस्तिरत्तमारूढस्य सत इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यावच्छदाद्यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि, अत्र ग्रन्थविस्तरभयादतिदेशमाह-योऽपि चातिगच्छतो - विनीतां प्रविशतः क्रमः -परिपाटी प्रथमोऽधस्तनसूवोक्तो भरतविनीताप्रवेशवर्णकः कुवेरदृष्टान्तभावितसूत्रावसानः स एव क्रम इहापि सत्कारविरहितो नेतव्यः, अयं भावः - पूर्व प्रवेशे षोडशदेवसहस्रद्वात्रिंशद्वाज सहस्रादीनां सत्कारो यथा विहितस्तथा नात्रेति, अस्य च द्वादशवार्षिकप्रमोदनिर्वर्त्तनोत्तरकाल एवावसरप्राघत्वात् । अथ गृहागमनानन्तरं यो विधिस्तमाह — 'तए णं से. | भरहे राया मज्जणघर' मित्यादि, निगदसिद्धं प्राग् बहुशो निगदितत्वात् एवं च प्रतिदिनं नवं २ राज्याभिषेकमहोत्सवं कारयतस्तस्य द्वादश वर्षाण्यतिक्रान्तानि, शत्रुंजयमाहात्म्यादौ तु 'राज्याभिषेकोत्सवस्थाने राज्याभिषेक एव द्वादशवार्षिकोऽभिहित इति, अथ तदुत्तरकाले यत्कृत्यं तदाह--"तए णमित्यादि प्राग्वत् ॥ ननु सुभूमचक्रवर्त्तिनः | पर्शुरामहत क्षत्रियदाढा भृतस्थालमेव चकरलतया परिणतमिति श्रुतेश्चक्ररत्नानामनियतोत्पत्तिस्थानकत्वं ज्ञायते, तेन प्रस्तुतप्रकरणे तेषां कोत्पत्तिरित्याशंक्याह-अथ चतुर्दशरलाधिपतेर्भरतस्य यानि रत्नानि यत्रोदपयंत तत्तथाऽहभरस्सरण्पो चक्करयणे १ दंडरपणे २ असिरवणे ३ उत्तरयणे ४ एते णं चचारि पगिदियरवणे आवरसालाएं समुप्पण्णा,
Fur Fate & Pune Cy
~555~
श्वक्षस्कारे
भरतस्य
चक्रवर्त्ति त्वाभिषेकः सू. ६८
॥२७६॥
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [३], -----
---- मूलं [६८R] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६८R]
चम्मरयणे १ मणिरयणे २ कागणिरयणे ३ णव य महाणिहओं एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावहरयणे १ गाहावइरयणे २ बदारयणे ३ पुरोहिभरयणे ४ एए णं चत्तारि मणुभरयणा विणीआए रायहाणीए समुप्पण्या, आसरवणे १ हत्थिरयणे. २ एए णं दुवे पंचिंदिअरवणा वेअद्धगिरिपायमूले समुप्पण्णा, सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिल्लाए विजाइरसेटीए समुप्पण्णे ( सूत्र ६८)
'भरहस्स रणों' इत्यादि, भरतस्य राज्ञश्चक्रादीनि चत्वारि एकेन्द्रियरक्षानि आयुधशालायां समुत्पन्नानि-लन्धस-18 कत्ताकानि जातानि एवमुत्तरसूत्रेऽपि बोय, तेन चर्मरक्षादीनि नव महानिधयश्च एतानि श्रीगृहे-भाण्डागारे समत्प-18
मानि-लब्धसत्ताकानि जातानीत्यर्थः, इत्थं च निधयः शाश्वतभावरूपाः कथमुत्पद्यन्ते इत्याशङ्का निरस्ता, ननु इदं
सूत्र पादाधःस्थितयस्तस्य, नवापि निधयोऽनिशम् । हेमाब्जानीव वृषभमभोर्विहरतोऽभवन् ॥१॥ इति ऋषभच-18 I|| रिश्रवचनेन अत्रैव पूर्वसूत्रेण च सह कथं न विरुध्यते ?, उच्यते, राज्ञां यत्र तत्र स्थितमपि कोशद्रव्यं कोश एव को कथ्यत इति लौकिकव्यवहारस्य सुप्रसिद्धत्वात् न दोषः, सेनापत्यादिमनुजरत्नानि चत्वारि विनीतायां समुत्पन्नानि, | अश्वरलहस्तिरले एते द्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्रले वैताब्यगिरेः पादमूले-मूलभूमौ समुत्पन्ने, सुभद्रानाम खीरसं उत्तरस्यां विद्याधरश्रेण्यां समुत्पन्नं ॥ अथ षट्खण्डं पालयंश्चक्री यथा प्रववृते तथाह
तए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्इं देवसाहस्सीणं बत्तीसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकहाणिभासहस्साणं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्साणं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धाणं णाडगसहस्साणं तिण्डं सट्ठीणं सूयारसयाणं अट्ठारसहं सेणिपसेणीगं चउरासीइए आससयसहस्साणं चउरासीइए वंतिसयसहस्साणं चतरासीइए रहसयसहस्साणं छण्णउइए
520099000000000000000000000000
दीप
अनुक्रम [१२३]
बीजम्बू. ४010
★ अत्र मूल-संपादने सूत्रक्रमाकने मुद्रणदोषस्य कारणात् 'सू०६८' इति द्विवारान् मुद्रितं
-भरत-नरदेवस्य धर्मदेवत्वं प्राप्तिः
~5564
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Saeeees
प्रत
सूत्रांक
[६९]
दीप
श्रीजम्बू
मणुस्सकोडीणं यावत्तरीए पुरवरसास्साणं बत्तीसाए जणवयसहस्साणं छण्णउहए गामकोडीणं णवणइए दोणमुहसहस्साणं अड- ३वक्षस्कारे द्वीपशा
यालीसाए पट्टणसहस्साणं पञ्चीसाए कस्बतसहस्साणं उसीसाए मदवसहस्साणं वीसाए आगरसहस्साणं सोलसण्हं चक्रिण: न्तिचन्द्री- खेडसहस्साणं पदसणं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगणपण्णाए कुरजाणं विणीभाए रायहाणीए चाहिमवंतगि
समृद्धिः या वृतिः रिसागरमेरागस्स केवलकप्परस भरहस्स वासस्स अण्णेसि च बहूर्ण राईसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिक्षणं आहेवर्ष पोरेव
भद्रितं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे ओयणिहएमु कंटएमु उद्विभमलिएमु सव्वसत्तम णिजिएम ॥२७७॥ भरदाहिने गरिंदे बरचंदणचषिोंगे बरहारराअवच्छे वरमउडविसिट्ठए वरवत्यभूसणधरे सम्बोउअमरहिकसमवरमालसोभि
असिरे वरणाडगनाडइनवरइस्थिगुम्म सद्धिं संपरिबुडे सबोसहिसबरवणसम्बसामइसमगे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुवकयतवप्पभावनिविद्वसंचिअफले भुंजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेजेत्ति (सूत्र ६९)
'तए ण'मिति, ततः-पट्खण्डभरतसाधनानन्तरं स भरतो राजा चतुदेशरतादीनां सार्थवाहप्रभृत्यन्तानामाधिप| त्यादिकं कारयन् पालयन् मानुष्यकानि सुखानि भुझे इत्यन्वयः, सर्व प्राग्वत् व्याख्यातार्थ, नवरं पपश्चाशतोऽन्तरो-18| । दकाना-जलान्तर्वतिसनिवेशविशेषाणां न तु समयमसिद्धयुग्मिमनुजाश्रयभूतानां षट्पश्चाशदन्तरद्वीपानां तेषु कल्या-18॥
प्याधिपत्यस्थासम्भवात् , एकोनपश्चाशतः कुराज्यानां-भिल्लादिराज्यानामिति, केषु सत्सु सुखानि भुझे इत्याह-उपह- 1॥२७७॥ I|| तेषु-विनाशितेषु निहतेषु प-अपहतसर्वसमृद्धिषु कण्टकेषु-गोत्रजवैरिषु उद्धृतेषु-देशाभिर्वासितेषु मर्दितेषु च-मान-10 18 म्लानि प्रापितेषु सर्वशत्रुषु-अगोत्रजवैरिघु, एतत्सर्व कुतो भवतीत्याह-निर्जितेषु-भग्नवलेषु सर्वशत्रुषु उद्विप्रकार
अनुक्रम [१२४]
~557~
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
---- मूलं [६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६९]
दीप
वरिषु अत्र सर्वशत्रुध्विति पदं देहलीप्रदीपन्यायेनोभयत्र योज्यं, कीदृशो भरत इत्याह-भरताधिपो नरेन्द्रः चन्दनेन चर्चित-समण्डनं कृतमहं यस्य स तथा, वरहारेण रतिदं-द्रष्टणां नयनसुखकारि वक्षो यस्य स तथा, वरमुकुटविशिटकः,चूणौ तु 'वरमउडाविद्धए' इति,तत्र आविद्धए इति आविद्धं परिहितं वरमुकुट अनेन स तथा, प्राकृतत्वात् पदव्य-18 त्ययः, वरववभूषणधरः सर्वर्तकसुरभिकुसुमानां माल्यैः-मालाभिः शोभितशिरस्कः वरनाटकानि-पात्रादिसमुदाय-18 रूपाणि नाटकीयानि च-नाटकप्रतिबद्धपात्राणि वरस्त्रीणां-प्रधानस्त्रीणां गुल्म-अव्यक्तावयवविभागवृन्दं तेन तृती
यालोप आर्षत्वात् सार्द्ध सम्परिवृतः सर्वोषध्यः-पुनर्नवाद्याः सर्वरलानि-कर्केतनादीनि सर्वसमितयः-अभ्यन्तरादि६ पर्षदस्ताभिः समग्रः-सम्पूर्णः, अत एव सम्पूर्णमनोरथः हतानां-पुमर्थत्रयभ्रष्टत्वेन जीवन्मृतानां अमित्राणां-शत्रूणां ।
मानमथनः, कीदृशानि सुखानि भुक्ते इत्याह-पूर्वकृततपःप्रभावस्य निविष्टसंचितस्य-निकाचिततया संचितस्य तस्यैव 8
ध्रुवफलत्वात् , परनिपातः पदस्थापत्वात् , फलानि-फलभूतानि, कीदृशो भरतो-भरते-अस्मिन् क्षेत्रे प्रथमभरता-18 | धिपत्वेन प्रसिद्धं नामधेयं-नाम यस्य स तथा, विशेष्यपदं तु 'तए णं से भरहे राया' इत्यत्रैवीकं, अनेनैकवाक्ये || द्विविशेष्यपदं कथमित्याशङ्का निरस्ता ॥ अथास्य नरदेवस्य धर्मदेवत्वमाप्तिमूलमाह
तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ जेणेष मजणघरे तेणेव उबागच्छइ २ त्ता जाव ससिब्ब पिअदसणे गरबई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव आदसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता सीहासणवरगए पुरत्यामिमुहे णिसीअइ २ चा आईसघरंसि अत्तार्ण देहमाणे २ चिट्ठइ, तए णं तस्स भरहस्स रणो सुभेणं परिणामेणं पसत्यहिं अज्झवसाणेहि लेसाहि विसुझ
अनुक्रम [१२४]
भरतराज्ञ: केवलज्ञान, श्रामण्य, मोक्षप्राप्ति:
~558~
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रामण्यं
[७०]
दीप
माणीहिं२ ईहापोहमगणगवेसणं करेमाणस्स तयावरिजाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकर अपुचकरणं पविट्ठस्स अणंते अणु- ३ वक्षस्कारे द्वीपशा- चरे निव्वापाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे, तए णं से भरहे केवली सयौवाभरणालंकार ओमुभइ भरतख न्तिचन्द्री- २त्ता सयमेव पंचमुहि लो करेइ २ चा आर्यसपराओ पडिणिक्यमइ २ चा अंतेउरमझमकोण जिगरछा र चा दसहि केवलं या वृत्तिः
रायवरसहस्सेहि सखि संपरिखुढे विणीअं रायहाणि मझमझेणं णिग्गच्छइ २ ता मज्झदेसे मुइंसुहेणं विहय २ सा जेणेव भट्ठा॥२७८॥
मोक्षश्व वए पछते तेणेष उवागच्छइ २ ता अट्टावयं पायं सणिों २ दुरुहइ २ ता मेघषणसण्णिकासं देवसण्णिवायं पुढविसिलाबट्टयं
म.७० पडिलेहेइ २ ता संलेहणासूसणाझूसिए भत्तपाणपडिआइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे २ विहद, तए णं से भरहे केवली सत्तत्तरिं पुबसयसहस्साई कुमारासमझे बसित्ता एग वाससहस्स मंडलिअरायमज्झे वसित्ता छ पुग्यसयसहस्साई वाससहस्सूणगाई महारायमझे वसित्ता तेसीइ पुख्वसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता एग पुष्वसयसहस्सं देसूणगं केवलिपरिआर्य पाणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामनपरिआय पाउणित्ता चउरासीइ पुब्बसयसहस्साई सम्बाउ पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपागएणं सवणेणं णक्सत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिजे आउए णामे गोए कालगए वीइकते समुजाए छिण्णजाइजरामरणवन्धणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिल्बुड़े अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ इति भरतचकिचरितं (सूत्र ७०) .
. . 'तए 'मित्यादि, ततो-वर्षसहस्रोनषट्पूर्वलक्षावधिसाम्राज्यानुभवनानन्तरं स भरतो राजा अन्यदा कदाचियत्रैव ॥२७॥ 18|| मजनगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च यावच्छशीव प्रियदर्शनो नरपतिर्मजनगृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च
खवेषसौन्दर्यदर्शनार्थ यौवादर्शगृहं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखो ।
अनुक्रम [१२५]
~ 559~
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७०]
| निषीदति निषध चादर्शगृहे आस्मानं प्रेक्षमाणः २-तत्र प्रतिविम्बितं सर्वाङ्गस्वरूपं पश्यन् पश्यस्तिष्ठति-आस्ते, अत्र ||
च 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रित्ययं सम्प्रदायो बोध्या, तद्यथा-'तत्र च प्रेक्षमाणस्य, स्वं वपुरतेशितुः । अङ्गुल्या एकतमस्या, निपपातांगुलीयकम् ॥ १॥ तदंगुल्या गलितमध्यंगुलीयं महीपतिः । नाज्ञासीद्वहिणो बहभारादहमिवैककम् ॥ २॥ वपुः पश्यन् क्रमेणेक्षांचके तां चत्रयनूमिकाम् । अंगुली गलितज्योत्स्नां, दिवा शशिकलामिव ॥३॥ अहो विशोभा फिमसावंगुलीति विचिन्तयन् । ददर्श पतितं भूमावंगुलीयं नरेश्वरः॥४॥ किमन्याम्यपि विशोभाग्यलान्याभरणैर्विना । इति मोक्तुं स आरेभे,भूषणान्यपराण्यपि ॥५॥' इति. एवं प्रवृत्तस्य तस्य किमजनीत्याह-तए ण-18 | मित्यादि, ततो-वपुर्व्यस्तभूषणमोचनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः शुभेन परिणामेन “अन्तःक्लिन्नस्य विष्ठाचैर्मलैः18 स्रोतोभवैर्वहिः । चिन्त्यमानं किमप्यस्य, शरीरस्य न शोभनम् ॥१॥ इदं शरीरं कर्पूरकस्तूरीप्रभृतीन्यपि । दूषयत्येव पाथोदपयांस्यूपरभूरिव ॥२॥ यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं, तन्मध्याहे विनश्यति । तदीयरसनिष्पने, काये का नाम सारता ॥३॥"इति शरीरासारत्वभावनारूपया जीवपरिणत्या प्रशस्तैरध्यवसानैः-उक्तस्वरूपैर्मन:परिणामैः लेश्याभिःशुक्लादिद्रव्योपहितजीवपरिणतिरूपाभिर्विशुश्यन्तीभिः-उत्तरोत्तरविशुद्धिमापद्यमानाभिरापद्यमानाभिर्निरावरणवपु
रूप्यविषयकमीहापोहमार्गणागवेषणं कुर्वतस्तदाबरणीयानां-केवलज्ञानदर्शननिबन्धकानां चतुर्णा घातिकर्मणां क्षयेण-18 18 सर्वथा जीवप्रदेशेभ्यः तदीयपुद्गलपरिशाटनेन प्राग्व्याख्यातानुत्तरादिविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानदर्शनमुत्पन्न मिति,
दीप
अनुक्रम [१२५]
~ 560~
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७०]
दीप
श्रीजम्बू
कीदृशमित्याह-कर्मरजसा विकिरणकर-विक्षेपकरं, कीदृशस्य भरतस्य ?-अपूर्वकरणं-अनादौ संसारेऽपातपूर्व ९३वक्षस्कारे द्वीपशा-
| ध्यानं शुक्लध्यानं प्रविष्टस्य प्राप्तस्येत्यर्थः, अन्न च ईहादिपदेषु समाहारद्वन्द्वः, तत्रावग्रहपूर्वकत्वादीहादीनां प्रथम ध्यान शुक्लध्यान पावर
भरतस्य न्तिचन्द्री- तदादेखः, तथाहि-अये ! इह निरलंकारे वपुषि शोभा न दृश्यते इत्यवग्रहः, यथा दरस्थपुरोवर्तिनि वस्तुनि केवल या वृत्तिः किमिदमिति भावः, अथ सा शोभा औपाधिकी वा नैसर्गिकी वा इत्यवगृहीतार्थाभिमुखा मतिचेष्टा पर्यालोचनरूपा
श्राम ॥२७९॥॥ईहा, यथा तत्रैव स्थाणुवों पुरुषो वा, नन्वियं संशयाकारतया संशय एव, स च कथमुत्तरकालभाविसम्यग्निश्चयापर-18
मोक्षश्व
सपषमुत्तरकालभाविसम्याग्नश्चयापर- सू.७० पर्यायस्यापोहस्य हेतुर्भवति, विरुद्धकोट्यवगाहित्वादिति', उच्यते, उत्कटकोटिकसंशयरूपत्वेनास्याः सम्भावनारूपाया || | निश्चयकारणत्वस्याविरुद्धत्वात्, इयमीपाधिक्येव न नैसर्गिकी बाह्यवस्तुसंसर्गजन्यत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् इति ईहित-18 विशेषनिर्णयरूपोऽपोहः, यथा तत्रैव स्थाणुरेवायं न पुरुष इति, अस्याः प्रकर्षापकर्षों बाह्यवस्तुप्रकर्षापकर्षानुविधायिनावि-MAH त्यन्वयधर्मालोचनं मार्गणा यथा स्थाणौ निश्चेतव्य इह वल्युत्सर्पणादयो धर्माः सम्भवन्ति, स्वाभाविकत्वे उत्तान-18 |दृशां भारभूतस्थाभरणस्य वपुषि धारणबुद्धिर्न स्यादिति गवेषणं, यथा तत्रैव इह शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मान | दृश्यन्ते इति, अत्र चेहादीनन्तरेण हानोपादानबुद्धिर्न स्यादिति तद्ग्रहणम् ॥ अथोत्पन्न केवलः किं करोतीत्याह- ॥२७९॥ 'तए ण'मित्यादि,ततः केवलज्ञानानन्तरंस भरतः आसनप्रकम्पावधिना शक्रेण केवलिन् ! द्रव्यलिङ्गं प्रपद्यस्व यथाऽहं वन्दे विदधे च निष्क्रमणोत्सवमित्युक्तः सन् स्वयमेवाभरणभूतमलङ्कारं वस्त्रमाल्यरूपमवमुञ्चति-त्यजति, अत्र भूषणा-||
अनुक्रम [१२५]
sease
~561~
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७०]
दीप
लङ्कारस्य पूर्व त्यक्तत्वात् केशालङ्कारस्य च तित्यक्ष्यमाणत्वात् परिशेषात् वस्त्रमाल्यालङ्कारयोरवग्रहः, स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति कृत्वा च उपलक्षणात् सन्निहितदेवतयाऽपितं साधुलिङ्ग गृहीत्वा चेति गम्यं, ततः शक्रव-18 न्दितः सन् आदर्शगृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तःपुरमध्यंमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य च दशभी राज-18 सहस्रः सार्द्ध संपरिवृतो विनीताया राजधान्या मध्यंमध्येन निर्गच्छति निर्गत्य च मध्यदेशे-कोशलदेशस्य मध्ये सुखसुखेन विहरति । तदनु किं विधत्ते इत्याह-'विहरित्ता जेणेव अट्ठावए'इत्यादि, विहत्य च यत्रैवाष्टापदः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चाष्टापदं पर्वतं शनैः २ सुविहितगल्या 'दवदवस्स न गच्छिज्जा' इति वचनात् आरोहति आरुह्य च घनमेघसन्निकाश-सान्द्रजलदश्यामं पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् देवानां सन्निपातः-आगमनं रम्यत्वात् यत्र स तथा तं, पृथि-18 वीशिलापट्टकः-आसनविशेषस्तं प्रतिलेखयति, केवलित्वे सत्यपि व्यवहारप्रमाणीकरणार्थ दृष्ट्या निभालयति, प्रतिलिख्य च सिंहावलोकनन्यायेनात्रापि आरोहतीति बोध्यं, संलिख्यते-कृशीक्रियते शरीरकषायाद्यनयेति सँलेखना-तपोविशेपलक्षणा तस्या जोषणा-सेवना तया जुष्टः-सेवितो झूषितो वा-क्षपितः यः स तथा, प्रत्याख्याते भक्तपाने येन स
तथा, कान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , 'पादोपगतः पादो-वृक्षस्य भूगतो मूलभागस्तस्येवाप्रकम्पतयोपगतम्-अवस्थानं | का यस्य स तथा, काल-मरणमनषकांक्षन्-अवाञ्छन् , उपलक्षणाज्जीवितमप्यवाञ्छन्, अरक्तद्विष्टत्वाद्विहरति, अथ स|
भरतो यस्मिन् पर्याये यावन्तं कालमतिबाह्य निर्ववृते तथाह-'तए ण'मित्यादि, ततः स भरतः केवली सप्तसप्तति।
अनुक्रम [१२५]
~562~
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३],
----- मूलं [७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशा
केवल
[७०]
सू. ७०
दीप
श्रीजम्बू- 18 पूर्वशतसहस्राणि कुमारवासमध्ये-कुमारभावे उषित्वा भरतप्रसवानन्तरमेतावन्तं कालं ऋषभस्वामिनो राज्यपरिपा-18|श्वक्षस्कारे
लनात्, एक वर्षसहनं माण्डलिकराजा-एकदेशाधिपतिः भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य माण्डलिकत्वं तन्मध्ये पित्वा पट भरतस्य न्तिचन्द्री
18 पूर्वसहस्राणि वर्षसहनोनानि महाराजमध्ये-चक्रवर्तित्वे उपित्या त्र्यशीति पूर्वशतसहस्राणि अगारवासमध्ये गृहित्वे | या वृत्तिः इत्यर्थः उपित्वा एक पूर्वशतसहस्र अन्तर्मुहत्तानं केवलिपर्यायं प्राप्य-पूरयित्वा गृहित्वे एव भावचारित्रप्रतिपत्त्यनम्त
श्रामपं
तिपत्वनन्त- मोक्षश्च IR८०॥ रमन्तर्मुहूर्तेन केवलोत्पत्तः, तदेव पूर्वशतसहस्रं बहुप्रतिपूर्ण-सम्पूर्ण, तेनान्तर्मुहर्जुनाधिकमित्यर्थः, भावचारित्रस्यात्र
विवक्षा न तु द्रव्यचारित्रस्य तस्य केवलानन्तरं प्रतिपत्तेः, श्रामण्यपर्याय-यतित्वं प्राप्य चतुरशीतिं पूर्वशतसह|| नाणि सर्वायुः परिपूर्य मासिकेन भकेन-मासोपवासैरित्यर्थः अपानकेन-पानकाहारवर्जितेन श्रवणेन नक्षत्रेण योगमु-181 |पागतेन चन्द्रेण सहेति गम्यं, क्षीणे वेदनीये आयुषि नाम्नि गोत्रे च भवोपवाहिकर्मचतुष्टयक्षये इत्यर्थः, 'कालगए' ॥ इत्यादि पदानि माग्वत्, इतिशब्दोऽधिकारपरिसमाप्तिद्योतका, स चायं-से केणठेणं भंते! एवं बुखाइ भरहे वासे २' इति सूत्रेण नामान्वर्थ पृच्छतो गौतमस्य प्रतिवचनाय 'तत्थ णं विणीआए रायहाणीए भरहे णाम राया चाउरंतचक्क-18 वट्ठी समुप्पज्जित्था' इत्यादिसूत्रर्भरतचरित्रं प्रपश्चितं, तच्च परिसमाप्तमित्यर्थः, तेन भरतः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यना-8॥२८॥ | दित्वादप्रत्यय इति निरुक्तवशाद् भरतं क्षेत्रमिति तात्पर्यार्थः । अथ प्रकारान्तरेण नामान्वर्थमाह
भरहे भ इस्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए जाव पलिनोवमहिईए परिवसा से एएणद्वेणं गोअमा! एवं धुषा भरहे वासे २ इति ।
अनुक्रम [१२५]
~ 563~
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [३], -----
----- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७१]
अदुत्तरं च णं गो०! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जंण कयाइ ण आसि ण कयाई णत्यि ण कयाइ ण भविस्सइ भुर्वि च भवद अ भविस्सह अ धुवे णिअए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिये भरे पासे (सूत्र-७१)
भरतश्चात्र देवो महर्द्धिको महाद्युतिको यावत्पदात् 'महायसे' इत्यादि पदकदम्बकं ग्राह्य, पल्योपमस्थितिकः परि-11 | वसति तद् भरतेति नाम, एतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते भरतं वर्ष २, निरुक्तं तु प्राग्वत् ॥ उक्कं यौगिकयुक्त्या नाम, || अथ तदेव रूच्या दर्शयति-'अदुत्तर'मिति, अथापरं चः समुच्चये णं वाक्यालङ्कारे गौतम! भरतस्य वर्षस्य शाश्वतं | नामधेयं निनिर्मित्तकमनादिसिद्धत्वाद्देवलोकादिवत् प्रज्ञप्त, शाश्वतत्वमेव व्यक्त्या दर्शयति-यन कदाचिन्नासीदि-9 त्यादि पावत्, एतेन भरतनाम्नश्चक्रिणो देवाच्च भरतवर्षनाम प्रवृत्तं भरतवर्षाच तयो म भरतं स्वकीयेनास्यास्तीति निरुकवशेन प्रावर्त्ततेत्यन्योऽन्याश्रयदोषो दुर्निवार इति वचनीयता निरस्ता॥ इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानअकबरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयुगप्रधानोपमानसाम्यतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरनमञ्जूषानाम्या
भरतक्षेत्रप्रवृत्तिनिमित्ताविर्भावकभरतचक्रिचरितवर्णनो नाम तृतीयो वक्षस्कारः ॥३॥ १ इति भरतक्षेत्रवत्तभ्यतानिवद्धः प्रथमोऽधिकारः (इति० ही पत्ती)।
दीप
अनुक्रम [१२६]
अत्र तृतिय-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~564~
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मू
अथ चतुर्थवक्षस्कारः ॥ ४॥
४वक्षस्कारे
क्षुल्लहिम
प्रत
न्तिचन्द्री
वत्खरूपं सू.७२
सूत्रांक
या इतिः
[७२]
॥२८॥
दीप
अथ क्षुल्लहिमवगिरेरवसरःकहिणं भंते । जम्युरीये २ जुलहिमवते णामं वासहरपन्चए पण्णत्ते?, गोमा । हेमवयस्स बासस्स दाहिणेणं भरहस्स बासस्स उत्तरेणं पुरथिमलपणसमुदस्स पत्थिमेणं पचस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेण एत्य णं जम्बुरी वीवे चुलहिमवंते णाम वासहरपवए पुण्णते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुई पुढे पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुहं पुढे पञ्चत्थिमिलाए कोडीए पञ्चस्थिमिहं लवणसमुई पहे, एगं जोअणसयं उद्धं उच्चत्तेणं पणवीसं जोभणाई उबेहेणं एग जोभणसहस्स बावण्णं च जोषणाई दुवालस य एगूणवीसइ भाए जोअणस्स विक्खंभेणंति, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं पंच जोअणसहस्साई तिणि अ पण्णासे जोअणसए पण्णरस य एगूणवीस इभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडिणायया जाव पचत्यिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिलं लवणसमुई पुट्ठा चउब्वीसं जोभणसहस्साई णव य बत्तीसे जोअणसए अद्धभागं च किंचिविसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता, तीसे धणुपट्टे दाहिणेणं पणवीसं जोअणसहस्साई दोष्णि अ तीसे जोअणसए चत्वारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते, रुअगसंठाणसंठिए सब्बकणगामए अच्छे सण्हे तहेव जाव पडिरूवे
अनुक्रम [१२७]
॥२८॥
10
॥१
अथ चतुर्थ-वक्षस्कारः आरभ्यते
| अथ क्षुद्रहिमवंतपर्वतस्य वर्णनं आरभ्यते
~565~
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७२]
दीप
उभओ पासिं दोहि पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुष्हवि पमाणं वाष्पगोत्ति । चुहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णचे से जहा जामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ अ आसयंति जाव विहरति (सूत्र-७२)
'कहिण'मित्यादि, कभदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुलः क्षुद्रोवा-महाहिमवदपेक्षया लघुहिमवान् क्षुल्लहिमवान् क्षुद्रहिम-1 वान (वा) नाम्ना वर्षघर:-पर्वतः प्रज्ञप्तः१, वर्षे-उभयपार्थस्थिते द्वे क्षेत्रे धरतीति वर्षधरः, क्षेत्रद्वयसीमाकारी गिरिरित्यर्थः, 18स चासौ पर्वतश्च वर्षधरपर्वतः आख्यातस्तीर्थकृद्भिरिति, शेष सुगम, नवरं एकं योजनशतं ऊर्बोच्चत्वेन पंचविंशतियों-18 18 जनानि उद्वेधेन-भूगतत्वेन, उच्चत्वचतुर्थभागस्यैव भूगतत्वात् , एक योजनसहस्रं द्विपञ्चाशच योजनानि द्वादश चैको-18 18 नविंशतिभागान योजनस्य विष्कम्भेन, अस्योपपत्तिस्तु द्विगुणितजम्बूद्वीपच्यासस्य नवत्यधिकशतेन भागहरणे भवति,
क्षुद्रहिमवतो भरताद् द्विगुणत्वात् , अत्र च करणविधिर्भरतवर्ष विष्कम्भ इव ज्ञेयः, अथास्य बाहे आह-तस्स बाहा | इत्यादि, तस्य-क्षुद्रहिमवतो बाहे प्रत्येकं पूर्वपश्चिमयोः पंच योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि पंचाशदधिकानि पंचदश च योजनस्यैकोनविंशतिभागान् एकस्य योजनकोनविंशतितमभागस्याई च यावदायामेन प्रज्ञप्ते, सूत्रे च वच-18 नव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, स्थापना यथा-योजन ५३५० कला १५१ अस्य व्याख्यानं वैताब्याधिकारसूत्रतो ज्ञेयं, प्रायः
१ गुरुवणुपाई लहुमणुपट्टे अदि माहा २५२३०८, १४५९८ १२, १४.११३४-५३५.११
अनुक्रम [१२७]
JinEleinitinod
~566~
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७२]
दीप
श्रीजम्बू- समसूत्रत्वात् । अर्थतस्य जीवामाह-'तस्स जीवा' इत्यादि, तस्य-क्षुद्रहिमवतो जीवा उत्तरतो ग्राह्या, प्राचीनप्रतीची-1 वक्षस्कारे
द्वीपशा- इनायता, जाव पचरिथमिलाए इत्यादि प्राग्वत् , यावत्पदात् पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल लवणसमुदं पुट्ठा इति ॥ | पाइदखन्तिचन्द्रीमाह्य, आयामेन चतुर्विंशतियोजनसहस्राणि नव च द्वात्रिंशदधिकानि योजनशतानि अर्द्धभार्ग च-कलार्द्ध प्रज्ञप्ता
रूपं सू.७३ या चिः
| किंचिद्विशेषोना किंचिदूना इत्यर्थः, किंचिदूनत्वं चास्या आनयनाय वर्गमूले कृते शेषोपरितनराश्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ॥२८२|| | अथास्याः परिधिमाह-'तीसे'इत्यादि, तस्याः क्षुद्रहिमवज्जीवायाः धनुःपृष्ठं दक्षिणतो-दक्षिणपार्थे पंचविंशतिः योजन-1
सहस्राणि द्वे च त्रिंशदधिके योजनशते चतुरश्च एकोनविंशतिभागान योजनस्य परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्त, यच्चात्र IS| 'तीसे' इतिशब्देन जीवा निर्देशस्तत्स्व स्वजीवापेक्षया स्वस्वधनुःपृष्ठस्य यथोक्तमानतोपपत्त्यर्थ, अन्यथा न्यूनाधिक18|| मानसम्भवात् , अथ पर्वतं विशेषणैर्विशिनष्टि-'रुअग'इत्यादि, रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वकनकमय इत्यादि प्राग्वत्, 18
नवरं द्वयोरपि पद्मवरवेदिकावनखण्डयोः प्रमाणं वर्णकश्च ज्ञातव्याविति शेषः । अथास्य शिखरस्वरूपमाह-'चुल्ल-18 | हिमवंत'मित्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं बहुसमत्वं चात्र नदीस्थानादन्यत्र शेयं, अन्यथा नदीश्रोतसां संसरणमेव न स्यात् ।
॥२८२॥ तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसमाए इत्व णं इके महं पउमरहे णाम दहे पण्णत्ते पाईणपडिणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे इक जोमणसहस्सं आयामेणं पंच जोअणसवाई विक्संमेणं दस जोभणाई जम्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूलें
अनुक्रम [१२७]
अथ पद्मद्रहस्य वर्णनं क्रियते
~567~
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७३]
oer
दीप अनुक्रम [१२८]
जाव पासाईए जाव पडिरूवेत्ति, से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्वओ समता संपरिक्सित्ते वेइावणसंडवण्णओ भाणिअव्योत्ति, तस्स णं पउमदहस्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपहिरूवगा पण्णत्ता, वण्णावासो भाणिअन्वोत्ति । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्ते २, तोरणा पण्णता, ते ण तोरणा जाणामणिमया, तस्स णं परमरहस्स बहुमझदेसभाए पाथं महं एगे पउमे पण्णत्ते, जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअणं वाहल्लेणं दस जोअणाई उध्येहेणं यो कोसे असिए जलंताओ साइरेगाई दसजोषणाई सम्बम्मेणं पण्णत्ता, से गं एगाए जगईए सब्वमो समंता संपरिक्खिचे जम्बुद्दीवजगइप्पमाणा गवक्खकडएवि तह घेव पमाणेणंति, तस्स णं पउमस्स अयमेआरूवे वण्णाबासे पं०, तं०-वइरामवा मूला रिहामए कंदे वेरुलिआमए णाले वेरुलिआमयां वाहिरपत्ता जम्बूणयामया अभितरपत्ता तवणिजमया केसरा णाणामणिमया पोक्वरस्थिभाया कणगामई कण्णिगा, सा णं अद्धजीयणं आयामविसंमेणं कोसं बाहल्लेणं सबकणगामई अच्छा, तीसे णं कणिए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंग०, तस्स गं बहसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहमहादेसभाए, पत्थण मह एगे भवणे प० कोस आयामेणं अद्धकोसं विसंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसणिवितु पासाईए दरिसणिजे, तस्स ण भवणस्स तिविसि तओ दारा पं०, ते ण वारा पञ्चवणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइजाई धणुसयाई विक्संभेणं तावति चेव पवेसेणं सेभावरकणगधूमिआ जाच वणमालाओ णेभवाओ, तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पष्णते से जहाणामए आलिंग०, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महई एगा मणिपेठिा पं०, साणं मणिपेढिा पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अद्धाइजाई धणुसयाई बाहलेणं सम्वमणिमई अच्छा, तीसे गं मणिपेदिनाए उप्पि एत्य गं मई एगे सयणिणे पण ते सर
Footees
श्रीजम्न.४८
ces
~568~
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे
प्रत सूत्रांक [७३]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२८३॥
हमवतीयपमद्रहाधिकार
दीप अनुक्रम [१२८]
शिजवण्णा भाणिभयो । से गं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं परमाणं तदश्चत्तप्पमाणमित्ताणं सबओ समता संपक्सिते. ते णं पउमा अद्धजोअणं आयामचिक्खंभेणं कोसं बाहलेणं दसजोषणाई खब्वेहेणं कोसं ऊसिया जलंताओ साइरेगाई दसजोषणाई उच्चत्तेणं, तेसि ण पउमाणं अयमेआरुवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-वरामया मूला जाव कणगामई कण्णिा , साणं कण्णिा कोस आयामेणं अशकोसं वाहलेणं सबकणगामई अच्छा इति, तीसे ण कणिआए उप्पि बहुसमरमणिजे जाव मणीहि उत्सोभिए, तस्स णं परमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्य णं सिरीए देवीए चलण्हं सामाणिअसाहस्सीण चचारि पउमसाहस्सीओ पण्णताओ, तस्स णं पउमस्स पुरथिमेणं एत्य पंसिरीए देवीए चउण्डं महसरिआणं चत्तारि पउमा प०, तस्स णं पउमस्स दाहिणपुरथिमेण सिरीए देवीए अभितरिआए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहत्सीणं अट्ठ पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ. वाहिणेणं मज्झिमपरिसाए दसहं देवसाहस्सीण इस पउमसाहसीओ पण्णत्ताओ, दाहिणपस्थिमेणं बाहिरिआए परिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं वारस पउमसाहस्सीओ पण्णताओ, पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिबईणं सत्त पदमा पण्णता, तस्स पं पउमस्स चउदिसि सवो समंता इत्य ण सिरीए देवीए सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से ण तीहिं पउमपरिक्खे. बेहि सामो समंता संपरिक्खित्ते तं०-अभितरकेणं मज्झिमएणं वाहिरएणं, अमितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीस पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्तागो मनिझमए पषमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरए पलमपरिक्खेथे अडयालीसं पत्रमसयसाहस्सीओ पण्णतामो, एवामेव सपुत्वावरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीभो भवं. तीति अक्खायं । से केणढणे भंते ! एवं बुच्चइ-पउमदहे २., गोअमा! पउमबहे णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे उप्पलाई जाव
॥२८॥
~ 569~
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
सयसहस्सपत्ताई पटमदहप्पमा पउमरहवण्णाभाई सिरीज इत्य देवी महिन्द्धीआ जाव पलिओक्महिईआ परिवसइ, से एएणद्वेणं जाव अदुत्तरं च णं गोजमा! पउमदहस्स सासए षामन्येने पण्णत्ते ण कथाइ णासि न० (सूत्र ७३)
अर्थतन्मध्यवर्तिहदस्वरूपनिरूपणायाह-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-क्षुद्रहिलवतो बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रावकाशे एको महान् पद्मद्रहो नाम द्रहः पद्मद्रहो नाम इदो वा प्रज्ञप्तः, पूर्वापरायत उत्तरदक्षि-10 णविस्तीर्णः एक योजनसहनमायामेन पंच योजनशतानि विष्कम्भेन दश योजनान्युधेिन-उण्डत्वेन अच्छोऽनाविल-18
जलत्वात् , श्लक्ष्णः सारवजादिमयत्वात् , रजतमयकूल इति व्यक्त, अत्र यावत्करणात् इदं द्रष्टव्यं-समतीरे वइरा-18 ४ मयपासाणे तवणिज्जतले सुवण्णसुन्भरययामयवालुए वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे सहोयारे महत्तारे णाणाम-10 णितित्वसुबद्धे चार कोणे अणुपुषसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संछन्नपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुअसुभगसोगंधिअपुंड-18
रीअसयवत्तफुल्लकेसरोवचिए छप्पयपरिभुज्जमाणकमले अच्छविमलसलिलपुण्णे परिहत्वभमंतमच्छ कच्छभअणेगसउण-18 18| मिहुणपरिअरिए' इति, पासादीए अत्र यावत्पदात् 'दरिसणिजे अभिरूवे इति, एतद्व्याख्या तु जगत्युपरिगतवा-18
प्यादिवर्णकाधिकारतो ज्ञेयेति, से ण'मित्यादि, स पाद्रहः एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः सम-18 न्तात् संपरिक्षिप्तः, वेदिकावनखण्डवर्णको भणितव्यः, प्राग्वदित्यर्थः, 'तस्स प'मित्यादि व्यक्तं, 'तेसि ण'मित्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं णाणामणिमयेत्ति वर्णकैकदेशेन पूर्णस्तोरणवर्णको ग्राह्यः, अथात्र पद्मस्वरूपमाह-'तस्स ण'-181
Rimitrina
~ 570~
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
दीप
श्रीजम्प- मित्यादि, तस्य-पनद्रहस्य बहुमध्यदेशभागः अत्रान्तरे महदेकं पर्ण प्रज्ञप्त, एक योजनमायामतो विष्कम्भतश्च अर्द्ध- श्वक्षस्कारे
द्वीपशा-12 योजनं बाहल्येन-पिण्डेन दश योजनान्युद्वेधेन-जलावगाहेन द्वौ कोशावुच्छ्रितं जलान्तात्-जलपर्यन्तात, एवं सातिरे-18 हमवतीयन्तिचन्द्रीकाणि दश योजनानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि, जलावगाहोपरितनभागसत्ककमलमानमीलने एतावत एव सम्भवात् ।।
पबद्रहाया चिः
धिकार से णमित्यादि, तत्पद्ममेकया जगत्या-प्राकारकल्पया सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, सा च जगती जम्बूद्वीपजगतीप्र
सू.७३ ॥२८॥ माणा वेदितव्या, एतच्च प्रमाणे जलादुपरिष्टाद् ज्ञेयं, दशयोजनात्मकजलावगाहप्रमाणस्याविवक्षितत्वात् , गवाक्ष
कटकोऽपि-जालकसमूहोऽपि तथैव प्रमाणेन उच्चत्वेनाईयोजनं पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेनेत्यर्थः । अथ पद्मवर्णकमाह-'तस्स'त्ति तस्य-पद्मस्थायमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयानि मूलानि-कन्दादधस्तिर्यग्निर्गतजटा-18
समूहावयवरूपाणि अरिष्ठरत्नमयः कन्दो-मूलनालमध्यवती प्रन्धिः वैडूर्यमयं नालं-कन्दोपरि मध्यवर्त्यवयवः बैडूर्य-18 IS मयानि बाह्यपत्राणि, अनार्य विशेषो बृहत्क्षेत्रविचारवृत्त्यादौ-बाह्यानि चत्वारि पत्राणि वैडूर्यमयानि शेषाणि तु रक्त-18
सुवर्णमयानि, जम्बूनदं-ईषद्कस्वर्ण तन्मयान्यभ्यन्तरपत्राणि, सिरिनिलयमिति क्षेत्रविचारवृत्ती तु पीतवर्णमयान्युतानि, तपनीयमयानि-रक्तस्वर्णमयानि केसराणि-कर्णिकायाः परितोऽवयवाः नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागा:-IN कमलबीजविभागाः कनकमयी कर्णिका-बीजकोशः, अथ कर्णिकामानाद्याह-"सा ण'मित्यादि, सा-कर्णिका अर्द्ध-12 योजनमायामेन विष्कम्भेन च क्रोश बाहल्येन-पिण्डेन सर्वात्मना कनकमयी, अत एव कनकमयीति पूर्वविशेषणेना-18
अनुक्रम [१२८]
10
~571~
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७३]
वयवविभागेऽपि कनकमयत्वं स्यादित्याशङ्का निरस्ता, 'अच्छा' इत्येकदेशेन सण्हा इत्यादिपदान्यपि शेयानि, तेषां ॥3॥ व्याख्या प प्राग्वत् । 'तीसे ण'मित्यादि, पतानि सर्वाण्यपि निगदसिद्धानि, शयनीयवर्णकश्चायं जीवाभिगमोक्ता-13॥ 'तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेआरूवे वण्णावासे पं०, तंजहा-णाणामणिमया पडिपाया सोवपिआ पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई जम्बूणयामयाई गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए चिच्चे रययामई तूली लोहिअक्खा-181 मया विब्बोअणा तवणिजमईओ गंडोवहाणियाओं' इति से णं सयणिजे सालिंगणवहिए उभओविब्बोअणे उभओ उण्णए मज्झेणयगम्भीरे गंगापुलिणवालुआउद्दालसालिसए ओअविअखोमवुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आइणगरूअबूरणवणी| अतूल तुल्लफासे सुविरइअरयत्ताणे रत्तंसुअसंचुडे सुरम्मे पासादीए ४'इति, अत्र व्याख्या-तस्य देवशयनीयस्थायमे-18 8 तद्पो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादाः, मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः प्रति-181
पादाः, सौवर्णिकाः-सुवर्णमयाः पादा:-मूलपादाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईषादीनि, वज्रमया-वज्ररत्नपूरिताः | सन्धयः, 'नानामणिमए चिच्चे'इति चिचं नाम न्यूतं विशिष्ट वानमित्यर्थः, रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि विबो| अणा इति-उपधानकानि उच्छीर्षकाणीतियावत्, तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः गल्लमसूरकाणीत्यर्थः तच्छयनीयं
सह आलिङ्गनवा-शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत्तत्तथा, उभयतः-उभौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विब्बोअणे| उपधाने यत्र तत्तथा, उभयत उन्नतं मध्ये नतं च तत् नम्रत्वात् गम्भीरं च महत्त्वात् तत्तथा, गङ्गापुलिनवालु
दीप अनुक्रम [१२८]
Poeseeeeeeeeee
~572~
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
|धिकार
दीप अनुक्रम [१२८]
श्रीजम्बू-काया जा
18| कायाः अवदालो-विदलनं पादादिन्यासे अधोगमनमिति तेन सालिसे इति-सदृशकं यत्तत्तथा, तथा 'ओअवित्ति 18 वक्षस्कारे द्वीपशा-18 | विशिष्ट परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं दुकूलं-वस्त्रं तदेव पट्टः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा, 'आईणगे'-18
हैमवतीयन्तिचन्द्री- त्यादि, प्राग्वत् , सुविरचितं रजखाणं-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां यत्र तत्तथा, रक्तांशुकेन-मशकदंशादि-18
पमद्रहाया वृत्तिः निवारणार्थकमशकगृहाभिधानवखविशेषेण संवृतं, अत एव सुरम्यं, 'पासादीए'इत्यादि पदचतुष्कं प्राग्वत् । अथास्य 8
सू.७३ ॥२८५॥ प्रथमपरिक्षेपमाह-'से ण'मित्यादि, तत्पद्ममन्येनाष्टशतेन पद्माना 'तदोच्चत्वप्रमाणमात्राणां' तस्य-मूलपद्मप्रमाण
स्थाद्ध-अर्द्धरूपा उच्चरवे-उच्छ्रये प्रमाणे च-आयामविस्तारबाहल्यरूपे मात्रा-प्रमाणं येषां तानि तथा तेषां, सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, अत्र जलोपरितनभागे उच्चत्वस्य व्यवहारप्राप्तस्य विवक्षणादर्द्धप्रमाणं सम्भवत्यन्यथा जलावगाहसहितोच्चत्वविवक्षायामुत्तरसूत्रे सातिरेकपञ्चयोजनानि इति वक्तव्यं स्यात् सामान्यतः, उक्तमेव मानं व्यनक्ति'ते ण'मित्यादि, प्रागुक्तमायं, एषां वर्णकमाह-'तेसि णमित्यादि, व्यक्तं, 'सा ण'मित्यादि, इदमपि व्यक्तं, 'तीसे ण'-18 | मित्यादि, व्यकं, एषु च श्रीदेव्या भूषणादिवस्तूनि तिष्ठन्ति इति सूत्रानुक्तोऽपि विशेषो बोध्यः । अथ द्वितीयपद्म| परिक्षेपमाह-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-मूलपद्मस्यापरोत्तरस्यां-वायव्यकोणे उत्तरस्या उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे च | सर्वसङ्कलनया तिसृषु दिक्षु अत्रान्तरे श्रिया देव्याश्चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चत्वारि पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य पद्मस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र श्रियाश्चतसृणां महत्तरिकाणां चत्वारि पद्मानि प्रज्ञप्तानि, अत्र प्राग्व्यावर्णितविजयदेव
06cceseseseacherce
~573~
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
सिंहासनपरिवारानुसारेण पार्षद्यादिपद्मसूत्राणि वक्तव्यानि, सुगमत्वाच्च न वित्रियन्ते, यावत्पश्चिमायां सप्तानीकाधि
पतीनां सप्त पद्मानि । अथ तृतीयपद्मपरिक्षेपसमयः-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य मुख्यपद्मस्य चतसृणां दिशां समाहार18 श्चतुर्दिक् तस्मिन् चतुर्दिशि सर्वतः समन्तात् , अत्रान्तरे श्रिया देव्याः षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां षोडश पद्म8 सहस्राणि, तथाहि-चत्वारि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणस्यां एवं पश्चिमोत्तरयोः । अथोक्तव्यतिरिक्ताः अन्येऽपि त्रयः
परिवेषाः सन्तीत्याह-से णं पउमे' इत्यादि, तत्पद्मं त्रिभिरुक्तव्यतिरिक्तैः पद्मपरिक्षेपैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्त, 8 तद्यथा-अभ्यन्तरकेण-अभ्यन्तरभवेन मध्यमकेन-मध्यभवेन वाहिरकेण-बहिर्भवेन, एतदेव व्यनक्ति-अभ्यन्तरपद्म
परिक्षेपे द्वात्रिंशत्पद्मानां शतसहस्राणि-लक्षाणि मध्यमके चत्वारिंशत्पद्मलक्षाणि बाह्येऽष्टचत्वारिंशत्पालक्षाणि प्रज्ञशानि, इदं च पद्मपरिक्षेपत्रिकं आभियोगिकदेवसम्बन्धि बोध्यं, अत एव भिन्नत्रिकख्यापनपरं सूत्रं निर्दिष्टं, अन्यथा | सूत्रकृत् चतुर्थपञ्चमषष्ठपरिक्षेपाः इत्येवाकथयिष्यत्, ननु तर्हि आभियोगिकजातीयानामेक एवात्मरक्षकाणामिव । |वाच्या, उच्यते, उच्चमध्यनीचकार्यनियोज्यत्वेनाभियोगिकानां भिन्नत्वेन परिक्षेपस्यापि भिन्नत्वात् , अथ परिक्षेपत्रिकस्य पद्मसर्वानमाह-एवमेव'इत्यादि, एवमेव-उत्कन्यायेन सपूर्वापरेण-सपूर्वापरसमुदायेन त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैरेका पद्मकोटी विंशतिश्च पालक्षाणि भवन्तीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च तीर्थकृद्भिः, सङ्ख्यानयनं च स्वयमभ्यूज़, पण्णां पापरिक्षेपाणां मुख्यपद्मेन सह मीलने सैव सङ्ख्या पश्चाशत्सहस्रकशतविंशत्यधिका ज्ञातव्या, स्थापना यथा-१२०५०१२०, ननु
ede
~574~
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
कमलानि कमलिन्याः पुष्परूपाणि भवन्ति, मूलं कन्दश्च कमलिन्या एव भवतः, नतु कमलस्य, तत्कथमत्र मूलकन्दावुक्ती | वक्षस्कारे
उच्यते, कमलान्यत्र न वनस्पतिपरिणामानि, किन्तु पृथिवीकायपरिणामरूपाः कमलाकारवृक्षास्तेन तेषामिमौ न विरु-18| हैमवतीयन्तिचन्द्र द्धाविति, अत्राद्यपरिक्षेपपद्मानां मूलपद्मादर्द्धमानं सूत्रकृता साक्षादुक्तं, उत्तरोत्तरपरिक्षेपपद्मानां तु पूर्वपरिक्षेपपद्मे-13
भ्योऽर्द्धार्द्धमानता युक्तितः सङ्गच्छते विजयप्रासादपंकेरिच, अन्यथाऽस्पर्धिकमहर्द्धिकदेवानामाश्रयतारतम्यं चतुर्थादिम-ISITY ॥२८॥
| हापरिक्षेपपमानामवकाशः शोभमानस्थितिकत्वं च न सम्भवेत्, अर्द्धार्द्धमानता चैवम्-मूलपद्मं योजनप्रमाणं आये | 18| परिक्षेपे पद्मानि द्विक्रोशमानानि द्वितीये क्रोशमानानि तृतीयेऽर्द्धकोशमानानि चतुर्थे पञ्चधनुःशतमानानि पञ्चमे सार्द्ध-18
द्विशतधनुर्मानानि षष्ठे सपादशतधनुर्मानानि, तथा मूलपद्मापेक्षया सर्वपरिक्षेपेषु जलादुच्छ्यभागोऽप्योर्द्धक्रमेण ज्ञेयः, 18| यथा मूलपमं जलात् क्रोशद्वयमुच्छ्ये आधे परिक्षेपे क्रोश उच्छ्रयः द्वितीये क्रोशार्द्ध तृतीये कोशचतुर्थाशः चतुर्थे || | कोशाष्टांशः पञ्चमे क्रोशषोडशांशः षष्ठे कोशद्वात्रिंशांश इति, एवमेव मूलपद्मापेक्षया परिक्षेपपद्मानां बाहत्यमप्य -18||
ईक्रमेण वाच्यं । ननु षट् परिक्षेपा इति विचार्य, योजनात्मना सहनत्रयात्मकस्य धनुरात्मना द्विकोटिद्विचत्वारिंशल्ल-15 क्षप्रमाणस्य द्रहपरमपरिघेः षष्ठपरिक्षेपपद्मानां पष्टिकोटिधनुःक्षेत्रमातव्यानां एकया पंक्त्त्या कथमवकाशः सम्भवति। एवं ॥२८॥ प्रथमपरिक्षेपवर्ज शेषपरिक्षेपाणामपि तत्परिधिमानपझमाने परिभाच्य वाच्यं, उच्यते, षट् परिक्षेपा इत्यर्व पजातीयाः | परिक्षेपा इति नाय, आद्या मूलपनार्द्धमाना जातिः द्वितीया तत्पादमाना तृतीया तदष्टममागमाना चतुर्थी तत्वोड
LX
~575~
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
s
प्रत सूत्रांक
[७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
शिभागमाना पश्चमी तद्द्वात्रिंशत्तमभागमाना षष्ठी तच्चतुःषष्टितमभागमाना, ततश्च तत्परिधिक्षेत्रपरिक्षेपपासण्या ||| पद्मविस्तारान् परिभाव्य यत्र यावत्यः पंक्तयः सम्भवंति गणितज्ञेन करणीयास्तत्र तावतीभिः पंक्तिभिरेक एव परिक्षेपो ज्ञेयः, पद्मानामेकजातीयत्वात्, किमुक्कं भवति ?-महापरिक्षेप एकया पंक्तया न सम्माति, इह परिधिक्षेत्रस्या-11 ल्पत्वात् , पद्मानां च बहुत्वात् , ततः पंक्तिभिः पद्मानि पूरणीयानि, एवं परिक्षेपः पूर्णो भवति, द्रहपरिधिश्च प्रति-1 परिक्षेपं भिन्नमानकत्वात् सपद्मपरिक्षेपो भिन्न एव लक्ष्यते इति, न च द्रहक्षेत्रस्याल्पत्वमिति वाच्यं, अत्र गणितप-1] | दक्षेत्रस्य पञ्चलक्षयोजनप्रमाणत्वात् , सहस्रयोजनप्रमाणायामस्य पञ्चशतयोजनविष्कम्भेन गुणने एतावत एव लाभात् , || | पद्मावगाढक्षेत्रं तु सर्वसङ्ख्यया विंशतिः सहस्राणि पञ्चाधिकानि योजनानां षोडशभागीकृतस्यैकस्य योजनस्य त्रयोदश ||
भागाः, २००५,३ तथाहि-मूलपद्मावगाहो योजनमेकं जगती द्वादश योजनानि मूले पृथुरिति, जगतीपूर्वापरभागIS सत्कमूलव्यासयोर्मीलनेन पञ्चविंशतिर्योजनानीति, तथा तत्परिधौ प्रथमः परिक्षेपोऽष्टोत्तरशतपझानां तदवगाहक्षेत्र ९| सप्तविंशतिर्योजनानि, अर्द्धयोजनप्रमाणत्वेन तेषामेकस्मिन् योजने चतुर्णामवकाशाच्चतुर्भिरष्टोत्तरशते भक्के एताव-18 | तामेव लाभात् , ननु योजनार्द्धमानवतां तावतां चतुःपञ्चाशद् योजनानि सम्भवेयुरिति, सत्यं, क्षेत्रबहुत्वादेकपंन्या
व्यवस्थितत्वेन प्रत्येक योजनचतुर्थांशावगाहकत्वेन च उक्तसयैव समुचिता, अत्र पद्मरुद्धक्षेत्रस्यैव भणनादिति, तथा | IS द्वितीयः परिक्षेप एकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्राणां, तदवगाहक्षेत्र द्वे सहने पञ्चविंशत्यधिकं शतं च योजनानां एका-191
ass909050sed
~ 576~
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
दीप अनुक्रम [१२८]
दश च भागा योजनस्य षोडशभागीकृतस्य २१२५,१, उपपत्तिस्तु योजनपादप्रमाणत्वादिमानि षोडश मान्तीति यस्कारे द्वीपशा- इत्ययं परिक्षेपपद्मराशिः षोडशभिर्भज्यते, आगच्छत्यनन्तरोक्तो राशिः, अस्यां च परिक्षेपजातौ पंक्तयः सूत्रोफस्वत्व-शहैमवतीयन्तिचन्द्री- | दिशि निवेशनीयपद्मनिवेशनेन विषमवृत्ताः सम्भाव्यन्ते, पद्मानां विषमसङ्ग्याकत्वादिति, अथ तृतीयः परिक्षेपः पोस- पचहाया वृत्तिः
शसहस्रपझानां तदवगाहक्षेत्रं द्वे शते पश्चाशदधिके योजनानां २५०, उपपत्तिस्तु अमूनि योजनाष्टमभागप्रमाणत्वा॥२८॥ योजने चतुःषष्टिर्मान्तीति चतुःषष्या १६००० प्रमाणः पद्मराशिज्यते, उपतिष्ठते चायं राशिः, अत्र च पंक्तयः सम-1] IS वृत्ता एवं निवेशनीयाः, यथेच्छ चतुर्दिक्षु पद्मानां निवेशनादिति, अध चतुर्थः परिक्षेपो-द्वात्रिंशल्लक्षपद्मानां तदवगा-1
हक्षेत्रं द्वादश सहस्राणि पञ्चशताधिकानि योजनानां १२५००, आनयनोपायस्तु एषां योजनषोडशभागप्रमाणत्वा| योजने २५६ मान्तीति पट्पश्चाशदधिकशतद्वयेन ३२००००० इत्ययं पद्मराशिभज्यते, ततो यथोको राशिरायातीति, IS अथ पञ्चमः परिक्षेपः चत्वारिंशल्लक्षपद्माना, तदवगाहक्षेत्रं त्रीणि सहस्राणि नव शतानि च षडधिकानि योजनानां चत्वा| रश्च पोडशभागा योजनस्य ३९०६, उपपत्तिस्तु एषां योजनद्वात्रिंशत्तमांशप्रमाणत्वादमूनि योजने १०२४ मान्तीति || चतुर्विशत्यधिकसहस्रेण ४०००००० रूपकस्य पद्मराशेर्भागहरणेन प्राप्यते यथोक्तराशिरिति, अथ षष्ठः परिक्षेप:-अष्ट-IS ॥२८७॥ चत्वारिंशल्लक्षं पद्मानां, तदवगाहक्षेत्रं एकादश शतानि एकसप्तत्यधिकानि योजनानां चतुर्दश च षोडशभागाः योजनस्य | ११७१६, उपपत्तिश्चात्र-अमीषां योजनचतुःषष्टितमांशप्रमाणत्वाद्योजने ४०९६ मान्तीति षण्णवत्यधिकचतुःस-HS
~577~
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[63]
दीप
अनुक्रम [१२८ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Elke mitin
| हसे ४८००००० रित्यस्य पद्मराशेर्भागहरणात् यथोको राशिरुपपद्यत इति पूर्वापरपद्मक्षेत्रयोजनमीलनेन च पूर्वोक्तं सर्वानं सम्पद्यते, परिक्षेपाश्चात्र वृत्ताकारेण बोज्याः क्षेत्रस्य बहुत्वात् सम्भवन्तीति, पंतयश्चात्र द्रहक्षेत्रस्यायतचतुरस्रत्वेन आयामविस्तारयोर्विषमत्वेऽपि पञ्चशतयोजनमर्यादयैव कर्त्तव्या, ततः परं व्याससत्कपञ्चशतयोजनानां पर्यवसितत्वात्, शोभमानाश्चोतरीत्यैव भवन्तीति । किश्श - इमानि पद्मानि शाश्वतानि पार्थिवपरिणामरूपत्वात्, वानस्प तान्यपि बहूनि तत्रोत्पद्यन्ते, यदाहुः श्रीउमाखातिवाचकपादाः खोपज्ञजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे - " नीलोत्पलपुण्डरीकशतपत्रसौगन्धिकादिपुष्पाञ्चित" इति, अन्यथा श्रीवज्रखामिपादाः श्रीदेवतासमर्पितानुपमेयमहापद्मानयनेन पुरिका| पुर्य्यां कथं जिनप्रवचनप्रभावनामकार्षुरिति । एतानि च न शान्धतानि, तत्रत्य श्रीदेवतादिभिरवच्चीयमानत्वात्, यदूचुः, | श्रीहेमचन्द्रसूरयः खोपज्ञपरिशिष्टपर्वणि— “तदा च देवपूजार्थमवचित्यैकमम्बुजम् । श्रीदेच्या देवतागारं यान्त्या वज्रर्षिरक्ष्यत ॥ १ ॥” इति, नन्वयमनन्तरोकोऽर्थः कथं प्रत्येतव्यः १, उच्यते, इदमेव द्वितीयपरिक्षेपसूत्रं प्रत्यायकं, | तथाहि — अत्रैकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्रकमलानि उक्तदिशि मायवितव्यानि तानि च क्रोशमानानि एकपंक्त्या च तदाऽवकाशं लभेत यदा द्वितीयपद्मपरिधिरेकादशाधिकचतुस्त्रिंशत्सहस्रकोशप्रमाणः स्यात् स च तदा स्याद् यदा मूलक्षेत्रायामन्यासी साधिकषर्विंशतिशतप्रमाणौ स्यातां, ती प्रस्तुते न स्तः, तेन यथासम्भवं पंक्तिभिर्द्वितीयपरिक्षेपपद्मजातिः पूरणीयेति तात्पर्ये, एवमन्यपरिक्षेपेष्वपि यथासम्भवं भावना कार्येति, अथ कथमयमर्थः सिद्धान्ततां प्रापित
Fur Prate&P Cy
~578~
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७३]
सू.७३
दीप
श्रीजम्बू-18 इति ?, उच्यते, अन्यथाऽनुपपत्त्या, न हि यथाक्षरमात्रसन्निवेश सूरयः सूत्रव्याख्यानपरा भवन्ति, किन्तु प्रापरार्था
वक्षस्कारे द्वीपशा- विरोधेन, यदुक्तम्-"ज जह सुत्ते भणि तहेव तं जइ विआलणा नस्थि । किं कालिआणुओगो दिवो दिटिप्पहा
हैमवतीय
पाद्रहाचन्द्राणेहि ॥१॥ इति [यद्यथा सूत्रे भणितं तथैव तत् यदि विचालना नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टो-दृष्टिप्रधानः? या वृत्तिः
धिकार ॥१॥] अलं प्रसङ्गेनेति । अथ पद्मद्रहनामनिरुक्तं पृच्छन्नाह से केणटेश'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमु-| ॥२८॥ च्यते-पद्मद्रहः पद्मद्रह इति, गौतम! पद्मद्रहे तत्र तत्र देशे-तस्मिन् देशे २ बहूनि उत्पलानि यावत् शतसहस्रप-18
त्राणि पद्मद्रहप्रभाणि-पद्माद्रहाकाराणि आयतचतुरस्राकाराणीत्यर्थः, एतेन तत्र वानस्पतानि पद्मद्रहाकाराणि पद्मानि बहुनि सन्ति, न तु केवलं पार्थिवानि वृत्ताकाराणि महापद्मादीन्येव तत्र सन्तीति ज्ञापितं, तथा पद्मद्रहवर्णस्यैवाभा-प्रतिभासो येषां तानि तथा, ततस्तानि तदाकारत्वात्तवर्णत्वाच्च पद्मद्रहाणीति प्रसिद्धानि, ततस्तद्योगादयं जला-18 शयोऽपि पाद्रहा, उभयेषामपि च नानामनादिकालप्रवृत्तत्वेन नेतरेतराश्रयदोषः, अथ पार्थिवपद्मतोऽप्यस्य नामप्रव-18| तिर्जाताऽस्तीति ज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामनिबन्धनमाह-श्रीश्च देवी पनवासाऽत्र परिवसति, ततश्च श्रीनिवास-3 योग्यपद्माश्रयत्वात् 'पद्मोपलक्षितो द्रह इति पद्मद्रह आख्यायते, मध्यपदलोपिसमासात्, समाधानं शेष प्राग्वत् । अथ गङ्गामहानदीस्वरूपमाह
२८८॥ तस्स इणं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पबूढा समाणी पुरस्थाभिमुही पत्र जोअणसयाई पाएणं गंता गंगा
अनुक्रम [१२८]
अथ गङ्गा-महानद्यः वर्णनं क्रियते
~ 579~
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
वत्तणकूटे आवत्ता समाणी पञ्चा तेवीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोमणसइएणं पवाएणं पवडा, गंगा महाणई जओ पवडइ इत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, सा णं जिभिआ अद्धजोअणं आयामेणं छ सकोसाइं जोषणाई विक्वंभेणं अद्धकोस बाहलेणं मगरमुहविउद्दसंठाणसंठिा सबवइरामई अच्छा सण्हा, गंगा महाणई जत्थ पवडइ एत्य मह एगे गंगप्पवाए कुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते साल जोषणाई आयामविकसभेणं णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिल परिक्खेवणं, दस जोषणाई उब्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले समतीरे बइरागयपासाणे वइरतले सुवण्णसुम्भरययामयवालुआए वेरुलिअमणिफालिअपडलपञ्चोपदे महोआरे सुहोत्तारे णाणामणितित्थमुबजे बड़े अणुपुण्यसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संकष्णपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुअणलिणसुभगसोगंधिभपोंडरीभमहापोंढरीजसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुलफेसरोवचिए छप्पयमयरपरिभुजमाणफमले अच्छविमलपत्थसलिले पुणे पढिहत्थभमन्तमच्छकच्छभअणेगसरणगणमिहुणपविभरियसदुबइम महरसरणाइए पासाईए । से णं एगाए पउमवरखेड्याए एगण व वणसण्डेणं सबओ समता संपरिक्सिसे पहआवणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणिभव्यो, तस्स णं गंगष्पवायकुंडरस तिदिसिं तओ तिसोवाणपढिरूवगा पं०, तंजहा-पुरस्थिमेणं दाहिणणं पचत्यिमेणं, तेसि गं सिसोवाणपढिरूवगाणं अयमेयारूबे वण्णावासे पण्णत्ते, संजहा-बहरामया जेम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा बेरुलिआमया खंभा सुवण्णशप्पमया फलया लोहिक्खमईओ सूईभो वयरामया संधी णाणामणिमया आलंबणा आलंवणबाहाओति, तेसि णं तिसोवाणपतिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पण्णचा, ते ण तोरणा णाणामणिमया णाणामणिमएस संमेसु उत्रणिविट्ठसंनिविट्ठा विविहमुत्तरोवरमा विविहतारारूपोवधिमा ईहामिअउसह
दीप
अनुक्रम [१२९]
Saeedeo90928a8eras
श्रीजम्यू.
~580~
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू
वक्षस्कारे
प्रत
द्वीपशा
सूत्राक [७४]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२८९॥
दीप
तुरगणरमगरविहगवालगकिण्णरररुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइभापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविव अचीसहस्समालणीआ रूवगसहस्सकलिआ मिसमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोअणलेसा सुहफासा सस्सिरीअरूबा घंटावलिचलिअमहुरमणहरसरा पासादीआ, तेसिणं तोरणाणं उपरि बहवे अट्ठमंगलगा पं०, तं०-सोथिए सिरिवच्छे जाव पडिरूबा, तेसि ण तोरणाणं उवरि बहवे किण्हचामरज्या जाव सुकिल्लचामराया अच्छा सल्हा रुष्पपट्टा वइरामयदण्डा जलयामलगंधिआ सुरम्मा पासाईया ४, तेसि पण तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइच्छत्ता पडागाइपडागा घंटाजुअला चामरजुअला उप्पलहत्यगा पटमहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्यगा सब्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूषा, तस्स णं गंगापवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते अट्ट जोषणाई आयामविक्वंभेणं साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्सवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सबवइरामए अच्छे सण्हे, से णं एगार पक्षमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्बओ समन्ता संपरिक्खिते वण्णओ भाणिअब्बो, गंगादीवस्स णं दीवस्स उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, तस्स णं पाहुमज्मदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं च कोसं उद्धृ उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविढे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिजे, से केणटेणं जाव सासए णामधेजे पण्णते, तस्स गं गंगप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाणई पनूढा समाणी उत्तरद्वभरहवासं एजेमाणी २ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आउरेमाणी २ अहे खण्डप्पवायगुहाए वेअपव्ययं दालइत्ता दाहिणभरहवासं एजेमाणी २ दाहिणभरहवासस्स बहुमज्दादेसभागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोरसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालात्ता पुरत्विमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, गंगा गं
अनुक्रम [१२९]
॥२८९॥
seeseeese
Jimileoanitinा
~581~
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
दीप
महाणई पबहे छ सकोसाई जोषणाई विक्खंभेणं अद्धकोस सव्वेहेणं तयणतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे बासहि जोषणाई अद्धजोअणं च विक्खंभेणं सकोसं जोअणं उव्वेहेणं उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता पेइमावणसंडवण्णओ भाणिअव्यो, एवं सिंधूएवि अव्वं जाव तस्स ण पउमदहस्स पश्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधुआवसणकूडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुंडं सिंधुदीबो अट्ठो सो चेब जाव अहेतिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालइत्ता पञ्चत्थिमाभिमुही आवचा समाणा चोइससलिला अहे जगई पञ्चत्थिमेणं लवणसमुई जाव समप्पेइ, सेसं तं चेवत्ति । तस्स णं पउमहहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पबूढा समाणी दोणि छावत्तरे जोअणसए छच एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पन्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, रोहिसाणामं महाणई जो पबडइ एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णता, सा ण जिम्भिआ जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं कोस बाहलेणं मगरमुहविषट्ठसंठाणसंठिा सव्ववइरामई अच्छा, रोहिअंसा महाणई जहिं पवडद एत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुण्डे णाम कुण्डे पण्णत्ते सवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं तिण्णि असीए जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवणं, दसजोषणाई उम्वेणं अच्छे कुंचवण्णओ जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअंसाववायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगो रोहिलसा णामं दीवे पण्णत्ते सोलस जोषणाई भायामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोषणाई परिक्खेवणं दो कोसे ऊसिए जलताओ सब्बरयणाभए अच्छे सण्हे सेसं तं चेव जाव भवणं अहो अ भाणिअब्बोन्ति, तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुंडस्स उत्तरिक्षणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एजेमाणी २ चउद्दसहि सलिलासहस्सेदि आपूरेमाणी २ सदावइबट्टवेजद्धपब्वयं अद्धजोमणे
अनुक्रम [१२९]
~582 ~
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा
प्रत
सूत्राक
[७४]
18 तांशाः सू.
दीप
असंपत्ता समाणी पञ्चत्यामिगही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभवमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे
४वक्षस्कारे जगई दालात्ता पचत्थिमेण लवणसमुदं समपेइ, रोहिअंसा णं पबहे अद्धतेरसजोषणाई विक्वंभेणं कोस उन्हेणं तयणतरं च
पाइदनिन्तिचन्द्री- णं मायाए २ परिषद्धमाणी २ मुहमूले पणवीसं जोअणसयं विक्संभेणं अद्भाइजाई जोअणाई उबेहेणं उभो पासिं दोहिं पउमबर
गैताः गङ्गाया वृत्तिः वेइआर्हि दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता (सूत्र ७४)
सिन्धुरोहि॥२९॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य-पद्मद्रहस्य पौरस्त्येन तोरणेन गङ्गा नाम्नी महानदी-स्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्रनदी-18
|| सम्पदुपेतत्वेन स्वतन्त्रतया समुद्रगामित्वेन च प्रकृष्टा नदी, एवं सिन्ध्वादिष्यपि ज्ञेयं, प्रब्यूढा-निर्गता सती पूर्वाभि-18|
मुखी पञ्च योजनशतानि पर्वतोपरीत्यर्थः अथवा णमिति प्राग्वत् पर्वते गत्वा गङ्गावर्तननानि कूटे, अत्र सामीप्ये | सप्तमी वटे गावः सुशेरते इत्यादिवत् , गङ्गावर्तनकूटस्याधस्तादावृत्ता सती प्रत्यावृत्त्येत्यर्थः, पञ्चयोजनशतानि यो-18 विंशत्यधिकानि श्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महान् यो घटस्तन्मुखादिव प्र. त्तिः-निर्गमो यस्य स तथा तेन, अयमर्थः यथा घरमुखाजलौघो निर्यन खुभिभितिशब्दायमानो बलीयांश्च निर्याति ||
तथाऽयमपीति, मुक्तावलीनां-मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन तत्संस्थानेनेत्यर्थः सातिरेकं योजनशतं क्षुद्रहिमवच्छि- en 16|| खरतलादारभ्य दशयोजनोद्वेधमपातकुण्डं यावद्धारापातात् मानमस्येति सातिरेकयोजनशतिकस्तेन. तथा प्रपातेन-1 8 प्रपतज्जलौघेन, अत्र करणे तृतीया, प्रपतति-प्रपातकुण्डं प्रामोतीत्यर्थः, दक्षिणाभिमुखगमनपश्चयोजनशतादिसङ्ख्या |
अनुक्रम [१२९]
~583~
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
Sece600
सूत्रांक [७४]
स्वेवम्-हिमवद्भिरिव्यासात् योजन १०५२ कला १२ रूपात् गङ्गाप्रवाहव्यासे योजन ६ क्रोश १ प्रमिते शोधिते । शेष १०४६ कोशे तु पादोनं कलापञ्चकं तत्कलाद्वादशकात् शोध्यं ततः शेषाः सप्त सपादाः कलाः, गङ्गाप्रवाहः18 पर्वतस्य मध्यभागेन पद्मद्रहाद्विनिर्याति तेनास्या दक्षिणाभिमुखगङ्गाप्रवाहोनगिरिव्यासार्द्धस्य गन्तव्यत्वेन गङ्गाच्यासोनो गिरिव्यासः योजन १०४६ कलासपादसप्त ७ रूपोऽद्धीक्रियते जातं यथोक्तं योजन ५२३ कला ३, यद्यप्यत्र कलात्रिक किश्चित्समधिकार्द्धयुक्तमायाति तथाऽप्यल्पत्वान्न विवक्षितमिति । अथ जिव्हिकाया अवसर:-'गङ्गामहाण जओ पवडइ इत्थ ण'मित्यादि, गङ्गा महानदी यतः स्थानात् प्रपतति अचान्तरे महती एका जिव्हिका प्रणा-18 लापरपोया प्रज्ञप्ता, 'सा ण'इत्यादि, सा जिव्हिका अर्द्धयोजनमायामेन पट सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन गङ्गा|मूलव्यासस्य मातव्यत्वात् अर्द्धकोशं बाहल्येन-पिण्डेन विवृत-प्रसारितं यन्मकरमुख-जलचरविशेषमुखं तसंस्था-1
नसंस्थिता विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत् सर्वात्मना वज्रमयी इत्यादि कण्ठयं । अथ प्रपातकुण्डस्वरूपमाह-'गंगा 8| महाण इत्यादि, गङ्गा महानदी यत्र प्रपतति अत्रान्तरे महदेकं गङ्गाप्रपातकुण्डं नाम यथार्थनामकं कुण्डं प्रज्ञप्त, 1
पष्टिं योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, अब करणविभावनायां 'भूले पण्णासं जोअणवित्थारो ५० उवरिं सट्ठी ६०' इति । | विशेषोऽस्ति, श्रीउमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमाससूत्रादावपि तथैव, इत्थं च कुण्डस्य यथार्थनामतोपपत्तिरपि । ॥ भवति, एवमन्येष्वपि यथायोग ज्ञेयमिति, तथा नवतं-नवत्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण, श्रीजिन
eceaeoeasoes200000
दीप
अनुक्रम [१२९]
2000casasaS9900
SRKEBR
Jistianmiti
~584 ~
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
तामा
सूत्राक [७४]
दीप
श्रीजम्यू-18| भद्रगणिक्षमाश्रमणपादाः खोपज्ञक्षेत्रविचारसूत्रे-'आयामो विक्खंभो सहि कुंडस्स जोषणा हुंति । नउअसयं किंचूर्ण|8|| ४वक्षस्कारे
द्वापशा- परिही दसजोअणोगाहो ॥१॥” इत्यूचुः, तत्तावपि श्रीमलयगिरिपादास्तथैव, करणरीत्याऽपि तथैवागच्छति, तेन - इदनिन्तिचन्द्री
| प्रस्तुतसूत्रं गम्भीरार्थ बहुश्रुतैर्विचार्य नास्मादृशां मन्दमेधसा मतिप्रवेश इति, यता प्रस्तुतसूत्रं पद्मवरवेविकासहित-गिताम्मा या चिः 18 कुण्डपरिधिविवक्षया प्रवृत्तमिति सम्भाव्यते, तेन न दोषः, तत्त्वं तु केवलिगम्यमिति, दश योजनान्युद्धेधेन-उण्डत्वेन ||
तांशाः सू. २९१॥ अच्छ-स्फटिकवत हिनिर्मलप्रदेश श्लक्ष्ण-लक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिःप्रदेशं रजतामयं-रूप्यमयं कुलं यस्य तत्तथा समं ||
७४ न गर्रासद्भावतो विषम तीरवर्तिजलापूरितं स्थान यस्मिन् तत्तथा, वज्रमयाः पाषाणाः भित्तिबन्धनाय यस्य तत् 8 तथा, वजमयं तलं यस्य तत्तथा, सुवर्ण-पीतहेम सुभं-रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मय्यो वालुका यस्मिन् तत्तथा,
वैडूर्यमणिमयानि स्फटिकरलसम्बन्धिपटलमयानि प्रत्यवतटानि-तटसमीपवय॑भ्युन्नतप्रदेशा यस्य तत्तथा, सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यस्मिन् तत्तथा सुखेनोत्तारो-जलमध्याद् बहिर्विनिर्गमनं यस्मिन् तत्तथा, ततः पूर्वपदविशेपणसमासः, तथा नानामणिभिः सुबद्धं तीर्थ यत्र तत्तथा, अत्र बहुव्रीहावपि कान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्
प्राकृतशैलीवशाद्वा, तथा वृत्त-वर्तुलं आनुपू]ण-क्रमेण नीचैनींचैस्तरभावरूपेण सुष्टु-अतिशयेन यो जातो वप्रः-18/ ॥२९१॥ 18| केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्तापं जलं यस्मिन् तत्तथा संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यस्मिन् ।
| तत्तथा, अत्र बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि-पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि बिसानि-कन्दाः मृणालानि-पद्मनालानि,
अनुक्रम [१२९]
~585~
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
mese
दीप
aoraee0adragraacasseneopaeneraenear
|बहूनामुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहनपत्राणा प्रफुल्लाना-विकस्वराणां | केसरैः-किंजल्कैरुपशोभितं-भृतं, विशेषणस्य व्यस्ततया निपातः प्राकृतत्वात् , षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कम|लानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यस्मिन् तत्तथा, अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरहि-18
तेन पथ्येन-आरोग्यकरणेन सलिलेन पूर्ण, तथा पडिहत्या-अतिप्रभूताः देशीशब्दोऽयं भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र | तत्तथा, अनेकशकुनिमिथुनकानां प्रविचरित-इतस्ततो गमनं यत्र तत्तथा ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा शब्दो|अतिक-उन्नतशब्दकं सारसादिजलचररुतापेक्षया मधुरस्वरं च हंसधमरादिकूजितापेक्षया एवंविधं नादित-विलपितं
यत्र तत्तथा, अत्र च यत् कानिचिद्विशेषणानि प्रस्तुतसूत्रदृश्यमानादर्शापेक्षया व्यस्ततया लिखितानि सन्ति तजीवाभि-18 || गमवाप्यादिवर्णकसूत्रस्य बहुसमानगमकतया तदनुसारेणेति बोध्यं, एवंमन्यत्रापि, पासाईए'त्ति, अनेन 'पासाईए दरि
सणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' इति पदचतुष्टयं ग्राह्य, तच्च प्राग्वत् । अथाच पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह-से णं' इत्यावि, 18 व्यकं, अत्र सुखावतारोत्तारी कथं भवन इत्याह-तस्स णमित्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य त्रिदिशि-दिक्त्रये वक्ष्यमाणलक्षणे त्रीणि सोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञतानि, एतद्व्याख्या प्राग्वत्, शेष व्यकं, 'तेसि ण'मित्यादि, व्यक्तं, जग-1 तीवर्णकतुल्यत्वात्, नवरं आलम्बना:-अवतारोत्तारयोरालम्बनहेतुभूताः अवलम्बनबाहावयवाः, अवलम्बनवाहा नामद्वयोः पार्श्वयोरवलम्बनाश्रयभूता भित्तयः, तेसि 'मित्यादि, तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं २ तोर
अनुक्रम [१२९]
~ 586~
Page #588
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [७४]
दीप
श्रीजम्यू-
1णानि प्रज्ञप्तानि तानि तोरणानि नानांमणिमयानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टानि-सामीप्येन स्थितानि तानि च ४वक्षस्कारे द्वीपशा-18 कदाचिञ्चलानि स्थानभ्रष्टानीत्यर्थः अथवा अपदपतितानि भवेयुरिति सन्निविष्टानि-सम्यग् निश्चलतया अपदपरिहारेण च पूनाइदनिन्तिचन्द्री-18 निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, विविधा-नानाविच्छित्तिकलिता मुक्ताः-मुक्ताफलानि अन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि गताः गङ्गाया पुचिः सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति, अन्तरान्तरा ओअविआ-आरोपितानि यत्र तानि तथा विविधैस्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचि
| सिन्धुरोहि॥२९॥
तांशाः मू. IN तानि, तोरणेषु हि शोभा तारिका निबध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपि. ईहामगाः-वृकाः ऋषभा-वृषभाः व्याला-18
७४ भुजगाः रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टपदाः चमरा-आठव्या गावः बनलता-अशोकादिलताः प्रतीताः पद्मलता:| पद्मिन्यः शेष प्रतीत, एतासां भक्तयो-विच्छित्तयस्ताभिश्चित्राणि, स्तम्भोगतया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या बज्रवेदिकया परि-18|| गतानि-परिकरितानि सन्ति यानि अभिरामाणि-अभिरमणीयानि तानि तथा, विद्याधरयो:-विशिष्टशक्तिमत्पुरुष-18 विशेषयोर्यमल-समश्रेणीकं युगलं-द्वन्द्धं तेनैव यन्त्रेण-सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तानि, आर्णत्वाच्चैवंविधः इसमासः, अथवा प्राकृतत्वेन तृतीयालोपात् विद्याधरयमलयुगलेनेवेति, शेष पूर्ववत् , अर्चिषां-मणिरलप्रभाणां सह|| बर्मालनीयानि-परिवारणीयानि रूपकसहस्रकलितानीति स्पष्ट, भृशं-अत्यर्थ मान-प्रमाणं येषां तानि तथा, 'मिम्भि-18
॥२९२॥ | समाण'त्ति 'भासेभिंस' (श्रीसिद्ध अ०८ पा०४ सू० २०३ ) इत्यनेन भिसादेशे प्रकृष्टार्थप्रत्यये च रूपसिद्धिः, अत्यर्थ देदीप्यमानानि लोकने सति चक्षुषो लेश:-लेषो यत्र तानि त्रिपदो बहुव्रीहिः, पदविपर्यासः प्राकृतत्वात्,
अनुक्रम [१२९]
Jimilennilinonal
~ 587~
Page #589
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
H|| शेष सुबोधं, नवरं घण्टावलेर्वा वन चलिताया मधुरो मनोहरश्च स्वरो येषु तानि तथा, 'तेसि ण'मित्यादि, अस्य । | व्याख्या प्राग्वत्, 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः एवं नीलचामरध्वजादयोऽपि वाच्याः, ते च सर्वेऽपि कथंभूता इत्याह-अच्छा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः, श्वश्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापिताः,81 रूप्यमयो बज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते तथा, वजमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवती येषा ते तथा, जलजानामिव जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, 'अतोऽनेकस्वरा' (श्रीसिद्ध० अ०७ पा०२ सू०६)दितीकप्रत्ययः, अत एव सुरम्याः, पासाईआ इत्यादि प्राग्वत्, 'तेसि णमित्यादि, अस्य व्याख्या प्राग्वत्। अथ गङ्गाद्वीपवक्तव्यतामाह-'तस्स गङ्गप्पवाय इत्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेको गङ्गादेव्यावासभूतो द्वीपो गङ्गाद्वीप इति नाना द्वीपः प्रज्ञप्तः, मध्यलोपी समा-18 सात् साधुः, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भेन सातिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण द्वौ कोशी यावदुच्छ्रितो 18 जलान्तात्-जलपर्यन्तात् सर्वतोवर्तिजलस्य जलानावृतस्य क्षेत्रस्य द्वीपव्यवहारात्, शेष व्यक्तं, 'से ण'मित्यादि, स गङ्गा-18
द्वीप एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तः, वर्णकश्च भणितव्यो जगतीपद्मवरवेदि-1 18 कावदिति, अथ तत्र यद्यदस्ति तदाह-'गंगादीवस्स ण'मित्यादि, गङ्गाद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः,
दीप
अनुक्रम [१२९]
~ 588~
Page #590
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[७४]
दीप
श्रीजम्बू-1| तस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे गङ्गाया देव्या महदेकं भवनं प्रज्ञप्त, आयामादिविभागादिकं शय्यावर्णकपर्यन्तं सूत्र वक्षस्कारे
द्वीपशा-1 सव्याख्यानं श्रीभवनानुसारेण ज्ञेयं, अथ नामान्वर्थ पृच्छति-से केणद्वेण'मित्यादि, व्यक्तं, अथ गङ्गा यथा यत्र समुप- पूछाइदनिन्तिचन्द्रीया वृचिः
सर्पतितथाऽऽह-'तस्स णमित्यादि, तस्य गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन प्रब्यूढा-निर्गता सती गङ्गामहा
नदी उत्तरार्द्धभरतवर्ष इयूती २-गच्छन्ती २ सप्तभिः सलिलाना-नदीनां सहस्रैरापूर्यमाणा २-भ्रियमाणा अधः खण्ड-1ST शास. ॥२९॥
प्रपातगुहाया वैताट्यपर्वतं दारयित्वा-भित्त्वा दक्षिणार्द्धभरतं वर्ष इयूती २ दक्षिणार्द्धभरतवर्षस्य बहुमध्यदेशभाग 1 | गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहः समना-संपूर्णा आपूर्यमाणा इत्यर्थः अधोभागे जगतीं-18 | जम्यूद्वीपप्राकारं दारयित्वा पूर्वेण लघणसमुद्रं समुपसर्पति-अवतरतीत्यर्थः, अथास्या एव प्रवहमुखयोः पृथुत्वोद्वेधौ || | दर्शयति-'गंगा णमित्यादि, गङ्गा महानदी प्रवहे यतः स्थानात् नदी वोढुं प्रवर्तते स प्रवहः पद्मद्रहात्तोरणानि-18| |र्गम इत्यर्थः, तत्र पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन, तथा क्रोशार्द्धमुद्वेधेन, महानदीनां सर्वत्रोद्वेधस्य स्वव्यासप-1|| चाशत्तमभागरूपत्वात् , अस्तीति शेषः, 'तदनन्तर'मिति पद्मदहतोरणीयव्यासादनन्तरं एतेन यावत् क्षेत्रं स ब्या-IRA
||२९३॥ IS सोऽनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरमित्यर्थः, एतेन च योऽन्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणाHSI लनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वाऽभिहितः स नेति, श्रीअभयदेवसूरिपादैः समवायाजवृत्ती श्रीमलयगिरिपादैश्च वृह
अनुक्रम [१२९]
ceaeeeesese
SinElemnitiareil
~589~
Page #591
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७४]
क्षेत्रसमासवृत्तौ पद्मद्हतोरणनिर्गमपरत्वेनैव व्याख्यानात् , एवमुद्वेधेऽपि ज्ञेयं, मात्रया २-क्रमेण २ प्रतियोजन | समुदितयोरुभयोः पाईयोर्धनुर्दशकवृझ्या प्रतिपावं धनुःपञ्चकवृद्ध्येत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ मुखे-समुद्रप्रवेशे द्वापष्टिं
योजनानि अर्द्धयोजनं च विष्कम्भेन, प्रवहमानान्मुखमानस्य दशगुणत्वात् , सक्रोशं योजनमुद्वेधेन सार्द्धद्वापष्टियोजन8 प्रमाणमुखव्यासस्य पञ्चाशत्तमभागे एतावत एव लाभात् , उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पदावरवेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च|8 18| सम्परिक्षिप्ता गोत्यर्थः, प्रतियोजनधनुर्दशकवृद्धिस्त्वेयम्-मुखव्यासात् प्रवहन्यासेऽपनीतेऽवशिष्टे धनूरूपे कृते सरि-18॥
दायामेन भक्के लब्धं इष्टप्रदेशगतयोजनसङ्ख्यया गुण्यते यावत् स्यात्तावत्युभयपार्श्वयोवृद्धिर्वाच्या, तथाहि-गङ्गायाः 18 अवहे व्यासः योजन ६ कोश १ मुखे तु योजन ६२ क्रोश २, तत्र मुखव्यासात् प्रघहव्यासेऽपनीते जातं योजन ५६ 18 कोश १, योजनानां च क्रोशकरणाय चतुभिर्गुणने उपरितनैकक्रोशप्रक्षेपे च जातः २२५ क्रोशे च धनुषां सहस्रदय| मिति सहस्रद्वयेन गुण्यन्ते जातानि धनूंषि ४५००००, ततः पञ्चचत्वारिंशता सहस्रर्भज्यन्ते लब्धानि १० धनूंषि एकेन गुण्यन्ते जातानि १०, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात्, एतावती च समुदितयोरुभयोः पार्थयोः प्रबहादेक-13
दीप
अनुक्रम [१२९]
यतु 'सबोयण समोस मिति क्षेत्रसमासगाथा व्याख्यानयंता धीमलयगिरिमरिणा 'प्रवडे-पदाहदाद्विनिर्ममे पदयोजनानि यकोशानि गहानद्या विस्तार' इति 10 || भणितं तत, मकरमुख जिडिकाया विनिगमं यावत् अविशेषेण विवक्षणात, अन्यथा 'गङ्गासिंधू गं महाणईओ पणवीसे गाउयाई-तथा गंगासिधू ण महाणईलो
पबहे साइरेग चटनीस कोसे वित्थरेण पण्णत्ताओ"त्ति समवायालेन सह विरोधः सात् (ही पूती)।
Email
~590~
Page #592
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७४]
दीप
अनुक्रम
[१२९]
वक्षस्कार [४],
मूलं [७४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥२९४॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jin Eben
स्मिन् योजने गते जलवृद्धिः, अथ मूलाद्योजनद्वयान्ते यदा वृद्धिर्ज्ञातुमिष्यते तदा दश धनूंषि द्विकेन गुण्यन्ते जातानि २० एतावती प्रवहादुभयपार्श्वयोजनद्विकान्ते वृद्धिः स्यात्, अस्याश्चाद्धे १०, एतावत्येकपार्श्वे वृद्धिः, एवं सर्वत्र भाव्यं । अथ गङ्गायामादीन्यन्यत्रावतारयति - ' एवं सिंधु इत्यादि, एवं सिन्ध्वा अपि स्वरूपं नेतव्यं यावत्तस्य पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी निर्गता सती पश्चिमाभिमुखी पश्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा सिन्ध्यावर्त्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्च योजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि श्रींश्चैकोनविंशतिभागान् दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा | महता घटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्प्रपातेन प्रपतति, सिन्धुमहानदी यतः प्रपतति अत्र महती जिह्विका वाच्या, सिन्धुमहानदी यत्र प्रपतति तत्र सिन्धुप्रपातकुण्डं वाच्यं तन्मध्ये सिन्धुद्वीपो वाच्योऽर्थः स एव यथा गङ्गाद्वीपप्रभाणि गङ्गाद्वीपवर्णाभानि पद्मानि तथा सिन्धुद्वीपप्रभाणि सिन्धुद्वीपवर्णाभानि पद्मानि सिन्धुद्वीप इत्युच्यते, अत्र यावत्पर्यन्तं सूत्रं वाच्यं तथाह - यावदधस्तमिस्रागुहाया इत्यादि, अत्र यावत्करणादिदं - 'तस्स णं सिन्धुप्पवायकुंडस्स दक्खिणिलेणं तोरणेणं सिन्धुमहाणई पबूढा समाणी उत्तरद्धभरहवास एज्जेमाणी २ ससिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २' इति संग्रहः, अधस्तमिस्रागुहाया वैताढ्यपर्वतं दारयित्वा 'देशदर्शनादेशस्मरण' मिति 'दाहिणद्ध भरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता' इति पदानि बोध्यानि, पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः समग्रा -पूर्णा जगतीमधो दारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्रं समुपसर्पति, शेषं-उक्तातिरिक्तं प्रवहमुखमानादि तदेव गङ्गामानसमानमेव ज्ञेयम्, अथ पद्म
Fur Fate & Pay
~ 591~
४ वक्षस्कारे पद्मदनिगेताः गङ्गासिन्धुरोहितांशाः सू. ७४
॥२९४॥
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
Seccces
सूत्रांक [७४]
॥ द्रहनिर्गततृतीयनदीस्वरूपमाह-'तस्स ण'मित्यादि, व्यकं नवरं द्वेषट्सप्तत्यधिक योजनशते पट् च एकोनविंशति|भागान योजनस्य एतावती भुवं उत्तराभिमुखी-हैमवतक्षेत्राभिमुखी पर्वतेन गत्वा, अत्रोपपत्ति:-हिमवद्व्यासारहव्यासेऽपनीते शेषहिमवद्व्यासेऽद्धीकृते एतावत एव लाभात्, ननु गङ्गायां दक्षिणाभिमुखं गिरिगमनं पञ्च | योजनशतानि २३ योजनानि कलात्रिकं च समधिकमिति, अस्थास्तु षट्सप्तत्यधिके द्वे शते पट च कलाः किमित्ये| तावदन्तरं, उच्यते, गङ्गायाः गिरिमध्यवर्तिना पूर्वदिक्तोरणेन निर्गतायाः पञ्चशतयोजनपूर्वाभिमुखगमनानन्तरं दक्षिबाणादिग्गामिन्याः स्वव्यासरहितगिरिव्यासार्श्वगामित्वं, एवं सिन्ध्या अपि पाशतयोजनपश्चिमाभिमुखगमनादनु, अस्या|स्तु उत्तरदिक्तोरणेन निर्गतायाः उत्तरगामिन्या द्रव्यासशुद्धगिरिव्यासार्द्धगामित्वमिति भेदः । अथास्या जिन्हि-181 कामाह-रोहिअं'इत्यादि, व्यक, नवरं आयामे योजनविष्कम्भमानेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि-सा द्वादशयोजनानि बाहल्ये कोश, गङ्गाजिव्हिकाया अस्या द्विगुणत्वात् । अथ कुण्डस्वरूपमाह-रोहिअंसा'इत्यादि, प्रायः प्रक-॥ दार्थ, परमायामविष्कम्भयोविंशत्यधिक, गङ्गाप्रपातकुण्डादस्य द्विगुणत्वात् , अथात्र द्वीपमाह-'तस्स ण'मित्यादि, MS प्रकटार्थ, 'सेकेणढणं भन्ते । एवं बुच्चइ रोहिअंसादीवे ।' इत्याद्यभिलापेन ज्ञेयः, सम्प्रत्यख्या येन तोरणेन निर्गमो| यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांश्च नदीपरिवारो यत्र च संक्रमस्तथाऽऽह-तस्स णमित्यादि, तस्य-रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औतराहेण तोरणेन रोहिताशा महानदी प्रन्यूढा-निर्गता सती हैमवतं वर्ष इयूती २-गच्छन्ती २ चतुर्दशभिः
दीप
Seceo
अनुक्रम [१२९]
~592~
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे हिमवति
सूत्रांक [७४]
श्रीजम्बू-1| सलिलासहस्रः आपूर्यमाणा २ शब्दापातिनामानं वृत्तवैताढ्यपर्वतं अर्द्धयोजनेनासम्प्राप्ता सती पश्चिमाभिमुखी
द्वीपशा- आवृत्ता सती हैमवन्तं वर्ष द्विधा विभजन्ती २ अष्टाविंशत्या सलिलासहस्रैः समग्रा-परिपूर्णा जगतीं अधो दारयित्वा न्तिचन्द्री
पश्चिमायां लवणसमुद्रं प्रविशति, अस्या एव मूल विस्तारायाह-रोहिअंसा 'मित्यादि, रोहितांशा प्रबहे-मूलेऽर्द्धत्र-10 कूटानि या वृत्तिः
योदशानि योजनानि विष्कम्भेन, प्राच्यक्षेत्रनदीतो द्विगुणविस्तारकत्वात् , क्रोशमुवेधेन प्रवहव्यासपश्चाशत्तमभागरू- सू.७५ ॥२९५॥ पत्वात्, तदनन्तरं मात्रया २-क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पान्धयोर्धनुर्विशत्या वृक्ष्या प्रतिपार्श्व धनुर्द
शकवृद्ध्येत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ मुखमूले-समुद्रप्रवेशे पंचविंशतं योजनशतं विष्कम्भेन, प्रवहव्यासाद्दशगुणत्वात् , अर्द्धततीयानि योजनानि उद्वेधेन मुखव्यासपश्चाशत्तमभागरूपत्वात् , शेषं प्राग्वत् ॥ अथ हिमवति कूटान्याह
चुहिमवन्ते ण भन्ते ! वासहरपबए कइ कूड़ा पं०!, गोय०! इकारस कूडा पं०, सं०-सिद्धाययणकूडे १ चुहिमवन्तकूडे २ भरहकूडे ३ इलादेवीकूडे ४ गंगादेवीकूडे ५ सिरिकूडे ६ रोहिअंसकूडे ७ सिन्धुदेवीकूडे ८ सुरदेवीकूडे ९ हेमवयकूडे १० बेसमणकूडे ११ । कहि णं भन्ते! चुहिमवन्ते वासहरपथए सिद्धाययणफूडे णामं कूडे ५०१, गोभमा ! पुरस्टियलषणसमुहस्स पचस्थिमेणं चुलहिमवन्तकूडस्स पुरथिमेणं एस्थ णं सिद्धाययणकूढे णाम कूड़े पणत्ते, पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले
॥२९५। पंच जोअणसयाई विक्वंभेणं मनो तिणि अ पण्णसरे जोअणसए विक्खंभेणं उपि भवाइजे जोअणसए विक्वंमेणं मूले एग जोअणसहस्सं पंच य एगासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मझे पगं जोअणसहस्सं पगं च छलसी जोअणसयं
दीप
अनुक्रम [१२९]
Reace
Jitenin
क्षुद्रहिमवन्त-पर्वतस्य सिद्धायतन-आदि कुटानां वर्णनं क्रियते
~593~
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]]
दीप
किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं उपि सत्तइफाणउए जोअणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवणं, मूले विच्छिण्णे मो सखित्ते उप्पि तणुए गोपुषछसंठाणसंठिए सवरयणामए अच्छे, से गं एगाए पउमवरवेइआए एगेण व वणसंडेणं सबओ समता संपरिक्सिसे सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जास्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते पण्णासं जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोभणाई विकृखंभेणं छत्तीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ भाणिअव्वो। कहि णं भन्ते ! चुहिमवन्ते वासहरपव्यए चुहिमवन्तकूडे नाम कूडे पण्णत्ते , गो० ! भरहकूडस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणकूहस्स पञ्चत्थिमेणं, एस्थ णं चुहिमवन्ते वासहरपब्वए युलहिमवन्तकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्वेषो जाव बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसमाए एत्थ णं महं एो पासायव.सए पण्णत्ते वासहि जोभणाई अद्धजोअणं च उच्चत्तेणं इकतीसं जोषणाई कोसं च विक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिअपहसिए विव विविहमणिरवणभत्तिचित्ते बाबुअविजयवेजयंतीपढागच्छत्ताइच्छत्तक लिए तुंगे गगणतलममिलंघमाणसिहरे जालंतररयणपंजरुम्मीलिएस मणिरयणथूमिआए विअसिअसयवत्तपुंडरीअतिलयरयणद्धचंदचिसे णाणामणिमयदामाउंकिए अंतो वहिं च सण्हवइरतकणिजरुइलवालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीअरूवे पासाईए जाव पटिरूवे, तस्स गं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पं० जाव सीहासणं सपरिवार, से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुश्चइ चुलहिमन्तकूडे २१, गो०! चुहिमवन्ते णामं देवे महिदीए जाव परिवसइ, कहि णं भन्ते ! चुलहिमवन्तगिरिकुमारस्स देवस्स चुलहिमवन्ता णाभं रायहाणी पं०1, गो01 चुहिमवन्तकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेने वीवसमुरे बीईवइचा अण्णं जम्बुद्दी २ दक्खिणेणं बारस जोअणसहस्साई भोगाहित्ता इरथ णं चुलहि
अनुक्रम [१३०]
SinElemnitial
~594 ~
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७५ ]
दीप
अनुक्रम
[१३०]
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ७५ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥२९६॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Ebeni
मवन्तरस गिरिकुमारस्स देवस्स चुहिमवन्ता णामं रायहाणी पं०, वारस जोयणसहस्सा आयानविक्संभेणं, एवं विजयरायहाणीसरिसा भाणिअव्वा, एवं अवसेसाणवि कूडाणं वतव्वया जव्वा आयामविक्खंभपरिक्खेवपासा यदेवयाओ सीहासणपरिवारो अहो अ देवाण व देवीण य रायहाणीओ अब्बाजो, चउसु देवा पुढहिमवन्त १ भरह २ हेमवय ३ बेसमणकूडे ४, सेसेसु देवयाओ से केणणं भन्ते । एवं बुझइ चुडहिमवन्ते वासहरपण्यए १२, गो० । महाहिमवन्तवासहरपथ्वयं पणिहाय आयामु चतुब्वेविक्संभपरिक्लेवं पडुच ईसिं खुडतराए चैव हस्सतराए चैव शीअतराए चेव, चुखहिमवन्ते अ इत्य देवे महिद्धीए जाय पलिओ मइिए परिवसद से एएणणं गो० ! एवं बुचर - चुल्लहिमवन्ते वासहरपब्वए २, अदुत्तरं च णं गो० ! चुल्लहिमवन्तस्स सासए णामधे पण्णत्ते जंण कबाइ णासि ( सूत्रं ७५ )
'हिमवन्ते 'मित्यादि, व्यकं, नवरं सिद्धायतनकूटं क्षुल्लहिमवगिरिकुमार देवकूटं भरताधिपदेवकूटं, इलादेवीसुरादेवीकूटे तु षट्पञ्चाशद्विक्कुमारीदेवीवर्गमध्यगतदेवीकूटे, गङ्गादेवीकूटं श्रीदेवीकूटं रोहितांशादेवीकूटं सिन्धुदेवीकूटं हैमवतवर्षेशसुरकूटं वैश्रमणलोकपालकूटं । अथ तेषामेव स्थानादिस्वरूपमाह – 'कहि णमित्यादि, क भदत! लहिमद्वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञतं ?, 'गौतमे'त्यादि निर्वचनसूत्रं व्यकं, नवरं पचयोजनशतान्युचत्वेन मूले पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन मध्ये त्रीणि च योजनशतानि पञ्चसप्ततानि पञ्चसप्तत्यधिकानि विष्कम्भेन उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन मूले एकं योजनसहस्रं पक्ष एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किश्चि
Fur Fraternal Use O
~ 595~
४ वक्षस्कारे हिमबति कूटानि
सू. ७५
| ॥ २९६ ॥
Page #597
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७५ ]
दीप
अनुक्रम
[१३०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ७५ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
द्विशेषाधिकानि किंचिदधिकानीत्यर्थः, मध्ये एकं योजनसहस्रं एकं षडशीत्यधिकं योजनशतं किंचिद्विशेषोनं किंचिदूनमित्यर्थः, अयं भावः - एकं सहस्रमेकं शतं पञ्चाशीतियजनानि पूर्णानि शेषं च क्रोशत्रिकं धनुषामष्टशतानि त्रयो| विंशत्यधिकानि इति किंचित्पडशीतितमं योजनं विवक्षितमिति तथा उपरि सप्त योजनशतानि एकनवत्यधिकानि किंचिदूनानि परिक्षेपेण, अत्राप्ययं भावः सप्त शतानि नवतियोंजनानि पूर्णानि शेषं क्रोशद्विकं धनुषां सप्त शतानि पंचविंशत्यधिकानीति किंचिद्विशेषोनं एकनवतितमं योजनं विवक्षितं, परिक्षेपेणेति सर्वत्र ग्राह्यं, शेषं स्पष्टं ॥ अथात्र | पद्मवरवेदिकाद्याह- 'से ण'मित्यादि प्रकटं, अत्र यदस्ति तत्कथनायोपक्रमते - 'सिद्धाययण' मित्यादि, निगदसिद्धं, नवरं प्रथमयावत्पदेन वैताढ्यगत सिद्धायतनकूटस्येवात्र वर्णको ग्राह्यः, द्वितीयेन तद्गतसिद्धायतनादिवर्णक इति ॥ अथात्रैव क्षुद्रहिमवद्गिरिकूटवक्तव्यमाह - 'कहि ण' मित्यादि, क्व भदन्त ! क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूटं प्रज्ञतम्', 'गौतमेत्यादि उत्तरसूत्रं प्राग्वत्, नवरं 'एवं जो वेवे' त्यादि अतिदेशसूत्रे 'एव' मित्युक्तप्रकारेण य एवं सिद्धायतनकूटस्योच्चत्वविष्कम्भाभ्यां युक्तः परिक्षेपः उच्चत्व विष्कम्भपरिक्षेपः, मध्यपदलोपी समासः, स एव इहापि हिमवत्कृटे बोध्य इत्यर्थः, इदं च वचनं उपलक्षणभूतं तेन पद्मवरवेदिकादिवर्णनं समभूमिभागवर्णनं च ज्ञेयं, किय| स्पर्यन्तमित्याह -- यावद्वहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञतः, प्रासादानां - आयामाद्विगुणोच्छ्रित वास्तुविशेषाणामवतंसक इव-शेखरक इव प्रासादावतंसकः प्रधानप्रासाद इत्यर्थः, स च
Fucrustee City
~596 ~
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा-1
प्रत सूत्रांक
या चिः
[७५]]
दीप
श्रीजम्बू-1| प्रासादो द्वापष्टिं योजनान्यर्द्धयोजनं च उच्चत्वेन एकत्रिंश योजनानि कोश च विष्कम्भेन समचतुरखवावाची ४वक्षस्कारे | सूत्रकृता न कृता, तत्र हेतुर्वंताढ्यकूटगतप्रासादाधिकारे निरूपित इति ततो ज्ञेयः, कीदृश इत्याह-अम्युद्गता-आक
हिमवति न्तिचन्द्रीमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-प्रवलतया सर्वासु दिक्षु प्रसूता यद्वा अभ्रे-आकाशे उद्गता उत्सृता-प्रबलतया
कूटानि | सर्वतस्तिर्यक् प्रसृता एवंविधा या प्रभा तया सित इव-बद्ध इव तिष्ठतीति गम्यते, अन्यथा कथमिव सोऽत्युच्चैनि-18 ॥२९७॥ रालम्वस्तिष्ठतीति भावः, अत्र हि उत्प्रेक्षया इदं सूचितं भवति-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् आयततया याः प्रासादप्रभास्ताः किल
| रजवस्ताभिर्बद्ध इति, यदिवा प्रबलश्वेतप्रभापटलतया प्रहसित इव-प्रकर्षेण हसित इवेति, विविधा-अनेकप्रकारा ये 81 8 मणयो रत्नानि च, मणिरलयोर्भेदश्चात्र प्राग्वत् , तेषां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रो-नानारूप आश्चर्यवान् वा, वातो-18
घृता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीनान्यो याः पताकाः अथवा विजया इति वैजयन्तीनां
पार्थकणिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिच्छवाणि-उपर्युपरि-181 18|स्थितान्यातपत्राणि तैः कलितः तुङ्गः उच्चस्त्वेन सार्द्धद्वापष्टियोजनप्रमाणत्वात् , अत एव गगनतलमभिलङ्घयद्-अनुलिख-181 18 च्छिखरं यस्य स तथा, जालानि-जालकानि गृहभित्तिषु लोके यानि प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि 8 ॥२९७॥
रचना वा यस्मिन् स तथा, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् , पञ्जरादुन्मीलित इव-बहिष्कृत इव, यथा किमपि % वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषादहिः कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति एवं सोऽपि प्रासादावतंसक इति भावः, अथवा
अनुक्रम [१३०]
EmainineK
~597~
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७५]]
18 जालान्तरगतरलपञ्जर-रत्नसमुदायविशेषः उन्मीलित इवं उन्मिपितलोचन इवेत्यर्थः, माणकनकमयस्तृपिकाक इति
प्रतीत, विकसितानि-विकस्वराणि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च-कमलविशेषाः द्वारादिषु तैश्चित्रो-नानारूप आश्चर्यवान् । 8वा, नानामणिमयदामालत इति व्यक्तं, अन्तर्वहिश्च श्लक्ष्णो-मसृणः स्निग्ध इत्यर्थः, तपनीयस्य-रक्तसुवर्णस्य रुचिरा 8 या वालुका-कणिकास्तासां प्रस्तटः-प्रतरः प्राङ्गणेषु यस्य स तथा, शेषं पूर्ववत् , 'तस्स णमित्यादि, व्यक्तं, अथास्य
नामान्वर्थ व्याचिख्यासुराह--'से केणटेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-क्षदहिमवत्कटं २१. गौतम ! क्षिहिमवतामा देवो महर्द्धिको यावत् अत्र परिवसति तेन 'क्षुद्रहिमवन्तकूट'मिति क्षुद्रहिमवत्कृट, अत्र च सूत्रेड-12
टमपि से तेणी चुहिमवन्तकूडे २' इत्येतद्रूपं सूत्रं बोध्यं, अन्वर्थोपपत्तिश्चात्र दक्षिणाभिरतकूटस्पेव ज्ञेयेति । अथास्य राजधानीवक्तव्यमाह-'कहि णमित्यादि, उत्तानार्थ, क्षुल्लहिमवती क्षुद्रहिमवती वा राजधानी 'एव'मित्युक्तप्रकारेण यथोचित्येनेति, 'एव'मित्यादि, एवमिति-क्षुद्रहिमवत् कूटन्यायेनावशेषाणामपि भरतकूटादीनां वक्तव्यता नेतन्या, आयामविष्कम्भपरिक्षेपाः अनोपलक्षणादुच्चत्वमपि तथा प्रासादास्तथैव, देवताः अत्र देवताशब्दो देवजाति-18
वाची तेन भरतादयो देवा इलादेवीप्रमुखा देव्यश्च ततो द्वन्द्वे ताः, तथा सिंहासन परिवारोऽर्थश्च स्वस्व नामसम्बन्धी IS तथा देवानां देवीनां च राजधान्यो नेतव्या इति, चतुर्पु क्षुलहिमवदादिकूटेषु देवा अधिपाः शेषेषु देवता-देव्यः, तत्र IR इलादेवीसुरादेव्यौ षट्पञ्चाशदिक्कुमारीगणान्तर्वतिन्यो ज्ञेये एषां च कूटानां व्यवस्था पूर्व २ पूर्वस्यामुत्तरमुत्तरम
दीप
अनुक्रम [१३०]
ese
Jinallenniumnamanna
~598~
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७५ ]
दीप
अनुक्रम [१३०]
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ७५ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृत्तिः
॥२९८॥
Elemich
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
परस्यामिति, अथास्य क्षुद्रहिमवत्त्वे कारणमाह-' से केणद्वेणमित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लहिमवद्वर्षधरपर्वतः २१, गौतम ! महाहिमवद्वर्षधरपर्वतं प्रणिधाय प्रतीत्याश्रित्येत्यर्थः आयामोञ्चत्वोद्वेषविष्कम्भपरिक्षेपं, अत्र समाहारद्वन्द्वस्तेन सूत्रे एकवचनं, प्रतीत्य- अपेक्ष्य ईषत्क्षुद्रतरक एव-लघुतरक एव यथासम्भवं योजनाया विधेयत्वेनायामाद्यपेक्षया इस्वतरक एवोद्वेधापेक्षया नीचतरक एवोच्चत्वापेक्षया, अन्यच्च क्षुद्रहिमवाञ्चात्र देवो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति शेषं प्राग्वत् ॥ अथानेन वर्षधरेण विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यमाह -
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हेमबए णामं वासे पं० १, गो० 1 महाहिमवन्तस्स वासहरपञ्चयस्स दक्खिणं चुहिमबन्तस्स बासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरत्यिमलवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीने हेमवए णामं बासे पण्णत्ते, पाणपढीणायए उदीणदाहिणविच्छिष्णे पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिलए कोडीए पुरथिमिलं लवणसमुद्दे पुढे, पञ्चत्थिमिलाए कोडीए पचत्थिमिल्लं लवणसमुद्दे पुढे, दोण्णि जोअणसहस्साई एगं च पंचुचरं जोशणसयं पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाधा पुरत्थिमपश्ञ्चत्थिमेणं छज्योमणसहस्साई सत् य पणवण्णे जोभree तिणि अ गूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईंणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा पुरत्थिमिलाए कोडीए पुरथिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा सत्ततीसं जोअणसहस्साई उच्च चडवत्तरे जोजणसए सोलस य एगूणवीसभाए जोजणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं, तस्स धणुं दाहिणेणं अतीसं जोणसहस्साई सत पचताले
अथ हैमवत क्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
Fur Erate&Pale Oy
~ 599~
४वक्षस्कारे
म
वर्ष सू. ७६
॥२९८॥
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७६]
जोअणसए दस य एगूणवीसहभाए जोअणस्स परिक्खेवणं, हेमवयस्स णं भन्ते ! वासस्स केरिसए आयारभावपटोआरे पण्णत्ते!, गो! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं तइअसमाणुभाषो अव्वोत्ति (सूत्र ७६) 'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् १. गौतम ! महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य 18 दक्षिणेणे त्यादि, व्यक्तं, अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतनाम वर्ष प्रज्ञप्तमित्यादि सर्व प्राग्वत्, नवरं पल्यङ्कसंस्था| नसस्थितं आयतचतुरनत्वात् , तथा द्वे योजनसहने एकं च पश्चोत्तरं योजनशतं पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य
यावद्विष्कम्भेन, क्षुद्रहिमगिरिविष्कम्भादस्य द्विगुणविष्कम्भ इत्यर्थः, अथास्य बाहाद्याह-'तस्स बाहा इत्यादि, | व्यक्तं, 'तस्स जीवा उत्तरेण मित्यादि, प्राग्वत्, सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि पटू चतुःसप्ततानि योजनशतानि पोडश || कलाः किंचिदूना आयामेनेति, 'तस्स घणु'मित्यादि, तस्य धनुःपृष्ठमष्टत्रिंशद्योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानि
चत्वारिंशदधिकानि.योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, अथ कीरामस्य स्वरूप-131 | मित्याह-हेमवयस्स ण'मित्यावि, व्याख्यातप्रायं, नवरं एवं मिति उक्तप्रकारेण तृतीयसमा-सुषमदुषमारक-13 |स्तस्यानुभाव:-स्वभावः स्वरूपमितियावत् नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीय इत्यर्थः ॥ अथात्र क्षेत्रविभागकारिगिरि-18 | स्वरूपं निर्दिशति
कहि णं भन्ते ! हेमवए वासे सहावई णाम बट्टवेजद्धपव्वए पण्णत्ते?, गोअमा ! रोहिआए माणईए पञ्चच्छिमेणं रोहिअंसाए
दीप
90000000000590909aerasader
अनुक्रम [१३१]
अथ वृत्तवैताढ्यपर्वतस्य वर्णनं क्रियते
~600~
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७७]
दीप
अनुक्रम
[१३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [७७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्यू द्वीपसान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥२९९॥
महाणईए पुरत्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं सदावई णार्म बट्टवेअद्धपव्वर पण्णत्ते, एगं जोअणसहस्से उद्ध उच्च अढाइलाई जोअणसयाई उबेद्देणं सव्वत्थसमे पल्लगसंठाणसंटिए एगं जोअणसहस्सं आयामविक्संभेणं तिण्णि जोअणसहस्साई एगं च बाब जोअणसयं किंश्चिविसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सब्बरयणामए अच्छे से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते, वेइआवणसंडवण्णओ भाणिञन्वो, सावइस्स णं वट्टवेअद्धपवयस्स वार बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते बाबा जोअणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चतेणं इकतीसं जोभणाई कोसं च आयामविक्संभेणं जाव सीहासणं सपरिवार, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ सावई बट्टवेयद्धपव्वए ? २, गोअमा ! सहावइवट्टवेअद्धपव्वए णं खुदा खुदिआसु बाबीसु जाव बिलपति बहवे उप्पलाई पउमाई सहावइप्पभाई सहाबवण्णाई सदावतिवण्णाभाई सहावई अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव महाणुभावे पलिओ मठिइए परिवसइत्ति, से णं तत्थ चखण्डं सामाणिअसाहस्सीणं जाब रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णंमि जम्बुद्दीवे दीवे० । (सूत्रं ७७ )
'कहि णं भन्ते' इत्यादि, क्व भदन्त ! हैमवतवर्षे शब्दापतीनाम्ना वृत्तवैतान्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, वैताढ्यान्वर्थस्तु प्रागुक्तः, असौ च वृत्ताकारो न भरतादिक्षेत्रवर्त्तिवैताद्व्यपर्वतवत् पूर्वापरायतस्तेन वृत्तवैताद्व्य इत्युच्यते, अत एव एतत्कृतः क्षेत्रविभागः पूर्वतोऽपरतश्च भवति, यथा पूर्वहैमवतमपर हैमवतमिति, आह - पञ्चकलाधिकैकविंशतिशतयो
Fur Fate &PO
~601~
४वक्षस्कारे
शब्दापातिबैताढ्यः
सू. ७७
॥२९९ ॥
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७७]
दीप
जनप्रमाणविस्तारस्य हैमवतस्य मध्यवर्ती योजनसहनमान एष गिरिः कथं क्षेत्रं द्विधा विभजति ?, उच्यते, प्रस्तुतक्षेत्रव्यासो हि उभयोः पार्श्वयोः रोहितारोहितांशाभ्यां नदीभ्यां रुद्धः मध्यतस्त्वनेन, अथ नदीरुद्धक्षेत्रं वर्जयित्वाऽवशिष्टक्षेत्रमसौ द्विधा करोतीत्यस्मिन्नन्वर्थवती वैतान्यशब्दप्रवृत्तिरिति, एवं शेपेष्वपि वृत्तवैताढ्येषु स्वस्वक्षेत्रस्वस्वनदी-15 | नामभिलापेन भान्यं, दिग्विभागनियमनं सुलभमिति न व्याख्यायते, एकं योजनसहस्रमूर्बोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि | | योजनशतान्युद्वेधेन सर्वत्र समः-तुल्योऽधोमध्योर्ध्वदेशेषु सहनसहनविस्तारकत्वात् , अत एव पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः, पल्यश्च-ललाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन निर्मापितो धान्याधारकोष्ठकः, एकंयोजनसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यांत्रीणि योजन
सहस्राणि एकं च द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषेण करणवशादागतेन सूत्रानिर्दिष्टेन राशिना अधिक परिक्षेपेण IS प्रज्ञप्त, सर्वात्मना रसमयः, केचन रजतमयान् वृत्तवैताब्यानाहुः परं तेषामनेन ग्रन्थेन सह विरुद्धत्वमिति । अधात्र
पद्मावरवेदिकाद्याह-से णमित्यादि, व्यक्त, 'सहावइस्स ण'मित्यादि, व्यक्तं ॥ अथ नामार्थ निरूपयन्नाह| 'से केणढेणं भन्ते ।'इत्यादि, प्रागुक्तऋषभकूटप्रकरणवद् व्याख्येयं, नवरं ऋषभकूटप्रकरणे ऋषभकूटप्रभैः ऋषभकुटवर्णरुत्पलादिभिःपभकूटनामनिरुक्तिदर्शिता अत्र तु शब्दापातिप्रभैः शब्दापातिवणः उत्पलादिभिः शब्दापातिवृत्तवैतान्यनामनिरुक्तिर्द्रष्टव्या, शब्दापाती चात्र देवो महर्द्धिको यावन्महानुभावः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, अथ | शब्दापातिदेवमेव विशिनष्टि-से णं तत्थ'इत्यादि, स-शब्दापाती देवस्तत्र-प्रस्तुतगिरौ चतुर्णा सामानिकसहस्राणां
अनुक्रम [१३२]
~602~
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७७]
दीप
श्रीजम्बू- यावत्पदात् विजयदेववर्णकसूत्रं सर्वमपि ज्ञेयं व्याख्येयं च, कियत्पर्यन्तमित्याह-राजधानी मन्दरस्य दक्षिणस्यामन्य- विक्षस्कारे द्वीपशा- मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादर्शेषु एतत्सूत्रदृष्टोऽपि पलिओवमठिई परिवसती'त्ययं सूत्रादेशः पूर्वसूत्रे हमवतान्यन्तिचन्द्री
थेः सू.७८ यद्योजितस्तद्बहुषु विजयदेवप्रकरणादिसूत्रेष्वित्थमेव दृष्टत्वात् , बहुग्रन्थसाम्मल्येन क्वचिदादर्शवैगुण्यमुद्भाव्यान्यथा || या वृचिः
योजनं बहुश्रुतसम्मतमेवास्ति इत्यलं विस्तरेण, ननु अस्य शब्दापातिवृत्तवैताम्यस्य क्षेत्रविचारादिनन्धेषु अधिपः ॥३०॥
स्वातिनामा उक्तः तत्कथं न तैः सह विरोध:१, उच्यते, नामान्तरं मतान्तर वा। अथ हैमवतवर्षस्य नामार्थं पृच्छति
से केणडेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २१, गोअमा! चुलहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपब्वएहिं दुहओ समवगूड़े णिचं हेम दुलइ णिचं हेमं दुलइत्ता णिचं हेमं पगासइ हेमवए अ इत्य देवे महिद्धीए पलिओवमहिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोभमा ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे ( सूत्र ७८) .
से केणटणं इत्यादि, अथ केनार्थेन भगवनेवमुच्यते-हैमवतं वर्ष हैमवतं वर्षमिति !, गौतम! क्षुद्रहिम-18 वन्महाहिमवद्ध्यां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातो-दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समवगाढं-संश्लिष्टं ततो हिमवतोरिदं हैमवतं, अयं । | भाव:-क्षुद्रहिमवतो महाहिमवतश्चापान्तराले तत् क्षेत्र, ततो द्वाभ्यामपि ताभ्यां यथाक्रममुभयोर्दक्षिणोत्तरपार्ययोः ॥३०॥
कृतसीमाकमिति भवति तयोः सम्बन्धि यदिवा नित्यं-कालत्रयेऽपि हेम-सुवर्ण ददाति आसनप्रदानादिना प्रयच्छति, 5 IS कोऽर्थः।-तत्रत्ययुग्मिमनुष्याणामुपवेशनाद्युपभोगे हेममयाः शिलापट्टका उपयुज्यन्ते, तत उपचारेण ददातीत्युकं, नित्यं
अनुक्रम [१३२]
2Geoecene
~603~
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७८ ]
दीप
अनुक्रम [१३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ७८ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
५१
हेम-प्रकाशयति, ततो हेम नित्ययोगि प्रशस्यं वाऽस्यास्तीति हेमवत् हेमत्रदेव हैमवतम्, प्रज्ञादेराकृतिगणतया 'प्रज्ञादिभ्यः' ( श्रीसिद्ध० अ० ७-पा० २ सू० १६५ ) इति स्वार्थेऽण् प्रत्ययः, हैमवतश्चात्र देवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तद्योगाद्धैमवतमिति व्यपदिश्यते, हैमवतो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यवादित्वादप्रत्यये वा ॥ अथास्यैवोत्तरतः सीमाकारी यो वर्षधरगिरिस्तं विचक्षुराह—
कहि णं भन्ते ! जंम्बुदवे २ महाहिमवन्ते णामं वासहरपथ्यए पं० १, गो० हरिवासस्स वाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरे पुरमिलवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीचे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपचए पण्णत्ते, पाईणपढीणायए उदीर्णदाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिलाए कोडीए जाब पुढे पञ्चत्थिमिहाए कोडीए पचत्थिमिह लवणसमुहं पुढे दो जोअणसयाई उद्धं उवत्तेणं पण्णासं जोअणाई उन्बेद्देणं चत्तारि जोअणसहस्साई दोणि अ दसुत्तरे जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्संमेणं, तस्स बाहा पुरत्थिमपञ्चत्थिमेणं णव जोअणसहस्साइं दोणि अछावन्तरे जोअणसए ण य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुहं पुट्ठा पुरथिमिलाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्टा पश्चत्थिमिहाए जाब पुट्टा तेवणं जोभणसहस्साई नवय एगती से जोअणसए उच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसाहिए आयामेणं, तस्स धणुं दाहिणं सत्तायण्णं जोणसहस्साई दोणि अ तेणडए जोअणसए दस य एगूणवीसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, रुभगसंठाणसंठिए सवरय
Fur Fate & Pune Cy
~604~
my
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७९]]
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३०॥
दीप
णामए अच्छे उभगो पासि वोदि परमवरवेशमाहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । महाहिमवन्तस्स णं पासहरपवयस्स बपि ॥ वक्षस्कारे बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, जाव णाणाबिहपञ्चवण्णेहिं मणीहि अ तणेहि अ उक्सोमिए जाव आसयंति सयंति य (सूत्रं७९) 18 महाहिमू
कहि भन्ते इत्यादि, सर्व प्राग्वत् , नवरं द्वे योजनशते उच्चत्वेन क्षुद्रहिमवर्षधरतो द्विगुणोच्चत्वात पश्चाशद्यो- वान परत जनान्यदेषेन-भूप्रविष्टत्वेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रगिरीणां स्वोच्चत्वचतुर्थांशेनोद्वेधत्वात् , चत्वारि योजनसहस्राणि द्वेच योजनशते दशोत्तरे दश च योजनेकोनविंशतिभागान् विष्कम्भेन हैमवतक्षेत्रतो द्विगुणत्वात्, अथास्य बाहादिसूत्र-18 माह-तस्सत्ति, सूत्रत्रयमपि व्यकं, प्रायः प्राग्व्याख्यातसूत्रसदृशगमकत्वात् , नवरं अत्रास्य सर्वरलमयत्वमुक्तं, बृह-12
क्षेत्र विचारादौ तु पीतस्वर्णमयत्वमिति तेन मतान्तरमवसेयम् , अनेनैव मतान्तराभिप्रायेण जम्बूद्वीपपट्टादावस्य पीत-18 | वर्णत्वं दृश्यते, अथास्य स्वरूपाविर्भावनायाह-'महाहिमवन्तस्स ण'मित्यादि, सर्व जगतीपद्मवरवेदिकावन| खण्डवर्णकवद् ग्राह्यं ॥ सम्प्रति अत्र ह्रदस्वरूपमाह--
महाहिमवंतस्स गं बहुमज्मदेसभाए एत्य एगे महापजमदहे णामं दहे पण्णचे, दो जोअणसहस्साई आयामेणं एग जोअणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोअणाई सव्ये हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयाम विक्संभाविहूणा जा चेव पउमदहस्स बत्तत्वया सा चेव णेअवा,
॥३०॥ पउमप्पमाणं दो जोषणाई अट्ठो जाय महापउमदहयण्णाभाईहिरी अ इत्थ देवी जाव पलिओवमहिश्या परिवसइ, से एएणडेणं गोअमा! एवं बुधइ, अदुत्तरं च गं गोमा ! महापउमदहस्स सासए णामधिले पं० जण कयाइ णासी ३ तस्स णं महाप
अनुक्रम [१३४]
90000000000000000000RSS
अथ द्रह-स्वरुपं वर्ण्यते
~605~
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
092e
प्रत
सूत्राक [८०]
उमदहस्स दक्खिणिलेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणामिमुही पवएणं गंता मया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडाइ, रोहिआ ण महाणई जो पबबइ एत्व णं महं एगा जिन्भिया पं०, साणं जिभिआ जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं कोसं वाहहणं मगरमुहविउद्यसंठाणसंठिआ सम्बवइरामई अच्छा, रोहिआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्य णं महं एगे रोहिअप्पबायकुंडे णामं कुंडे पं० सवीसं जोअणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं सिण्णि असीए - जोअणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं इस जोषणाई उन्बेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओ, बदरतले वट्टे समतीरे जाव तोरणा, तस्स णं रोहि अप्पबायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस जोषणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोअणाई परिक्खेवणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सन्वयइरामए अच्छे, से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते, रोहिअदीवस्स गं दीवस्ल उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्व णं महं एगे भवणे पण्णते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अहो अ भाणिभन्यो । तस्स रोहिअप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पढा समाणी हेमवयं वासं एजेमाणी २ सहावई बट्टवेअद्भपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता पुरत्यामिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइचा पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अमुहे अ भाणिअब्बा इति जाव संपरिक्खित्ता । तस्स ण महापउमइहस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच
दीप
अनुक्रम [१३५]
~606~
Page #608
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः ॥३०॥
[८०]
य एगूणवीसहभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गता महया घडाहपवतिएणं मुताबलिहारसंठिएणं साइरेगदुजोअणसइएणं
४वक्षस्कारे पवाएणं पपडद, हरिकता महाणई जओ परसह एस्थ णं महं एगा जिविभा ५० दो जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोअणाई वि
महाहिमकक्खंभेणं अद्धं जोअणं बाहलेणं मगरमुहविउहसंठाणसंठिआ सम्वरयणामई अच्छा, हरिकता णं महाणई जहिं पवडइ एस्थ गं ति इंद्रादि महं एगे हरिकसप्पवायकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते दोष्णि अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं सत्तअउणढे जोषणसए परिक्खेवेणं मू.८० अच्छे एवं कुण्डवत्तवया सव्वा नेयम्या जाव तोरणा, तस्स ण हरिकंतष्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एत्व णे महं एगे हरिकंतदीवे णाम दीये पं० बत्तीसं जोअणाई आयामविक्वंभेणं एगुत्तर जोअणसय परिक्खेवणं दो कोसे असिए जळताओ सबरयणामए अच्छे, से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिखित्ते वण्णओ भाणिअव्वोत्ति, पमाणं च सयणिजं च अट्ठो अ माणिअब्यो । तस्स णं हरिकतप्पवायकुण्ठस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं जाव पवूडा समाणी हरिवस्सं वासं एनेमाणी २ विअडावई वट्टवेअद्धं जोअणेणं असंपत्ता पञ्चत्वाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, हरिकता णं महाणई पबहे पणवीस जोषणाई विक्खम्मेणं अवजोमणं उल्वेहेणं तवणंतरं च णं मावाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाइजाई जोअणसयाई विक्खम्भेणं पञ्च जोगणाई उब्वेदेणं, उभओ पासिं दोहि पलमपरवेइमाहिं दोहि अ वणसंडेहि संपरिक्सित्ता (सूत्र ८०)
॥३०॥ 'महाहि इत्यादि प्रायः पद्मद्रसूत्रानुसारेण व्याख्येयं । अथैतद्दक्षिणद्वारनिर्गतां नदी निर्दिशमाह-'तस्स ण'मि-18
दीप
अनुक्रम [१३५]
~607~
Page #609
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८०]
दीप
अनुक्रम
[१३५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ८० ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
त्यादि, तस्य महापद्मद्रहस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा - निर्गता सती षोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तिकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेकद्वियोजनशतिकेन, सातिरेकत्वं च रोहिताप्रपातकुण्डोद्वेधापेक्षया बोध्यं प्रपातेन प्रपतति, पोडशेत्यादिसङ्ख्यानयनं तु चतुः सहस्रद्विशतदशयोजनतदे को न विंशतिभागात्मक [ भागदश ] काद्भिरिव्यासात् सहस्रयोजनात्मके ग्रह| व्यासेऽपनीते सत्यद्धींकृताद्भवति, अन्यत् सर्व रोहितांशागमेन वाच्यं, अथ सा यतः प्रपतति तदास्पदं दर्शयति'रोहिआ ण'मित्यादि, प्राग्वत्, अथ यत्र प्रपतति तदाह- 'रोहिजा ण'मित्यादि, प्राग्व्याख्यातप्रायं, नवरं सविंशतिकं | योजनशतं गङ्गाप्रपातकुण्डतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् त्रीणि योजनशतानि अशीत्यधिकानि किञ्चिद्विशेषोनानि, ऊनत्वं करणेन यो० ३७९ क्रोशः १ कियद्धनुरधिकस्तेन किञ्चिदूनाऽशीतिरुक्ता इत्यर्थः, परिक्षेषेणेति । अधुनाऽस्य द्वीपवक्तव्यमाह - 'तस्त्र णमित्यादि व्यक्तं, नवरं गङ्गाद्वीपतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् षोडश योजनानि रोहिताद्वीपप्रमाणमित्यर्थः, 'से ण'मित्यादि, सुगमं, 'रोहिअदीव' इत्यादि, सुगमं, नवरं शेषं विष्कम्भादिकं प्रमाणं तदेव, कोऽर्थः ?अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनक्रोशमुच्चत्वेनेति चशब्दाद्रोहितादेवीशयनादिवर्णकोऽपि, अर्धश्च 'से केणणं भन्ते ! रोहिअदीवे' इत्यादि, सून्नावगम्यः सम्प्रति यथेयं लवणगामिनी तथाऽऽह्— 'तस्से' त्यादि, तस्य - रोहिताप्रपात कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन द्वारेणेत्यर्थः रोहिता महानदी प्रव्यूढा - निर्गता सती हैमवतं वर्ष आगच्छन्ती २ हैमवत क्षेत्राभि
Fur Fraternae Cy
~608~
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| ध्वक्षस्कारे
प्रत सूत्रांक
[८०]
दीप
श्रीजम्बू-मुखमायान्तीत्यर्थः शब्दापातनामानं वृत्तवैताब्यपर्वतमर्द्धयोजनेन क्रोशद्वयेनासम्प्राप्ता-असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः । द्वापालापर्वाभिमसी आवत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभजन्ती २-द्विभागं कुर्वती२ अष्टाविंशत्या सलिलासहौः समप्रा-पूर्णा, MS
महाहिमकन्तिचन्द्री- पान
ति इब्रादि या वृत्तिः । भरतनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात् , अधोभागे जगती-जम्बूद्वीपकोट्ट दारयित्वा पूर्वभागेन लवणसभुद्रं समुपसर्पति,
र प्रविशतीत्यर्थः, अथ लाघवाध रोहितांशातिदेशेन रोहितावक्तव्यमाह-रोहिआ णन्ति, अतिदेशसूत्रत्वादेव प्राग्वत् । ॥३०॥ ॥ अथास्मादुत्तरगामिनीयं नदी वावतरतीत्याशंक्याह-'तस्स ण'मिति व्यकं, 'हरिकता' इत्यादि कण्ठ्यं, अत्र 'सवरय-11
णामईति पाठो बहादर्शदृष्टोऽपि लिपिप्रमादापतित एव सम्भाव्यते, बृहत्क्षेत्रविचारादिषु सर्वासां जिहिकानां | वज्रमयत्वेनैव भणनात् , जलाशयानां प्रायो वज्रमयत्वेनैवोपपत्तेश्च, हरिकता ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं हरिकांता-18| |प्रपातकुण्डं द्वे योजनशते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्त योजनशतानि एकोनषष्टानि-एकोनपश्यधिकानि परिधिना इति, 'तस्स ण'मित्यादि, सूत्रत्रयं प्राक् सूत्रानुसारेण बोद्धव्यं, नवरं विकटापातिनं वृत्तवैतादयं योजनेना-18 सम्प्राप्ता पश्चिमेनावृत्ता सती हरिवर्ष नाम क्षेत्रं वक्ष्यमाणस्वरूपं द्विधा विभजमाना २ षट्पञ्चाशता नदीसहस्रः।
॥३०॥ समग्रा-परिपूर्णा, हैमवतक्षेत्रनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात् , पश्चिमेन भागेन लवणोदधिमुपैति । सम्प्रत्यस्याः प्रवा18| हादि कियन्मानमित्याह-'हरिकता'इत्यादि, हरिकान्ता महानदी प्रबहे-द्रहनिर्गमे पञ्चविंशतियोजनानि विष्क-1
म्भेन अर्द्धयोजनमुद्धेधेन तदनन्तरं च मात्रया २-क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्थयोः चत्वारिंशद्धनु-18
अनुक्रम [१३५]
~609~
Page #611
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [८०]
क्या, प्रतिपाय धनुर्विशतियेत्यर्थः, परिवर्द्धमाना २ मुखमूले-समुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन पञ्चयोजनान्युद्वेधेन, उभयोः पार्श्वयोभ्यिां पावरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता ॥ अथैतस्य कूटवक्तव्यमाह
महाहिमवन्ते णं भन्ते । वासहरपथए कद कूडा पं०१, गो० अट्ठ कूडा प०, ०-सिद्धाययणकूडे १ महाहिमवन्तकूडे २ हेमत्रयकूडे ३ रोहिअकूडे ४ हिरिकूडे ५ हरिकंतकूडे ६ हरिवासकूडे ७ वेरुलिअकूडे ८, एवं चुलहिमवतकूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव अब्बा, से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुबइ महाहिमवते वासहरपवए २१, गोअमा! महाहिमवंते गं बासहरपचए चुलाहिमचंतं वासहरपवर्ष पणिहाय आयामुञ्चतुव्वेहविक्खम्भपरिक्खेवेषं महंसतराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते में इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ (सूत्रं ८१)
'महाहिमवन्ते'त्ति, महाहिमवति वर्षधरपर्वते भगवन् ! कति कूटानि?, गौतमेत्यादि सूत्रं सुगम, कूटानां नामार्थ18 स्वयं-सिद्धायतनकूट महाहिमवदधिष्ठातृकूटं हैमवतपतिकूटं रोहितानदीसुरीकूट हीसुरीकूटं हरिकान्तानदीसुरीकूट
हरिवर्षपतिकूट वैडूर्य कूटं तु तद्रलमयत्वात् तत्स्वामिकत्वाञ्चेति, 'एव'मिति कूटानामुञ्चत्वादि सिद्धायतनप्रासादानां च मानादि तत्स्वामिनां च यथारूपं महर्दिकत्वं यत्र च राजधान्यस्तत्सर्व अत्रापि वाच्यं, केवलं नामविपर्यास एव देवानां तद्राजधानीनां चेति । साम्पतं महाहिमवतो नामा निरूपयन्नाह--'से केणटेण'मित्यादि, व्यक्तं नवरमुत्त
दीप
अनुक्रम [१३५]
~610~
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८१]
हरिवर्ष
दीप
श्रीजम्बू- रसूत्रे महाहिमवान् वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधरपर्वतं प्रणिधाय-प्रतीत्य क्षुद्रहिमवदपेक्षयेत्यर्थः, योजनाया विचि-8 वक्षस्कारे द्वीपशा-शत्रत्वात् आयामापेक्षया दीर्घतरक एव उच्चत्वाद्यपेक्षया महत्तरक एवेति, अथवा महाहिमवन्नामाऽत्र देवः पल्योपमस्थि-18 महाहिमकन्तिचन्द्री- तिकः परिवसति, सूत्रे आयामोच्चत्वेत्यादावेकवद्भावः समाहाराद् बोध्यः ॥ अथ हरिवर्षनामकवर्षावस:आयामो
शति कटानि या वृत्तिः ॥३०॥
कहि णं भन्ते! जम्बुद्दीचे दीवे हरिवासे णाम वासे पं०, गो०! णिसहस्स वासहरपव्ययस्त दक्षिणेणं महाहिमवन्तवासहरपब्वयस्स उत्तरेण पुरथिमलवणसमुहस्स पञ्चस्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ हरिवासे णाम वासे
सू.८२ पण्णत्ते एवं जाव पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पचत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे अट्ट जोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खम्भेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं तेरस जोषणसहस्साई तिणि अ एगसट्टे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणंति, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरत्थिमिलाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्ठा तेवत्तरि जोअणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स धणुं वाहिणणं चउरासीई जोअणसहस्साई सोलस जोअणाई चचारि एगूणवीसइ. भाए जोअणस्स परिक्खेवणं। हरिवासस्स णं भन्ते! वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे ५०, गोअमा! बहुसमरमणिजे
॥३०४॥ भूमिभागे पण्णाचे जाव मणीहिं तणेदि अ उचसोमिए एवं मणीणं वणाण य वण्णो गन्धो फासो सदो भाणिभव्यो, हरिखासे गं तत्व २ देसे तहिं २ बहुवे बुड्ढा खुहिआओ एवं जो मुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो बत्तव्योति । कहि ण भन्ते! हरि
अनुक्रम [१३६]
DARSersease
~611~
Page #613
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८२]
वासे वासे विभडावई णाम बट्टवेअद्धपब्बर पण्णत्ते!, गो०! हरीए महाणईए पञ्चत्थिमेणं हरिकताए महाणईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स २ बहुमझदेसभाए एस्थ ण विअडापई णाम बट्टवेअद्धपन्चए पण्णत्ते, एवं जो घेव सदावइस्स विक्खभुच्चत्तु वेहपरिक्खेवसंठाण वण्णावासो असो चेव विअडावइस्सवि भाणिअन्यो, णवरं अरुणो देवो पउमाई जाब विश्रद्धावइवण्णाभाई अरुणे अ इत्थ देवे महिद्धीए एवं जाब दाहिणेणं रायहाणी अवा, से फेणटेण भन्ते! एवं बुच्चइ-हरिखासे हरिखासे!, गोअमा! हरिबासे णं वासे मणुआ अरुणा अरुणो भासा से आ ण संखदलसण्णिकासा हरिवासे अ इत्व देवे महिदीए जाब पलिओषमहिईए परिवसइ, से तेणड्डेणं गोअमा! एवं बुचर ( सूत्र ८२)
'कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं अष्टौ योजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि एकं चैकोनविंशतितमं भाग योजनस्य विष्कम्भेन, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भकत्वादिति। अधुनाऽस्य बाहादित्रयमाह--"तस्स बाहा' इत्यादि, तस्स जीवा इत्यादि, 'तस्स धणु'मित्यादि, सूत्रत्रयमपि व्यक्तं ॥ अथास्य स्वरूपं पिपृच्छिषुराह-हरिवास'इत्यादि, हरिवर्षस्य वर्षस्य भगवन् ! कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः?, || गीतम! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्ता, अनातिदेशवाक्यमाह-यावन्मणिभिस्तृणश्चोपशोभितः, एवं मणीनां तृणा-18 | नां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दश्च भणितव्यः, पद्मवरवेदिकानुसारेणेत्यर्थः, अत्र जलाशयस्वरूपं निरूपयन्नाह-हरिवासे ण'मित्यादि, क्षेत्रस्य सरसत्वेन तत्र तत्र देशप्रदेशेषु क्षुद्रिकादयो जलाशया अखाता एव सन्तीत्यर्थः, अत्रैकदे-18
दीप
अनुक्रम [१३७]
Elemsin
~612~
Page #614
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८२]
दीप
अनुक्रम
[१३७]
वक्षस्कार [४],
मूलं [८२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृचिः
||३०५||
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Jan Emini
शग्रहणेन सर्वोऽपि वाप्यादिजलाशयालापको ग्राह्यः अत्र कालनिर्णयार्थमाह- 'एवं जो सुसमाए इत्यादि, एवंउक्तप्रकारेण वर्ण्यमाने तस्मिन् क्षेत्रे यः सुषमायाः - अवसर्पिणीद्वितीयारकस्यानुभावः स एवापरिशेषः- सम्पूर्णो वक्तव्यः, सुषमाप्रतिभागनामकावस्थितकालस्य तत्र सम्भवात् ॥ अथास्य क्षेत्रस्य विभाजक गिरिमाह-- 'कहि ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे हरितो- हरिसलिलाया महानद्याः पश्चिमायां हरिकान्ताया महानद्याः पूर्वस्यां हरिवर्षस्य २ बहुमध्य| देशभागे अत्रान्तरे विकटापातिनामा वृत्तवैताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, अत्र निगमयंलाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह एवं विक| टापातिवृत्तवैतान्यवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिनो विष्कम्भोश्ञ्चत्वोद्वेषपरिक्षेपसंस्थानानां वर्णव्यासो वर्णक| ग्रन्थविस्तरः चकारात्तत्रत्यप्रासाद तत्स्वामिराजधान्यादिसंग्रहः, विकटापातिप्रभाणि विकटापातिवर्णाभानि च तेन विक| टापातीति नाम, अरुणश्चात्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि तथा नाम प्रसिद्धम्, आह-विसदृशनामक| देवाद्विकटापातीति नाम कथमुपपद्यते ?, उच्यते, अरुणो विकटापातिपतिरिति तत्कल्पपुस्तकादिषु आख्यायते, सामा| निकादीनामप्यनेनैव नास्म्ना प्रसिद्ध इति सामर्थ्याद्विकटापातीति, सुस्थितलवणोदाधिपतेर्गौतमाधिपतित्वाद् गौतमद्वीप इव, बृहत्क्षेत्रविचारादिषु हैरण्यवते विकटापाती हरिवर्षे गन्धापातीत्युक्तं, तत्वं तु केवलिंगम्यं, एवं यावद्दक्षिणस्यां दिशि मेरो राजधानी नेतव्या, अथ हरिवर्षनामार्थं पिच्छिपुराह— 'से केणद्वेणं' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, उत्तरसूत्रे हरिवर्षे २ केचन मनुजा अरुणा-रक्तवर्णाः, अरुणं च चीनपिष्टादिकं आसन्नवस्तूनि अरुणप्रकाशं न कुरुते अभास्वरत्वाद्
Fur Fate & Puna e Oy
~613~
200
४वक्षस्कारे हरिवर्ष सू. ८२
॥ ३०५ ॥
Page #615
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[८२]
दीप
इमे च न तथा इत्याह-अरुणावभासा इति, केचन श्वेताःणं पूर्ववत् शङ्खदलानि-शङ्खखण्डास्ते हि अतिश्वेताः। स्युस्तेषां सन्निकाशा:-सदृशाः तेन तद्योगाद्धरिवर्ष क्षेत्रमुच्यते, कोऽर्थ:-हरिशब्देन सूर्येश्चन्द्रश्च तत्र केचन मनुष्याः सूर्य इवारुणा अरुणावभासाः, सूर्यश्चात्र रक्तवर्णप्रस्ताचादुद्गच्छन् गृह्यते, केचन चन्द्र श्व श्वेता इति, हरय श्य | | हरयो मनुष्याः, साध्यवसानलक्षणयाऽभेदप्रतिपत्तिः, ततस्तद्योगात् क्षेत्रं हरय इति व्यपदिश्यते, हरयश्च तद्वर्ष च हरिवर्ष, यदा च मनुष्ययोगात् हरिशब्दः क्षेत्रे वर्तते तदा स्वभावाद्वहुवचनान्तः प्रयुज्यते, यदाह तत्त्वार्थमूलटीकाकृद् गन्धहस्ती-हरयो विदेहाच पश्चालादितुल्या" इति. चदिवा हरिवनामा अत्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि हरिवर्ष ॥ अथानन्तरो क्षेत्रं निषधाइक्षिणस्यामुक्तं तर्हि स निषधः कास्तीति पृच्छतिकहि णं भन्ते । जम्बुद्दीवे २ णिसहे णामं वासहरपल्यए पण्णते?, गोमा ! महाविदेहस्स पासस्स दक्खिणेण हरिवासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुरीचे दीवे णिसहे णाम वासहरपव्यए पण्णते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पञ्चत्धिमिल्लाए जाब पुढे, चत्तारि जोषणसयाई उद्धं उचत्तेणं चत्तारि गाउअसयाई उव्वेहेणं सोलस जोअणसंहस्साई अढ व बायाले जोअणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्षम्मेणं, तस्स पाहा पुरथिमपञ्च स्थिमेणं पीस जोमणसहस्साई एग च पणहूँ जोअणसयं दुणि अ एगूणवीसइभाए जोभणस्स अद्धभागं च मायामेणं, तस्स जीवा उत्तरेण जाव चउणवईजोअणसहस्साई एगं च ठप्पण्णं जोअणसयं दुणि अ एगूणवीसहभाए
अनुक्रम [१३७]
अथ निषधपर्वतस्य वर्णनं क्रियते
~614 ~
Page #616
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३०६॥
दीप
जोमणस्स आयामेणंति, तस्स धणु दाहिगणं एग जोअणसयसहस्सं चवीसं च जोअणसहस्साई तिणि छायाले जोअणसए णव श्वक्षस्कारे य एगणवीसइभाए जोमणस्स परिक्खेषेणंति रुअगसंठाणसंठिए सवतवणिज्जमए अक्छे, उमओ पासिं दोहि पठमवरदाहिं शनिपधः पदोहि अबणसंडेहिं जाव संपरिक्खिते, णिसहस्स ण वासहरपब्वयस्स उपि बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णसे जाप आसयंति चंतःसू.८३ सयंति, तस्स ण बहुसमरमणिजस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिमिछिदहे णाम दहे पण्णते, पाईपचीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोभणसहस्साई आयामेणं दो जोमणसहस्साई विक्खम्भेणं दस जोषणाई जम्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामचकूले, तस्स णं तिगिच्छिरहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोणिपडिरूवगा पं० एवं जाव आयामविक्सम्भविहूणा जा व महापउमदहस्स वत्तव्बया सा घेव तिगिछिदहस्सवि वत्तब्बया तं चेव पउमदहप्पमाणं अट्ठो आव तिगिठिवण्णाई, पिई अ इस्थ देवी पलिओवमहिईआ परिवसइ, से तेणतुणं गोयमा! एवं वुचइ तिगिछियौ तिनिछिदहे (सूत्र ८३) 'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक, उत्तरसूत्रे महाविदेहस्य वर्षस्य दक्षिणस्यां हरिवर्षस्योत्तरस्यां पौरस्त्यलवणोदस्य | पश्चिमायां पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीने-1 | त्यादि प्राग्वत् , चत्वारि योजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतान्युधेिन-भूप्रवेशेन' मेरुवर्जसमयक्षेत्रगिरीणां ॥३०॥ || स्वोच्चत्वचतुर्थांशेनोद्वेधत्वात् , पोडश योजनसहस्राणि द्विचत्वारिंशानि-द्विचत्वारिंशदधिकानि अष्टौ च योजनशतानि | &ा द्वौ च एकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेन, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भमानत्वात् , अथ बाहादिसूत्रत्रयमाह
अनुक्रम [१३८]
~615~
Page #617
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
eseseseen eseeeeeeeeeee
'तस्स वाहाँ'इत्यादि, 'तस्स जीवा' इत्यादि, अथ यावत्पदात् पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा पुरस्थिमि-18 | लाए लवणसमुहं जाव पुट्ठा इति ग्राह्यं, 'तस्स घणु मित्यादि सर्व पूर्वसूत्रानुसारेण व्याख्येयं । अथ निषधमेव विशे-18 पणैर्विशिनष्टि-रुअग'इत्यादि, अत्र यावत्पदात् सचओ समंता इति ग्राह्यं, शेष प्राग्वत् । अथास्य देवक्रीडायो-18 ग्यत्वं वर्णयन्नाह-णिसह इत्यादि, अत्र यावत्पदात् आलिङ्गपुष्करादिपदकदम्बकं बोध्यं । अथ इदवक्तव्यावसर:-18 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे महानेका तिगिंछि:-पौष्परजस्त-18
प्रधानो द्रहस्तिगिंछिद्रहो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः, प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिंछि' इति निपातः देशीशब्दो वा, अन्यत् || | सर्व प्रागनुसारेणेति, अथास्यातिदेशसूत्रेण सोपानादिवर्णनायाह-'तस्स णमित्यादि, तस्य-तिगिंछिद्रहस्य चतुर्दिा चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एवमित्थंप्रकारेण इदवर्णके क्रियमाणे यावच्छब्दोऽत्र कानवाच्यव्ययं । तेन यावत्परिपूर्णा यैव महापद्मद्रहस्य वक्तव्यता आयामविष्कम्भविहीना सैव तिगिंछिद्रहस्य वक्तव्यता, एतदेव व्यक्त्या आचष्टे-'तं चेव'इत्यादि, तदेव-महापद्मद्रहगतमेव पद्मानां-धृतिदेवीकमलानां प्रमाण-एककोटिविंशतिलक्षपञ्चाशत्सहस्रक शतविंशतिरूपं, अन्यथाऽत्र पद्मानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापद्मद्रहगतपोभ्यो द्विगुणत्वेन विरोधापातात्, द्रहस्य च प्रमाणमुद्धेधरूपं बोध्यं, आयामविष्कम्भयोः पृथगुक्तत्वादिति, अर्थः तिगिंछिद्रहस्य वाच्यः, 18
दीप
अनुक्रम [१३८]
भीजम्बू, ५२
~616~
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८३]
esee
दीप
श्रीजम्बू
स चैर्य से केणद्वेण भन्ते! एवं पुषइ-तिर्गिछिदहे ' इत्यादि पारसूत्रानुसारेण वाच्यं यावत् तिर्गिछिद्रहवर्णाभानि वक्षस्कारे द्वीपशा-10 उत्पलादीनि घृतिश्चात्राधिपत्यं परिपालयति 'से तेणटेणं इत्यादि प्राग्वत् ॥ अथास्माद्या दक्षिणेन नदी प्रवहति तामाह- सनदीकतिन्तिचन्द्रीया वृचिः
तस्स णं तिगिरिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पबूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साई चत्तारिअ एकवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणामिमुद्दी पचएणं गता महया घडमुहपवित्तिएणं जाब साइरेगचउजोमणसइएणं पवाएणं
सू.८४ ॥३०७॥
पवइ, एवं जा पेव हरिकन्ताए बत्तन्वया सा चेव हरीएवि अब्बा, जिभिआए कुंडस्स दीवस्स भवणस त व पमाण अट्ठोऽवि भाणिभव्यो जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुई समप्पड, तं व पवहे अ मुहमूले अ फ्माण बहो म जो हरिकम्ताए जाव वणसंडसंपरिक्सिन्ता, तरस गं तिगिछिरहस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं सीओमा महाणई पबूदा समाणी सत्त जोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसहभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही पवएणं गंता मया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेगचउजोअणसइएणं पवारणं पवडइ, सीओआ णं महाणई जओ पवडइ एल्थ णं महं एगा जिभिषा पण्णचा चत्तारि जोषणाई आयामेणं पण्णास जोषणाई विक्खम्भेणं जोअणं पाहणं मगरमुहविउडुसंठाणसंठिा सबबरामई अच्छा, सीओआ णं महाणई जहिं पवडद एत्य णं महं एगे सीओअप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे
18॥३०७॥ पण्णत्ते चत्तारि असीए जोअणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरसअट्ठारे जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्वेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया अठवा जाव तोरणा । तस्स णं सीओअप्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एत्थ महं एगे सीओअदीवे णाम दीवे पण्णत्ते
अनुक्रम [१३८]
~617~
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४]
दीप
पाउसटि जोषणाई मायामविक्खम्भेण दोषि विउत्तरे जोजणसए परिक्वेवणं दो कोसे कसिए जलताजो सन्जवइरामए अची सेसं तमेव बेझ्यावणसंडभूमिभागभवणसयणिनअट्ठो माणिअबो, तस्स णं सीओअप्पवावकुण्हस्स उत्तरिलेणं तोरणेणं सीओआ महाणई पवूढा समाणी देवकुरुं एज्नेमाणा २ चित्तविचित्तकूडे पवए निसहदेवकुरुसूरसुलसविजुप्पभदहे अ दुहा विभयमाजी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भदसालवर्ण एज्जेमाणी २ मंदरं पब्वयं दोहिं जोअमेहिं असंपत्ता पचत्थिमामिमुद्दी आवत्ता समाणी अहे विजुप्पमं वक्खारपवयं दारइत्ता मन्दरस्स पध्वयस्स पचस्थिमेणं अवरविदेहं बासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चकवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २. पञ्चहिं सलिलासयसहरसेहिं दुतीसाए असलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जयंतस्स वारस्स जगई वालपत्ता पचस्थिमेणं लवणसमुई समप्पेति, सीओमा णं महाणई पवहे पण्णास जोषणाई विक्यम्भेणं जोअणं उल्वेहेणं, तयणतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले पञ्च जोअणसयाई विक्सम्भेणं दस जोषणाई लव्हेणं उमओपासिं दोहिं पलमवरवेइआदि दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खिता । णिसढे णं भन्ते ! वासहरपब्वए णं कति कूडा पण्णचा !, गोयमा! णव कूडा पण्णता, तंजहा-सिद्धाययणकूडे १ सिटकूडे २ हरिवास कूडे ३ पुष्यविदेहकूडे ४ हरिकूडे ५ घिईकूडे ६ सीओआकूडे ७ अवरविदेहकूडे ८ अगकूडे ९ जो चेव चुहहिमवत्तकूडाणं नवत्तविक्खम्भपरिक्खेषो पुरुषवणिओ रायहाणी असशेव. इहपि अन्वा, से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुधा णिसहे वासहरपब्वए २१, गोअमा! णिसदेणं यासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिआ उसमसंठाणसंठिआ, णिसहे अ इत्थ देवे महिदीए जाब पलिओवमहिई परिवसद, से सेणद्वेणं गोअमा! एवं बुचद णिसहे वासहरपव्वर २ (सूत्र ८४)
Receneer
Scottotatoercedeseseaccescacaese
अनुक्रम [१३९]
~618~
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८४]
दीप
अनुक्रम
[१३९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥२०८॥
'तस्स ण' मित्यादि तस्य तिर्गिछिद्रहस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन हरिनाम्नी हरिसलिलाऽपरपर्याया महानदी प्रव्यूढा | सती सप्ठयोजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि एकविंशानि - एकविंशत्यधिकानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा इत्यादि प्राग्वंत्, गिरिगन्तव्योपपत्तिस्तु षोडशसहस्राष्टशतद्वाचत्वारिंशद्योजनप्रमाणान्निषधव्यासाद् द्विसहस्रयोजनप्रमाणे इदव्यासेऽपनीते शेषेऽर्द्धकृते भवतीति । निगमयन्नतिदेशसूत्रमाह--- 'एव' मित्यादि, 'एव' मित्युक्तप्रकारेण यैव हरिकान्ताया वक्तव्यता सैव हरितोऽपि महानद्या नेतव्या, जिव्हिकाया हरिकुण्डस्य हरिद्वीपस्य भवनस्य च तदेव प्रमाणं हरिकान्ताप्रकरणो कमवसेयं, अर्थोऽपि हरिद्वीपनाम्नो वाच्यः, अत्र याव | त्पदवाच्यं साक्षालिखितं च सर्वं हरिकान्ताप्रकरण इव ज्ञेयं ॥ अथास्माद्या उत्तरेण नदी प्रवहति तामाह - ' तस्स णं तिर्गिछिद्दह' इत्यादि, व्यक्तं गिरिगन्तव्यं तु हरिनद्या इवावसेयं, अथास्या जिव्हिकास्वरूपमाह - 'सीओओ' इत्यादि, उत्तानार्थं, नवरमायामेन चत्वारि योजनानि, हरिन्नदीजिव्हिकाद्विगुणत्वात् पञ्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन हरिन्न| दीप्रवहतो द्विगुणस्य सीतोदाप्रवहस्य मातव्यत्वात्, एवं बाहल्यमपि पूर्वजिव्हिकातो द्विगुणमवसेयम्, अथ कुण्डस्वरूपमाह---'सीओओ णं महाणई जहिं' इत्यादि, 'एत्थ ण'मित्यादि, अत्र कुण्डस्य योजनसङ्ख्या हरिकुण्डतो द्वैगुण्येनोपपादनीया । अथ सीतोदाद्वीपस्वरूपमाह -- ' तस्स ण'मित्यादि, अत्र शीतोदाद्वीपः आयामविष्कम्भाभ्यां चतुःषष्टियोजनानि पूर्वनदी द्वीप तो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात् व्यधिके द्वे शते परिक्षेपेण, अत्र सूत्रेऽनुकमपि करणवशात्
Fur Frue&rinae Cy
~619~
४वक्षस्कारे सनदीकतिगिछिद्रहवर्णन
सू. ८४
॥३०८ ॥
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४]
| किश्चित्साधिकत्वं ज्ञेयं, द्वौ कोशी जलादुत्थितः सर्ववज्रमयः अच्छः शेषमुक्कातिरिकं गङ्गाद्वीपप्रकरणोक्तमयसेयं, तच्च | विनेयस्मारणार्थ नामतो निर्दिशति-वेदिकावनखण्डभूमिभागभवनशयनीयानि वाच्यानि, अत्र सूत्रे विभक्तिलोपः।
प्राकृतत्वात् , अर्थश्च शीतोदाद्वीपस्य गङ्गाद्वीपवत् भणितव्य इति । अथ यथेयं पयोधिमुपयाति तथाह-'तस्स णं18 । सीओअप्पवाय' इत्यादि, तस्य शीतोदाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन शीतोदा महानदी प्रब्यूढा सती देवकुरून् || | इयूती २-गच्छन्ती २, अन्न सूत्रे एकवचनं आकारान्तत्वं च प्राकृतत्वात्, चित्रविचित्रकूटी पर्वती पूर्वापरकूलब-18 तिनी निषध १ देवकुरु २ सूर ३ सुलस ४ विद्युत्मभ ५ द्रहांश्च द्विधा विभजन्ती २-तन्मध्ये वहन्ती २, अत्रेयं ४ | विभागयोजना-चित्रविचित्रकूटपर्वतयोर्मध्ये वहनेन चित्रकूट पर्वतं पूर्वतः कृत्वा विचित्रकूटं च पश्चिमतः कृत्वा181 | देवकुरुषु वहन्ती इति, द्रहांश्च पश्चापि समश्रेणिवर्तिन एकैकरूपान् द्विभागीकरणेन वहन्तीति, अत्रान्तराले देवकुरु
वर्तिभिश्चतुरशीत्या सलिलासहरापूर्यमाणा २ भद्रशालवन-मेरुप्रथमवनं इयूती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्याIS| मसम्प्राप्ता, शीतोदामेर्वोरष्टौ कोशा अन्तरालमित्यर्थः, ततः पश्चिमाभिमुखी परावृत्ता सती विद्युत्प्रभं वक्षस्कारपर्वतं 18 नैर्ऋतकोणगतकुरुगोपकगिरिमधो दारयित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेनापरविदेहवर्ष-पश्चिमविदेहं द्विधा विभ18| जन्ती २, एकैकस्माचक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ नदीसहस्रैरापूर्यमाणा २ तथाहि-अस्या दक्षिणकूलगतविजया-13 || टके द्वे द्वे महानद्यौ गङ्गासिन्धुनाम्नी चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारे उत्तरकूलवार्तिविजयाष्टके च द्वे द्वे महानद्यौ
दीप
अनुक्रम [१३९]
Ge
JinElemmitings
~620~
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [८४]
दीप
18 रक्तारक्तवतीनानी तावत्परिवार स्त इति प्रतिषिजयमष्टाविंशतिनदीसहस्राणि, अथ सर्वाप्रेणास्था नदीपरिवारं विशेषण- वक्षस्कारे द्वीपशा-18द्वारेणाह-पञ्चभिर्नदीलक्षद्वात्रिंशता च नदीसहस्रः समप्रा-परिपूर्णा, तथाहि-अस्या उभयकूलवर्सिविजयषोडशकेऽष्टा- सनदीकतिन्तिचन्द्री
18 विंशतिनंदीसहस्राणीत्यष्टाविंशतिसहस्राणि पोडशभिर्गुण्यंते, जातं चतुर्लक्षाण्यष्ट चत्वारिंशत्सहस्राणि, अत्र राशी कुरु- गिछिद्रहया चिः
18 गत ८४ सहस्रनदीप्रक्षेपे जातं यथोक्तं मानमिति, अघो जयन्तस्य द्वारस्य-पश्चिमदिग्वर्तिजम्बूद्वीपद्वारस्य जगती ॥३०९॥ 18 दारयित्वा पश्चिमेन-पश्चिमभागेन लघणसमुद्रं समुपसर्पतीति ॥ अधुनाऽस्वा विष्कम्भाधाह-'सीओआइत्यादि,
18 शीतोदा महानदी प्रवहे-इदनिर्गमे पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्भेन, हरिनदीप्रवहादस्याः प्रवहस्य विगुणस्त्रात्,18 18 योजनमुद्देधेन-उण्डत्वेन, पञ्चाशद्योजनानां पश्चाशता भागे एकस्यैव लामात्, तदनन्तर मात्रया २-क्रमेण २18
प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्थयोरशीतिधनुर्वृड्या, प्रतिपाय चत्वारिंशद्धनुर्ववेत्यर्थः, परिवर्बमामा २ मुखमूले-18 समुद्रप्रवेशे पञ्च योजनशतानि निकम्मेन प्रवहविष्कम्भापेक्षया मुखविष्कम्भस्य दशगुणत्वात् , दशयोजनान्युद्वेधेन, आद्यप्रवहोद्वेधापेक्षयाऽस्य दशगुणत्वात्, शेषं व्यक्तं ॥ अथ निषधे कूटवक्तव्यमाह-'णिसढे 'मित्यादि,
॥३०९॥ यथा सीतोदाया उत्तरकूल विजयेषु रकारकवत्यौ दक्षिणकूलकाये च महासिंधू तथा न शीतायाः किन्तु उत्तरतो गासिन्धू दक्षिणत इतरे इति (ही पत्ती)३ गंगादिसीतोदापर्यन्तनदीनां अखप्रवेशान मित्तं समुद्रोऽपि तत्र तत्र प्रदेशे अनादिजयस्थित्या यायनलप्रवेशोचितप्रणालयुमा संभाव्यते अतो न किंचिदनुप-| || पर्व (ही. वृत्ती)। तेन योजनसहखनिन्नत्वे कथं शीतोदायाः समुद्रे प्रवेश इति नाशलय ।
अनुक्रम [१३९]
~621 ~
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८४]
18 सिद्धायतनकूट निषधवर्षधराधिपवासकूट हरिवपक्षेत्रपतिकूट पूर्वविदेहपतिकूटं हरिसलिलानदीसुरीकूटं धृतिः-तिगि
छिद्रहसुरी तस्याः कूट शीतोदामदीसुरीकूट अपर विदेहपतिकूट रुचकः-चक्रवालगिरिविशेषस्तदधिपतिकूट, अत्र
वक्तव्येऽतिदेशसूत्रमाह-'जो चेष'इत्यादि, य एव क्षुद्रहिमवति कूटानामुच्चत्वविष्कम्भाम्यां सहितः परिक्षेपः उच्चत्व18 विष्कम्भपरिक्षेपः, चशब्दात् कूटवर्णकः पूर्ववर्णितः-अधस्तनमन्थोकः स एव इहापि ज्ञातम्या, तथाहि-पश्चयो18 जनशताम्युच्चत्वं मूलविष्कम्भश्चेत्यादि, राजधानी च सैव इहापि नेतव्या, अत्र लिङ्गविपरिणामेनार्थयोजना इति, 8 कोऽर्थः !-यथा क्षुद्रहिमवद्भिरिकूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसङख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिबग्यान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे
क्षुद्रहिमवती नानी राजधानी तथा इहापि निषधा नाम राजधानीति, अधुनाऽस्य नामार्थ प्रश्रयन्नाह--'से केणढण'-8 मित्यादि, व्यक्तं, नवरं निषधे वर्षधरपर्वते बहूनि कुटानि निषधसंस्थानसंस्थितानि, तत्र नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो-वृषभः पृषोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः तत्संस्थानसंस्थितानि, एतदेव पर्यायान्तरेणाह-- | वृषभसंस्थितानि, निषधश्चात्र देव आधिपत्य परिपालयति, तेन निषधाकारकूटयोगाग्निषधदेवयोगाद्वा निषध इति व्यवहियते इति ॥ अथ यन्निषधसूत्रे 'महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेण मित्युक्तं तत् किं महाविदेहमित्याहकहि णं भन्ते! जम्मुहीये दीवे महावि देहे णामं वासे पण्णत्ते !, गोअमा! णीलवम्सस्स बासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं णिसहस्स वासहरपवयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुरस्स पचत्थिमेण पञ्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं एत्थं णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे गार्म
दीप अनुक्रम [१३९]
200000000000000000
SacasasaRSSR00000000
2006
अथ महाविदेहक्षेत्रस्य वर्णनं आरभ्यते
~622~
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
४वक्षस्कारे
18 महाविदेह 18 वर्णन
प्रत सूत्रांक [८५]
द्वीपशान्तिचन्द्री-18 या चिः ॥३१०॥
aaeeeeeeeeeagasa9000000000
दीप
वासे पणते. पाईणपढीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलिअंकसठाणसंठिए दुहा लवणसमुरं पुढे पुरथिम जाब पुढे पचत्थिमिलाए कोडीए पथस्थिमिळ जाव पुढे तित्तीसं जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए जोभणसए बचारि अ एगूणवीसहभाए जोअणस्स चिक्खम्भेणति, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं तेत्तीसं जोअणसहस्साई सत्त य सत्तसट्टे जोअणसए सत्त य एगूणवीसहभाए जोअणस्स आयामेणंति, तरस जीवा बहुमझदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरथिमिलाए फोडीए पुरथिमिल जाव पुट्ठा एवं परथिमिलाए जाव पुढा, एग जोयणसयसहस्सं आयामेणंति, तस्स पणुं उभभो पासिं उत्तरदाधिणेणं पगं जोयपसयसहस्सं अट्ठावणं जोअगसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोअणसवं सोलस य एगूणवीसहभागे जोयणस्स किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणंति, महाविदेहे थे वासे चउबिहे चउप्पडोआरे पण्णते, तंजहा-पुथविदेहे १ अवरविदेहे २ देवकुरा ३ उत्तरकुरा ४, महाविदेहस्स णं भन्ते ! बासस्स केरिसए आगारभावपढोआरे पण्णत्ते ?, गोमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव । महाविदेहे णं भन्ते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते , तेसि णं मणुआणं छबिहे संघयणे छबिहे संठाणे पञ्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जपणेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं पुल्चकोडीआज पालेन्ति पालेता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अप्पेगइआ सिप्रति जाव अंतं करेन्ति । से केण्डेणं भन्ते! एवं बुच्चइ-महाविदेहे वासे २१, गोअमा! महाविदेदे णं वासे भरहेरवयमषयहरण्णवयहरिवासरम्मगवासेहियो आयामविक्खम्भसंठाणपरिणाहणं विच्छिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए थेष सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहा य इत्य मणूसा परिवसंति, महाविदेहे अ इत्थ देवे
अनुक्रम [१४०]
Hel
~623~
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----................----
----- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८५]
महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोभमा! एवं वुचइ-महाविदेदेहे वासे २, अदुत्तरं च णं गोअमा! महाविदेहस्स वासस्स सासए गामवेजे पण्णत्ते, जंण कवाइ णासि ३ (सूत्र ८५) 'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! इत्यादि सूत्रं स्वयं योज्यं, नवरं महाविदेहं नाम वर्ष-चतुर्थ क्षेत्र प्रज्ञप्तं ?, गौतम! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्रविभागकारिणो दक्षिणेनेत्यर्थः 'णिसहस्स'इत्यादि व्यक्तं, नवरं पल्यसंस्थानसंस्थितमायतचतुरस्नत्वात् , विस्तारेण त्रयविंशयोजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चतुरशीत्यधिकानि चतुरश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन, निषधविष्कम्भाद् द्विगुणविष्कम्भकत्वात् , अथ बाहादिसूत्रवयमाह--18 'तस्स बाहा' इत्यादि, तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य पूर्वापरभागेन बाहा प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि सप्त च योजन-18 शतानि सप्तषष्टयाऽधिकानि सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनेति, ननु "महया धणुपडाओ डहरागं सोहिआहि घणुपर्छ। जं तत्थ हवइ सेसं तस्सद्धे णिहिसे वाहं ॥१॥” इति वचनात् महतो धनुःपृष्ठाद् विदेहानां दक्षिणार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च सम्बन्धिनो लक्षमेकमष्टपञ्चाशत्सहस्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजनानां पोडश च | कलाः साद्धोः योजन १५८११३ कलाः १६ कलार्द्ध चेत्येवंपरिणामाल्लघु धनुःपृष्ठं निषधादिसम्बन्धि लक्षमेकं चतुर्विशतिसहस्राणि चीणि शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनानां नव च कला योजन १२४३४६ कला ९ इत्येवंपरिमाणं शोधय, ततश्च शेपमिदं त्रयविंशत्सहस्राणि सप्त शतानि सप्तपष्टयधिकानि योजनानां सप्त च कलाः सार्दाः
दीप
अनुक्रम [१४०]
Recemeseseksee
caesesesectseccceceaectices
E
misinnel
~624 ~
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
न्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक [८५]
दीप
श्रीजम्बू- योजनानां ३३७६७ कला ७ कलाच, एम. षोडश योजनसहखाणि अष्टौ शतानि वशीत्यधिकालि योजनानां वक्षस्कारे द्वीपशा- अयोदश च कलाः सपादाः इत्येवंरूपा बाहा घिदेहानां सम्भवति, अत्र तु प्रयसिंपत्सहस्रादिरूपा उक्ता सत्किमिति, महाविदेह
| उच्यते, सर्वत्र वैताब्यादिषु पूर्ववाहा अपरचाहा च चावती दक्षिणसस्तावती उत्तरतोऽपि परं व्यवहितत्वेन सा सम्मी- वर्णन या वृतिः
ल्व नोका, इयं तु सम्मिलितत्वात् संमील्यैवोक्ता सूत्रे दक्षिणवाहाप्रमाणैवोत्तरघाहेत्येनमर्थ बोधवितुमिति । अथास्य ॥३१॥ ||जीवामाह-सस्स जीवा'इत्यादि, तस्य विदेहस्य जीवा बहुमध्यदेशभागे विदेहमध्ये प्रत्यर्थः, अन्वेषांत वर्षवर्ष-18
धराणां चरमप्रदेशपतिजींवा अस्य तु मध्यप्रदेशपतिरित्यर्थः, इयमेव च जम्बूद्वीपमध्यं अत एव चायामेन लक्षयो1 जनमाना, मध्यमात्परतस्तु जम्बूद्वीपस्य सर्वत्र दक्षिणत उत्तरतो वा लक्षाच्यूनन्यूनमानत्वात् , अथास्य धनुःपृश्चमाह
तस्स ध[इत्यादि, तस्य विदेहस्योभयोः पार्श्वयोः एतदेव विवृणोति-'उत्तरदाहिणेणं ति उत्तरपार्थे दक्षिणपाचे || |वा एकं योजनलक्षं अष्टपञ्चाशच योजनसहस्राणि एकं च योजनशतं त्रयोदशोत्तरं षोडश कोनविंशतिभागान || IS योजनस्य किंचिद्विशेषाधिकान् परिक्षेपेण, यच्चान्यत्र सार्बाः पोडश कला उक्तास्तदत्र किंचिद्विशेषाधिकपदेन संगृ
हीतं, उद्धरितकलांशास्तु न विवक्षिता इति, अत्राधिकार्थसूचनार्थ करणान्तरं दर्श्यते-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिस्रो लक्षाः || ॥३१॥ IS षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां क्रोशत्रयमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशांगुलान्येकमागुलं योजन १३१६२२७ क्रोश ३ घनूंषि १२८ अंगुल १३ अर्डागुलं, तत्र पोजनराशिरडीक्रियते, लब्धमेकं लक्षमष्टापञ्चाशत्स
अनुक्रम [१४०]
RI
~625~
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८५]
दीप
हस्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजन १५८११३, यत्त्वेक योजनं शेष तत्कलाः क्रियन्ते लब्धाः एकोनविंशतिः || कोशत्रये च लब्धाः सपादाश्चतुर्दश कलाः उभयमीलने जाताः सपादास्त्रयस्त्रिंशत् कलाः सासामर्दै लब्धाः सार्द्धाः | षोडश कलाः, यश्च कलाया अष्टमो भागोऽधिक उद्धरति यानि च धनुषामः लन्यानि चतुःषष्टिर्धनूंषि यानि च ॥
सार्द्धत्रयोदशांगुलानामढे पादोनानि सप्तांगुलानि तदेतत्सर्वमरूपत्वान्न विवक्षितमिति ॥ अधुना विदेहवर्षस्य भेदान्नि-1 | रूपयन्नाह---'महाविदेहे णमित्यादि, महाविदेहं वर्ष चतुर्विषं-चतुष्प्रकारं पूर्व विदेहाद्यन्यतरस्य महाविदेहत्वेन व्यप-1 दिश्यमानत्वात् , अत एव चतुर्यु-पूर्वापरविदेहदेव कुरूत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतार:-समवतारो विचारणी-||
यत्वेन यस्य तत्तथा, चतुर्विधस्य पर्यायो वाऽयं, तत्र पूर्वविदेहो यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतः प्राग्विदेहः, पर्व पश्चिमतः सोऽप| रविदेहः दक्षिणतो देवकुरुनामा विदेहः उत्तरतस्तु उत्तरकुरुनामा विदेहा, ननु पूर्वापर विदेहयोः समानक्षेत्रामुभाषक-131
त्वेन महाविदेहव्यपदेश्यताऽस्तु, देवकुरुत्तरकुरूणां स्वकर्मभूमिकरवेन कथं महाविदेहत्वेन व्यपदेशः', उच्यते, प्रस्तुत| क्षेषयोभरताद्यपेक्षवा महाभोगत्वात् महाकायमनुष्ययोगित्वान्महाविदेहदेवाधिष्ठेयत्वाच महाविदेहवाध्यता समुचिते| वेति सर्व सुस्थं । अथास्य स्वरूपं वर्णयितुमाह-महाधिदेह'इत्यादि, प्राग्वत्, अत्र यावत्करणात् 'आलिंगपुक्सरे इषा जाव णाणाविहपञ्चवण्णेहिं मणीहिं तणेहि अ उवसोभिए' इति, सम्प्रवत्र मनुजस्वरूपमाह-महानिदेहे ण'-13 मित्यादि, प्राग्वत्, आभ्यां सूत्राभ्यामस्य कर्मभूमित्वमभाणि अन्यथा कर्षकादिप्रवृत्तानां सृणादीनां कृत्रिमत्वं सर्व
अनुक्रम [१४०]
Facreedesepecesteo
X
mjimmitrinyou
~626~
Page #628
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८५]
ececeae
श्रीजम्बू- जाताना च मनुष्याणा पञ्चमगतिगामित्वं न स्यात् , अथास्य नामार्थ प्रश्रयन्नाह-'से केणटेण'मित्यादि, प्राग्वत्, वक्षस्कारे
द्वीपशा-1 प्रश्नसूत्रं सुगन, उत्तरसूत्रे-गौतम! महाविदेहो वर्ष भरतैरावतहमवतहरण्यहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः आयामविष्कम्भसंस्थान-11 | महाविहेद न्तिचन्द्री
परिणाहेन, समाहारादेकवद्भावः, तत्रायामादित्रिकं प्रतीतं, परिणाहः-परिधिः, अत्र च व्यस्ततया विशेषणनिर्देशेऽपि || या वृचिः
| योजना यथासम्भवं भवतीत्यायामेन महत्तरक एव लक्षप्रमाणजीवाकत्वात्, तथा विष्कम्भेन विस्तीर्णतरक एव ॥३१२॥ साधिकचतुरशीतिषट्शताधिकत्रयस्त्रिंशद्योजनसहरप्रमाणत्वात्, तथा संस्थानेन पल्यरूपेण विपुलतरक एव पार्श्वद्व
| येऽपीपयोस्तुल्यप्रमाणत्वात्, हैमवतादीनां पल्यङ्कसंस्थितत्वेऽपि पूर्वजगतीकोणानां संवृतत्वेन पूर्वापरेषयोवैषम्यादिति, तथा परिणाहेन सुप्रमाणतरक एव, एतद्धनुःपृष्ठस्य जम्बूद्वीपपरिध्यमानत्वादिति, अत एव महान्-अतिशयेन विकृटो-गरीयान् देहः-शरीरमाभोग इतियावत् येषां ते महाविदेहाः, अथवा महान्-अतिशयेन विकृष्टो-गरीयान् देह:शरीर कलेवरं येषां ते तथा, ईशास्तत्रत्या मनुष्याः, तथाहि-तत्र विजयेषु सर्वदा पञ्चधनुःशतोच्छ्रया देवकुरूत्तर-18 कुरुषु त्रिगब्यूतोच्छ्रयाः ततो महाविदेहमनुष्ययोगादिदमपि क्षेत्रं महाविदेहाः, महाविदेहश्च शब्दः स्वभावाद् बहुवच
॥३१॥ नान्त एव, एतच्च प्रागेवोक्तं, ततो बहुवचनेन व्यवहियते, दृश्यते च क्वचिदेकवचनान्तोऽपि, तदपि प्रमाणं, पूर्वम-131 हर्षिभिस्तथाप्रयोगकरणात् , अथवा महाविदेहनामा देवोऽत्राधिपत्यं परिपालयति, तेन तद्योगादपि महाविदेह इति, | शेष प्राग्वत् ॥ सम्प्रत्युत्तरकुरूर्वकुकामस्तदुपयोगित्वेन प्रथमं गन्धमादनवक्षस्कार गिरिप्रश्चमाह
दीप
अनुक्रम [१४०]
Presea
JaElestinOT
~627~
Page #629
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
कहिणं भन्ते ! महाविदेश बासे गन्धमायणे णामं वक्खारपश्चए पण्णत्ते!, गोअमा। णीलवन्तस्स बासहरपथ्यवस्स दाहिणेणं मंदरस्स फवयस्स उत्तरपत्थिमेणं गंधिलाबइस्स विजयस्स पुरच्छिमेमं उत्तरकुराए पचत्यिमेणं एवणं महाविदेहे गाने गन्धमायणे णामं वक्खारपन्चए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपढीणविच्छिपणे तीसं जोअणसहस्साई दुण्णि ब उत्तरे जोअबसर छच्च य एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं णीलवंतवासहरपब्वयंतेणं चत्वारि जोअणसयाई उद्धं उच्चतेगं चचार माउअसयाई सव्वहणं पच जोमणसयाई विक्खम्भेणं तयणतरं च णं मायाए २ उस्सेहुबेहपरिवद्धीए परिवद्रमाणे २ विक्सम्भपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदरपवयंतेणं पञ्च जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च गाउअसयाई उबेहेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं विक्खम्भेणं पण्णत्ते गयदन्तसंठाणसंठिए सबस्यणामए अच्छे, उभजो पासिं दोहि पउमवरवेइआर्हि दोहि अ वणसंडेहि सबभो समन्ता संपरिक्खिसे, गन्धमायबास गं बक्खारसायस्स कपि बहुसमरमषिले भूमिभागे जाव आसयन्ति । गन्धमावणे णं वक्वारपाए कति कूड़ा षण्णता !, मो०! सत्त कूडा, तंजा सिहाययणकूडे १ गन्धमायणकूहे २ गंधिलाईकूडे ३ उत्तरकूरुकुठे ४ फलिहकूडे ५ कोहिमक्सकूढे ६ माणवकूडे ७ । काहि भ अन्ते! कंगाषणे वारपार सिद्धाययणकूल्हे णामं कूडे पन्चत्ते, मोअमा! मंदरस्स पथक्स्स उत्तरपस्चिमेणं गंधमायकूशस्त्र दाहियापुरस्थियेणं, एत्य णं धमायणे वक्खारपवए सिद्धाक्यणकडे णामं कूठे पण्णत्ते, जब चुहिमवन्वे सिद्धारमाकूडस्स अमायं तं व एएसिं सधेसि भाणिमन्वं, एवं चेन चियिसाहिं तिण्णि कहा भाणिमब्बा, चमत्वेत तिभस्स सतरपश्चस्थिमेणं पचमक्स वाहिणेणं, सेसा उ उत्तरदालियोणं, फलिहलोहिमक्स भोगकरभोगबईयो देक्यामो सेसेसु सरिसणामया देवा, मुवि पातम्यवासा ययहाजीओ विदिसासु, से केणटेणं भन्ते! एवं चुचाइ
दीप
eseseenes
अनुक्रम
[१४१-१४२]
NElemanimal
~628~
Page #630
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८६-८७]
दीप
अनुक्रम
[१४१
-१४२]
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥३१३॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८६-८७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
**********.
Ebentine
-
गंधमायणे वक्खारपव्वर २१, गो० ! गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स गंधे से जहा णामए कोडपुडाण वा जाब पीसिजमाणा वा उकिरिमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा जाव ओराला मणुष्णा जाव गंधा अभिणित्सवन्ति, भवे एआरूवे ?, णो णट्टे समट्टे, गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चैव जाव गंधे पण्णत्ते, से एएणद्वेणं गोअमा! एवं बुवइ गंधमायणे वक्खारपब्व २, गंधमायणे अ इत्य देवे महिद्धीए परिषसह, अदुत्तरं च णं सासए णामधिजे इति । (सूत्रं ८६) कहि णं भन्ते ! महाविदेहे चासे उत्तरकुरा णामं कुरा पं०, गो० ! मंदरस्स पव्वयरस उत्तरेणं नीलवन्तरस वासहरपव्वयस्स दक्खिणणं गन्धमायणस्स वक्रपथ्वयस्स पुरत्थिमेणं मालवन्तस्स वक्खा रपव्वयस्स पश्च्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता पाईणपडीणावया उदीर्णदाहिणविच्छिष्णा अद्धचंदसंठाणसंठिआ इक्कारस जोअणसहस्साइं अट्ठ व बायाले जोअणसए दोणि अ एगूणश्रीसभाए जोअणस्स विक्खम्भेणंति, तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तंजा - पुरथिमिलाए कोडीए पुरथिमि बक्सारपञ्चयं पुट्ठा एवं पचत्थिमिलाए जाव पथत्थिमिलं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवण्णं जोभणसहस्साई आयामेणन्ति, तीसे णं धणुं दाहिणेणं सहि जोअणसहस्साई बत्तारि अ अद्वारसे जोअणसए दुवालस व एगूणवी सभाए जोजणस्स परिक्लेवेणं, उत्तरकुराए णं भन्ते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते !, गोयमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुब्ववणिभा जमेव सुसममुसमावत्तब्वया सच्चैव अब्बा जाब पउमगंधा १ मिअगंधा २ अममा ३ सहा ४ तेतली ५ सर्णिचारी ६ ( सूत्रं ८७)
Fu Frale & Pinunate Cy
~ 629 ~
४ वक्षस्कारे
गन्धमादनः सू.८६ उत्तरकुरवः सू. ८७
॥३१३॥
Page #631
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
949
दीप
'कहि 'मित्यादि, क भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो नाम पक्षसि-मध्ये स्वगोप्य क्षेत्रं द्वौ संभूय कुर्वन्तीति | | वक्षस्काराः, तज्जातीयोऽयमिति वक्षस्कारपर्वतो गजदन्तापरपर्यायः प्रज्ञप्तः१, गौतम ! नीलवनानो वर्षधरपर्वतस्य | दक्षिणभागेन मन्दरस्य पर्वतस्य-मेरोरुत्तरपश्चिमेन-उत्तरस्याः पश्चिमायाश्च अन्तरालवर्तिना दिग्विभागेन वायव्यकोणे | इत्यर्थः, गन्धिलावत्याः-शीतोदोत्तरकुलवर्तिनोऽष्टमविजयस्य पूर्वेण उत्तरकुरूणां सर्वोत्कृष्टभोगभूमिक्षेत्रस्य पश्चिमेन | अत्रान्तरे महाविदेहे वर्षे गन्धमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणयोरायतः प्राचीनप्रतीचीनयोः-पूर्वप|श्चिमयोर्दिशोः विस्तीर्णः, त्रिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे योजनशते षट् च एकोनविंशतिभागान योजनस्याया| मेन, अत्र यद्यपि वर्षधराद्रिसम्बद्धमूलानां वक्षस्कारगिरीणां साधिकैकादशाष्टशतद्विचत्वारिंशद्योजनप्रमाणकुरुक्षेत्रान्तर्वर्तिनामेतावानायामो न सम्पद्यते तथाऽप्येषां वक्रभावपरिणतत्वेन बहुतरक्षेत्रावगाहित्यात् सम्भवतीति, नीलवर्षधरसमीपे चत्वारि योजनशतानि ऊर्बोच्चत्वेन चत्वारि गन्यूतशतानि उद्वेधेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन, तदनन्तरं मात्रया २-क्रमेण क्रमेणोत्सेधोद्वेधयो:- उच्चत्वोण्डत्वयोः परिवृख्या परिवर्द्धमानः २ विष्कम्भपरिहाण्या परिहीयमाणः २ मन्दरपर्वतस्य मेरोरन्ते-समीपे पश्चयोजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन पञ्चगव्यूतिशतानि उद्वेधेन अंगुलस्थास-I8॥
अवभागं विष्कम्भेन प्रज्ञप्तः, गजदन्तस्य यत्संस्थान-पारम्भे नीचत्वमन्ते उच्चत्वमित्येवरूपं तेन संस्थितः, सर्वाIS मना रत्नमयः, श्रीउमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे तु कनकमय इति, शेष प्राग्वत् , अवास्य भूमिसौ-|३||
अनुक्रम
[१४१-१४२]
INi mmitrayog
~630~
Page #632
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [४], ----
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]]
दीप
अनुक्रम
श्रीजम्यू || भाग्यमावेदयति-'गन्धमायण'इत्यादि, गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अत्र ||
श्वक्षस्कारे द्वीपशा- यावत्पदाद्वैताच्याद्रिशिखरतलवर्णकगतं सर्व बोध्यं । सम्प्रत्यत्र कूटवक्तव्यतामाह-गन्धमायण' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं गन्धमादन्तिचन्द्री- स्फटिककूट स्फटिकरलमयत्वात् लोहिताक्षकूट लोहितरत्नवर्णत्वात् , आनन्दनानो देवस्य कूटमानन्दकूटं । ननु यथा नः सू.८६ या वृचिः वैताब्यादिषु सिद्धायतनादिकूटव्यवस्था पूर्वापरायतत्वेन तद्वदत्रापि उत कश्चिद्विशेष इत्याह-'कहि णं भन्ते !'इत्यादि, IST
उत्तरकुरवः ॥३१॥
॥ व्यक्तं, नवरं यथा वैताब्यादिषु सिद्धायतनकूटं समुद्रासन्नं पूर्वेण ततः क्रमेण शेषाणि स्थितानि तथाऽत्र मन्दरासन्न ||
सिद्धायतनकूट मन्दरादुत्तरपश्चिमायां वायव्यां दिशि गन्धमादनकूटस्य तु दक्षिणपूर्वस्यां-आग्नेय्यामस्ति, यदेव क्षुद्र-18 हिमवति सिद्धायतनकूटस्य प्रमाणं तदेवैतेषां सर्वेषां सिद्धायतनादिकटानां भणितव्यं, अर्थाद् वर्णनमपि तद्वदेवेति, व्यवस्था तु शेषकूटानामत्र भिन्नप्रकारेणेति मनसिकृत्याह-एवं चेव'इत्यादि, एवं चेवेत्येवं-सिद्धायतनानुसारेण विदिधु-वायव्यकोणेषु त्रीणि कूटानि सिद्धायतनादीनि भणितव्यानि, उक्तवक्तव्यानां मिश्रितनिर्देशस्तु एवं चत्तारिवि
दारा भाणिअथा' इति सूत्र विवरणोकयुक्त्या समाधेयः, अयमर्थः-मेरुत उत्तरपश्चिमायां सिद्धायतनकूट, तस्मादुत्तर-1 18 पश्चिमायां गन्धमादनकूटं तस्माच गन्धिलावतीकूटमुत्तरपश्चिमायामिति, अत्र तिस्रो वायव्यो दिशः समुदिता विष- ॥१४॥
क्षिता इति बहुत्वेन निर्देश्ः, चतुर्थमुत्तरकुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावतीकूटस्योत्तरपश्चिमायां पश्चमस्थ स्फटिककूटस्य ।
IISHदक्षिणता, ननु यथा तृतीचा गन्धिलावतीकूटाच्चतुर्व उत्तरकुरुकूटमुत्तरपश्चिमायां चतुर्थाच सृतीयं दक्षिणपूर्वस्वार Sanelean
[१४१-१४२]
~6314
Page #633
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
तथा पचमात् स्फटिककूटात् कथं दक्षिणपूर्वस्यां चतुर्थ कूटं न सङ्गच्छते ?, उच्यते, पर्वतस्य वक्रत्वेन चतुर्थकटत || एव दक्षिणपूर्वा प्रति बेलनात् पश्चमाचतुर्थ दक्षिणस्यामिति, शेषाणि स्फटिककूटादीनि श्रीणि उत्तरदक्षिण-18 णिव्यवस्थया स्थितानि, कोऽर्थः -पंचमं चतुर्थस्योत्तरतः षष्ठस्य दक्षिणतः पठं पंचमस्योत्तरतः सप्तमस्य दक्षि-18 णतः सप्तमं षष्ठस्योत्तरत इति परस्परमुत्तरदक्षिणभाव इति, अत्र पंचशतयोजनविस्ताराण्यपि कूटानि यत् । कमहीयमानेऽपि प्रस्तुतगिरिक्षेत्रे मान्ति तत्र सहस्राङ्ककूटरीतिज्ञेया, अथैषामेवाधिष्ठातृस्वरूपं निरूपयति-'फलि-14 हलोहिअक्खे' इत्यादि, स्फटिककूटलोहिताक्षकूटयोः पंचमषष्ठयो गङ्कराभोगवत्यौ द्वे देवते-दिक्कुमायौँ वसतः,
शेषेषु कूटसदृशनामका देवाः, षट्स्वपि प्रासादावतंसकाः स्वस्वाधिपतिवासयोग्याः, एषां च राजधान्योऽसयाततमे १ जिम्बूद्वीपे विदिक्षु उत्तरपश्चिमासु । सम्प्रति नामार्थ पिपृच्छिषुराह-से केणटेणं इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, उत्तरसूत्रे 18 गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धः स यथा नाम कोष्ठपुटानां यावत्पदात् तगरपुटादीनां संग्रहः पिष्यमाणानां वा-1
संचूर्ण्यमानानां उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमानानां वा यावत्पदात् भाण्डात् भाण्डान्तरं वाइ 18| संक्रियमाणानामिति, उदारा-मनोज्ञाः यावत्पदात् गन्धा इति कर्तृपदं, अभिनिःस्रवन्ति, एवमुक्त शिष्यः पृच्छति| भवेदेतद्रूपो गन्धमादनस्य गन्ध इति ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, गन्धमादनस्य इतो-भवदुक्काद् गन्धादिष्टतरक एव यावत्करणात् कान्ततरक एवेत्यादिपदग्रहः, निगमनवाक्ये तेनार्थेन गौतम एवमुच्यते, गन्धेन स्वयं माद्यतीव
दीप
patradeoaamrapar0n8402090805
अनुक्रम
[१४१-१४२]
~632 ~
Page #634
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
दीप
श्रीजम्बू-18 मदयति वा तन्निवासिदेवदेवीनां मनांसि इति गन्धमादनः, 'कृद्धहुल' (श्रीसिद्ध अ०५पा०१ सू०२)मिति वचनात् | वक्षस्कारे द्वीपशा
। कर्तर्यनप्रत्ययः, 'घभ्युपसर्गस्य (श्रीसिद्ध० अ०३ पा०२ सू०८५) त्यत्र बहुलाधिकारादतिशायितादिवत् मकाराका-13 गन्धमादन्तिचन्द्रीरस्य दीर्घत्वमिति, गन्धमादननामा चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति, तेन तद्योगादिति नाम, अन्यत् सर्व प्राग्वत् ॥अथ ||
नः सू.८६ या इचिः
उत्तरकुरवः || यासामुपयोगित्वेन गन्धमादनो निरूपितस्ता उत्तरकुरूः निरूपयति-'कहि 'मित्यादि, क भदन्त ! महाविदेहे वर्षे ||
मू.८७ ॥३१५॥ उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः', गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणतो गन्धमा-1
॥ दनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वतो वक्ष्यमाणस्वरूपस्य माल्यवतः पश्चिमतः अत्रान्तरे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः,
प्रापश्चिमायता उत्तरदक्षिणा विस्तीर्णाः अर्द्धचन्द्राकारा एकादशयोजनसहस्राण्यष्टौ शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि |
द्वौ चैकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेन, अत्रोपपत्तिर्यथा महाविदेहविष्कम्भात् ३३५८४ कला ४ इत्येवरूपात् 18 मेरुविष्कम्भेऽपनीते शेषस्याढ़ें कृते उक्ताङ्कराशिः स्यात् , ननु वर्षवर्षधरादीनां क्रमव्यवस्था प्रज्ञापकापेक्षयाऽस्ति यथा
प्रज्ञापकासनं भरतं ततो हिमवानित्यादि, ततो विदेहकथनानन्तरं क्रमप्राप्ता देवकुरुर्विमुच्य कथमुत्तरकुरूणां निरू18| पर्ण', उच्यते, चतुर्दिग्मुखे विदेहे प्रायः सर्व प्रादक्षिण्येन व्यवस्थाप्यमानं समये श्रूयते, तेन प्रथमत. उत्तरकुरुकथन |8|| ॥३१५॥ | भरतपार्थस्थी विद्युत्प्रभसौमनसी विहाय गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारप्ररूपणं भरतासन्नविजयान विहाय कच्छमहाकच्छादिविजयकथनं चेति, अर्थतासां जीवामाह-तीसे इत्यादि, तासामुत्तरकुरूणां, सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात्,
अनुक्रम
[१४१-१४२]
ecte
~633~
Page #635
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८६-८७]
दीप
अनुक्रम
[१४१
-१४२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८६-८७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
जीवा-उत्तरतो नीलबद्धर्षधरासन्ना कुरुचरमप्रदेशश्रेणिः पूर्वापरायता द्विधा पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, एतदेव विवृणोति, तद्यथा- पौरस्त्यया कोट्या पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वतं माल्यवन्तं स्पृष्टा पाश्चात्यया पाश्चात्यं गन्धमा| दननामानं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि आयामेन, तत्कथमिति १, उच्यते, मेरोः पूर्वस्यां दिशि | भद्रशालवनमायामतो द्वाविंशतियोंजन सहस्राणि एवं पश्चिमायामपि, उभयमीलने जातं चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि मेरु| विष्कम्भे दशसहस्रयोजनात्मके प्रक्षिप्ते जातं चतुष्पञ्चाशद्द्योजनसहस्राणि, एकैकस्य वक्षस्कार गिरेर्वर्षधरसमीपे पृथुत्वं पश्च योजनशतानि ततो द्वयोर्वक्षस्कारगिर्योः पृथुत्वपरिमाणं योजनसहस्रं तत्पूर्वराशेरपनीयते, जातः पूर्वराशिखि| पश्चाशद्योजन सहस्राणीति । अथैतासां धनुःपृष्ठमाह--'तीसे णं धणुं दाहिणेण 'मित्यादि, तासां धनुःपृष्ठं दक्षिणतो मेर्वासन्न इत्यर्थः, षष्टियोजन सहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि अष्टादशानि-अष्टादशाधिकानि द्वादश चैकोनविंशति| भागान् योजनस्य परिक्षेपेण, तथाहि-- एकैकवक्षस्कार गिरेरायामस्त्रिंशद्योजन सहस्राणि द्वे च नवोत्तरे षट् च कलाः, ततो द्वयोर्वक्षस्कारयोमलने यथोक्तं मानमिति, अथैतासां स्वरूपप्ररूपणायाह -- ' उत्तरकुराए णमित्यादि, उत्तरकु रूणां भदन्त ! कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः - स्वरूपाविर्भावः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, एवमुक्तन्यायेन पूर्वं भरतप्रकरणे वर्णिता या एव सुषमसुषमायाः आधारकस्य वक्तव्यता सैव निरवशेषा नेतव्या,
Find&P Cy
~634~
warnyard
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [४], ----
-- मूलं [८६-८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीप
प्रत सूत्रांक [८६-८७]
तिचन्द्री
वर्णनं
॥३१६॥
दीप
पोलकियत्पर्यन्तमित्याह-यावत्पट्मकाराः पद्मगन्धादयो मनुष्यास्तावदिति ॥ उक्तोत्तरकुरुवक्तव्यताऽथ तवर्तिनी यम-18arat कपर्वतौ प्ररूपयति
यमकपर्वत कहिणं भन्ते! उत्तफुराए जमगाणाम दुवे पव्वया पण्णत्ता !, गोअमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिलाओ था ऋतिः
परिमन्ताओ अट्ठजोअणसए चोतीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अयाहार सीआए महाणईए उमओ फूले एत्थ ण म.८८ जमगाणार्म दुवे पचया पण्णत्ता, जोअणसहस्सं उर्दू उच्चत्तेणं अट्ठाइजाई जोअणसवाई उचेहेणं मूले एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खम्भेणं मझे अट्ठमाणि जोअणसयाई आयामविस्वम्भेणं उरि पंच जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं मूले तिष्णि जोअणसहस्साई एगं च बाबटुं जोअणसचं किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवणं मज्झे दो जोअणसहस्साई तिण्णि बावत्तरे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेषेणं उपरि एगं जोअणसहस्सं पञ्च य एकासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुआ जमगसंठाणसंठिआ सञ्चकणगामया अच्छा सण्हा पत्तेअं २ पङमवरबेइआपरिक्खिता पत्ते २ वणसंडपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमवरवेइआओ दो गाऊआई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च धणुसयाई विक्सम्मेणं, बेइमावणसण्डवण्णओ भाणिअब्बो, तेसिणं जमगपश्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पं०, ते णं पासायवडेंसगा बाबढि जोभणाई अद्धजोअणं च उद्धं उथत्तेणं इकतीस जोअणाई कोसं च आयामविसंभेणं पासायवण्णओ भाणिअव्यो, सीहासणा सपरिवारा जाव एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भदासणसाहस्सीओ पण्णतामओ, से केणद्वेणं भन्ते !
अनुक्रम
[१४१-१४२]
esesesesesed
18॥१६॥
अथ यमको पर्वतौ वर्णनं क्रियते
~635~
Page #637
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
Poeseseseseene
एवं बुधर जमगा पन्चया २१, गोधमा । जमगपघण्मु णं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे खुड्डाखुडियासु वाचीसु जाव बिलपतियासु बहवे उप्पलाई जाव जमगवण्णाभाई जमगा य इत्थ दुवे देवा महिनीया, ते णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाब भुषमाणा विहरति, से तेणतुणं गो०1 एवं बुधइ-जमगपच्या २, अदुत्तरं च णं सासए णामधिजे जाव जमगपवया २ । कहि णं भन्ते! जमगाणं देवार्ण जमिगाओ रायहाणीमो षण्णचाओ!, गोश्रमा! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अण्णमि जम्बुद्दीवे २ वारस जोअणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाभो रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोअणसहस्साई आयामविक्खम्भेणं सत्ततीसं जोअणसहस्साई णव य अडयाले जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खयेणं, पत्ते २ पायारपरिक्खित्ता, ते णं पागारा सत्तत्तीसं जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं मूले अद्धत्तेरस जोअणाई विक्खम्मेण मझे छ सकोसाई जोअणाई विक्खम्भेणं उवरि तिणि समद्धकोसाई जोषणाई विक्खम्भेणं मूले विच्छिण्णा मझे संखिया उप्पि तणुआ वादि वट्टा अंसो चउरंसा सवरयणामया अच्छा, ते णं पागारा जाणामणिपञ्चवण्णेहिं कविसीसएहिं उबसोहिमा, तं- अहा-किण्हेहिं जान सुकिहहिं, ते ण कविसीसगा अद्धकोसं आयामेण देसूर्ण भद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च धणुसयाई बाहलेणं सवमणिमया अच्छा, जमिगाणं रायहाणीणं एगीगाए याहाए पणवीसं पणवीसं दारसयं पण्णत्तं, ते णं दारा बावहिं जोभणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं इक्वतीसं जोषणाई कोसं च विक्सम्मेणं वावइ चेव पवेसेणं, सेआ वरकणगथूमिमागा एवं रायप्पसेणइजविमाणवतव्वयाए दारवण्यओ जाव अमंगलगाइंति, जमियाणं रायहाणीणं चउदिसिं पञ्चपञ्च जोमणसए अबाहाए चत्वारि वणसण्डा पण्णता, तंजहा-असोगवणे १ सत्तिवण्णवणे२ चंपगवणे२ चूअवणे४, ते णं वणसंडा साइरेगाई पारसजोषण
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
~ 636 ~
Page #638
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
४वक्षस्कार
सूत्रांक
[८८]
श्रीजम्मूद्वीपशा न्तिचन्द्रीया चिः ॥३१७॥
यमपर्वत वर्णनं सू.८८
गाथा:
सहस्साई आयामेणं पञ्च जोमणसयाई 'विक्खम्भेणं पत्ते २ पागारपरिक्सित्ता किण्हा वणसण्डवण्णो भूमीओ पासायवडेंसगा य भाणिअब्बा, जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णगोत्ति, तेसि णं बहुसमरमणिबाणं भूमिभागाणं बहुमक्सदेसभाए एत्थ ण दुवे उवयारियालयणा पण्णचा, बारस जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं तिष्णि जोमणसहस्साई सत्त य पञ्चाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं अद्धकोसं च बाहलेणं सव्वजंवूणयामया अच्छा, पत्ते पत्ते पउमवरवेइआपरिक्खित्ता, पत्ते पत्ते वणसंडवण्णो भाणिअन्वो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउरिसिं भूमिभागा य भाणिभब्बत्ति, तस्स णं बहुमझदेसभाए एत्थ णं एगे पासायव.सए पण्णत्ते बावहिं जोअणाई अद्धजोअणं च उद्धं उच्चत्तेण इकतीसं जोअणाई कोसं च आयामविक्सम्मेण वणो उल्लोआ भूमिभागा सीहासणा सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ ( एत्थ पढमापंती ते णं पासायवेडिंसगा) एकतीसं जोषणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्धसोलसजोअणाई आयामविक्खम्भेणं बिइअपासायपंती ते णं पासायबरें. सया साइरेगाई अद्धसोलसजोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अट्ठमाई जोअणाई आयाम विक्खम्भेणं तइमपासायपंती ते ण पासायवडेंसया साइरेगाई अट्ठमाई जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाई अहजोअणाई आयामविक्खम्भेण वण्णी सीहासणा सपरिवारा, तेसि गं मूलपासायवासियाणं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए. एत्य णं जमगाणं देवाणं सहाओ मुहम्माओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरस जोअणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोअणाई चिक्खम्भेणं णव जोअणाई उद्धं उथत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठा सभावण्णओ, तासिणं सभाणं सुहम्माणं तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता, ते णं दारा दो जोभणाई उद्धं उच्चत्तेणं जोअणं विक्सम्मेणं तावइअं चेव पवेसेणं, सेआ वण्णओ जाव वणमाला, तेसि णं दाराणं पुरओ पत्ते २ तओ मुहमंडवा पण्णचा, ते णं मुहमंडवा
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
eeseseseseseksee
३१७॥
Email
~637~
Page #639
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[८]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१४३-१४५]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
-
वक्षस्कार [४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
मूलं [८८] + गाथा:
*➖➖➖➖➖➖➖➖➖
.... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अद्धत्तेरसजोभणारं आयामेणं छस्सकोसाई जोअणाई विक्खम्भेणं साइरेगाई दो जोभणाई उद्धं उच्चतेणं जाव दारा भूमिभागा यत्ति, पेच्छापरमंडवाणं तं चैव पमाणं भूमिभागो मणिपेढिआओत्ति, ताओ णं मणिपेढिआओ जोअणं आयामविक्सम्भेणं अद्धजोअणं वाहणं सव्वमणिमईआ सीहासणा भाणिभब्बा, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढिआओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढिआओ दो जोभणाई आयाम विक्खम्भेणं जोअणं वाहणं सव्वमणिमईओ, तासि णं उपिं पत्ते २ तओ थूभा, ते णं धूभा दो जोभणाई उद्धं उचणं दो जोअणाई आवामविक्खम्भेणं सेआ संखतल जाव अट्ठट्ठमंगलया, तेसि णं धूभाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेडिआओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेडिआओ जोअणं आयामविक्खम्भेणं अद्धजोअणं बाहेणं, जिणपडिमाओ वत्तवाओ, चेइअरुक्खाणं मणिपेडिआओ दो जोभणारं आयामविक्खम्भेणं जोअणं बाइलेणं चेइअरुक्खवण्णओत्ति, तेसि णं - चेइअरुक्खाणं पुरओ ताओ मणिपेढिआओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढिआओ जोयणं आयामचिक्खम्भेणं अद्धजोखणं पाहणं, तासि णं उपि पत्ते २ महिंदझया पण्णत्ता, ते णं अद्धट्टमाई जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उब्वेणं अद्धको बाइलेणं ब्रह्मरामयवट्ट वष्णओ बेद्दआवणसंड तिसोवाणतोरणा य भाणिअव्वा, तासि णं सभाणं सुहम्माणं छषमणोगुलिआसाहस्सीओ पण्णचाओ, संजहा-पुरत्थि मेणं दो साहस्सीओ पण्णत्ताओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दक्खिणेणं एगा साहूस्सी उत्तरेणं एगा जाव दामा चितित्ति, एवं गोमाणसिभाओ, णवरं धूवघडिआओत्ति, तासि णं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, मणिपेढि दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं जोभणं बाइलेणं, तासि णं मणिपेढिभाणं उप्पि माणवर चेनखम्भे महिदन्यप्पमाणे उवरिं छकोसे ओगाहिचा देठा छकोसे वज्जित्ता जिणसकहाओ पण्णत्ताओति, माणवगस्स पुब्वेणं सीहांसणा सप
Fale & Pune Cy
~638~
Page #640
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
श्रीजम्बू
रिचारा पत्थिमेणं सयणिचवण्णओ, सणिजाणं उत्तरपुरथिमे दिसिभाए खुगमहिंदज्मया मणिपेढिआविहणा महिंदज्झयद्वीपशा
४वक्षस्कारे पमाणा, तेसिं अवरेणं चोप्फाला पहरणकोसा, तस्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा जाव चिट्ठति, सुहम्माणं उप्पि अट्ठमं..- यमकृपर्वत न्तिचन्द्री
लगा, तासि णं उत्तरपुरस्थिमेणं सिद्धाययणा एस चेव जिणघराणवि गमोति, णवरं इमं णाणत्-एतेसि णं बहुमझदेसभाए वर्णन या वृत्तिः पत्तेभं २ मणिपेनिमामो दो जोषणाई आयामविक्खम्भेणं जोअणं बाहल्लेणं, तासि उपि पत्ते २ देवच्छंदया पण्णत्ता, दो
सू.८८ ॥३१॥ जोषणाई आयामविक्खम्भेणं साइरेगाई दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं सव्वरयणामया जिणपडिमा बण्णओ जाव धूवकडु
च्छुगा, एवं अवसेसाणवि सभाणं जाव उववायसभाए सयणिज हरओ अ, अभिसेअसभाए बहु आभिसेके भंडे, अलंकारिअसभाए बहु अलंकारिअभंडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा दो जोअणाई आवामविक्खम्भेणं जोअणं वाहणं जावत्ति,-उववाओ संकप्पो अमिसेअविहूसणा य ववसाओ । अचणिअसुधम्मगमो जहा य परिवारणाइदी ।।१॥ जावइयमि पमाणमि हुँति जमगाओं पीलबंताओ । तावासमन्तरं खलु जमगदहाणं दहाणं ॥२॥ (सूत्र ८८)
'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, गौतम! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् इत्यत्र दाक्षिणात्यं चरमान्तं आरभ्येति ज्ञेयं, क्यब्लोपे पञ्चमी, दाक्षिणात्याच्चरमान्तादा-18
॥३१८॥ परभ्याक् िदक्षिणाभिमुखमित्यर्थः, अष्टौ योजनशतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि चतुरश्च सप्तभागान् भोजनस्याबाधया-18॥
अपान्तराले कृत्वेति शेषः शीताया महानद्या उभयोः कूलयोः एकः पुर्वकूले एकः परिश्रमकूळे इत्यर्थः, अबान्तरे |
Seareraswa90008005
S
immitrarel
~639~
Page #641
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[૮]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१४३
-१४५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८८] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........ आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू. ५४
यमको नाम द्वौ पर्वती प्रज्ञसौ, एकं योजनसहस्रमूर्ध्वोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतान्युद्वेधेन उच्छ्रयचतुर्थांशस्य भूम्यवगाहात् मूले योजनसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां वृत्ताकारत्वात् मध्ये भूतलतः पञ्च योजनशतातिक्रमेऽर्द्धाष्टमानि योज| नशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां उपरि-सहस्रयोजनातिक्रमे पञ्च योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां मूले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च योजनशतं द्वापष्टयधिकं किंचिद्विशेषाधिकं कियत्कलमित्यर्थः, परिक्षेपेण, एवं मध्यपरिधिरुपरितनपरिधिश्च स्वयमभ्यूह्यौ, मूळे विस्तीर्णौ मध्ये संक्षिप्तावुपरि तनुको यमको यमलजातौ भ्रातरौ तयोर्यत्संस्थानं तेन संस्थिती, परस्परं सदृशसंस्थानावित्यर्थः, अथवा यमका नाम शकुनिविशेषास्तत्संस्थानसंस्थितौ संस्थानं चानयोर्मूलतः प्रारभ्य संक्षिप्तसंक्षिप्तप्रमाणत्वेन गोपुच्छस्येव बोध्यं सर्वात्मना कनकमयो शेषं व्यक्तं, अष्टशतायङ्कोत्पत्तिरेवं-नीलब| द्वर्षधरस्य यमकयोश्च प्रथमं यमकयोः प्रथमहदस्य च द्वितीयं प्रथमइदस्य द्वितीयप्रदस्य च तृतीयं द्वितीयइदस्य तृती यहूदस्य च चतुर्थं तृतीयइदस्य चतुर्थइदस्य च पंचमं चतुर्थद्रदस्य पंचमहदस्य च षष्ठं पंचमहृदस्य वक्षस्कारगिरि| पर्यन्तस्य च सप्तमं एतानि च सप्ताप्यन्तराणि समप्रमाणानि, ततश्च कुरुविष्कम्भात् योजन ११८४२ कला २ इत्येवं| रूपात् योजना सहस्रायामयोर्यमकयोः योजन सहस्रमेकं तावत्प्रमाणायामानां पंचानां प्रदानां च योजनसहस्रमे (कै) कं | उभयमीलने योजन सहस्रपट्रकं शोध्यते शोधिते च जातं योजन ५८४२ कला २ ततः सप्तभिर्भागे हृते ८३४४, यच्चावशिष्टं कुरुसत्कं कलाद्वयं तदल्पत्वाच्च विवक्षितमिति । अत्रैवानन्तरीक वेदिकावन खण्डप्रमाणाद्याह-- 'ताभो
Fur Fate &P Cy
~ 640 ~
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
न्तिचन्द्र
गाथा:
॥३१९॥
'मित्यादि, व्यक्तं, सम्प्रत्येतयोर्यदस्ति तदाह-'तेसि णमित्यादि, तयोर्यमकपर्वतयोरुपरि पहुसमरमणीयो भूमिभागः [प्रज्ञप्तः, अत्र पूर्वोक्तः सर्वो भूभागवर्णक उन्नेतव्यः, फियत्पर्यन्त इत्याह-यावत्तयो हुसमरमणीयस्य भूभागस्य बहुम- यमकपर्वत
8|| ध्यदेशभागे द्वौ प्रासादावतंसकी प्रज्ञप्ती, अथ तयोरुच्चत्वाद्याह-'ते ण'मित्यादि, निरवशेष विजयदेवप्रासादसिंहा- वर्णन या वृत्तिः
| सनादिव्यवस्थितसूत्रबद्वक्तव्यं, नवरं यमकदेवाभिलापेनेति, अथानयोर्नामा प्रश्नयन्नाह-'सेकेणडेण मित्यादि, सू.८८ प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे यमकपर्वतयोस्तत्र तत्र देशे तत्र तत्र प्रदेशे क्षुद्रक्षुद्रिकासु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानिश अत्र यावत्पदात् कुमुदादीनि वाच्यानि, तथा यमकप्रभाणीति परिग्रहः, तत्र यमको-यमकपर्वतस्तत्प्रभाणि तदाका-18 राणीत्यर्थः, तथा यमकवर्णाभानि-यमकवर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः, यदिवा यमकाभिधानी द्वौ देवी महर्चिको अन्न परि-181 | वसतस्तेन यमकाविति शेष प्राग्वत् , अथानयो राजधानीप्रश्नावसर:-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! यमकयोदेवयोर्य-15 | मिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते ?, गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेणान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादशयो-18 जनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे यमकयोर्देवयोर्यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, द्वादशयोजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रिंशद्योजनसहस्राणि नव च योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, प्रत्येकं २ ढे।
॥३१९॥ ||| अपि प्राकारपरिक्षिप्ते, कीदृशौ तौ प्राकाराविति तत्स्वरूपमाह--'ते णं पामारा'इत्यादि, तो प्राकारी सप्तत्रिंशद्यो
जनानि योजनार्द्धसहितानि ऊर्बोच्चत्वेन मूले अर्द्ध त्रयोदशं योजनं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेन
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
Sea
~641~
Page #643
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
---------------------- मूल [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Saree
[८८]
गाथा:
॥|| मध्ये पटू सकोशानि योजनानि विष्कम्भेन, मूलविष्कम्भतो मध्यविष्कम्भस्यार्द्धमानत्वात् , उपरि त्रीणि साईक्रोशानि IS योजनानि विष्कम्भेनास्यापि मध्यविष्कम्भतोऽर्द्धमानत्वात् , अत एव मूले विस्तीर्णावित्यादि पदत्रयं विवृतप्रायं, बहि
पृत्ती अनुपलक्ष्यमाणकोणत्वात् अन्तश्चतुरस्त्री उपलक्ष्यमाणकोणत्वात् शेष प्राग्वत्, अथानयोः कपिशीर्षकवर्णक-18
माह-'तेणं पागाराणाणामणि'इत्यादि, तौ प्राकारौ नानामणीनां पारागस्फटिकमरकताअनादीनां पंचप्रकारा वर्णा MS| येषु तानि तथा तैः कपिशीर्षकैः-प्राकाराग्ररुपशोभिती, एतदेव विवृणोति तद्यथा-कृष्णैर्यावच्छुक्कैरिति, अर्थतेषां कपि
शीर्षकाणामुच्चत्वादिमानमाह-'ते णमित्यादि, निगदसिद्धं, अथानयोः कियन्ति द्वाराणीत्याह-'जमिगाण'मित्यादि, 18| यमिकयो राजधान्योरेकैकस्यां वाहायां पार्थे पंचविंशत्यधिकं २ द्वारशतं प्रज्ञप्तं, तानि द्वाराणि द्वाषष्टियोजनानि
अर्द्धयोजनं च ऊोंचत्वेन एकत्रिंशयोजनानि कोशं च विष्कम्भेन तावदेव प्रवेशेन श्वेतानि वरकनकमपिकाकानि, लाघवार्थमतिदेशेनाह-एवं राजप्रश्नीये यद्विमानं सूर्याभनामकं तस्य वक्तव्यतायां यो द्वारवर्णकः स इहापि ग्राह्यः,
कियत्पर्यन्तमित्याह-यावदष्टाष्टमङ्गलकानि, अत्रातिदिष्टमपि सूत्र न लिखितं, विजयद्वारप्रकरणे सूत्रतोऽर्थतश्च लिखि18 तत्वात् अतिदिष्टत्वस्योभयत्रापि साम्याञ्चेति, अथानयोर्बहिर्भागे वनखण्डवक्तब्यमाह-'जमियाण'मित्यादि, यमि
कयो राजधान्योश्चतुर्दिशि चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंस्तथा, पूर्वादिष्वित्यर्थः, पंचपंचयोजनशतान्यवाधायां अपान्तराले कृत्वेति गम्यते चत्वारि वनखण्डानि प्रज्ञप्तानि,तद्यथा-अशोकवनं सप्तपर्णवनं चम्पकवनं आघवनमिति,
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
aoradasanoraemossasanga200000
~642~
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
..............--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
प
गाथा:
॥३२०॥
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
श्रीजम्यू
| अर्थतेषामायामाचाह-तेणं क्णसण्डा इत्यादि, ते च बनवण्डाः सातिरेकाणि द्वादशयोजनसहस्राणि आयामेन SIra द्वीपशा- | पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येक २ प्राकारः परिक्षिताः, कृष्णा इतिपदोपलक्षितो जम्बूद्वीपपावरवेविकाप्रकर-18 यमपर्वत न्तिचन्द्री
लिखितः पूर्णो बनखण्डवर्णको भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्याः, भूमयश्चैवम्-'तेसि णं वडसंडाणे अंसो बहस-11 | मरमणिजा भूमिभागा पण्णत्ता, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाच णाणाविहपंचवण्णेहिं तणेहिं मणीहि || हा वसोभिआइति, प्रासादसूत्रमप्येवं 'तेसि पं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेअं २ पासायव.सए पण्णते, तेणं पासायवडेंसया चावहिं जोषणाई अखजोअणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसं जोअणाई कोसं च विक्खम्भेणं अभग्गयमूसिअपहसिआ इव, तहेव बहुसमरमणिजे भूमिभागे उल्लोओ सीहासणा सपरिवारा, तस्थ चत्तारि देवा
महिही आ जाव पलिओवमट्टिइआ परिवसंति तं०-असोए सत्तिवण्णे चपए चूए' इति, अत्राशोकवनप्रासादेऽशोकनाMe मा देवः, एवं त्रिवपि तत्तन्नामानो देवाः परिवसन्तीत्यर्थः, अथानयोरन्तर्भागवर्णकमाह-'जमिगाण'मित्यादि, यमि18कयो राजधान्योरन्तर्मध्यभागे बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, वर्णक इतिसूत्रगतपदेन 'आलिंगपुक्खरेइ वा जाव पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए वणसंडविहुणो जाव बहवे देवा य देवीओ अ आसवैति जाव विहरती'त्यन्तो ग्राह्यः,81
॥३२॥ 18 अत्र च उपकारिकालयनसूत्रमादर्शष्यदृश्यमानमपि राजप्रश्नीयसूर्याभविमानवर्णके जीवाभिगमे विजयाराजधानी-18 18वर्णके च दृश्यमानत्वात् 'तिणि जोअणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोअणसए परिक्खेवेण मित्त्वादिसूत्रस्थान्य-18
Eleon
~643~
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
------------------------ मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
थानुपपत्तेश्च जीवाभिगमतो लिख्यते, आदर्शप्वदृश्यमानत्वं च लेखकवैगुण्यादेवेति, सद्यथा-'तेसि 'मित्यादि, ॥ तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे द्वे उपकारिकालयने प्रशसे, उपकरोति-उपष्ट
माति प्रासादावतंसकानित्युपकारिका-राजधानीप्रभुसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र स्वियमुपकार्योपकारि| केतिप्रसिद्धा, उक्तं च-गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिके"ति सा लयनमिव-गृहमिव ते च प्रतिराजधानि भवत इति द्वे उक्के, द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त च योजनशतानि पश्चनवत्यधिकानि परिक्षेपेण, अर्द्धकोश-धनुःसहस्रपरिमाणं बाहल्येन सर्वात्मना जाम्बूनदमये अच्छे प्रत्येकं २ मत्युपकारिकालयनं पद्मवरवेदिकापरिक्षिप्ते प्रत्येक २ वनखण्डवर्णको भणितव्यः, स च जगतीगतपद्मवरवेदिकास्थवनखण्डानुसारेणेति, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-आरोहावरोहमार्गास्तानि चतुर्दिशि-पूर्वादिदिक्षु शेयानि तोरणानि चतुर्दिशि भूमि-18 भागश्चोपकारिकालयनमध्यगतो भणितव्यः, तत्सूत्राणि जीवाभिगमोपाङ्गगतानि क्रमेणैव--से णं वणसंडे देसूणाई दो जोअणाई चक्कवालविक्खंभेणं उवयारिआलयणसमए परिक्लेवेणं तेसि णं उबयारिआलयणाणं चहिसिं पत्तारि | तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता, वण्णओ, 1 तेसिणं उवयारियालयणाणं उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णसे जाव मणीहिं स्वसोभिए'इति, अत्र व्याख्या
सुगमा, अथ यमकदेवयोर्मूलप्रासादस्वरूपमाह-तस्स म'मित्यादि, तस्योपकारिकाढयनल बहुमध्यदेशभागे अत्रा
estaesesesedes
गाथा:
stotseoecestoteestaesese%86860
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
S
~644 ~
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
18न्तरे एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः द्वापष्टिं योजनान्यर्द्धयोजनं च ऊर्वोच्चत्वेन एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चायीमवि-18 कम्भाभ्यां वर्णको विजयप्रासादस्येव वाच्यः, उल्लोको-उपरिभागौ भूमिभागी-अधोभागौ सिंहासने सपरिवारे-सामानि-18
ध्यक्षस्कारे द्वीपशातिचन्द-18 कादिपरिवारभद्रासनव्यवस्थासहिते, यश्चात्र उपकारिकालयनस्य प्रासादावतंसकस्य चैकवचनेन विवक्षा उल्लोकभूमि
यमकूपर्वत
वर्णनं या वृत्तिः 8 भागसिंहासनानां च द्विवचनेन विवक्षा तत्सूत्रकाराणां विचित्रप्रवृत्तिकत्वादिति, अथास्य परिवारमासादप्ररूपणामाह-18 सू.८८ ॥३२१॥
18 एवं पासायपंतीओ'इत्यादि, एवं-मूलप्रासादावतंसकानुसारेण परिवारप्रासादपङ्कयो ज्ञातव्या जीवाभिगमतः, पङ्क-18 18 यश्चात्र मूलप्रासादतश्चतुर्दिक्षु पद्मानामिव परिक्षेपरूपा अवगन्तब्याः, न पुनः सूचिश्रेणिरूपाः, तत्र प्रथमप्रासामं-18
|क्तिपाठ एवं-से णं पासायव.सए अण्णेहिं चउहिं तदद्धश्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं सबओ समन्ता संपरि-18
|क्खित्ते' स प्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः, अत्रोच्चत्वशब्देनोत्सेधो गृह्यते प्रमाण18| शब्देन च विष्कम्भायामी, तेन मूलप्रासादापेक्षया अर्घोच्चत्वविष्कम्भायामैरित्यर्थः, सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता,
एषामुञ्चत्वादिकं तु साक्षात् सूत्रकृदेवाह-एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चोच्चत्वेन, सार्द्धद्वापष्टियोजनानामः एतावत एव लाभात्, सातिरेकाणि-अर्द्धक्रोशाधिकानि अर्द्धषोडशानि-सार्द्धपञ्चदशयोजनानि विष्कम्भायामाभ्यामिति, अथ द्वितीयप्रासादपंक्तिः, तत्पाठश्चैवम्-'ते णं पासायव.सया अण्णेहिं चरहिं तदडुच्चत्तप्पमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं ॥३२॥ | सधओ समन्ता संपरिक्खित्ता'इति, ते प्रथमपंक्तिगताश्चत्वारः प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्वविष्कम्भायामै-12
दीप
se
अनुक्रम [१४३-१४५]
SinElemnitindi
~645~
Page #647
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--....................-- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
मलप्रासादापेक्षया चतुर्भागप्रमाणः प्रासादैः परिक्षिप्ताः, अत एवैते षोडश प्रासादाः सर्वसङ्ख्यया स्युः, एषामुच्चत्वादिकं तु साक्षादेव सूत्रकृदाह-ते प्रासादाः सातिरेकाणि-अर्द्धकोशाधिकानि सार्बपञ्चदशयोजनान्युश्चत्वेन सातिरे-% काणि-क्रोशचतुर्थांशाधिकानि अष्टिमयोजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यामिति, अथ तृतीया पंक्तिः, तत्सूत्रमेवम्-'ते णं |पासायव.सया अण्णेहिं चउहिं तदडुश्चत्तप्पमाणमित्तेहिं पासायव.सएहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता' ते द्वितीयप| रिधिस्थाः षोडश प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदर्बोच्चत्वविष्कम्भायामैर्मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टांशप्रमाणोच्चत्वविष्कम्भा६|| यामैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, अत एवैते तृतीयपंक्तिगताश्चतुःषष्टिप्रासादाः, एतेषामुच्चत्वादिप्रमाणे सूत्र| कृदाह-ते चतुःषष्टिरपि प्रासादाः सातिरेकाण्यष्टिमयोजनान्युच्चत्वेन सातिरेकत्वं च प्राग्वत् , अध्युष्टानि-अर्द्धतृतीयानि सातिरेकाणि सार्द्ध क्रोशाष्टांशाधिकानि विष्कम्भायामाभ्यां, एषां सर्वेषां वर्णकः सिंहासनानि च सपरिवाराणि प्राग्वत् । अत्र च पंक्तिप्रासादेषु सिंहासनं प्रत्येकमेकैकं, मूलप्रासादे तु मूलसिंहासनं सिंहासनपरिवारोपेतमित्यादि क्षेत्रसमासवृत्तौ श्रीमलयगिरिपादाः तथा प्रथमतृतीयपंक्स्योर्मूलप्रासादे परिवारे भद्रासनानि द्वितीयपंक्तौ च परिवारे || पद्मासनानि इति जीवाभिगमोपाङ्गे इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम् , यद्यपि जीवाभिगमे विजयदेवप्रकरणे तथा श्रीभगवत्यङ्गवृत्तौ चमरप्रकरणे प्रासादपंक्तिचतुष्कं तथाप्यत्र यमकाधिकारे पंक्तित्रयं बोध्यं, पंक्तित्रयप्रासादसंग्रह
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
~646~
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------------------ मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
श्रीजम्बूहीपशान्तिचन्द्री
यमकपर्व
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
- मूलप्रासादेन सह सर्वसंख्यया पश्चाशीतिः प्रासादाः ८५, अथात्र सभापञ्चकं प्रपंचयितुकामः सुधा-श
४वक्षस्कारे सभास्वरूप निरूपयति-'तेसि ण'मित्यादि, तयोर्मूलप्रासादावतंसकयोरुत्तरपूर्वस्यां-ईशानकोणेऽत्रैतस्मिन् भागे
RI वर्णन यमकयोदेवयोर्योग्ये सुधर्म नाम सभे प्रज्ञप्ते, सुधर्माशब्दार्थस्तु सुठु-शोभनो धर्मो-देवानां माणवकस्तम्भवति-& ॥३२२॥
जिनसक्थ्याशातनाभीरुकत्वेन देवाङ्गनाभोगविरतिपरिणामरूपो यस्यां सा तथा, वस्तुतस्तु सुष्टु-शोभनो धौ-11 राजधर्मः समन्तुनिमन्तुनिग्रहानुग्रहस्वरूपो यस्यां सा तथा, ते चार्द्धत्रयोदशयोजनाम्यायामेन सक्रोशानि पर | योजनानि विष्कम्भेन नवयोजनान्यूर्वोच्चत्वेन, अत्र लाघवार्थ सभावर्णकसूत्रमतिदिशति, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे 18
इत्यादिपदसूचितः सभावर्णको जीवाभिगमोक्तो ज्ञेयः, स चैवं-'अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठाओ अब्भुग्गयसुकयवइर| वेइआतोरणवररइअसालभंजिआसुसिलिट्ठविसिट्ठसंठिअपसत्यवेरुलिअविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयणखचिअउज्जलबहसमसुविभत्तभूमिभागाओ ईहामिगउसभतुरगणरमगरविहगवालगर्किनररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्ति-8 चित्ताओ खंभुग्गयवइरवेइआपरिगयाभिरामाओ विजाहरजमलजुअलजंतजुत्ताओविव अञ्चीसहस्समालणीआओ | रूवगसहस्सकलिआओ भिसमाणीओ भिब्भिसमाणीओ चक्खुल्लोअणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीअरूवाओ कंचणम-18| ॥३२२॥ ॥णिरयणधूभिआगाओ णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडिअअग्गसिहराओ धषलाओ मरीइकवयविणिम्मुअंतीओX
Sanileon
Imdianetwyou
~647~
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
Geetoe0sa
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
लाउल्लोइअमहिआओ गोसीससरससुरभिरत्तचन्दणदद्दरदिण्णपंचंगुलितलाओ उवचिअचन्दणकलसाओ चन्दणघड| सुकयतोरणपडिदुवारदेसभागाओ आसत्तोसत्तविलवट्टवग्यारिअमल्लदामकलावाओ पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिआओ कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवडझंतमघमतगन्धुडुआभिरामाओ सुगंधवरगंधिआओ गन्धवट्टिभूआओ अच्छरगणसंघविकिण्णाओ दिवतुडिअसद्दसंपणदिआओ सबरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ'इति, अत्र | व्याख्या तु सिद्धायतनतोरणादिवर्णकेषु उच्छवृत्तिन्यायेन सुलभेति न पुनरुच्यते नवरं अप्सरोगणानां-अप्सरःपरिवा| राणां यः संघः-समुदायस्तेन सम्यक्रमणीयतया विकीर्णा-आकीर्णा दिव्यानां त्रुटिताना-आतोद्यानां ये शब्दास्तैः सम्यक् ।
श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षण नदिता-शब्दवती, शेष प्राग्वत् , अथास्यां कति द्वाराणीत्याह-'तासि णं सभाण'मित्यादि,18 । तयोः सभयोः सुधर्मयोस्त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, पश्चिमायां द्वाराभावात् , तानि द्वाराणि प्रत्येक वे योजने
| ऊर्बोच्चत्वेन योजनमेकं विष्कम्भेन तावदेव-योजनमेकं प्रवेशेन, श्वेता इत्यादि पदेन सूचितः परिपूर्णो द्वारवर्णको ॥ वाच्यो यावद्वनमाला, अथ मुखमण्डपादिषटुनिरूपणायाह-'तेसि णं दाराण'मित्यादि, तेषा द्वाराणां पुरतः प्रत्येक 1812 त्रयो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ता, सभाद्वाराप्रवर्तिनो मण्डपा इत्यर्थः, ते च मण्डपा अर्द्धत्रयोदशयोजनाभ्यायामेन षट् || 18 सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन सातिरेके द्वे योजने ऊर्बोच्चत्वेन, एतेषामपि 'अणेगखभसयसण्णिविद्वा' इत्यादि || 18 वर्णनं सुधर्मासभा इव निरवशेष द्रष्टव्यं, यावद् द्वाराणा भूमिभागानां च वर्णनं, यद्यप्यत्र द्वारान्तमेव सभावर्णन |
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
~648~
Page #650
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्बू । तदतिदेशेन मुखमण्डपसूत्रेऽपि तावन्मात्रमेवायाति तथापि जीवाभिगमादिषु मुखमण्डपवर्णके भूमिभागवर्णकस्य दृष्ट
४४वक्षस्कारे द्वीपशा- त्वात् अत्रातिदेशः, अथ प्रेक्षामण्डपवर्णकं लाघवादाह-पच्छाघरमण्डवाण'मित्यादि, प्रेक्षागृहमण्डपानां-रङ्गम-18 न्तिचन्द्री
गण्डपानां तदेव-मुखमण्डपोक्तमेव प्रमाणं, भूमिभाग इतिपदेन सर्व द्वारादिकभूमिभागपर्यन्तं वाच्यं, एषु च मणिपी-18 या धूचिः
| ठिका वाच्या, एतावदर्थसूचकमिदं सूत्रम्-'तेसि णं मुहमण्डवाणं पुरओ पत्ते २ पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता. ते णं|| ॥३२॥ पेच्छाघरमंडवा अखत्तेरसजोषणाई आयामेणं जाव दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव मणिफासो, तेसि णं बहुमज्झ-181
।। देसभाए पत्ते २ वरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसिणं बहुमज्झदेसभाए पत्ते २ मणिपेढिआओ पण्णताओ'त्ति || | उक्तप्राय, नवरमक्षपाट:-चतुरस्राकारो मणिपीठिकाधारविशेषः, अस्याः प्रमाणाद्यर्थमाह-'ताओ णं मणिपेडिआओ जोअणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोअणं बाहलेणं सबमणिमईओ सीहासणा भाणिअबा' इति, अन सिंहासनानि भणितव्यानि सपरिवाराणीत्यर्थः, शेषं व्यक्तम् , अथ स्तूपावसरः-'तेसि णमित्यादि, तेषा प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो
मणिपीठिकाः, अत्र बहुवचनं न प्राकृतशैलीभवं यथा द्विवचनस्थाने बहुवचनं हत्था पाया इत्यादिषु, किन्तु बहुत्व-18 18| विवक्षार्थ, तेनान तिसृषु प्रेक्षागृहमण्डपद्वारदिक्षु एकैकसद्भावात् तिम्रो ग्राह्याः, अन्यत्र जीवाभिगमादिषु तथा ||
॥३२॥ का दर्शनात्, अर्थतासां मानमाह-ताओ 'मित्यादि, कण्ठ्यं, यद्यप्येतत्सूत्रादशेषु 'जोअणं आयामविक्खम्भेणं अद्भजो-101
अणं बाहलेणं'इति पाठो दृश्यते तथापि जीवाभिगमपाठदृष्टत्वेन राजप्रश्नीयादिषु प्रेक्षामण्डपमणिपीठिकातः स्तूपमणि
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
~649~
Page #651
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [૮]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [१४३
-१४५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [८८] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Sanileio
| पीठिकाया द्विगुणमानत्वेन दृष्टत्वाच्चायं सम्यक् पाठः सम्भाष्यते, आदर्शेषु लिपिप्रमादस्तु सुप्रसिद्ध एव, अथ स्तूपवर्णनायाह - 'तासि ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ स्तूपाः प्रज्ञप्ताः, जीवाभिगमादौ तु चैत्यस्तूपा इति द्वे योजने ऊर्ध्वोच्चत्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति' रिति देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्या ग्राह्ये, अन्यथा मणिपीठिकास्तूपयोरभेद एव स्यात्, जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने उच्चत्वमित्यर्थः ते च श्वेताः, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति- 'संखदल'ति यावत्करणात् 'संखदलविमलनिम्मलदधि| घणगोखीरफेणरययनिअरण्यगासा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरुवा' इति प्राग्वत्, कियद्दूरं ग्राह्यमित्याह — यावद|ष्टाष्टमङ्गलकानीति । अथ तच्चतुर्दिशि यदस्ति तदाह-- 'तासि णं श्रभाणमित्यादि तेषां स्तूपानां प्रत्येकं चतुर्दिक्षु | चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेन अर्द्धयोजनं बाहल्येन, अत्र जिनप्रतिमा वक्तव्याः, तत्सूत्रं चेदम्- 'तासि णं मणिपेडिआणं उपिं पत्ते पत्ते चत्तारि जिनपडिमाओ जिणुस्सेहप्पमाणमि| ताओ पलिअंकसण्णिसण्णाओ धूभाभिमुहीओ सष्णिक्खित्ताओ चिति, तंजहा--उसभा वद्धमाणा चन्दाणणा वारिसेणा' इति, एतद्वर्णनादिकं वैताढ्ये सिद्धायतनाधिकारे प्रागुक्तं, गताः स्तूपाः, 'चेहअरुक्खाण' मित्यादि, व्यक्तम्, अत्र चैत्यवृक्षवर्णको जीवाभिगमोक्को वाध्यः स चायम्- 'तेसि ण चेइअरुक्खाणं अयमेआरुवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं०-वर मूलरयय सुपट्टि अविडिमा रिट्ठामयकंदवेरुलिअरुइलखंधा सुजायवरजायरूपपढमविसालसाला णाणामणि
Fur Fate &P Cy
~650~
Page #652
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू-
प्रत सूत्रांक [८८]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३२॥
गाथा:
रयणविविहसाहप्पसाहवेरुलिअपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जम्बूणयरत्तमउअसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा विचित्तमणिरय- वक्षस्कारे णसुरभिकुसुमफलभरणमिअसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीआ सउज्जोआ अमयरससमरसफला अहिअमणनयणणि- यमकृपवेत व्वुइकरा पासादीआ जाव पडिरूवा ४'इति, अत्र व्याख्या-तेषां चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तद्यथा
- वर्णनं वज्ररत्नमयानि मूलानि येषां ते वज्रमूला तथा रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे ऊर्ध्ववि-18 | निर्गता शाखा येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते तथा तथा वैडूर्यरनमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, सुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं बरं-प्रधानं यजातरूप-रूप्यं तदात्मिकाः प्रथमिका-मूलभूता विशालाः शाला:-शाखा येषां ते तथा, नानामणिरत्नात्मिका विविधाः शाखा-मूलशाखाविनि| र्गतशाखाः प्रशाखाः-शाखाविनिर्गतशाखा येषा ते तथा, तथा वैडूर्याणि-वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा, तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, जाम्बू-ISH नदा-जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्तवर्णा मृदुसुकुमारा-अत्यन्तकोमलाः प्रवाला-ईवदुन्मीलितपत्रभावरूपा पल्लवा-जातपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा घरांकुरा:-प्रथममुद्भिद्यमानास्तान् धरन्ति ये ते तथा, विचित्रमणिरक्षमयानि सुर-18 भीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता-नाम ग्राहिताः शाखा येषां ते तथा, सती-शोभना छाया येषां ते 81 सच्याः , एवं सत्प्रभाः अत एव सश्रीकाः तथा सोद्घोताः मणिरज्ञानामुषोतभावाद, अमृतरससमरसानि
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
~651~
Page #653
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
GESS3909asacases
18 फलानि येषां ते तथा, अधिक नयनमनोनिर्वृतिकराः, शेष प्राग्वत् , 'ते णं चेअरुक्खा अन्नेहिं बहुहिं तिलयल
वयछत्तोवगसिरीससत्तिवण्णलोद्दधवचंदणनीवकुडयकयंत्रपणसतालतमालपिआलपिअंगुपारावयरायरुक्खनन्दिरुक्खेहिं | सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ता'इति, ते चैत्यवृक्षा अन्यैर्बहुभिस्तिलकलवगच्छत्रोपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलोध्रधवचन्द-18
ननीपकुटजकदम्बपनसतालतमालप्रियालप्रियंगुपारापतराजवृक्षनन्दिवृक्षः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिताः, एते च | वृक्षाः केचिन्नामकोशतः केचिल्लोकतश्चावगन्तव्याः, 'ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवन्तो कंदवन्तो जाव सुरम्मा' ते च तिलकादयो वृक्षा मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृक्षवर्णनं प्रथमोपाङ्गतोऽबसेयं यावत्सुरम्या इति, 'ते णं तिलया जाव नन्दिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ता' ते च तिलकादयो वृक्षाः अन्याभिभिः पद्मलताभिर्यावच्छचामलताभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, यावच्छब्दादत्र नागलता-13 चम्पकलताद्या ग्रहणीयाः, 'ताओ ण पउमलयाओ जाव सामलयाओ निश्चं कुसुमिआओ जाव पडिरूवाओ' ताब | पद्मलताद्या नित्यं कुसुमिता इत्यादि लतावर्णनं यावत्प्रतिरूपाः, 'सि णं चेइअरुक्खाणं उप्पिं अमंगलया बहवे झया छत्चाइच्छत्ता, तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजाः छत्रातिच्छत्राणीत्यादि चैत्यस्तूपकवद्वक्तव्यं । गताश्चैत्यवृक्षाः, अथ महेन्द्रध्वजावसर:--'तेसि णं चेइअरक्खाण'मित्यादि, तेषां चैत्य-18 वृक्षाणां पुरतस्तिस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धयोजनं बाहल्येन,
తెలండలంలోerence
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
Cocesere
~652 ~
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्बासिणं उर्षि पत्तेइत्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञयाः, ते चाष्टिमानि-साई-18
४वक्षस्कारे द्वीपशा-18|| सप्तयोजनानि ऊर्बोच्चत्वेन अर्द्धकोश-धनुःसहस्रमुद्वेधेन-उण्डत्वेन तदेव बाहल्येन, 'वइरामयवट्ट'इतिपदोपल-181 यमकूपर्वत न्तिचन्द्री-|| क्षितः परिपूणों जीवाभिगमायुक्तवर्णको ग्राह्यः, स चायम्-'बइरामयबद्दलसंठिअसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपइद्विआ अणे
वर्णनं या वृत्तिः
सु.८८ || गवरपञ्चवण्णकुडभीसहस्सपरिमण्डिआभिरामा वाउडुअविजयवेजयन्तीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिआ तुंगा गगणतलमभि॥३२५॥18 लंघमाणसिहरा पासादीआ जाय पडिरूवा'इति, अत्र व्याख्या-वज्रमयाः तथा वृत्त-वर्तुलं लष्टं-मनोज्ञं संस्थितं-14
R|| संस्थानं येषां ते तथा तथा मुश्लिष्टा यथा भवन्ति एवं परिघृष्टा इव खरशाणया पाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिपष्टाः। |तथा मृष्टाः-सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव तथा सुप्रतिष्ठिताः-मनागप्यचलनात् तथा अनेकवर:-प्रधानः पञ्चवर्णैः कुडभीना-लघुपताकानां सहस्रः परिमण्डिताः सन्तोऽभिरामाः शेष प्राग्वत्, 'तेसि णं महिंदज्झयाणं उप्पिं अट्ठहम-18 गलया झया छत्ताइछत्ता' इत्यादि सर्व तोरणवर्णक इव वाच्यं जीवाभिगमत इति । उक्का महेन्द्रध्वजाः, अथ पुष्क| रिण्यः ताश्च 'वेइआवणसंड' इत्यादिपर्यन्तसूत्रेण संगृह्यते, तथाहि-तेसि णं महिंदज्झयाण पुरओ तिदिसि तओ गंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ अद्धतेरसजोषणाई आयामेणं छस्सकोसाई जोअणाई विक्खम्भेणं दसजोअणाई उधे- ॥३२५|| हेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्ते २ पउमवरवेइआपरिक्खित्ताओ पत्ते २ वणसण्डपरिक्खित्ताओ वण्णओ' तथा 'तासि णं णम्दापुक्खरिणीणं पत्ते २ तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णता, तेसि णं तिसो-18
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
~653~
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--....................-- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
वाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओ अ भाणिअबो जाव छत्ताइछत्ताई' इति, अत्र जगतीगतपुष्करिणीवत् सर्व वाच्यं, अथ सुधर्मसभायां यदस्ति तदाह-तासि णमित्यादि, तयोः सभयोः सुधर्मयोः षट् मनोगुलिकानां-पीठि-11 कानां सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-पूर्वस्या द्वे सहने पश्चिमायां दे सहने दक्षिणस्यामेकं सहस्रं उत्तरस्यामेकं सहनं, 'जाव दामा' इत्यत्र यावत्पदादिदं ग्राह्यम्-'तासु णं मणोगुलिआसु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसि णं सुवण्णरुष्पमएसु फलगेसु बहवे वइरामया णागदन्तगा पण्णत्ता,तेसु णं वइरामएसु नागदन्तेसु बहवे किण्हमुत्तवग्धारि-18 अमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारिअमलदामकलावा, तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा चिट्ठति'त्ति सर्व विजयद्वारवद्वाच्यम्, अनन्तरोक्तं गोमानसिकासूत्रेऽतिदिशति-'एवं गोमाणसिआओ'इत्यादि,एवं-मनोगुलिकान्यायेन गोमानस्य:शय्यारूपाः स्थान विशेषा वाच्याः, नवरं दामस्थाने धूपवर्णको वाच्यः,अथास्या एव भूभागवर्णकमाह-'तासि ण'मित्यादि, तयोः सुधर्मयोः सभयोः अन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, अत्र मणिवर्णादयो वाच्याः, उल्लोकाः पद्मलतादयोऽपि च चित्ररूपाः, अत्र विशेषतो यद्वक्तव्यं तदाह-'मणिपेढिा' इत्यादि,अत्र सुधर्मयोर्मध्यभागे प्रत्येक मणिपीठिका वाच्या,13 द्वे योजने आयाम विष्कम्भाभ्यां योजनं बाहल्येन,'तासि णमित्यादि,तोर्मणिपीठिकयोरुपरि प्रत्येक माणवकनाम्नि चैत्य-18 | स्तम्भे महेन्द्रध्वजसमाने प्रमाणतोऽwष्टमयोजनप्रमाण इत्यर्थः वर्णकतोऽपि महेन्द्रध्वजवत् , उपरि षट् क्रोशान् अवगाह्य | 18 उपरितनपटुक्रोशान वर्जयित्वेत्यर्थः अधस्तादपि षट् क्रोशान वर्जयित्वा मध्येऽधपञ्चमेषु योजनेषु इति गम्यं, जिनसक्थीनि,
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
Jintlemnition
~654~
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------....-------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
सीजन- व्यन्तरजातीयानां जिनदंष्ट्राग्रहणेऽनधिकृतत्वात् , सौधर्मशानचमरवलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणात्, प्रज्ञप्तानीति, शेषो ववस्कारे
वर्णकश्चात्र जीवाभिगमोको ज्ञेयः, स चाय--'तस्स णं माणवगचेइअस्स सम्भस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हिहावि यमपर्वत न्तिचन्द्री-
1छकोसे वजित्ता मज्झे अद्धपञ्चमेसु जोमणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णता, तेसु णं बहवे वरामया || वर्णेनं या चिः18|णागदन्तगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिकगा पण्णता, तेसु णं बहवे वरामया गोलयवहसमुग्गया पण्णता,
मू.८८ 138118|तेसु णं बहवे जिणसकाहाओ सणिखित्ताओ चिट्ठन्ति,जाओणं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बढणं वाणमन्तरार्ण देवाण ।
य देवीण य अञ्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइ पजुवासणिज्जाओं' इति, अत्र व्याख्या-'तस्स णमित्याद्यारभ्य वज्जित्ता' इति पर्यन्तं प्रायः प्रस्तुतसूत्रे साक्षाद् दृष्ट-S| त्वादनन्तरमेव व्याख्यातं, मध्येऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु अवशिष्टयोजनेवित्यर्थः, अत्रान्तरे बहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्रज्ञप्तानि. तेषु फलकेषु बहवो वज्रमया नागदन्तकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि शिक्य-1॥ कानि प्रज्ञतानि, तेषु शिक्यकेषु बहवो वज्रमया गोलको-वृत्तोपलस्तद्वद् वृत्ताः समुद्गका:-प्रसिद्धाः प्रज्ञप्ताः, तेषु समु-13 दकेषु बहूनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि यमकयोर्देवयोः अन्येषां च बहूनां यमकराजधानीवास्तव्यानां ||३२६॥ वानमन्तराणां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि चन्दनादिना वन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना सत्कारणीयानि वस्त्रादिना सन्माननीयानि बहुमानकरणतः कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानीति, एतदा
ARomanGH
~655~
Page #657
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
शातनाभीरुतयैव तत्र देवा देवयुवतिभिर्न सम्भोगादिकमाद्रियन्ते नापि मित्रदेवादिभिर्हास्यक्रीडादिपराः स्युरिति, ननु जिनगृहादिषु जिनप्रतिमानां देवानामर्चनीयत्वादिकमाशातनात्यागश्च युक्ती, तासां सद्भावस्थापनारूपत्वेनाराध्य| तासङ्कल्पप्रादुर्भावसम्भवात्, न तथा जिनदंष्ट्रादिषु, तेन कथं तौ घटेते, पूज्यानामङ्गानि पूज्या इव पूज्यानीति18 | सङ्कल्पस्यात्रापि प्रादुर्भावात् पूज्यत्वं महावैरोपशमकगुणवत्त्वेन च, अस्मिन्नर्थे पूज्यश्रीरलशेखरसूरीन्द्रोपजश्राद्धविधिवृत्तिसम्मतिः, तथाहि परीक्षाप्राप्तनिर्लोभतागुणं रतसारकुमारं प्रति चन्द्रशेखरवच:-"हरिसेनानीहरिणेगमेप्यनिमिषाग्रणीः । युक्तमेव तव श्लाघां, कुरुते, सुरसाक्षिकम् ॥१॥ वक्ति स्म विस्मयस्मेरः, कुमारः स सुराप्रणी। मामश्लाघ्य श्लाघते किं ?, सोऽप्युवाच शृणु ब्रुवे ॥२॥ नव्योत्पन्नतयाऽन्यहि, सौधर्मेशानशक्रयोः। विवादोऽभूद्विमानार्थ, हार्थमिव हर्मिणोः ॥ ३ ॥ विमानलक्षा द्वात्रिंशत्तथाऽष्टाविंशतिः क्रमात् । सन्त्येतयोस्तथाऽप्येतो, विवदेते स्म धिम् भवम् ॥ ४ ॥ तयोरिवोवींश्वरयोविमानचिपलुब्धयोः ।नियुद्धाविमहायुद्धान्यप्यभूवन्ननेकशः ॥ ५॥ निवार्यते हि कलहस्तिरश्चां तरसा नरैः । नराणां च नराधीशैनराधीशां सुरैः कचित् ॥६॥ सुराणां च सुराधीशैः, सुराधीशां पुनः कथम् । केन वा स निवार्येत, वनाग्निरिव दुःशमः ॥७॥ युग्मम् । माणवकाख्यस्तम्भस्थाईदंष्ट्राशान्तिवारिणा । आधिव्याधिमहादोषमहावैरनिवारिणा ॥ ८॥ कियत्कालव्यतिक्रान्ती, सिक्ती महत्तः सुरैः । बभूवतुः प्रशान्ती ती, किंवा सिध्येन्न तज्जलात् ॥९॥ युग्मम् । ततस्तयोमिथस्त्यक्तवैरयोः सचिवद्धयोः । पोचे पूर्वव्यवस्थैर्य, सुधियां
00000000000000000sasoe
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
Jimillenni
~656~
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [४], ----------
----------------------- मूल [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
वर्णन
[८८]
गाथा:
श्रीजम्बू- समये हि गीः ॥१०॥ सा चैवम्--दक्षिणस्यां विमाना ये, सौधर्मेशस्य तेऽखिलाः । उत्तरस्यों तु ते सर्वेऽपीशा-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- नेन्द्रस्य सत्तया ॥११॥ पूर्वस्यामपरस्यां च, वृत्ताः सर्वे विमानकाः । त्रयोदशापीन्द्रकाश्च, स्युः सौधर्मसुरेशितुः यमकृपर्वत त्रिचन्द्री
R॥१२॥ पूर्वापरदिशोरयस्राश्चतुरस्राश्च ते पुनः । सौधर्माधिपतेर , अद्धो ईशानचक्रिणः ॥ १३ ॥ सनस्कुमारमा-19 या इतिः
। हेन्द्रेऽप्येष एव भवेत् क्रमः । वृत्ता एव हि सर्वत्र, स्युर्विमानेन्द्रकाः पुनः ॥१४॥ इत्थं व्यवस्थया चेतःस्वास्थ्य- ८ ॥३२॥ मास्थाय सुस्थिरौ । विमत्सरौ प्रीतिपरी, जज्ञाते तो सुरेश्वरौ ॥१५॥” इति अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-'माणक्गस्स'इत्यादि,
माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि सुधर्मायामेव सभायां सिंहासने सपरिवारे स्तः, यमकदेवयोः प्रत्येकमेकैकसद्भावात् , तस्मादेव पश्चिमायां दिशि शयनीये वर्णकश्च तदीयः श्रीदेवीवर्णनाधिकारे उक्तः, शयनी
ययोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजौ स्तः, तौ च मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणौ, सार्द्धसप्तयोजनप्रमाणावुद्ध-18 18वेनार्द्धक्रोशमुद्वेधेन-बाहल्याभ्यामित्यर्थः, ननु यदीमौ प्रागुक्तमहेन्द्रध्वजतुल्यौ तवा किमिमी क्षुल्लकेन विशे-18|| 18 पितौ ?, उच्यते, मणिपीठिकाविहीनी, अत एवं क्षुल्लौ, कोऽर्थः -द्वियोजनप्रमाणमणिपीठिकोपरिस्थितस्वेन पूर्व 181 18|महान्तो महेन्द्रध्वजास्तदपेक्षया इमौ च धुलावित्यर्थीदागतमिति, तयोः क्षुलमहेन्द्रध्वजयोरेकैकराजथानी-18|
॥३२७॥ 18 सम्बन्धिनोरपरेण पश्चिमायां घोपालो नाम प्रहरणक्रोशः-प्रहरणभाण्डागारं, तत्र पनि परिषरक्षप्रमुखाणि 181
यावत्पदात् पहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'सुहम्माण'मित्यादि, सुधर्मयोरुपर्यधाष्टमङ्गलकानि इत्यादि |8||
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
Jitennilin
२
tners
~657~
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
seceseseय
[८८]
गाथा:
तावद् वक्तव्यं यावत् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरक्षमया इत्यादि । सुधर्मसभातः परं किमस्तीस्थाहतासि ॥'-1 मित्यादि, तयोः सुधर्मसभयोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि द्वे सिद्धायतने प्रज्ञप्ते इति शेष:, प्रतिसभमेकैकसद्भावादिति, अत्र लाघवार्थमतिदेशमाह-एष एव-सुधर्मासभोक्त एव जिनगृहाणामपि गमः-पाठोऽवगन्तव्यः, स चायम्-'तेणं सिद्धाययणा अद्धतेरसजोषणाई आयामेणं छस्सकोसाई विक्खम्भेणं णव जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठा' | इत्यादि, यथा सुधर्मायास्त्रीणि पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि द्वाराणि तेषां पुरतो मुखमण्डपाः तेषां च पुरतः प्रेक्षामण्डपाः || तेषां पुरतः स्तूपाः तेषां पुरतश्चैत्यवृक्षाः तेषां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्तास्तदनु सभायां 8 षड् मनोगुलिकासहस्राणि पडू गोमानसीसहस्राण्युक्तानि एवमनेनैव क्रमेण सर्व वाच्यम् , अत्र च सुधर्मातो यो विशे-18 | पस्तमाह-'णवरं इमणाणसं'इत्यादि व्यक्तम् , अथ सुधर्मासभोक्तमेव समाचतुष्केऽतिदिशमाह-एवं अवसेसाणवि इत्यादि, एवं सुधर्मान्यायेन अवशिष्टानामुपपातसभादीनां वर्णनं ज्ञेयं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावदुपपातसभायांउत्पित्सुदेवोत्पत्त्युपलक्षितसभायां शयनीयं वर्णनीयं तच्च प्राग्वत्,तथा ह्रदश्च वक्तव्यो नन्दापुष्करिणीमानः,स चोत्पन्नदेवस्य ।
शुचित्वजलक्रीडादिहेतुः, ततोऽभिषेकसभायां-अमिनवोत्पन्नदेवाभिषेकमहोत्सवस्थानभूतायां बहु आभिषेक्यं-अभि-81 |पेकयोग्यं माण्ड वाच्यं, तथा अलङ्कारसभायां-अभिषिक्तसुरभूषणपरिधानस्थानरूपायां सुबहु अलङ्कारिकभाण्डं-अलकारयोग्यं भाण्डं तिष्ठति, व्यवसायसभयो:-अलंकृतसुरशुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपयोः पुस्तकरने ततो बलिपीठे॥8॥
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
~658~
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
---------------------- मूल [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८८]
गाथा:
श्रीजम्य-
अनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नसुरयोर्वलिविसर्जनपीठे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनं बाहल्येन यावत्पदात् 'सब- अचनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नसुरयावालावसज्जनपीठ = योजन
स्वक्षस्कारे द्वीपशा- रयणामया अच्छा पासाईआ ४' ततो नन्दाभिधाने पुष्करिण्यो बलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मासभा जिगमिषतोरभिनवो- यमकपर्वत न्तिचन्द्री- पानसरयोर्हस्तपादप्रक्षालन हेतुभूते, अत एव सूत्रे प्रथमोक्ते अपि नन्दापुष्करिण्यौ प्रयोजनक्रमवशात् पश्चाद व्याख्याते | या चिः क्रमप्राधान्यान् व्याख्यानस्य, अथ यथा सुधर्मासभातः उत्तरपूर्वस्यां दिशि सिद्धायतनं तथा तस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि 181 ॥३२८॥
उपपातसभा, एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् परं परमुत्तरपूर्वस्यां वाच्यं यावदलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दा पुष्करिणीति, अत्र च 'जमिगाओ रायहाणीओ' इत्यादिसूत्रेषु द्विवचनेन, 'तासिं जाव उप्पिं माणवए चेइअखम्भे' इत्यादिसूत्रेष्वेक-181 वचनेन निर्देशः सूत्रकाराणां प्रवृत्तिवैचित्र्यादिति ॥ वर्णिते यमिकाभिधे राजधान्यौ, अथानयोरपिपयोर्यमकदेवयो-181 | रुत्पत्त्यादिस्वरूपाख्यानाय विस्तरारुचिः सूत्रकृत् संग्रहगाधामाह-'उपवाओ संकप्पो'इत्यादि, उपपातो-यमकयो|| देवयोरुत्पत्तिर्वाच्या, ततः उत्पन्नयोः सुरयोः शुभव्यवसायचिन्तनरूपः सङ्कल्पः, ततोऽभिषेक:-इन्द्राभिषेकः, ततः || विभूषणा-अलङ्कारसभायामलङ्कारपरिधान, ततो व्यवसायः-पुस्तकरलोद्घाटनरूपः, ततः अर्चनिका-सिद्धायतनाद्यर्चा, || ततः सुधर्मायां गमनं, यथा च परिवारणा-परिचारकरणं स्वस्वोक्तदिशि परिवारस्थापनं यथा यमकयोदेवयोःसिंहासनयो।
॥३२॥ परितो वामभागे चतुःसहस्रसामानिकभद्रासनस्थापन सैव ऋद्धिः-सम्पत् रूपनिष्पत्तिस्तु "णिज बहलं नाम्नः कृगादिषु' "' (श्रीसिद्ध० अ०३ पा०४ सू०४२) इत्यनेन करणार्थे 'णिवेत्यासनथघट्टवन्देरनः' (श्रीसिद्ध अ०५पा०३सू०१११)
दीप
अनुक्रम [१४३-१४५]
~659~
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [४], ----------
---------------------- मूलं [८८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
accae
[८८]
गाथा:
इत्यनेन चानप्रत्यये स्त्रीलिङ्गीय आप्प्रत्यये साधुः तथा वाच्यं 'जीवाभिगमादिभ्यः। अथ यमको द्रहाश्च यावता
अन्तरेण परस्परं स्थितास्तन्निणेतुमाह-जावइयं' इत्यादि, यावति प्रमाणे-अन्तरमाने नीलवतो यमको भवतः खलु| निश्चितं तावदन्तरं योजनसवभागचतुर्भागाभ्यधिकचतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं यमकद्रयोहाणां च बोध्यमिति | | शेषः, उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ॥ अथ येषां इदानामन्तरमानमनन्तरमुक्तं तान् स्वरूपतो निर्दिशति
कहिण भन्ते ! उत्तरकूराए णीलवन्तहहे णाम वहे पण्णत्ते, गोजमा ! जमगाणं दक्विणिल्लाओ चरिमन्ताओ अट्ठसए चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अवाहाए सीआए महाणईए बहुमझदेसभाए एत्य ण णीलवन्तददे णाम दहे पण्णत्ते दादिणउत्तरायए पाईगपडीणविच्छिण्णे जहेव पउमड़हे तहेव वण्णओ अव्वो, णाणत्वं दोहिं पउमवरवेइआदि दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते, णीलवन्ते णामं णागकुमारे देवे सेसं तं चेव अवं, णीलवन्तदहस्स पुब्वावरे पासे दस २ जोषणाई अबाहाए एत्य णं वीसं कंचणगपचया पण्णत्ता, एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं-मूलंमि जोअणसयं पण्णतरि जोभणाई मज्झमि । नवरितले कंचणगा पण्णास जोषणा हुँति ॥ १॥ मूलंमि तिणि सोले सत्तत्तीसाई दुणि मझमि । अट्ठावण्णं च सर्व उवरितले परिरओ होइ ॥ २ ॥ पढमिस्थ नीलवन्तो १ वितिओ उत्तरकुरू २ मुणेअव्यो । चंददहोत्थ तइओ ३ एरावय ४ मालवन्तो अ५॥ ३ ॥ एवं वण्णओ अट्ठो पमाण पलिओवमट्टिइआ देवा (सूत्रं ८९) 'कहि णमित्यादि, क भदन्त! उत्तरकुरुषु २ नीलवद्हो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! यमकयोर्दाक्षिण्या चर
%88000
दीप अनुक्रम [१४३-१४५]
9808990s
Similesmanormal
~660~
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [८९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८९]
द्वीपशान्तिचन्द्री
गाथा:
श्रीजम्ब-18मान्तादष्ट शतानि चतुर्विंशदधिकानि चत्वारि च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया कृत्वा इति गम्यं, अपाम्तराले वक्षस्कारे
मुक्त्वेति भावः, शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे नीलबद्रहो नाम द्रहः प्रज्ञप्तः, दक्षिणोत्तरायतःप्राचीनप्रती- नीलबदा
चीनविस्तीर्णः,पद्मद्रहश्च प्रागपरायतः उदग्दक्षिणपृथुरिति पृथग्विशेषणं, यथैव पद्महे वर्णकस्तथैव नेतव्यः, नानात्वमिति या दृचिः
अनपर्वताः विशेषोऽयं, द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, अयं भावः-पद्मद्रह एकया पद्मवरवेदिकया। ॥३२९॥ एकेन च वनखण्डेन परिक्षिप्तः, अयं तु प्रविशन्त्या निर्यान्त्या च शीतया महानद्या द्विभागीकृतत्वेनोभयोःपायोति
नीभ्यां वेदिकाभ्यां युक्त इति सम्यक, अर्थश्च नीलवर्षधरनिभानि तत्र तत्र प्रदेशेषु शतपत्रादीनि सन्ति अथवा नीलव
भामा नागकुमारो देवोऽत्राधिपतिरिति नीलवान् इद इति, शेषं पद्मादिकं तदेव नेतव्यं, पमद्रह इव पद्ममानसङ्ख्या -13 शपरिक्षेपादिकं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ अथ काश्चनगिरिव्यवस्थामाह--णीलवन्त इत्यादि, नीलवद्महस्य पूर्वापरपाययोः प्रत्येक दशदशयोजनान्यबाधया कृत्वेति गम्यं, अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे दक्षिणोत्तरश्रेण्या परस्परं मूले | सम्बद्धाः अन्यथा शतयोजन विस्ताराणामेषां सहस्रयोजनमाने द्रहायामेऽवकाशासम्भव इति, विंशतिः कापानकपर्वताः ॥॥ प्रज्ञताः, एक योजनशतमूर्वोच्चत्वेन, गाथाद्वयेनैतेषां विष्कम्भपरिक्षेपावाह-मूले योजनशतं मध्ये-मूलतः पञ्चाश-||
॥३२९॥ आयोजनोवंगमने पञ्चसप्ततियोजनानि उपरितने-शिखरतले पञ्चाशद्योजनानि विस्तारेण भवंति काश्चनकाभिधाः पर्वताः || HRIमूले त्रीणि योजनशतानि पोडशाधिकानि मध्ये द्वे योजनशते सप्तत्रिंशदधिके अष्टपश्चाशदधिकयोजनशतं ॥
दीप अनुक्रम [१४६-१५०
~6614
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
------..------------ मूलं [८९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८९]
गाथा:
उपरितले परिरया-परिधिरिति॥२॥इह च मूले परिधी मध्यपरिधौ च किंचिद्विशेषाधिकरवं गाथावन्धानुलोम्यादनुक्कमप्यवसेयं ॥ अथ सङ्ख्याक्रमेण पथानामपि दानां नामान्याह-'पढमित्थ'इत्यादि, प्रथमो नीलवान् द्वितीय उत्तरकुरुआतव्यः चन्द्रद्रहोऽत्र तृतीयः ऐरावतश्चतुर्थः पञ्चमो माल्यवांश्च, अथानन्तरोकानां काञ्चनाद्रीणां एषां च द्रहादीनां स्वरूपप्ररूपणाय लाघवार्थमेकमेव सूत्रमाह-एवं वपणओ'इत्यादि, एवं-उक्तम्यायेन नीलवन्द्रन्यायेनेत्यर्थः उत्तरकु| रुहदादीनामपि ज्ञेयः पनायरवेदिकावनखण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलपद्माष्टोत्तरशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यतापि, तथैवार्थ:-उत्तरकुर्वाद्रिद्रहनामान्वर्थः उत्तरकुरुगदप्रभोत्तरकुरुहूदाकारोत्पलादियोगादुत्तरकुरुदे-18|| वस्वामिकत्वाच्चोत्तरकुरुहूद इति, चन्द्रहदप्रभाणि-चन्द्रहदाकाराणि चन्द्रहदवर्णानि चन्द्रश्चात्र देवः स्वामीति चन्द्रदा , ऐरावत-उत्तरपार्श्ववर्तिभरतक्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रविशेषस्तत्प्रभाणि-तदाकाराणि, आरोपितण्यधनुराकाराणीत्यर्थः,
| उत्पलादीनि ऐरावतश्चात्र देवः प्रभुरित्यैरावता, माल्यवक्षस्कारनिभोत्पलादियोगाम्माल्यवदेवस्वामिकत्वाच माल्यव-ISM IS द्द इति, प्रमाणं च सहस्रं योजनान्यायामस्तदर्द्ध विष्कम्भ इत्यादिकं, पल्योपमस्थितिकाश्चात्र देवाः परिवसन्ति,
तत्राद्यस्य नागेन्द्र उक्तः, शेषाणां व्यन्तरेन्द्राः, काश्चनाद्रीणां च वर्णको यमकाद्रिवद्वाच्यः, अर्धश्च काशनवर्णोत्पला| दियोगात् काश्चनाभिधदेवस्वामिकत्वाञ्च काञ्चनाद्रयः, प्रमाणं योजनशतोच्चत्वं मूले योजनशतं विस्तार इत्यादिक | उत्तरकुरुहूदादिशेपद्रहपार्श्ववर्तिकाञ्चनाचलापेक्षयेदं बोध्यं, अथवा प्रमाणं प्रतिइदं विंशतिः प्रतिपाई दश सर्वस
Coteseeeeeeeeecener
H
दीप अनुक्रम [१४६-१५०
~662~
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
...............---------- मूलं [८९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८९]
श्रीजम्बू
वक्षस्कारे जम्वृक्षवर्णन
गाथा:
दीप अनुक्रम [१४६-१५०
सव्यया शतमित्यादिक पस्योपमस्थितिकाश्चात्र देवा इति राजधाग्यश्चैतेषामत्रानुक्का अपि यमकदेवराजधानीव- द्वीपशा
द्वाच्याः परं तत्तदमिलापेनेति ॥ अथ यन्नाम्ना इदं जम्बूदी ख्यातं तां सुदर्शनानानी जम् विवक्षुस्तदधिष्ठानमाह-- न्तिचन्द्री-18 या वृत्तिः 'कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए २ जम्बूपेढे णाम पेढे पण्णते?, गोअमा! णीलवन्तरस वासहरपब्जयस्स दक्षिणेणं मन्दरस्स उत्त.
रेण मालवन्तस्स पक्खारपवयरस पश्चस्थिमेणं सीमाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्य णं उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे णाम पेढे ॥३३०॥
पण्णते, पञ्च जोमणसयाई आयामविक्खम्मेणं पण्णरस एकासीयाई जोअणसयाई किंचिविसेसाहिबाई परिक्खेवणं, बहुमनादेसभाए पारस जोषणाई थाहलेणं तयणन्तरं च णं मायाए २ पदेसपरिहाणीए २ सव्वेसु णं चरिमपेरतेसु दो दो गाऊमाई बाहलेणं सबजम्बू गयामए अच्छे से णं एगाए पउमबरवेइआए एगेण य वणसंडेणे सम्बओ समन्ता संपरिक्खिते दुण्डंपि वण्णओ, तस्स णं जम्बूपेढस्स चउदिसि पए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पणत्ता वणो जाच सोरणाई, तस्स णं जम्यूपेढस्स बहुममदेसभाए एव ण मणिपढिा पग्णता अहजोअगाई आयाम विक्खम्भेगं चत्तारि जोभणाई बादले ग, तीसे णं मणिपेदि. आए उणि एत्थ ण जम्यूमुसणा पणत्ता, अह जोअगाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोअगं तम्प्रहेणं, तीसे ण संधो दो जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोअणं बाहल्लेणं, तीसे णं साला छ जोअण्णाई उद्धं उच्चत्तेण बहुमज्झदेसभाए अहजोभणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अट्ठ जोअणाई सव्वग्रोणं, तीसे णं अबमेआरूवे वणावासे पं०-बहरामया मूला रययसुपइट्ठिअविडिमा जाव अहिअमणणिब्बुइकरी पासाईआ दरिसणिज्जा, जंवूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पं०, तेसि णं सालार्ण बहुमझदेसभाए एत्य णं
200000
seseseseseseser
॥३३०॥
अथ जम्बू/सुदर्शन वृक्षस्य वर्णनं आरभ्यते
~663~
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
eseseaeeeekerseseseseaeesepe
सिद्धाययणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खम्भेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसण्णिविट्टे जाप दारा पचवणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव वणमालाओ मणिपढिआ पञ्चधणुसयाई आयामविक्खम्भेणं अद्धाइलाई धणुसयाई बाहलेणं, तीसे गं मणिपेढिआए उपि देवच्छन्दए पंचधणुसयाई आयामविक्खम्भेणं साइरेगाई पञ्चधणुसयाई उद्धं उपत्तेणं, जिणपडिमावपणभो अन्योत्ति । तत्थ णे जे से पुरथिमिले साले एत्व णं भवणे पण्णते, कोसं आयामेणं एवमेव णवरमित्य सयणिज सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा य सपरिवारा इति । जम्बू ण बारसहिं पठमवरवेइआदि सब्बओ समन्ता संपरिक्सित्ता, बेइमाणं वण्णओ, जम्बू णं अण्णेणं अट्ठसएणं जम्पूर्ण तदद्धच्चत्ताणं सव्वो समन्ता संपरिक्खित्ता, तासि णं वण्णओ, ताओ णं जम्बू छहि पउमवरवेइहिं संपरिक्खित्ता, जम्बूए णं सुदसणाए उत्तरपुरथिमेणं उत्तरेणं उत्तरपञ्चस्थिमेणं एत्य णं अणाढिमस्स देवस्स चाटण्हं सामाणिअसाहस्सीणं चत्तारि जम्यूसाहस्सीओ पाणचाओ, तीसे णे पुरस्थिमेणं चलण्डं अगमहिसीर्ण पत्तारि जम्बूभो पण्णत्ताभो, दक्षिणपुरथिमे दक्सिणेणं तह अवरदक्खिणेणं च । अट्ठ दस बारसेव व भवन्ति जम्बूसहस्साई ॥१॥ अणिआहिवाण पचत्थिमेण सत्तेव हॉति जम्बूओ। सोलस साहस्सीओ चउदिसि आयरक्खाणं ॥ २॥ जम्बूए णं तिहिं सइएहिं वणसंडेहि सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ता, जम्बूए णं पुरथिमेणं पण्णास जोषणाई पढमै वणसंडं ओगाहिता एत्य णं भवणे पण्णते कोसं आयामेणं सो चेव वण्णओ सयणिजं च, एवं सेसासुवि विसासु भवणा, जम्बूर णं उत्तरपुरथिमेणं पढमं वणसण्डं पण्णासं जोअणाहं ओगाहित्ता एत्य णं चचारि पुक्खरिणीओ पण्णताओ, जहा-पचमा १ परमप्पभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ४, ताओ णं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खम्भेणं पञ्चषणुसयाई उन्हेणं वण्णो तासिणं मज्झे पासायव.सगा कोर्स
दीप
अनुक्रम [१५१-१६२]
~664~
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
| ध्वक्षस्कारे
सूत्रांक [९०]
श्रीजम्यूद्वीपशान्तिचन्द्री
सु. ९०
या वृत्तिः ॥३३॥
गाथा:
आयामेण भद्धकोसं विक्खम्भेणं देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चतेणं वण्णओ सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसामु, गाहा मठमा परमप्पभा चेब, कुमुदा कुमुदष्पहा । उप्पलगुम्मा णलिणा, उप्पला उप्पलुज्जला ॥ १ ॥ भिंगा भिग्गप्पभा घेव, भंजणा कजलप्पभा । सिरिकता सिरिमहिमा, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया ।। २ ॥ जम्बूए णं पुरथिमिलस्स भवणस्स उत्तरेणं सत्तरपुरस्थि
नमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं एत्व णे कूडे पण्णते अढ जोमणाई उद्धं
अ० ई०प प्रा..
प्रा. उच्चत्तेणं दो जोअणाई उज्वेहेणं मूले अट्ठ जोगणाई आवामविक्खम्भेणं बहुमझदे
सभाए छ जोषणाई आयामविक्खम्भेणं उवरि चत्तारि जोषणाई आयामविक्सम्भेण-पणवीसहारस बारसेव मूले अमज्झि उवरि च । सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो ॥ १॥ मूले विच्छिण्णे मझे संखिचे उबर तणुए सबकणगामए अच्छे बेइआवणसंडवण्णओ, एवं सेसावि कूड़ा इति । जम्बूए णं सुर्वसणाए दुवालस णामधेजा पं०, तं०-सुदंसणा १ अमोहा २ य, सुप्पबुद्धा ३
असोहरा ४ । विदेहजम्बू ५ सोमणसा ६, णिअया ७ णिञ्चमंडिआ ८ ००
. .. ॥१॥ सुभदा य ९ विसाला य १०, सुजाया ११ सुमणा १२ विमा । 01
Me _
सुदंसणाए जम्बूए, णामधेचा दुवालस ॥२॥ जम्बूए णं अट्ठमंगलगा०,
2
उत्तर कु०म० ०
दक्षिण
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
.
॥३३॥
~665~
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
----------------------- मूल [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुचा-जम्बू सुदंसणा २१, गोभमा! जम्यूए णं सुदसणाए अणाढिए णाम जम्बुदीवाहिवई परिवसइ महितीप, से सत्य चपण्हं सामाणिअसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं, जम्युहीवस्स णं दीवस्स जम्यूए सुदंसणाए अणाढिआए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूर्ण देवाण व देवीण य जाव विहरइ, से तेणद्वेणं गो०! एवं वुवइ, मदुरुत्तरा ण प णं गोधमा । जम्बूसुदंसणा जाव भुवि च ३ धुवा णिआ सासया अक्खया जाव अवहिमा । कहिणं भन्ते। अणाढिअस्स देवस्स अणादिआ णामं रायहाणी पण्णता?, गोअमा ! जम्बुद्दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चेव पुन्ववणि जमिगापमाणं तं चेव अम्ब, जाव उववाओ अमिसेओ अ निरवसेसोसि (सूत्रं ९०) । 'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठ नाम पीठं प्रज्ञप्तं 1, निर्वचनसूत्रे गौतमेत्यामन्त्रणं गम्यं, नील-18 वतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य गजदन्तापरपर्यायस्य पश्चिमेन-1 पश्चिमायां शीताया महानद्याः पूर्वकूले-शीताद्विभागीकृतोत्तरकुरुपूर्वार्द्ध तत्रापि मध्यभागे अत्रान्तरे उत्तरकुरुषु कुरुषु। जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तं, पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भेन योजनानां पञ्चदशशतान्येकाशीत्यधिकानि किंचिद्विशे-|
पाधिकानि परिक्षेपेण बहुमध्यदेशभागे विवक्षितदिक्मान्तादर्घतृतीयशतयोजनातिक्रमे इत्यर्थः, बाहल्येन द्वादश योज-18| 18|| नानि, तदनन्तरं मात्रया २-क्रमेण २ प्रदेशपरिहाण्या परिहीयमाणः २ 'सब्वेसु'त्ति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी ||| 1.|| तेन सर्वेभ्यश्चरमप्रान्तेषु मध्यतोऽर्द्धतृतीययोजनशतातिक्रमे इत्यर्थः, द्वौ क्रोशौ बाहल्येन, सर्वोत्मना जाम्बूनद-18|
दीप
अनुक्रम [१५१-१६२]
D
immitrinaru
~666~
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
न्तिचन्द्री-18
गाथा:
श्रीजम्यू-18 मयं, 'अच्छ'मित्यादि, 'से णं एगाए पउम'इत्यादि, तदिति अनन्तरो जम्बूपीठं एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वक्षस्कारे द्वीपशा- वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तमिति शेषः, द्वयोरपि पद्मवरवेदिकावनखण्डयोर्वर्णकः स्मर्त्तव्यः प्राक्तनः। जम्बूपक्ष
| तच्च जघन्यतोऽपि चरमान्ते द्विकोशोचं कथं सुखारोहावरोहमित्याशयाह-तस्स ण'मित्यादि, तस्य जम्बूपीठस्य चतु-181 या वृत्तिः
सू.९० |दिशि एतानि दिनामोपलक्षितानि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, एतानि च त्रीणि मिलितानि द्विकोशो॥३३२॥18|चानि भवन्ति कोशविस्तीणोंनि अत एव प्रान्ते द्विकोशबाहल्यात् पीठात् उत्तरतामवतरतां च सुखावहद्वारभूतानि
वर्णकश्च तावद्वक्तव्यो यावत् तोरणानि, 'तस्स णमित्यादि, व्यकं, 'तीसे 'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि [अन्न जम्बूः सुदर्शनानाम्नी प्रज्ञप्ता, अष्ट योजनान्यूर्वोच्चत्वेन अर्बयोजनमुद्वेपेन-भूमवेशेन, अथास्या एवोच्चत्वस्याष्ट
योजनानि विभागतो द्वाभ्यां सूत्राभ्यां दर्शयति-तीसे 'मित्यादि, तस्या जम्ग्वाः स्कन्धा-कन्दादुपरितनः18 | शाखाप्रभवपर्यन्तोऽवयवो द्वे योजने अध्वोच्चत्वेनाईयोजनं बाहल्येन-पिण्डेन तस्याः शाला विडिमापरपोया दिक्प्रसूता शाखा-मध्यभागप्रभवा ऊर्ध्वगता शाखा पह योजनान्यूध्वोच्चत्वेन, तथा बहुमध्यदेशभागे प्रकरणाजम्यूरिति
गम्यम्, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तान्येवास्याः स्कन्धोपरितनभागाचतसम्बपि दिक्षु प्रत्येकमेकैका शाखा|8|| ॥३३॥ १२) निर्गता ताच क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि, तेन पूर्वापरशाखादैर्ध्यस्कन्धवाहस्यसम्बनध्ययोजनमीलनेनोकसराख्यानयन, बहुमध्यदेशभागश्चात्र व्यावहारिको ग्राह्या, वृक्षादीनां शाखाप्रभवस्थाने मध्यदेशस्य लोकेन्यवाहियमाण
डलne
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
Eleon01
~667~
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[30]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१५१
-१६२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९०] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
खात्, पुरुषस्य कटिभाग इव, अन्यथा विडिमाया द्वियोजनातिक्रमे निश्चयप्राप्तस्य मध्यभागस्य ग्रहणे पूर्वापरशाखाद्वय विस्तारस्य ग्रहणसम्भवः विषमश्रेणिकत्वात्, अथवा बहुमध्यदेशभागः शाखानामिति गम्यते, कोऽर्थः १ - यतश्चतुर्दिक्शाखामध्यभागस्तस्मिन्नित्यर्थः, अष्टयोजनानयनं तु तथैव, उच्चत्वेन तु सर्वाग्रेण - सर्वसङ्ख्यया कन्दस्कन्धविडिमापरिमाणमीलने सातिरेकाण्यष्टौ योजनानीति, अथास्या वर्णकमाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्या जम्ब्वा अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञतः, वज्रमयानि मूलानि यस्याः सा वज्रमयमूला तथा रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता विटिमाबहुमध्यदेशभागे ऊर्ध्वविनिर्गता शाखा यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः पदद्वयकर्मधारयः, यावत्पदात् चैत्यवृक्षवर्णकः सर्वोऽप्यत्र वाच्यः कियत्पर्यन्तमित्याह -- अधिकमनोनिर्वृतिकरी प्रासादीया दर्शनीया इत्यादि । अथास्याः शाखाण्यक्तिमाह — 'जंबूए ण' मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः चतुर्दिशि चतस्रः शाला:- शाखाः प्रज्ञष्ठाः, तासां | शालानां बहुमध्यदेशभागे उपरितन विडिमा शालायामित्यध्याहार्यं जीवाभिगमे तथा दर्शनात् शेषं सुलभं वैताढ्यसिद्धकूटगत सिद्धायतनप्रकरणतो ज्ञेयमित्यर्थः, अत्र पूर्वशालादौ यत्र यदस्ति तत्र तद्वत्कुमाह- 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र-तासु चतसृषु शालासु या सा पौरस्त्या शाला सूत्रे प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः अत्र भवनं प्रज्ञप्तं क्रोशमायामेन 'एवमेवेति सिद्धायतनवदिति, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमुश्चत्वेनेति प्रमाणं द्वारादिवर्णकश्च वाच्यः, नवरमंत्र शयनीयं वाच्यं, शेषासु दाक्षिणात्यादिशालासु प्रत्येकमेकैकभावेन त्रयः प्रासादावतंसकाः सिंहासनानि सपरिवाराणि
Fur Fraternae Cy
~899~
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे
सूत्रांक
जम्मवृक्ष
[९०]
म.९०
गाथा:
श्रीजम्बू-18 च बोद्धव्यानि तेषां प्रमाणं च भवनवत्, तत्र खेदापनोदाय भवनेषु शयनीयानि प्रासादेषु स्वास्थानसभा इति, ननु
द्वापशा- भवनानि विषमायामविष्कम्भानि पद्मद्रहादिमूलपद्मभवनादिषु तथा दर्शनात् प्रासादास्तु समायामविष्कम्भाः दीर्घवै-19 न्तिचन्द्रीया वृचिः
ताब्यकूटगतेषु वृत्तवैताब्यगतेषु विजयादिराजधानीगतेषु अन्येष्वपि विमानादिगतेषु च प्रासादेषु समचतुरसत्वेन समाया-13
मविष्कम्भत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् तत्कथमत्र प्रासादानां भवनतुल्यप्रमाणता घटते ?, उच्यते, 'ते पासाया कोसं | ॥३३३॥ समसिआ अद्धकोसविच्छिण्णा' इत्यस्य पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणोपज्ञक्षेत्रविचारगाथार्द्धस्य वृत्ती-ते प्रासादाः
कोशमेकं देशोनमिति शेषः समुच्छ्रिता-उच्चाः क्रोशार्द्ध-अर्द्धकोशं विस्तीर्णाः परिपूर्णमेक कोशं दीर्घा इति श्रीमल-13 |यगिरिपादाः तथा जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे "प्राच्ये शाले भवनं इतरेषु प्रासादाः मध्ये सिद्धायतनं सर्वाणि विज| यार्बमानानी"ति श्रीउमास्वातिवाचकपादाः तथा तपागच्छाधिराजपूण्यश्रीसोमतिलकसूरिकृतनव्यबृहत्क्षेत्रविचार-18 | सत्कायाः "पासाया सेसदिसासालासु बेअद्धगिरिगयव तओ" इत्यस्या गाथाया अवचूर्णी-"शेषासु तिसृषु शाखामु प्रत्येकमेकैकभावेन तत्र त्रयः प्रासादा:-आस्थानोचितानि मन्दिराणि देशोनं क्रोशमुच्चाः क्रोशाई विस्तीर्णाः पूर्ण18 क्रोश दीर्घाः" इति श्रीगुणरनसूरिपादाः यदाहुः तदाशयेन प्रस्तुतोपाङ्गस्योत्तरत्र जम्बूपरिक्षेपकवनवापीपरिगतप्रासा-18 दप्रमाणसूत्रानुसारेण च इत्येवं निश्चिनुमो जम्बूप्रकरणप्रासादा विषमायामविष्कम्भा इति, यत्तु श्रीजीवाभिगमसूत्रवृत्ती 'क्रोशमेकमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अर्द्धकोश विष्कम्भेने'त्युकं तद्गम्भीराशयं न विद्मः । अथास्याः पद्मवरवेदिकादिस्वरू
दीप
अनुक्रम [१५१-१६२]
॥३३३॥
~669~
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
----------------------- मूल [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
१ पमाह-जंबू ण'मित्यादि, जम्बूदिशभिः पद्मवरवेदिकाभिः-प्राकार विशेषरूपाभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता, 18| वेदिकाना वर्णकः प्राग्वत् , इमाश्च मूलजम्बूं परिवृत्त्य स्थिता ज्ञातव्याः, या तु पीठपरिवेष्टिका सा तु प्रागेवोक्ता ।। 18 अथास्याः प्रथमपरिक्षेपमाह--'जंबू ण'मित्यादि, जम्बूः णमिति वाक्यालङ्कारे अन्येनाष्टशतेन-अष्टोत्तरशतेन जम्बू
वृक्षाणां तदोच्चत्वानां तस्या मूलजम्ब्वा: अर्द्धप्रमाणमुच्चत्वं यास तास्तथा तासां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिता
उपलक्षणं चैतत् तेनोवैधायामविस्तारा अपि अर्द्धप्रमाणा ज्ञेयाः, तथाहि-ता अष्टाधिकशतसङ्ख्या जम्ब्वः प्रत्येक 18 चत्वारि योजनान्युच्चैस्त्वेन क्रोशमेकमवगाहेन एक योजनमुच्चः स्कन्धः त्रीणि योजनानि विडिमा सर्वाग्रेणोच्चैस्त्वेन 18 18 सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि तत्रैकका शाखा अर्द्धकोशहीने द्वे योजने दीर्घा कोशपृथुत्वः स्कन्ध इति भवन्ति
सर्वसंख्यया आयामविष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि, आसु चानादृतदेवस्याभरणादि तिष्ठति, एतासां वर्णकज्ञापनायाहतासिणं बण्णओ'त्ति तासां च वर्णको मूलजम्बूसदृश एवेति, अथासां यावत्यः पद्मवरवेदिकास्ता आह–ताओ ण'मित्यादि, उत्तानार्थ, नवरं प्रतिजम्वृक्षं पटू षट् पद्मवरवेदिका इत्यर्थः, एतासु च १०८ जम्यूषु अत्र सूत्रे जीवा-18 भिगमे वृहत्क्षेत्रविचारादौ सूत्रकृद्भिः वृत्तिकृद्भिश्च जिनभवनभवनप्रासादचिन्ता कापि न चक्रे बहवोऽपि च बहुश्रुताः श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णिणकारादयो मूलजम्बूवृक्षगततत्प्रथमवनखण्डगतकूटाष्टकजिनभवनैः सह सप्तदशोत्तरं शतं 18 | जिनभवनानां मन्यमानाः इहाप्येकैकं सिद्धायतनं पूर्वोक्तमान मेनिरे ततोऽत्र तत्त्वं केवलिनो विदुरिति । सम्प्रति
दीप
अनुक्रम [१५१-१६२]
~670~
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९०]
गाथा:
श्रीजम्बू-18| शेषान् परिक्षेपान् वक्तुं सूत्रचतुष्टयमाह-'जंबूए 'मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे 8॥ ४वश्व द्वीपशा उत्तरस्थामुत्तरपश्चिमायां-बायव्यकोणे अत्रान्तरे दिक्त्रयेऽपीत्यर्थः अनाहतनामो-जम्बूद्वीपाधिपतेर्देवस्य चतुर्णी 8 न्तिचन्द्रीय सामानिकसहस्राणां चत्वारि जम्बूसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, 'तीसे 'मित्यादि, कण्ठ्यं, गाथाबन्धेन पार्षद्यदेवजम्बूराह-8 या चिः
'दक्षिण'इत्यादि, दक्षिणपौरस्त्ये-आग्नेयकोणे दक्षिणस्यां अपरदक्षिणस्या-नैर्ऋतकोणे चः समुचये एतासु तिसृषु । ॥३३॥ दिक्षु यथासंख्यं । अष्ट दश द्वादश जम्बूनां सहस्राणि भवन्ति, एवोऽवधारणे तेन नाधिकानि न न्यूनानीत्यर्थः, चः18
प्राग्वत् , अनीकाधिपजम्बूस्तृतीयपरिक्षेपजम्यूश्च गाथाबन्धेनाह–'अणिआहिवाण'इत्यादि, अनीकाधिपानां-गजादि-12 | कटकाधीशानां सप्तानां सप्तव जम्बूः पश्चिमायां भवन्ति, द्वितीयः परिक्षेपः पूर्णः ॥ अथ तृतीयमाह-आत्मरक्षका-113 |णामनाहतदेवसामानिकचतुर्गुणानां षोडशसहस्राणां जम्ब्बः एकैकदिक्षु चतुःसहनश्सद्भावात् षोडश सहस्राणि
भवन्ति, यद्यपि चानयोः परिक्षेपयोर्जम्बूनामुच्चत्वादिप्रमाणं न पूर्वाचायश्चिन्तितं तथापि पद्मादपद्मपरिक्षेपन्यायेन 18| पूर्वपूर्वपरिक्षेपजम्म्बपेक्षयोत्तरोत्तरपरिक्षेपजम्म्वोऽर्द्धमाना ज्ञातव्याः, अत्राप्येकैकस्मिन् परिक्षेपे एकैकस्यां पटो।
| क्रियमाणायां क्षेत्रसाङ्कीर्येनानवकाशदोषस्तथैवोद्भावनीयस्तेन परिक्षेपजातयस्तिनस्तथैव वाच्याः, सम्पत्यस्या एव वनत्रय-11॥३३॥ ॥ परिक्षेपान् वक्तुमाह-जंबूए ण'मित्यादि, सा परिवारेति गम्य, त्रिभिः शतिकैः-योजनशतप्रमाणैर्वनखण्डः सर्वतः ।। 18 सम्परिक्षिप्ताः, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन बाझेनेति, अधात्र यदसि तदाह-'जंबूर 'मित्यादि, जम्ब्याः सप-३
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
JinElemnitinia
~671~
Page #673
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
रिवारायाः पूर्षेण पञ्चाशद्योजनानि प्रथमवनखण्डमवगाह्यात्रान्तरे भवनं प्रज्ञप्त, कोशमायामेन, उच्चत्वादिकथनाया-131 तिदेशमाह-स एव मूलजम्बूपूर्वशाखागतभवनसम्बन्धी वर्णको ज्ञेयः, शयनीयं चानाहतयोग्यं, एवं शेषास्वपि दक्षि-19 णादिदिक्षु स्वस्वदिशि पश्चाशद्योजनान्यवगाह्याद्ये बने भवनानि वाच्यानि, अथात्र बने वापीस्वरूपमाह-'जंबूए णं| | उत्तरे' त्यादि, जम्बाः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे प्रथमं वनखण्डं पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्मानान्तरे चतन्नः पुष्करिण्यः || | प्रज्ञप्ताः, पताच न सूचीश्रेण्या व्यवस्थिताः किन्तु स्वविदिग्गतप्रासादं परिक्षिप्य स्थिताः, तेन प्रादक्षिण्येन तन्नामा-|| न्येवं-पद्मा पूर्वस्यां पद्मप्रभा दक्षिणस्यां कुमुदा पश्चिमायां कुमुदप्रभा उत्तरस्थां, एवं दक्षिणपूर्वोदिविदिग्गतवापीष्वपि । वाच्यं, ताश्च क्रोशमायामेन अर्द्धकोश विष्कम्भेन पञ्चधनुःशतान्युद्वेषेनेति । अथात्र वापीमध्यगतप्रासादस्वरूपमाह'तासि 'मित्यादि, तासां वापीनां चतराणां मध्ये प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ता, बहुवचनं च उक्तवक्ष्यमाणानां यापीनां || प्रासादापेक्षया द्रष्टव्यं, तेन प्रतिवापीचतुष्कमेकैकमासादभावेन चत्वारः प्रासादार, एवं निर्देशो लाघवार्थ, कोशमा-॥॥ यामेनार्द्धकोशं विक्कम्भेन देशोनं क्रोशमुच्चरवेन, वर्णको मूलजम्बूदक्षिणशालागतप्रासादव ज्ञेयः, एषु पानाहतदेवस्य क्रीडा सिंहासनानि सपरिवाराणि वाच्यानि, जीवाभिगमे त्वपरिवाराणि, एवं शेषासु दक्षिणपूर्वादिषु विदिक्षु || वाप्यः प्रासादाश्च वक्तव्याः, एतासां नामदर्शनाय गाथाद्वयं, पनादयः प्रागुकाः पुनः पधबन्धनद्धत्वेन संगृहीता 8 इति न पुनरुक्तिः, एताश्च सर्वा अपि सत्रिसोपानचतुर्दाराः पद्मवरवेदिकावनखण्डयुक्ताश्च बोध्या:, अथ दक्षिणपू
दीप
ae%esea
अनुक्रम [१५१-१६२]
~672 ~
Page #674
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
श्रीजम्बू- स्या उत्पलगुल्मा पूर्वस्यां नलिना दक्षिणस्यां उत्पलोज्वला पश्चिमायां उत्पला उत्तरस्यां तथा अपरदक्षिणस्यां वक्षरकारे द्वीपशा-18
T|| भृङ्गा भृङ्गप्रभा अञ्जना कज्जलप्रभा तथा अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया, चैवशब्दः प्राग्वत् , 18 जम्बूवृक्षन्तिचन्द्रीया वृतिः अधास्य वनस्य मध्यवत्तींनि कूटानि स्वरूपतो लक्षयति-'जंबूए ण'इत्यादि, जम्ब्वा अस्मिन्नेव प्रथमे वनखण्डे पौर-1 वर्णन
सू.९० स्त्यस्य भवनस्य उत्तरस्यां उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणसत्कस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणस्यां अत्रान्तरे कूटं प्रज्ञप्तं । ॥३३५॥ अष्टौ योजनान्यूयोश्चत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन, वृत्तत्वेन य एव आयामः स एव विष्कम्भ इति, मूलेऽष्ट योजनान्या-1
यामविष्कम्भाभ्यां बहुमध्यदेशभागे, भूमितश्चतुर्षु योजनेषु गतेष्वित्यर्थः, षड् योजनान्यायामविष्कम्भाभ्या, उपरि-18| | शिखरभागे चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, अथामीषां परिधिकथनाय पद्यमाह-'पणवीसे'त्यादिक, सर्व प्रथम-18 Sपाठगतऋषभकूटाभिलापानुसारेण वाच्यं, नवरं पञ्चविंशति योजनानि सविशेषाणि किश्चिदधिकानि मले परिरय । IS| इत्यादि यथासंख्यं योज्यम् , जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणैस्तु 'अदुसहकूडसरिसा सवे जम्बूणयामया भणिआ'। इत्यस्यां S| गाथायामृषभकूटसमत्वेन भणितत्वात् द्वादश योजनानि अष्टौ मध्ये घेत्यूचे, तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्यं, एषु च प्रत्येक | जिनगृहमेकैकं विडिमागतजिनगृहतुल्यमिति, अथ शेषकूटवक्तव्यतामतिदेशेनाह-'एवं सेसावि कूडा'इति, एवमुक्त-18| ॥३३५॥
रीत्या वर्णप्रमाणपरिध्याघपेक्षया शेषाण्यपि सप्त कूटानि बोध्यानि, स्थान विभागस्त्वयं तेषां. तथाहि-पूर्वदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतो द्वितीय कूटं तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य ।।
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
JinElimitimate
~673~
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
सूत्रांक [30]
+
गाथा:
अनुक्रम [१५१
-१६२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९०] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पूर्वतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतसकस्य पश्चिमायां तृतीयं तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां दक्षि|णापरदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतश्चतुर्थं तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणापरदिग्भाविनः | प्रासादावतंसकस्योत्तरतः पश्चमं तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्योत्तरतः उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य | दक्षिणतः षष्ठं तथा उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः सप्तमं तथा उत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वतः उत्तरपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य अपरतोऽष्टममिति, अत्रैषां स्थापना यथा यन्त्रे तथा विलोकनीया, अथ जम्ब्वा नामोत्कीर्त्तनमाह - 'जंबूए ण' मित्यादि, जम्ब्वाः सुदर्शनायाः द्वादश नामधेयानि प्रज्ञतानि, तद्यथा - सुष्ठु - शोभनं नयनमनसोरानन्दकत्वेन दर्शनं यस्याः सा तथा, अमोघा सफला, इयं हि | स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभावस्यैवायोगात्, सुष्ठु - अतिशयेन प्रबुद्धा उत्फुल्ला उत्फुलफुलयोगादियमप्युत्फुल्ला, सकलभुवनव्यापकं यशो धरतीति यशोधरा, 'लिहादित्वादच्,' जम्बूद्वीपो नया जम्ब्बा भुवनत्रयेऽपि विदितमहिमा ततः सम्पन्नं यथोक्तयशोधारित्वमस्याः, विदेहेषु जम्बूः विदेहजम्बूर्विदेहान्तर्गतोत्तरकुरुकृत निवासत्वात्, सौमनस्यहेतुत्वात् सौमनस्या, न हि तां पश्यतः कस्यापि मनो दुष्टं भवति, नियता सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात् नित्यमण्डिता सदा भूषणभूषितत्वात्, सुभद्रा - शोभनकल्याणभाजिनी, न ह्यस्याः कदाचिदुपद्रवसम्भवो महर्द्धिकेनाश्रितत्वात्, चः समुच्चये, विशाला- विस्तीर्णा, चः पूर्ववत्, आयामविष्कम्भाभ्यामु
Fur Ele&ae Cy
~674~
www.jay
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सत्रांक
वर्णन
[९०]
गाथा:
श्रीजम्बू-18
चत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात् , शोभनं जातं-जन्म यस्याः सा सुजाता, विशुद्धमणिकनकरत्नमूलद्रव्यजनिततया वक्षस्कारे द्वीपशा- | जन्मदोषरहितेति भावः, शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनाः, अपि चेति समुच्चये, अत्र जीवाभिगमादिषु जम्मूक्षन्तिचन्द्री
विदेहजम्ब्वादीनां सुदशर्नादीनां च नाम्नां व्यत्यासेन पाठो दृश्यते तत्रापि न कश्चिद्विरोध इति, 'जंबूए णं अट्ठमंग- या वृचिः
सू.९० लगा' इति व्यक्त, उपलक्षणाद् ध्वजच्छत्रादिसूत्राणि वाच्यानीति, सम्प्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिपूच्छियुरिदमाह-12 ॥३३॥ से केणटेण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे गौतम ! जम्वा सदर्शनायामनारतो नाम जम्बूद्वीपाधिपतिर्न । IS आता-आदरविषयीकृताः शेषजम्बूद्वीपगता देवा येनात्मनोऽनन्यसदृशं महर्दिकत्वमीक्षमाणेन सोऽनाहत इति ||
यथार्थनामा परिवसति, महर्द्धिक इत्यादि प्राग्वत्, स च चतुर्णा सामानिकसहस्राणां यावदात्मरक्षकसहस्राणां जम्बूद्वीपस्य जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अनाहतनाम्न्या राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चानादृताराज-ISM |धानीवास्तव्यानामाधिपत्यं पालयन् यावद्विहरति, तदेतेनार्थेन एवमुच्यते-जंबूसुदर्शनेति, कोऽर्थः।-अनादृतदेवस्य | सदृशमात्मनि महर्द्धिकत्वदर्शनमत्रकृतावासस्येति, सुष्टु-शोभनमतिशयेन वा दर्शन-विचारणमनन्तरोक्तस्वरूपं चिन्त-18 नमितियावत् अनाहतदेवस्य यस्याः सकाशात् सा सुदर्शना इति, यद्यष्यनाहता राजधानीप्रश्नोत्तरसूत्रे सुदर्शना
॥३३६॥ शब्दप्रवृत्तिनिमित्तप्रश्नोत्तरसूत्रनिगमनसूत्रान्तर्गते बहुष्वादशेषु दृष्टे तथापि से तेणवेण'मित्यादि निगमनसूत्रमुत्तर-18 सूत्रानन्तरमेव वाचयितणामन्यामोहाय सूत्रपाठेऽस्माभिलिखितं व्याख्यातं च, उत्तरसूत्रानन्तरं निगमनसूत्रस्यैव यौक्ति
दीप अनुक्रम [१५१-१६२]
~675~
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [९०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९०]
गाथा:
|कत्वादिति, अथापरं गौतम! यावच्छब्दाजम्ब्वाः सुदर्शनाया एतच्छाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तं, यन्न कदाचिन्नासीदित्या
दिकं ग्राह्य, नाम्नः शाश्वतत्वं दर्शितम् , अथ प्रस्तुतवस्तुनः शाश्वतत्वमस्ति नवेत्याशङ्का परिहरन्नाह-जंबुसुदंसणा' 8 इत्यादि, व्याख्याऽस्य प्राग्वत् , अथ प्रस्तावादस्य राजधानी विवक्षुराह-'कहिणं भन्ते ! अणाढिअस्स'इत्यादि, गतार्थ,
नवरं यदेव प्राग्वणितं यमिकाराजधानीप्रमाणं तदेव नेतव्यं यावदनातदेवस्योपपातोऽभिषेकश्च निरवशेषो वक्तव्य इति शेषः ॥ अथोत्तरकुरुनामार्थ पिपृच्छिषुरिदमाह
से केण?णं भन्ते! एवं शुभइ उत्तरकुरा २१, गोजमा ! उत्तरकुराए उत्तरकुरूणाम देवे परिवसइ महिन्दीए जाव पलिओबमहिए, से तेणडेणं गोअमा! एवं बुचड उत्तरकुरा २, अदुत्तरं च णति आव सासए । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे मालवंते णार्म वक्खारपब्धए पण्णत्ते, गो०! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं णीलबंतस्स वासहरपव्ववस्स दाहिणेणं उत्तरकुराए पुरथिमेणं वच्छस्स चकवट्टिविजयस्स पचत्थिमेणं एत्य ण महाविदेहे वासे माळवंते णाम बक्सारपब्बए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपढीणविच्छिपणे जंचेच गंधमावणस्स पमाण विस्वम्भो अ णवरमिमं णाणत्तं सब्यबेरुलिआमए अवसिट्ट तं चेष जाव गोममा! नब कूडा पण्णत्ता, तंजहा-सिद्धाययणकूडे० सिद्धे यमालवन्ते उत्तरकुरु कच्छसागरे रयए। सीओय पुण्णभद्दे हरिस्सहे पेव बोद्धध्वे ॥ १॥ कहिणे भन्ते! मालवन्ते वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णाम कूडे पण्णते !, गोभमा! मन्दरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं मालवंतस्स कूडस्स दाहिणपञ्चस्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णते पंच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिहूं तं व जाव
दीप
अनुक्रम [१५१-१६२]
Receaesesesesects
श्रीजम्मू-५
~676~
Page #678
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
---------------------- मल [९१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९१]
गाथा:
श्रीजम्बू-18
रायहाणी, एवं मालवन्तस्स कूडस्स उत्तरकुरुकूडस्स कच्छकूलस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहि अधा, कसरिसणासया ॥४वक्षस्कार द्वीपशा
देवा कहिणं भन्ते | मालवन्ते सागरकूडे नाम कूडे पण्णते, गोअमा! कच्छकूडल्स उत्तरपुरस्थिमेणं रययकूडस्स दक्खिणे पर न्तिचन्द्री
माल्यवदाएत्य णं सागरफूडे णामं कूढे पण्णते, पंच जोअणसवाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिह तं चेव सुभोगा देवी रायहाणी उत्तरपुर थिमेण या वृत्तिः
दिवक्षस्कारययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्ठा कूड़ा उत्तरदाहिणेणं अव्वा एकेणं पमाणेणं (सूत्रं ९१) राः स.९१ ॥३३७॥ 'सेकेणटेण'मित्यादि, प्रतीतं, नवरं उत्तरकुरुनामाऽत्र देवः परिवसति, तेनेमा उत्तरकुरव इत्यर्थः, अथ यस्माद-12
शत्तरकुरवः पश्चिमायामुक्तास्तं माल्यवन्तं नाम द्वितीयं गजदन्ताकारगिरि प्ररूपयति-'कहिण'मित्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, 19
उत्तरसूत्रे-गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्ये-ईशानकोणे नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यामुत्तरकुरूणां पूर्वस्यां । कच्छनामश्चक्रवत्तिविजयस्य पश्चिमायामत्रान्तरे महाविदेहेषु माल्यवन्नाम्ना वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्त इति शेषः, पूर्वदक्षिणयोरायतः पूर्वपश्चिमयोविस्तीर्णः, किंबहुना विस्तरेण ?, यदेव गन्धमादनस्य पूर्वोक्तवक्षस्कारगिरेः प्रमाणं विष्कम्भश्च । तदेव ज्ञातव्यमिति शेषः, नवरमिदं नानात्व-अयं विशेषः, सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमयः, अवशिष्टं तदेव, कियत्पर्यन्त| मित्याह-'जाव'त्ति, सुलभ, नवरं उत्तरसूत्रे उक्तमपि सिद्धायतनकूटं यत्पुनरुच्यते 'सिद्धे य मालवन्ते' इति तद् गाथा-|
8॥३३७॥ बन्धेन सर्वसंग्रहायेति, सिद्धायतनकूटं चः पादपूरणे माल्यवत्कूटं प्रस्तुतवक्षस्काराधिपतिवासकट उत्तरकुरुकूट-18| उत्तरकुरुदेवकूटं कच्छ कूट-कच्छविजयाधिपकूटं सागर कूट रजतकूट, इदं चान्यत्र रुचकमिति प्रसिद्ध, शीताकूट-बी-18
दीप
अनुक्रम [१६३-१६५]
~677~
Page #679
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------------------- मल [९१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९१]
गाथा:
तासरित्सुरीकूट, पदैकदेशे पदसमुदायोपचार इति सिद्धिः, चः समुच्चये, पूर्णभद्रनाम्नो व्यन्तरेशस्य कूटं पूर्णभद्रकूटम् , हरिस्सहनाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूट हरिस्सहकूट, चैवशब्दः पूर्ववत् , सम्प्रत्यमीषां स्थानप्ररूपणायाहकहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपूर्वस्या-ईशानकोणे प्रत्यासन्नमाल्यवत्कूटस्य दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे, अत्र सिद्धायतनकूटं प्रज्ञप्तमिति गम्यं, पञ्च योजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन अवशिष्टं मूलविष्कम्भादिक वक्तव्यं तदेव गन्धमादनसिद्धायतनकूटवदेव वाच्यं, यावदाजधानी भणितव्या स्यात्, अयमर्थः-सिद्धायतनकटवर्णके सामान्यतः कूटवर्णकसूत्रं विशेषतः सिद्धायतनादिवर्णकसूत्रं च यमपि वाच्यं, तत्र सिद्धायतनकूटे || राजधानीसूत्रं न सङ्गच्छते इति राजधानीसूत्रं विहाय तदधस्तनसूत्रं वाच्यमिति, अत्र यावच्छन्दो न संग्राहकः किन्त्व-11
वधिमात्रसूचका, यथा 'आसमुद्रक्षितीशाना'मित्यत्र समुद्रं विहाय क्षितीशत्वं वर्णितमिति, लाघवार्थमत्रातिदेशमाह18| 'एवं मालवन्तस्स' इत्यादि, एवं सिद्धायतनकूटरीत्या माल्यवत्कूटस्य उत्तरकुरुकूटस्य कच्छकूटस्थ वक्तव्यं, शेयमिति
गम्यं, अथैतानि कि परस्परं स्थानादिना तुल्यानि उतातुल्यानीत्याह-एतानि सिद्धायतनकूटसहितानि चत्वारि परस्परं IS| दिग्भिरीशानविदिग्रूपाभिः प्रमाणैश्च नेतन्यानि, तुल्यानीति शेषः, अयमर्थः-प्रथमं सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तरपूर्वस्या
दिशि ततस्तस्य दिशि द्वितीय माल्यवस्कूटं ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूटं ततोऽप्यस्यां दिशि कच्छकूट, एतानि चत्वार्यपि कूटानि विदिग्भावीनि मानतो हिमवत्कूटप्रमाणानीति, कूटसदृग्नामकाश्चात्र देवाः, अत्र 'यावत्स
दीप अनुक्रम [१६३-१६५]
न
~678~
Page #680
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------------------ मल [९१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
सूत्रांक
श्वक्षस्कारे सहस्राबाट माय वसू.९२
[९१]
गाथा:
म्भवं विधिप्राप्ति'रिति न्यायात् सिद्धकूटवर्जेषु त्रिषु कूटेषु कूटनामका देवा इति बोध्यं, सिद्धायतनकूटे तु सिद्धा- द्वीपशा- यतनं, अन्यथा-"छसयरि कूडेसु तहा चूलाचउ वणतरूम जिणभवणा। भणिआ जम्बुद्दीवे सदेवया सेस ठाणेसु॥१॥" न्तिचन्द्री
॥ इति खोपज्ञक्षेत्रविचारे रतशेखरसूरिवचो विरोधमापयेतेति, अथावशिष्टकूटस्वरूपमाह-'कहिण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं या वृत्तिः
सुगमम् , उत्तरसूत्रे कच्छकूटस्य चतुर्थस्योत्तरपूर्वस्यां रजतकूटस्य दक्षिणस्यामत्रान्तरे सागरकूटं नाम कूट प्रज्ञतं, पञ्च॥३३८॥ 8 योजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन अवशिष्टं मूलविष्कम्भादिकं तदेव, अत्र सुभोगानाम्नी दिकुमारी देवी अस्था राजधानी
18 मेरोरुत्तरपूर्वस्या, रजतकूटं षष्ठं पूर्वस्मादुत्तरस्यां अत्र भोगमालिनी दिकुमारी सुरी राजधानी उत्तरपूर्वस्या, अवशिष्टानि 18 शीताकूटादीनि उत्तरदक्षिणस्यां नेतव्यानि, कोऽर्थः?-पूर्वस्मात् २ उत्तरोचरमुत्तरस्यां २ उत्तरमादुत्तरस्मात्पूर्व २ दक्षि&ाणस्यां २ इत्यर्थः, एकेन तुल्येन प्रमाणेन सर्वेषामपि हिमवत्कूटप्रमाणत्वात् । अथ नवमं सहस्राङ्कमिति पृथग्निर्देष्टुमाह
कहि भन्ते! मालबन्ते हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णते!, गोअमा ! पुण्णभइस्स उत्तरेणं णीलवन्तस्स दक्खिणेणं एस्थ ण हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, एग जोअणसहस्सं उद्धं उचचेणं जमगपमाणेणं अव्वं, रायहाणी उत्तरेणं असंखेजे दीवे अण्णमि जम्बुरीवे दीवे सत्तरेण बारस जोमणसहस्साई ओगाहित्ता एत्व णं हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्सहाणामं रायहाणी पण्णता, पहरासीइं जोमणसहस्साई आयामविक्सम्मेणं वे जोमणसयसहस्साई पण्णपि सहस्साई छच छत्तीसे जोमणसए परिक्खेवणं सेसं जहा चमरचयाए रायहाणीए वहा पमाणं भाणिभव्य, महिनीए महज्जुईए, से केणद्वेणं मन्ते! एवं दुखद माकने प्रसार
RECESSASSASSIGN
दीप अनुक्रम [१६३-१६५]
॥३३८॥
~679~
Page #681
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२]
दीप
अनुक्रम [१६६ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [१२]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Eben
roar २१, गोभमा ! मालवन्ते णं वक्खारपथ्यए तत्य तत्थ देसे तहिं २ बहवे सरिआगुम्मा णोमालिआगुम्मा जाव मगदन्तिआगुम्मा, ते णं गुम्मा दसवणं कुसुमं कुसुमेति, जे णं तं मालवन्तस्स वक्खारपवयस्स बहुसमरमणिलं भूमिभागं वायविधुअग्गसालामुकपुप्फपुंजोवयारकलिअं करेन्ति, मालवंते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाय पलिओयमट्टिइए परिवसर, से तेणद्वेणं गोत्रमा! एवं दुबई, अदुत्तरं च णं जाव णिचे (सूत्रं ९२ )
'कहि णमित्यादि, व भदन्त ! माल्यवति वक्षस्कारगिरौ हरिस्तहकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! पूर्णभद्र| स्योत्तरस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यां अत्रान्तरे हरिरसहकूटं नाम कूटं प्रज्ञतं एकं योजनसहस्रमूध्वोंच्चत्वेन | अवशिष्टं यमकगिरिप्रमाणेन नेतव्यं तच्चेदम्- 'अजाइज्जाएं जोभणसयाई उबेहेणं मूले एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खम्भेण 'मित्यादि, आह परः-५०० योजनपृथुगजदन्ते १००० योजनपृथु इदं कथमिति, उच्यते, अनेन गजदन्तस्य ५०० योजनानि रुद्धानि ५०० योजनानि पुनर्गजदन्ताद्बहिराकाशे ततो न कश्चिद्दोष इति, अस्य चाधिपस्यापरराजधानीतो दिक्प्रमाणाद्यैर्विशेष इति तां विवक्षुराह - 'रायहाणी' इत्यादि, राजधानी उत्तरस्यामिति, एतदेव विवृणोति-'असंखेजदीवे' तिपदं स्मारकं तेन 'मन्दरस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरिअमसंखेजाई दीवसमुदाई बीईवरचा ' इति ग्राह्यम्, अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरस्यां द्वादशयोजन सहस्राण्यवगाह्य अत्रान्तरे हरिस्सहदेवस्य हरिस्सहनाम्नी राजधानी प्रज्ञता चतुरशीतियोजन सहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजनलक्षे पञ्चषष्टिं च योजनसहस्राणि
Fur Fate &P Cy
~680~
Page #682
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९२]
दीप
श्रीजम्बू- पटू च द्वात्रिंशदधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण, शेषं यथा चमरचशाया:-चमरेन्द्रराजधान्याः प्रमाणं भणितं | वक्षस्कारे
18| भगवत्यक्के तथा प्रमाणे प्रासादादीनां भणितव्यमिति, 'महिद्धीए महजुईए' इति सूत्रेणास्य नामनिमित्तविषयके प्रश्न- सहस्राकट न्तिचन्द्रीनिर्वचने सूचिते, ते चैवं-'से केणद्वेणं भन्ते ! एवं बुबइ हरिस्सहकूडे २१, गोअमा! हरिस्सहकूडे वहवे उष्पलाई
| मास्यवदया वृत्तिः
| पउमाई हरिस्सहकूडसमवण्णाई जाव हरिस्सहे णाम देवे अ इत्थ महिद्धीए जाव परिवसइ, से तेणद्वेणं जाव अदुत्तर । ॥३३९॥ चणं गोअमा! जाव सासए णामधेजे इति, अधास्य वक्षस्कारस्य नामार्थ प्रश्नयति-से केणटेण'मित्यादि, प्रश्नार्थः
माग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! माल्यवति वक्षस्कारपर्वते तत्र तत्र देशे-स्थाने तस्मिन् तस्मिन् प्रदेशे-देशैकदेशे इत्यर्थः । बहवः सरिकागुल्माः नवमालिकागुल्माः यावन्मगदन्तिकागुल्माः सन्तीति शेषः, ते गुल्माः क्षेत्रानुभावतः सदैव पञ्चवर्ण कुसुमं कुसुमयन्ति-जनयन्ति इत्यर्थः, ते गुल्मास्तं माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य बहुसमरमणिकं भूमिभाग वातविधुताग्रशालामुक्तपुष्पपुजोपचारकलितं कुर्वन्ति, एतदर्थः प्राग्वत् , ततो माल्यं-पुष्पं नित्यमस्यास्तीति माल्यवान माल्यवान्नाम्ना देवश्चात्र महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः तेन तद्योगादयमपि माल्यवान् , 'अथापरं चेत्यादि,प्राग्वत् ।। । इह द्विविधा विदेहाः, तद्यथा-पूर्वविदेहा अपरविदेहाश्च, तत्र ये मेरोः प्राक् ते पूर्व विदेहाः ते च शीतया महा-18
॥३३९॥ 18 नद्या दक्षिणोत्तरभागाभ्यां द्विधा विभक्ताः, एवं ये मेरोः पश्चिमायां ते अपरविदेहास्तेऽपि तथैव शीतोदया द्विधा
विभकाः, एवं विदेहानां चत्वारो भागाः दर्शिताः, सम्पत्यमीषु विजयवक्षस्कारादिव्यवस्थालाघवाई पिण्डार्थगत्या 8
अनुक्रम [१६६]
IRimtiyan
~681 ~
Page #683
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
----- मूलं [९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
| सूत्रकृद्दर्शयिष्यमाणरीत्या बोधनीयानां दुर्योधा इति विस्तरतो निरूप्यते, तत्रैकैकस्मिन् भागे यथायोगं माल्यवंदादेर्गजदन्ताकारवक्षस्कारगिरेः समीपे एको विजयः तथा चत्वारः सरलवक्षस्कारास्तिस्रश्चान्तनद्यः, एषां सतानां वस्तू- नामन्तराणि षट्, सर्वत्राप्यन्तराणि रूपोनानि भवन्ति तथाऽत्र, प्रतीतमेतञ्चतसृणामङ्गुलीनामप्यन्तरालानि त्रीणीति, ततोऽन्तरे २ एकैकसद्भावात् षड् विजयाः, एते चत्वारो वक्षस्कारादय एकैकान्तरनद्याऽन्तरितास्ततश्चतुर्णामद्री-पहा णामन्तरे सम्भवत्यन्तरनदीत्रयमिति व्यवस्था स्वयमवसातव्या, तथा वनमुखमवधीकृत्यैको विजय इति प्रतिविभागं || | सिद्धा अष्टौ विजयाः चत्वारो वक्षस्कारास्तिस्रोऽन्तरनद्यो वनमुखं चैकमिति, इयमत्र भावना-पूर्व विदेहेषु माल्यवतो | गजदन्तपर्वतस्य पूर्वतः शीताया उत्तरत एको विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमो वक्षस्कारः ततोऽपि पूर्वस्यां द्वितीयो विजया ॥ ततोऽपि पूर्वस्यां प्रथमान्तरनदी, अनेन क्रमेण तृतीयो विजयः द्वितीयो वक्षस्कारः चतुर्थो विजयः द्वितीयान्तरनदी पञ्चमो विजयः तृतीयो वक्षस्कारः षष्ठो विजयः तृतीयान्तरनदी सप्तमो विजयः चतुर्थो वक्षस्कारः अष्टमो विजयः।। ततश्चैकं वनमुखं जगत्यासन्नं, एवं शीताया दक्षिणतोऽपि सौमनसगजदन्तपर्वतस्य पूर्वतोऽयमेव विजयादिक्रमो वाच्यः,18 तथा पश्चिमविदेहेषु शीतोदाया दक्षिणतो विद्युत्प्रभस्य पश्चिमतोऽप्ययमेव क्रमः, तथा शीतोदाया उत्तरतोऽपि गन्धमादनस्य पश्चिमत इति । अथ प्रादक्षिण्येन निरूपणेऽयमेव हि आद्य इति, प्रथमविभागमुखे कच्छविजयं विवक्षुराह-1
000000000000000crosrae6909
5000000000000000000000000
दीप
अनुक्रम [१६६]
Jonilean
~682~
Page #684
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
.----....-------- मूलं [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
दीपशा
४वक्षस्कारे कच्छविजयाम.९३
[१३]
न्तिचन्द्रीया चिः ॥३४॥
गाथा
कहि णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छेणामं विजए पण्णत्ते !, गोत्रमा। सीए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपवयस्स दक्सिणेणं चित्तकूडस्स वक्खारपवयस्स पचस्थिमेण मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्य पं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे पलिअंकसंठाणसंठिए गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयद्धेण य पब्बएणं छन्भागपविभत्ते सोलस जोअणसहस्साई पंच य बाणउए जोअणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं दो जोअणसहस्साई दोणि अ तेरसुत्तरे जोअणसए किंचिबिसेसूणे विक्सम्मेणंति । कच्छस्स णं विजयस्स बहुमझदेसभाए एत्थ गं वेअद्धे णाम पव्वए पण्णत्ते, जेणं कच्छं विजयं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठर, संजहा-दाहिणद्धकच्छं च उत्तरद्धकच्छ चेति, कहि णं भन्ते! जम्युद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पं०१, गोअमा! वेअद्धस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं चित्तकूडस्स बक्खारपव्ययस्स पञ्चत्थिमेणं मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं एस्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए प० उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे अट्ठ जोअणसहस्साई दोणि अ एगसत्तरे जोअणसप एकं च एगूणवीसहभागं जोअणस्स आयामेणं दो जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेरसुत्तरे जोअणस्सए किंचिविसेसूणे विषसम्मेणं पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणद्धकच्छस्स णं भन्ते! विजयस फेरिसए आयारभावपडोआरे पण्णत्ते!, गोअमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, जहा-जाव कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चैव, दाहिणद्धकल्छे णं भन्ते ! विजए मणुआणं के रिसए आवारभावपडोभारे पण्णते, गोभमा ! तेसि ण मणुआण छविहे संघयणे जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेंति । कहिण भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे पासे कच्छे विजए वेअद्धे णामं पव्वए!, गोममा! दाहिणद्ध
दीप अनुक्रम
[१६७
॥३४॥
-१६९]
InElem
nal
~683~
Page #685
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
....................--.--- मूलं [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
कच्छविजयरस उत्तरेणं उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणेणं चित्तकूडस्स पञ्चत्थिमेणं मालवन्तस्स वक्खारपञ्जयस्स पुरथिमेणं पत्थ णं कच्छे विजए वेअद्धे णाम पचए पण्णते, तंजहा---पाईणपढीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहावक्वारपवए पुढे-पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव दोहिवि पुढे भरहवेअद्धसरिसए णवरं वो बाहाओ जीवा घणुपटुं च ण कायचं, विजयविक्खम्भसरिसे आयामेणं, बिक्सम्भो उच्चत्तं उबेहो तहेव च विजाहराभिओगसेडीओ तहेब, णवरं पणपण्णं २ विजाहरणगरावासा पं०, आभिओगसेडीए उत्तरिताओ सेढीओ सीआए ईसाणस्स सेसाओ सकस्सत्ति, कूडा-सिद्धे १ कच्छे २ खंडग ३ माणी ४ वेअद्ध ५ पुण्ण ६ तिमिसगुहा ७। कच्छे ८ बेसमणे वा ९ वेअद्धे होति कूडाई॥१॥ कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे पत्तरद्धकच्छे णाम विजए पण्णत्ते !, गोअमा! यद्धस्स पचयस्स उत्तरेण णीलवन्तस्स वासहरपञ्चयस्स दाहिजेणं मालवन्तस्स बक्सारपञ्चयस्स पुरस्थिमेणं चित्तकूडस्स बक्खारपव्ययस्स पञ्चस्थिमेणं एत्व णं जम्बुद्दीवे दीवे जाव सिमन्ति, तदेव णेअब सव्वं कहि णं भन्ते । जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरखकच्छे विजए सिंधुकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते, गोअमा ! मालवन्तरस वक्सारपव्ययस्स पुरस्थिमेणं उसभकूडस्स पचस्थिमेणं णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणिल्ले णितंये पत्थ पं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सत्तरदृकच्छविजए सिंधुकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सहि जोअणाणि आयामविक्खम्भेणं जाव भवणं अट्ठो रायहाणी अणेअब्बा, भरहसिंधुकुंडसरिसं सब भब्ब, जाव तस्स सिंधुकुण्डस्स दाहिणिलेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्धकच्छविजयं एज्जेमाणी २ सत्तहि सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपब्बयं दालयित्ता दाहिणकच्छविजयं एज्जेमाणी २ चोदसहि सलिलासहस्सेहिं समम्गा वाहिणेणं सीयं महाणई समप्पेइ, सिंधुमहाणई पबहे अ मूले अ भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं
cestaesesentatiseae
गाथा
दीप अनुक्रम
TRESS
[१६७
-१६९]
Simillennition
~684~
Page #686
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९३]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम [१६७
-१६९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९३] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥३४१॥
जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्सित्ता । कहि णं भन्ते ! उत्तरद्भकच्छ विजए उसभकूडे णामं पव्वए पण्णचे?, गोअमा ! सिंधुकुं डस्स पुरत्थिमेणं गंगाकुण्डस्स पश्चत्थिमेणं णीलवन्तस्त वासहरपव्वयस्स दाहिणिले णितं एत्थ णं उत्तरद्धकच्छविजए उसकूडे णामं पच पण्णत्ते, अट्ठ जोअगाई उद्धं उच्चत्तेणं तं चैव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणिअव्वा । कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धकच्छे विजए गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते !, गोअमा ! चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं उसहकूडस्स पव्वयस पुरस्थिमेणं नीलवन्तस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणिले णितं एत्थ णं उत्तरद्वकच्छे गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते सहि जोअणाई आयामविवखम्भेणं तहेव जहा सिंधू जाव वणसंडेण य संपरिक्खिता से केणद्वेणं भन्ते । एवं बुच्चर कच्छे विजए कच्छे विजए?, गोजमा ! कच्छे विजए बेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं गंगाए महाणईए पचत्यिमेणं सिंधूए महाणईए पुरत्थिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं खेमाणामं रायहाणी पं० विणीआरायहाणीसरिसा भाणिअब्वा, तत्थ णं खेमाए रायहाणीए कच्छे णामं राया समुप्पज्जर, महया हिमवन्त जाव सव्वं भरहोअवणं भाणि निक्खमणवर्ज सेसं सव्वं भाणि जाय भुंजए माणुस्सए सुदे, कच्छणामधे अ कच्छे इत्थ देवे मदद्धीए जान पलिभवमहिईए परिवसद्द एएणद्वेणं गोअमा ! एवं बुचर कच्छे विजए कच्छे बिजए जाव णिचे ( सूत्रं ९३ )
'कहि णं भन्ते 'ति क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! शीताया महानद्या उत्तरस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटसरलवक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां माल्यवतो गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम चक्रवर्त्तिविजेतव्यभूविभागरूपो विजयः
Funglee Only
~685~
४वक्षस्कारे कच्छविजयः सू. ९३
॥३४१॥
Page #687
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
गाथा
प्रज्ञप्तः, सर्वात्मना विजेतव्यश्चक्रवर्त्तिनामिति विजयः अनादिप्रवाहनिपतितेयं संज्ञा तेनेदमन्वर्थमात्रदर्शनं न तु साक्षात्प्रवृत्तिनिमित्तोपदर्शनमिति, उत्तरदक्षिणाभ्यामायतः पूर्वापरविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः आयतचतुरनत्वात्, गङ्गासिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैतादयेन च पर्वतेन षड्भागप्रविभक्तः षट्खण्डीकृत इत्यर्थः, एवमन्येऽपि || विजया भाव्या, परं शीताया उदीच्याः कच्छादयः शीतोदाया याम्याः पक्ष्मादयो गङ्गासिन्धुभ्यां पोढा ||| कृताः, शीताया थाम्या पच्छादयः शीतोदाया उदीच्या वप्रादयो रक्कारक्तवतीभ्यामिति, उत्तरदक्षिणायतेति || विवृणोति-पोडश योजनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि द्विनवत्यधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागी योजनस्यायामेन, अत्रोपपत्तिर्यथा-विदेहविस्तारात् योजन ३३६८४ कला ८ रूपात् शीतायाः शीतोदाया वा विष्कम्भो योजन ५०० रूपः शोध्यते, शेषस्थाढ़ें लभ्यते यथोक्तं मानं, इह यद्यपि शीतायाः शीतोदाया वा समुद्रप्रवेशे एव पञ्चशतयोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽन्यत्र तु हीनो हीनतरस्तथापि कच्छादिविजयसमीपे उभयकूलवर्त्तिनो रमणप्रदेशावधिकृत्य
पश्चयोजनशतप्रमाणो विष्कम्भः प्राप्यत इति, प्राचीनप्रतीचीनेति विवृणोति-द्वे योजनसहस्र द्वे च योजनशते त्रयोKK दशोत्तरे किञ्चिदूने, अत्राप्युपपत्तिर्यथा-इह महाविदेहेषु देवकुरूत्तर कुरुमेरुभद्रशालवनवक्षस्कारपर्वतान्तरनदीवनमु। खव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र विजयाः, ते च पूर्वायरविस्तृतास्तुल्यविस्ताराः, तत्रैकस्मिन् दक्षिणभागे उत्तरभागे वाऽष्टौ
वक्षस्कारगिरयः, एकैकस्य पृथुत्वं पंचयोजनशतानि, सर्ववक्षस्कारपृथुत्वमीलने चत्वारि योजनसहस्राणि, अन्तरनद्यश्च
chemesekerseeneraeeseaesesesecene
दीप अनुक्रम
Recedeoeleseseses
[१६७
-१६९]
~686~
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------------------- मल [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९३]
गाथा
श्रीजम्यू- षट् एकैकस्याश्चान्तरनद्या विष्कम्भः पंचविंशं योजनशतं ततः सर्वान्तरनदीपृथुत्वमीलने जातानि सप्त शतानि पंचा-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- 1 शदधिकानि ७५०, द्वे च वनमुखे एकैकस्य वनमुखस्य पृथुत्वमेकोनत्रिंशच्छतानि द्वाविंशत्यधिकानि २९२२, उभय-1 कच्छविजन्तिचन्द्री
पृथुत्वमीलने जातानि अष्टापश्चाशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५८४४, मेरुपृथुत्वं दशसहस्राणि १००००, पूर्वा-11 या वृत्तिः
परभद्रशालवनयोरायामश्चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि ४४०००, सर्वमीलने जातानि चतुःषष्टिसहस्राणि पंचशतानि चतुर्न-1 ॥३४२॥ वत्यधिकानि ६४५९४, एतज्जम्बूद्वीपविस्तारात् शोध्यते, शोधिते च सति जातं शेष पंचत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि ||
शतानि षडुत्तराणि ३५४०६, एकैकस्मिंश्च दक्षिणे उत्तरे वा भागे विजयाः षोडश, ततः षोडशभिर्भागे हृते लब्धानि द्वाविंशतिशतानि किंचिदूनत्रयोदशाधिकानि २२१३, त्रयोदशस्य योजनस्य पोडशचतुर्दशभागात्मकत्वात् , पतावानेवैकैकस्य विजयस्य विष्कम्भः । अयं च भरतवद्वैताढ्येन द्विधाकृत इति तत्र तं विवक्षुराह-कच्छस्स 'मित्यादि,|| कच्छस्य विजयस्य बहुमध्यदेशभागे वैतादयः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यः कच्छ विजयं द्विधा विभशस्तिष्ठति, तद्यथा-दक्षि-19 णार्द्धकच्छ चोत्तरार्द्धकच्छं च, चशब्दौ उभयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाौँ । दक्षिणार्धकच्छं स्थानतः पृच्छशाह-'कहि ज- मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहनाम्नि वर्षे दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रज्ञतः, गौतम वैताळय-13॥३२॥
पर्वतस्य दक्षिणस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां मास्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्व ॥ पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे यावन् दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रता, उत्तरेत्यादिविशेषण माग्य बोध्य, MSI
दीप अनुक्रम
[१६७
-१६९]
~687~
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------.........--------- मूलं [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
गाथा
अष्टी योजनसहस्राणि द्वे च एकसप्तत्युत्तरे योजनशते एक चैकोनविंशतिभाग योजनस्खायामेन, एतदवोत्पतिश्च पोड-18 शसहस्रपञ्चशतद्विनवतियोजनकलाद्वयरूपात् कच्छविजयमानात् पंचाशद्योजनप्रमाणे वैताम्यव्यास (उपनीते ततोऽ)-18 टीकृते भवति, शेष प्राग्वद् अयं च कर्मभूमिरूपोऽकर्मभूमिरूपो वेति निर्णेतुमाह-'दाहिणद्ध'इत्यादि, दक्षिणार्ध-18 भरतप्रकरण इवेदं निर्विशेष व्याख्येय, अत्र मनुजस्वरूपं पृच्छति-'दाहिण इत्यादि, कण्ठ्यं, अथास्य सीमाकारिणं वैताळ्य इति नाम्ना प्रतीतं गिरि स्थानतः पृच्छति-'कहि णमित्यादि, स्पष्ट, नवरं द्विधा वक्षस्कारपर्वती-माल्यवचित्रकूटय-18 क्षस्कारी स्पृष्टः, इदमेव समर्थयति-पूर्वया कोव्या यावत्करणात् 'पुरथिमिलं बक्खारपवयं पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए | पञ्चस्थिमिल्लं वक्खारपवयं'इति बोध्यं, तेन पौरस्त्यं वक्षस्कार-चित्रकूट नामानं पाश्चात्यया कोव्या पाश्चात्यं वक्षस्कार-माल्यवन्त, अत एव द्वाभ्यां कोटिभ्यां स्पृष्टः, भरतवैताव्यसदृशकः रजतमयत्वात् रुचकसंस्थानसंखितत्वाच,
नवरं द्वे बाहे जीवा धनु:पृष्ठं च न कर्त्तव्यमवऋक्षेत्रवर्तित्वात्, लम्बभागश्च न भरतवैताव्यसदृश इत्याह-विजयस्य 18| कच्छादेर्यो विष्कम्भः-किंचिदूनत्रयोदशाधिकद्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश आयामेन, कोऽय!-विजयस्य यो ॥ विष्कम्भभागः सोऽस्यायामविभाग इति, विष्कम्भः-पंचाशयोजनरूपः, उच्चत्व-पंचविंशतियोजनरूपं उद्वेधः-पंचर्षि-131 || शतिक्रोशात्मकस्तथैव-भरतवैतात्यवदेवेत्यर्थः, उच्चत्वस्य प्रथमदशयोजनातिक्रमे विद्याधरण्यौ तथैव, नवरमिति ||
विशेषः पंचपंचाशत् २ विद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, एकैकस्यां श्रेणी-दक्षिणश्रेणी बन्चरश्रेणी वा, भरतवैताव्ये तु
दीप अनुक्रम
[१६७
16sestate
-१६९]
~688~
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [४], -----
------------------- मल [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९३]
गाथा
श्रीजम्बू- दक्षिणत: पञ्चाशदुत्तरतस्तु षष्टि गराणीति भेदः, आभियोग्यश्रेणी तथेवेति गम्यं, कोऽर्थः -विद्याधरश्रेणिभ्यामूदा वक्षस्कारे बादशयोजनातिक्रमे दक्षिणोत्तरभेदेन दे भवतः, अत्राधिकारात् सर्ववैताब्याभियोग्यश्रेणिविशेषमाह-उत्तरदिकस्थाका कच्छावजन्तिचन्दी- सपाजनीतिकम दाक्षणार
यःसू. ९३ या वृचिः
| आभियोग्यश्रेणयः शीताया महानद्या ईशानस्य-द्वितीयकल्पेन्द्रस्य शेषाः-शीतादक्षिणस्थाः शक्रस्य-आद्यकस्पेन्द्रस्य,
किमुकं भवति?-शीताया उत्तरदिशि ये विजयवैतादयास्तेषु या आभियोग्यश्रेणयो दक्षिणगा वा उत्तरगा वा ताः ॥३४॥18| सर्वाः सौधर्मेन्द्रस्येति, बहुवचनं चात्र विजयवर्तिसर्ववैताम्यश्रेण्यपेक्षया द्रष्टव्यं, अथ कूटानि वक्तव्यानीति तदुद्दे-18
शमाह-कुडा'इति, व्यक्तम्, अथ तन्नामान्याह-'सिद्धे'इत्यादि, पूर्वस्यां प्रथम सिद्धायतनकूट, ततः पश्चिमदिशम-181 वलम्ब्येमान्यष्टावपि कूटानि वाच्यानि, तद्यथा-द्वितीयं दक्षिणकच्छार्द्धकूट, तृतीयं खण्डप्रपातगुहाकूटं चतुर्थ || माणीति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् माणिभद्रकूट शेष व्यक्तं, पर विजयवंताब्येषु सर्वेष्वपि द्वितीयाष्टमटे || | स्वस्वदक्षिणोत्तरार्द्धविजयसमनामके यथा द्वितीयं दक्षिणकच्छार्द्धकूटं अष्टममुत्तरकच्छार्द्धकूट इतराणि भरतवैतादय-1 कूटसमनामकानीति । अथोत्तरार्द्धकच्छं प्रश्नयति-कहि णमित्यादि, व्यक्तं, तथैव दक्षिणार्द्धकच्छवद् ज्ञेयं यावत्सि-1| झन्तीति, अथैतदन्तर्वर्तिसिन्धुकुण्डं वक्तव्यमित्याह-'कहि 'मित्यादि, व्यक्त, परं नितम्बा-कटका, लाघवार्थमतिदेशमाह-'भरतसिन्धुकुण्डसरिसं सब्वं णेअई' इत्यादि, स गतार्थ, गङ्गागमेन व्याख्यातत्वात् , तत्रैव ऋषभकू.
||३४३॥ टवक्तव्यमाह-'कहिण'मित्यादि, प्राग्वत् , अथ गङ्गाकुण्डप्रस्तावनार्थमाह-'कहि ण'मित्यादि, सिन्धुकुण्डगमो निर्वि
दीप अनुक्रम
[१६७
-१६९]
CON
~689~
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
.----....-------- मूलं [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [९३]
गाथा
18 शेषः सर्वोऽपि वाच्यः, परं ततो गङ्गानदी खण्डप्रपातगुहाया अधो वैताब्यं विभिद्य दक्षिणे भागे शीतां समुपसर्पतीति,K
ननु भरते नदीमुख्यत्वेन गङ्गामुपवये सिन्धुरुपवर्णिता इह तु सिन्धुरुपवर्ण्य सा वर्ण्यते इति कथं व्यत्ययः, उच्यते, इह माल्यवक्षस्कारतो विजयप्ररूपणायाः प्रकान्तत्वेन तदासन्नत्वात् सिन्धुकुण्डस्य प्रथम सिन्धप्ररूपणा ततो गङ्गाया | इति । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते कच्छो विजयः कच्छो विजयः!, गौतम! कच्छे विजये वैताव्यस्य दक्षिराणस्यां शीताया महानद्या उत्तरस्यां गङ्गायाः महानद्याः पश्चिमायां सिन्धोर्महानद्याः पूर्वस्या दक्षिणार्धकच्छविजयस्य | बहुमध्यदेशभागे-मध्यखण्डेऽत्रान्तरे क्षेमानान्ना राजधानी प्रज्ञप्ता, विनीताराजधानीसरशी भणितव्या, विनीता-1 वर्णकः सर्वोऽप्यत्र याच्य इत्यर्थः, तत्र क्षेमायां राजधान्यां कच्छो नाम-राजा चक्रवती समुत्पद्यते, कोऽर्थः -यस्तत्र । षट्खण्डभोक्ता समुत्पद्यते स तत्र लोकै 'कच्छ' इति व्यबहियते, अत्र वर्तमाननिर्देशेन सर्वदापि यथासम्भवं चक्रवर्युत्पत्तिः सूचिता, न तु भरत इव चक्रवर्तुत्पत्ती कालनियम इति, 'महयाहि मवन्ते'त्यादिकः सर्वो ग्रन्थो वाच्यः यावत्सर्वं भरतस्य क्षेत्रस्य ओअवणमिति-साधनं स्वायत्तीकरणं भरतस्य चक्रिण इति शेषः, निष्क्रमण-प्रवज्याप्रातेपत्तिस्तद्वर्ज भणितव्यं, भरतचक्रिणा सर्वविरतिर्ग्रहीता कच्छचक्रिणस्तु तद्ग्रहणेऽनियम इति, कियत्पर्यन्तमित्याहयावद् भुङ्क्ते मानुष्यकानि सुखानि, अथवा कच्छनामधेयश्चात्र कच्छे विजये देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति | तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-कच्छराजस्वामिकत्वात् कच्छदेवाधिष्ठितत्वाच्च कच्छविजयः २ इति, यावन्नित्य इत्यन्त
दीप अनुक्रम
[१६७
-१६९]
~690~
Page #692
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
------------------ मल [९३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वक्षस्कारे चित्रकूट | वक्षस्कार:
[९३]
दीप
श्रीजम्बू-18मन्योऽन्याश्रयनिवारणार्थकं सूत्रं प्राग्वदेव योजनीयमिति ॥ गतः प्रथमो विजयः, अथ यतोऽयं पश्चिमायामुकं द्वीपशा- चित्रकूटं वक्षस्कार लक्षयनाहन्तिचन्द्रीया वृचिः
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे चासे चित्तकूडे णामं वक्खारपञ्बए पण्णते?, गोअमा 1 सीआए महाणईए उत्तरेणं
णीलवन्तरस वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं कच्छविजयस्स पुरथिमेणं सुकच्छविजयस्स पञ्चस्थिमेणं एत्व णं जम्बुद्दीवे दीवे महावि॥३४४॥ देहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपब्वए पण्णचे, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सोलसजोअणसहस्साई पञ्च व वाणउए
जोअणसए दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयायेणं पञ्च जोअणसयाई विक्खम्भेणं नीलवन्तवासहरपन्वर्यतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊअसयाई उल्लेहेणं तयणतरं च णं मायाए २ उस्सेहोबेहपरिवुद्धीए परिवद्धमाणे २ सीआमहाणईअंतेणं पच जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पञ्च गाऊअसवाई उज्वेहेणं अस्सखन्धसंठाणसंठिए सन्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिकवे उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्वे, अण्णओ दुहवि, चित्तकूतस्स सस्थारफावपस्स कपि बहुसपरमणिले भूमिभागे पम्पले जाव आसयन्ति, चित्तकूड़े पं भन्ते ! वक्खारपन्यए कति कृष्ण पक्षा, गोषमा ! चारि कूका पण्णचा, तंजहा–सिद्धाययणकूले चित्तकूहे कच्छकूडे मुकच्छकूडे, समा उत्तराहियेयं पकणांति, पळसं सीनाए उत्तरे घनत्यए नीलान्यास बासहरपवयस्स बाहिणं एत्य गं चित्तकूड़े गाम देवे महिदीए जाब रायगी मेचि (सूर्य९४) 'कहि नमित्यादि, सुलभ, नवरं भामामः पोडसमहामोजमाद्रिो विजयलका प्रथविनायक विजयास
अनुक्रम [१७०]
॥३४॥
अथ चित्रकुट-वक्षस्कारस्य वर्णनं क्रियते
~691~
Page #693
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४],
---- मूलं [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक [९४]
ISस्काराणां च तुल्यायामत्वात् , तेन तत्करणं प्राग्वदेव, विष्कम्भे तु पश्च योजनशतानीति विशेषस्तेन, ननु सानि कथ-131 18| मिति, उच्यते, जम्बूद्वीपपरिमाणविष्कम्भात् षण्णवतिसहस्त्रेषु शोधितेषु भवशिष्टानि चत्वारि सहस्राणि एकस्मिन 8
दक्षिणभागे उत्तरे वाऽष्टौ वक्षस्कारगिरयस्ततोऽष्टभिविभज्यन्ते, ततः सम्पद्यते वक्षस्काराणां प्रत्येकं पूर्वोक्तो विष्कम्भः, IRIइह हि विदेहेषु विजयान्तरनदीमुखवनमेवादिव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्र वक्षस्कारगिरयस्ते पूर्वापरविस्तृताः सर्वत्र तुल्य-12 18 विस्तारास्ततोऽस्य करणस्यावकाशः, तत्र विजयषोडशकपृथुत्वं पंचत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षडुत्तराणि ३५४०६,
अन्तरनदीषट्कपृथुत्वं सप्त शतानि पंचाशदधिकानि ७५० मेरुविष्कम्भपूर्वापरभद्शालवनायामपरिमाणं चतुःपंचाशसहस्राणि ५४००० मुखवनद्वयपृथुत्वमष्टापञ्चाशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५८४४, सर्वमीलने जातानि षण्ण-18 पनिसहखाणि ९६००० इति, तथा नीलवर्षधरपर्वतसमीपे चत्वारि योजनशतान्यूचोंचत्वेन चत्वारि मन्यूतशतानि उद्वेधेन तदनन्तरं च मात्रया २-क्रमेण २ उत्सेधोद्वेधपरिवृझ्या परिवर्द्धमानः२, यत्र यावदुश्चत्वं तत्र तञ्चतुर्थभाग उद्वेध इति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यामधिकतरोरभवन्नित्यर्थः, शीतामहानद्यन्ते पंचयोजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन पंचमब्यूतमतान्युद्धेधेन, अत एवाश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः प्रथमतोऽतुङ्गत्यात् क्रमेणान्ते तुङ्गत्वात्, सर्वरत्नमयः, शेषं प्राग्वत् । अथास्य शिख-IS एसौभाग्यमावेदयति-चित्तकूडस्स 'मित्यादि, व्यक्तं, अधात्र कूटसङ्ख्यार्थ पृच्छति-चित्तकूडे इलादि, पदयोजना सुलभा, भावार्थस्त्वयम् -परस्परमेवानि चत्वार्यपि कूटानि उत्तरदक्षिणभावेन समानि-तुल्यानीस्यर्थः, तथाहि-प्रथम ||
secccccccesesesesex
दीप अनुक्रम
[१७०]
JinElemnition
~692~
Page #694
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९४]
दीप
अनुक्रम [१७०]
श्रीजम्बूद्वीपक्षान्तिचन्द्रीया वृचिः
॥३४५॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
Jan Eibensiinie
वक्षस्कार [४],
मूलं [ ९४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
सिद्धायतनकूटं द्वितीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटं च सिद्धायतनकूटस्योत्तरस्यां एवं प्राक्तनं प्राक्तनं अग्रेतनाद अग्रेतनादक्षिणस्या अग्रेतनमद्येतनं प्रातनात् २ उत्तरस्यां ज्ञेयं तर्हि शीतानीलवतोः कस्यां दिशि इमानीत्याह| प्रथमकं शीताया उत्तरतः चतुर्थकं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणत इति सूत्रपाठोक्तक्रमबलात् द्वितीयं चित्रनामकं प्रथमादनन्तरं ज्ञेयं, तृतीयं कच्छनामकं चतुर्थादर्वाक् ज्ञेयमिति, चित्रकूटादिषु वक्षस्कारेष्वेवं कूटनामनिवेशे पूर्वेषां सम्प्रदायः - सर्वत्राद्यं सिद्धायतनकूटं महानदीसमीपतो गण्यमानत्वाद् द्वितीयं स्वस्ववक्षस्कारनामकं तृतीयं पाश्चात्यविजयनामकं चतुर्थ प्राच्यविजयनामकमिति, अथास्य नामार्थं प्ररूपयति- ' एत्थ ण'मित्यादि, अत्र चित्रकूटनामा | देवः परिवसति तद्योगांच्चित्रकूट इति नाम, अस्य राजधानी मेरोरुत्तरतः शीताया उत्तरदिग्भाविवक्षस्काराधिपतित्वात्, एवमग्रेतनेष्वपि वक्षस्कारेषु यथासम्भवं वाच्यमिति ॥ गतः प्रथमो वक्षस्कारः, अधुना द्वितीयविजयप्रश्नावसरः
अथ महाविदेहक्षेत्रस्य द्वितिय विजयस्य वर्णनं क्रियते
कहिं णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजय पण्णन्ते, गोअमा! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवन्तरस वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं गादावईए महाणईए पद्मस्थिमेणं चितकूडस्स बक्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुरीने दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजय पण्णचे, उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे बिजए तहेव सुकच्छे बिजए, नवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुप्पा तद्देव सव्वं कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे गाहावश्कुंडे पणते ?, गों० सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं महाकच्छरस विजयत्स पञ्चत्थिमेणं पीलवन्तस्स वासहरपण्ययस्स दाहिणिले णितम्बे एत्थ णं जम्बु
Fur Fate &P Cy
~693~
Poe
४वक्षस्कारे शेषविज
॥३४५॥
Page #695
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
गाथा:
secoc0000000000 Poesdese
दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे णामं कुण्डे पण्णते, जहेब रोहिअंसाकुण्डे नहेब जाव गाहावइदीवे भवणे, तस्स णं गाहावइस्स कुण्डस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहाबई महाणई पबूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभवमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीजे महाणई समप्पेइ, गाहावई णं महाणई पवहे अ मुहे अ सम्वत्थ समा पणवीसं जोअणसयं विक्खम्भेणं अद्धाइजाई जोअणाई उज्बेहेणं उभओ पासिं दोहि अ पउगवरवेइाहिं दोहि अ वणसण्डेहिं जाव दुहवि षण्णओ इति । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजये पण्णत्ते , गोअमा! णीलंबन्तरस वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं पम्ह कूडस्स वक्खारपब्वयस्स पचत्थिमेणं गाहावईए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकल्छे णामं विजए पण्णते, सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्व देवे महिडीए अहो अ भाणिभव्यो। कहि णं भन्ते ! महाविदेहे बासे पम्हकूड़े णामं वक्खारपब्बए पण्णचे, गोअमा! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरथिमेणं कच्छाचईए पशत्थिमेण एस्थ णं महाविदेहे वासे पम्हफूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सेसं जहा चित्तकूटस्स जाव आसयन्ति, पम्हकूडे चत्तारि कूडा पं० २०-सिद्धाययणकूले पम्हकूडे महाकच्छकूड़े कच्छावाकूडे एवं जाव अट्ठो, पम्हकूडे इत्थ देवे महद्धिए पलिओवमठिईए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं चुगद । कहि णं भन्ते! महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम विजए पं०१, गो०! णीलवन्तस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेण दहावतीए महाणईए पचरिथमेण पम्हकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ ण महाविदेहे वासे करछगावती णामं विजए पं० उत्तरदान हिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छगावई अ इत्य देवे, कहि ण भन्ते! महाविदेहे वासे
eseseseseseeseaeeeeeeese
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
Jistilenni
~694 ~
Page #696
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
४वक्षस्कारे
सूत्रांक
अपविज
[९५]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः
यादि सू.
॥३४६॥
गाथा:
दहावई कुण्डे गाम कुण्डे पणत्ते!, गोअमा! आवत्तस्स विजयस्स पञ्चस्थिमेणं कच्छगाचईए विजयस्स पुरथिमेणं पीलवन्तस्स दाहिणिले णितंये एत्थ ण महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पं० सेसं जहा गाहावईकुण्डरस जाव अट्ठो, तस्स ण दहाबईकुण्डस्स दाहिणणं तोरणेणं दहाबई महाणई पवूढा समाणी कच्छावईआबचे विजए दुइा विभयमाणी २ दाहिणेणं सीखें महाणई समापेड़, सेसं जहा गाहावईए । कहि पं भन्ने! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते १, गोभमा ! णीलयन्तस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं णलिणकूडस्स वक्खारपवयस्स पञ्चस्थिमेण दहावतीए महाणईए पुरस्थिमेणं एस्थ महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णते, सेसं जहा कच्छरस विजयस्स इति । कहि गं भन्ते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं बक्सारपब्वए पण्णचे !, गो०! पीलवन्तस्स दाहिणेणं सीआए उत्तरेणं मंगळावइस्स विजयस्स पत्थिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ पं महाविदेहे वासे गलिगकूडे णामं वक्खारपब्बए प्राणचे, उत्तरदाहियए पाईणपडीणविच्छिष्णे सेसं जहा चित्तकूडरस जाव आसयन्ति, णलिणकूड़े णं अन्ते! ऋतिकुटा पं०१, ग्रोअमा! पत्तारि कूड़ा पण्णता, संजहा-सिद्धाययणकूडे णलिणकूढे आवंचकूडे अंपळाबतकडे, ए छुड़ा मामा. रायहाणीनो उत्तरेणं । कहि व भन्ते! महाविदेहे से मंगलावत्ते ग्रामं विजए पण्णते?, गोममा शीलबन्नस बक्सिम्मेण सीमाए उच्चरे गालिहस्स पुरत्यिमेणं पंकाबईए पचत्यिमेणं पत्थ ण मंगलावचे गा बिबए गणने, जा छह विजए. बहा एसो आणिग्रन्बो पचन प्रयामते अब देने परिवसइ, से एछामं । कहि भन्ते । महासिवेरे
पाई एकाने, पहेमा सास लिसो पुलकविजयास आत्यिक गोली , यथा
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
॥३४६॥
~695~
Page #697
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
RecersesCcce
गाथा:
वई जाव कुण्ठे पण्णते तं चेव गाहाबइकुण्डपमाण जाव मंगलावत्तपुक्खलावतविजये दुहा विभयमाणी २ अवसेससं बेवज व गाहाकईए । कहि गं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलाबते णाम विजए पण्णत्ते !, गोअमा! णीलवन्तस्स दाहिजेणं सीआए उत्तरेणं पंकावईए पुरस्थिमेण एकासेलस्स बक्खारपब्वयस्स पचत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावते णाम विजए पण्णत्ते जहा कच्छविजए तहा भाणिभवं जाब पुक्खले अ इत्य देवे महिदिए पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से एएणड्डेण० कहिणे भन्ते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपवए पं०१, गो०! पुक्खलावत्तचकवट्टिविजयस्स पुरस्थिमेण पोक्खलावतीचकवट्टिविजयस्स पचत्यिमेणं णीळयन्तस्स दक्खिणेणं सीआए उत्तरेणं, एस्थ ण एगसेले णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते चित्रकूडगमेणं अव्यो जाव देवा आसवन्ति, चत्तारि कूडा, तं०सिद्धाययणकूडे एगसेलकूडे पुक्खलाबत्तकूढे पुक्खलाबई कूडे, कूठाणं तं चेव पञ्चसइ परिमाणं जाव एगसेले अ देवे महिद्धीए । कहि ण भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलाई णामं चक्रवट्टिविजए पण्णत्ते !, गोअमा, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं सीआए उत्तरेणं उन्तरिहस्स सीभामुहवणस्स परथिमेणं एगसेलस्स बक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं, एत्व ण महाविदेहे वासे पुक्खलाबई णाम विजए पश्यन्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई अ इत्थ देवे परिवसइ, एएणतुणं । कहिणं भन्ते! महाविदेहे वासे सीआए महाणईए उत्तरिले सीआमुइवणे णाम वणे ५०, गोजमा! णीलवन्तस्स दक्षिणेणं सीमाए उत्तरेणं पुरत्थिमालवण्यसमुहस्स पचत्यिमेणं पुक्खलावद्दचकवट्टिविजयस्स पुरस्थिमेणं, एत्य णं सीआमुहवणे णार्म वणे पणते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिष्णे सोळसजोअणसहस्साई पञ्च य वाणवए जोमणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं सीआए महार्णइए अन्तेणं दो जोअणसहस्साई नव य बाबीसे जोअणसए विक्खम्भेणं तयणतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
millenny
~696~
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू
सूत्रांक
द्वीपशा
वस्कारे
अपविज
[९५]
न्तिचन्द्र
यादि स.
या प्रति
॥३४॥
गाथा:
भीलवन्तवासहरपन्नयंतेणं एवं एगूणवीसहभागं जोअणस्स विक्रमेणंति, से गं एगाए पउमवरनेइमाए एगेण व वणसण्टेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीआमुहवणस्स जाव देवा आसयन्ति, एवं उत्तरिलं पास समत्तं । विजया भणिआ । रायहाणीओं इमाओ-खेमा १ खेमपुरा २ चेव, रिहा ३ रिटुपुरा ४ तहा । खरगी ५ मंजूसा ६ अविअ, ओसही ७ पुढंरीगिणी ८॥१॥ सोउस विज्जाहरसेडीओ तावइआओ अमिओगसेढीओ सन्बाओ इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजण्मु कच्छवत्तच्चया जाव अट्ठो राषाणो सरिसणामगा विजएसु सोलसण्डं वक्खारपब्बयाणं चित्तकूडवत्तन्वया जाव कूडा चत्वारि २ बारसण्डं गईणं गाहावइबत्तनया जाव उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइआर्हि वणसण्डेहि अ वण्णओ (सूत्र ९५)
'कहि णमित्यादि, सर्व सुगम कच्छतुल्यवक्तव्यत्वात् , नवरं खेमपुरा राजधानी सुकच्छस्तत्र राजा चक्रवत्ती समुत्पद्यते, विजयसाधनादिकं तथैव सर्व वक्तव्यमिति शेषः । उक्तः सुकच्छः, अथ प्रथमान्तरनद्यवसर:- कहिणं
भन्ते !' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावत्या अन्तरनद्याः कुण्डं-प्रभवस्थानं पाहावती-1 | कुण्डनाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , गौतम! सुकच्छस्य विजयस्य पूर्वस्यां महाकच्छस्य विजयस्य पश्चिमायां नीलवतो वर्षधर-18 पर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे, अत्र-सामीपिकेऽधिकरणे सप्तमी तेन नितम्बसमीपे इत्यर्थः, अत्र जम्बूद्वीपे द्वीपे महा-१॥३४७॥ विदेहे वर्षे प्राहावतीकुण्डं प्रज्ञप्तं, यथैव रोहितांशाकुण्डं तथेदमपि विंशत्यधिकशतयोजनायामविष्कम्भमित्यादि-18 रीत्या ज्ञेयं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद् प्राहावती द्वीपं भवनं चेति, उपलक्षणं चैतत् , तेनार्थेन सूत्रमपि भावनीयम् ,
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
~697~
Page #699
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९५]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१७१
-१७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jin Elem
| तथाहि - 'से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चाइ गाहावई दीवे गाहावई दीवे ?, गोअमा ! गाहावई दीवे णं बहूई उप्पलाई, | जाब सहस्सपत्ताई गाहावईदीव समप्पभाई समवण्णाई' इत्यादि, अथास्माद्या नदी प्रवहति तामाह- 'तस्स ण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं ग्राहा:- तन्तुनामानो जलचरा महाकायाः सन्त्यस्यामिति प्राहावती, मतुष्प्रत्यये मस्य वत्वे ङीप्रत्यये रूपसिद्धिः दीर्घत्वं चात्राकृतिगणत्वात् 'अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मता' (श्रीसिद्ध० अ०३पा०२ सू०७८) वित्यनेन, महानदी प्रव्यूढा सती सुकच्छमहाकच्छौ विजयौ द्विधा विभजन्ती २ अष्टाविंशत्या नदीसहस्रैः समग्रा-सहिता दक्षिणेन भागेन - मेरोर्दक्षिणदिशि शीता महानदीं समुपसर्पति, अथास्य विष्कम्भादिकमाह-'गाहावई णमित्यादि, ग्राहावती महानदी प्रवहे -ग्राहावतीकुण्ड निर्गमे मुखे - शीताप्रवेशे च सर्वत्र मुखप्रवहयोरन्यत्रापि स्थाने समा-सम| विस्तरोद्वेधा, एतदेव दर्शयति- पंचविंशत्यधिकं योजनशतं विष्कम्भेन, अर्द्धतृतीयानि योजनान्युद्वेधेन, सपादशत| योजनानां पंचाशसमभागे एतावत एव लाभात् पृथुत्वं च प्राग्वत्, तथाहि - महाविदेहेषु कुरुमेरुभद्रशालविजयवक्षस्कार मुखयनव्यतिरेकेणान्यत्र सर्वत्रान्तरनद्यः, ताश्च पूर्वापरविस्तृतास्तुल्यविस्तार प्रमाणास्तत एव तत्करणावकाशः, तत्र मेरुविष्कम्भपूर्वापर भद्रशालवनायामप्रमाणं चतुःपंचाशत्सहस्राणि विजय १६ पृथुत्वं पंचत्रिंशत्सहस्राणि चतु:| शतानि षडुत्तराणि वक्षस्कार ८ पृथुत्वं चत्वारि सहस्राणि मुखवनद्वय २ पृथुत्वं ५८४४, सर्वमीलनेन नवनवतिसहस्राणि द्वे शते पंचाशदधिके, एतज्जम्बूद्वीपविष्कम्भलक्षाच्छोध्यते शोधिते च जातं सप्तशतानि पंचाशदप्राणि, एतच्च
Fur Fate & Use Cy
~698~
www.jayy
Page #700
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्यू- द्वीपशा
[९५]
न्तिचन्द्री
या वृत्तिः
Poeseae
॥३४८॥
गाथा:
दक्षिणे उत्तरे वा भागेऽन्तरनद्यः षट् सन्तीति पड्भिविभज्यते लब्धः प्रत्येकमन्तरनदीनामुक्को विष्कम्भ इति, आया- श्वक्षस्कारे | मस्तु विजयायामप्रमाणविजयवक्षस्कारान्तरनदीमुखवनानां समायामकत्वात् , ननु 'जावइया सलिलाओ माणुसलोगमि | शेष विज| सर्वमि ॥ २९ ॥ पणयालीस सहस्सा आयामो होइ सबसरिआणं' इति वचनात् कथमिदं सङ्गच्छते?, उच्यते, यादि सू. | इदं वचनं भरतगङ्गादिसाधारण, तेन यथा तत्र नदीक्षेत्रस्याल्पत्वेनानुपपत्तावुपपत्त्यर्थं कोट्टाककरणमाश्रयणीयं तथा-।। |ऽत्रापि, अत्र श्रीमलयगिरिपादाः क्षेत्रसमासवृत्ती जंबूद्वीपाधिकारे एताश्च पाहावतीप्रमुखा नद्यः सर्वा अपि सर्वत्र कुण्डाद्विनिर्गमे शीताशोतोदायाः प्रवेशे च तुल्यप्रमाणविष्कम्भोद्वेधा इत्युक्त्वा यत्पुनर्धातकीखण्डपुष्करार्दाधिकारयोर्नदीनां द्वीपे द्वीपे द्विगुणविस्तारं व्याख्यानयन्तः प्रोचुः यथा जम्बूद्वीपे रोहितांशारोहितासुवर्णकूलारूप्यकूलानां ग्राहावत्यादीनां च द्वादशानामन्तरनदीनां सर्वाग्रेण पोडशानां नदीनां प्रवाहविष्कम्भा द्वादशयोजनानि सार्दानि | उद्वेधः क्रोशमेकं समुद्रप्रवेशे ग्राहावत्यादीनां च महानदीप्रवेशे विष्कम्भो योजन १२५ उद्वेधो योजन २ क्रोश २॥ इति तन्न पूर्वापरविरोधि, यतस्तत्रैव तैः "अत्र लघुवृत्त्यभिप्रायेण प्रबहप्रवेशयोर्विशेषोऽभिहित" इति कथनेन समाहितम् , एषमन्योऽपि लघुवृत्तिगतस्तत्राभिप्रायो दर्शितो वर्तते, उभयत्रापि तत्त्वं तु सर्वविदो विदन्ति, किंच-आसवं सर्वत्र ॥३४८॥ समविष्कम्भत्वे आगमवद्युतिरप्यनुकूला, तथाहि-आसां विष्कम्भवैषम्य उभयपार्चवर्तिनोविजययोरपि विष्कम्भवैषम्यं स्यादिष्यते च समविष्कम्भकत्वमिति, शेष व्यक्तमिति, अथ तृतीयं विजयं प्रश्नयनाह-'कहिमित्यादि,
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
~699~
Page #701
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
----------------------- मूल [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
गाथा:
स्पष्ट, नवरं यावत्पदात् 'तत्थ णं अरिद्वाए रायहाणीए महाकच्छे णामं राया समुपजइ, महया हिमवन्त जाच सर्व भरहोअवणं भाणिअर्थ, णिक्खमणवज सेसं भाणिअब, जाव भुजइ माणुस्सए सुहे, महाकच्छणामधेने' इति ग्राह्य, ईशेनाभिलापेनाओं महाकच्छशब्दस्य भणितव्यः। सम्पति ब्रह्मकूटप्रश्नः--'कहिण'मित्यादि, सर्व व्यक, ब्रह्माकू-18 टनामा द्वितीयो वक्षस्कारः चित्रकूटातिदेशेन यावत्पदादायामसूत्रादिकं भूमिरमणीयसूत्रान्तं च सर्व वाच्यम् । अथात्र || कूटवक्तव्यतामाह-प्राकूडे चत्तारि कूडा'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं एवं चित्रकूटवक्षस्कारकूटन्यायेन वाच्यं, यावत्क-18 रणात् समा उत्तरदाहिणणं परुप्परंतीत्यादि प्राय, अर्थो-ब्रह्म कूटशब्दार्थः, 'से केणद्वेणं भन्ते! एवं चुचइ-ब्राकडे 1%
' इत्यालापकेन उल्लेख्यः, ब्रह्मकूटनामा देवश्चात्र पस्योपमस्थितिकः परिवसति, तदेतेनार्थेनेति सुगमं। अथ चतुर्थ-18 विजयः-'कहि ण'मित्यादि, व्यक्तं, परं द्रहावत्याः अन्तरनद्याः पश्चिमायां कच्छगावतीविजयः कच्छा एवं कच्छका:
मालुकाकच्छादयः सन्त्यस्यामतिशांयिन इति 'अनजिरेति सूत्रे (श्रीसि०अ०३पा०२सू०७८) शरादीनामाकृतिगणत्वेन || सिद्धिः, शेष प्राग्वत् , अथायमनन्तरोत्तो विजयो यस्याः पश्चिमायां तामन्तरनदी लक्षयितुमाह-कहिण'मित्यादि, 12
प्रश्नसूत्रं व्यकं, उत्तरसूत्रे आवर्तनाम्नः पूर्वदिग्वर्तिनो विजयस्य पश्चिमायां कच्छावत्या विजयस्य पूर्वस्यां यावद् द्रावतीAS कुण्ड नाम कुण्डं प्रज्ञप्तं शेषं यथा ग्राहावतीकुण्डस्य स्वरूपाख्यानं पाहावतीद्वीपपरिमाणभवनवर्णकनामार्थकथनप्रमुखं ।
तथा ज्ञेयं, नवरं दहावतीद्वीपो द्रहावतीदेवीभवनं दहावतीप्रभपद्मादियोगाद् द्रावतीति नामार्थः समधिगम्यः, द्रहा
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
भीजम्यू. ५७
~700~
Page #702
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९५]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 अगाधजलाशयाः सन्त्यस्यामिति द्रहावती साधनिकाप्राग्वत्,अथ यथेयं महानदी समुपैति तथाऽऽह-'तस्स ण मित्यादि, MAI ANIकारे द्वीपशा- |उक्तमायम,अथ पञ्चमो विजयः-'कहिण'मित्यादि,व्यक्तम् ,अथ तृतीयो वक्षस्कार:-'कहिण'मित्यादि,सूत्रद्वयमपि व्यक्तं,
शेषविजन्तिचन्द्री- नवरं द्वितीयसूत्रे कूटानि पञ्चशतिकानि-पंचशतप्रमाणानीति, अथ षष्ठो विजया-'कहिण'मित्यादि, स्पष्ट, पावत्या- यादि मू. या वृत्तिः
॥ स्तृतीयान्तरनया इति, अथ तृतीयान्तरनद्यवसर:-'कहि ण'मित्यादि, प्रायः प्राग्वत् , नवरं पङ्कोऽतिशयेनास्त्यस्या॥३४९॥ मिति पङ्कावती प्राग्वद्भूपसिद्धिः, अथ सप्तमविजयावसरः-'कहि ण'मित्यादि व्यक्तं, अथ चतुर्थवक्षस्कार:-'कहि ण'-18
मित्यादि, सर्व स्पष्ट, नवरं पुष्कलावतः सप्तमो विजयः स एव चक्रवर्तिविजेतव्यत्वेन चक्रवत्ति विजय इत्युच्यते, एवं । पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयोऽपि बोध्यः, सम्पत्यष्टमो विजयः-'कहि णं भन्ते । महाविदेहे इत्यादि, प्रकटार्थ, ISI || नवरं औत्तराहस्य शीतामहानद्या मुखवनस्य-अनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणस्वरूपस्य शीतामहानदीनीलवद्वर्षधरमध्यवर्तिमुख-18॥ IS वनस्य पश्चिमायामित्यर्थः, दाक्षिणात्याच्छीतामुखवनादयं वायव्यां स्यादिति औत्तराहग्रहणमिति, अथानन्तरमेवोक्तं 11
|| शीतामुखवनं लक्षयज्ञाह-'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त! महाविदेहे वर्षे शीताया महानद्या उत्तरदिग्पर्तिशीतायाः181 8 मुखे-समुद्रप्रवेशे वनं शीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् , अत्र शीतामुखेत्यनेन शीतोदावनमुखद्वयं उत्तरेत्यनेन च 18|| दाक्षिणात्य शीतामुखवन निरस्त, तथाहि-चत्वारि मुखवनानि-एक शीतानीलवतोर्मध्ये १ द्वितीयं शीतानिषधयोः |
तृतीयं शीतोदा निषधयोः ३ चतुर्थं शीतोदानीलवतोः ४ एषां मध्ये आद्यस्यैव शीतात उत्तरेण दर्शनात्, गौतम! ॥३४९॥
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
~ 701~
Page #703
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९५]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [१७१
-१७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Jan Ebemitin
नीलवतो दक्षिणस्यां शीताया उत्तरस्यां पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमायां पुष्कलावती चक्रवर्त्तिविजयस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे शीता मुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्, उत्तरदक्षिणायतेत्यादिविशेषणानि विजयवद्वाच्यानि, इह विजयवक्षस्कार गिर्यन्त रनद्यः | सर्वत्र तुल्यविस्ताराः वनमुखानि तु निषधसमीपे नीलवत्समीपे चाल्पविष्कम्भानि शीताशीतोदोभयकूलपार्श्वे तु पृथुविष्कम्भानि जगत्यनुरोधात्, तथाहि - पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि निषधान्नीलवतो वाऽऽरभ्य जगती वक्रगत्या शीतां शीतोदां वा प्राप्ता, जगतीसंस्पर्शवर्त्तीनि च मुखवनानि, ततस्तदनुरोधाद् दर्शयति-शीतामहान द्यन्ते द्वे योजनसहस्रे नव च द्वाविंशत्यधिकानि योजनशतानि विष्कम्भेन, अत्रोपपत्तिः प्राग्वत्, विजयवक्षस्कारायन्तरनदी मेरुपृथुत्व पूर्वापर भद्रशालवनायाममीलने जातानि ९४१५६, अस्य राशेर्जम्बूद्वीपपरिमाणात् शोधने शेषं ५८४४, अस्य शीताशीतोदयोरेकस्मिन् दक्षिणे उत्तरे वा भागे द्वे मुखयने इति द्वाभ्यां भागे हुते आगतानि द्वाविंशत्यधिकान्येकोनत्रिंशद्योजन शतानि २९२२, अत्र च तेवीसे इति पाठोऽश्रुद्धः, एतच्च पृथुत्वपरिमाणं न सर्वत्र शीताशीतोदयोर्मुखप्रत्या सत्तावेतत्करणावकाशादत्रैव महाविदेहवर्षस्य सर्वोत्कृष्ट विस्तारलाभादित्याह - तदनन्तरं च मात्रया २-अंशेनांशेन परिहीयमानं २- हानिमुपगच्छद् नीलबद्धर्षधरपर्वतान्ते एकमेकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेन, एकां कलां यावत्पृथुत्वेनेत्यर्थः, 'कालाध्वनोर्व्याप्ता' - (श्रीसिद्ध० अ० २ पा० २ सू० ४२ ) वित्यनेन द्वितीया, अत्र करणं-मुखवनानां सर्वलघुर्विष्कम्भो वर्षधरपार्श्वे ततो वर्षधरजीवात इदं करणं समुत्तिष्ठति, तथाहि प्रस्तुते नीलवजीवा चतुर्नवतिसहस्राणि शतमेकं पट्पञ्चाशदधिकं योज
Fur Ervale &Pale Cy
~702~
Page #704
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू-18
श्वक्षस्कारे
[९५]
॥३५०॥
गाथा:
|| नानां दे चैकोनविंशतिभागरूपे कले योजनस्य ९४१५६ कला २, अथ पूर्वोक्तानि विजय १६ वक्षस्कारः ८ अन्तर-1 टीमा-18|| नदी ६ गन्धमादन १ माल्यवत् १ गजदन्तपृथुत्वोत्तरकुरुजीवापरिमाणान्येकत्र मील्यन्ते, जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि शेषविजन्तिचन्द्री-1 शतमेकं षट्पश्चाशदधिकं ९४१५६, एतस्मिन् प्रागुताज्जीवापरिमाणाच्छोधिते शेष दे कले तत् एकस्मिन् दक्षिणे
यादि. या वृत्तिः उत्तरे वा भागे शीताशीतोदासत्के द्वे बने इति द्वाभ्यां भज्यते आगतैका कला इति, ननु विजयवक्षस्कारादीनां सर्वत्र
| तुल्यविस्तारकत्वेन वनमुखानां च वर्षधरसमीपे एककलामात्रविष्कम्भकत्वेन सप्तदशकलाधिकैकोनत्रिंशद्योजनशतप्र-II 18माणः शेषजम्बूद्वीपक्षेत्रविभागः कुत्रान्तर्भावनीयः, उच्यते, अत्र जगत्या वृत्तत्वेन सङ्कीर्णभूतत्वात् समाधेयं, अय
मर्थ:-पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि निषधान्नीलवतो वा आरभ्य जगती वक्रगल्या शीताशीतोदे प्राप्ता, जगतीसंस्पर्श|वत्तीनि च वनमुखानि ततस्तदनुरोधात् वर्षधरसमीपे तेषां स्तोको विष्कम्भः शीताशीतोदासमीपे तु भूयानिति, एपा| मिष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय सूत्रेऽनुक्तमपि प्रसङ्गगत्या करणमुच्यते-अतिक्रान्तं योजनादिकं गुरुपृथुत्वेन २९३२ इत्येवंरूपेण गुण्यते, गुणितश्च योजनराशिः कलीकरणार्थमेकोनविंशत्या गुण्यते, तन्मध्ये च गुरुपृथुत्वगणितः कलाराशिः प्रक्षिप्यते, ततः कलीकृतेन बनायामपरिमाणराशिना हियते, ततो लभ्यते इष्टस्थाने बनमुखविष्कम्भः, यथा ॥३५०॥ यथा निषधान्नीलवतो वा षोडशसहस्राणि पंच शतानि बिनवत्यधिकानि योजनानां द्वे च कले इत्येतावद् गत्वा वि-18 कम्भो ज्ञातुमिष्टः तेनैष राशिर्धियते १६५९२ कला २, घृत्वा च एकोनत्रिंशच्छतैर्वाविंशत्यधिकैर्गुण्यते, जातो योज-18
rawaseen99999000000000000000a
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
metriaryay
~ 703~
Page #705
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९५]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१७१
-१७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
Jan Fikeitim
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| नराशिः ४८४८१८२४, कलाद्वयमपि २९२२ अनेनैव गुण्यते जातः कलाराशिः ५८४४, ततो योजनराशौ ४८४८१८२४ सवर्णिते जातं ९२११५४६५६ ततः कलाराशिः ५८४४ क्षेपे जातं ९२११६०५०० ततोऽस्य मुखबनाया| मेन १६५९२ सवर्णितेन कलाद्वययुक्तेन ३१५२५० भागे हृते लब्ध इष्टस्थाने २९२२ योजनरूपो विष्कम्भः, एव| मन्यत्रापि भावनीयम् । अथास्य पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह - ' से णं एगाए पउ० ' इत्यादि, तन्मुखवनमेकया पद्म| वरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सम्परिक्षितम् । अथ शीतामुखवनस्य वर्णको वाच्यः - 'किण्हे किण्होभासे' इत्यादि, | कः कियत्पर्यन्तमित्याह - यावद्देवता आसते शेरते इत्यादि, अत्र विजयदिशि पद्मवरवेदिका गोपिका लवणदिशि तु जगत्येव गोपिका इत्येका, इयं च पद्मवरवेदिका जगतीवन्मुखवनव्यास एवान्तर्लीींना, यत्र तु वनव्यासः कलाप्रमाणस्तत्र विजयव्यासं रुणद्धीति तात्पर्य, अन्यथा विजयादिभिर्जम्बूद्वीपस्य परिपूर्णलक्षपूर्णावुभयतो जगत्यादेः क्वावकाशः स्यात्, अत एवाह - " अविचक्खिऊण जगई सवेइवणमुहचउकपिलत्तं । गुणतीससयदुवीसं णइति गिरिअंति एगकला ॥ १ ॥” [ विवक्षित्वा जगतीं सवेदिकावनमुखचतुष्कपृथुत्वं । एकोनत्रिंशच्छतानि द्वाविंशत्यधिकानि नदीपार्श्वे गिरिपार्श्वे एका कला ॥ १ ॥] इति, अथोपसंहारमाह - ' एवं उत्तरिल्लं' इत्यादि, एवं विजयादिकथनेन उत्तरदिस्वर्त्ति पार्श्व समाप्तम्, प्राच्यमिति शेषः, प्राक् चतुर्विभागतयोद्दिष्टस्य विदेहक्षेत्रस्य प्राच्योत्तरपार्श्वं विजयादिकथना|पेक्षया पूर्ण निर्दिष्टमित्यर्थः । अथ प्रतिविजयमेकैकां राजधानीं निर्दिशन्नाह – 'विजया' इत्यादि, विजया भणिताः,
Furwale rely
~704~
৬
Page #706
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९५]
गाथा:
श्रीजम्बू- अत्र च भणितानामपि विजयानां यत्पुनर्भणनमुक्कं तबाजधानीनिरूपणार्य, राजधाग्यश्चेमाः पद्यबन्धेन संगृहाति, द्वीपशा-1 कच्छविजयतः क्रमेण नामतो ज्ञेयाः, क्षेमा १ क्षेमपुरा २ अरिष्टा ३ अरिष्ठपुरा ४ तथा खगी ५ मंजूषा ६ अपि चेति शेषविजन्तिचन्द्री- 18 समुच्चये औषधी ७ पुंडरीकिणी ८ इति, एताः शौताया औदीच्यानां विजयानां दक्षिणार्धमध्यमखण्डेषु वेदितव्याः, यादि स. या चिः
|अथैषु श्रेणिस्वरूपमाह-'सोलस विज्जाहरसेढीओ'इत्यादि, उक्केष्वष्टसु विजयेषु पोडश विद्याधरश्रेणयो वाच्या, ॥३५१॥ ९ प्रतिवैताव्यं श्रेणिद्वयद्वयसम्भवात् , आसु च विद्याधरश्रेणिषु प्रत्येक दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः पञ्चपञ्चाशनगराणि वाच्यानि,
॥ उभयत्रापि वैताब्यस्य समभूमिकत्वात् , तावत्यः आभियोग्यश्रेण्यो वाच्याः षोडश इत्यर्थः, सर्वाश्चेमा अभियोग्य
श्रेणय ईशानेन्द्रस्य मेरुतः उत्तरदिगपतित्वात् , अत्र च विद्याधरश्रेणिसूत्र आदर्शान्तरेष्वदृष्टमपि प्रस्तावादाभियो8 ग्यश्रेणिसङ्गत्यनुपपत्तेश्च प्राकृतशैल्या संस्कृत्य मया लिखितमस्तीति बहुश्रुतैर्मयि सूत्राशातना न चिन्तनीयेति, उत्तर-18 18 वापि सूत्रकारेण संग्रहगाथायामाभियोग्यश्रेणिसंग्रहो विद्याधरश्रेणिसंग्रहपूर्वकमेव वक्ष्यते । अथ शेषविजयवक्षस्कारा-191
दीनां स्वरूपप्ररूपणाय लाघवाशनातिदेशसवमाह--सव्वेसुइत्यादि, सर्वेषु विजयेषु कच्छवक्तव्यता ज्ञेया, याव-ISITam दर्थों-विजयानां नाम निरुतं, तथा विजयेषु विजयसदृशनामका राजानो ज्ञेयाः, तथा पोडशवक्षस्कारपर्वतानां चित्र-18 कूटवक्तव्यता शेया यावञ्चत्वारि २ कूटानि व्यावर्णितानि भवन्ति, तथा द्वादशानां नदीनां-अन्तरनदीनामित्यर्थः ।
दीप अनुक्रम [१७१-१७३]
5990sassॐॐॐॐ
Sae0a
~ 705~
Page #707
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[९५]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [१७१
-१७३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [९५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
Ekemiini
ग्राहावतीवक्तव्यता ज्ञेया यावदुभयोः पार्श्वयोर्द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां वनखण्डाभ्या च सम्परिक्षिता वर्णकश्चेति । अथ द्वितीयं विदेहविभागं निर्देष्टुमाह-
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीने महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं बणे पण्णचे ?, एवं जह चैव उत्तर सीआमुहवणं तह चेव दाहिणंपि भाणिअव्वं, णवरं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीआए महाणईए दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं वच्छस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिजिल्ले सीआमुहवणे णामं बणे पं० उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं वरं णिसवासहरपव्बयंतेणं एगमेगूणवीसभागं जोअणस्स विक्सम्भेणं किण्हे किण्दोभासे जाब महया गन्धद्धाणिं मुअंते जाब आसयन्ति उभओ पासिं दोहिं परमवरवेइञ्चाहिं वणव्व
ओ इति । कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णत्ते !, गोअमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीआए महाणईए दाहिणेणं दाहिणिहस्स सीआमुहवणस्स पञ्चत्थिमेणं तिउहस्स वक्खारपञ्चयस्स पुरत्थिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीवे दीने महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजय पण्णत्ते तं चैव पमाणं सुसीमा रायहाणी १, तिउडे वक्खारपब्वए सुवच्छे विजए कुण्डला रायहाणी २, तत्तजला गई महावच्छे विजए अपराजिआ रायहाणी ३, बेसमणकूडे वक्खारपव्वए बच्छावई विजए पभ्रंकरा रायहाणी ४, मत्तजला गई रम्मे विजय अंकावई रायहाणी ५, अंजणे वक्खारपन्नए रम्भगे विजय पहावई, रायहाणी ६, उम्मतजला महाणई रमणिकले विजए सुभा रायहाणी ७, मायंजणे वक्खारपन्चए मंगळावई विजए रय
अथ महाविदेहस्य वर्णने द्वितियम् विदेह विभाग वर्ण्यते
Fur Fate &PO
~706~
Page #708
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[९६]
गाथा:
संचया रायहाणीति ८, एवं जह चेव सीआए महाणईए उत्तरं पास तह व दक्खि णिलं भाणिअव्वं, दाहिणिलसीआमुहब- 1 श्रीजम्बू
वक्षस्कारे
18 विदेहद्विद्वीपशाणाइ, इमे वक्खारकूटा तक-तिउडे १ वेसमणकूडे २ अंजणे ३ मायंजणे ४, [ गईउ तत्तजला १ मत्तजला २ उम्मत्तजला 18
वीयभागः न्तिचन्द्री- ३, विजया तं०-बकछे सुबच्छे महावच्छे चउत्थे वच्छगावई । रम्मे रम्मए चेव, रमणिज्जे मंगलावई ॥१॥ रायहाणीओ,
सू.९६ या चिः जहा-सुसीमा कुण्डला चेन, अवराइअ पहंकरा। अंकावई पम्हावई सुभा रयणसंचया ॥२॥ बच्छस्स विजयस्स णिसहे ॥३५२॥
दाहिणेणं सीमा उत्तरेणं वाहिणिलसीवामुहवणे पुरथिमेणं तिउडे पञ्चत्थिमेणं सुसीमा रायहाणी पमाणं तं वेति, वच्छाणंतर तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला णई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपब्वए वच्छावई विजए मत्तजला गई रम्मे विजए अंजणे वक्खारपव्वए रम्मए विजए उम्मत्तजला णई रमणिज्जे विजए मायंजणे वक्खारपव्वए मंगलावई विजए (सूत्र९६) 'कहि ण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे शीतामहानद्या दाक्षिणात्य शीतामुखवनं शीतानि-18 पधमध्यवतीत्यर्थः अतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्रं स्वयं भाव्यं, परं वच्छस्य विजयस्य-विदेहद्वितीयभागाधविजयस्य पूर्वत ।। इति । अथ द्वितीये महाविदेहविभागे विजयादिव्यवस्थामाह-'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः सुलभः, उचरसूत्रे निषधस्य || | वर्षधरपर्वतस्योत्तरस्यां शीताया महानद्या दक्षिणस्यां दाक्षिणात्यस्य शीतामुखवनस्य पश्चिमतः त्रिकूटस्य वक्षस्कारपर्व- ॥३५२॥ तस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो विजयः प्रज्ञप्तः, सुसीमा राजधानी विजयविभाजकब त्रिकटनामा वक्षस्कारपर्वतः १ सुवच्छो विजयः कुण्डला राजधानी ततजलाऽन्तरनदी २ महावस्सो विजया अपराजिता
दीप अनुक्रम [१७४-१७७]
Jinni
~ 707~
Page #709
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [४], ----------
---------------------- मूल [१६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९६]
गाथा:
राजधानी वैश्रमणकूटो नाम वक्षस्काराद्रिः ३, वत्सावती विजयः प्रभङ्करा राजधानी मत्तजला नदी ४, रम्यो विजयः अलावती राजधानी अञ्जनो वक्षस्कारः५,रम्यको विजयःपक्ष्मावती राजपूः उन्मत्तजला महानदी ६ रमणीयो विजयः शुभा राजपूःमातञ्जनो वक्षस्काराद्रिः ७, मङ्गलावती विजयः रत्तसञ्चया नगरी ८, सुलभसूत्रे शब्दसंस्कार एव विवरणमिति, इमाश्च राजधान्यः शीतादक्षिणदिग्भाविराजधानीत्वेन विजयानामुत्तरार्द्धमध्यमखण्डेषु ज्ञेयाः, अथ विजयादीनां व्यासादिसाम्ये दर्शितेऽपि केनचित्प्रकारेण न पार्श्वयोः परस्परं भेदो भविष्यतीत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह'एवं जह'इत्यादि, एवं-पागुक्कप्रकारेण यथैव शीताया महानद्या उत्तरं पार्श्व प्राच्यमिति शेषः तथैव दाक्षिणात्यं | पार्थमिति शेषः भणितव्यं, अब विशेषणद्वारेण संग्रहमाह, किंविशिष्टमिदं पार्श्वम्-दाक्षिणात्यशीतामुखवनमादी| यत्र तद् दाक्षिणात्यशीतामुखवनादि, अनेन यथा प्रथमविभागस्य कच्छविजय आदिरुक्तस्तथा द्वितीयविभागस्य दाक्षि|णात्यशीतामुखवनमादिरुक्कमिति, तथा इमे वक्ष्यमाणा वक्षस्कारकूटाः, कूटशब्देनात्र कूटान्येषां सन्तीत्यधादित्वादप्रत्यये कूटा:-पर्वताः, तद्यथा-त्रिकूटेत्यादि, विजयानां राजधानीनां च संग्रहाय पद्यमेकैक, इमानि च संग्रह-18 सूत्राणि सुखप्रतिपत्तिहेतुभूतानीति न पुनरुक्तिर्विभाव्या, अथ पूर्वसूत्रालब्धेऽपि वत्सविजयदिग्नियमे विचित्रत्वात् सूत्र-181 प्रवृत्ते रीत्यम्तरभाह-वच्छस्स'इत्यादि, वत्स्यस्य विजयस्य निषधो दक्षिणेन तथा तस्यैव शीता उत्तरेणेत्यादि स्पष्ट, न चैवं निषधादयो लक्ष्याः लक्षणं वत्सविजय इति वाच्यं, लक्ष्यलक्षणभावस्य कामचारात्, प्रस्तुते च प्रकरणबलात्
दीप अनुक्रम [१७४-१७७]
Smileon
~708~
Page #710
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ---------
--------- मूलं [९६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्यू-
वत्स
[९६]
गाथा:
हाः सू.९७
वत्स एव लक्ष्यत इति, सुसीमा राजधानी प्रमाणं तदेव-अयोध्यासम्बन्ध्येव, प्रमाणामिधानाय राजधान्याः पुनरूप- वक्षस्कारे द्वीपशा- न्यासेन न पुनरुक्तिदोषः, अथैषां विजयादीनां स्थानक्रमदर्शनायाह-'अच्छाण मित्यादि, सुगम, नवरं वत्सानन्तरं सौमनसदे
18 त्रिकूटः पश्चिमत इति बोध्यं, अन्यथा पूर्वतो दाक्षिणात्यशीतामुखवनस्य प्रतिपत्तिः स्यादित्युक्तो द्वितीयो विदेहवि-11 बकुरवा या दृचिः भागः । अथ क्रमायातं गजदन्तगिरि सौमनसाख्यं लक्षयितुमाह
चित्र विचि
18त्रकूटौ नि ॥३५३॥ कहि ण मन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपब्वए पण्णते?, गोणिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं
पधादिद्रमन्दरस्स पब्वयस्स दाहिणपुरथिमेणं मंगलावईविजयस्स पञ्चत्यिमेणं देवकुराए पुरथिमेणं एत्व णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे जहा मालवन्ते वक्खारपब्वए तहा णवरं सव्वर- ९८-९९ ययामए अच्छे जाव पडिरूवे, णिसहवासहरपब्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊअसयाई उव्वेहेणं सेसं वहेव सव्वं णपरं अट्ठो से गोजमा! सोमणसे गं वक्वारपव्वए बहवे देवा य देवीओ अ सोमा सुमणा सोमणसे अ इस्थ देवे' महिद्वीप जाव परिवसइ से एएणद्वेणं गोअमा! जाव णिचे । सोमणसे वक्खारपव्वए का कूडा पं०१, गो०! सत्त कूड़ा पं०, ०-सिद्धे १ सोमणसे २ विम मोजन्ये मंगलावई कूडे ३ । देवकुरु ४ विमल ५कंचण ६ बसिहकूडे ७ अ बोदव्वे 18॥३५३॥ ॥१॥ एवं सम्बे पञ्चसइआ कूडा, एएसि पुच्छा दिसिविदिसाए भाणिअव्वा जहा गन्धमायणस्स, विमलकश्चणकूडेसु गरि देवयाओ सुवच्छा वच्छमित्ता व अवसिडेसु कूडेसु सरिसणामया देवा रायहाणीओ दक्सिणेणंति । कहि ण भन्ते । महाविदेहे
दीप अनुक्रम [१७४-१७७]
Beraceaecemese
~ 709~
Page #711
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
----------- मूलं [९७-९९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९७-९९]
गाथा:
वासे देवकुराणामं कुरा पण्याचा, नोअमा! मन्चरस्स पव्वयस्स वाहिणेणे णिसहस्स बासहरपल्ययास उत्सरेण विजुप्पहस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं सोमणसवक्सारपल्क्यस्स पचत्थिमेण एवणे महाविदेहे वासे देषकुराणामं कुरा पण्णता पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा इकारस जोअणसहस्साई अट्ठ य वायाले जोजणसए दुणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खम्भेणं जहा उत्तरकुराए वत्तन्वया जान अणुसज्जमाणा पम्हगन्धा मिअगन्धा अममा सहा तेतली सणिचारीति ६ (सूत्र९७) कहिणं भन्ते! देवकुराए चित्तविचित्त कूडाणाम दुवे पव्वया प०, गो०!, णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरिछाओ चरिमंताओ अट्ठचोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए पुरथिमपञ्चत्थिमेणं उभभोकूले एव्य गं चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे पव्वया पं०, एवं जव जमगपछयाणं सच्चेव, एएसि रायहाणीओ दक्खिणेणंति (सूत्र९८)। कहि णं भन्ते! देवकुराए २ णिसढरहे णाम दहे पण्णते !, गो०! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं पचयाणं उत्तरिल्लाओ चरिमन्ताओ अहचोतीसे जोमणसए बचारि अ सत्तभाए जोमणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए बहुमजादेसभाए पत्थ णं णिसहरहे णामं दहे पणचे, एवं जव मीलयंतसत्तरकुश्चन्देरावयमालवंताणं वत्तया सच्चेच णिसहदेवकुरुसूरसुलसविष्णुप्पाणं अवा, रायहाणीओ दक्षिणेणंति । (सूत्र ९९)
'कहिण'मित्यादि, क भदस्तेस्याविप्रश्नः सुलभा, उत्तरसूत्रे निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां मन्दरस्य पर्वतस्य RI पूर्वदक्षिणस्या-माझेयकोणे मङ्गलावतीविजयस्य पश्चिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां यावत् सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः प्रशसः
दीप अनुक्रम
asacc000000000000000
BE
[१७८
-१८२]
~ 710~
Page #712
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----
--------------- मूलं [९७-९९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
[९७-९९]
गाथा:
18|| इत्यादि सर्व माल्यवद्गजदन्तानुसारेण भाव्यं, यत्तु सप्रपञ्चं प्रथमं व्याख्याते गन्धमादनेऽतिदेशयितव्ये माल्यवतोऽ- वक्षस्कार
तिदेशनं तदस्यासन्नवर्तित्वेन सूत्रकारशैलीवैचित्र्यज्ञापनार्थ, नवरं सर्वात्मना रजतमयोऽयं माल्यवांस्तु नीलमणिमयः, ISHTRA न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
अयं च निषधवर्षधरपर्वतान्ते चत्वारि योजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतिशतान्युद्वेधेन माल्यवांस्तु नीलवत्स-चित्रविचि
मीपे इति विशेषः, अर्थे च विशेषमाह-'से केण?ण'मित्यादि, प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम ! सौमनसवक्षस्कारपर्वते | ॥३५४॥ बहवो देवा देव्यश्च सौम्याः कायकुचेष्टाया अभावात् सुमनसो-मनःकालुष्याभावात् परिवसन्ति, ततः सुमनसा
मयमावास इति सौमनसः, सौमनसनामा चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति तेन तद्योगात् सौमनस इति, से एएणटेण'मित्यादि, प्राग्वत्, 'सौमनसे' इति प्रायः सूत्रं व्यकं, नवरमेषां कूटानां पृच्छेति-प्रश्नसूत्ररूपा दिशि विदिशि
९८-९९ च भणितव्या, 'कहिणं भन्ते । सोमणसे वक्खारपवए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' इत्यादिरूपा, यथा । गन्धमादनस्य-प्रथमवक्षस्कारगिरेः सप्तानां कूटानां दिग्विदिग्यतव्यता तथाऽत्रापि, अत्र चासन्नत्वेन प्रागतिदे-18 | शितोऽपि माल्यवान्नवकूटाश्रयत्वेन कूटाधिकारे उपेक्षित इति, कूटानां दिग्विदिग्वक्तव्यता यथा-मेरोः प्रत्यासन दक्षिणपूर्वस्यां दिशि सिद्धायतनकूट तस्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि द्वितीयं सौमनसकूट, तस्यापि दक्षिणपूर्वस्यां 81
दिशि तृतीयं मङ्गलावतीकूट, इमानि त्रीणि कूटानि विदिग्भावीनि मङ्गलावतीकूटस्य दक्षिणपूर्वस्या पश्चमवि19 मलकूटस्योत्तरस्यां चतुर्थ देवकुरुकूट, तस्य दक्षिणतः पश्चम विमलकूट, तथापि दक्षिणतः पर्छ. काशनकूट, अस्यापि च
दीप अनुक्रम
[१७८
-१८२]
Jinleoanilinical
~711~
Page #713
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
---------------- मूलं [९७-९९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[९७-९९]
गाथा:
18 दक्षिणसो निफ्धस्योत्तरेण सप्तमं वासिष्ठकूट, सर्वाणि रत्नमयानि परिमाणतो हिमवत्कूटतुल्यानि प्रासादादिकं सर्व 18 तद्वत्, विमलकूटे सुधत्सा देवी काञ्चनकूटे वत्समिस अवशिष्टेषु कूटेषु कूटसदृशनामानो देवाः, तेषां राजधान्यो TO मेरोदक्षिणत इति । इदानी देवकुरवः कहिणं भन्ते । इत्यादिक भदन्त ! महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः13 10 प्रज्ञप्ता, गौतम! मन्दरगिरेदेक्षिणतो निषधानेरुत्तरतो विद्युत्प्रभवक्षस्कारानरुतकोणस्थगजदन्ताकारगिरेः पूर्वतः।
सौमनसवक्षस्काराद्रेः पश्चिमायां अत्रान्तरे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, शेष प्राग्वत् , इमाश्चोत्तरकुरूणां अमल
जातका इवेति तदतिदेशमाह-यथोत्तरकुरूणां वक्तव्यता, कियडूरमित्याह-यावदनुसज्जन्त:-सन्तानेचानुवर्तमानाः ९ सन्ति, वर्तमान निर्देशः कालत्रयेऽप्येतेषां सत्ताप्रतिपादनार्थ, आह-के ते इत्याह-पद्मगन्धाः १ मृगमा २ अममाः 18|३ सहाः ४ तेजस्तलिनः ५ शनैश्चारिणः ६, एते मनुष्यजातिभेदाः, एतद्व्याख्यानं मान सुषमसुत्रमार्यनित्ये झेयं । 18| अर्थतासूत्तरकुरुतुल्यवतच्यत्वेन यमकाविच चित्रविचित्रकूटी पर्वतौ स्थानतः पृच्छति-'कहि णं भन्ते । देवकुराए | चित्तविचित्तकूडा' इत्यादि, व्यक, नवरं एवं-उत्कन्यायेन चैव यमकपर्वतयोर्वकव्यता इति शेषः सैवैतयोश्चित्रविचित्रकूटयोः एतदधिपतिचित्रविचित्रदेवयो राजधान्यौ दक्षिणेनेति, अथ इदपञ्चकस्वरूपमाह-'कहिण'मित्यादि, एवमुक्तालापकानुसारेण वैव नीलवदुत्तरकुरुचन्द्रैरावतमाल्यवतां पञ्चानां द्राणां उत्तरकुरुप वक्तव्यत्ता सैव निषध-141
दीप अनुक्रम
[१७८
-१८२]
~712~
Page #714
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१००-१०१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [१००-१०१]
गाथा:
॥ देवकुरुसूरसुलसविद्युत्भनामकानां नेतव्या, एतदीयाधिपसुराणां राजधाग्यो मेरुतो दक्षिणेनेति शेषः । अयैतास ध्वक्षस्कारे जम्बूपीठतुल्यं वृक्षपीठं कास्तीति पृच्छन्नाह
कूटशाल्मन्तिचन्द्री
लीसू.१०० या वृत्तिः कहि णं भन्ते ! देवकुराए २ कूडसामलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते !, गोअमा! मन्दरस्स पचयस्स दाहिणपञ्चस्टिमेणं णिसइस्स वासहर
विद्युत्तमः ॥३५५॥
पव्ययस्स उत्तरेणं विजुप्पभस्स बक्सारपवयस्स पुरस्थिमेणं सीओआए महाणईए पञ्चस्थिमेणं देवकुरुपपस्थिमयस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ ण देवकुराए कुराए कूडसामली पेढे णाम पेढे पं०, एवं जव जम्बूए सुदंसणाए बत्तव्यया सभेष सामलीएवि भाणिभव्या णामविहूणा गरलदेवे रायहाणी दक्षिणेणं अवसिह चेव जाव देवकुरू अ इत्थ देवे पलिओवमटिइए परिवसइ, से तेणडेणं गो! एवं युथइ देवकुरा २, अदुत्तरं च णं देवकुराए० (सूत्रं १००) कहि णं भन्ते । जम्युरीवे २ महाविदेहे वासे विलुप्पभे णामं वक्सारपध्यए पन्नते!, गो.1 णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं मन्दरस्स पबयस्स दाहिणपत्थिमेणं देवकुराए पञ्चत्धिमेणं पम्हस्स विजयस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे विजुप्पमे वक्खारपञ्चए पं०, उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवन्ते णवरि सवतवणिजमए अच्छे जाव देवा आसयन्ति । विज्जुप्पभे णं भन्ते! वक्खारपब्वए कइ
18॥३५५॥ कूडा पं० १, गो०! नव कूडा पं०, तं०-सिद्धाययणकूडे विजुप्पभकूडे देवकुरुकूडे पम्हकूडे कणगकूडे सोवत्थिअकूडे सीओआकूडे सयजलकूडे हरिकूडे । सिद्धे अ विज्जुणामे देवकुरू पम्हकणगसोवत्थी । सीओआ य सयजलहरिकूड़े चेव बोल्वे ॥१॥ एए हरिकूडवजा पञ्चसइआ णेअब्बा, एएसिं कूडाणं पुच्छा दिसिविदिसाओ अब्वाओ जहा मालबन्तस्स हरिस्सहकूढे तह चेव
दीप अनुक्रम
[१८३
-१८६]
sesese
~713~
Page #715
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१००
-१०१]
गाथा:
दीप
अनुक्रम [१८३
-१८६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ १०० १०१] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
हरिकूडे रायहाणी जह चैव दाहिणेणं चमरचंचा रायहाणी तह अब्बा, कणगसोवस्थिअकूठेसु बारिसेणबलाहयाओं दो देवयाओ अवसिसु कुडेस कूडस रिसनामया देवा रायहाणीओ दाहिनेणं, से केणद्वेणं भन्ते । एवं दुबइ-विज्जुप्पने वक्खारपन्नए २१, गोममा ! विज्जुप्पमे णं वक्खारपव्वए विज्जुमिव सव्वओ समन्ता ओभासेइ उज्जोइ पभासह विज्जुप्पमे य इत्य देवे पलिओम जब परिवसर, से एएणद्वेणं गोअमा ! एवं बुम्बइ विज्जुप्पमे २, अदुत्तरं च णं जाव णिचे (सूत्रं १०१ )
'कहि ण 'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, नवरं कूटाकारा शिखराकारा शाल्मली तस्याः पीठं, उत्तरसूत्रे मन्दरस्य | पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे निषधस्योत्तरस्यां विद्युत्प्रभवक्षस्कारस्य पूर्वतः शीतोदाया महानद्याः पश्चिमायां | देवकुरूणां शीतयोत्तरकुरूणामिव शीतोदया द्विधाकृतानां पश्चिमार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र - प्रज्ञापक निर्दिष्टदेशे | देवकुरुषु कूटशाल्मल्याः कूटशाल्मलीपीठं प्रशतम्, एवमुक्तसूत्रानुसारेण चैव जम्न्याः सुदर्शनाया वक्तव्यता सैव शासमस्या अपि भणितव्या, अत्र विशेषमाह - नामभिः प्राग्व्यावर्णितैर्द्वादशभिर्जम्बूनामभिर्विहीना, इह शाल्मलीनामानि न सन्तीत्यर्थः, तथा अनादृतस्थाने गरुडदेवोऽत्र, गरुडो - गरुडजातीयो वेणुदेवनामा मतान्तरेण गरुडबेगनामा वा देवः, राजधान्यस्य मेरुतो दक्षिणस्यां तथा सूत्रेऽनुकमपीदं बोध्यं - अस्य पीठं कूटानि च प्रासादभवनान्तरालबतीन रजतमयानि जम्बूवृक्षस्य तु स्वर्णमयानि अपि चायं शाल्मलीवृक्षो यदा तदा वा सुपर्णकुमाराधिपवेणुदेव वेणुदालिक्रीडास्थानं, तथा चाह सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृत् शाल्मलीवृक्षषकन्यतावसरे-"तत्थ वेणुदेवे वेणुदाली अ वसइ "
Fur Fraternae Cy
~714~
Page #716
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१००-१०१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१००
-१०१]
गाथा:
श्रीजम्प-13 तयोहिं सत् क्रीडास्थान"मिति, अवशिष्टं तदेव-जम्बूमकरणप्रोक्तमेव यो विशेषः स दर्शित इत्याशियत्पर्यन्यामि-18 वक्षस्कारे द्वीपक्षा-
1यह-यावद्देयकुरुनोखा देवोऽब परिक्सति, तेनार्थन देवकुरको देवकुरवः, अथापरमित्यादि प्रावधातर्थ कूटशाल्मन्तिचन्द्री-18 वक्षस्कारावसर:-'कहिण'मित्यादि, सर्व स्पष्टं, माल्यवदतिदेशेन वाच्यत्वात् नरमयं सर्वात्मना रकमवर्णमयः
ली सू.१०० या वृत्तिःअथान कटवाव्यतामाह-विज्जुप्प इत्यादि, प्रश्नसूर्य व्यकं, उत्तरसूत्रे सिद्धायतचकूटं विद्युत्वभवक्षस्कारनामसम.१०१
विघुत्तमः ॥३५६॥13 कूट देवकुरुनाना कूट पश्मविजयकूटं कचककूटं सोचस्तिककूटं शीतोदाकूट शतज्वलकूष्ट हरिनानो दक्षिण्यमेण्यधि-11
पविद्यालमारेन्द्रय कूष्ट हरिकूट, उक्कमेव संग्रहगाधयाऽऽह-सिद्धे अविण्जुनामे इत्यादि, एताति हरिकूटा (पी) नि पल-11 शतिकानि ज्ञातव्यानि, एतेषां कूटानां 'कहि णं भन्ते ! विज्जुप्पभे वक्खारपषए सिद्धाययणकाडे णार्य कडे पण्ण"। इत्येवंरूपायां पृच्छायां दिशो घिदिशश्च ज्ञेयाः, यथायोगमवस्थित्याधारतया वाच्या इत्यर्थः, तथाहि मेरोईक्षिा-181
श्चिमायां दिशि मेरोरासन्नमाद्यं सिद्धार्थतनकूट तस्य दक्षिणपश्चिमायां दिशि विद्युत्मभकूट ततोऽपि तसा दिशि वृक्षीय 181 18| देवकसकट तस्यापि तस्यामेव दिशि चतुर्थ पक्ष्मकूटं एतानि चत्वारि कुटानि विदिरभावीनि, चतुर्थस्य दक्षिण-181
पथिमायां षष्ठख कूटस्योत्तरतः पञ्चमं कनककूटं तस्य दक्षिणतः षष्ठं सौवस्तिककूटं तस्यापि दक्षिणतः मम शीतो-12 ॥३५६॥ 18||दाकूट तस्यापि दक्षिणतोऽष्टमं शतज्वलकूट, नवमस्य सविशेषत्वेन हरिस्सहातिदेशमाह-यथा मालावधस्कारस्य
हरिस्माहकूटं तथैव हरिकूट बोद्धव्यं सहस्रयोजनोचं अर्द्धवृतीयशतान्यवगाढं मूले सहनयोजमानिच त्यादि, तथा
दीप अनुक्रम [१८३
-१८६]
~715~
Page #717
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१००-१०१] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१००-१०१]
गाथा:
पृथुत्य विषयकावाक्षेपपरिहारी तथैव वाथ्यौ, नवस्मष्टमतो दक्षिणतः इदं निषधासममित्यर्थः, हरिकारकूट उत्तरतो । नीबदासवं, अस्य राजधामी यथैव दक्षिणेन चमरचञ्चा राजधानी तथैव ज्ञेया, कनकसौवस्तिककूष्टकोरिणामला-181 हके विकुमायौँ वे देवते, अवंशिष्टेषु विद्युत्मभादिषु कूटेषु कूटसदृशनामानो देवा देच्यश्च सजधान्यो दक्षिणेन, यद्य-81 प्युत्तरकुरुषक्षस्कारयोर्यथायोग सिद्धहरिस्सहकूटवर्जकूटाधिपराजधान्यो अथाक्रमं वायव्यामैशान्यों च भागनिहिता-181 स्तथा देवकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्धहरिकूटवर्जकूटाधिपराजधान्यो यथाक्रममाग्नेय्या नैर्ऋत्यां च वक्तुमुचितास्तथापि प्रस्तुतसूत्रसम्बन्धियावदादशेषु पूज्यश्रीमलयगिरिकृतक्षेत्रपिचारवृत्ती च तथादर्शनाभावात् अस्माभिरपि राजधान्यो दक्षिणेनेत्यलेखि । अथास्य नामनिमित्तं पिपृच्छिषुराह-से केण?ण' मित्यादि, उत्तरसूत्रे विद्युत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतो विद्युदिव रक्तस्वर्णमयत्वात् सर्वतः समन्तादधमासते द्रष्ट्रणां चक्षुषि प्रतिभाति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, पतदेव दृढयति-भास्वरत्वादासन्नं वस्तु द्योतयति, स्वयं च प्रभासते-शोभते, तेन विद्युदिव प्रभातीति विद्युत्मभः, विद्युत्मभश्चात्र देवः परिवसति तेन विद्युत्प्रभः, शेष प्राग्वत् ॥ अथ महाविदेहस्य दाक्षिणात्यपश्चिमनामानं तृतीय विभाग वक्तुं तद्गतविजयादीनाह--
एवं पाहे विजए अस्सपुरा रायहाणी अंकावई मयखारपब्वए १, सुपम्हे विजए सीहपुरा सबहाणी खीसेका माहगाई २, मक्षपम्हे विजए महापुरा रायहाणी पम्हादई वक्खारपब्वए ३, पम्हगाबई विजए विजयपुस रायहाणी सीअसोआ महाणई ४, संखे निजए अबराइआ
दीप अनुक्रम
[१८३
-१८६]
अथ महाविदेहस्य वर्णने तृतियम् विदेह-विभाग वर्ण्यते
~716~
Page #718
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
-------- मूलं [१०२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०२]
श्रीजम्बू-18
द्वीपशान्तिचन्द्रीया दृचिः
वक्षस्कारे पक्ष्माद्या वप्राधाव विजयाः सू.१०२
॥३५७॥
गाथा:
रायहाणी आसीविसे वक्खारपन्चए ५, कुमुदे विजए भरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई ६, णलिणे विजए असोगा रायहाणी सुहावहे वक्सारपब्बए ७, णलिणावई विजए बीयसोगा रायहाणी ८ दाहिणिल्ले सीओआमुहवणसंडे, उत्तरिलेवि एमेव भाणिअब्बे जहा सीआए, वप्पे विजए विजया रायहाणी चन्दे वक्खारपब्बए १, सुवप्पे विजए जयन्ती रायहाणी ओम्मिमालिणी णई २, महावप्पे विजए जयन्ती रायहाणी सूरे वक्खारपवए ३, वप्पावई विजए अपराइआ रायहाणी फेणमालिणी गई ४, बग्गू विजए चकपुरा रायहाणी णागे वक्खारपम्बए ५, सुवग्गू विजए खग्गपुरा रायहाणी गंभीरमा लिणी अंतरणई ६, गन्धिले विजए अवमा रायहाणी देवे वक्खारपम्बए ७, गंधिलाई विजए अओज्झा रायहाणी ८, एवं मन्दरस्स पव्वयस्स पञ्चस्थिमिलं पास भाणिअव्वं तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया, तं-पम्हे सुपम्हे महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई । संखे कुमुए णलिणे, अट्ठमे गलिणावई ॥१॥ इमाओ रायहाणीओ, तं०-आसपुरा सीहपुरा महापुरा चेव हवइ विजयपुरा । अवराइभा य अरया 'असोग तह वीअसोगा य ॥२॥ इमे वक्खारा, तंजहा-अंके पन्हे आसीविसे सुहाघहे एवं इत्व परिवाढीए दो दो विजया कूइसरिसणामया भाणिजव्या दिसा विविसाओ अ भाणिअव्वाओ, सीओभामुहवणं च भाणिअव्वं सीओभाए दाहिणिलं उत्तरितं च, सीओभाए उत्तरिले पासे इमे विजया, तंजहा-चप्पे सुवप्पे महावप्पे चउत्थे वप्पयावई ।वागू अ सुवम्गू अ, गंधिले गंधिलावई ॥१॥ रायहाणीओ इमाओ तंजहा-विजया वेजयन्ती जयन्ती अपराजिआ । चकपुरा खग्गपुरा हवइ अवज्ञा अउज्झा य ॥२॥ इमे वक्खारा तंजहा-चन्दपब्बए १ सूरपबर २ नागपञ्चए ३ देवपब्बए ४, इमामो गईओ सीओआए महाणईए दाहिणिले कूले-खीरोभा सीहसोभा अंतरवाहिणीओ गईमो ३, उम्मिमालिणी १ फेणमालिणी २ गभीरमालिणी ३ उत्तरिविजयाणन्तरा
essese
दीप अनुक्रम [१८७-१९३]
90000000000000000
॥३५७॥
JinEleinitinIGU
~717~
Page #719
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ----
-------- मूलं [१०२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०२]
उत्ति, इत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामया भाणिअव्वा, इमे दो दो कूडा अवद्विआ तंजहा-सिद्धायथणकूडे पञ्चयसरि- 18 सणामकूडे (सूत्रं १०२)
'एवं पम्हे विजए'इत्यादि, स्पष्टेऽप्यत्र लिपिप्रमादाद् धम इति तन्निरासाय शब्दसंस्कारमात्रेण लिख्यते-पक्ष्मो18 विजयः अश्वपुरी राजधानी, सूत्रे चाकारः आपत्वात् , एवमग्रेऽपि, अडावती वक्षस्कारपर्वतः सुपक्ष्मो विजयः सिंह-18 पुरा राजधानी क्षीरोदा अन्तरनदी २, महापक्ष्मो विजयः महापुरी राजपू: पक्ष्मावती वक्षस्कारः ३, पक्ष्मावती 8 विजयः विजयपुरी राजधानी शीतस्रोता महानदी ४, शंखो विजयः अपराजिता नगरी आशीविषो वक्षस्कारः ५, कुमुदो विजयः अरजपूः अन्तर्वाहिनी नदी ६ नलिनो विजयः अशोका पू: सुखावहो वक्षस्कारः, नलिनावती विजयः | सलिलावतीति पर्यायः, वीतशोका राजधानी ८ दाक्षिणात्यं शीतोदामुखवनखण्डमिति । अथ चतुर्थविभागावसरः
'उत्तरिले' इत्यादि, एवमेवोकन्यायेनैव दाक्षिणात्यशीतामुखवनानुसारेणोत्तरदिग्भाविशीतोदामुखवनखण्डे भणितव्यं, || यथा शीतायाः औत्तराहमुखवनं व्याख्यातं तथा व्याख्येयमित्यर्थः, चतुर्थविभागविजयादयस्त्विमे-यनो विजयो ।
विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः १, सुवप्रो विजयो वैजयन्ती राजधानी और्मिमालिनी नदी २, महा|वो विजयो जयन्ती राजधानी सूरो वक्षस्कारपर्वतः ३, वप्रावती विजयोऽपराजिता राजधानी फेनमालिनी नदी 18| ४, वल्गुर्विजयश्चक्रपुरा राजधानी नागो वक्षस्कारः ५, सुवल्गुर्विजयः खड्गपुरी राजधानी गम्भीरमालिनी अन्तर
5000000000osasasaras
गाथा:
दीप अनुक्रम [१८७-१९३]
8000000000000
Jintlemaining
~718~
Page #720
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[१८७
-१९३]
वक्षस्कार [४]
मूलं [ १०२ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥३५८॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
Jan Eber
नदी, गम्भीरं जलं मलते- धारयतीति गम्भीरमालिनी, एवं और्मिमालिनी फेनमालिनीति ६, गन्धिलो विजयोऽवध्या | राजधानी देवो वक्षस्कारः ७, गन्धियापत्ती बिजयोऽयोध्या राजधानी ८ एवं उत्ताभिलापेन शीतोदाकृतविभागद्वयगतबिजयादिनिरूपणेनेत्यर्थः मन्दरस्य पाश्चात्यं पार्श्व भणितम्यमिति, अथान संग्रहमाह - 'तत्य तान सीओमा ' इत्यादि, विवृतप्रायं, नवरं तत्र संग्रहे विवक्षितव्ये तावदिति भाषाक्रमे अङ्केति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् अङ्कावती, 'एवं पम्देति' पक्ष्मावतीति, अथ द्वात्रिंशतोऽपि विजयानां नामभावयनोपायमाह एवं इत्य परिवाडी' इत्यादि, एवम् उक्तरीत्या अत्र परिपाव्यां विभागचतुष्टयगतविजयानुपूर्व्या द्वौ विजयी कूटसदृझामको भणितच्यो, | स्वस्वविजयविभेदकवक्षस्कार गिरितृतीय चतुर्थकूटसदृशामकावित्यर्थः तथाहि-- चित्रकूटवक्षस्कारे कूटचतुष्टयमध्ये | आयं सिद्धायतनकूटं ततः स्ववक्षस्कारनामकं ततस्तृतीयं कच्छनामकं चतुर्थ सुकच्छनामकं तेन कच्छसुकच्छविजयाबित्यर्थः एवं सर्वत्र भावनीयमिति, दिशः प्राप्याथाः विपरीतदिशो विदिशश्च भणितव्याः, यथा प्राप्याः श्रकीची उदीच्या चापाची, एवं दिविदिग्नियमः कार्यः तथाहि--कच्छो विजयः शीताया महानद्याः उत्तरस्यां नीळवतो वर्ष|धरस्य दक्षिणस्यां चित्रकूटसर वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमाचां माल्यवतो राजदन्ताकारपक्षस्कारपर्वतथा पूर्वत्वामिति, एवं कच्छादिषु विजयेष्वपि स्वस्वदिश्यवस्त्वनुसारेण तत्तद्दिगूनियमः कार्यः, एवं शीतोदामुखवनं च भणितव्यं, तद्विभागतो दर्शयति-शीतोदायाः दाक्षिणालं चीत्तराहं चेति, अथ चतुर्थविभागीयरिशंकर-परियोजाए'
Fur Ele&ae Cy
Reset
~719~
४ वक्षस्कारे
पक्ष्माषा वप्राद्याथ विजया:
सू. १०२
।। ३५८।।
Page #721
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
-------- मूलं [१०२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०२]
गाथा:
इत्यादि, सम्प्रत्यनुक्तपूर्व पाश्चात्यविभागयगतान्तरनदीसंग्रहमाह--'सीओआइत्यादि, मालवल, नवरं उत्सरिलवि| जयाण' इति औत्तराहविजयानां, "अंतरान्ति अन्तरनद्यः 'त लुग्वा' (श्रीसिद्ध० अ० ३ पा०२ सू.१०८) | इत्यनेन उत्तरपदलोपः, यत्तु पूर्वविभागे विजयादिसंग्रहः प्राच्यविभागद्वयेऽन्तरनदीसंग्रहश्च नोकस्तत्र सूत्रकाराणां
प्रवृत्तिविचित्र्यं हेतुर्व्यवच्छिन्नसूत्रता वेति । अत्र सरलवक्षस्कारकूटेषु नामव्यवस्थोपायमाह-'इत्य परिवाडीए 18| इत्यादि, अत्र परिपाव्या अर्थाद्वक्षस्कारानुपूा द्वौ द्वौ कटौ विजयसदृशनामको भणिसव्यौ, भय भावः-प्रतिवमस्कार।
चत्वारि २ कूटानि, तत्रायद्वयं नियस, तच्च सूचकार एव व्यक्तीकरिष्यतीति, अपरं च यमनियतं तत्र यो यो पक्षस्का-18
रगिरियौँ यो विजयौ विभजति तन्मध्ये यो यः पाश्चात्यो विजयस्तशामक तस्मिन् वक्षस्कारे तृतीय कूट, यो यचाप्रिमो || 18| विजयस्तन्नामकं चतुर्थ कूट, द्वौ द्वौ चावस्थितौ कूटौ, तद्यथा-एक सिद्धायतनकूटं द्वितीयं पर्वतसदृशनामकं कूट, 18| वक्षस्कारसदृशनामकमित्यर्थः, कस्मिन्नपि वक्षस्कार इमे. नाझी न ब्यभिचरत इत्यवस्थिती, बनु सिद्धायतनकूटमव-18 18| स्थितमिति युक्तं, पर्वतसदृग्नामकं तु भिन्न वक्षस्कारनामानुयायित्वेन कथमवस्थितमिति, उच्यते, पतसहग्नाम-13
| कत्वेन धर्मेणास्यावस्थित्तस्वं, एतादृशधर्मस्य सर्वेष्वपि वक्षस्कारद्वितीयकूटेषु अव्यभिचारात्, न च तर्हि अपरकूट-18 18यस्य विजयसमनामकरवेन धर्मेणावस्थितत्वं भक्तु, उत्कधर्मस्य सर्वत्राव्यभिचारात इति वाच्यम्, विजयसमनामकस्य |
दीप अनुक्रम [१८७-१९३]
~720~
Page #722
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०२]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[tcb
-१९३]
वक्षस्कार [४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृचिः
।।३५९॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
अथ मेरुपर्वत-वर्णनं आरभ्यते
-
मूलं [१०२] + गाथा:
....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
धर्मस्य द्वयोः कूटयोः साधारण्येनान्यतरानिश्चयेन झटिति नामव्यवहारानुपपत्तेरिति । सम्प्रति महाविदेहवर्षस्य पूर्वापरविभागकारिणं मेरुं पृच्छन्नाह-
कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ महाविदेहे वासे मन्दरे णामं पचए पण्णत्ते ?, गोअमा ! उत्तरकुराए दक्खिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुत्रविदेहस्स वासस्स पञ्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरत्थिमेणं जम्बुद्दीवस्स बहुमज्सदसभाए एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरेणानं पवर पण्णत्ते, णवणउतिजोअणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेनं एवं जोअणसहस्सं उब्वेहेणं मूले दसजोअणसहस्साई णवई च जोशणाई दस य एगारसभाए जो अणस्स विक्खम्भेणं, घरणिअले इस जोअणसहस्साई विक्सम्भेणं तयणन्तरं च णं मायाए २ परिहायमाणे रायमाणे उवरितले एवं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं मूले एकतीसं जोभणसहस्साइं णव य दसुत्तरे जोअणसए तिष्णि अ एगारसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं धरणिअले एकतीसं जोअणसहस्साई छच्च तेवीसे जोअणसए परिक्खेवेणं उपरितले तिष्णि जोअणसहस्सा एगं च बाब जोअणसयं किंचिविसेसाहिअं परिक्खेवेणं मूले विच्छिष्णे मध्ये संखित्ते उवरिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबरयणामए अच्छे सहेति । से णं एगाए पडमबरबेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते वणओति, मन्दरे णं भन्ते ! पञ्चए कइ वणा पं० १, गो० ! चत्तारि वणा पं० तं०- भद्दसालवणे १ णन्दणवणे २ सोमणसवणे ३ पंडगवणे ४, कहि णं भन्ते ! मन्दरे पब्वए भद्दसालवणे णामं वणे पं० १, गोजमा ! धरणिअले एत्थ णं मन्दरे पब्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते पाईणपडीवायए उड़ीणदाहिणविच्छिण्णे सोमणस विज्जुप्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्खारपव्वएहिं सीओसीओओहि अ महाईहिं अट्टभागपविभत्ते मन्दरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमपचत्थिमेणं बावीस बावीसं जोअणसहस्साई आयामेणं उत्तरदाहिणे
Fale & Pune Cy
~ 721 ~
कारे मेरुपर्वतः
ख. १०३
॥ ३५९ ॥
Page #723
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
-------------------- मूल [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
अदाइलाई अदाइलाई जोमणसयाई विक्सम्मेणंति, सेणं एगाए पउमवरवेश्याए एगेण व वणसंडेण सय्यभो समन्ता संपरिक्खित्ते दुव्हवि वण्णओ भाणिअव्वो किण्हे किण्होभासे जाव देवा आसयन्ति सयन्ति, मन्दरस्स णं पव्वयस्स पुरस्थिमेणं भहसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णते पण्णासं जोअणाई आयामेणं पणवीसं जोअषाई विक्ख. म्भेणं छत्तीसं जोमणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखम्भसयसणिविहे वण्णओ, तस्स णं सिद्धाययणस्स ति दिसि तओ दारा पं०, तेथे दारा अट्ठ जोमणाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि जोअणाई विक्खम्भेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेआ बरकणगथूमिआगा जाव वणमालामो भूमिभागो अभाणिअबो, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगा मणिपेढिया पण्णता अट्ठजोषणाई आयामविक्ख. म्भेणं चत्तारि जोषणाई बाहल्लेणं सब्बरयणामई अच्छा, तीसे णं मणिपेडिआए उवरि देवच्छन्दए अट्टजोअणाई आयामविक्सम्भेणं साइरेगाई अट्ठजोमणाई उद्धं उपत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ देवच्छन्दगस्स जाव धूवकछुआर्ण इति । मन्दरस्सणं पब्वयस्स दाहिणेणं भहसालवणं पण्णास एवं चउदिसिपि मन्दरस्स भदसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणिवा, मन्दरस्स गं पवयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भहसालवणं पण्णास जोअणाई ओगाहित्ता एत्य णं चचारि णन्दापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, सं०-पउमा १ पउमप्पभा २ येव, कुमुदा ३ कुमुवप्पमा ४, ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोषणाई आयामेणं पणवीसं जोषणाई विक्खम्भेणं दसजोषणाई उज्वेदेणं वण्णओ वेइआवणसंडाणं माणिअब्बो, चउद्दिसि तोरणा जाव तासि णं पुक्खरिणीर्ण बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो पासायवसिए पण्णत्ते पञ्चजोमणसयाई उद्धं उपत्तेणं अद्धाइजाई जोअणसयाई विक्खंभेणं,अग्भुग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासायबार्डिसओ भाणिअब्बो, मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीभो उप्पल
20000000000000000000rseas
गाथा:
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~722~
Page #724
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---------------- मूल [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
वक्षस्कारे | मेरुपर्वतः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३६०||
गाथा:
गुम्माणलिणा उप्पळा उप्पलुजला हे वेध पमाणं मओ पासायवासिओ सहस्स सपरिवारो तेषां पेय पियाणे साक्षिणपचारिलो णचि पुक्सारिणीओ निंगा मिगनिभा पेच, अंजणा अंगणाप्पभा । पासायवर्शिसभो सकस्स सीदासणं सपरिवार, उत्तरपुरत्यिमेणं पुषसरिणीमो-सिरिकता १ सिरिचन्दा २ सिरिमहिमा ३ चेव सिरिणिल्या ४ । 'पासायवडिंसओ ईसाणम्स सीधामणं सपरिमारंति । मन्यरेणं भन्ते! पव्यए महसालवणे कह दिसाहस्थिकूण पं०१, गो०! अट दिसाहत्यिकूडा पण्णता, संजहा-पउमुत्तरे १णीलवन्ते २ सुत्थी ३ अंजणागिरी ४ । कुमु अ ६ पळासे अ६, डिंसे ७ रोभणागिरी ८ ॥१॥ कहिणे भन्ते ! मन्दरे पधए भदसालवणे परमुत्तरे णाम दिसाहस्थिकूडे पं०, गोअमा ! मन्दरस्स पल्क्यस्स उत्तरपुरस्थिमेणं पुरथिमिलाए सीआए उत्तरेणं एत्थ णं पत्रमुत्तरेणाम दिसाइस्थिडे पण्याचे पञ्चजोअपासयाई उद्धं उच्चतेणं पश्चगाउमसयाई उवेहेणं एवं विषखम्भपरिक्सेवो भापिाअध्वो चुलहिमवन्तसरिसो, पासायाण स तं व पउमुखो देवो रायहाणी उपारपुषत्यिमेणं । एवं णीलवन्तदिसाहस्थिडे मन्दरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं पुरथिमिलाए सीमाए इक्षिणेणं एअस्सवि मीलवन्तो देवो रावहाणी दाहिणपुरस्थियेणं २, एवं सुहत्यिदिसाइथिकूडे अंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरथिमेणं एअस्मावि मुहत्थी देको रामापी दाहिणपुरस्थिमेणं ३, एवं चेव अंजणागिरिदिसाहत्थिडे मन्दरस्स दाहिणपञ्चत्यिमेणं इक्विाणिल्लाए भोमार पचत्यियेणं, एमस्मवि अंजणागिरी देवो रायहाणी दाहिणश्यस्थिमेणं ४, एवं कुमुदे विदिसाइवि मन्दस्स्स दाहिणपश्चारियोण 'पत्वादिमिलाए सीमोभाए एक्सिणेणं एअस्सचि कुमुधो देवो रायहायी दाहिणपञ्चस्थिमेयं ५, पवं पलाने विविखाइलिको मन्द सत्तापक स्थिमेणं पञ्चयिमिकाए सीओचाए उत्तरेणं एभस्मावि मलामो रेको दायहमी वरपकत्यिो पर्व को विस्मिाइदियो
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
॥३६॥
~723~
Page #725
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
-------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
गाथा:
मन्दरस्स उत्तरपञ्चत्थिमेणं उत्सरिल्लाए. सीआए महाणईए पञ्चस्थिमेणं एअस्सवि वडेंसो देषो रायहाणी उत्तरपञ्चत्यिमेणं, एवं रोअणागिरी दिसाहथिकूडे मदरस्स उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए पुरथिमेणं एयस्सवि रोअणागिरी देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं (सूत्रं १०३) 'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम! उत्तरकुरूणां दक्षिणस्यां देवकुरूणां उत्तरस्यां पूर्वविदेहस्य वर्षस्व पश्चिमायां पश्चिममहाविदेहस्य वर्षस्य पूर्वस्त्रां जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, नवनवतियोजनसहस्राणि ऊर्बोच्चत्वेन एक योजनसहनमुद्वेधेन सर्वाग्रेण पूर्ण लक्षमित्यर्थः, वक्ष्यमाणचूलासत्कानि चत्वारिंशद्योजनानि त्वधिकानि, उच्छ्यचतुर्थांशो भूम्यवगाहस्तु मेरुवर्जपर्वतेषु ज्ञेय इति, मूले-कन्दे । दशयोजनसहस्राणि नवतिं च योजनानि दश चैकादशभागान् योजनस्य विष्कम्भेन १०.९० अंशाः १०, एकादशरूपेण छेदेन क्रमादपचीयमानविष्कम्भोऽसौ धरणीतले समे भागे दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन, मूलतो योजनसहस्रमूर्द्धगमने मूलगतानि नवतियोजनानि दश च एकादशभागा योजनस्य तुत्रुटुरित्यर्थः, तदनन्तरं मात्रया २ ऊर्ध्व
गमने-उच्चत्वस्य योजनैकादशांशवृद्ध्या विष्कम्भस्य योजनैकादशांशहानिस्तथोच्चत्वैकादशयोजनवृद्ध्या विष्कम्भक-10 ॥ योजनहानिः एवमेकादशयोजनशतवृया योजनशतहानिः तथा एकादशयोजनसहस्रवृद्ध्या योजनसहस्रहानिरित्येवं-161
रूपेण परिमाणेन परिहीयमाणः२ उपरितले-शिरोभागे यत्र चूलिकाया उद्भवस्तत्र एक योजनसहस्रं विष्कम्भेन, समभू-18
Secentestatoesesercen
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~724 ~
Page #726
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
..................-------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू-1
सूत्रांक [१०३]
॥३६॥
गाथा:
तलतो नवनवतियोजनसहनाण्यूर्ध्वगमने पृथुत्वगत्तनवयोजनसहस्त्राणि तुत्रुटुरित्यर्थः, अथास्य परिधिः-मूले एक-1 वक्षस्कारे द्वीपशा-त्रिंशद्योजनसहनाणि नव च शतानि दशोत्तराणि त्रीश्चैकादशभामान योजनस्य परिक्षेपेण, धरणीतले एकत्रि-18 मेरुपर्वतः न्तिचन्द्री- शयोजनसहस्राणि षट् च त्रयोविंशत्यधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण उपरितले त्रीणि योजनसहस्राणि एक 18 सू. १०३ . या वृत्तिः च द्वापश्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण, अथाद्यपरिधिगणितं मूले विष्कम्भस्य सच्छेदत्वाद्विष-181
ममिति दयते-मूले च विष्कम्भो दशयोजनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्य १००९०: तत्र 18 योजनराशावैकादशभागकरणार्थमेकादशभिर्गुणिते उपरितनदशभागक्षेपे च जाता एकादशभागा लक्षमेकादश च8 सहस्राणि १११००० ततोऽस्य राशेवर्गकरणे जातं एकको द्विकस्त्रिको द्विक: एककः षट् च शून्यानि |१२३२१००००.. ततोऽस्य दशभिर्गुणने जातानि सप्त शून्यानि १२३२१००००००० अथास्य वर्गमूलानयने ।
लब्धखिकः पञ्चक एककः शुन्यमेकको द्विकः ३५१०१२ अधास्य योजनकरणार्थ ११ भागः लब्धं योजन |३१९१० अंश २, शेष ५७५८५६७०२०२४, अर्द्धाभ्यधिकत्वाद्रूपे दत्ते अंशाः ३, समभूतलगतपरिधावपि ३१५२२|२|| योजनानि अवशिष्टांशानामर्द्धाभ्यधिकत्याद्रूपे दत्ते त्रयोविंशतिर्योजनानि, शिखरपरिधी चार्द्धतो न्यूनत्वादशानां सूत्रे
Ma ॥३६१॥ | किंचिदधिकत्वं न्यवेदि, अत एच मूले विस्तीणों मध्ये संक्षिप्तः उपरि तनुकः अर्व मेखलाद्वयाविवक्षया उदस्तगोपुच्छा-11 | कारेण संस्थितः सर्वात्मना रलमयः, इदं च प्रायोषचनं, अन्यथा काण्डत्रयविवेचने आद्यकाण्डस्य पृथ्ब्युपलशर्करा
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
F
DILIHATE
~725~
Page #727
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
--------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
गाथा:
वज्रमयत्वं तृतीयकाण्डे जाम्बूनदमयत्वं च भणिष्यमाणं विरुणद्धि, शेष प्राग्वत् । अथात्र पद्मवरचेदिकाद्याह| 'से णं एगाए'इत्यादि, व्यक्तं, अत्र चारोहेऽवरोहे च इष्टस्थाने विस्तारादिकरणानि सूत्रेऽनुक्तान्यपि उत्तरग्रन्ये बहूपयोगानीति दयन्ते-तत्र कन्दादारोहे करणमिदं-ऊर्ध्वगतस्य यत्र योजनादौ विस्तारजिज्ञासा तस्मिन् योजनादिके | एकादशभिर्भक्त यल्लब्धं तस्मिन् कन्दविस्तारादपनीते यदवशिष्टं स तत्र प्रदेशे मेरुव्यासः, तथाहि-कन्दायोजनल-12] क्षमूर्ध्व गतस्त तो योजनलक्षं प्रियते तस्मिन्नेकादशभिर्भक्के लब्धानि नबतिशतानि नवत्यधिकानि योजनानां दश चैकादशभागा योजनस्य अस्मिन् कन्दव्यासात् दशयोजनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्येत्येवंपरिमाणादपनीयते शेष योजनसहस्र, एतावानत्र प्रदेशे मेरूपरितले व्यासः, अथवा योजनसहस्रमारूढस्ततो योजन-15 सहने एकादशभिर्भक्के लब्धानि नवतियोजनानि दश चैकादशभागा योजनस्य अस्मिन् पूर्वोक्तात् कन्दव्यासाच्छोधिते | शेष दशयोजनसहस्राणि एवमन्यत्रापि भाव्यं । अथ शिखरादवरोहे करणं, यथा मेरुशिखरादवपत्य यत्र योजनादौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन् योजनादिके एकादशभिर्भक्के बल्लब्धं तत्सहितं तत्र प्रदेसे मेरुच्यासमानं, यथा शिखरा-3 योजनलक्षमवतीर्णस्ततो लक्षे एकादशभिर्भक्के लब्धानि नपति शतानि नवत्यधिकानि दझ चैकादशभागाः अस्मिन् । योजनसहस्रप्रक्षेपे जातानि १०.९० इयान कन्दे व्यासः, अथवा शिखरानवनवतियोजनसहस्राण्यवतीर्णस्तसस्तेपामेकादशभिर्भागे हृते लब्धानि नवसहस्राणि तानि सहस्रसहितानि जातानि दशसहस्राणि एतावान् धरणीतले
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~726~
Page #728
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०३]
गाथा:
श्रीजम्बू
विस्तारः, एवमन्यत्रापि, अथ मेरौ मूलादारोहे मौलितोऽवरोहे च विष्कम्भविषयकहानिवृद्धिज्ञानार्थ करणमिद-उपरि-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- 8 तनाधस्तनयोविस्तारयोर्विश्लेषे कृते तयोर्मध्यवर्तिना पर्वतोच्छ्रयेण भक्ते यल्लब्धं सा हानिवृश्चि, तथाहि-उपरितने | न्तिचन्द्रीविस्तारे योजनसहनं अधस्तनाद्योजन १००९०% इत्येवरूपाच्छोधिते शेष ९०९०% सवर्णनार्थ योजनराशिमेका-18
सू.१०३ या वृत्ति:
दशगुणीकृत्य अधस्तना दश भागाः प्रक्षेप्याः जातं." अस्य च भजनार्थ मध्यवर्तिनि पर्वतोच्छ्रये १००००० ॥३६२॥18॥ इत्येवंरूपे एकादशगुणे कृते जातं शून्य ५ अत्र छेदराशेरेकादशगुणत्वादागाप्राप्तौ उभयोलक्षणापवर्ते कृते जातं 18
+ इयती प्रतियोजनं हानिर्वृद्धिश्च, तथा इदमेव लब्धमद्धीकार्य एककस्या सम्भवात् छेद एवं द्विगुणीक्रियते 18 जातं इयं मेरोरेकस्मिन् पार्षे वृद्धिोनिश्चेति । अथोच्चत्वपरिज्ञानाय करणमिदं-मेरोयंत्र भूतलादौ प्रदेशे यो यावान् विस्तारः तस्मिन् मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं तदेकादशभिगुणितं सत् यावद् भवति तावत्प्रमाण उत्सेधः, तथाहि-शिखरव्यासो योजनसहनं तस्मिन् कन्दव्यासात् पूर्वोक्ताच्छोधिते शेष नबतिसहस्राणि नवत्यधिकानि दश || चिकादशभागा योजनस्वेत्येतदात्मकं योजनराशिरेकादशभिर्गुण्यते जातं ९९९९० ये च दशैकादशभागास्तेऽपि
॥३६॥ एकादशभिर्गुण्यन्ते जातं ११० तस्यैकादशभिर्भागे हते लब्धानि दश योजनानि पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातं योजनानां लक्ष, एतावदधोविस्तारोपरितनविस्तारयोरन्तरे उच्चत्वं, एवं मध्यभागादावप्युञ्चत्वपरिमाणं भावनीयमिति । नन्दिा कस्मा-11
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~727~
Page #729
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
-------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
गाथा:
देकादशलक्षणः छेदः कस्माद्वा तेन शेष गुण्यते?, उच्यते, एकादशानां योजनानामन्ते एक योजनं एकादशानां योजनशतानामन्ते एकं योजनशतं एकादशानां योजनसहस्राणामन्ते एक योजनसहस्रं त्रुयति तत एकादशलक्षणः छेदः, तेनोचवपरिज्ञानाय विस्तारशेष गुण्यते, अन्यथा योजनानां दशसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा
योजनस्वेत्येवं विस्तारात् कन्दादारोहणे धरणीतले नवतिर्योजनानि दश चैकादशभागाः कथं त्रुध्येयुरिति, ननु मेलकालाइये प्रत्येक परितः पश्चयोजनशतविस्तारयोर्नन्दनसौमनसवनयोः सद्भावात् प्रत्येक योजनसहस्रस्य युगपत् अटिः।
ततः किमित्येकादशभागपरिहाणिः!, उच्यते, कर्णगत्या समाधेयमिति, का च कर्णगतिरिति चेत्, उच्यते, कन्दा-18 दारभ्य शिखर यावदेकान्तऋजुरूपायां दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्वापि कियदाकाशं तत्सर्व कर्णगत्या मेरो-18 रामाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादशभागपरिहाणि परिवर्णयन्ति, अयं चार्थः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैरपि विशेषणवत्यां लवणोदधिधनगणितनिरूपणावसरे दृष्टान्तद्वारेण ज्ञापित एवेति ॥ सम्प्रत्येतद्गत-18 वनखण्डवक्तव्यतामाह-'मन्दरे ण मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यकं, उत्तरसूत्रे चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्राः-18 सद्भमिजातत्वेत सरला शाला: साला वा-तरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं भद्रसालं वा, अथवा भद्राः शाला-वृक्षा
यत्र तदू भद्रशालं नन्दयति--आनन्दयति देवादीनिति नन्दनं सुमनसा-देवानामिदं सौमनसं देवोपभोग्यभूमिकास18नादिमत्त्वात् पण्डते-च्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सर्ववनेन्वतिशायितामिति णकपत्यये पण्डके, इमानि चत्वा-18
So20s000000000000000000
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~ 728~
Page #730
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
सूत्रांक [१०३]
+
गाथा:
अनुक्रम [१९४
-१९६]
वक्षस्कार [४],
मूलं [ १०३ ] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपक्षान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥३६३॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
Jan Em
पि स्वस्थाने मेरुं परिक्षिप्य स्थितानि, आद्यवनं स्थानतः पृच्छति - 'कहि ब'मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रे गौतम ! धरणीतलेsa मेरी भनशालवनं प्रज्ञप्तं, प्राचीनेत्यादि प्राग्वत्, सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवद्भिर्वशस्कारपर्वतैः शीताशीतोदाभ्यां च महानदीभ्यामष्टभागप्रविभक्तं- अष्टधाकृतं, तद्यथा-एको भागो मेरोः पूर्वतः १ द्वितीयोऽपरतः २ तृतीयो विद्युत्प्रभसौमनसमध्ये दक्षिणतः ३ चतुर्थो गन्धमादनमास्यवन्मध्ये उत्तरतः ४ तथा शीतोदया उत्तरतो गच्छन्त्या दक्षिणखण्डं पूर्वपश्चिमविभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः पञ्चमो भागः ५ तथा पश्चिमतो गच्छन्त्या पश्चिमखण्डं दक्षिणोत्तरविभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः षष्ठो भागः ६ तथा सीतया महानद्या दक्षिणाभिमुखं गच्छन्त्या उत्तरखण्डं पूर्वपश्चिमभागेन द्विधा कृतं ततो लब्धः सप्तमो भागः ७ तथा पूर्वतो गच्छन्त्या पूर्वखण्डं दक्षिणोत्तरविभागेन द्विधा कृतं ततो ब्धोऽष्टमो भागः ८, स्थापना यथा । मन्दरस्य पूर्वतः पश्चिमतश्च द्वाविंशतिं २ योजनसहस्राण्यायामेन, कथमिति चेत्, उच्यते, कुरुजीवा त्रिपञ्चाशद्द्योजन सहस्राणि ५३०००, एकैकस्यां च वक्षस्कारगिरेर्मूले पृधुत्वं पचयोजन- प. शतानि ततो द्वयोः शैलयोर्मूले पृथुत्वपरिमाणं योजनसहस्रं तस्मिन् पूर्वराशौ प्रक्षिसे जातानि चतुःपञ्चाशद्] योजनसहस्राणि ५४०००, तस्मान्मेरुव्यासे शोधिते शेषं चतुश्चत्वारिंशद्योजन -
Fur Fate & Pune Cy
~729~
eseses
४ वक्षस्कारे मेरुपर्वतः यू. १०३
॥३६३॥
Page #731
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
--------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
गाथा:
सहखाणि ४४००० पाम द्वाविंशतियोजनसहस्राणि २२००० पूर्वतः पश्चिमतश्च भवन्ति, अथवेदमुपपत्त्यन्तर-शीताव-11 नमुखं २९२२ योजनानि अन्तरनदीपटूं ७५० योजनानि वक्षस्काराष्टकं ४००० योजनानि विजयषोडशकपृथुत्वं ३५४०६१ योजनानि शीतोदावनमुखं २९२२ योजनानि एतेषां विस्तारसर्वाग्रमीलने षट्चत्वारिंश योजनसहस्राणि एतच्च लक्षप्रमाण-18
महाविदेहजीवायाः शोध्यते शेष चतुःपञ्चाशवयोजनसहस्राणि एतावद्भद्रशालवनक्षेत्रं तच्च मेरुसहितमिति धरणीतलस18| कदशयोजनसहस्रशोधने शेष चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तस्यार्द्ध एकैकपाधं द्वाविंशतिर्योजनसहस्राणीति, उत्त
रतो दक्षिणतश्चार्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन, दक्षिणत उत्तरतश्च तन्नद्रशालवनमर्द्धतृतीययोजनशतानि यावद् देवकुरुत्तरकुरुषु प्रविष्टमित्यर्थः, अत एव देवकुरुमेरूत्तरकुरुव्यासरुद्धे विदेहव्यासे क भद्रशालवनाकाश इति प्रश्नो दूरापास्त इति । अथैतवर्णनातिदेशायाह-सेणं एगाए'इत्यादि, प्राग्वत् , अथात्र सिद्धायतनादिवक्तव्यमाह-- 'मन्दरस्स'इत्यादि, मेरोः पूर्वतः पञ्चाशयोजनानि भद्रशालवनमवगाह्य-अतिक्रम्यात्रान्तरे महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं, पञ्चाशद्योजनाभ्यायामेन पञ्चविंशतियोजनानि विष्कम्भेन पत्रिंशद्योजनानि ऊर्वोच्चत्वेन अनेकस्तम्मशतसन्निविष्टे-18 त्यादिकः सूत्रतोऽर्थतश्च वर्णकः प्रागुतो प्रायः । अथात्र द्वारादिवर्णकसूत्राण्याह-'तस्स णमित्यादि, प्राग्वत्,8 'तस्स'त्ति, 'तीसे 'मित्यादि, सूत्रद्वयं व्यक्त। अथोकरीतिमवशिष्टसिद्धायतनेषु दर्शयति-'मन्दरस्स'इत्यादि, मन्दरस्य 8 पर्वतस्य दक्षिणतो भद्रशालवनं पञ्चाशयोजनान्यवगाह्येत्याद्यालापको ग्राह्यः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि मन्दरस्य भद्रशालवने 8
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~ 730~
Page #732
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
--------------- मूल [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
द्वीपशा न्तिचन्द्री
गाथा:
श्रीजम्यू-18 चत्वारि सिद्धायतनानि भणितव्यानि, यच्च त्रिवतिदेष्टव्येषु चत्वार्यतिदिष्टानि तत्र जम्बूद्वीपद्वारवर्णके एवं चत्तारिविवक्षस्कार दारा भाणिअबा' इत्येतत्सूत्रव्याख्यानमनुस्मरणीयम् । अथैतद्गतपुष्करिण्यो वक्तव्या:--'मन्दरस्स'इत्यादि, सुगम,
| मेरुपर्वतः अधास प्रमाणाचाह-'ताओण'मित्यादि, मेरोरीशान्यां दिशि भद्रशालवनं पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्यात्रान्तरे चत-ISM या वृतिः
स्रो नन्दा-नन्दाभिधानाः शाश्वताः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः, आसां च पादक्षिण्येन नामानि पद्मा पद्मप्रभा कुमुदा कुमु-18 ॥३६४॥ दप्रभा चैवः समुच्चये ताश्च पुष्करिण्यः पञ्चाशयोजनान्यायामेन पंचविंशति योजनानि विष्कम्भेन दशयोजनान्यु
देधेन-उण्डत्वेन वर्णको वेदिकावनखण्डाना भणितव्यः प्राग्वत्, यावचतुर्दिशि तोरणानि । अर्थतासां मध्ये यदस्ति ।। तदाह-'तासि ण'मित्यादि, तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः ईशानदेवेन्द्रस्य देवराज्ञः प्रासा| दावतंसकः प्रज्ञप्तः, कोऽर्थः ?-तं प्रासादं चतस्रः पुष्करिण्यः परिक्षिप्य स्थिता इति, पञ्चयोजनशतान्यूर्बोच्चत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन समचतुरस्रत्वादायामेनापि, 'अभुग्गयमूसिइत्यादि प्रासादानां वर्णन माग्वत्, एवमुक्ताभिलापानुसारेण सपरिवारः-ईशानेन्द्रयोग्यशयनीयसिंहासनादिपरिवारयुकः प्रासादावतंसको भणि-18 तव्यः, अथ प्रादक्षिण्येन शेषविदिग्गतपुष्करिण्यादिप्ररूपणायाह-'मन्दरस्स'इत्यादि, मेरोः एवमितिपदमुक्ताति-18॥३६४॥ देशार्थं तेन 'भहसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता' इत्यादि ग्राह्य, नवरं दक्षिणपूर्वस्यामिति-आग्नेय्यां दिशी-18 | त्यर्थः, ताथोत्पलगुष्मादयः पूर्वक्रमेण तदेव प्रमाण-ईशानविदिग्गतप्रासादप्रमाणेनेत्यर्थः, दक्षिणपश्चिमायामपि-नैर्ऋत्यां18
Socesta esceneseeloECK
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
Eleonsidol
~ 731~
Page #733
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
--------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
गाथा:
विदिशि पुष्करिण्यो भृङ्गाद्याः पादक्षिण्येन ज्ञेयाः, प्रासादावतंसकः शक्रस्य सिंहासनं सपरिवारं, उत्तरपश्चिमायावायव्यां विदिशि पुष्करिण्यः श्रीकान्ताद्याः प्रासादावतंसकः ईशानस्य सिंहासनं सपरिवारं, अत्र उत्तरदिक्सम्बद्धत्वेन ऐशानवायव्यप्रासादौ ईशानेन्द्रसरको दक्षिणदिक्सम्बद्धत्वेन आग्नेयनैऋतप्रासादौ शकेन्द्रसत्काविति । सम्पति दिग्ग
जकूटवक्तव्यतामाह-'मन्दरे णं भन्ते । पब्वए'इत्यादि, प्रश्नसूत्रे दिक्षु-ऐशान्यादिविदिक्प्रभृतिषु हत्याकाराणि 18 कूटानि दिग्रहस्तिकूटानि, कूटशब्दवाच्यानामप्येषां पर्वतत्वव्यवहारः ऋषभकूटप्रकरण इव ज्ञेयः, स्थानाङ्गेऽष्टमस्थाने
तु पूर्वादिषु दिक्षु इस्त्याकाराणि कुटानीति, उत्तरसूत्रे पद्मोत्तरेति श्लोकः, पद्मोत्तरः नीलवान् सुहस्ती अञ्जनागिरिः । | 'अञ्जनादीनां गिरा' (श्रीसिद्ध० अ०३ पा०२ सू.) वित्यादिना दीर्घः, कुमुदः पलाशः अवतंसः रोचनागिरिः, 18 अन्यत्र रोहणागिरिः, अत्रापि दीर्घत्वं प्राग्वत्, अथैषां दिगव्यवस्थां पृच्छन्नाह कहि णमित्यादि, क भदन्त ।
मेरौ भद्रशालवने पद्मोत्तरो नाम दिग्हस्तिकूटः प्रज्ञप्तः, गौतम! मन्दरस्यैशान्यां पौरस्त्याया:-मेरुतः पूर्वदि-15 ग्वतिन्याः शीताया उत्तरस्यां, अनेनोत्तरदिग्वर्जिन्याः शीताया व्यवच्छेदः कृतः, अत्रान्तरे पद्मोत्तरो नाम दिग्रह-1 स्तिकूटः प्रज्ञप्तः, ऐशानवापीचतुष्कमध्यस्थप्रासादप्राच्यजिनभनवयोरन्तरालवचीत्यर्थः, अत एव दिग्रहस्तिकूटा अपि मेरुतः पञ्चाशद्योजनातिक्रम एव भवन्ति, प्रासादजिनभवनसमश्रेणिस्थितत्वात् , पञ्चयोजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन पञ्च-18 गन्यूतशतान्युह्येपेन एवमुञ्चत्वन्यायेन विष्कम्भः, अत्र विभकिलोपः प्राकृतत्वात्, परिक्षेपश्च भणितव्यः, तथाहि
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
~ 732 ~
Page #734
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
-------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक [१०३]
गाथा:
श्रीजम्यू- मूले पायोजमशतानि मधे त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यपिकानि उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानीत्येवरूपो वक्षस्कारे
| विष्कम्भः, तथा मूले पञ्चवशयोजनशतानि एकाशीत्यधिकानि मध्ये एकादशयोजनशतानि पडशीत्यधिकाचि किश्चि-18 न्तिचन्द्रीया धूचिः । दूनानि उपरि सक्षयोजनशतान्येकनवत्यधिकानि किशिदूनानीति परिक्षेपः प्रासादानां च एतद्वर्तिदेवसरकानां तदेव 2. १०२
प्रमाणमिति गम्यं यत् क्षुद्रहिमवत्कूटपतिप्रासादस्येति, अत्र बहुवचननिर्देशो वक्ष्यमाणदिग्रहस्तिकूटवर्तिप्रासादेष्वपि । ॥३६५॥ समानप्रमाणसूचनार्थ, पद्मोत्तरोऽत्र देवा, तस्य राजधानी उत्तरपूर्वस्या उक्तविदिग्वर्तिकूटाधिपत्वादस्येति, अथ शेषेषु । 18| उक्तन्यायं प्रदक्षिणाक्रमेण दर्शयवाह-'एवं नीलवन्त' इत्यादि, व्यक्त, नवरं एवमिति-पद्मोत्तरन्यायेन नीलवन्नाम्ना
दिगतिकटः मन्दरख दक्षिणपूर्वस्या पौरस्त्यायाः शीतायाः दक्षिणस्या, ततोऽयं प्राच्यजिनभवनायप्रासादयोISI मध्ये ज्ञेयः, एतस्यापि नीलवान देवः प्रभुस्तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति, 'एवं सुहस्थि'इत्यादि, नवरं दाक्षिणा-19
त्याया-मेरुतो दक्षिणदिग्वर्तिन्याः शीतोदायाः पूर्वतः, अनेन मेरुतः पश्चिमदिग्वर्त्तिन्याः शीतोदायाः व्यवच्छेदः कृतः, अत्रान्तरे सहस्थिदिग्रहस्तिकटः ३, आग्नेयप्रासाददाक्षिणात्यजिनभवनमध्यवर्तीत्यर्थः, एतस्यापि सुहस्ती देवः राजधानी
॥३६५|| || तस्य दक्षिणपूर्वस्यां, नीलवत्सुहस्तिनोरेकस्यामेव दिशि राजधानीत्यर्थः, एवं समविदिग्वतिनो दिगृहस्तिकूटाधिप-18
| योरेकस्यां विदिशि राजधानीद्वयं २ अग्रेऽपि भाव्यं, 'एवं चेव'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं दाक्षिणात्यजिनगृहनैर्ऋतपा-18 HSI| सादयोर्मध्ये इत्यर्थः ४, 'एव'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं पाश्चात्यायाः-पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः शीतोदाया दक्षिणस्या-18
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
HEleonsti
।
~733~
Page #735
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
-------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०३]
48989
गाथा:
मिति, नैतपासादपाश्चात्यजिनभवनयोर्मध्यवत्तीत्यर्थः, 'एव'मिति, व्यक्त, पाश्चात्वमिनभवनवायव्यप्रासादयोरन्तरे
इत्यर्थः, 'एवं वडेंस विदिसाहत्यिकूडे इत्यादि, गतार्ष, नवरं औत्तराह्याः मेरुतः उत्तरदिग्वर्तिन्याः शीतायाः पश्चि-15 ३ मतः, अनेन पूर्वदिग्वनिम्याः शीतायाः व्यवच्छेदः कृतः, वायव्यप्रासादौत्तराहमवनयोर्मध्यवर्तीत्यर्थः ‘एवं रोषणागिरी दिसाहत्थिकूडे'इत्यादि व्यक्तं, नवरं औत्तराद्याः-शीतायाः पूर्वतः औत्तराह्यजिनभवनशानप्रासादयोरन्तराले इत्यर्थः, एषु च बहुभिः पूर्वाचायः शाश्वतजिनभवनसूत्रेषु जिनभवनान्युच्यन्ते इह तु सूत्रकृता नोक्तानि तेन | तत्त्वं केवलिनो विदन्ति, अत एवोक्तं रत्नशेखरसूरिभिः खोपज्ञक्षेत्रविचारे-“करिकूडकुण्डनइदहकुरुकंचणजमलसम-1 | विअहेसुं । जिणभवणविसंवाओ जो तं जाणंति गीअत्था ॥१॥” इति, [हस्ति कूटकुण्डनदीद्रहकुरुकाञ्चनयमकवृत्त-11 वैताब्येषु । यो जिनभवनविसंवादस्तं गीतार्था जानन्ति ॥१॥]” अथैषां वापीचतुष्कप्रासादानां जिनभवनानां करिकूटानां च स्थाननियमनेऽयं वृद्धानां सम्प्रदायः, तथाहि-भद्रशालवने हि मेरोश्चतस्रोऽपि दिशो नदीद्वयप्रवाहः रुद्धाः, | अतो दिक्ष्वेव भवनानि न भवन्ति, किन्तु नदीतटनिकटस्थानि भवनानि गजदन्तनिकटस्थाः प्रासादा भवनप्रासा-1 | दान्तरालेष्वष्टसु करिकूटाः, अत एव विशेषतो दयते-मेरोरुत्तरपूर्वस्यामुत्तरकुरूणां बहिः शीताया उत्तरदिग्भागे | पश्चाशयोजनेभ्यः परः प्रासादः तत्परिक्षेपिण्यश्चतस्रो वाप्यः, एवं शेषेष्वपि प्रासादेषु ज्ञेयं, मेरोः पूर्वस्यां शीतायाः19 दक्षिणतः ५० योजनेभ्यः परं सिद्धायतनं, मेरोदक्षिणपूर्वस्वां ५० योजनातिकमे देवकुरूणां बहिः शीताया दक्षिणत
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
SimillennO
~ 734 ~
Page #736
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१०३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०३]
ध्यक्षस्कारे मेरौ नन्दनादिवना
नि सू.
१०४
गाथा:
श्रीजम्यू-15 एव प्रासादः मेरोदक्षिणतः ५० योजनातिक्रमे देवकुरूणांमध्ये शीतोदायाः पूर्वतः सिद्धायतन, मेरो-कू.भ. द्वीपशा-शरपरदक्षिणतः ५० योजनान्यवगाह्य देवकुरूणां बहिः शीतोदाया दक्षिणतःप्रासादः मेरोः पश्चिमायां प्रा.
५. योजनातिक्रमे शीतोदाया उत्तरतः सिद्धायतनं मेरोरपरोत्तरस्यां५०योजनान्यवगाह्योत्तरकुरूणां भ.
बहिः शीतोदाया उत्तरत एव प्रासादः, मेरोरुत्तरतः पञ्चाशयोजनेभ्यः उत्तरकुरूणां मध्ये शीतायाः प्रा./ ॥३६६॥ पश्चिमतः सिद्धायतनमिति,एतेषां चाष्टस्वन्तरेषष्टौ कूटा इति, अत्र सुखावबोधाय स्थापना यथा- क. भ.क.
कहि ण भन्ते! मन्दरे पचए गंदणवणे णाम वणे पण्णत्ते !, गो०! भइसालवणस्स बटुसमरमणिनामो भूमिभागाभो पञ्चजोभणसयाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मन्दरे पजए णन्दणवणे णाम वणे पण्णचे पञ्चजोअणसयाई चकवालविक्खम्भेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जे णं मन्दरं पञ्चयं सब्बओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइत्ति णवजोअणसहस्साई णव य चप्पण्णे जोमणसए छञ्चेगारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भो एगत्तीसं जोअणसहस्साई पत्तारि म अउणासीए जोअणसए किंचिविसेसाहिए बाहिं गिरिपरिरएणं अह जोअणसहस्साई णव य चप्पण्णे जोअणसए छचेगारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्सम्भो अट्ठावीसं जोमणसहस्साई तिग्णि व सोलसुत्तरे जोअणसए अह य इकारसभाए जोमणस्स अंतो गिरिपरिरएणं, से णं एगाए परमवरवेहआए एगेण व वणसंडेणं सो समन्ता संपरिक्खिते वण्णओ जाव देवा आसयन्ति, मंदरस्स णं पन्वयस्स पुरत्यिमेणं एत्य गं महं एगे सिद्धाययणे प० एवं पदिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विविसामु पुक्खरिणीभीत पेच पमाणं सिद्धाययणाणं
दीप अनुक्रम [१९४-१९६]
2800000000000000000000
॥३६६॥
~ 735~
Page #737
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
estaesesesesesercensecta
[१०४]
पुक्खरिणीपं च पासायवडिंसगा तह चेव सकेसाणाणं तेणं चेव पमाणेणं, गंदणवणे जे भन्ते ! का कूडा पं०१, गोभमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तंजहा-णन्दणवणकूढे १ मन्दरकूढे २ णिसहकूडे ३ हिमवयकूडे ४ रययकूडे ५ रुअगकूडे ६ सागरचित्तकूड़े ७ वइरकूडे ८ बलकूडे ९ । कहि णं भन्ते ! गन्दुणवणे णंदणवणकूडे णाम फूडे ५०१, गोभमा ! मन्दरस्स पन्चयस्स पुरत्थिमिल्लसिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमिल्लस पासायवडेंसयस्स दक्षिणेणं, एत्थ पणन्दणवणे गंदणवणे णाम कूडे पण्णत्ते पचसहा फूटा पुष्ववणि माणिअब्बा, देवी मेईकरा रायहाणी विदिसाएत्ति १, एआदि व पुन्वामिलावणं भला इमे कूड़ा इमाहि दिसाहिं पुरथिमिलस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं मन्दरे फूडे मेहाई राबहाणी पुषेण २ दक्खिणिलस्स भवणस्स पुरथिमेणं दाहिणपुरथिमिल्लस पासायव.सगस्स पचस्थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी रायहाणी दक्खिणेणं ३ दक्खिगिल्लस भवणस्स पञ्चस्थिमेण दक्षिणपञ्चस्थिमिलस्स पासायवठेसगस्स पुरथिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्षिणेग ४ पञ्चस्थिमित्त भवणस्स दक्षिणेणं दाहिणपथिमिलस्स पासायवढेसगस्स उत्तरेणं रखए कूडे मुबच्छा देवी रायहाणी पच्चस्थिमेणं ५ पञ्चविमिल्लस भवणस्त उत्तरेग उत्तरपञ्चस्थिमिल्लस पासायवडेंसगस्स दक्खि
र्ण रुभगे कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पथरिथमेणं ६ उत्तरिल्लस भवणस्स पञ्चत्यिमेणं उत्तरपचत्पिमिलस्स पासायवःसगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते फूढे वइरसेगा देवी रायवाणी उत्तरेणं ७ उत्तरिहस्स भवणस्स पुरस्थिमेणं उत्तरपुरस्थिमिहस्स पासायवसगस्स पचत्थिभेणं वदरकूटे बलाया देवी रायहाणी उत्तरेणंति ८. कहिण भन्ते ! गन्दणवणे बळकूडे णाम फूडे पण्णते,
दीप
अनुक्रम
[१९७]
श्रीजम्बू.६२
~ 736~
Page #738
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या वृत्तिः
[१०]
दीप
श्रीजम्बू- गोअमा! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्यिमेणं एत्थ शं शन्वणणे बलकूडे गामं कूळे प०, एवं व हरिस्सहकून पमाणं
वक्षस्कारे
स्कार द्वीपशा-1 रायहाणी अ तं व बलकूडस्सबि, गवरं बलो देवो रम्यहाणी सत्तरपुरस्थिमेति (पूर्व १०४) न्तिचन्द्री-|
नादिवनाअथ द्वितीयवनं पृच्छमाह-कहिण'मित्यावि, प्रश्नः प्रतीता, उत्सरसूत्रे गौतम! भद्रशालवनस्य बसमस्मणी- नि.
|| यामिभागात् पश्चयोजनशतान्यूर्वमुत्पत्त्य-मत्वाऽग्रतो वर्द्धिमाविति गम्यं मरदरे पर्वते एतस्मिन प्रदेशे नन्दन-181 १०४ ॥३६७।। || वनं नाम बनं प्रज्ञप्त, पञ्चयोजनशतानि 'चक्रकालविष्कम्भेन' चकवाल-विशेषस्य सामान्येऽनुप्रवेशात् समचकवालं|81
|| तख यो विष्कम्भा-स्वपरिक्षेपस्य सर्वतः समप्रमाणतया विष्कम्भस्तेन, अनेन विषमचक्रबालाविविष्कम्भनिरासः, अत। एव वृत्तं, तच मोदकादिवत् धनमपि स्यादत माह-वलयाकारं-मध्येशुपिरं यत् संस्थानं तेन संस्थितं, इदमेव द्योतयति-यन्मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिष्य-वेष्टयित्वा तिश्चति । अथ मेरोबहिर्विष्कम्भादिमानमाह-'णवजो-18 || अण'इत्यावि, मेखलाविभागे हि गिरीणां बाह्याभ्यन्तररूपं विष्कम्भवयं भवति, तत्र मेरी बाह्यविष्कम्भोऽयं-नवयो-181 S|| जनसहस्राणि नव शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि षट् चैकादशभामा योजनस्य, तथाहि-मेरोरुयमेकस्मिन् योजने गते [8Insan | विष्कम्भसम्बन्धी एक एकादशभागो योजनस्य मतो लभ्यते इति प्रागुकं ततोऽत्र त्रैराशिक-पोकयोजनारोहे मेरो-12
परि व्यासस्यापचयः सर्वत्रैकादशो भागो योजनस्यैको लभ्यते ततः पञ्चशतयोजनारोहे कोऽपचयो लभ्यते ।, लब्धानि । ४५ योजनानि, एतत् समभूतलगतज्यासात् दशयोजनसहस्ररूपात् त्यज्यते जातं यथोकं मानं, एतच नन्दनव
अनुक्रम
[१९७]
IN
~ 737~
Page #739
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०४]
दीप
PL नस्य बहिः पूर्वापरयोरुत्तरदक्षिणयोर्वा अन्तयोः सम्भवति, अतो नन्दनवनाहितित्वेन बाहो निशिविरकाम्भः, सथा
एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि एकोनाशीवधिकानि किचिद्विशेषाधिकाचि इत्ययं बाह्यो गिस्पिरिरयो मेकपरिधिरित्यर्थः, पमिति वाक्यालङ्कारे अन्तगिरिविष्कम्भो नन्दचक्कादळक यो गिरिविस्तारः सोऽष्टयोजनसहस्राणि नव च योजनशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि षट् च एकादशभागा योजनस्वेत्येतावत्प्रमाणः, अयं च बाह्यगिरिविशाकम्भे सहस्रोचे यथोकः स्यात्, तथा अष्टाविंशतियोजनसहखाणि श्रीणि च योजनशतानि पोडशाषिकाचि अष्ट चैकाग्रभागा योजनस्तावप्रमाणोऽन्तगिरिपरिरय इति, प्रसिद्धि प्रारबत् । अथात्र पद्मावरवेदिकाचाह-से गं नाए पड़म इत्यादि, व्यकं, अथात्र सिद्धायक्वादिवक्तव्यमारभ्यते-'मन्दरस्म पमित्यादि, मन्दस्स्य पूर्वस्त्रां मत्रचन्दने पञ्चाशयोजनाविक्रसे महदेकं सिद्धायननं प्रज्ञप्तम्, एवमिति-भवशालबनानुसारेण चतसृषु विधुपवारि सिद्धायकवानि विदिक्षु पुष्करिण्यः, तदेव प्रमाण सिद्धायतवानां पुष्करिणीनां च बन्नद्रशाले उक्त प्रासादावतंसकास्तथैव चक्रेशानयोर्वाच्याः यथा भद्शाले दक्षिणविकसम्बद्धवविदिग्वर्तिनः प्रासादाः शक्रस्प तथोत्तरदिसम्बद्धविधिवर्तिनस्तु ईशाचेन्द्रस तेनैव प्रमाणेन-पश्चयोजनशतोच्चत्वाविनेति, अत्र च पुष्करिणीयां नामानि सूत्रकारालिखितस्वालिपिनमादाद्वा आदुर्थेषु न दृश्यन्ते इति तत्रैशान्यादिमासादक्रमाक्मिानि नामानि द्रष्टव्यानि पूज्यप्रणीतक्षेत्रविचारतः-बन्दोत्तर १ जन्दा र सुनन्दा ३ नन्दि वर्जना ४ तथा नन्दिपेणा १ अमोघा २ गोस्तूपा ३ सुदर्शना ४ तथा
अनुक्रम
[१९७]
Sae900
Deceaedeceae
Simillenni
~ 738~
Page #740
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०४]
दीप
श्रीजम्यू-भाव
भद्रा १ विशाला २ कुमुदा ३ पुण्डरीकिणी ४ तथा विजया १ वैजयन्ती २ अपराजिता ३ जयन्ती ४ इति, कूटान्यपि || वक्षस्कारे
रुतस्तावत्येवान्तरे सिद्धायतनप्रासादावतंसकमध्यवर्तीनि ज्ञातव्यानि, तत्र यो विशेषस्तमाह-'णन्दणवणे ण'मित्यादि, मेरी नन्दन्तिचन्द्री- शक, भद्रशालेऽष्टौ कूटानि इह तु नव ततः सङ्ख्यया नामभिश्च विशेषः, तेष्वाचं स्थानतः पृच्छति-कहिण-18 नादिचनाया वृत्तिः मित्यादि, क भदन्त! नन्दनवने नन्दनवन कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य सम्बन्धिनः पौरस्त्य
निसू.
१०४ ॥३६॥
सिद्धायतनस्योत्तरतः उत्तरपौरस्त्ये-ईशानदिग्वर्तिनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन एतस्मिन् प्रदेशे नन्दनवनकूटं नाम कूट
प्रज्ञप्त, अत्रापि मेरुतः पश्चाशयोजनातिकम एवं क्षेत्रनियमो बोध्या, अन्यथाऽस्य प्रासादभवनयोरन्तरालवर्तित्त्वं न ॥ शासात्, अथ लाघवार्थमुक्तस्य वक्ष्यमाणानां च कूटानां साधारणमतिदिशति-पञ्चशतिकानि कूटानि पूर्व विदिग्रहस्तिकू-18
प्रकरणे वर्णितानि उच्चत्वव्यासपरिधिवर्णसंस्थानराजधानीदिगादिभिः तान्यत्र भणितव्यानीति शेषः, सदृशगमत्वात्, अत्र देवी मेघड्करा नाम्नी अस्य राजधानी विदिशि अस्य पद्मोत्तरकूटस्थानीयत्वेन राजधानीविदिगुत्तरपूर्वा ग्राह्या, अथ शेषकूटानां तद्देवीनां तद्राजधानीनां च का व्यवस्था इत्याह-'एआहिं'इत्यादि, एताभिर्देवीभिश्चशम्दाद् राजजधानीभिरनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणाभिः सह पूर्वाभिलापेन नन्दनवनकूटसत्कसूत्रगमेन नेतव्यानि इमानि वक्ष्यमाणानि ॥३६८॥ ISकुटानि इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्दिग्भिः, एतदेव दर्शयति-'पुरथिमिलस्स'इत्यादि, इदं च सर्व भद्रशालवनगमसदृशं
तेन तदनुसारेण व्याख्येयं, विशेषश्चात्राय-पञ्चशतिके नन्दनवने मेरुतः पञ्चाशयोजनान्तरे स्थितानि पञ्चश्नतिकानि
अनुक्रम
[१९७]
Jintlemnition
~739~
Page #741
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०४]
कूटानि किञ्चिन्मेखलातो बहिराकाशे स्थितानि बोध्यानि बलकूटवत्, एतत्कूटवासिन्यश्च देव्योऽष्टौ दिक्कुमार्यः अत्र नवमं कूटं सहस्राङ्कमिति पृथक् पृच्छति-'कहिणमित्यादि, क भदन्त ! नन्दनवने बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञतम् , गौतम! मेरोरीशानविदिशि नन्दनवनं अत्रान्तरे बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्त, अयमर्थ:-मेरुतः पश्चाशयोजनातिक्रमे ईशानकूणे ऐशानप्रासादस्ततोऽपीशानकोणे बलकूटं, महत्तमवस्तुनो विदिशोऽपि महत्तमत्वात् , एवमनेनाभिलापेन यदेव हरिस्सहकूटस्य-माल्यवद्वक्षस्कारगिरेवमकूटस्य प्रमाणं सहस्रयोजनरूपं, यथा चाल्पेऽपि स्वाधारक्षेत्रे महतो-18 ऽप्यस्यावकाशः या च राजधानी चतुरशीतियोजनसहनप्रमाणा तदेव सर्व बलकूटस्यापि नवरमत्र बलो देवस्तत्र तु हरिस्सहनामा । अथ तृतीयवनोपक्रमः
कहि णं भन्ते! मन्दरए पव्वए सोमणसवणे णाम वणे प०१, गोअमा! णदणवणस्स बहुसमरमणिज्वाओ भूमिभागाओ अद्धतेबढि जोमणसहस्साई उई उप्पहत्ता एत्य गं मन्दरे पत्रए सोमणसवणे णाम वणे पण्णते पचजोषणसयाई चयावालविक्खम्भेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जेणं मन्दरं पव्वयं सबओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठर, चत्तारि जोमणसहस्साई दुणि य बाक्त्तरे जोअणसए अह व इकारसभाए जोमणरस चाहिं गिरिविक्खम्भेणं तेरस जोअणसहस्साई पच य एकारे जोअणसए छच इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं तिणि जोअणसहस्साई दुणि अ बाक्तरे जोमणसए अह य इकारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खम्भेणं दस जोअणसहस्साई तिणि अ अवगापण्णे जोअणसए तिण्णि अ इकारसभाए जोअणस्स अंतो गिरि
seeeeeesesemesekese
दीप
अनुक्रम
[१९७]
अथ सोमनसवनस्य वर्णनं क्रियते
~740~
Page #742
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
सामनसब
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया चि: ॥३६९॥
[१०]
दीप
परिरएणति । से णं एगाए परमवरजेइआए एगेय य वणसंडेणं समाभो सम्मन्ना संपरिकिसने कामको किन्हे किस - सार यन्ति एवं कूडवजा सथैव णदणवणवत्तव्यया भाणियब्वा, तं चेव मोचाहिऊमा जाव पासायबसगा समीसलापति (सवं१०५) 'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! मेरौ सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् १, गौतम । मन्दनवनस्य बहुसमरमणीपाद भूमिभागादर्द्धत्रिषष्टिं सार्द्धद्वापष्टिरित्यर्थः योजनसहनाण्यूद्धमुत्पत्त्यात्रान्तरे मन्दरपर्वते सौमनसवनं नाम वन प्रज्ञसं, पञ्चयोजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेनेत्यादिपदानि प्राग्वत् , यम्मन्दर पर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य तिष्ठति, एतच्च कियता विष्कम्भेन कियता च परिक्षेपेणेत्याह-'चत्तारी' त्यादि, प्रथममेखलायामिव द्वितीयमेखला-18 सामपि विष्कम्भद्वयं वाच्यं, वत्र बहिर्गिरिविष्कम्भेन चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विसप्तत्यधिके अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, एतदुपपत्तिरेवं-धरणीतलात् सौमनसं यावद् गमचे प्रेरूच्छ्यस्य १३ सहस्रयोजनाम्यति-18 कान्तानि एषां चैकादशभिर्भागे लब्धं ५७२७३ अस्मिंश्च राशी धरणीतलगतमेरूच्यासायसहस्रयोजनप्रमामाच्छोधिते है। जातं यथोक्तं मानमिति, पहिगिरिपरिरयेण त्रयोदय योजनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि एकादशानि-एकादशाधि-1 कानि षट् च एकादशभागा योजनस्य, तथाऽन्तर्गिरिविकम्भेन श्रीणि योजनसहस्राणि वे वासप्तत्यधिक योजनबते 8॥३६९॥ अष्टौ चैकादशभागा भोजनस्य, उपपत्तिस्तु बहिगिरिविष्कम्भात् उभयतो मेखलायच्यासे पञ्चशतश्योजवरूपेड-18 । पनीते यथोकमानं, अन्तगिरिपरिरयेण तु दश सहस्रयोजनानि श्रीणि च बोजवसतानि एकोनपश्चादधिकाति प्रय-18
अनुक्रम [१९८]
JinElemnitinment
~741~
Page #743
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०५]
दीप अनुक्रम [१९८]
बडादशभासा योजननेति । अथास्य वर्णकसूत्र-'से पांएगा' इत्यादि, सा, नवरं एवमुक्ताभिलापेन यूटयो | व नन्दनवनवकन्यता अणितन्या, कियत्पर्यन्तमित्याह-वन्तदेव मेरुतः पञ्चाशद्योजक क्षेत्रमवगाव यावत्यामा दावतंसकाः शकेशाचबोरिति, बापीनामानि त्विमानि तेवव क्रमेण, सुमनाः १ सौमत्सा २ सौमनांदा सौम-१६ नस्या वा मनोरमा ४ तथा उत्तरकुरुः १ देवकुरुः २ वारिमा ३ सरस्वती ४ वा विशाला १ माघभजा २ अभ-18 यसेना सोहिणी ४ तथा भनोत्तरा १ भद्रा २ सुभद्रा ३ भद्रावती झजवती का । अथ चतुर्थ वर्ना . कहि गं भन्ते ! मन्दरपब्वए पंचगवणे मार्म वणे प०, गो०! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीस जोअणसहस्साई उर्दू उत्पत्ता एत्य पं मन्दरे पन्वए सिहरतले पंडगवणे णाम वणे पण्णसे, चत्वारि चउणउए जोयणसए चक्कबालविक्खम्भेणं बढे बळ्याफारसंठाणसंठिए, जे गं मंदरचूलिअं सबओ समन्ता संपरिक्खिताणं चिट्ठद तिणि जोमणसहस्साई एगं च बाबई जोअणसय किचिबिसेसाहिलं परिक्खेवणं, से णं एगाए पलमवरवेइआए एगेण व वणसंडेणं जाव किण्हे देवा भासयवि, पंडगनणय महासभाए एल्यण मंबरमूलिमा काम चूलिभा पण्णत्ता चत्तालीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले वारस जोभणाई विकसम्भेषं मझे अट्ठ जोअणाई विक्सम्मेमं उम्पि चमरि जोमणाई विक्खम्भेयं मूले साइस्माई सत्तात्तीक जोआणाई परिक्खेवेणं मजो सारेगावं पणवीस जोअण्णाई परिक्खेवणं उप्पि साइरेगाई.वारस जोनागाई परिक्सवेणं मूते विच्छिण्णा महो संक्षिचा पर्षि व्युमा मोपुच्छसंठापसंठिा समवेरुलिआई अच्छा सा में पाए परमवरवेइभए मक
अथ पण्डकवनस्य वर्णनं क्रियते
~742~
Page #744
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०६ ]
दीप
अनुक्रम
[१९९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥३७० ॥
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [ १०६ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
संपरिक्खित्ता इति वपि बहुसमरमणि भूमिभागे जाव सिद्धाययणं बहुमज्द देसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खम्भेणं देसूणगं को उद्धं उच्चतेणं अणेगसंभसय जाव धूवकडुच्छुगा, मन्दरचूलिआए णं पुरत्थिमेणं पंढगवणं पण्णासं जोगणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महंगे भवणे प० एवं जचैव सोमणसे पुव्ववण्णिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवर्टेसगाण य सो चैव भवो जान सकीसानवडेंसगा तेणं चैव परिमाणं (सूत्रं १०६ )
'कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे सौमनसवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्ध्वं पत्रिंशद्योजन| सहस्राणि उत्पत्य तत्र देशे मन्दरे पर्वते शिखरतले - मौलिभागे पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञतं चत्वारि योजनशतानि चतुर्नवत्यधिकानि चक्रवालविष्कम्भेन, एतदुपपत्तिस्तु सहस्रयोजन प्रमाणाच्छिखरन्यासान्मध्यस्थित चूलिका मूलव्यासे द्वादशयोजनप्रमाणे शोधितेऽवशिष्टेऽधकृते यथोकमानं, यत्पण्डकवनं मन्दरबूलिकां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य तिष्ठति, यथा नन्दनवनं मेरुं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य स्थितं तथेदं मेरुचूलिकामिति, त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वापष्टं द्वापष्टयधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेणेति, अथास्य वर्णकमाह'से णं इत्यादि, व्यक्तं, याच पण्डकवनमभिवाप्य स्थिता सा क चूलिकेत्याह- 'पंडगवणे 'ति पण्डकवनस्य | मध्ये द्वयोश्चक्रवालविष्कम्भयोर्विचाले अत्रान्तरे मन्दरस्य - मेरो धूलिका - शिखा इव मन्दरचूलिका नाम चूलिका प्रज्ञष्ठा, चत्वारिंशतं योजनान्यूवोंच्चत्वेन मूले द्वादश योजनानीत्यादिसूत्रं प्राग्वत्, केवलं सर्वात्मना वैडूर्यमयी
Fur Ele&ae Cy
~743~
2000
४ वक्षस्कारे
पण्डकवन सू. १०६
॥ ३७० ॥
Page #745
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०६]
नीलवर्णत्वात् । साम्प्रतं सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचवित्रणामपूर्वार्थजिज्ञापयिषया चूलिकाया इष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय प्रसङ्गगत्योपायो लिख्यते, यथा तत्राधोमुखगमने करणमिदं-चूलिकायास्सर्वोपरितनभागादवपत्य यत्र योजनादावतिक्रान्ते विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिक्रान्तयोजनादिके पञ्चभिर्भक्के लब्धराशिश्चतुर्भिर्युतस्तत्र व्यासः स्यात्, तत्र उपरितलाविंशतियोजनाम्यवतीर्णस्ततो विंशतिर्धियते तस्याः पञ्चभिर्भागे लब्धाश्चत्वारः ते चतुर्भिः सहिताः
अष्टौ एतावानुपरितलादिशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि भावनीयं, यदा तूर्ध्वमुखगत्या विष्कम्भजिज्ञासा 8 तदाऽयमुपाय:-चूलिकाया मूलादुत्पत्य यत्र योजनादौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिकान्तयोजनादि के पंचभिभके यल्लब्ध || ४ तावत्प्रमाणे मूलविष्कम्भादपनीते अवशिष्टं तब विष्कम्भः, तथाहि-मूलास्किल विंशतिर्योजनान्यूर्व गतस्ततो विंशतिधियते तस्याः पंचभिर्भागे लब्धानि चत्वारि योजनानि तानि मूलविष्कम्भाद् द्वादशयोजनप्रमाणादपनीयते शेषाण्यष्टौ एतावान् मूलादूर्व विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि भावनीयं, यथा मेरौ एकादशभिरंशेरेकोऽशा एकादशभियोजनैरेक योजनं व्यासस्य चीयते अपचीयते तथाऽस्यां पञ्चभिरंशेरेकोऽशः पञ्चभियोजनैरेक योजनं व्यास-10 स्येति तात्पर्यार्थः, अत्र वीज-द्वादशयोजनप्रमाणाचूलाव्यासादारोहे चत्वारिंशद्योजनेषु गतेषु अष्टौ योजनानि त्रुट्यन्ति 8 अवरोहे च तान्येव वर्द्धन्ते ततस्त्रैराशिकस्थापना । ४०१ मध्यराशावन्त्यराशिना गुणिते एकेन गुणितं तदेव है भवतीति जाता अष्टी अस्य राशेश्चत्वारिंशता भजने भागाप्राप्ती द्वयो राश्योरष्टनिरपवतें जातं । अथास्य वर्णक-18
Accesses
दीप
अनुक्रम
[१९९]
Jimillennitimatel
~ 744 ~
Page #746
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०६ ]
दीप
अनुक्रम
[१९९]
वक्षस्कार [४],
मूलं [ १०६ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपचान्तिचन्द्रीया वृचिः
॥३७१ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
Jan Eikenich
सूत्रम्- 'सानं एगाए पउमवर जावं इत्यादि, प्राग्वत्, अथास्यां बहुसमरमणीय भूमिभागवर्णनं सितयतनवर्णनं चातिदेशेनाह-'उष्पिं बहुसम' इत्यादि, अस्याधूलिकायाः उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च यावत्पद करणात् 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरे इ वा' इत्यादिको प्रायः, तथा तस्य बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं कच्चं क्रोशमायामेनार्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमुच्चत्थेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टमित्यादिकः सिद्धायतनवर्णको वाच्यो यावडूवक दुच्छुकानामष्टोत्तरं शतमिति, अथ प्रस्तुतवने भवनप्रासादाविवक्तव्यमोचरं सूत्र- 'मन्दरचूलिआ इत्यादि, | सन्दर चूलिकायाः पूर्वतः पण्डकवनं पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्य अत्रान्तरे महदेकं भवनं-सिद्धायतनं प्रज्ञयं एवमुकाभिलापेन य एव सौमनसवने पूर्ववर्णितो - नन्दनवनप्रस्तावो को गमः कूटवर्जः सिद्धायतनादिव्यवस्थाधायकः सदृशालापकः पाठः स एवात्रापि भवनानां पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानां च ज्ञातव्यः, यावच्छकेशानप्रासादावतंसकारतेनैव प्रमाणेचेति, अत्र वापीनामाचि प्रागुक्तयुक्त्या सूत्रेऽदृष्टान्यपि ग्रन्थान्तरतो लिख्यन्ते, तद्यथा---पेशावप्रासादे पूर्वादिक्रमेण पुण्ड्रा १ पुण्ड्रप्रभा २ सुरक्ता ३ रक्तावती ४ आग्नेयप्रासादे वीररसा १ इक्षुरसा २ अमृतरसा ३ वारुणी | ४ नैर्ऋतप्रासादे शंखोत्तरा १ शङ्खा २ शङ्खार्त्ता ३ बलाहका ४ काव्यप्रासादे पुष्पोत्तरा १ पुष्पवती २ सुपुष्पा ३ पुष्पमालिनी ४ चेति । अथात्राभिषेकशिलाव कन्यतामाह
पण्डकवणे णं भन्ते ! वणे कइ अम्रिसेअसिलाभ पण्णत्ताओ १, गोअमा! बत्तारि अभिसेअसिलाभ प० सं०-पंडुसिला १
Fur Ele&ae Cy
~ 745~
४वक्षस्कारे पण्डकवन
सू. १०६
॥३७१॥
Page #747
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०७]
दीप
अनुक्रम [२००]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
-
वक्षस्कार [४],
मूलं [१०७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .. आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
प्रण्डुकंक्लसिला २ रसिला ३ रक्तकम्बलसिलेति ४ । कहि भन्ते! पण्डमवणे मण्डसिलामानं सिला पक्का १, गोमा ! मन्दस्कुलिआए पुरत्थिमेणं पंडगवणपुर स्थिमपेरंते, एत्थ णं पंहगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणावया पाईणपढीभविच्छिण्णा अचन्दसंठाणसंटिआ पंचजोअमसयाई आयामेणं अद्धारबाई जोअणसयाई क्खिम्भेणं चत्तारि जोजनाएं बाइलेणं सबकणगामई अच्छा बेइआवणसंडेयं सव्वओ समन्ता संपरिक्खिता वण्णओ, तीसे णं पण्डुसिलाए चरिचिचारि तिसोवाणपरुिवगा पण्णत्ता जाव तोरणा वण्णओ, तीसे णं पण्डुसिलाए उपि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते जाव देवा आसयन्ति, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता पथ्य धणुसयाई श्रायामविक्सम्भेणं अद्धाइज्वाइं घणुसयाई बाइलेणं सीहासणवण्णओ भाणिअब्वो विजयदुसवज्जोत्ति । तत्थ णं जे से उत्तरिले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणत्रवाणमन्तरजोइसिनेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ कच्छाइआ तित्थयरा अभिसिञ्चन्ति तत्थ णं जे से दाहिणि सीहास तत्थ णं बहूहिं भवण जाव वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ वच्छाईआ तित्ययरा अभिसिञ्चन्ति । कहि णं ते! पण्डंगवणे पण्डुकंबलासिटाणामं सिला पण्णत्ता ?, गोक्षमा! मन्दरचूलिआए दक्खिमेणं पण्डगवणदाहिणपेरंते, एत्थ पंगवणे पंडुकंवलसिलाणामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उत्तरवाहिणविच्कृिण्णा एवं तं चैव पमाणं तवया य भाणिअब जाब तस्स णं बहुतमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीहासणे ५० तं चैव सीहासणप्यमाणं ar णं महिं भवण जाव भारहगा विश्वयरा अहिसिचन्ति कहि णं भन्ते! पण्डगवणे रतसिला णामं सिला प० १, सो० ! अन्दर चूलिआए पश्ञ्चत्थिमेणं पण्डगवणपञ्चत्थिमपेरते, एत्थ में पावणे रक्तसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया
F Ervale & Puna e Oly
~ 746 ~
janntraryarg
Page #748
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०७]
दीप
अनुक्रम
[२००]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [१०७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥३७२ ॥
पापडीच्या जव तं चैव पमाणं सव्वतवणिज्नई अच्छा उत्तरदाद्दिणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, तत्य णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तस्थ णं बहूहिं भवण० पम्हाइआ तित्ययरा अहिसिबन्ति तत्थ णं जे से उत्तरिले सीहासणे तत्य णं बहूहिं भवण जाव बप्पा आतित्थयरा अहिसिसंति, कहि णं भन्ते ! पण्डरावणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता ? गोअमा! मंदरचूलिआए उत्तरेणं पंडगवणउत्तर चरिमंते एत्थ णं पंडगबणे रक्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उदी - दाहिणविच्छिष्णा सव्वत वणिजमई अच्छा जाब मज्झदेसभाए सीहासणं, सत्य णं बहूहिं भवणव जाव देवेहिं देवीहि अ एरायगा तिव्यवरा अहिसियन्ति (सूत्रं १०७ )
पण्डकवने भदन्त ! कति अभिषेकाय - जिनजन्मस्त्रात्राय शिलाः अभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः १, गौतम ! चतस्रोऽभिषेक| शिलाः प्रज्ञताः, तद्यथा- पाण्डुशिला १ पाण्डुकम्बलशिला २ रक्तशिला ३ रक्तकम्बलशिला ४ अन्यत्र तु पाण्डुकम्बला १ अतिपाण्डुकम्बला २ रक्तकम्बला ३ अतिरक्तकम्बलेति ४ नामान्तराणीति । सम्प्रति प्रथमायाः स्थानं पृच्छति - 'कहि ण' मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे मन्दरचूलिकायाः पूर्वतः पण्डकवनपूर्वपर्यन्ते पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञता, | उत्तरतो दक्षिणतश्चायता पूर्वतोऽपरतश्च विस्तृता अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता पञ्चयोजनशतान्यायामेन - मुखविभागेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन-मध्यभागेन, अर्द्धचन्द्राकारक्षेत्राणामेवमेव परमव्याससम्भवात्, अत एवास्याः परमव्यासः शरत्वेन लम्बो जीवात्वेन परिक्षेपो धनुः पृष्ठत्वेन तत्करणरीत्या आनेतव्या, तथा चत्वारि योजनानि वाह
अथ पण्डकवने जिनजन्माभिषेकशिलायाः वर्णनं क्रियते
Fur Free Cy
~ 747 ~
४वक्षस्कारे अभिषेकशिलाः स्. १०७
॥ ३७२ ॥
Page #749
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०७]
त्येन-पिण्डेन सर्वात्मना कनकमयी प्रस्तावादर्जुनसुवर्णमयी अच्छा वेदिकावनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परि-18 क्षिप्ता, वक्रता च चूलिकासन्ना सरलता तु स्वस्वदिक्क्षेत्राभिमुखा, वर्णकश्च वेदिकावनखण्डयोर्यतच्या, चतुर्योजनो||च्छ्रिता च शिला दुरारोहा आरोहकाणामित्याह-तीसे ण'मित्यादि, तस्यां शिलायां चतुर्दिशि चत्वारि विसोपानप्र
| तिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां च वर्णको वाच्यो यावत्तोरणानि । अथास्या भूमिसौभाग्यमावेदयन्नाह-'तीसे ण'मित्यादि, । तस्याः पाण्डुशिलायाः उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावद्देवा आसते शेरते इत्यादि, अथात्राभिषेकासशनवर्णनायाह-'तस्स ण'मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे उत्तरतो दक्षिणतच अचान्तरे द्वे अभिषेकसिंहासने-जिनजन्माभिषेकाय पीठे प्रज्ञ पंचधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धतृतीयानि धनुनतानि बाहल्येन उच्चत्वेनेत्यर्थः, अत्र च सिंहासनवर्णको भणितव्यः, स च विजयदुष्यवर्ज:-उपरिभागे विजयनामक
चन्द्रोदयवर्णनारहित इत्यर्थः, शिलासिंहासनानामनाच्छादितदेशे स्थितत्वात् , अत्र च सिंहासनानामायामविष्कम्भII योस्तुल्यत्वेन समचतुरनतोक्का, नन्वत्रकेनैव सिंहासनेनाभिषेके सिद्धे किमर्थं सिंहासनद्वयमित्याह-'तस्थ'मित्यादि, तत्र-तयोः सिंहासनयोर्मध्ये 'से' इति भाषालङ्कारे बदौचराहं सिंहासनं तत्र बहुभिर्भवनपतिव्यन्तरज्योति
वैमानिकदेवदेवीभिश्च कच्छादिविजयाष्टकजातास्तीर्थकराः अभिषिच्यन्ते-जन्मोत्सवार्थ मप्यन्ते, यत्तु दाक्षिणावं सिंहासन बत्र बच्चादिका इति, अत्रायमर्थः-एषा हि चिला पूर्वदिग्मुखा एतद्दिगभिमुखं च क्षेत्र पूर्वमहा विदेहास्वं
दीप अनुक्रम
[२००]
~748~
Page #750
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०]
दीप अनुक्रम
भीजम्बू
18 तत्र च युगपज्जगद्गुरुयुगं जन्मभाग् भवति तत्र शीतोत्तरदिग्पतिविजयजातो जगद्गुरुरुत्तरदिग्वतिनि सिंहासने- वधस्कारे द्वीपशा
| भिषिच्यते, तस्या एवं दक्षिणदिग्वत्र्तिविजयजातो जगद्गुरुदक्षिणदिग्वर्तिनीति । इदानी द्वितीयशिलाप्रश्नावतार:-MMENT न्तिचन्द्री
कहि ण'मित्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे मेरुचूलिकाया दक्षिणतः पण्डकवनदाक्षिणात्यपर्यन्ते पाण्डुकम्बला नानी या वृत्तिः
शिलास..
१०७ शिला प्रज्ञप्ता, माकपश्चिमायता उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा, आद्या तु प्रापश्चिमविस्तीर्णा उत्तरदक्षिणायतेत्येतद्विशेषणद्वयं | ॥३७ ॥ विहायान्यत प्रागुक्तमतिदिशति-एवमेवोकाभिलापेन तदेव प्रमाणं शिलायाः पश्चयोजनशतायामादिकं वक्तव्यता!!
चार्जुनस्वर्णवर्णादिका भणितव्या यावत्तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तदेव पञ्चधनुःशतादिकं सिंहासनप्रमाणमुञ्चत्वादी ज्ञेयं, तत्र बहुभिर्भवनपत्यादिभिर्देवैर्भारतका-भरतक्षेत्रोत्पन्नास्तीर्थकृतोऽभिपिच्यन्ते, ननु पूर्वशिलायां सिंहासनद्वयं अन तु एक सिंहासनं किमिति ?, उच्यते, पषा हि शिला | दक्षिणदिगभिमुखा तद्दिगभिमुखं च क्षेत्र भारताख्यं तत्र चैककालमेक एव तीर्थकृदुत्पद्यते इति तदभिषेकानुरोधे|नैकत्वं सिंहासनस्येति । अथ तृतीयशिला-कहि णमित्यादि, इदं च सूत्र पूर्वशिलागमेन बोध्यं, केवलं वर्णतः18 ३ सर्वात्मना तपनीयमयी रक्तवर्णत्वात् , सिंहासनद्वित्वभावना त्वेव-एषा पश्चिमाभिमुखा तद्दिगभिमुखं च क्षेत्रं पश्चिम-18| ॥३७॥ I महाविदेहाख्यं शीतोदादक्षिणोत्तररूपभागद्वयात्मक, तत्र च प्रति विभागमेकैकजिनजन्मसम्भवाद्युगपजिनद्वयमुत्पद्यते, 18
तत्र दाक्षिणात्ये सिंहासने दक्षिणभागगतपक्ष्मादिविजयाष्टकजाता जिनाः सप्यन्ते औत्तराहे च उत्तरभागगतवमादि-18
[२००]
~ 749~
Page #751
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०७]
विजयाष्टकजाता इति, सम्प्रति चतुर्थी शिला-'कहिण'मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे सर्व द्वितीयशिलानु
सारेण वाच्यं, वर्णतश्च सर्वतपनीयमयी, श्रीपूज्यैस्तु सर्वा अर्जुनस्वर्णवर्णा उक्का इति, 'ऐरावतका' इति ऐरावतक्षे|| प्रभवाः, सिंहासनस्यैकत्वं भरतक्षेत्रोक्तयुक्त्या वाच्यम् ॥ अथ मेरौ काण्डसङ्ख्यां जिज्ञासुगौतमः पृच्छति
मन्दरस्स Q भन्ते ! पव्वयस्स का कण्डा पण्णता ?, गोयमा ! तओ कंटा पण्णत्ता, तंजहा-हिहिले कंटे मझिले कण्डे उवरिल्ले कण्डे, मन्दरस्सणं भन्ते! पन्वयस्स हिहिले कण्हे कति विहे पण्णत्ते!, गोअमा! चउठिवहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढवी १ उवले २ वइरे ३ सकरा ४, मज्झिमिल्ले णं भन्ते! कण्डे कतिविहे पं०१, गोअमा! चलम्बिहे पणत्ते, संजहा-अंके १ फलिहे २ जायरूले ३ रयए ४, उवरिले कण्डे कतिविहे पण्णते?, गोअमा! एगागारे पण्णचे सव्वजम्घूणयामए, मन्दरस्स णं भन्ते । पञ्वयस्स हेहिले कण्डे केवइ बाहल्लेणं पं०१, गोयमा! एग जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते, मज्झिमिले कपडे पुच्छा, गोअमा! तेवदि जोअणसहस्साइं बाहलेणं पं०, उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा! छत्तीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पं०, एवामेव सपुव्यावरेणं मन्दरे पञ्चए एग जोअणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णते। (सूत्र १०८)
'मन्दरस्स णमित्यादि, मेरोर्भदन्त ! पर्वतस्य कति काण्डानि प्रज्ञप्तानि ?, काण्डं नाम विशिष्टपरिणामानुगतो | विच्छेदः पर्वतक्षेत्रविभाग इतियावत्, गौतम ! त्रीणि काण्डानि प्रज्ञप्तानि, तपथा-अधस्तनं काण्डं मध्यम काण्ड उपरितनं काण्डं, अथ प्रथमं काण्ड कतिप्रकारमिति पृच्छति-'मन्दरस्स'इत्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, निर्वचनसूत्रे पृथ्वी
दीप अनुक्रम
sersectsectrserseservesesesesercent
[२००]
~ 750~
Page #752
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०८]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू- 18|मतिका अपला-पाषाणाः बजाणि-हीरकाः शर्करा-कर्करिकाः एतम्मयः कन्दो मम्वरस्य, एतदेव हि प्रथमं का पित
वधस्कार द्वीपशा सहनयोजनप्रमाणे, ननु प्रथमकाण्डस्य चतुप्रकारत्वात् तदीययोजनसहस्रस्य चतुर्विभजने एकैकपकारस्य योजना-18मेरुकाण्डान्तिचन्द्री-18 हनचतुर्थाशप्रमाणक्षेत्रता स्यात् तथा च सति विशिष्टपरिणामानुगतविच्छेदरूपत्वात् त एव काण्डसख्यां कथं नानि सू.१०८ या चिः 18वर्द्धयन्तीति !, उच्यते, कचित्पृथ्वीबहुलं कचिदुपलबहुलं क्वचिद् वज्रबहुलं क्वचिच्छर्करावहुलं, इदमुक्तं भवति-उक्क॥३७४॥ |चतुष्टयमन्तरेणान्यत् किमप्यङ्करलादिकं न तदारम्भकमिति अतो नैयत्येन पृथिव्यादिरूपविभागाभावान काण्ड-18 18 सङ्ख्यावर्द्धनावकाश इति, मध्यकाण्डगतवस्तुपुच्छार्थमाह-मज्झिमिले' इत्यादि, अङ्करमानि-स्फटिकरमानि जात-18||
रूप-सुवर्ण रजतं-रूप्यम् , अत्रापीयं भावना-कचिदकबहुलमित्यादि, अथ तृतीयं काण्डं-'उबरिले' इत्यादि, प्रश्नो व्यक्तः, उत्तरसूत्रे एकाकारं-भेदरहितं सर्वात्मना जाम्बूनदं-रक्कसुवर्ण तन्मयमिति । काण्डपरिमाणद्वारा मेरुपरिमाणमाह-'मन्दरस्स ण'मित्यादि, भगवन् ! मन्दरस्याधस्तनं काण्डं कियद्वाहल्येन-उच्चत्वेन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! एक योजनसहनं बाहल्येन प्रज्ञप्त, मध्यमकाण्डे पृच्छा-प्रश्नपद्धतिर्वाच्या, सा च 'मन्दरस्स णं भन्ते ! पवयस्स ममिमिले || काण्डे केवइयं वाहलेणं पण्णत्ते?" इत्यादिरूपा स्वयमभ्यूह्या, गौतम! त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् |
18॥३७॥ अनेन भद्रशालवनं नन्दनवनं सौमनसवनं वे अन्तरे चैतत् सर्व मध्यमकाण्डे अन्तर्भूतमिति, यसु समवाया । अष्टचिंचचमे समवाये 'द्वितीयकाण्डविभागोऽष्टत्रिंशत्सहस्त्रयोजनान्युच्चत्वेन भवती'त्युकं तन्मतान्तरेणेति, एवमुप
[२०१]
~7514
Page #753
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
---- मूलं [१०८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०८]
दीप
aeraerae00000000000000000000000000
रितने काण्डे पृच्छा ज्ञेया, पत्रिंशद्योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रक्षम् , एवमुक्तरीत्या 'सपुवावरेण' पूर्वापरमीलनेन मन्दरपर्वतः एक योजनशतसहस्रं सर्वाण-सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः, ननु चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा शिरःस्था चूलिका मेरूप्रमाणमध्ये कथं न कथिता?, उच्यते, क्षेत्रचूलात्वेन तस्याः अगणनात्, पुरुषोच्छ्यगणने शिरोगतकेशपाशस्येवेति, इयं च सूत्रत्रयी एकार्थप्रतिबद्धत्वेन समुदितैवालेखि । अथ मेरोः समयप्रसिद्धानि षोडश नामानि प्रश्नयितुमाह
मन्दरस्स पं भन्ते ! पब्बयस कति णामधेना पण्णता ?, गोअमा! सोलस णामधेजा पण्णत्ता, जहा-मन्दर १ मे २ मणी-- रम ३ सुदंसण ४ सर्वपमे अ५ गिरिरावा ६।रवणोचय ७ सिलोचय ८ मझे लोगस्स ९ गाभी य १० ॥१॥ अच्छे 'अ ११ सूरिआवचे १२, सूरिआवरणे १३ तिआ । उत्तमे १४ अ विसादीअ १५, बठेसेति १६ अ सोलसे ॥ २॥ से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुश्चइ मन्दरे पबए २१, गोजमा! मन्दरे पबए मन्दरे णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओबमहिए, से तेणडेणं गोअमा! एवं युषा मन्दरे पब्बए २ अदुत्तरं तं घेवत्ति । (सूर्य १०९)
'मन्दरस्स ण'मित्यावि,मन्दरस्य पर्वतस्य भगवन्! कति नामधेयानि-नामानि प्रज्ञतानि', गौतम! पोडश नाम-II | धेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'मन्दरे'त्यादि गाथाद्वयं, मन्दरदेवयोगात् मन्दरः१, एवं मेरुदेवयोगात् मेरुरिति, नन्वेचं | मेरो स्वामिवयमापयेतेति चेत्, उच्यते, एकस्यापि देवस्य नामद्वयं सम्भवतीति न काप्याशङ्का, निर्णीतिस्तु बहुश्रुस-1 गम्येति २, तथा मनांसि देवानामप्यत्तिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः ३, तथा सा-शोभनं जाम्बूनदमयतया रत्न
Sacrasagaceterachenga2009000
अनुक्रम
[२०१]
~752~
Page #754
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
-------- मूलं [१०९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०९]
या वृत्तिः
गाथा:
श्रीजम्यू- बहुलतया च मनोनिवृतिकरं दर्शनं यस्थासौ सुदर्शनः ४, तथा रत्नबहुलतया स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा प्रभा-प्रकाशो वक्षस्कारे
द्वीपशा- यस्यासी स्वयम्प्रभः ५, चः समुच्चये, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चत्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा गिरि-18 मेरुनामान्तिचन्द्री
16 राजा, तथा रवानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चयः-उपचयो यत्र स रत्नोच्चयः ७, तथा शिलाना-पाण्डशिला-13
है। दीनामूर्ध्व-शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स शिलोचयः८, तथा लोकस्य मध्यं, अस्य सकललोकमध्यवर्तित्वात...॥ ॥३७५॥
18 नन्वन लोकशब्देन चतुर्दशरज्वात्मकलोके व्याख्यातव्ये 'धम्माइ लोगमज्झं जोअणअस्संखकोडीहिं' इति वचनाता 18| समभूतलादलप्रभाया असंख्याताभिर्योजनकोटीभिरतिक्रान्ताभिर्लोकमध्यं तत्र च मेरोरसम्भवेन बाधितं व्याख्यान,181 18 अथ लोकशब्देन तिर्यग्लोकस्तस्याप्यष्टादशशतयोजनप्रमाणोच्चस्यास्मिन्नेवान्तीनत्वात् कुतस्तरामस्य लोकमध्यवर्ति
त्वमिति चेत्, उच्यते, तिर्यग्लोके तिर्यग्भागस्य स्थालाकारैकरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भस्यात्र लोकशब्देन विवक्षणात् 18 तस्य मध्यं, मेरुः तन्मध्यवत्तीत्यर्थः, अस्मात् सर्वतोऽप्यलोकस्य पञ्चसहस्रोनार्द्धरज्जुप्रमाणेन दूरव्यवहितत्वात् , अत ||
एवोपलक्षणादलोकस्याप्यसौ मध्यं अस्मात् सर्वतोऽप्यलोकस्यानन्तयोजनप्रमाणत्वात् ९, एवं 'नाभी यत्ति अत्र
च देहलीप्रदीपन्यायेन लोकशब्दस्य संयोजनात् लोकनाभिः, अत्र भावना तु उक्तन्यायेनैव १०, चः समु- ॥३७५॥ 18| चये, अथ श्लोकबन्धेन 'अच्छे' इत्यादि, अच्छः-सुनिर्मल: जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् , चतुर्थोके षोडशसमवाये तु अत्थे |
इति पाठः, तत्र अनेन ह्यन्तरितः सूर्यादिरस्त इत्यभिधीयते, इदं च पूर्वापरमहाविदेहापेक्षया ज्ञेयं, अतोऽयमपि कारणे ।
दीप अनुक्रम
[२०२
-२०५]
~753~
Page #755
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०९]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२०२
-२०५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [४]
मूलं [ १०९ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
कार्योपचारादस्त इति ११, तथा सूर्या उपलक्षणमेतत्तेन चन्द्रादयश्च प्रदक्षिणमावर्त्तन्ति यस्य स सूर्यावर्त्तः १२, तथा सूर्यैरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्च समन्ताद् भ्रमणशीलैरात्रियते स्म - वेष्टयते स्मेति सूर्यावरणः 'कृद्बहुल' (श्रीसिद्ध० ६-१-११५१-२) मिति वचनात् कर्मण्यनट्प्रत्ययः ११, इतिशब्दो नामसमाप्तौ चः समुच्चये, तथा उत्तमो गिरिषु सर्वतोऽप्यधिकसमुन्नतत्वात्, समवायाङ्गे तु उत्तर इति पाठः, तत्र उत्तरतः - उत्तरदिग्वत्त सर्वेभ्यो भरतादिवर्षेभ्य इति यदाह – “सर्वेषामुत्तरो मेरु” रिति, ननु भरतादिभ्यः उत्तरदिग्वर्त्तित्वं जम्बूद्वीपपट्टादौ विलो | कनेन सुज्ञेयं ऐरावतादिभ्यः कथमुत्तरदिग्वर्त्तित्वं ?, उच्यते, यत्क्षेत्रीयाणां यस्यां दिशि सूर्योदयः तत्क्षेत्रीयाणां सा पूर्वेति सर्वेषां सम्प्रदायः, तेन तदनुसारेण तत्तत्क्षेत्रेषु पूर्वादिदिग्व्यवहारं जम्बूद्वीपपट्टादी गुरुहस्तकलातः परिभा व्यैरावतादिभ्योऽप्यस्योत्तरदिग्वर्त्तित्वमवसेयं १४, चः समुच्चये, दिशामादिः -प्रभवो दिगादिः, तथाहि - रुचकाद्दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्त्ती ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते १५, तथाऽवतंसः - शेखरः गिरीणां श्रेष्ठ इत्यर्थः १६, चः पूर्ववत्, अस्यैवार्थस्य निगमनमाह - इति पोडशः ।। अथ यदुक्तं- पोडशसु नामसु मन्दरेति मुख्यं नाम तन्निदानं पिपृच्छिपुराह-'से केणट्टेण'मित्यादि, व्यक्तम् ॥ उक्ता महाविदेहाः अथ तत्परतोवर्त्तिनं नीलवन्तं नाम गिरिं पिपृच्छिपुराह—
कहिणं भन्ते ! जम्बुडीचे दीवेणीलवन्ते णामं वासहरपव्वए पण ते ?, गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मगवासस्स
१०५
~754~
Page #756
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ----
--------- मूलं [११०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
JMR.
प्रत सूत्रांक [११०]
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया पृत्तिः ॥३७६।। ।
a02012900rase
[४वक्षस्कारे नीलबनिविर्णन सू. ११०
गाथा:
दक्षिणेणं पुरस्थिमिछलवणसमुहस्स पचस्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीचे २ णीलवन्ते णाम वासहरपचए पण्णसे पाईणपडीणायए नदीणदाहिणविच्छिण्णे णिसहवत्तव्वया णीलबन्तस्स भाणिअव्या, णवरं जीवा दाहिणेणं घणु उत्तरेणं एत्य णं फेसरिदहो, पाहिणेणं सीआ महाणई पवूदा समाणी उत्तरकुर एजेमाणी २ जमगपव्यए णीळयन्तउत्तरकुरुचन्देरावतमालवन्तरहे अ दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भइसालवणं एजेमाणी २ मन्दर पव्वयं दोहिं जोभणेहिं असंपत्ता पुरत्याभिमुही आवचा समाणी महे मालवन्तवक्खारपब्वयं पालयिता मन्दरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पुष्यविषहवास दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चावहिविजयाओ मट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पचर्हि सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई बालहत्ता पुरथिमेण सणसमुरं समप्पेइ, अवसिद्ध तं वत्ति । एवं णारिकतावि उत्तराभिमुही अव्वा, वरमिमं णाणसं गम्भावइवटवेअपव्ययं जोमणेणं असंपत्ता पचल्याभिमुही आवत्ता समाणी अवसिद्ध तं चेव पवहे अ मुहे अ जहा हरिकन्तासलिला इति । णीलवन्ते णं भन्ते ! बासहरपब्बए कइ कूड़ा पण्णत्ता, गोभमा! नव कूडा पं०, तंजहा-सिद्धाययणको० सिद्धेणीले २ पुग्यविदेहे । सीआ यस कित्ति ५ णारी अ६।अवरविदेहे ७ रम्मगकूड़े ८ अवसणे चेव ॥१॥ सब्वे एए कूडा पञ्चसइया रायहाणीउ (उत्तरेणं । से केजडेणं भन्ते । एवं बुधइ-गीलवन्ते वासहरपब्बए २१, गोभमा! णीले गीलोभासे णीलवन्ते म इत्य देवे महिदीए जाब परिवसइ सम्ववेरुलिआमए, णीलवन्ते जाव णिचेति (सूत्र ११०)
दीप अनुक्रम
209
[२०६
॥३७६॥
-२०८]
~ 755~
Page #757
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
------------------- मूल [११०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११०]
गाथा:
'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान्नाम्ना वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः!, उत्तरसूत्र व्यक्तं, नवरं रम्प-18 कक्षेत्र महाविदेहेभ्यः परं युग्मिमनुजाश्रयभूतमस्ति तस्य दक्षिणतः, अयं च निषधवन्धुरिति तत्साम्येन लापर्व दर्शयति-णिसह'इत्यादि, निषधवक्तव्यता नीलवतोऽपि भणितम्या, नवरमस्य जीवा-परम आयामो दक्षिणतः, उत्तरतः। क्रमेण जगत्या वक्रत्वेन न्यूनतरत्वात् , धनुःपृष्ठमुत्तरतः, अत्र केसरिद्रहो नाम द्रहः, अस्माच शीता महानदी प्रव्यूहा सती उत्तरकुरून् इयूती २-परिगच्छन्ती २ बमकपर्वती नीलवदुत्तरकुरुचन्द्ररावतमाल्यवनामकान् पश्चापि ग्रहांश्च द्विधा विभजन्ती ३ चतुरशीत्या सलिलासहरापूर्यमाणा २ भद्रशालयनमियूती २-आगच्छन्ती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां | योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पूर्वाभिमुखी परावृत्ता सती माल्यववक्षस्कारपर्वतमधो विदार्य मेरोः पूर्वस्या पूर्वमहाविदेह ॥
द्विधा विभजन्ती २ एकैकस्माञ्चक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ सलिलासहरापूर्यमाणा र आत्मना सह पञ्चभिर्नदी18 लात्रिंशता च सहस्रः समना अधो विजयस्य द्वारस्य जगतीं विदार्य पूर्वस्या लवणसमुद्रमुपैति, अवशिष्ट प्रवहन्या
सोण्डत्वादिकं तदेवेति-निषधनिर्गतशीतोदाप्रकरणोक्कमेव, अथास्मादेवोत्तरतः प्रवृत्तां नारीकान्तामतिदिशति-'एवं नारीकता'इत्यादि, एवमुकन्यायेन नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतन्या, कोऽर्थः-यथा नीलवति केसरिद्रहाद् दक्षिणाभिमुखी शीता निर्गता तथा नारीकान्ताऽप्युत्तराभिमुखी निर्गता, तर्हि अस्याः समुद्रप्रवेशोऽपि तद्वदेवेत्याशइमानमाह-नवरमिदं नानात्वं गन्धापातिनं वृत्तवैताब्यपर्वतं योजनेनासम्पामा पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती इत्यादि
Recemerocceracoccene ese
दीप अनुक्रम २०६-२०८]
~756~
Page #758
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
-------- मूलं [११०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११०]
10
गाथा:
श्रीजम्यू- कमवशिष्टं सर्व तदेव हरिकान्तासलिलावद्' भाज्यं, तद्यथा-'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिला-18| वक्षस्कारे
द्वीपशा- संहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइ २ त्ता पञ्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ'त्ति, अत्र चावशिष्टपदसंग्रहे प्रवहमुख- नीलवनिन्तिचन्द्री
व्यासादिकं न चिन्तितं, समुद्रप्रवेशावधिकस्यैवालापकस्य दर्शनात्, तेन तत् पृथगाह-अवहे च मुखे च यथा हरिकान्ता रिमू या वृत्तिः
११० सलिला, तथाहि-प्रवहे २५ योजनानि विष्कम्भेन अर्द्धयोजनमुद्वेधेन मुखे २५० योजनानि विष्कम्भेन ५ योजना-18 ॥३७७॥ न्युद्वेधेनेति, यच्चात्र हरिसलिलां विहाय प्रवहमुखयोहरिकान्तातिदेश उक्तस्तत्हरिसलिलाप्रकरणेऽपि हरिकान्ताति-18
देशस्योक्तत्वात् , अथात्र कुटानि प्रष्टव्यानि-णीलवन्ते ण'मित्यादि, नीलवति भदन्त ! वर्षधरपर्वते कति कूटानि | । प्रज्ञप्तानि?, गौतम! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूट, अत्र नवानामप्येकत्र संग्रहायेयं गाथा-'सिद्धे'त्ति
सिद्धकूट-सिद्धायतनकूट, तच्च पूर्वदिशि समुद्रासन्नं, ततो नीलवत्कूट-नीलवद्वक्षस्काराधिपकूट, पूर्वविदेहाधिपकूट || शीताकूट-शीतासुरीकूट, चः समुच्चये, कीर्त्तिकूट-केसरिद्रहसुरीकूटं नारीकूट-नारीकान्तानदीसुरीकूट, चः पूर्ववत् , |
| अपरविदेहकूट-अपरविदेहाधिपकूटं रम्यककूट-रम्यकक्षेत्राधिपकूटं उपदर्शनकूट-उपदर्शननामकं कूट, एतानि च | कूटानि हिमवरकूटवत् पश्चशतिकानि-पञ्चशतयोजनप्रमाणानि वाच्यानि वक्तव्यताऽपि तद्वत, कुटाधिपानां राजधा- IS॥३७७॥ न्यो मेरोरुत्तरस्याम् । अथास्य नामनिबन्धनं पृच्छन्नाह-से केणटेणं इत्यादि, प्रश्नः प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे चतुर्थों वर्ष-1 घरगिरिनालो-नीलवर्णवान् नीलावभासो-नीलप्रकाशः आसन्नं वस्त्वन्यदपि नीलवर्णमयं करोति तेन नीलवर्णयोगा-15
दीप अनुक्रम २०६-२०८]
JinEleinitineON
Himmitrinyou
~ 757~
Page #759
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [११०] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
नीलवान , नीलवांश्चात्र महर्द्धिको देवः पल्योपमस्थितिको यावत्परिवसति तेन तद्योगाद्वा नीलवान् , अथवा असौ ISI सर्ववैडूर्यरत्नमयस्तेन वैडूर्यरत्नपर्यायकनीलमणियोगानीलः शेष प्राग्वत् । अथ पश्चमं वर्ष प्रश्नयनाह
सूत्रांक [११०]
SE0
गाथा:
कहि णं भन्ते। जम्बुद्दीवे २ रम्मए णाम वासे पण्णत्ते, गो०णीलवन्तस्स उत्तरेणं रुप्पिरस दक्खिणेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पञ्चस्थिमेणं पत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एवं जह व हरिवासं तह व रम्मयं वासं भाणिअव्वं, णवर दक्खिणेणं जीवा उत्तरेण धणु अवसेसं सं चेव । कहि णं भन्ते। रम्मए वासे गन्धावईणामं पट्टवेअद्धपव्वए पण्णते, गोजमा! णरकन्ताए पञ्चत्यिमेणं णारीकन्ताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमादेसभाए एत्थ णं गन्धावईणामं वट्टवेअद्धे पव्वए पण्णते, जं चेव विश्रडावइस्स तं व गन्धावइस्सवि वत्तव्वं, अट्ठो बहवे उप्पलाई जाव गंधावईवण्णाई गन्धावइप्पभाई पउमे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमहिईए परिवसइ, रायहाणी उत्तरेणन्ति । से केणद्वेणं भन्ते । एवं बुच्चइ रम्मए वासे २१, गोलमा ! रम्मगबासे णं रम्मे रम्मए रमणिले रम्मए अ इत्य देवे जाव परिवसइ, से तेणटेणं० । कहिणं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ रुप्पी गाम बासहरपवए पण्णते?, गोअमा ? रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्षिणेणं पुरथिमळवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पचस्थिमलबणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्य णं जम्बुहीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपन्चए पण्णते पाईणपडीणायए बड़ीणदाहिणविच्छिण्णे, एवं जा चेव महाहिमवन्तवत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्सवि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेस तं चेव महापुण्डरीए दहे गरकन्ता णदी दक्षिणेणं णेमब्बा जहा रोहिमा पुरत्यिमेणं गच्छद, रुप्पकूला उत्तरेणं अव्या जहा हरिकन्ता पथरिथमेणं गच्छद
BARBARDANCE
दीप अनुक्रम
[२०६
-२०८]
अथ रम्यकवर्षक्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
~ 758~
Page #760
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१११]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२०९
-२११]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥३७८ ॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [४],
मूलं [१११] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... ....आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
iii
-
जम्बु
अवसेसं तं चैवति । पिनि णं भन्ते! वासरपव्यय कइ कूडा पं० १, गो० अट्ठ कूडा पं० [सं० सिद्धे १ रुप्पी २ रम्मा ३ ४ बुद्धिरुपम व ६ हेरण्णचय ७ मणिकंचण ८ अ य रुप्पिमि कूडाई ॥ १ ॥ सव्वेवि एए पंचसइआ रायहाणीओ रे से केणणं मन्ते! एवं बुध रुप्पी वासहरपव्वप २१, गोजमा रुपीणामवासहरपन्चए रुप्पी रुपपट्टे रुप्पोभासे सब्वरुपामय रूप्पी ज इत्व देवे पलिओोबमट्टिईए परिसर से एएणद्वेणं गोअमा ! एवं बुवइत्ति । कहि णं भन्ते ! दीवे २ हेरणकर णामं वासे पण्णत्ते ?, गो० ! रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरात्थिमलवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पञ्चत्थिअलवणसमुद्दस्स पुरत्थमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीचे दीवे हिरण्यवर वासे पण्णत्ते, एवं जह चैव हेमवयं तह चैव हेरण्णवपि भागअयं णबरं जीवा दाहिनेणं उत्तरेणं दणुं अवसिद्धं तं चैवति। कहि णं भन्ते ! हेरण्णवए वासे मालवन्तपरिआए णामं वट्टवेअद्धपव्वद पं० १, मो० ! सुवण्णफूलाए पचत्विमेणं रुपकूलाए पुरत्थिमेणं एत्व णं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्यसभाए मालवन्तपरिआए णामं वहने पं० जह चैव सहावइ तह चैव मालवंतपरिभावि, अहो उप्पलाई पउमाई मालवन्तप्पभाई मालवन्तवण्णाई मङ्गलवन्तवण्णाभाई पभासे अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओनमडिईए परिवस, से एएणट्टेणं०, राजद्दाणी उत्तरेणंति से केणद्वेण भन्ते ! एवं दुबइ हेरण्णव बासे २१, गोजमा ! हेरण्णकए णं वासे रुप्पीसिहरीहिं वासहरपव्व एहिं दुहओ समवगूढे निषं हिरणं दल जिवं हिरण्णं मुंचइ शिवं हिरण्णं पगासइ हेरण्णवद अ इत्थ देवे परिवसह से एएणद्वेणंति । कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सिहरी णामं बाहर बण्णत्ते !, गोणमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेण एरावयस्स दाहिनेणं पुरस्चिमलवणसमुहस्स पचत्विमेणं पञ्चत्थिंमलवणसमुइस पुरस्थमेणं, एवं जह हबन्धो वह चैव सिहरी जीवन हिणं व उत्तरेवं तं देव पुण्डरी दहे
Fu Pale&ae Cy
~ 759 ~
४ वक्षस्का
रम्यकादीनिस्. १११
॥३७८॥
Page #761
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [४], ------
------------------- मूल [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
गाथा
सुवष्णकूला महाणई दाहिणणं भव्या जहा रोहिसा पुरल्थिमेणं गच्छद, एवं जह चेव गंगासिन्धमो तह पेच रत्तारसवानो गेमब्वाबो पुरथिमेणं रत्ता पचत्यिमेण रत्तवई अबसिहं तं चेन, [अनसेसं भाणिअवंति]। सिहरिम्मियं भन्ते! वासहरपम्बए का कूड़ा पण्णता !, गो० इकारस कूडा पं० त०-सिद्धाययणकूडे १ सिहरिकूढे २ हेरण्णवयकूडे ३ मुवण्णकूलाकूडे ४ मुरादेवीकूड़े ५ रचाकूड़े ६ लच्छीफूडे ७ रत्तवईकूड़े ८ इलादेवीकूडे ९ एरवयकूडे १० तिगिच्छिकूडे ११, एवं सब्वेवि कूड़ा पंचसहभा रायहाणीयो उत्तरेणं । से फेणद्वेणं भन्ते! एवमुच्चा सिद्दरिवासहरपब्वए २१, गोअमा! सिहरिमि वासहरपव्वए बहने कूडा सिहरिसठाणसंठिआ सन्वरयणामया सिहरी अ इत्य देवे जाव परिवसइ, से तेणद्वेण । कहि णं भन्ते । जम्बुरीने वीवे एरावए णाम वासे पण्णते, गोभमा। सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलषणसमुहस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्यिमेणं पचत्थिमळवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं, एत्य णं जम्बुडीवे दीवे एरावए णाम कासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्स वत्तव्वया सव सपा निरवसेसा
अब्बा सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणा णवर एरावसे पावट्टी परावओ देवो, से तेणडेणं एरावए वासे २ । (सूत्र १११) प्रश्नः मतीता, उत्तरसूत्रे नीलवच उत्तरस्वं रुक्मिणो-वक्ष्यमाणस्य पश्चमवर्षकराद्रेर्दक्षिणस्यां एवं बथैव हरिवर्ष तथैव रम्यक वर्ष यश्च विशेषः सनबरमित्यादिना सूत्रेण साक्षादाह-'दक्षिणेणं जी'त्यादि, व्यक्तम् , अय यदुक्क नारीकान्ता नदी रम्पकवर्ष मच्छन्ती सन्धापातिन वृत्तवताव्यं योजनेनासम्प्राप्ठेति, तदेष गन्धापाती कास्तीति पृच्छति-पहि 'मित्यादिक भदन्त ! रम्पके वर्षे वयापाती नाम इवतान्यपर्वतः प्रज्ञतः, गौतम! नरका
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
करक
ARA
धीमम्न (४
~ 760~
Page #762
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
28
प्रत
सूत्रांक [१११]
का
निसू-१११
गाथा
श्रीजन-1हान्ताया महानद्याः पाश्चमायां नारीकान्तायाः पूर्वस्यां रम्यकवर्षस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे गन्धापाती नाम पत्त-विक्षस्कारे
दीपशा-18 वैताड्यः प्रज्ञप्तः, यदेव विकटापातिनो हरिवर्षक्षेत्रस्थितवृत्तवैताम्यस्योच्चत्वादिकं तदेव गन्धापातिनोऽपि वक्तव्यं, यच्च न्तिचन्द्री-18|सविस्तरं निरूपितस्य शब्दापातिनोऽतिदेशं विहाय विकटापातिनोऽतिदेशः कृतस्तत्र तुल्यक्षेत्रस्थितिकत्वं हेतुः, अत्र || या वृचिः
18| यो विशेषस्तमाह-अर्थस्त्वयं-यक्ष्यमाणो बहून्युत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि-तृतीयवृत्तवैताब्यवर्णानि गम्धापा-18 ॥३७९॥ ॥ तिवर्णसदृशानीत्यर्थः रक्तवर्णत्वात् गन्धापातिप्रभाणि-न्धापातिवृत्तवैताळ्याकाराणि सर्वत्र समत्वात् तेन तद्वर्ण-18
खात् तदाकारत्वाच गन्धापातीनीत्युच्यन्ते, पद्मश्चात्र देवो महर्द्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तयोगा-18 शत्तरस्वामिकत्वाच गन्धापातीति, यथा च विसदृशनामकस्वामिकत्वेन नामान्वर्थोपपत्तिस्तथा प्रागभिहितं, अस्याधिपस्य
राजधान्युत्तरस्यां। अथ रम्यकक्षेत्रनामनिवन्धनमाह-से केणटेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेरम्यक वर्ष २१, गौतम! रम्यक वर्ष रम्यते-क्रीच्यते नानाकस्पद्रुमैः स्वर्णमणिखचितैश्च तैस्तैः प्रदेशेरतिरमणीयतया 8 रतिविषयता नीयते इति रम्यं रम्यमेव रम्यकं रमणीयं च त्रीण्येकाथिकानि रम्यतातिशयप्रतिपादकानि, रम्यकश्चात्र देवो यावत् परिवसति तेन तद् रम्यकमिति व्यवहियते । अथ पञ्चमो वर्षघर:-'कहिणं भन्ते !' क भदन्त ! ॥३७९॥
जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः', गौतम! रम्यकवर्षस्य उत्तरस्यां वक्ष्यमाणहरण्यवतक्षेत्रस्य दक्षि३णयां पूर्वलवणसमुद्रस्य पश्चिमात्यां पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मीनाना पञ्चमो वर्षधरः
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
Saeeeeee
~ 761~
Page #763
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], ------
--------- मूलं [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१११]
प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उत्तरदक्षिणयोर्विस्तीर्णः, एवमुक्तानुसारेण यैव महाहिमवद्वर्षधरवक्तव्यता सैव रुक्मिशाणोऽपि पर दक्षिणतो जीवा उत्तरस्यां धनुःपृष्टं अवशेष-व्यासादिकं तदेव-द्वितीयवर्षधरप्रकरणोक्कमेव, द्वयोः परस्परं | समानत्वात् , महापुण्डरीकोऽत्र द्रहो महापद्मद्रहतुल्या, अस्माञ्च निर्गता दक्षिणतोरणेन नरकान्ता महानदी नेतव्या,
अत्र च का नदी निदर्शनीयेत्याह-'जहा रोहिय'त्ति यथा रोहिता 'पुरथिमेणं गच्छति पूर्वेण गच्छति समुद्रमिति | शेषः, यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मद्रहतो दक्षिणेन प्रव्यूढा सती पूर्वसमुद्रं गच्छति तथैषाऽपि प्रस्तुतवर्षधराइक्षिणेन निर्गता पूर्वेणाब्धिमुपसर्पतीति भावः, रूप्यकूला उत्तरेण-उत्तरतोरणेन निर्गता नेतन्या, यथा हरिकान्ता हरिवर्षक्षेत्रवाहिनी महानदी 'पच्छत्थिमेणं गच्छइ'त्ति पश्चिमाब्धि गच्छति, अथ नरकान्तायाः समानक्षेत्रवर्तित्वेन
हरिकान्तायाः रूप्यकुलायास्तु रोहिताया अतिदेशो वक्तुमुचित इत्याह-अवशेष-गिरिगन्तव्यमुखमूलव्याससरित्IS सम्पदादिकं वक्तव्यं तदेवेति-समानक्षेत्रवर्तिसरित्प्रकरणोक्तमेव, तच्च नरकान्ताया हरिकान्ताप्रकरणोतं रूप्यकूला
यास्तु रोहिताप्रकरणोतं, यत्तु नरकान्ताया अतुल्यक्षेत्रवर्तिन्या रोहितया सह रूप्यकूलायास्तु हरिकान्तया सहातिदेशकथनं तत्र समानदिनिर्गतत्वं समानदिग्गामित्वं च हेतुः । अथात्र कूटवक्तव्यमाह-रुष्पिमिणमित्यादि, रुक्मिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! अष्ट कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमं समुद्रदिशि सिद्धायतनकूट ततो रुक्मिकूट-पञ्चमवर्षधरपतिकूटं रम्यकूट-रम्यकक्षेत्राधिपदेवकूटं नरकान्तानदीदेवीकूटं बुद्धिकूट-8
ecemesesesese
गाथा
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
~762~
Page #764
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
..................-------- मूलं [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१११]
गाथा
श्रीजम्बू महापुण्डरीकनहसुरीकूटं रूप्यकुलानदीसुरीकूट हैरण्यवतकूट-हरण्यवतक्षेत्राधिपदेवकूटमणिकाश्चनकूट, एतानि पाम्प-18||
४वक्षस्कारे द्वीपशा- रायतश्रेण्या व्यवस्थितानि पञ्चशतिकानि सर्वाण्यपि, राजधान्यः कूदाधिपदेवानामुत्तरस्यां । सम्प्रत्यख नामनिदान रम्यकादीन्तिचन्द्री-18 पर्यनयुद्धे-से केण?ण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-रुक्मी वर्षधरपर्वतः २ इति', गौतम ! रुक्मी | निस.१११ या वृत्तिः 18 वर्षधरपर्वतो रुक्म-रूप्यं शब्दानामनेकार्थत्वात् तदस्यातीति रुक्मी एष सर्वदा रूप्यमयः शान्पतिक इसि नित्य-18] ॥३८॥ योगे इन् प्रत्ययः, 'रूप्यावभासो' रूप्यमिव सर्वतोऽवभास:-प्रकाशो भास्वरत्वेन यस्यासौ तथा, एतदेव व्याचष्टे
सर्वात्मना रूप्यमय इति, रुक्मी चात्र देवस्ततस्तन्मयत्वात् तत्स्वामिकत्वाच्च रुक्मीति व्यपदिश्यते । अथ पठं वर्षे | विभावयितुमाह-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे हैरण्यवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम्, गौतम ! रुक्मिणो वर्षक| रस्योत्तरस्यां शिखरिणो वक्ष्यमाणवर्षधरस्य दक्षिणस्यां 'पुरथिम' त्यादि प्राग्वत् अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यत्र
तनाम वर्ष प्रज्ञप्तम् , एवमुक्कामिलापेन यथैव हैमवतं तथैव हैरण्यवतमपि भणितव्यं, 'नवर'मित्यादि पाठसिद्ध, अब|शिष्ट-व्यासादिकं तदेव-हरण्यवतवर्षप्रकरणोकमेवेति । अथ माल्यवत्पर्यायो वृत्तवैतात्यः कास्तीति पृच्छति कहि 'मित्यादि, क भदन्त । हैरण्यवसवर्षे माल्यवत्पर्यायो नाम वृत्तवैताब्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम! सुवर्णफूलाया|
॥३८॥ 8 अवैव क्षेत्रे पूर्वगामिमहानद्याः पश्चिमतो रूप्यकूलायाः अत्रैव पश्चिमगामिमहानद्याः पूर्णतः हैरण्यवतस्य वर्षस्य बहुम
ध्यदेशभागेऽवान्तरे माल्यवपर्यायो नाम वृत्तवैवान्यपर्वतः प्रसा, मथैव शब्दापाती तथैव मास्पबत्सर्याया, विशेष
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
~ 763~
Page #765
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], -----
--------- मूलं [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१११]
गाथा
इ) स्वर्षे इति समाह-अर्थोऽयं उत्पलानि-पमामि उपलक्षणात् सपनादिप्रहः माल्यवत्प्रमाणि माल्यवहानि माय-18 वर्षाभानीति माग्वत् , प्रभासश्चात्र देवः पल्योपमस्थितिका परिवसति से तेणतुण मित्यादि निगममत्रं प्राग्वत्, राजधानी तस्सोत्तरस्यां शब्दापातिनस्तु दक्षिणस्यां मेरोरिति, अथ हैरण्यवतनानोऽर्थव्यक्तये पृच्छति सेकेण्डेणमित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हैरण्यवतं वर्ष हैरण्यवतं वर्षमिति?, गौतम! हैरण्यवतं वर्ष सक्सिवितरियो । वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः-उभयोर्दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समुपगूढं-समालिङ्गितं, कृतसीमाकमित्यर्थः, अब कथमाया।
समालिङ्गितत्वेनास्य हैरण्यवतमिति नाम सिद्धं !, उच्यते, रुक्मी शिखरी च द्वाषप्येतौ पर्षतौ यथाक्रम सम्याग-1 13 मयौ यश यन्मयं तत्र तद्विद्यते हिरण्यशब्देन सुवर्ण रूप्यमपि च ततो हिरण्य-मुघर्ण विद्यते यस्खासी हिरण्यरा-11 18| शिखरी हिरण्यं-रूप्यं विद्यते बस्थासौ हिरण्यवान्-रुक्मी द्वयोः हिरण्यवतोरिदं हैरण्यवतम् , यदिषा हिरण्यं जनेया। 18 आसमप्रदानादिना प्रयञ्चति अथवा दर्शनमनोहारितया सत्र तत्र प्रदेशे हिरण्यं जमेभ्यः प्रकाशयति, साहि
बहबस्तत्र मिथुनकमनुष्याणामुपवेशनशयनाविरूपोपभोगयोग्या हिरण्यमयाः शिलापहकाः सन्ति पस्वन्तिम प्यास्तत्र तत्र प्रदेशे मनोहारिणो हिरण्यमयानिवेशान ततो हिरण्यं प्रशस्वं प्रभूतं नित्ययोगि बाऽस्यातीति हिरण्यक्त तदेव हरण्यवतं, स्वार्थेऽणप्रत्ययः, यदिवा हैरण्यवतनामात्र देवः पस्योपमस्थितिका जापिपरवं परिपायसिनेसस्वामिकत्वाद्धरण्यवतम् । अथ पवर्षभरायसर:-'कहि 'मित्यादि, भदन्त ! जम्बूद्वीपे डीपे बिसरीमामवर्ष-19
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
Jimillennitioting
~ 764~
Page #766
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [४], ------
------------------- मूल [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
बापचा
गाथा
श्रीवम्- धरपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम। हैरण्यवतस्योत्तरस्या ऐरावतस्य-वक्ष्यमाणसप्तमक्षेत्रस्य दक्षिणस्या 'पुरत्यिमे स्यादि श्वश्वस्तारे न्तिचन्द्री
प्राग्वत्, एवमुक्ताभिलापेन यथा क्षुद्रहिमवान् तथैव शिखर्यपि, नवरं जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अवशिष्टं तदेवेति- रम्पकादीया चिः
क्षुद्रहिमवत्प्रकरणोक्कमेव, तत्र पुण्डरीको द्रहः, तस्मात्सुवर्णकूला महानदी दक्षिणेन निर्गता नेतव्या, परिवारादिना च निस.१११
यथा रोहितांशा, सा च पश्चिमायां समुद्रं प्रविशति इयं च पूर्वस्यामित्यत आह-'पुरस्थिमेणं गच्छई' एवमुक्ताभि॥३८॥
लापेन सुवर्णकूलायाः रोहितांशातिदेशन्यायेन, यथैव गङ्गासिन्धू तथैव रक्तारकवत्यौ नेतव्ये, तत्रापि दिग्व्यक्तिमाहपूर्वस्या रका पश्चिमायां रक्तावती अवशिष्टं तदेव-गङ्गासिन्धुपकरणोक्तमेव सम्पूर्ण नेतव्यं, अथात्र कूट| वक्तव्यमाह-सिहरिम्मिणं भन्ते! वासहरपथए'इत्यादि, शिखरिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! एकादश कूटानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-पूर्वस्यां सिद्धायतनकूट, ततः क्रमेण शिखरिकूट-शिखरिवर्षधरनाम्ना कूटं हैरण्यवतक्षेत्रसुरकूटं सुवर्णकूलानदीसुरीकूटं सुरादेवीदिकुमारीकूटं रक्कावर्तनकूटं लक्ष्मीकूट-पुण्डरीकद्रहसूरीकूद रताव
त्यावर्तनकूटं इलादेवीदिक्कुमारीकूटं तिगिच्छिद्रहपतिकूट एवं सर्वाण्यप्येतानि पञ्चशतिकानि ज्ञातव्यानि, क्षुद्रहिमवत्M कूटतुल्यवक्तव्यताकानि ज्ञेयानि, एतत्स्वामिना राजधान्य उत्तरस्यामिति । अथास्य नामनिबन्धनं प्रष्टुमाह से केण-18
IN ॥३८॥ टेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते शिखरीवर्षधरपर्वतः २१, गौतम! शिखरिणि पर्वते बहूनि कूटानि I 18 शिखरी-वृक्षस्तत्संस्थानसंस्थितानि सर्वरलमयानि सन्तीति तद्योगाच्छिखरी, कोऽर्थः-अत्र वर्षधराद्रौ यानि सिद्धाय
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
~ 765~
Page #767
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [४], -----
---------------- मूल [१११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
गाथा
तनकूटादीन्येकादश कूटान्युक्तानि तेभ्योऽतिरिक्तानि बहूनि शिखराणि वृक्षाकारपरिणतानि सन्तीति, अनेन चान्येभ्यो वर्षधरेभ्यो ब्यावृत्तिः कृता, अन्यथा तेषामपि कूटवत्वेन शिखरित्वव्यपदेशः स्यादिति, अथवा शिखरी चात्र देवो महर्बिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति तेन तत्स्वामिकत्वात् शिखरीति, से तेणद्वेण'मित्यादि निगमन-18 वाक्यं पूर्ववदिति । अथ सप्तमवर्षावसर:-'कहिण'मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ।, गौतम! शिखरिणो वर्षधरस्योत्तरस्यां उत्तरदिग्वतिनो लवणसमुद्रस्य दक्षिणस्या 'पुरस्थिमे त्यादि प्राग्वत् अत्रान्तरे॥४ जम्बूद्वीपे ऐरावतं नाम वर्षे प्रज्ञावं, स्थाणुबहुलं कण्टकबहुलं एवमनेन प्रकारेण यैव भरतस्य वक्तव्यता सेवास्थापि सर्वा निरवशेषा नेतव्या, यतो यन्मेरोदक्षिणभागे तमिरवशेषमुत्तरेऽपि भागे भवति, यथा वैतान्येन द्वेधा कृतं भरतमि-18 त्यायुक्तं तथैवैरावतेऽपि विज्ञेयमिति, सा च कथंभूतेत्याह-सओअवणा-पट्खण्डैरावतक्षेत्रसाधनसहिता सनिक्स-181 मणा-दीक्षाकल्याणकवर्णकसहिता सपरिनिर्वाणा-मुक्तिगमनकल्याणकसहिता, नवरं राजनगरी क्षेत्रदिगपेक्षया ऐरावतोत्तरार्द्धमध्ये तापक्षेत्रदिगपेक्षया त्वेषाऽपि दक्षिणार्द्ध एव केवलमिह शास्त्रे क्षेत्रदिगपेक्षया व्यवहारः, क्षेत्रविक् च 'इंदा | विजयदाराणुसाराओं' इत्यादिना भावनीयेति, तथा वैतादयश्चात्र विपर्ययनगरसङ्ख्यः, जगत्यनुरोधेन क्षेत्रसाङ्कीयात् , 18| तथैरावतनामा चक्रवर्ती वक्तव्यः, कोऽर्थः?-यथा भरतक्षेत्रे भरतश्चक्रवती तस्य च दिग्विजयनिष्क्रमणादिकं निरूपितं
तथैरावतचक्रवर्तिनो वाच्यं, अनेन चैरावतस्वामियोगादरावतमिति नाम सिद्धं, अथवा ऐरावतो नाम्नाऽत्र
दीप अनुक्रम [२०९-२११]
SINEllenni
~ 766~
Page #768
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
ལྦཎྞསྒྲོཝཱ ༈༙ +ཊྛལླཱཡྻ
वक्षस्कार [४],
मूलं [१११] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपक्षान्तिचन्द्रीया वृचिः
॥३८२ ॥
Jan Eikemot
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
देवो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति चेत्वभ्यांहार्य, तेन तत्स्वामिकत्वादैरावतमिति व्यवह्रियते इति निगमनवाक्यं स्वयमम्यूह्यम् ॥
इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानयेदयुगी मनराधिपतिचक्रवर्त्तिसमानश्री अकम्परसुरत्राणप्रदत्तषाण्मासिकस र्वजगज्जन्तुजाता भयप्रदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृ
तिबहुमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छविराजश्रीहीरविजयसूरीम्बरपदपद्मोपासना
अत्र चतुर्थ- वक्षस्कारः परिसमाप्तः
प्रवणमहोपाध्यायश्रीसकल चन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञसिवृत्तौ रत्नमञ्जूषाना क्षुद्रहिमवदादिवर्षधरैरावतान्तवर्षवर्णनो नाम चतुर्थी वक्षस्कारः ॥
Fur Fate &P Cy
~767~
४वक्षस्कार रम्यकादी
नि स. १११
॥ ३८२॥
Page #769
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११२]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२१२
-२१४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११२] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
esesentatoeses
अथ पञ्चमो जिनजन्माभिषेकाख्यो वक्षस्कारः ।
सम्प्रति यदुक्तं पाण्डुकम्बलाशिलादी सिंहासनवर्णनाधिकारे 'अत्र जिना अभिषिच्यन्ते' तत्सिंहावलोकनन्यायेनानुस्मरन् जिनजन्माभिषेकोत्सवर्णनार्थ प्रस्तावनासूत्रमाह
जया णं एकमेके चकवट्टिविजए भगवन्तों तित्थयरा समुप्पज्जन्ति तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थब्बाओ अठ्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ सपछि २ कूडेहिं सहि २ भवणेहिं सएहिं २ पासायवडेंसपछि पत्ते २ चउहिं सामाजिसाहस्सीहिं चाहं महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं सतहिं अणिएहिं सतहिं अणिआहिवईहिं सोलसपछि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहि अ बहूहिं भवणवद्द्वाणमन्तरेहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धि संपरिवुडाओ महया हयणदृगीयवाइअ जाब भोगभोगाई भुंजमाणीओ बिहरंति, संजदा-भोगंकरा १ भोगवई २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । तोयधारा ५ विचित्ता व ६, पुप्फमाला ७ अदि ८ ॥ १ ॥ णं तासिं अहेलोगवत्यव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं पत्ते आसणाई चलंति, ar णं ताओ अहेलोगवत्थब्बाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्तेयं २ आसणाई चलिआई पासन्ति २ ता ओहिं पति परंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोपंति २ त्ता अण्णमण्णं सदाविति २ चा एवं बयासी उप्पण्णे खलु भो ! जम्बुदीवे दीवे भयवं ! तित्थयरे तं जीयमेअंती अपप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्थवाणं अट्ठण्णं दिसाकुमारीमद्दचरिआणं भगवभो ति
*** जिनेश्वरस्य जन्म अभिषेकस्य वर्णनं आरभ्यते
For P&False Cnly
अथ पञ्चम वक्षस्कार: आरभ्यते
~768~
Page #770
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
..................-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२]
18/५वक्षस्कारे
दिकुमा
श्रीजम्या द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः ॥३८३॥
सामू. ११२
गाथा
स्थगरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामों णं अम्हेवि भगवओं जम्मणमहिमं करैमोत्तिक एवं वर्षति २ चा पत्ते पत्तों आभिमोगिए देवे साति २ चा एवं क्योसी-खिप्पामेव भों देवाणुप्पिा! अणेगसम्भसयसण्णिपिढे लीलटिम एवं विमाणवण्णमो भाणिभवो जाव जोमणविविधपणे दिव्वे जाणविमाणे विउवित्ता एमाणत्तिों पापिणहत्ति।सए ण ते आमिमोगा देवा अणेगसम्भसय जाव पचप्पिणति, तए ण ताओ अहेलोगवत्थव्याओं अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ हद्वतुढ० पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणिअसाहसीहि घउहि महत्तरिआदि जाव अण्णेहिं बहूहिँ देवेहिं देवीहि अ सर्वि संपरिखुडाभो ते दिवे जाणवि. माणे दुरूहंति दुरूहिता सन्धिट्टीए सम्वजुईए चणमुइंगपणवपचाइअरवेणं ताए उकिट्ठाए जाव देवगईए जेणेक भगवओ तित्वगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जन्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवओ तित्थयस्स जम्मणभवणं तेहिं विव्येहि जाणविमाणेहिं तिसुत्तो आयाहिणपयाहिण करेंति करित्ता उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए इंसि परंगुलमसंपत्ते धरणिले ते दिवे जाणविमाणे ठविति ठवित्ता पो २ पाहि सामाणिअसहरसेहि जाप सद्धिं संपरिवुद्धाओ दिव्येहिती जाणविमाणेहितो पचोरहंति २त्ता सब्बिद्धीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २सा भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति २ ता पत्ते २ करयलपरिग्गहि अं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं वयासीणमोत्थु ते रयणकुचिधारिए जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स चक्सुणो अ मुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हिअकारगमगादेसियपागिद्धिविभुपभुस्स जिणस्स णाणिस्स नायगस्स बुहस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुम्भवस्स जाईए १ सम्बनगमगलरसेति प्राग्वत, न पात्र पीनरुतमं शहनी, स्तुती तदभावात्, गदुर्ग-रामायर
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
॥३८३॥
~ 769~
Page #771
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११२]
गाथा
सत्तिबस्स जैसि लोगुतमस्स जणणी धण्णासि तं पुण्णासि कयंत्यासि अम्हे गं देवाणुप्पिए! हेलींगवरथनाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम करिस्सामो तण्णं तुम्भेहिं म भाइव्वं शतिक? उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकामन्ति २ ता बेउल्विअसमुग्धापणं सम्मोहणंति २ ता संखिज्जाई जोषणाई दंड निसरति, संजहा-रयणाणं जाच संबगवाए विउत्थंति २त्ता तेणं सिवेणं मउएणं मारएणं अणुकुएर्ण भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं सोपभसुरहिकुसुमगन्धाणुवासिएणं पिण्डिमणिहारिमेणं गन्धुदुएणं तिरि पवाइएणं भगवओ सिस्थयरस्स जम्मणभवणस्स सध्यभो समन्ता जोगणपरिमण्डलं से जहा णामए कम्मगरदारए सिआ जाव तहेव जे तस्थ तणं वा पत्तं वा कहूं वा कथवरं वा असुइमचोक्षं पूइभ दुन्भिगन्ध तं सव्वं आहुणिम २ एगन्ते एडेति २ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव ख्वागच्छन्ति २ त्ता भगवो तित्थयरस्स तित्थयरमावाए अ अदूरसामन्ते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति । (सूत्र ११२)
यदा-यस्मिन् काले एकैकस्मिन् चक्रवर्तिविजेतव्ये क्षेत्रखण्डे भरतैरावतादौ भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते-जाय-18 ॥॥न्ते तदाऽयं जन्ममहोत्सवः प्रवर्तते इति शेषः, अत्र च चक्रवर्तिविजये इत्यनेनाकर्मभूमिषु देवकुर्वादिषु जिनजन्मा-1 || सम्भव इत्युक्तं भवति, एकैकस्मिन्नित्यत्र वीप्साकरणेन च सर्वत्रापि कर्मभूमौ जिनजन्मसम्भवश्च यथाकालमभिहित
इति, तत्र चादौ षट्पञ्चाशतो दिकुमारीणामितिकर्तव्यता वक्तव्या, तत्राध्यधोलोकवासिनीनामष्टानामिति तासां | स्वरूपमाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले सम्भवज्जिनजन्मके भरतराषतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे महावि-18
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
seededeseser
~770~
Page #772
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ------
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११२]
गाथा
श्रीजम्बू- देहेषु चतुर्थारकप्रतिभागलक्षणे, तत्र सर्वदापि तदाद्यसमयसदृशकालस्य विद्यमानत्वात् तस्मिन् समये-सर्वत्राप्यर्द्ध- ५वक्षस्कारे द्वीपशा
|| रात्रलक्षणे, तीर्थकराणा हि मध्यरात्र एव जन्मसम्भवात्, अधोलोकवास्तव्या:-चतुर्णा गजदन्तानामधः समभूतला- दिकुमायुन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
नवशतयोजनरूपा तिर्यग्लोकव्यवस्था विमुच्य प्रतिगजदन्तं द्विद्विभावेन, तत्र भवनेषु वसनशीलाः, यत्तु गजदन्तानां || षष्ठपञ्चमकूटेषु पूर्व गजदन्तसूत्रे आसां वासःप्ररूपितस्तत्र क्रीडार्धमागमनं हेतुरिति, अन्यथा आसामपि चतुःशतयो
११२ ॥३८४॥ जनादिपश्चशतयोजनपर्यन्तोश्चत्वगजदन्तगिरिगतपञ्चशतिककूटगतप्रासादावतंसकवासित्वेन नन्दनवनकूटगतमेघङ्करा-1॥ IS दिदिकुमारीणामिवोर्ध्वलोकवासित्वापत्तिः । अथ प्रकृतं प्रस्तुमः, अष्टौ दिकुमार्यो-दिक्कुमारभवनपतिजातीया महत्त
रिकाः-स्ववर्येषु प्रधानतरिकाः स्वकेषु स्वकेषु कूटषु-गजदन्तादिगिरिवत्तिषु स्वकेषु २ भवनेषु-भवनपतिदेवावासेषु । स्वकेषु २ प्रासादावतंसकेषु-स्वस्वकूटवर्तिक्रीडावासेषु, सूत्रे च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् , प्रत्येकं २ चतुर्भिः सामानिकानां-दिकुमारीसदृशद्युतिविभवादिकदेवानां सहस्रः चतसृभिश्च महत्तरिकादिभि:-दिकुमारिकातुल्यविभवा-131 भिस्ताभिरनतिक्रमणीयवचनाभिश्च स्वस्वपरिवारसहिताभिः सप्तभिरनीकैः-हस्त्यश्वरथपदातिमहिषगन्धर्वनाव्यरूपैः सप्त-1131 भिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षकदेवसहरित्यादिकं सर्व विजयदेवाधिकार इव व्याख्येयं, ननु कासाश्चित् |
॥३८॥ दिकुमारीणां व्यक्त्या स्थानाङ्गे पस्योपमस्थितेर्भणनात् समानजातीयत्वेनासामपि तथाभूतायुषः सम्भाव्यमानत्वाद् भवनपतिजातीयत्वं सिद्धं तेन भवनपतिजातीयानां वानमन्तरजातीयपरिकरः कथं सङ्गच्छते !, उच्यते, एतासां महर्दि
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~771~
Page #773
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२]
गाथा
कत्वेन थे आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति, अथवा वानमन्तरशब्देनात्र वनानामन्तरेषु चरन्तीति योगिका-18 र्थसंश्रयणात् भवनपतयोऽपि वानमन्तरा इत्युच्यन्ते, उभयेषामपि प्रायो वनकूटादिषु विहरणशीलत्वादिति | सम्भाव्यते, तत्वं तु बहुश्रुतगम्यमिति सर्व सुस्थम् , आसां नामान्याह-'तंजहा' इत्यादि, तद्यथा-भोगकरेत्यादिरूपकमेतत् , कण्ठयं ॥ अथैतास्वेवं विहरन्तीषु सतीषु किं जातमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततस्तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिकुमारीणां महत्तरिकाणां प्रत्येकरमासनानि चलन्तीति, अर्थताः किं किमकाघुरित्याह-'तए ण'-18 मित्यादि, ततः-आसनप्रकम्पानन्तरं ता:-अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिकुमार्यों महत्तरिकाः प्रत्येकं २ आसनानि चलितानि पश्यन्ति दृष्ट्वा चावधि प्रयुञ्जन्ति प्रयुज्य च भगवन्तं तीर्थकरमवधिना आभोगयन्ति आभोग्य च अन्यमन्य
शब्दयन्ति शब्दयित्वा च एवमवादिषुः, यदवादिषुस्तदाह-'उप्पण्णे इत्यादि, उत्पन्नः खलु भो! जम्बूद्वीपे द्वीपे || भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत्-कल्प एपोऽतीतप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिककुमारीमहत्तरिकाणांए
भगवतो जन्ममहिमा कर्त्त, तद् गच्छामो वयमपि भगवतो जन्ममहिमा कुर्म इतिकृत्वा-धातूनामनेकार्थत्वानिश्चित्य मनसा एवं-अनन्तरोक्तं वदन्ति, उदित्वा च प्रत्येकं २ आभियोगिकान देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवा-16 1 दिषुः, किमवादिपुरित्याह-खिप्पामेव'इत्यादि, भो देवानुप्रियाः! क्षिप्रमेव अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थितशालभञ्जिकाकानीत्येवमनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः, स चाय-'ईहामिगउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नर
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
श्रीजम्ब.५
~772 ~
Page #774
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११२]
1% 81 ११२
गाथा
श्रीजम्बू-18|| रुरुसरभचमरकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवइरवेइआपरिगयाभिरामे विज्जाहरजमलजुअलजन्तजुत्ते विव वक्षस्कारे
IN अधीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिभिसमाणे चक्खुल्लोअणलेसे सुहफासे सस्सिरीअरूवे घंटावलि-|| दिकुमायुन्तिचन्द्रीया इचिः
अमहरमणहरसरे सुभे कंते दरिसणिजे निउणोविअमिसिमिसेंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्ते'ति, कियत्पर्यन्त-18| सवः सू.
| मित्याह-यावद्योजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानाय-इष्टस्थाने गमनाय विमानानि अथवा यानरूपाणि-वाहनरूपाणि | ॥३८॥1 विमानानि यानविमानानि विकुर्वत-वैक्रियशक्त्या सम्पादयत विकुर्वित्वा च एनामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत, अथ यान विमा-11
|नवर्णकव्याख्या प्राग्वद् ज्ञेया, तोरणादिवर्णकेषु एतद्विशेषणगणस्य ब्याख्यातत्वात् , ततस्ते किं चकुरित्याह-'तए ण'-181 मित्यादि ततस्ते आभियोगिका देवा अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि यावदाज्ञा प्रत्यर्णयन्ति, अर्थताः किं कुर्वन्तीत्याह-18 'तए णं ताओ'इत्यादि, ततस्ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः हद्वततुल्यायेकदेशदर्शनेन सम्पूर्ण
आलापको ग्राह्यः, सचार्य-हडतुदृचित्तमाणदिआ पीअमणा परमसोमणस्सिआ हरिसवसविसप्पमाणहिअया विअसिअ| वरकमलनयणा पचलिअवरकडगतडिअकेकरमउडकुण्डलहारविरायंतरइअवच्छा पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरा ससं| भमं तुरिअंचवलं सीहासणाओ अब्भुडेन्ति २ चा पायपीढाओ पचोरुहन्ति २त्ता' इति प्रत्येक २ चतुर्भिः सामानिक|| सहीः चतसृभिक्ष महत्तरिकाभिर्यावदन्यै बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृताः तानि दिव्यानि यानविमानान्यारो- हन्ति, आरोहणोत्तरकालं येन प्रकारेण सूतिकागृहमुपतिष्ठन्ते तथाऽऽह-'दुरहित्ता'इत्यादि, आरुह्य च सर्वेन्यो ||
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~ 773~
Page #775
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ------
..................-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Geere
[११२]
गाथा
सर्वद्युत्या घनमृदङ्ग-मेघवन् गम्भीरध्वनिकं मृदङ्गं पणयो-मृत्पटहः, उपलक्षणमेतत् तेनाम्येषामपि तूर्याणा संग्रहः, 18 एतेषां प्रवादितानां यो रवस्तेन, तया उत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरिआए चवलाए' इत्यादिपदसंग्रहः प्राग्वत् देवगत्या 18| यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य
जन्मभवन तैर्दिव्यैर्यानविमानैखिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, बीन् वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः, त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे-ईशानकोणे ईपञ्चतुरङ्गुलमसम्प्राप्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि | स्थापयन्तीति, अथ यच्च कुस्तदाह--'ठवित्ता' इत्यादि, स्थापयित्वा च प्रत्येक २ अष्टावपीत्यर्थः चतुर्भिः सामानिकसहौ-101 वित् सा“ सम्परिता दिव्येभ्यो यान विमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य च सर्वचर्षा यावच्छब्दात् सर्वेद्युत्यादि-16 परिग्रहः कियत्पर्यन्त मित्याह--'संखपणवभेरिझलरिखरमुहिएडकमुरजमुईगहिनिघोसनाइएणं'ति, यत्रेय भगा-11 स्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च त्रिः प्रदक्षिणयन्ति त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च प्रत्येक करतलपरिगृहीतं शिरस्यावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं-वक्ष्यमाणमवादिषुः, यदवादिपुस्तदाह-18 'नमोऽत्थु ते इत्यादि, नमोऽस्तु ते-तुभ्यं रत्नं-भगवलक्षणं कुक्षी धरतीति रत्नकुक्षिधारिके अथवा रत्नगर्भावद् गर्भधारक-11 वेनापरखीकुतिभ्योऽतिशायित्वेन रत्नरूपां कुक्षिं धरतीति, शेष तथैव. तथा जगतो-जगदर्तिजनानां सर्वभावानां% प्रकाशकत्वेन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान् तस्य दीपिके, सर्वजगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुरिव चक्षुः सकल जगमावदर्शकत्वना
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
secestococcer
~774~
Page #776
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२]
गाथा
18 तस्य, च। समुच्चये, चक्षुश्च द्रव्यभावभेदाभ्या द्विधा, तत्राद्यं भावचक्षुरसहकृतं नार्थ(सर्व)प्रकाशकं तेन भावचक्षुषा भगवा
५वक्षस्कारे द्वीपशानुपमीयते, तच्चामूर्त्तमिति ततो विशेषमाह-मूर्तस्य-मूर्तिमतः चक्षुयोह्यस्येत्यर्थः, सर्वजगजीवाना वत्सलस्य-उपका-1181
दिकुमायुन्तिपन्द्री-18| रकस्य, उतार्थे विशेषणद्वारा हेतुमाह-हितकारको मार्गो-मुक्तिमार्गः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्तस्य देशिका-18
त्सवः मू. या वृत्तिः उपदेशिका उपदेशदर्शिकेत्यर्थः, तथा विभ्वी-सर्वभाषानुगमनेन परिणमनात् सर्वव्यापिनी सकलश्रोतृजनहृदयसङ्क्रान्त- ११२
तात्पर्याथी एवंविधा वाग्ऋद्धिः-वाकूसम्पत्तस्याः प्रभुः-स्वामी सातिशयवचनलब्धिक इत्यर्थः, तस्य तथा, अत्र ॥३८६॥
विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , जिनस्य-रागद्वेषजेतुः ज्ञानिनः-सातिशयज्ञानयुक्तस्य नायकस्य-धर्मवरचक्रवशर्तिनः बुद्धस्य-विदिततत्त्वस्य बोधकस्य-परेषामावेदिततत्त्वस्य सकललोकनाथस्य-सर्वप्राणिवर्गस्य योधिवीजाधानसंरक्षणाभ्यां योगक्षेमकारित्वात् निर्ममस्य-ममत्वरहितस्य प्रवरकुलसमुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य एवंविधविख्यातगुणस्य लोकोत्तमस्य यत्त्वमसि जननी तत्त्वं धन्याऽसि पुण्यवत्यसि कृतार्थाऽसि, वयं हे देवानुप्रिये! अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः भगवतो जन्ममहिमा करिष्यामस्तेन युष्माभिर्न भेतव्यं, असम्भाव्यमानपरजनापातेऽस्मिन् रहस्थाने इमा विसदृशजातीयाः किमितिशङ्काकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः, अर्थतासामितिकर्तव्यता-18 माह--'इतिकट्ट उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग'मित्यादि, इतिकृत्वा-प्रस्तावादित्युक्त्वा ता एवोत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम- 11३८६॥ पनामन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन समवन्नन्ति समवहत्य च सङ्ख्यातानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति, निसृज्य |
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~775~
Page #777
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
--...................--- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११२]
॥||च किं ताः कुर्वन्ति ?, तदेवाह-तद्यथा रत्नानां यावत्पदात् 'वइराणं वेरुलिआणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसग
भाणं पुलवाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं पुलयाणं रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिहाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ, अहासुहुमे पुग्गले परिआएइ, दुचंपि वेउनिअसमुग्घाएणं समोहणइ २ त्ता' इति पदसंग्रहः, एतत्सविस्तरव्याख्या पूर्व भरताभियोगिकदेवानां पक्रियकरणाधिकारे कृता तेन ततो माह्या, वाक्ययोजनार्थ तु किश्चि-181 | लिख्यते, एषां रजानां पादरान् पुद्गलान् परिशाव्य सूक्ष्मान् पुद्गलान् गृहन्ति, पुनर्वक्रियसमुत्पातपूर्वकं संवत-18 कवातान् चिकुर्वन्ति, बहुवचनं चात्र चिकीर्पितकार्यस्य सम्यक्सियर्थं पुनः पुनर्वातविकुर्वणाज्ञापनार्थ, बिकुळ च तेनतत्कालविकुर्वितेन शिवेन-उपद्रवरहितेन मृदुकेन-भूमिसर्पिणा मारुतेन अनुसृतेन-अनूचारिणा भूमितल विमलकरणेन मनोहरेण सर्वर्तुकानां-
पतुसम्भवानां सुरभिकुसुमानां गन्धेनानुवासितेन पिण्डिमा-पिण्डितः सन निर्झरिमो-दूरं । विनिर्गमनशीलो यो गन्धस्तेन उद्धरेण बलिष्ठेनेत्यर्थः तिर्यक्रवातेन-तिर्यक् वातुमारब्धेन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य | सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षु योजनपरिमण्डलं से जहाणामए कम्मारदारए सिआ जाव' इत्येतत्सूत्रैकदेशसूचितदृष्टा-18 न्तसूत्रान्तर्गतेन तहेवेति दार्शन्तिकसूत्रबलादायातेन सम्माजतीतिपदेन सहान्वययोजना कार्या, तचेदं दृष्टान्तसूत्र-1 से जहाणामए कम्मयरदारए सिआ तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपाए पिटुतरोरुपरिणए |घणनिचिअबवलिअखंधे चम्मेहगदुहणमुछिअसमायनिचिअगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तलजमलजुअलपरिषवाह लंध
sececeoesesereversectse
गाथा
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~776~
Page #778
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [५], ------
----------------- मूल [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
सूत्रांक [११२]
गाथा
श्रीजम्बू-
गणपवणजइणपमहणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महंतं सिलागहत्थर्ग वा दंडसंपुच्छणि वक्षस्कारे द्वीपशा- वावेणुसिलागिगं वा गहाय रायंगणं वा रायंते उरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उजाणं वा अतुरिअमचबल- दिकुमायुन्तिचन्द्री- मसंभंतं निरन्तरं सनिउणं सचओ समन्ता संपमज्जति' स यथानामको-यत्प्रकारनामकः कर्मदारकः स्याद्-भवेत् , आस-1
त्सवः सू. या वृत्तिः ।
११२ मृत्युहिं दारको न विशिष्ट सामर्थ्यभागू भवतीत्यत आह-तरुणः-प्रवर्द्धमानवयान, स च बलहीनोऽपि स्यादित्यत आह-11 l૨૮ણી बलवान् , कालोपद्रवोऽपि विशिष्टसामर्थ्य विघ्नहेतुरित्यत आह-युगं-सुषमदुष्षमादिकालः सोऽदुष्टो-निरुपद्रवो विशिष्ट-18
बलहेतुर्यस्यास्त्यसौ युगवान् , एवंविधश्च को भवति?-युवा-यौवनवयस्थः, ईदृशोऽपि ग्लानः सन् निर्बलो भवत्यतः IS|| अल्पातङ्कम, अल्पशब्दोऽत्राभाववचनः, तेन निरातङ्क इत्यर्थः, तथा स्थिर:-प्रस्तुतकार्यकरणेऽकम्पोऽग्रहस्तो-हस्तानं य-RA
स्थासौ तथा, तथा दृढं-निबिडितरचयमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथा, पृष्ठ-प्रतीतं अन्तरे-पार्यरूपे ऊरू-सक्थिनी एतानि परिणतानि-परिनिष्ठिततां गतानि यस्य स तथा, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः कान्तस्य परनिपातः अहीनाङ्ग इत्यर्थः, घननि-11 चितौ-निविडतरचयमापनौ वलिताविव बलिती हृदयाभिमुखौ जातावित्यर्थः वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा, तथा चर्मेष्टकेनचर्मपरिणद्धकुट्टनोपगरणविशेषेण दुषणेन-घनेन मुष्टिकया च-मुष्ट्या समाहताःसमाहताः सन्तस्ताडितास्ताडिताः सन्तो | ये निचिता-निबिडीकृताः प्रवहणप्रेष्यमाणवखग्रन्थकादयस्तद्वद् गात्रं यस्य स तथा, उरसि भवमुरस्य ईश्शेन बलेन । समन्वागतः-आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः तली-तालवृक्षो तयोर्यमलं-समश्रेणीकं ययुगलं-द्वयं परिघश्च-अर्गला तन्निभे
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~777~
Page #779
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [५], ------
..................-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११२]
गाथा
18| तत्सदृशे दीर्घसरलपीनत्यादिना बाहू यस्य स तथा लंघने-गरौदेरतिक्रमे प्लवने-मनाक् विक्रमपति गमने जवने
अतिशीघ्रगमने प्रमर्दने-कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णने समर्थः, छेक:-कलापण्डितः दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी ||
प्रष्ठो-वाग्मी कुशल:-सम्यक्रियापरिज्ञानवान मेधावी-सकृत् श्रुतदृष्टकर्मज्ञः "निपुणशिल्पोपगतः' निपुणं यथा 1 भवत्येवं शिल्पक्रियासु कौशलं उपगतः-प्राप्तः, एकं महान्तं शलाकहस्तक-सरित्पर्णादिशलाकासमुदाय सरित्पर्णादि-18 & शलाकामयीं सम्मार्जनीमित्यर्थः वाशब्दा विकल्पार्थाः दण्डसंपुंछनी-दण्डयुक्तां सम्मार्जनी वेणुशलाकिकी-वंशश
लानिवृत्तां सम्मार्जनी गृहीत्या, राजाङ्गणं वा राजान्तःपुरं वा देवकुलं वा सभां बा, पुरधानानां सुखनिवेशनहेतु-1 | मण्डपिकामित्यर्थः, प्रपा वा-पानीयशाला आराम वा-दम्पत्योर्नगरासन्नरतिस्थानं उद्यानं वा-क्रीडार्थागतजनानां ||&
प्रयोजनाभावेनोवोवलम्बितयानवाहनाद्याश्रयभूतं तरुखण्डं अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं, त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे | | वा सम्यकवचराद्यपगमासम्भवात् , तत्र त्वरा-मानसौत्सुक्यं चापल्य-कायौत्सुक्यं सम्भ्रमश्च-गतिस्खलनमिति निर
न्तरं न तु अपान्तरालमोचनेन सुनिपुणमल्पस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन सम्प्रमार्जयेदिति, अथोक्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिहै कयोजनायाह-तथैवैता अपि योजनपरिमण्डलं-योजनप्रमाणं वृत्तक्षेत्रं सम्मार्जयन्तीति-यत्तत्र योजनपरिमण्डले तृणं
वा पत्रं वा काष्ठं वा कचवरं वा अशुचि-अपवित्रं अचोक्षं-मलिनं पूतिक-दुरभिगन्धं तत्सर्वमाधूय २-सञ्चाल्य २ एकान्ते-योजनमण्डलादन्यत्र एडयन्ति-अपनयन्ति, अपनीयार्थात् संवर्तकवातोपशमं विधाय च यत्रैव भगवांस्ती
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
Jaticianited
~778~
Page #780
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११२]
वक्षस्कारे ऊर्ध्वलोकदिकुमात्सवः सू. ११३
JOil
गाथा
श्रीजम्बू- र्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च नातिदूरासने आगायन्त्य द्वीपशा- आ-ईषत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दरस्वरेण गायमानत्वात् परिगायन्त्यो-गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण नेतचन्द्री-|| गायन्त्यस्तिष्ठन्ति । अधोलोकयासिनीनामवसर:पा वृत्तिः तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्घलोगवस्थवाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरहिं २ कूडेहिं सपहिं २ भवणेहिं सएहि २ ॥३८८॥
पासायवसएदि पत्ते २ चरहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुवगिअंजाब विहरंति, तंजहा-मेहंकरा १ मेहवई २, सुमेहा ३ मेहमालिनी ४ । सुवच्छा ५ वच्छमित्ता य ६, वारिसेणा ७ बलाहगा ।। १ ।। तए णं तासि उद्धलोगवत्यब्वाणं अट्ठाई दिसाकुमारीमहत्तरिाणं पत्तेअं २ आसणाई चलन्ति, एवं तं चेत्र पुत्ववणि भाणिअचं जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए । उद्धलोगवस्थयाभो अढ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिनं करिस्सामो तेणं तुभेहिं ण भाइभयंतिक उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं अवकमन्ति २त्ता जाव अभवदलए विवन्ति २ चा जाय तं नियरयं णट्ठरवं भट्टरवं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति २ खिप्पामेव पचुवसमन्ति, एवं पुष्फबद्दलंसि पुष्फवासं वासंति वासित्ता जाव कालागुरुपवर जाव सुरवराभिगमणजोमग करेंति २ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २चा जाब आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति (सूत्रं १९३) 'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं ऊर्वलोकवासित्वं चासां समभूतलात् पञ्चशतयोजनोचनम्दनवनगतपञ्चशतिकाष्टकूटवासित्वेन ज्ञेयं, नन्वधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिगतकूटाष्टके यथा क्रीडानिमित्तको वासस्तथैव तासामप्यत्र
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
॥३८८||
~779~
Page #781
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ------
..................-------- मूलं [११३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११३]
गाथा
भविष्यतीति चेत्, मैवं, यथाऽधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरीणामधो भवनेषु वासः श्रूयते तथैतासाभश्रूयमाणत्वेन तत्र निरन्तरं वासस्ततश्चोर्ध्वलोकवासित्वं, ताश्चेमा नामतः पद्यबन्धेनाह-"मेघवारा १ मेघवती २ सुमेघा ३ मेघमालिनी ४ सुवत्सा ५ वत्समित्रा ६ चः समुच्चये वारिषेणा ७ वहालका ८॥१॥ अथ यत्तासां वक्तव्यं तदाह-तए णं तासिं उद्धलोगवत्थवाण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं तदेव पूर्ववर्णितं भणितव्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अम्हे - मित्यादि, अत्र यावच्छन्दोऽवधिवाचको नतु संग्राहक, 'अवक्कमित्ता जाव'त्ति अत्र यावत्पदात् 'वेउविअसमुग्याएणं समोहणंति २त्ता जाव दोच्चंपि वेउविअसमुग्धाएणं समोहणंति २त्ता' इति बोध्यम् , 'अभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति' अधे-आकाशे वाः-पानीयं तस्य दलकानि अभ्रवादलकानि मेघानित्यर्थः, विउवित्ता जाव'त्ति अत्र थावत्करणादिदं दश्यम्-'से जहाणामए कम्मारदारए जाव सिप्पोवगए एगं महंतं दगवारगं वा दगकुंभयं वा दगथालगं वा दगक
लसंवा दगभिंगारं वा गहाय रायंगणं वा प०सभंता जाव समन्ता आवरिसिज्जा, एवमेव ताओवि उद्धलोगवस्थवाओ अठ्ठ/81 18 दिसाकुमारीमहत्तरिआओ अभवद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति २ ता खिप्पामेव विज्जआयंति २ त्ता भगवओ||
तित्वगरस्स जम्मणभवणस्स सबओ समन्ता जोअणपरिमंडलं णिच्चोअगं नाइमट्टि पविरलपफुसि रयरेणुविणासणं । | दिवं सुरभिगन्धोदयवासं वासंति २,' अत्र व्याख्या-स यथा कर्मदारक इत्यादि प्राग्वत् व्याख्येयं, एक महान्तं दकवारकं वा-मृत्तिकामयजलभाजनविशेष दककुम्भकं वा-जलपटं दकस्थालकं वा-कांस्यादिमयं जलपात्रं दककलशं ।
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
Jati
,
~780~
Page #782
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----
...................--- मूलं [११३] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११३]
गाथा
श्रीजम्बू-18 वा जलभंगारं वा गृहीत्वा राजाङ्गणं वा यावदुधानं वा आवर्षेत्-समन्तात् सिश्चेत् एवमेता अपि उद्धलोगवत्थवाओ५वक्षस्कारे
द्वीपशा-18 इत्यादि प्राग्वत् , क्षिप्रमेव 'पतणतणायन्ति'त्ति, अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः, गजित्वा च 'पविजआयन्ति'त्ति प्रकर्षेण ऊर्वलोकन्तिचन्द्री
विद्युतं कुर्वन्ति, कृत्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्तायोजनपरिमण्डलं क्षेत्रं यावत् , अत्र नैरन्तयें दिकुमायुया वृत्तिः
त्सवः सू. 18 द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिमण्डलक्षेत्रे इत्यर्थः, नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात्तथा प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता ||
११३ ॥३८९॥ भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, उक्कप्रकारेण विरलोनि-सान्तराणि घनभावे कर्दमसम्भवात् प्रस्पृष्टानि-प्रकर्ष
वन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन् वर्षे तत् प्रविरलपस्पृष्टं, अब एव रजसा-लक्ष्णरे-18 णुपुद्गलानां रेणूनां च-स्थूलतमतत्पुगलानां विनाशनं दिव्यं-अतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति वर्षित्वा च, अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते-तद् योजनपरिमण्डल क्षेत्रं निहतरजः कुर्वन्तीति योगः, निहतं-भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र तत्तथा, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि सम्भवति तत आह-नष्टरजः-नष्टं सर्वथा अरश्यी
भूतं रजो यत्र तत्तथा, तथा भ्रष्टं वातोद्धततया योजनमात्रात् दूरतः क्षिप्तं रजो यत्र तत्सथा, अत एव प्रशान्तं12 सर्वथाऽसदिव रजो यत्र तत्तथा, अस्यैवात्यन्तिकताख्यापनार्थमाह-उपशान्तं रजो यत्र तसथा, कृत्वा च क्षिप्रमेव
प्रत्युपशाम्यन्ति, गन्धोदकवर्षणान्निवर्तन्त इत्यर्थः, अथासां तृतीयकर्त्तव्यकरणावसरः-एवं गन्धोदकवर्षणानुसारेण ॥३८९।। पुष्पवादलकेन-पुष्पवर्षकवादलकेन प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी पुष्पवर्ष वर्षन्तीति, अत्रैवमित्यादिवाक्यसूचित-18
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
~ 781~
Page #783
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११३]
गाथा
मिदं सूत्रं ज्ञेयम् , 'तचंपि वेविअसमुग्घाएणं समोहणंति २ त्ता पुष्फबद्दलए विउच्चन्ति, से जहाणामए मालागारदारए सिआ जाव सिप्पोवगए एग महं पुष्फछजिअं वा पुष्फपडलगं वा पुप्फचंगेरीअं वा गहाय रायंगणं वा जाव समन्ता कयग्गहगहिअकरयलपब्भविष्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुष्फपुंजोवयारकलिअं करेति एवमेव ताओवि, | उद्धलोगवथवाओ जाव पुष्फबद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायन्ति जाव जोअणपरिमण्डलं जलयथलयभा|| सुरप्पभूयस्स विंटट्ठाइस्स दसद्धवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति'त्ति, अत्र व्याख्या-तृतीयवारं
क्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, कोऽर्थः?-संवर्तकवातविकुर्वणार्थ हि यत् वेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहननं तत्किलैक एवमभ्रवादलकविकुर्वणार्थ द्वितीयं इदं तु पुष्पवादलकविकुर्वणार्थ तृतीय, समवहत्य च पुष्पवादलकानि ||
विकुर्वन्ति, स यथानामको मालाकारदारको-मालिकपुत्रः अस्यैव प्रस्तुतकार्ये व्युत्पन्नत्वात् स्याद्यावन्निपुणशिल्पो1 पगतः एका महतीं 'पुष्पच्छाद्यिकां वा' छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या छायैव छाधिका पुष्पैर्भूता छाधिका पुष्प
छायिका तां पुष्पपटलकं वा-पुष्पाधारभाजन विशेष पुष्पचङ्गेरिकां वा प्रतीतां यावत् समन्तात् रतकलहे या पराTRI मुखी सुमुखी तत्संमुखीकरणाय केशेषु ग्रहणं कचग्रहस्तत्प्रकारेण गृहीतं तथा करतलाद्विपमुक्तं सत् प्रचष्टं करत-18
लप्रभ्रष्टविप्रमुक्तं प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः तेन कचग्रहगृहीतकरतलगभ्रष्टविप्रमुक्तेन दशार्द्ध19 वर्णेन-पञ्चवर्णेन कुसुमेन-जात्यपेक्षया एकवचनं कुसुमजातेन पुष्पपुञ्जोपचारो-बलिप्रकारस्तेन कलितं करोति, एवमेता
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
~782~
Page #784
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११३]
+
**$$$
गाथा
दीप
अनुक्रम [२१५
-२१७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११३] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥३९०॥
अपि ऊर्ध्वलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्सरिकाः पुष्पवद्दलए विबित्ता इत्यादिकं योजनपरिमण्डलान्तं प्राग्वद् व्याख्येयं वाक्ययोजना तु योजनपरिमण्डलं यावत् दशार्द्धवर्णस्य कुसुमस्य वर्षे वर्षन्तीति, कथंभूतस्य कुसुमस्य ? - 'जलजस्थलजभासुरप्रभूतस्य' जलजं पद्मादि स्थलजं - विच किलादि भास्वरं दीप्यमानं प्रभूतं च- अतिप्रचुरं ततः कर्मधारयः भास्वरं च तत् प्रभूतं च भास्वरप्रभूतं जलस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च तत्तथा तथा 'वृन्तस्थायिनः ' वृन्तेन-अधोभागवर्त्तिना तिष्ठतीत्येवंशीलस्य, तथा, वृन्तमधोभागे पत्राण्युपरीत्येवं स्थानशील स्येत्यर्थः कथंभूतं वर्ष - | जाम्बवधिक उत्सेधो जानूत्सेधस्तस्य प्रमाणं- द्वात्रिंशदंगुललक्षणं तेन सदृशी मात्रा यस्य स तथा तं द्वात्रिंशदंगुठानि | चैवं चरणस्य चत्वारि जंघायाश्चतुर्विंशतिः जानुनश्चत्वारीति, एवमेव सामुद्रिके चरणादिमानस्य भणनात्, वर्षित्वा च | कियत्पर्यन्तोऽयं 'एव'मित्यादिवाक्यसूचित सूत्रसंग्रह इत्याह-- यावत् 'कालागुरुपवर ति अत्र यावच्छन्दोऽवधिवाची | 'जाब सुरबराभिगमणजोगं' ति अत्र यावत्करणात् कुंदुरुक्कतुरुकडतधूवमघमघन्तगंधुदु आभिरामं सुगंधवरगन्धिअं गन्धवट्टिभूअं दिवं ति पर्यन्तं सूत्रं ज्ञेयं, तत्कालागुरुप्रभृतिधूपधूपितं धूपालापकव्याख्या प्राग्वत्, अत एव 'सुरवराभिगमनयोग्यं' सुरवरस्य- इन्द्रस्याभिगमनाय - अवतरणाय योग्यं कुर्वन्ति कृत्वा च यंत्रैव भगवांस्तीर्थकरस्तीर्थकर माता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च यावच्छब्दात् 'भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य अदूरखामंते' इति ग्राह्यं, आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अथ रुचकवासिनी दिक्कुमारीवकव्ये प्रथमं पूर्वरुचकस्थानामष्टानां वक्तव्यमाह -
For P&Praise City
~783~
पवक्षस्कारे ऊर्ध्वलोक
दिकुमार्यु
त्सवः स. ११३
॥ ३९०॥
Page #785
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
..---------------------- मल [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११४]
गाथा:
तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरत्यिमरुभगवत्यवाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिभाओ सएहिं २ कूदेहिं तहेव जाच विहरति, तंजहाणंदुत्तरा य १ णन्दा २, आणन्दा ३ णदिवद्धणा ४ । विजया य ५ वेजयन्ती ६, जयन्ती ७ अपराजिमा ८ ॥१॥ सेस तं चेव जाव तुम्भाहिं ण भाइअव्वंतिक भगवओ तित्थयरस्स तित्ययरमायाए अपुरथिमेणं आयंसहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणकअवगत्थब्बाओ अट्ठ विसाकुमारीमहत्तरिआओ तहेब जाव विहरति, तंजहा-समाहारा १ सुप्पइण्णा २, मुष्पबुद्धा ३ जसोहरा ४ । लच्छिमई ५ सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७ वसुंधरा ८ ॥१॥ तहेव जाव तुम्भाहिं न भाइअव्वंतिकट्ट भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ वाहिणेणं भिंगारहत्त्वगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं पञ्चस्विमरुअगवत्यव्याओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरहिं २ जाब विहरंति, २० इलादेवी १ सुरादेवी २, पुहवी ३ पउमावई ४ । एगणासा ५ णवमिआ ६, भदा ७ सीमा य ८ अट्ठमा ॥१॥ तहेव जाव तुम्भाहिं ण भाइअवंतिकटु जाव भगवओ तित्वयरस्स तित्थयरमाऊए अ पञ्चत्थिमेणं वालिअंटहत्थगयाओ आगायमाणीभो परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुभगवत्यव्याओ,जाव विहरंति, तंजहाअलंबुसा १ मिस्सकेसी २, पुण्डरीआ य ३ वारुणी ४ । हासा ५ सव्वपभा १ चेव, सिरि ७ हिरि ८ चेव उत्तरओ ॥१॥ वहेब जाव वन्दित्ता भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमाऊए अ उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणे समएणं विदिसिहभगवस्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जाब विहरति, संजहा-चित्ता य १ चित्तकणगा २, सतेरा ३ य सोदामिणी ४ । तहेव जाव ण भाइसम्बंतिकटु भगवओ तित्थयरस वित्यवरमाऊए भ पसु विदिसासु
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
श्रीजम्यू. ६६॥
~784 ~
Page #786
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
------------------------- मल [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
सूत्रांक
श्रीजम्बू द्वीपशा
[११४]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
५वक्षस्कार रुचकवासिकुमायुत्सवः सू. ११४
॥३९शा
गाथा:
दीविआहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्तित्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुभगवत्थव्याओ चचार दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाब विहरति, संजहा-रूआ रूआसिआ, सुरुआ रूमगावई। तहेब जाव तुब्भाहिं ण भाइयव्यंतिकट्ठ भगवओ तित्थयरस्स चउरंगुलवजं णाभिणालं कप्पन्ति कप्पेत्ता विअरगं खणन्ति खणित्ता बिअरगे णाभि णिहणंति णिहणित्ता रयणाण व बइराण य पूरेंति २ ता हरिआलिआए पे वन्धंति २ ता तिदिसि तओ कयलीहरए विउव्यंति, तए णं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउस्सालए विउध्वन्ति, तए णं वेसिं चाउरसौलगाणं बहुमझदेसभाए तओ सीहासणे विउचन्ति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारुवे वण्णायासे पण्णत्ते सव्यो वण्णगो भाणिअब्बो । तए णं वाओ रुअगमज्झवस्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भययं नित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुढेणं गिण्हन्ति तित्थवरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति २ चा जेणेव दाहिणिले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमावरं च सीहासणे णिसीयाति २ ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अन्भंगेंति २ त्ता सुरभिणा गन्धवट्टएणं उन्धटेंवि २ चा भगवं तित्थयरं करयलपुढेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हन्ति २ ता जेणेव पुरथिमिले कयलीहरए जेणेब चउसालए जेणेक सीहासणे तेणेव उबागच्छन्ति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयर तिस्थयरमायरं च सीहासणे णिसीआवेति २ ता तिहिं उदएहिं मज्जावेंति, संजहााग्योदएणं १ पुप्फोदएणं २ सुद्धोदएणं, मजाविता सम्बालंकारविभूसि करेंति २ चा भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं व वाहाहिं गिणहन्ति २ त्ता जेणेव उत्तरिले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवं तिस्थयरं तित्थयरमायरं च
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
॥३९॥
~785~
Page #787
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११४]
गाथा:
सीहासणे णिसीमाविति २ता आमिओगे देवे सदाविन्ति २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चुहिमवन्ताओ वासहरपचयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह, तए णं ते आमिओगा देवा ताहिं रुभगमझवस्थबाहिं चाहिं दिसाकुमारीमहत्तरिहिं एवं वुत्ता समाणा हद्दतुहा जाव विणएणं ववणं पडिच्छन्ति २ ता खिप्पामेव चुलहिमवन्ताओ वासहरपब्धयाओ सरसाई गोसीसचन्दणकटाई साहरन्ति, तए णं ताओ मज्झिमरुअगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरगं करेन्ति २त्ता अरणिं घडेवि अरणिं घडित्ता सरएणं अरणि महिंति २ ता अमिंग पाति २ अगि संधुक्खंति २ ता गोसीसचन्दणकडे पक्खिवन्ति २त्ता अग्गि उजालंति २ समिहाकट्ठाई पक्खिविन्ति २ ता अग्गिहोमं करेंति २ ता भूतिकम्मं करेंति २त्ता रक्खापोट्टलिअं बंधन्ति बन्धेत्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिटिआविन्ति भवउ भयवं पव्वयाउए २ । तए गं ताओ रुअगमज्झवत्थव्याओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्वयरमायरं च बाहाहि गिण्हन्ति गिहित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता तित्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीआकिंति णिसीआविता भयवं तित्ववरं माउए पासे ठवेंति ठविता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्तीति । (सूत्रं ११४) 'तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये पौरस्त्यरुचकवास्तव्याः-पूर्वदिग्भागवतिरुचक-II कूटवासिन्योऽष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथा-नन्दोत्तरा १ चः समुच्चये
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
C
atesysum
~ 786~
Page #788
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
..--------------------------- मल [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
श्रीजम्ब-18 नन्दा २ आनन्दा ३ नन्दिवर्धना ४ विजया ५ चः पूर्ववत् 'वैजयन्ती ६ जयन्ती ७ अपराजिता ८ इत्येता नामतः
५वक्षस्कारे द्वीपशा- कथिताः, शेष आसनप्रकम्पावधिप्रयोगभगवदर्शनपरस्पराह्वानस्वस्वाभियोगिककृतयानविमानविकुर्विणादिकं तथैव रुचकवा
यावद्युमाभिर्न भेतव्यमिति कृत्वा भगवतः तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च पूर्वरुचकसमागतत्वात् पूर्वतो हस्तगत आद- सिकमायुयाधाचा शो-दर्पणो जिनजनन्योः शृङ्गारादिविलोकनाथुपयोगी यास तास्तथा, विशेषणपरनिपातः प्राकृतत्वात् , आगायन्त्यः | त्सव मू. ॥३९॥ परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अत्र च रुचकादिस्वरूपप्ररूपणेयं-एकादेशेन एकादशे द्वितीयादेशेन त्रयोदशे तृतीयादेशेन ।
११४ एकविंशे रुचकद्वीपे बहुमध्ये वलयाकारो रुचकशैलश्चतुरशीतियोजनसहस्राण्युचः मूले १००२२ मध्ये ७०२३ शिखरे ४०२४ योजनानि विस्तीर्णः, तस्य शिरसि चतुर्थे सहले पूर्वदिशि मध्ये सिद्धायतनकूट, उभयोः पार्श्वयोश्चत्वारि २ दिक्कुमारीणां कूटानि, नन्दोत्तराद्यास्तेषु वसन्तीति । सम्प्रति दक्षिणरुचकस्थानां वक्तव्यमुपक्रम्यते-तेणं कालेण'-18 मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये दक्षिणरुचकवास्तव्या इति पूर्ववद्चकशिरसि दक्षिणदिशि मध्ये सिद्धायतन-18 कूटं उभयतश्चत्वारि २ कूटानि, तत्र वासिन्य इत्यर्थः, अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथासमाहारा १ सुप्रदत्ता २ सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ लक्ष्मीवती ५ शेषवती ६ चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८ तथैव यावधु
॥३९२॥ माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा जिनजनन्योर्दक्षिणदिग्गतत्वाइक्षिणदिग्भागे जिनजननीस्वपनोपयोगिजलपूर्णकलशहस्ता मागायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । साम्प्रतं पश्चिमरुचकस्थानां वकव्यतामाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, सर्व तथैव ॥
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~787~
Page #789
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Ses
प्रत सूत्रांक
[११४]
गाथा:
IS नवरं पश्चिमरुचकवास्तव्याः-पश्चिमदिग्भागवत्र्तिरुचकवासिन्य इति, नामान्यासां पनाह-इलादेवी १ सुरादेवी २
पृथिवी ३ पद्मावती ४ एकनासा ५ नवमिका ६ भद्रा ७ सीता ८ चः समुच्चये, अष्टमी चेति, कूटव्यवस्था तथैव,
पश्चिमरुचकागतत्वाजिनजनन्योः पश्चिमदिग्भागे तालवृन्त-व्यजनं तहस्तगतास्तिष्ठन्तीति, उदीच्या अप्येवमेवेति 1| तत्सूत्रमाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यकं, नवरमुत्तररुचकवास्तव्या-उत्तरदिग्भागवतिरुचकवासिन्य इति, नामा-118
न्यासा पद्येनाह-अलंनुसा १ मिश्रकेसी २ पुण्डरीका ३ चः प्राग्वत् वारुणी४ हासा ५ सर्वप्रभा ६ चैवेति प्राग्वत् । श्रीः ७ ही ८ श्चोत्तरतः, कूटव्यवस्था तथैव, उत्तररुचकागतत्वाजिनजनन्योरुत्तरदिग्भागे चामरहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति । अथ विदिगुरुचकवासिनीनामागमनावसरः-'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं विदिग्रुचकवास्तव्यास्तस्यैव रुचकपर्वतस्य शिरसि चतुर्थे सहने चतसृषु विदिक्षु एकैकं कूट तत्र वासिन्यश्चतम्रो विदिक्-18
कुमार्यों यावद् विहरन्ति, इमाश्च स्थानाने विद्युत्कुमारीमहत्तरिका इत्युक्ता इति, एतासां चैशान्यादिक्रमेण नामान्येवं18चित्रा१चः समुच्चये चित्रकनका २ शतेरा सौदामिनी ४ तथैव यावन भेतव्यमितिकृत्वा, विदिगागतत्वात् भगवतस्तीर्थिकरस्य तीर्थकरमातुश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अथ मध्यरुचकवासिन्य 18| आगमितव्याः-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन्काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्या-मध्यभागवर्तिरुचकवासिन्यः, ६ कोऽर्थः-चतुर्विशत्यधिकचतुःसहस्रप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे द्वितीयसहने चतुर्दिग्वर्तिषु चतुर्यु कूटेषु पूर्वादिक्रमेण ॥
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~788~
Page #790
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११४]
गाथा:
श्रीजम्बू- चतरस्ता वसन्तीत्यर्थः, श्रीअभयदेवसूरयस्तु षष्ठावृत्तौ मल्यध्ययने 'मग्झिमरुअगवस्थवा' इत्यत्र रुचकद्वीपस्याभ्यन्त- ५वक्षस्कारे द्वीपशारार्द्धवासिन्य इत्याहुः, अब तत्त्वं बहुश्रुतगम्यं, चतस्रो दिकुमारिका यावद् विहरन्ति, तद्यथा-रूपा १ रूपासिका 1
रुचकवान्तिचन्द्री
10 सिकुमायुः या चिः ॥६॥२ सुरूपा ३ रूपकावती ४, तथैव युष्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुरंगुलवर्ज नाभिनाल कल्पयन्ति ।
त्सवः स. कल्पयित्वा च विदरक-गर्ती खनन्ति खनित्वा च विदरके कल्पितां तां नाभिं निधानयन्ति, निधानयित्वा च रत्नश्च ॥३९३॥ वज्रेश्च प्राकृतत्वाद् विभक्तिव्यत्ययः पूरयन्ति पूरयित्वा च हरितालिकाभिः-दूर्वाभिः पीठं वनन्ति, कोऽर्थः -पीठं 181
वध्वा तदुपरि हरितालिका वपन्तीत्यर्थः, वितरकखननादिकं च सर्व भगवदवयवस्याशातनानिवृत्त्यर्थं, पीठं बध्वा च त्रिदिशि पश्चिमावर्जदिक्त्रये त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति, ततस्तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतुःशा-1|| लकानि-भवनविशेषान् विकुर्वन्ति, ततस्तेषा चतुःशालकानां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेषां १
सिंहासनानामयमेतादृशो वर्णव्यासः प्रज्ञप्ता, सिंहासनानां सर्वो वर्णकः पूर्ववद् भणितव्यः । सम्पति सिंहासनविकुर्वपणानन्तरीयकृत्यमाह-तए णं ताओ रुभगमज्झवत्थब्बाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ'इत्यादि, ततस्ता रुचकमध्यवा-18 IS स्तव्याः चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिका यत्रैव भगवांस्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं | ॥३९३॥
तीर्थकरं करतलसम्पुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिवन्ति गृहीत्वा च यत्रैव कदलीगृहं यत्रैव चतुःशालकं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति-उपवेशयन्ति निषाद्य
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
&sesesese
~ 789~
Page #791
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
..---------------------- मल [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११४]
गाथा:
19 च शतपाकैः सहस्रपाकैः-शतकृत्योऽपरापरौषधिरसेन कार्षापणानां शतेन वा यत्पक्वं तच्छतपाकमेवं सहस्रपाकमपि बहु1 वचनं तथाविधसुरभितैलसंग्रहार्थं तैलैरभ्यङ्गायति तैलमभ्यंजयंतीत्यर्थः, अभ्यङ्गयित्वा च सुरभिणा गन्धवर्तकेन
गन्धद्रव्याषां-उत्पलकुठादीनामुदतकेन-चूर्णपिण्डेन गन्धयुक्तगोधूमचूर्णपिण्डेन वा उदर्तयन्ति प्रक्षिततेलापनयन
कुर्वन्ति उदय॑ च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाह्वोहन्ति गृहीत्वा च यत्रैव पौरस्त्यं कदलीRK गृहं यत्रेव चतुःशालं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च सिंहासने,
निषादयन्ति निषाद्य च त्रिभिरुदकैर्मजयंति-स्नपयंति, तान्येव त्रीणि दर्शयति-तद्यथे' त्यादिना, गंधोदकेन-कुंकुमादिमिश्रितेन पुष्पोदकेन-जात्यादिमिश्नितेन शुद्धोदकेन-केवलोदकेन, मज्जयित्वा सर्वालङ्कारविभूषितौ कुर्वन्ति, मातृ-18 पुत्राविति शेषः, कृत्वा च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिहन्ति गृहीत्वा च यत्रैवोत्तराई
कदलीगृहं यत्रैव च चतुःशालकं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं 18च सिंहासने निषादयन्ति निपाय च आभियोगान् देवान् शब्दयन्ति शब्दयित्वा च एवमवादिषु:-क्षिप्रमेव भो 18| देवानप्रियाः! शुद्राहिमवतो वर्षधरपर्वताद् गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरत-समानयत, ततस्ते आभियोगा देवास्ताभी रुच-161
कमध्यवास्तव्याभिश्चतसृभिर्दिकुमारीमहत्तरिकाभिरेवं-अनन्तरोक्तमुक्ताः-आज्ञप्ताः सन्तः हृष्टतुष्ट इत्यादि यावद् विन-181 येन वचनं प्रतीच्छन्ति-अङ्गीकुर्वन्ति प्रतीष्य च क्षिप्रमेव क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतात् सरसानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि
eacocceaeestoeceoectseroen
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
toes
~ 790~
Page #792
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
----...............----- मलं [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११४]
गाथा:
श्रीजम्यू-1|| संहरन्ति, ततस्ते मध्यरुचकवास्तव्याश्चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिकाः शरक-शरप्रतिकृतितीक्ष्णमुखमयुत्पादक काष्ठविशेष |
५वक्षस्कारे द्वीपशा- कुर्वन्ति, कृत्वा च तेनैव शरकेन सह अरणि-लोकप्रसिद्ध काष्ठविशेष घटयन्ति-संयोजयन्ति, घटयित्वा च शरके- रुचकवान्तिचन्द्री-|| नानिं मनन्ति, मथित्वा च अग्निं पातयन्ति, पातयित्वा च अग्निं सन्धुक्षन्ति-सन्दीपयन्ति, सन्धुक्ष्य च गोशीर्ष-1|| सिङ्घमायुया चिः || चन्दनकाष्ठानि प्रस्तावात् खण्डशः कृतानीति बोध्यं, यादृशैश्चन्दनकाष्ठरग्निरुद्दीपितः स्थात् तादृशानीतिभावः।
त्सव: मू.
११४ ॥३९४॥॥|| प्रक्षिपन्ति, प्रक्षिप्य च अग्निमुज्वालयन्ति उज्ज्वाल्य च प्रदेशप्रमाणानि हवनोपयोगीनीन्धनानि समिधस्तद्वपाणि |
काष्ठानि प्रक्षिपन्ति, पूर्वो हि काष्ठप्रक्षेपो युद्दीपनाय अयं च रक्षाकरणायेति विशेषः, प्रक्षिप्य च अग्निहोम |कुर्वन्ति, कृत्वा च भूते-भस्मनः कर्म-क्रिया तां कुर्वन्ति, येन प्रयोगेणेन्धनानि भस्मरूपाणि भवन्ति तथा कुर्वन्तीत्यर्थः,MS कृत्वा च जिनजनन्योः शाकिन्यादिदुष्टदेवताभ्यो दृग्दोषादिभ्यश्च रक्षाकरी पोहलिका बनन्ति, बढ़ा च नानामणिरलानां भक्ती-रचना तया विचित्रौ द्वौ पाषाणवृत्तगोलको पाषाणगोलकावित्यर्थः गृहन्ति गृहीत्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य कर्णमूले टिट्टिआवेतीत्यनुकरणशब्दोऽयं तेन टिट्टिआति-परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्तीत्यर्थः, । अनेन हि बाललीलावशादन्यत्र व्यासक्तं भगवन्तं वक्ष्यमाणाशीर्वचनश्रवणे पटुं कुर्वन्तीति भावः, तथा कृत्वा च भवतु ॥३९४॥ || भगवान् पर्वतायुः २ इत्याशीर्वचनं ददतीति, ततः-उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं ता रुचकमध्यवास्तव्याश्चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिका भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिमुहन्ति गृहीत्वा च यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~ 791~
Page #793
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११४]
गाथा:
जन्मभवनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च तीर्थकरमातरं शय्यायां निषादयन्ति निषाय च भगवन्तं तीर्थकर मातुः पार्षे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा च नातिदूरासनगा आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति, एतासां च मध्येऽष्टावधोलोकवासिम्यो गजदम्तगिरीणामघोभवनवासिन्यः, यत्त्वेतदधिकारसूत्रे 'सएहिं २ कूडेहिं' इति पदं तदपरसकलदिकुमार्य|धिकारसूत्रपाठसंरक्षणार्थ, साधारणसूत्रपाठे हि यथासम्भवं विधिनिषेधौ समाश्रयणीयाविति, अवलोकवासिन्योऽष्टी नन्दनवने योजनपश्चशतिककूटवासिन्यः अन्याश्च सर्वा अपि रुचकसत्ककूटेषु योजनसहनोचेषु मूले सहस्रयोजनवितारेषु शिरसि पञ्चशतविस्तारेषु वसन्ति, उक्कं षट्पश्वाशदिकुमारीकृत्यमिति । अथेन्द्रकृत्यावसर:तेणं कालेणं तेणं समएणं सके णाम देविंद देवराया वजपाणी पुरंदरे सयके सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणवलोकाहिवई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिबई एरावणवाहणे सुरिंदे भरयंबरवस्थधरे आलयमालमन्डे नवहेमचारुचित्तपंचलकुण्डलविलिहिलमाणगंडे भासुरबोंदी पलम्बवणमाले महितीए महज्जुईए महाबले महायसे महाभागे महासोक्से मोहम्मे कप्पे सोहम्मबर्दिसए विमाणे सभाए मुहम्माए सकसि सीहासणंसि से पं तत्थ बत्तीसाए बिमाणावाससयसाहस्सीर्ण चउरासीए सामाणिअसाइस्सीणं तायतीसाए तायत्तीसगाणं च लोगपालाणं भट्टण्हं भग्गमहिसीणं सपरिवाराणं विहं परिसाणं सचण्हं अणिआणं सत्तहं मणिमाहिबईणं परहं पचरासीणं आयरक्खदेवसाइस्सीणं अनसिं च बहूर्ण सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण व देवीण य माहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टितं महत्तरगत्त्रं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणगीयवाइयतंतीत
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
अथ जिन-जन्माभिषेक निमित्त इन्द्रस्य कृत्य वर्ण्यते
~ 792 ~
Page #794
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम [२२७]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
||३९५||
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [११५]
वक्षस्कार [५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
a)
-
उताळतुडिअघण मुगपडपडहवाइअरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे बिहरइ । तए णं तस्स सकारस देविंदस्स देवरष्णो आसणं चल, तर णं से सके जाव आसणं चलिअं पास २ चा ओहिं परंजइ परंजित्ता भगवं तिस्थयरं ओहिणा आभोएइ २ सा चित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्यमाणहिए धाराहयकथंच कुसुमचंशुमालइ अऊस विअरोमकू विअसिअवरकमलनयणवयणे पचलिअवरकड गतुडिअकेऊरम उडे कुण्डलहारविरायंतच्छे पालम्बपलम्बमाणघोलंत भूसणधरे ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुडेर २ ता पायपीढाओ पचोरुहइ २ ता वेरुलिअवरिद्वरिअं जणनि उणोविअ मिसिमिसिंतमणिरयणमंडिआओ पाउआओ ओमुअइ २ ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ २ ता अंजलिमडलियमाहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ट पयाई अनुगच्छर २ त्ता वामं जाणुं अंचे २ ता दाहिणं जाणुं धरणीअलंसि साहद्दु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ २ चा ईसि पशुण्णम २ ता कडगडिअर्थभिआओ आओ साहर २ ता करयलपरिग्गहि सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु एवं बवासी --- णमोत्यु णं अरहंताणं भगवन्ताणं, आइगराणं तित्थवराणं सर्वसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीआणं पुरिसवरगन्धहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपजोअगराणं, अभवदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं, धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचान्तचकट्टी, दीवो ताणं सरणं गई पट्टा अप्पडियवरनाणदंसणधराणं विभट्टछडमाणं, जिणाणं जावयाणं तिष्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं, सब्वनूर्ण सम्वरिसीणं सियमयलमरु अमणन्तमक्खयमव्वाश्राह्म पुणरावित्तिसिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जिअभयाणं, णमोऽत्यु णं भगवओ तिरथगरस्स आइगरस्स जान संपाविडकामस्स, वंदामि णं भगवन्तं तत्थगवं
For P&P Cy
~ 793 ~
५वक्षस्कारे
इन्द्रकृत्ये पालकविमानं सू
११५
॥ ३९५॥
Page #795
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
esesectsesea
प्रत सूत्रांक
[११५]
दीप
इहगए, पास मे भय । तत्थगए इहगयंतिकटू बन्दइ णमंसह २ त्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे, तए णे तस्स सकरस देविंदस्स देवरण्णो अयमेआरूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्या-उप्पण्णे खलु भो जम्बुद्दीवे वीवे भगवं तिस्थथरे तं जीयमेयं तीअपञ्चप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि णं अईपि भगवओ तित्यगरस्स जम्मणमहिमं करेमित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ २ चा हरिणेगमेसिं पायताणीयाहिवई देवं सदावेन्ति २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुणिमा! सभाए मुहम्माए मेघोषरसिअं गंभीरमहुरयरसई जोयणपरिमण्डलं सुघोस सूसर घंटं तिक्युत्तो चल्लालेमाणे २ मह्या महया सद्देणं उग्रोसेमाणे २ एवं वयाहि-आणवेइ णं भो सके देविंदे देवराया गच्छदणं भो सके देविंदे देवराया जम्बुद्दीवे २ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं तुन्भेविणं देवाणुप्पिा ! सब्बिद्धीए सबजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सम्बायरेणं सम्बविभूईए सब्बविभूसाए सबसंभमेणं सव्वणाडएहिं सोवरोहेहिं सध्यपुष्फगन्धमलालंकारचिभूसाए सव्यदिव्बतुढिअसइसण्णिणाएणं महया इद्धीए जाव रवेणं णिअयपरिआलसंपरिवुडा सयाई २ जाणविमाणवाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सकस्स जाव अंतिअं पाउभवह, तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहियई सकेणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे तुट्ट जाव एवं देवोत्ति आणाय विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता सकरस ३ अंतिआओ पडिणिक्खमइ२ त्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसिभगम्भीरमाहुरयरसहा जोअणपरिमण्डला सुघोसा घण्टा तेणेव उवागच्छइ २त्ता तं मेघोघरसिअगम्भीरमहुरयरसई जोमणपरिमण्डलं सुघोसं घण्टं तिक्खुचो उल्लालेइ, तए णं तीसे मेघोघरसिअगम्भीरमहुरयरसदाए जोअणपरिमण्डलाए सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घण्टासयसह
Seedesese
अनुक्रम [२२७]
~ 794 ~
Page #796
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम
[२२७]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥३९६ ॥
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११५]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
১১০০০১৬
-
स्साई जमगसम कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्या इति, तए णं सोहम्मे कप्पे पासायचमाणनिक्खुद्वावभिसहसमुंद्विअघण्टापढेंसुअसयसहस्ससंकुले जाए आवि होत्या इति, तए णं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण व देवीय य एगन्तरइपसन्तणिचपमत्तविसयहमुच्छित्राणं सूसरघण्टा रसिभ विठ्ठलबोलपूरिभचवलपडिबोहणे कए समाणे घोसणकोउडल दिष्णकण्णएगग्गचिव माणसाणं से पायताणीआहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि निसंतपठितंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं २ देसे महया महया सणं उग्पोसेमाणे २ एवं व्यासीति इन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी बेमाणिअदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवणो इणमो वयणं हिअसुहत्थं-भाणावर णं भो सके तं चेत्र जाब अंतिभं पाउन्भवदत्ति, तप णं ते देवा देवीओ म एभम सोचा हट्ट जाव हिजआ अप्पेगइआ बन्दणवत्तिअं एवं पूरणवत्ति सकारवत्ति सम्माणपत्तिअं दंसणवत्तिअं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगमा तं जीजमे एवमादित्तिकट्टु जान पाउन्भवंतित्ति । तप णं से सके देविंदे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चैव अंतिमं पाठम्भवमाणे पासइ २ ता हट्टे पाठयं णामं भमिओगिनं देवं सहावे २ ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिभा! भणेगखम्भसयसण्णिविद्धं लीलट्ठियसाल मंजिला कलिअं ईदामिअउसभतुरगणर मगर विहगवालग किण्णरदारमथमरकुंजरवणलयपस्मलयभत्तिचित्तं संभुग्गयवहरवे आपरिगयामिरामं विबाहरजमलजुअलजंतजुत्तपित्र अबीसहस्स मालिनी रूवगसहस्सकलिभं मिसमाणं मिन्भिसमाणं चक्झोभणलेसं सुद्दफासं सस्सिरीअरूवं घण्टावलिअमडुरमणहरसरं सुहं कन्तं दरिमणि णिचणोनि अमिसि मिसितमणिरयणघंटिआजालपरिक्सितं जोयणसहस्सबिच्छिष्णं पचजोभणसयमुन्नियं सिग्धं तुरिअं जणणिव्यादि दिव्वं जाणविमाणं विव्वाहि २ ता एअमाणचिमं पचप्पिणादि ( सूत्रं ११५ )
For P&P Cy
~ 795~
neeneeeen
वक्षस्कारे
इन्द्रकृत्ये
पालक विमानं सू.
११५
||३९६ ॥
wy w
Page #797
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११५]
R| तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यत्र समयो दिक्कुमारीकृत्यानन्तरीयत्वेन विशेषणीयः शक्रो ।
नाम सौधर्माधिपतिरित्यादिव्याख्यानं कल्पसूत्रटीकादी प्रसिद्धत्वान्नात्र लिख्यते, अथ वन्दननमस्करणानन्तरं
शक्रस्य सिंहासनोपवेशने यदभूत्तदाह-'तए णं तस्स सकस्स इत्यादि, ततः'सिंहासनोपवेशनानन्तरं तस्य शक्रस्य देवे१न्द्रस्य देवराज्ञः अयमेताहशो यावत्सङ्कल्पः समुदपद्यत, कोऽसावित्याह-उत्पन्नः खलु भो ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवां-13 शस्तीर्थकरः तस्माजीतमेतदतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां देवेन्द्राणां देवराज्ञां तीर्थकराणां जन्ममहिमा कर्तुं तदा
गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमां करोमीतिकृत्वा-इतिहेतुमुद्भाव्यवं-वक्ष्यमाणं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य च हरेः-इन्द्रस्य निगम-आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी तं अथवा इन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवसं पदात्यनीकाधिपतिं देवं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमयादीत्, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव भो'इत्यादि, क्षिप्रमेव | भो देवानुप्रिया! सभायां सुधर्मायां मेघानामोघः-संघातो मेघौघस्तस्य रसितं-गजितं तद् गम्भीरो मधुरतरश्चर शब्दो यस्याः सा तथा तां योजनप्रमाणं परिमण्डलं-भावप्रधानत्वानिर्देशस्य पारिमाण्डल्य-वृत्तत्वं यस्याः सा तथा तां सुघोपा नाम सुस्वरां घण्टा त्रिकृत्त्व:-त्रीन् वारान् उल्लालयन् २-ताडयन् २ महता २ शब्देनोदूघोषयन् २ एवं वदआज्ञापयति भो देवाः शक्रो देवेन्द्रो देवराजा, किमित्याह-गच्छति भोः! शको देवेन्द्रो देवराजा जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमा कर्त, सामान्यतो जिनवर्ण के प्रक्रान्तेऽपि यजम्बूद्वीपनामग्रहणं तजम्बूद्वीपप्रज्ञत्यधि
Reacheesecticececes
दीप
अनुक्रम [२२७]
श्रीजम्यू.
Jaimal
~ 796~
Page #798
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११५]
दीप
श्रीजम्बू- कारात्, तयूयमपि देवानुप्रिया:! सर्वा सर्वद्युत्या सर्वबलेन सर्वसमुदायेन सर्वादरेण सर्वविभूषया सर्वदिव्यत्रुटित-18
५वक्षस्कार शब्दसन्निनादेन महत्या ऋया यावद्रवेण अत्राव्याख्यातपदानि यावत्पदसंग्राह्यं च प्राग्वत् निजकपरिवारस- इन्द्रकले
म्परिवृताः स्वकानि स्वकानि यानविमानानि प्राग्वत् वाहनानि-शिविकादीन्यारूढाः सन्तोऽकालपरिहीण-निर्वि- पालकविया वृत्तिः
| लम्बं यथा स्यात्तथा चैवोऽवधारणे शक्रस्य यावत्करणात् देवेन्द्रस्य देवराज्ञः इति पदद्वयं ग्राह्य अन्तिक-समीपं मान ए. ॥३९७॥ प्रादुर्भवत, अथ स्वाम्यादेशानन्तरं हरिणेगमेषी यदकरोत् तदाह-'तए णं से हरिणेगमेसी' इत्यादि, ततः स हरिणे18 गमेषी देवः पदात्यनीकाधिपतिः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराज्ञा एवमुक्तः सन् इष्ट इत्यादि यावदेवं देव इति आज्ञया
विनयेन वचनं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य च शक्रान्तिकात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव सभायां सुधर्मायां मेघौधरसितगम्भीरमधुरतरशब्दा योजनपरिमण्डला सुघोषा घण्टा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तां मेघौघरसितगम्भी-1 रमधुरतरशब्दां योजनपरिमण्डला सुघोषां घण्टा त्रिकृत्व उल्लालयतीति, उल्लालनानन्तरं यदजायत तदाह-'तए णं तीसे मेघोघरसिअगम्भीरमहुरयर'इत्यादि, ततः-जल्लालनानन्तरं तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरशब्दायां योजन-18 परिमण्डलायां सुघोषायां घण्टायां विकृत्व उल्लालितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशत्विमानरूपा ये ।
॥३९७॥ | आवासा-देववासस्थानानि तेषां शतसहस्त्रेषु, अब सप्तम्यर्थे तृतीया, अन्यान्येकोनानि द्वात्रिंशद् घण्टाशतसहस्राणि | यमकसमकं-युगपत् कणकणारावं कर्तुं प्रवृत्तान्यप्यभवन , अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमत्वात् घण्टाशतसहस्राण्यपि इत्येवं
अनुक्रम [२२७]
HASI
~ 797~
Page #799
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११५]
दीप
II योजनीयः, अथ घण्टानादतो यत् प्रवृत्तं तदाह-'तए ण'मित्यादि, 'ततो' घण्टानां कणकणारावप्रवृत्तेरनन्तरं सौध-| कर्मः कल्पः प्रासादानां विमानानां वा ये निष्कुटा-गम्भीरप्रदेशास्तेषु ये आपतिता:-सम्प्राप्ताः शब्दा:-शब्दवर्गणा-181 शपुद्गलास्तेभ्यः समुत्थितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतां-घण्टासम्बन्धिप्रतिशब्दानां शतसहस्राणि तैः संकुलो जातश्चाप्य
भूत् , किमुक्तं भवति ?-घण्टायां महता प्रयत्लेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु || विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिर उपजायत इति, एतेन द्वादशयोजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति न परतः ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छन्दश्रुतिरुपजायत इति यदुच्यते तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपप्रतिरूपशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासम्भवात् , एवं शब्दमये सौधमें कल्पे सजाते पदातिपतिर्यदकरोत् तदाह-तए णमित्यादि, ततः-शब्दव्यायनन्तरं तेषां सौधमकल्पवासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च एकान्तेन रतौ-रमणे प्रसक्ता-आसक्ता अत एव नित्यप्रमत्ता विषयसुखेषु मूछिता-अध्युपपन्नास्ततः पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयस्तेषां सुस्वरा या पंक्तिरथन्यायेन सुघोषा घण्टा तस्याः रसितं तस्माद् विपुल:-सकलसौधर्मदेवलोककुक्षिम्भरियों बोल:-कोलाहलस्तेन, अत्र तृतीयालोपः प्राकृतत्वात् , त्वरितं-शी चपले-ससम्भ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिकालसम्भाव्यमाने घोषणे कुतूहलेन-किमिदानीमुद्घोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन दत्तौ कौँ यैस्ते तथा, एकाग्रं-घोषणश्रवणैकविषयं चित्तं येषां ते तथा, एकान
अनुक्रम [२२७]
edesesese
Resea
~ 798~
Page #800
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११५]]
दीप
श्रीजम्बू- चित्तत्वेऽपि कदाचिन्नोपयोगः स्याच्छामस्थ्यवशादत आह-उपयुक्तमानसाः-शुश्रूषितवस्तुग्रहणपटुमनसस्त तो विशेष-18 वक्षस्कारे द्वीपशा-हणसमासस्तेषां स पदात्यनीकाधिपतिर्देवस्तस्मिन् घण्टारवे नितरां शान्त:-अत्यन्तमन्दभूतः ततः प्रकर्षण-सर्वात्मना इन्द्रकुले न्तिचन्द्री
॥४शान्तः प्रशान्तः ततश्छिन्नमरूद इत्यादाविव विशेषणसमासस्तस्मिन् सति, तत्र तत्र-महति देशे तस्मिन् २-देशैकदेशेा पालकविया वृचिः महता महता शब्देन-तारतारस्वरेण उद्घोषयन् २ एवमवादीत्, किमवादीदित्याह-'हंत सुण'मित्यादि, हस्त 18
मानस.
११५ ॥३९८॥18| इति हर्षे स च स्वस्वस्वामिनाऽऽदिष्टत्वात् जगद्गुरुजन्ममहकरणार्थकप्रस्थानसमारम्भाच्च, शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौध-18
मकल्पवासिनो पैमानिका देवा देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेरिदं वचनं हितं-जन्मान्तरकल्याणावहं सुख-तद्भवसम्बन्धि तदर्थमाज्ञापयति, भो देवाः! शक्रः तदेव ज्ञेयं, यत्प्राक्सूत्रे शक्रेण हरिनैगमेपिपुर उद्घोषयितव्यमादिष्टं यावत्मा-18 | दुर्भवत । अथ शक्रादेशानन्तरं यद्देव विधेयं तदाह-ततस्ते देवा देव्यश्च एनं अनन्तरोदितमर्थं श्रुत्वा हृष्टतुष्टयावद् हर्षवशविसर्पहृदयाः अपिः सम्भावनायामेकका:-केचन बन्दनं-अभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तदस्माभित्रिभुवनभट्टारकस्य कर्त्तव्यमित्येवंनिमित्तं एवं पूजनप्रत्ययं पूजन-गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनं एवं 'सत्कारप्रत्यय' सत्कार:-स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरणं सन्मानो-मानसप्रीतिविशेषस्तत्प्रत्ययं दर्शनं-अदृष्टपूर्वस्य जिनस्य विलो
॥३९८॥ कनं तत्प्रत्ययं कुतूहलं-तत्र गतेनास्मत्प्रभुणा किं कर्त्तव्यमित्यात्मकं तत्प्रत्ययं, अप्येककाः शक्रस्य वचनमनुवर्तमानाः न हि प्रभुवचनमुपेक्षणीयमिति भृत्यधर्ममनुश्रयन्तः अप्येकका अन्यमन्य मित्रमनुवर्तमाना मित्रगमनानुप्रवृत्ता इत्यर्थः
अनुक्रम [२२७]
eseaeeeeeeeeee
~ 799~
Page #801
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११५]
दीप
IS| अप्येकका जीतमेतद् यत् सम्यग्दृष्टिदेवर्जिनजन्ममहे यतनीयं, 'एवमादी'त्यादिकमागमननिमित्तमितिकृस्वा-चित्तेS-131 IS वधार्य यावच्छब्दात् 'अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो 'इति ग्राह्य, अन्तिकं प्रादुर्भवन्ति, अथ शक्रस्ये
| तिकर्त्तव्यमाह-'तए ण'मित्यादि, ततः शक्रो देवेन्द्रो देवराजा तान् बहून वैमानिकान् देवान् उपतिष्ठमानान् पश्यति 1 दृष्ट्वा च हतुट्ठ इत्येकदेशेन सर्थोऽपि हर्षालापको ग्राह्यः, पालकनामविमानविकुर्वणाधिकारिणमाभियोगिक देयं शब्द18| यन्ति, शब्दयित्वा च एवमवादीत्, यदवादीत्तदाह-खिप्पामेव त्ति, इदं यानविमानवर्णकं प्राग्वत् , नवरं योजन
शतसहस्रविस्तीर्णमित्यत्र प्रमाणांगुलनिष्पन्नं योजनलक्षं ज्ञेयं, ननु वैक्रियप्रयोगजनितत्वेनोत्सेधांगुलनिष्पन्नत्वमप्यस्य 8 कुतो नेति चेन्न 'नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणगुलेणं तु' इति वचनात् अस्य प्रमाणांगुलनिष्पन्नत्वं युक्तिमत्,18|
न च 'नगपुढविविमाणाईति वचनं शाश्वतविमानापेक्षया न यानविमानापेक्षयेत्ति ज्ञेयं, अस्योत्सेधांगुलप्रमाणनिष्पन्नत्वे IS जम्बूद्वीपान्तः सुखप्रवेशनीयत्वेन नन्दीश्वरे विमानसंकोचनस्य वैयर्थ्यापत्तेः, तथा श्रीस्थानाले चतुर्थाध्ययने 'चत्तारि
लोगे समा पण्णत्ता, तंजहा-अपइहाणे णरए १ जम्बुद्दीवे दीवे २ पालए जाणविमाणे ३ सबढसिद्धे महाविमाणे ४' ॥ इत्यत्रापि पालकविमानस्य जम्बूदीपादिभिः प्रमाणतः समत्वं प्रमाणांगुलनिष्पन्नत्वेनैव सम्भवतीति दिक, तथा पञ्च
शतयोजनोचं शीघ्रं त्वरितजवनं, अतिशयेन वेगवदित्यर्थः, निर्वाहि-प्रस्तुतकार्यनिर्वहणशीलं पश्चात् पूर्वपदेन कर्मधा
अनुक्रम [२२७]
~800~
Page #802
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा-2
प्रत सूत्रांक
[११५]
दीप
श्रीजम्बू-18 रयः, एवंविधं दिव्यं यानविमानं विकुर्वस्व विकुळ च एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पय, कृतकृत्यो निवेदय इत्यर्थः। तदनु यदनु-18| ५वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
जन्ममहे तिष्ठति स्म पालकस्तदाह
यानविमानं या वृत्तिः
तए णं से पालवदेवे सकोण देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ट जाव बेविअसमुग्धाएणं समोह णित्ता तहेव करे इति, ॥३९९॥
तस्स गं दिव्वस्स जाणविमाणस्स ति दिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ, तेसि णं पविरूवगाणं पुरओ पत्ते २ सोरणा वण्णओ जाव पविरूवा १, तरस णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे, से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाय दीविअचम्मेइ या अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते आवडपञ्चावडसेढिपसेढिसुस्थिअसोवस्थिअवशमाणपूसमाणवमच्छंडगमगरडगजारमारफुलावलीपडमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहि सउजोएहिं णाणाविहपभावण्णेहिं मणीहिं उबसोभिए २, तेसि णे मणीणं वण्णे गन्धे फासे अ भाणिअवे जहा रायप्पसेणहजे, तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिपछाघरमण्डवे अणेगसम्भसयसणिविढे वणओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पत्रमलयभत्तिचित्ते जाव सबतवणिजमए जाब पढिसवे, तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभागसि महं एगा मणिपेनिआ भट्ट
॥३९९॥ जोभणाई आयामविक्खम्भेणं चत्तारि जोअणाई वाहलेणं सम्वमणिमयी वण्णओ, तीए उवरिं महं एगे सीहासणे वण्णभो, तस्मुवरि महं एगे विजयदूसे सध्वरयणामए यण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे, एत्मणे मई एगे फुम्भिके मुत्तादामे, से गं अमेहिं तदद्धभत्तष्पमाणमित्तेहिं चउहि अद्धकुम्भिकेहि मुत्तादामेहिं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते, से णं दामा तव
अनुक्रम [२२७]
Deseeeecemene
versesesesedtee
।
~801~
Page #803
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११६]
दीप
णिजलंबूसगा सुवण्णपयरगमण्डिा णाणामणिरयणविविहहारहारउवसोभिआ समुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुवाइएहिं वारहिं मन्दं एइज्जमाणा २ जाव निब्बुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ जाव अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठतित्ति, तस्स गं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सफास्स चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं चउरासीइ भदासणसाहस्सीओ पुरस्थिमेणं अहण्हं अम्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीर्ण दाहिणेणं मझिमाए चदसई देवसाहस्सीणं दाहिणपञ्चस्थिमेणं वाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीर्ण पक्षस्थिमेणं सत्तण्ड अणिआहिवईणति, तए णं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसि चजण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण एवमाई विभासिमब्वं सूरिआभगमेणं जाब पञ्चप्पिणन्तित्ति (सूत्रं ११६)
'तए णं से पालए देवे सकेण'मित्यादि, ततः स पालको देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्ट | यावद् वैक्रियसमुत्पातेन समवहत्य तथैव करोति, पालकविमानं रचयतीत्यर्थः । अथ विमानस्वरूपवर्णनायाह'तस्स ण'मित्यादि इति सूत्रद्वयी व्यक्ता, अथ तद्विभागं वर्णयन्नाह-तस्स गं'इत्यादि, इदं प्राग्वद् ज्ञेयम् , नवरं मणीनां वर्णो गन्धः स्पर्शश्च भणितव्यो यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपा), अत्रापि जगतीपद्मावरवेदिकावर्णने मणिवों-18
दयो व्याख्यातास्ततोऽपि वा बोद्धव्याः, अत्र प्रेक्षागृहमण्डपवर्णनायाह-'तस्स ण'मित्यादि, यावच्छब्दग्राह्यं । 18 व्याख्या च यमकराजधानीगतसुधर्मासभाधिकारतो ज्ञेये, उपरिभागवर्णनायाह--'तस्स उल्लोए'इत्यादि, तस्योल्लोकः 18
अनुक्रम [२२८]
200093e
easeseceaesenceaeesere
~802~
Page #804
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
दीप
अनुक्रम
[२२८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
'श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥४०० ॥
उपरिभागः पद्मलताभक्तिचित्रः यावत्सर्वात्मना तपनीयमयः प्रथमयावच्छन्देन अशोकउताभक्तिचित्र इत्यादिपरिग्रहः द्वितीययावच्छन्दाद् अच्छे सण्हे इत्यादिविशेषणग्रहः, अत्र च राजप्रश्नीये सूर्याभयानविमानवर्णकेऽक्षपाटकसूत्रं | दृश्यते परं बहुष्वेतत्सूत्रादर्शेषु अदृष्टत्वान्न लिखितं, अधात्र मणिपीठिकावर्णनायाह-- ' तस्स ण' मित्यादि, व्यक्तं, 'तीए उपरिं' इत्यादि एतद्व्याख्या विजयद्वारस्थप्रकण्ठकप्रासादगतसिंहासनसूत्रबदवसेया । 'ते ण' मित्यादि, इदं | सूत्रं प्राक् पद्मवरवेदिकाजालवर्णके व्याख्यातमिति ततो वोध्यं, अत्र प्रथमयावत्पदात् 'बेइजमाणा २ पलम्बमाणा २ पझंझमाणा २ ओरालेणं मणुष्णेणं मणहरेणं कण्णमण' इति संग्रहः, द्वितीययावत्पदात् 'ससिरीए' इति ग्राह्यं, सम्प्रति अत्रास्थान निवेशनप्रक्रियामाह - 'तस्स ण'मित्यादि, 'तस्य' सिंहासनस्य पालकविमानमध्यभागवर्त्तिनोऽपरोतरायां-वायव्यामुत्तरस्यां उत्तरपूर्वायां-ऐशान्यां अत्रान्तरे शक्रस्य चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां चतुरशीतिभद्रासनसहस्राणि उक्तदित्रये चतुरशीतिभद्रासन सहस्राणीत्यर्थः, पूर्वस्यां दिश्यष्टानामग्र महिषीणामष्ट भद्रासनानि, एवं दक्षिणपूर्वायां-अग्निकोणेऽभ्यन्तरपर्षदः सम्बन्धिनां द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासन सहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमायाः पर्षदश्चतुर्दशानां देवसहस्राणां चतुर्दश भद्रासन सहस्राणि दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे बाह्यपर्षदः पोडशानां देवसहस्राणां पोडश भद्रासन सहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानीति, 'तए ण' मित्यादि, 'ततः' प्रथमवलयस्थापनानन्तरं द्वितीये वलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसृणां चतुरशीतानां चतुर्गुणीकृत चतुरशीतिसंख्याकानां
For P&P Cy
~803~
toesteestose
वक्षस्कारे जन्ममहे यान विमानं सू. १९६
॥४००॥
Page #805
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११६]
everserseas
दीप
आत्मरक्षकदेवसहस्राणां, षट्त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयमितानामात्मरक्षकदेवानामित्यर्थः, तावन्ति भद्रासनानि विकुर्वितानीत्यर्थः, एवमादि विभाषितव्यं-इत्यादि वक्तव्यं सूर्याभगमेन यावत्मत्यर्पयन्ति, यावत्पदसंग्रहश्चायम्-'तस्स गं || दिवस जाणविमाणस्स इमे एआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा णामए अइरुग्गयस्स हेमंतिअबालसूरिअस्स खाइ-15 लिंगालाण वा रतिं पञ्जलिआणं जासुमणवणस्स वा केसुअवणस्स वा पलिजायवणस्स पा सबओ समम्ता संकुसुमिअस्त, भये एआरूवे सिआ?, णो इणढे समहे, तस्स णं दिवस्स जाणविमाणस्स इत्तो इतराए चेव ४ वण्णे पण्णत्ते, गन्धो फासो अजहा मणीणं, तए णं से पालए देवे तं दिवं जाणविमाणं विउवित्ता जेणेव सके ३ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सकं ३ करयलपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्वावेइ २ ता तमाणत्ति'मिति, अत्र || व्याख्या-तस्य दिव्यस्य यानविमानस्यायमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, स यथानामकोऽचिरोगतस्व-तत्कालमुदितस्य 18 मन्तिकस्य-शिशिरकालसम्बन्धिनो वालसूर्यस्य खादिराकाराणां वा रत्ति'मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया रात्री प्रज्वालि.
तानां जपावनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजाता:-कल्पदुमास्तेषां वनस्य चा सर्वतः समन्तात् सम्यक् कुसुमितस्य, अत्र शिष्यः पृच्छति-भवेदेतद्रूपः स्यात्-कश्चित् , सूरिराह-नायमर्थः समर्थः, तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य इत इष्टतरक एव कान्ततरक एवेत्यादि प्राग्वद् , गन्धः स्पर्शश्च यथा प्रावणीनामुक्तस्तथेति, ननु अत्रैव पालकविमा|नवर्णके प्राग्मणीनां वर्णोदय उक्ताः पुनर्विमानवर्णकादिकथनेन पुनरुक्तिरिति चेत्, मैवं, पूर्व हि अवयवभूताना
अनुक्रम [२२८]
feerseisere
800989900
~804 ~
Page #806
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
दीप
अनुक्रम
[२२८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपक्षान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४०१ ॥
मणीनां वर्णादयः प्रोक्ताः सम्प्रति अवयविनो विमानस्येति नोक्तदोषः, 'तओ णं से पालए देवे' इत्यादिकमाज्ञाप्रत्यर्पणसूत्रं स्वतोऽभ्यूह्यम् । अथ शक्रकृत्यमाह -
तर से सके जाब हहिए दिव्वं जिर्णेदाभिगमणजुग्गं सब्बालंकारविभूसिअं उत्तरवेउवि रूवं बिउबर २ सा अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं णट्टाणीएणं गन्धवाणीपण व सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुविलेणं विसोबाणेणं दुरूहइ २ ता जाव सीहासांसि पुरस्थाभिमुद्दे सण्णिसण्णेति एवं चैव सामाजिभावि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरुहित्ता पत्ते २ पुरुवत्सु महासणेसु णिसीअंति अबसेसा य देवा देवीओ न दाहिणिल्लेणं तिसोवागणं दुरुहिता तहेव जाब विसीअंति, तए णं तस्स सफस्स तंसि दुरुस्स इमे अट्टमंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिआ, तयणंतरं चणं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य
पडागा सचामराय दंसणरइअआलोअदरिसणिजा बाउअविजयवेजयन्ती अ समूसिभा गगणतलमणुलिहंती पुरभो महाणुपुन्नीए संपत्थिभा, तयणन्तरं छत्तभिंगारं, तयणंतरं च णं वदरामयबद्दल संटिअसुसिलिट्ठपरिपपट्टसूपइहिए विसिद्धे अणेगवरपचवण्णकुडभी सहस्तपरिमण्डआभिरामे वाडदुअविजययेजयन्ती पडागाडा इच्छतक लिए लुंगे गयणतलमणुलिहंत सिहरे जोअणसहस्समूसिए महइमहालए महिंदाए पुरओ महाणुपुब्बीए संपत्थिपत्ति, तयणन्तरं च णं सरूवनेवत्थपरिअच्छि असुसज्जा सवालकारविभूसिआ पथ्य अणि पथा अणिआहिवईणो जाव संपद्विआ, तयणन्तरं च णं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ असरहिं सहं हं जात्र णिओगेहिं सकं देविंदं देवरायं पुरओ अ मग्गओ अ अहाठ, तयणन्तरं च णं बहने सोहम्म कम्पवासी
For P&Praise City
जिन - जन्मोत्सव अवसरे शक्र आदि इन्द्राणाम् आगमनं एवं तेषाम् कृत्याणाम् वर्णनं
~805~
वक्षस्कारे
जन्ममहे शक्रेन्द्रागमः सू. ११७
॥४०१॥
S
Page #807
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
देवा य देवीओ अ सब्बिद्धीए जाव दुरूढा सम्माणा मग्गओ अजाब संपद्विआ, तए णं से सके तेणं पञ्चाणिअपरिक्खित्तेणं जाब महिंदज्झएणं पुरओ पकडिजमाणेणं चउरासीए सामाणिज जाव परिखुडे सम्बिद्धीए जाव रवेणं सोहम्मरस कप्पस्स मझमझेर्ण तं दिव्वं देवद्धि जाव उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिले निजाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जोअणसयसाहस्सीएहिं विनाहिं ओवयमाणे २ ताए उनिहाए जाव देवगईए बीईवयमाणे २ तिरियमसंखिचाणं दीवसमुदाणं मझमझेणं जेणेव गन्दीसरवरे दीये जेणेव दाहिणपुरथिमिले रइकरगपवए तेणेव उवागच्छह २त्ता एवं जा चेव सूरिआभस्स बत्तम्बया णवरं सका हिगारो बत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविदि जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगबओ तित्ययरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव टवागच्छति र त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्येणं जाणविमाणेणं तिक्युत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुस्थिमे दिसीमागे चतुरंगुलमसंपत्त्रं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ २'चा अहहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीपहिं गन्धवाणीएण य गट्टाणीएण य साई ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ पुरथिमिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पक्षोरुहइ, तए णं सकारस देविंदस्स देवरणो घरासीह सामाणिअसाहस्सीओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोगाणपडिरूवएणं पचोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिहेर्ण तिसोवाणपडिरूवएणं पशोरुईतित्ति । तएणं से सके देविन्दे देवराया चउरासीए सामाणिअसाहस्सीएहिं जाव सद्धि संपरिबुडे सम्बिद्धीए जाय दुंदुभिणिग्योसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तिथयरमाया य तेणेव उवागच्छा २त्ता आलोए चेव पणामं करेइ २त्ता भगवं तिस्थयरं तित्थयरमावरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ ता करयल
अनुक्रम
(२२९]
~806~
Page #808
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
2008
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
श्रीजम्बू-शा जाव एवं वयासी--णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारण एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयत्थाऽसि, भहणं देवाणु
५वक्षस्कारे द्वीपशा- पिए! सके णामं देविन्दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करिस्सामि, संणं तुम्माहिं ण भाइब्वंतिका ओसोवणि जन्ममहे न्तिचन्द्रीदलयहरता तिथयरपटिरूवर्ग विउम्बइ तिथवरमाउभाए पासे ठवइ २ ता पच सके बिउबा चिम्वित्ता एगे सके भगवं
शकेन्द्रागया वृत्तिः तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सके पिट्ठओ आयवत्तं धरेद दुवे सका उमओ पासिं चामरुक्खे करेम्ति एगे सो पुरओ मामू.
११७ ॥४०२॥ यजपाणी पकदृइत्ति, तए णं से सके देविन्दे देवराया अण्णेहिं यहूहिं भवणवइवाणमन्तरजोइसवेमाणिएहि देवेहिं देवीहि अ
सद्धि संपरिखुढे सम्बिदीए जाव णाइएणं ताए उचिहाए जाच वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पत्रए जेणेष पंडगवणे जेणेष अभिसे* असिला जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ चा सीहासणवरगए पुरत्यामिमुहे सम्णिसण्णेत्ति (सूत्रं ११७)
'तए णमित्यादि, ततः स शक्र इत्यादि व्यक्तं, दिव्यं-प्रधानं जिनेन्द्रस्य भगवतोऽभिगमनाय-अभिमुखगमनाय योग्य-उचितं यादृशेन वपुषा सुरसमुदायसतिशायिश्रीर्भवति तारशेनेत्यर्थः 'सर्वालङ्कारविभूपितं' सर्वैः-17 शिरःश्रवणाचलङ्कारैविभूपित, उत्तरवैक्रियशरीरत्वात् , स्वाभाविकवैक्रियशरीरस्य तु आगमने निरलङ्कारतयैवोत्पा| दश्रवणात् , उत्तर-भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्तिकालापेक्षया चोत्तरकालभावि क्रियरूपं विकुर्वति, विकुये ||
॥४०२॥ चाष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः प्रत्येकं २ षोडशदेवीसहस्रपरिवारपरिवृताभिर्नाव्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च सार्द्ध तं विमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन २ पूर्वदिवस्थेन त्रिसोपानेनारोहति, आरुह्य च यावच्छब्दात् 'जेणेव सीहासणे तेणेव ||
अनुक्रम
(२२९]
Sasraeroeaeraaz
~807~
Page #809
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
उवागच्छइ २त्ता' इति ग्राह्यं, सिंहासने पूर्वाभिमुखः सन्निपण्ण इति । अथास्थानं सामानिकादिभिः यथा| 18 पूर्यते तथाऽऽह-एवं चेव'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं अवशेषाश्च-आभ्यन्तरपार्षद्यादयः । अथ प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुरः181
| प्रस्थायिनां क्रममाह-तए णं तस्त'इत्यादि, एतव्याख्या भरतचक्रिणोऽयोध्याप्रवेशाधिकारतो ज्ञेया, 'तए ण-18
मित्यादि, तदनन्तरं छत्रं च भृङ्गारं च छत्रभृङ्गार समाहारादेकवद्भावः, छत्रं च 'वेरुलिअभिसंतविमलदण्ड'मित्यादि-18 18 वर्णकयुकं भरतस्यायोध्याप्रवेशाधिकारतो ज्ञेयं, भृङ्गारश्च विशिष्टवर्णकचित्रोपेतः, पूर्व च भृङ्गारस्य जलपूर्णवेन कथ-18M
नात् अयं च जलरिक्तत्वेन विवक्षित इति न पौनरुत्यं, तदनन्तरं वज्रमयो-रत्नमयः तथा वृत्तं-वर्तुलं लष्ट-मनोजें । संस्थित-संस्थानं आकारो यस्य स तथा, तथा सुश्लिष्टः-सुश्लेषापनावयवो मसृण इत्यर्थः परिघृष्ट इव परिघृष्टः | खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितो न तु तिर्यकपतितया । वक्रस्तत एतेषां पदद्वयश्मीलनेन कर्मधारयः, अत एव शेषध्वजेभ्यो विशिष्टः-अतिशायी, तथाऽनेकानि वराणि पञ्चवर्णानि कुडभीना-लघुपताकानां सहस्राणि तैः परिमण्डितः-अलंकृतः स चासावभिरामश्चेति, वातोन्तेत्यादिविशेषणद्वयं व्यक्तं, तथा गगनतलं-अम्बरतलमनुलिखत्-संस्पृशत् शिखरं-अग्रभागो यस्य स तथा, योजनसहस्रमुत्सृतोऽत एवाह--'महइमहालए'इति अतिशयेन महान् महेन्द्रध्वजः पुरतो यथानुपूा सम्पस्थित इति, 'तए ण'| मित्यादि, तदनन्तरं स्वरूप-स्वकर्मानुसारि नेपथ्य-वेषः परिकच्छितः-परिगृहीतो यैस्तानि तथा, सुसज्जानि
अनुक्रम [२२९]
बीजम्म.६८
~808~
Page #810
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११७]
दीप
अनुक्रम
[२२९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥४०३॥
पूर्णसामग्रीकतया प्रगुणानि सर्वालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि पञ्चानीकाधिपतयश्च पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितानि, 'तयणन्तरं च ण' मित्यादि, तदनन्तरं बहवः आभियोगिका देवाश्च देव्यश्च स्वकैः स्वकैः रूपैः- यथास्व कर्मोंउपस्थितैरुत्तरवै क्रियस्वरूपैर्यावच्छन्दात्स्वकैः स्वकैः विभवैः - यथास्वकम्मोंपस्थितैर्विभवैः- सम्पत्तिभिः स्वकैर्नियोगे :- उपकरणैः शक्रं देवेन्द्रं देवराजं पुरतश्च मार्गतश्च पृष्ठतः पार्श्वतश्च उभयोः यथानुपूर्व्या-यथावृद्धक्रमेण सम्प्रस्थिताः, 'तयणन्तरं च णमित्यादि, तदनन्तरं बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्यश्च सर्व यावत्करणादिन्द्रस्य हरिनिगमेषिणं पुरः स्वाज्ञप्तिविषयकः प्रागुक्त आलापको ग्राह्यः तेन स्वानि २ यानविमानवाहनानि आरूढाः सन्तो मार्गतश्च यावच्छध्दात् पुरतः पार्श्वतश्च शक्रस्य सम्प्रस्थिताः । अथ यथा शक्रः सौधर्मकल्पान्निर्याति तथा चाह'तए णमित्यादि, ततः स शक्रस्तेन प्रागुक्तस्वरूपेण पञ्चभिः संग्रामिकैरनीकेः परिक्षिप्तेन सर्वतः परिवृतेन यावत् पूर्वोक्तः सर्वो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्राह्यः, महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेन निर्गम्यमानेन चतुरशीत्या सामानिकस| हसैर्यावत्करणात् 'चहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' इत्यादि ग्राह्यं, परिवृतः सर्व यावद्रवेण यावकरणात् 'सव्यज्जुईए' इत्यादि प्रागुक्कं ग्राह्यं, सौधर्भस्य कल्पस्य मध्यंमध्येन तां दिव्यां देवद्धि यावच्छब्दाद् 'दिवं देवजुई दिवं देवाणुभाव' इति ग्रहः, सौधर्मकल्पवासिनं देवानामुपदर्शयन् २ यत्रैव सौधर्मकल्पस्योत्तराहो निर्याणमार्गो-निर्गमनसम्वन्धी पन्थास्तत्रैवोपागच्छति, यथा वरयिता नागराणां विवाहोत्सव स्फातिदर्शनार्थं राजपथे
For P&False Cnly
~809~
tresesese
वक्षरकारे
जन्ममहे शक्रेन्द्राग
मः सू.
११७
॥४०३॥
Page #811
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
याति नतु नष्टरथ्यादौ तथाऽयमपि, एतेन समग्रदेवलोकाधारभूतपृथिवीप्रतिष्ठितविमाननिरुद्धमार्गत्वेनेतस्ततः सञ्चरणाभावेन मध्यंमध्येनेति उत्तरिले णिजाणमग्गे इत्युक्तमिति ये आहुस्ते आगमसाम्मत्यं युक्तिसाङ्गत्यं च प्रष्टव्याः, उपागत्य च योजनशतसाहनिकैः-योजनलक्षप्रमाणैर्विग्रहै:-क्रमैरिव गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमरूपैः, एतेन स्थावरस्वरूपस्य । विमानस्य पदन्यासरूपाः कमाः कथं भवेयुरिति शङ्का निरस्ता, अवपतन् अवपतन् तयोत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरि-1 |आए' इत्यादिग्रहः, देवगल्या व्यतिव्रजन २ तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपो || | यत्रैव तस्यैव पृथुत्वमध्यभागे दक्षिणपूर्वः-आग्नेयकोणवत्ती रतिकरपर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, इदं च स्थानांगाबाशये-1 नोक्तं, अन्यथा प्रवचनसारोद्धारादिषु पठ्यमानानां पूर्वाद्यञ्जनगिरिविदिग्व्यवस्थितवापीद्वयद्वयान्तराले बहिःको-18 णयोः प्रत्यासची प्रत्येक इयरभावेन तिष्ठतामष्टानां रतिकरपर्वतानां मध्ये विनिगमनाविरहात् कतरो रतिकरपर्वतो दक्षिणपूर्वः स्यादिति, ननु सौधर्मादवतरतः शक्रस्य नन्दीश्वरद्वीप एवावतरणं युक्तिमत्, न पुनरसंख्येयद्वीपसमुद्रा-18 तिक्रमेण तवागमन मिति, उच्यते, निर्याणमार्गस्यासंख्याततमस्य द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितस्पेन सम्भाव्यमानत्वात् तत्रावतरणं, ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति, अत्र दृष्टान्ताय सूत्रं | एवं जा चेव'त्ति एवमुकरीत्या यैव सूर्याभस्य वकव्यता यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः, नवरं अयं भेदः-शनाधिकारी वक्तव्यः-सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् 'जाव तं दिव्यं'इत्यादि, प्रायो व्यक, नवरमत्र
अनुक्रम
(२२९]
~810~
Page #812
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
श्रीजम्यू
प्रथमयावच्छन्दो दृष्टान्तविषयीकृतसूर्याभाधिकारस्यावधिसूचनार्थः, स चावधिविमानप्रतिसंहरणपर्यन्तो वाच्यः, द्विती- वक्षस्कारे द्वीपशा- ययावच्छब्दो 'दिवं देवजुई दिवं दिवाणुभावं' इति पदद्वयग्राही, अस्य चायमर्थः-दिव्यां देवद्धि-परिवारसम्पदं स्ववि-18 जन्ममहे न्तिचन्द्री- मानवजसौधर्मकल्पवासिदेवविमानानां मेरौ प्रेषणात्, तथा दिव्यां देवधुति शरीराभरणादिहासेन तथा दिव्यं देवा- शकेन्द्रागया वातानुभावं देवगति हस्वताऽऽपादनेन, तथा दिव्यं यानविमानं पालकनामकं जम्बूद्वीपपरिमाणन्यूनविस्तरायामकरणेन प्रति-16
मा . ॥४०४॥ संहरन् २-संक्षिपन् संक्षिपन्निति, तृतीययावच्छब्दो 'जेणेव जम्बुद्दीवे दीवे जेणेव भरहे वासे' इति ग्राहका, ननु
पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेणोत्तारः शक्रस्योक्तोऽपराभ्यां केषामुत्तार इत्याह-'तए णं सकस्स देविन्दस्स देवरणो' इत्यादि व्यक्तम् । अथ शकः किमकादित्याह-'तए णं से सके देविन्दे देवराया चउरासीए'इत्यादि, कण्ठवं, यावत्पदसं-18 ग्राह्यं तु पूर्वसूत्रानुसारेण बोध्यं, यदवादीत्तदाह-'णमुत्थु ते'इत्यादि, नमोऽस्तु तुभ्यं रत्नकुक्षिधारिके ! एवंप्रकार 8 सूत्रं यथा दिकुमार्य आहुस्तथाऽवादीदित्यर्थः, यावच्छब्दादिदं ग्राह्यम्-जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सबजग-18 जीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदेसिअवागिद्धिविभुप्पभुस्स जिणस्सणाणिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सबलोगणा-18 हस्स सबजगमङ्गलस्स णिम्ममस्स पवरकुलसमुप्पभवस्त जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स अणणीति, कियत्पर्य
18०४॥ तमित्याह-धन्याऽसि पुण्याऽसि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं देवानुप्रिये! शको नाम देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य | जन्ममहिमां करिष्यामि, तन युध्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा अवस्वापिनीं ददाति-सुते मेरूं नीते सुतविरहार्ता मा
अनुक्रम
(२२९]
~811~
Page #813
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११७]
दीप
अनुक्रम
[२२९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
दुःखभागभूदिति दिव्यनिद्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः, दत्त्वा च तीर्थंकरस्य मेरुं नेतव्यस्य भगवतः प्रतिरूपकं - जिनसदृशं रूपं विकुर्वन्ति, अस्मासु मेरुं गतेषु जन्ममहन्यापृतिव्यग्रेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलादिनाऽपहृतनिद्रा सती | मा इयं तथा भवत्विति भगवद्रूपान्निर्विशेषं रूपं विकुर्वतीत्यर्थः, विकुर्व्य च तीर्थकरमातुः पार्श्वे स्थापयति स्थापयित्वा च पञ्च शक्रान् विकुर्वति, आत्मना पञ्चरूपो भवतीत्यर्थः, विकुर्व्य च तेषां पञ्चानां मध्ये एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं परमशुचिना सरसगोशीर्षचन्दनलिप्तेन धूपवासितेनेति शेषः करतलयो:-ऊर्ध्वाधोब्यवस्थितयोः पुढं-सम्पुढं | शुक्तिका सम्पुटमिवेत्यर्थः तेन गृह्णाति एकः शक्रः पृष्ठत आतपत्रं छत्र धरति द्वौ शकावुभयोः पार्श्वयोश्चामरोत्क्षेपं कुरुतः एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्षति - निर्गमयति, आत्मानमिति शेषः, अग्रतः प्रवर्त्तत इत्यर्थः, अत्र च सत्यपि सामानिकादिदेव परिवारे यदिन्द्रस्य स्वयमेव पञ्चरूपविकुर्वणं तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्णसेवा लिप्युत्वेनेति । अथ यथा शक्रो विवक्षितस्थानमामोति तथा आह— 'तए णं से सके इत्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा अन्यैबहुभिर्भवनपतिधानमन्तरज्योतिष्कवैमा निकैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः सर्व यावत्करणात् 'सवज्जुईए' इत्यादि पदसङ्ग्रहः पूर्वोक्तो ज्ञेयः, तयोत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरिआए' इत्यादिग्रहः व्यतिव्रजन् २ यत्रैव मन्दरपर्वतो यत्रैव च पण्डकवनं यत्रैव चाभिषेकशिला यत्रैव चाभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासन
For P&Praise Cnly
~812~
Page #814
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [११७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
वक्षस्कारे जन्ममहे देशानेन्द्राद्यागमः सू.११८
दीप
श्रीजम्बू- वरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्ण इति, पालकविमानं च गृहीतस्वामिकस्य स्वस्वामिनः पादचारित्वेन तमनुव्रजतां
द्वीपशा-1|| देवानामप्यनुपयोगित्वादभिषेकशिलायां यावदनुब्रजदभूदिति सम्भाव्यते । अथेशानेन्द्रावसर:विचन्द्री
तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविन्दे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिन्दे उत्तरद्धलोगाहिबई अट्ठावीसविमाणवाससयसहस्साया वृत्तिः
हिवई अरयंबरवत्यधरे एवं जहा सके इमं णाणत्तं-महाघोसा घण्टा लहुपर कमो पायत्ताणियाहिबई पुप्फओ विमाणकारी दक्षिणे twષા निजाणमग्गे उत्तरपुरथिमिलो रइकरपव्वओ मन्दुरे समोसरिओ जाव पन्जुवासइत्ति, एवं अवसिहावि इंदा भाणिअव्वा जाव
अच्चुओत्ति, इसणाणतं-चउरासीइ असीइ बावत्तरि सत्तरी अ सट्ठी अ । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥१॥एए सामाणिआणं, बचीसहावीसा वारसह चउरो सयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छञ्च सहस्सारे।।१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणाचुए तिण्णि । एए विमाणाणं, इमे जाणविमाणकारी देवा, तंजहा-पालय १ पुप्फे य २ सोमणसे ३ सिरिवच्छे म ४ गंदिआवत्ते ५। कामगमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८ विमल ९ सबओभदे १०॥ १॥ सोहम्मगाणं सर्णकुमारगाणं बंभलोअगाणं महासुफयाणं पाणवगाणं इंदाणं सुधोसा घण्टा हरिणेगमेसी पायताणीआहिबई उत्तरिला णिज्जाणभूमी दाहिणपुरथिमिले रइकरगपब्बए, ईसाणगाणं भाहिंदलतगसहस्सारअक्चुअगाण य इंदाण महाघोसा घण्टा लहुपरकमो पायत्ताणीआहिवई दक्खिणिल्ले णियाणमम्मे उत्तरपुरथिमिले रइकरगपब्बए, परिसा गं जहा जीवाभिगमे आयखखा सामाणिअचगुणा सम्बेसि जाणविमाणा सम्बेसि जोअणसयसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तेणं सविमाणष्पमाणा महिंदज्झया सब्वेसि जोमणसाहस्सिआ, सकवजा मन्दरे समोअरंति जाव पञ्जुवासंतित्ति (सूत्रं ११८)
अनुक्रम
(२२९]
0900209009009090905
॥४०५॥
~813~
Page #815
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११८]
गाथा:
'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले सम्भवन्जिनजन्मके तस्मिन् समये-दिक्कुमारीकृत्यानन्तरीये न तु शकाग-1 | मनानन्तरीये सर्वेषामिन्द्राणां जिनकल्याणकेषु युगपदेव समागमनारम्भस्य जायमानत्वात्, यत्तु सूत्रे शक्रागमना
नन्तरीयमीशानेन्द्रागमनमुक्तं तत्क्रमेणैव सूत्रबन्धस्य सम्भवात् , ईशानो देवेन्द्रो देवराजा शूलपाणिर्नुपभवाहनः सुरेन्द्र । उत्तरा“लोकाधिपतिः, मेरोरुत्तरतोऽस्यैवाधिपत्यात् , अष्टाविंशतिविमानावासशतसहस्राधिपतिः अरजांसि-निर्मलानि |
अम्बरवस्त्राणि-स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पानि वसनानि धरति यः स तथा, एवं यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रस्तथाऽयमपि, 18 इदमत्र नानात्व-विशेषः महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः पुष्पकनामा विमानकारी दक्षिणा ॥ निर्याणभूमिः उत्सरपीरस्त्यो रतिकरपर्वतः मन्दरे समवसृतः-समागतः यावत्पदात् 'भगवन्तं तिरथयरं तिक्खुत्तो आया-1 | हिणपयाहिणं करेइ २ ता वन्दइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे' इति, पर्युपास्ते । अथातिदेशेनावशिष्टानां सनत्कुमारादीन्द्राणां वक्तव्यमाह-एवं अवसिट्टाविर इत्यादि, एवं-सौधर्मेशानेन्द्ररीत्या अवशिष्टा अपि इन्द्रा वैमानिकानां भणितव्याः यावदच्युतेन्द्रः- एकादशद्वादशकल्पाधिपतिरिति, अत्र यो विशेषस्तमाह-इदं नानात्वं-भेदः, चतुरशीतिः सहस्राणि शक्रस्य अशीतिः सहस्राणीशाने
न्द्रस्य द्विसप्ततिः सहस्राणि सनत्कुमारेन्द्रस्य एवं सप्ततिर्माहेन्द्रस्य चः समुच्चये षष्टिब्रह्मेन्द्रस्य चः प्राग्वत् पञ्चाशल्लान्तिकेन्द्रस्य चत्वारिंशच्छुक्रेद्रस्य त्रिंशत्सहस्रारेन्द्रस्य विंशतिरानतप्राणतकल्पद्विकेन्द्रस्य दशारणाच्युतकल्पविकेन्द्रस्य,
200000000000000secacassa
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
~814 ~
Page #816
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११८]
गाथा:
श्रीजम्यू-1 एते संख्याप्रकाराः सामानिकाना देवानां क्रमेण दशकल्पेन्द्रसम्बन्धिनामिति, तेन 'चउरासीए सामाणि असाहस्सीण'-18/५वक्षस्कारे द्वीपशा- मित्येतद्विशेषणस्थाने प्रतीन्द्रालापकं असीइए सामाणिअसाहस्सीणमित्यादिअभिलापो ग्राह्यः, तथा सौधर्मेन्द्रकल्पे 18 जन्ममहे न्तिचन्द्र द्वात्रिंशल्लक्षाणि ईशाने अष्टाविंशतिर्लक्षाणि एवं सनत्कुमारे द्वादश माहेन्द्रे अष्ट ब्रह्मलोके चत्वारि तथा लान्तके 8
ईशानेन्द्राया चिः IN पञ्चाशत्सहस्राणि एवं शुक्रे चत्वारिंशत्सहस्राणि चः समुच्चये सहस्रारे पट् सहस्राणि आनतप्राणतकल्पयोर्द्वयोः समु-181
द्यागमः
PSI मू.११८ १४०६॥ दितयोश्चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोस्त्रीणि शतानि एते विमानानां संख्याप्रकाराः, यानविमानविकुर्वकाश्च देवा इमे ।
वक्ष्यमाणाः शक्रादिक्रमेण, तद्यथा-पालकः १ पुष्पकः २ सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ चः समुच्चये नन्दावतः ५ कामगमः ६ प्रीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमलः ९ सर्वतोभद्र १० इति, अथ दशसु कल्पेन्द्रेषु केनचित्प्रकारेण पञ्चानां २
साम्यमाह-सौधर्मकानां-सौधर्मदेवलोकोत्पन्नानां एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, तथा सनत्कुमारकाणां ब्रह्मलोककानां महाशुक्र-2 IS कानां प्राणतकानामिन्द्राणां, बहुवचनं सर्वकालवीन्द्रापेक्षया, सुघोषा घण्टा हरिनेगमेषी पदात्यनीकाधिपतिः इति
औत्तराहा निर्याणभूमिः दक्षिणपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, तथा ईशानकानां माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतकानां च इन्द्राणां महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिः दक्षिणो निर्याणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, णमिति वाक्या- ४०६॥ लङ्कारे, पर्षदः-अभ्यन्तरमध्यवाह्यरूपाः यस्य यावद्देवदेवीप्रमाणा भवन्ति तस्य तावत्प्रमाणा यथा जीवाभिगमे तथा || ज्ञेयाः, ताश्चैवं शक्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि १२ सहस्राणि देवानां मध्यमायां १४ सहस्राणि बाह्यायां १६ सहस्राणि
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
~815~
Page #817
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११८]
929
गाथा:
ईशानेन्द्रस्याद्यायां १० सहस्राणि द्वितीयायां १२ सहस्राणि तृतीयायां १४ सहस्राणि, सनत्कुमारेन्द्रस्थाद्यायां १. सहस्राणि द्वितीयस्यां १० सहस्राणि तृतीयायां १२ सहस्राणि एवं माहेन्द्रस्य क्रमेण ६ सहस्राणि ८ सहस्राणि १०
सहन्नाणि ब्रह्मेन्द्रस्य ४-६-८ सहस्राणि लान्तकेन्द्रस्य २-४-६ सहस्राणि शुक्रेन्द्रस्य १-२-४ सहस्राणि सहस्रारे-18 |न्द्रस्य ५०० शतानि १० शतानि २० शतानि आनतप्राणतेन्द्रस्य २ शते सार्दै ५ शतानि १० शतानि आरणाच्यु-18 | तेन्द्रस्य १ शतं २ शते सार्दै ५०० शतानि, इमाश्च तत्तदिन्द्रवर्णके 'तिण्हं परिसाण'मित्याधालापके यथासंह भाव्याः।
शकेशानयोर्देवीपर्षप्रयं जीवाभिगमादिषूकमपि श्रीमलयगिरिपादैः खावश्यकवृत्ती जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमध्यगतोऽयमितिलि। ख्यमानजिनजन्माभिषेकमहान्थे नोक्तमिति मया तदनुयायित्वेन नालेखि, आत्मरक्षा:-अहरक्षका देवाः सर्वेषामिन्द्राणां %
स्वस्वसामानिकेभ्यश्चतुर्गुणाः, एते चेत्थं वर्णके अभिलाप्या: 'चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउण्हं असीईणं | | आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेवच' इत्यादि, तथा यानविमानानि सर्वेषां 18 योजनशतसहस्रविस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्वविमानप्रमाणानि-इन्द्रस्य स्वस्वविमानं सौधर्मावतंसकादि तस्येव प्रमाणं पञ्च-18 शतयोजनादिकं येषां तानि तथा, अस्यायमर्थ:-आद्यकल्पद्विकविमानानामुखत्वं पञ्चयोजनशतानि द्वितीये द्विके पद योजनशतानि तथा तृतीये द्विके सप्त तथा चतुर्थे द्विकेऽष्टौ ततोऽग्रेतने कल्पचतुष्के विमानानामुञ्चत्वं नव योजना-18
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
ceaeee
~816~
Page #818
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [५], ----
---------- मूल [११८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [११८]
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
Sasa
॥४०७॥
गाथा:
तानि, तथा सर्वेषा महेन्द्रध्वजाः योजनसाहनिकाः-सहस्रयोजनविस्तीर्णा शक्रवर्जा मन्दरे समवसरन्ति यावत्पर्यु-18५वक्षस्कारे पासते यावत्पदसंग्रहः प्राग्वत् । अथ भवनवासिनः--
जन्ममहे
चमराया. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिन्दे असुरराया चमरचश्चाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसडीए
गमः सू. सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायचीसेहिं चउहिं लोगपालहिं पञ्चहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्ताहि अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबईहिं चउहिं च उसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं अण्णेहि अ जहा सके णवरं इमं णाणतं-दुमो पायत्ताणीआहिबई भोघस्सरा घण्टा विमाणं पण्णास जोअणसहस्साई महिन्दाभो पञ्चजोअणसयाई विमाणकारी आमिओगिओ देवो अवसिई तं चेव जाव मन्दरे समोसरइ पज्जुवासईति । तेणं कालेणं तेणं समएणं वली अमुरिन्दे असुरराया एवमेव णवरं सही सामाणीसाहस्सीमो चगुणा आयरक्खा महादुमो पायताणीाहिबई महामोहस्सरा घण्टा सेसं तं व परिसाओ जहा जीवाभिगमे इति । तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेब णाणत्तं छ सामाणिअसाहस्सीओ छ अग्गमहिओ घउपगुणा आयरक्खा मेघस्सरा घण्टा भहसेणो पायत्ताणीयाहिबई विमाणं पणवीसं जोअणसहस्साई महिंदज्झओ अद्धाइजाई जोअणसयाई एवमसुरिन्दवजिआणं भवणवासिईदाण, गवरं असुराण ओघस्सरा घण्टा णागाणं मेघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा विजूणं कोंच
O ॥४०७॥ स्सरा अग्गीर्ण मंजुम्सरा दिसाणं मंजुघोसा उदहीणं सुस्सरा दीवाणं महुरस्सरा बाऊणं गंदिस्सरा थणिआणं गंदिपोसा, चउसट्ठी सही सलु छच्च सहस्सा उ असुरव जाणं । सामाणिआ उ एए च उगुणा आयरक्सा ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्ताणााहिबई
टKिe
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
~817~
Page #819
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
-------- मूलं [११९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११९]
भद्दसेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति । वाणमन्तरजोइसिआ अव्वा, एवं चेव, णवरं च सारि सामाणिअसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सोलस आयरक्खसहस्सा विमाणा सहस्सं महिन्दज्झया पणवीसं जोअणसयं घण्टा दाहिणाणं मंजुस्सरा उत्तरार्ण मंजुघोसा पायताणीसाहिबई विमाणकारी अ आमिओगा देवा जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घण्टाओ मन्दरे समोसरणं जाव पज्जुवासंतित्ति (सूत्रं ११९) "तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि प्राग्वत् , चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजा चमरचञ्चायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां चमरे सिंहासने चतुःषष्ट्या सामानिकसहस्रः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशैः चतुर्भिः लोकपालैः पञ्चभिरग्रमहिषीभिः सपरिवारा-18 भिः तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकै सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चतसृभिः चतुःषष्टिभिरात्मरक्षकसहस्रैः अन्यैश्चेत्यालापका-15 शेन सम्पूर्ण आलापकस्त्वयं बोध्यः-'चमरचञ्चारायहाणीवत्यहिं बहूहिँ असुरकुमारेहिं देवेहि अ देवीहि अत्ति, यथा शक्रस्तथाऽयमप्यवगम्यः, नवरमिदं नानात्वं-भेदः, दुमः पदात्यनीकाधिपतिः ओघस्वरा घण्टा यानविमानं पश्चाशद् योजनसहस्राणि विस्तारायाम महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतान्युच्चः विमानकृदाभियोगिको देवो न पुनर्वैमानिकेन्द्राणां पालकादिरिव नियतनामकः अवशिष्टं तदेव-शक्राधिकारोक्तं वाच्यं नवरं दक्षिणपश्चिमो रतिकरपर्वतः, कियहर-19 मित्याह-यावन्मन्दरे समवसरति पर्युपास्त इति । अथ बलीन्द्रः-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये वलिरसुरेन्द्रोऽसुरराजा एवमेवेति-चमर इव नवरं षष्टिः सामानिकसहस्राणि चतुर्गुणा आत्मरक्षाः, सामानि
Researcedescce
गाथा:
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
982928Gee
~818~
Page #820
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [५], ------
..................-------- मूलं [११९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
सूत्रांक [११९]
गाथा:
श्रीजम्बू- कसंख्यातचतुर्गुणसंख्याताः आत्मरक्षका इत्यर्थः, महाद्रुमः पदात्यनीकाधिपतिः महौघस्वरा घण्टा 'व्याख्यातोऽधिकं वक्षस्कारे द्वीपशा- मतिपद्यत' इति चमरचञ्चास्थाने बलिचञ्चा दाक्षिणात्यो निर्याणमार्गः उत्तरपश्चिमो रतिकरपर्वत इति, शेष-यानवि
जन्ममहे न्तिचन्द्रीमानविस्तारादिकं तदेव-चमरचञ्चाधिकारोक्तमेव, पर्षदो यथा जीवाभिगमे, इदं च सूत्रं देहलीप्रदीपन्यायेन सम्बन्ध-15
चमराधाया चिः
गमः सू. नीयं, यथा देहलीस्थो दीपोऽन्तःस्थदेहलीस्थबाह्यस्थवस्तुप्रकाशनोपयोगी तथेदमप्युक्ते चमराधिकारे उच्यमाने बली-1 Iણા IS न्द्राधिकारे वक्ष्यमाणेष्वष्टसु भवनपतिधूपयोगी भवति, त्रिवप्यधिकारेषु पर्षदो वाच्या इत्यर्थः, तथाहि--चमरस्याभ्य-18
न्तरिकायां पर्षदि २४ सहस्राणि देवानां मध्यमायां २८ सहस्राणि बाह्यायां च ३२ सहस्राणि, तथा बलीन्द्रस्याभ्य-15 तरिकायां पर्षदि २० सहस्राणि मध्यमायां २४ सहस्राणि वाह्यायां २८ सहस्राणि, तथा धरणेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां || पर्षदि ६० सहस्राणि मध्यमायां ७० सहस्राणि बाह्यायां ८० सहस्राणि, भूतानन्दस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि ५० सह-8 स्राणि मध्यमायां ६० सहस्राणि बाह्यायां ७० सहस्राणि, अवशिष्टानां भवनवासिषोडशेन्द्राणां मध्ये ये वेणुदेवादयो । दक्षिणश्रेणिपतयस्तेषां पर्षत्रयं धरणेन्द्रस्येव उत्तरश्रेण्यधिपानां वेणुदालिप्रमुखाणां भूतानन्दस्येव ज्ञेयम् । अथ धरणः| तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये धरणस्तथैव-चमरवत् नवरमिदं नानात्व-भेदः षट् सामानिक-18 | सहस्राणां षडग्रमहिष्यः चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः मेघस्वरा घण्टा भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः विमानं पञ्चविंशतियो- ४०८॥ जनसहस्राणि महेन्द्रध्वजोऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि, अथावशिष्टभवनवासीन्द्रवक्तव्यतामस्यातिदेशेनाह--'एवम-1
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
aSaareenara
FReser
~819~
Page #821
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
..................-------- मूलं [११९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११९]
गाथा:
18 सुरिन्द'इत्यादि, एवं-धरणेन्द्रन्यायेनासुरेन्द्रौ-चमरवलीन्द्रौ ताभ्यां वर्जितानां भवनवासीन्द्राणां भूतानन्दादीनां वक्त-15
व्यं बोध्यं, नवरं असुराणां-असुरकुमाराणां ओघस्वरा घण्टा नागाना-नागकुमाराणां मेघस्वरा घण्टा सुपर्णानांगरुडकुमाराणां हंसस्वरा विद्युत्कुमाराणां कौश्चस्वरा अग्निकुमाराणां मंजुस्वरा दिक्कमाराणां मंजुघोषा उदधिकुमाराणां । सुस्वरा द्वीपकुमाराणां मधुरस्वरा वायुकुमाराणां नन्दिस्वरा स्तनितकुमाराणां नन्दिघोषा, एषामेवोक्तानुक्तसामानिकसं||शहार्थं गाथामाह-चतुष्पष्टिश्चमरेन्द्रस्य पष्टिबलीन्द्रस्य खलुनिश्चये पट् च सहस्राणि असुरवर्जानां धरणेन्द्रादीनामष्टा18| दशभवनवासीन्द्राणां सामानिकाः चः समुच्चये तथा पुनरर्थे भिन्नक्रमे तेनैते सामानिकाः चतुर्गुणाः पुनरात्मरक्षका
|| भवन्ति, दाक्षिणात्यानां चमरेन्द्रजितानां भवनपतीन्द्राणां भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः औत्तराहाणां बलिवर्जितानां 18 दक्षो नाम्ना पदातिपतिः, यश्चात्र घण्टादिकं पूर्व स्वस्वसूत्रे उक्तमप्युक्तं तत्समुदायवाक्ये सर्वसङ्ग्रहार्थमिति । अथ व्यन्तरेन्द्र
ज्योतिष्केन्द्रा:-'वाणमंतर' इत्यादि, व्यन्तरेन्द्रा ज्योति केन्द्राश्च नेतव्या:-शिष्यबुद्धि प्रापणीयाः एवमेव, यथा भवन-18 वासिनस्तथैवेत्यर्थः, नवरं चत्वारि सामानिकानां सहस्राणि चतस्रोऽयमहिष्यः षोडश आत्मरक्षकसहस्रा विमानानि योजन-18 सहनमायामविष्कम्भाभ्यां महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतं घण्टाश्च दाक्षिणात्यानां मझुस्वरा औत्तराहाणां मञ्जुघो-|| पाः, पदात्यनीकाधिपतयो विमानकारिणश्च आभियोगिका देवाः, कोऽर्थः-स्वाभ्यादिष्टा हि आभियोगिका देवा घण्टा-1 वादनादिकर्मणि बिमानविकुर्वणे च प्रवर्तन्ते न पुनहरिनिगमैपिवत्पालकवञ्च निर्दिष्टनामका इति, व्याख्या विशेषप्रति-18
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
Jantic
~820~
Page #822
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----
..........................-- मूलं [११९] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११९]
eese
गाथा:
श्रीजम्बू- पादिनी तिसत्रेऽनुक्तमपीदं बोध्यं-सर्वेषामभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां ८ सहस्राणि मध्यमाया १० सहस्राणि बाह्या-10
५वक्षस्कारे यां १२ सहस्राणीति, एतेषामुलेखस्त्वयम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं काले णामं पिसाइंदे पिसायराया चाहिं सामा-|| जन्ममहे न्तचन्द्रा- या वृत्तिः
णिअसाहस्सीहिं चरहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीपहिं सत्ताहि अणीहिवइहिं सोलसहिंचमराधा1) आयरक्खदेवसाहस्सीहि' 'तं चेब, एवं सधेषी'ति, व्यन्तरा इव ज्योतिष्का अपि ज्ञेयाः, सेन सामानिकादिसङ्ख्यासु न। गमः स.
११९ ॥४०९॥1 विशेषः, घण्टासु चायं विशेष:-चन्द्राणां सुस्वरा सूर्याणां सुस्वरनि?षा, सर्वेषां च मंदरे समवरणं वाच्यं यावत्पर्युपा-1
|| सते. यावच्छन्दग्राह्य तु प्रारदर्शितं ततो ज्ञेयं, एतदुल्लेखस्त्वयं-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिंदा जोइसरायाणो 18 पत्ते पत्ते चाहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिपहिं सत्तहिं अणिआहिय
& इहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि, एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरावि' नन्वत्रोल्लेखे चन्द्राः सूर्या इत्यत्र बहुवचनं, 18 किमर्थम् ?, प्रस्तुतकर्मणि एकस्यैव सूर्यस्य चन्द्रस्य चाधिकृतत्वात् अन्यथेन्द्राणां चतुःषष्टिसङ्ख्याकत्वव्याघातात् ,
उच्यते, जिनकल्याणकादिषु दश कल्पेन्द्रा विंशतिर्भवनवासीन्द्रा: द्वात्रिंशब्यन्तरेन्द्राः एते व्यक्तित: चन्द्रसूर्यो तु 18 जात्यपेक्षया तेन चन्द्राः सूर्या असङ्ख्याता अपि समायान्ति, के नाम न कामयन्ते भुवनभट्टारकाणां दर्शनं स्वदर्शनं । ॥४०९||
अपषवः१. यदक्तं शान्तिचरित्रे श्रीमनिदेवसरिकृते श्रीशान्तिदेवजन्ममहवर्णने-ज्योतिष्कनायकी पुष्पदन्ती सजया-॥ तिगाविति । हेमाद्रिमाद्रियन्ते स्म, चतुःषष्टिः सुरेश्वराः॥१॥" अथामीषां प्रस्तुतकर्मणीतिवक्तव्यतामाह
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
~821~
Page #823
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप
तए णं से अपचुए देविन्द देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सहावेइ २ चा एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! महत्वं महाधं महारिई विउलं तित्थयराभिसे उबट्ठवेह, तए पं ते अमिओगा देवा हहतुह जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिम विसीभार्ग अवकमन्ति २ ता वेडब्विअसमुग्घाएणं जाव समोहणित्ता असहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं मणिमयाणं मुषण्णरुप्पमयाणं सुवण्णमणिमवाणं रुप्पमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं अटुसहस्सं भोमिजाणं अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयंसाणं यालाणं पाईणं सुपईडगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुष्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सञ्चचंगेरीओ सन्यषडलगाई विसेसिअतराई भाणिअव्वाई, सीहासणछत्तचामरतेहासमुग्ग जाव सरिसवसमुग्गा तालिअंदा जाव अद्वसहस्सं कबुच्छुगाणं विउव्वंति विउवित्ता साहाविए विउविए अ कलसे जाव कदुच्छुए अ गिहित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोवर्ग गिण्हन्ति २त्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताई साई गिण्डंति, एवं पुक्खरोदाओ जाव भरहेरखयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टिअं च गिण्हन्ति २ ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुहिमवन्ताओ सब्बतुअरे सबपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले जाव सव्वासहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति २ ता पमहाओ दहोअगं उप्पलादीणि अ, एवं सत्यकुलपव्यएसु वट्टवेअढेसु सबमहरहेसु सव्ववासेसु सम्बचकवट्टिविजएसु वक्खारपब्बएमु अंतरणईसु विभासिज्जा जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभहसालवणे सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थर अगिहन्ति, एवं णन्दणवणाओ सव्वतुअरे जाव सिद्धत्यए अ सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हन्ति, एवं सोमणसपंचगवणाओ अ सव्वतुअरे जाव सुमणसदामं ददरमलय
अनुक्रम [२३९]
~822 ~
Page #824
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२०]
सू. १२०
श्रीजम्बू- सुगन्धे य गिण्हन्ति २ ता एगओ मिलंति २ ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छन्ति २ ता महत्थं जाव तित्थयराभिसेअं
५वक्षस्कारे द्वीपशा- उबट्ठतित्ति (सूत्र १२०)
जिनजन्मन्तिचन्द्री
___ 'तए णमित्यादि, ततः सोऽच्युतो यः प्रागभिहितो देवेन्द्रो देवराजा महान् देवाधिपो महेन्द्रः चतुःषष्टावपि 8 या वृति:
इन्द्रेषु लब्धप्रतिष्ठोऽत एवास्य प्रथमोऽभिषेक इति, आभियोग्यान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा च एवमवादीत्, नाभियोगः ॥४१॥ यदवादीत्तदाह-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! महार्थ महाहं विपुलं तीर्थकराभिषेकमुपस्थापयत, अत्र महार्थादिपदानि 8
प्राग्भरतराज्याधिकारे वर्णितानि, वाक्ययोजना तु सुलभा, अथ यथा ते चक्रुस्तथाऽऽह-तएण'मित्यादि, ततस्ते आभि-18
योगिका देवा इष्टतुष्टयावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन यावत्पदात् 'समो-18 ॥ हणंति'त्ति ग्राह्यं समवहत्य चाष्टसहस्र-अष्टोत्तरं सहस्रं सौवर्णिककलशानां विकुर्वन्तीति सम्बन्धः, एवं अष्टसहस्रं रूप्य
मयानां मणिमयानां सुवर्णरूप्यमयानां सुवर्णमणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानां अष्टसहस्रं भौमेयकानां । | मृन्मयानामित्यर्थः अष्टसहस्रं वन्दनकलशानां-मङ्गल्यघटानां एवं भृकाराणां आदर्शानां स्थालीनां पात्रीणां सुप्रतिष्ठ8 कानां चित्राणां रत्नकरण्डकानां वातकरकाणां-बहिश्चित्रितानां मध्ये जलशून्यानां करकाणां पुष्पचङ्गेरीणामष्टसहस्रं,
॥४१॥ 18 एवमुक्तन्यायेन यथा सूर्याभस्य राजप्रश्नीये इन्द्राभिषेकसमये सर्वचङ्गेयस्तथाऽत्र वाच्याः 'अहसहस्सं आभरणचङ्गेरीणं
लोमहत्वचङ्गेरीण'मिति, तथा सर्वपटलकानि वाच्यानि, तथाहि-अष्टसहस्रं पुष्पपटलकानां, इमानि वस्तूनि सूर्याभा
20900000000000000
दीप
अनुक्रम [२३९]
~823~
Page #825
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप
भिषेकोपयोगवस्तुभिः सङ्ख्ययैव तुल्यानि नतु गुणेनेत्याह-विशेषिततराणि-अतिविशिष्टानि भणितव्यानि-वाच्यानि, प्रथमकल्पीयदेवविकुर्वणातोऽच्युतकल्पदेवविकुर्वणाया अधिकतरत्वात्, तथा सिंहासनच्छत्रचामरतिलसमुद्गकयावशत्सर्षपसमुद्गकः, अत्र यावत्पदात् कोष्ठसमुद्गकादयो वाच्याः, एषां च व्याख्या प्राग्वत्, तालवृन्तानि यावत्करणात् व्यजनानीति ग्रहः, तत्र व्यजनानीति सामान्यतो वातोपकरणानि तालवृतानि तद्विशेषरूपाणि, एषामष्टसहस्रमष्टसहसमिति, अष्टसहयं धूपकडुग्छुकानामिति । अथ विकुर्वणायाः सार्थकत्वमाह-'विउधित्ता' इत्यादि, विकुर्वित्वा च । स्वाभाविकान्-देवलोके देवलोकवत् स्वयंसिद्धान् शाश्वतान् वैक्रियांश्च-अनन्तरोक्तान सौवर्णादिकान् यावच्छन्दात् । भृङ्गारादयो व्यजनान्ता ग्राह्याः, धूपकडुच्छुकांश्च सूत्रे साक्षादुपात्तान्, गृहीत्वा च यत्रैव क्षीरोदः समुद्रः तत्रैवागत्य |क्षीरोदकं-क्षीररूपमुदकं गृह्णन्ति, ननु मेरुतोऽभिषेकाङ्गभूतवस्तुग्रहणाय चलन्तस्ते देवास्तद्ग्रहणोपयोगि वस्तुजातं | 18 कलशभृङ्गरादिकं गृह्णन्तु परं तदनुपयोगि यावच्छब्दोदरप्रविष्टं सिंहासनचामरादिकं तैलसमुद्गकादिकं च कथं गृह-12]
तीति चेदुच्यते, विकुर्वणासूत्रस्यातिदेशेन ग्रहणसूत्रस्यातिदिष्टत्वादेतत्सूत्रपाठस्यान्तर्गतत्वेऽपि ये ग्रहणोचितास्ते एव ||S 18 गृहीता इति बोध्यं, योग्यतावशादेवार्थप्रतिपत्तेः, यच्च धूपकडुच्छुकानां तब ग्रहणं तत्कलशभृङ्गारादिदेवहस्तधूपना-1 18थमिति, अन्यथा सूत्रे साक्षादुपदर्शितस्य धूपकडुच्छुकानां ग्रहणस्य नैरर्थक्यापत्तेः, अथ प्रस्तुतसूत्र-गृहीत्वा च यानि |
तत्र क्षीरोदे उत्पलानि पद्मानि यावत्सहनपत्राणि तानि गृहन्ति यावत्पदात् कुमुदादिग्रहः, एवमनया रीत्या पुष्क-18
अनुक्रम [२३९]
ese
~824 ~
Page #826
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
सूत्रांक
[१२०]
दीप
रोदात्-तृतीयसमुद्रात् सदकादिकं गृह्णन्ति, यत्तु क्षीरोदाद्विनिवृत्तैर्वारुणीवरमन्तरा मुक्त्वा पुष्करोदे जलं गृहीतं तद्वारुणी-1
|५वक्षस्कारे द्वीपशा- ॥ वरवारिणोऽग्राह्यत्वादिति सम्भाव्यते, यावच्छब्दात् समयखित्ते इति ग्राह्यं, तेन समयक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतयोः । जिनजन्मविचन्द्री
| प्रस्तावात् पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कयोः मागधादीनां तीर्थानामुदकं मृत्तिकां च गृह्णन्ति, 'एवं मिति समयक्षेत्रस्थपुष्कर-13|| महे अच्युया वृतिः वरद्वीपार्द्धसत्कानां गङ्गादीनां महानदीनां आदिशब्दात् सर्वमहानदीग्रहः यावत्पदात् उदकमुभयतटमृत्तिकां गृह्णन्ति,
ताभियोगः ॥४१॥ ॥ क्षुद्रहिमवतः सर्वान् तुबरान-कषायद्रव्याणि आमलकादीनि सर्वाणि जातिभेदेन पुष्पाणि सर्वान् गन्धान्-वासादीन् |
सू. १२० 18| सर्वाणि माल्यानि-अधितादिभेदभिन्नानि सर्वो महौषधी:-राजहंसीप्रमुखाः सिद्धार्थकांश्च-सर्पपान् गृहन्ति २ वा च
पद्मबहाद् द्रहोदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, एवं क्षुद्रहिमवन्यायेन सर्वक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः मध्यपद-11 लोपे कुलपर्वता हिमाचलादयस्तेषु वृत्तवैताव्येषु सर्वमहाद्रहेषु-पद्मद्रहादिषु सर्ववर्षेषु-भरतादिषु सर्वचक्रवर्तिविजयेषु-18
कच्छादिषु वक्षस्कारपर्वतेषु-गजदन्ताकृतिषु माल्यवदादिषु सरलाकृतिषु च चित्रकूटादिषु तथा अन्तरनदीषु-पाहावAS त्यादिषु विभाषेत-वदेत् , पर्वतेषु तु तुबरादीनां द्रहेषु उत्पलादीनां कर्मक्षेत्रेषु मागधादितीर्थोदकमृदां नदीषूदकोभय
तटमृदां ग्रहणं वक्तव्यमित्यर्थः, यावत्पदात् देवकुरुपरिग्रहस्तेन कुरुद्वये चित्रविचित्रगिरियमकगिरिकाश्चनगिरिहृददश- ४११॥ केषु यथासम्भवं वस्तुजातं गृहन्ति, यावत्पदात् पुष्करवरद्धीपार्द्धस्य पूर्वापरार्द्धयोर्भरतादिस्थानेषु वस्तुग्रहो वाच्यः,18 ततो जम्बूद्वीपेऽपि तद्महस्तथैव वाच्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-सुदर्शने पूर्वार्धमेरौ भद्रशालवने नन्दनवने सौमनसबने 8
अनुक्रम [२३९]
Jaticiandon
~825~
Page #827
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप
18| पण्डकवने च सर्वतुवरान् गृह्णन्ति तथा तस्यैवापरार्धे अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति, ततो पातकीखण्डजम्बूद्वीप-1
गतो मेरुस्तस्य भद्रशालवने सर्वतुबरान यावत् सिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति, एवमस्यैव नन्दनवनात् सर्वतुबरान् यावत्सिथिकांश्च सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम-प्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति, एवं सौमनसवनात् सूत्रपाठे पश्चमीलोपः प्राकृतत्वात् पण्डकवनाच सर्वतुबरान यावत् सुमनोदामदर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धान, दर्दरमलयौ चन्दनोत्पत्तिखानिभूतौ पर्वतौ तेन तदुद्भवं चन्दनमपि 'तात्त्स्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति न्यायेन दर्दरमलयशब्दाभ्यामभिधीयते, ततो दर्दरमलयनामके चन्दने तयोः सुगन्धः-परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धान-वासान् गृह्णन्ति, गृहीत्वा च इतस्ततो विप्रकीर्णा आभियोग्यदेवा एकत्र मिलन्ति मिलित्वा च यत्रैव स्वामी तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च तं महाथ यावच्छब्दात् महार्य महार्ह विपुलमिति पदत्रयी तीर्थकराभिषेक तीर्थकराभिषेकयोग्यं क्षीरोदकाधुपस्करमुपस्थापयन्ति-उपनयन्ति, अच्युतेन्द्रस्य समीपस्थितं कुर्वन्तीत्यर्थः । अथाच्युतेन्द्रो यदकरोत्तदाहतए णं से अच्चुए देविन्दे दसहि सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए सायचीसपहिं पउहिं लोगपालेहि तिहिं परिसाहिं सत्ताहि अणियहिं सत्तहिं अणिआहिबईहिं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहि सद्धिं संपरिखुडे तेहिं साभाविएहिं विउविएहि अ वरकमलपहहाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुष्णेहिं चन्दणकयचच्चाएहिं आविद्धकण्ठेगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहिं करयलसुकुमारपरिमाहिराहि अहसहस्सेणं सोवण्णिआणं कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेजागं जाव सब्बोदपहिं सब्वमट्टिाहिं सञ्चतुअरेहिं जाव
easeseeRestaesesesekesepeserse
अनुक्रम [२३९]
~826~
Page #828
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
न्तिचन्द्र
R५वक्षस्कारे
जन्ममहे अच्युताभियोगः मू.१२१
या चिः
सूत्रांक [१२१]
॥४१२॥
दीप अनुक्रम [२४०]
सब्बोसहिसिद्धत्यएहिं सबिट्टीए जाव रवेणं मह्या २ तित्थयराभिसेएणं अमिसिंचंति, तए णं सामिस्स मह्या २ अभिसेसि वट्टमाणसि इंदाईभा देवा छत्तचामरघुवकान्छुअपुष्फगन्धजावहत्थगया हहतुह जाव वजासूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति, एवं विजयाणुसारेण जाव अप्पेगइआ देवा आसिअसंमजिओचलित्तसित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवीहि फरेन्ति जाव गन्धवट्टिभूअंति, अप्पेग० हिरण्णवास वासिंति एवं सुवण्णरयणवइरआमरणपत्तपुष्फफलबीअमल्लगन्धवण्ण जाव चुण्णचास वासंति, अप्पेगइआ हिरण्णविहिं भाईति एवं जाव चुण्णविधि भाईति, अप्पेगइआ चउन्विहं वजा वायन्ति तंजहा-ततं १ विततं २ घणं ३ झुसिर ४, अप्पेगइआ चउम्बिह गेों गायन्ति, तंजहा-उक्खितं १ पायत्तं २ मन्दायईयं ३ रोइआवसाणं ४, अप्पेगइआ चउब्विहं णटुं णच्चन्ति, तं-अंचि १ दुअं २ आरभडं ३ भसोलं ४, अप्पेगइआ चउठिवह अभिणयं अभिणेति, तं०-दिहति पाडिस्सुइ सामण्णोवणिवाइअं लोगमज्झावसाणिों, अप्पेग० वत्तीसइविहं दिव्यं णट्टविहिं उवदंसेन्ति, अप्पेगइआ उप्पयनिवयं निवयउप्पयं संकुचिअपसारिअं जाव भन्तसंभन्तणामं दिश्व नविहिं उबदसन्तीति, अप्पेगइआ तंडवेंति अप्पेगइआ लासेन्ति अप्पेगइआ पीणेन्ति, एवं बुकारेन्ति अप्फोडेन्ति बग्गन्ति सीहणायं णदन्ति अप्पे० सम्बाई करेन्ति अप्पे० यहे सि एवं हत्यिगुलगुलाइ रहघणघणाइ अपे० तिण्णिवि, अप्पे० उच्छोलन्ति अप्पे० पच्छोउन्ति अपे० तिवई छिदन्ति पायदहरय करेन्ति भूमिचवेढे दळयन्ति अप्पे० महया सद्देणं राति एवं संजोगा विभासिअब्बा, अप्पे हकारेन्ति, एवं पुकारेन्ति वकारेन्ति ओवयंति उप्पयंति परिवयंति जलन्ति तवंति पयवंति गजति विजुआयंति वासिति अप्पेगइआ देवुकलिभं करेंति एवं
॥४१२॥
~827~
Page #829
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
92900000
[१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
देवकहकहगं करेंति अप्पे० दुहृदुहुगं करेंति अप्पे० विकिमभूयाई रुबाई विउन्वित्ता पणचंति एषमाइ विभासेजा जहा विजयस्स जाव सब्बओ समन्ता आहाति परिधातित्ति । (सूत्र १२१)
'तए णं से अचुए' इत्यादि, ततः उपस्थितायामभिषेकसामन्यां सोऽच्युतो देवेन्द्रो दशभिः सामानिकसहस्रैः त्रयखिंशता त्रायखिंशकैः चतुर्भिर्लोकपाल तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चत्वारिंशता आत्म-III रक्षकदेवसहस्रः साई संपरिवृतस्तैस्तद्गतदेवजनप्रसिद्धैः स्वाभाविकै क्रियश्च वरकमलप्रतिष्ठान रित्यादि सर्व प्राग्वत्, | सुकुमाल करतलपरिगृहीतैरनेकसहस्रसङ्गयाकैः कलशैरिति गम्यते, तानेव विभागतो दर्शयति-अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां || कलशानां यावत्पदादष्टसहने रौप्याणामष्टसहस्रेण मणिमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णम-18
|णिमयानामष्टसहस्रेण रूप्यमणिमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानामिति अष्टसहस्रेण भौमेयानां सर्वसजावया ॥६॥ ॥ अष्टभिः सहस्रः चतुःषष्ट्याधिविच्छब्दातू भृङ्गारादिपरिग्रहः सोंदकैः सर्वमृत्तिकाभिः सर्वतुर्वरीयोवच्छन्दात् पुष्पा
दिग्रहः, सर्वोषधिसिद्धार्थकैः सर्वां यावद्रवेण यावच्छब्दात् 'सबजुईए इत्यारभ्य दुंदुहिनिग्घोसनाइअ' इत्यन्तं । । 18 ग्राह्य, महता २ तीर्थकराभिषेकेण, अब करणे तृतीया, कोऽर्थः -येनाभिषेकेण तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते तेनेत्यधैः, ||अत्राभिषेकशब्देनाभिषेकोपयोगि क्षीरोदादिजलं ज्ञेयम्, अभिषिञ्चति-अभिषेकं करोतीत्यर्थः । सम्प्रत्यभिषेककारिण18| इन्द्रादपरे इन्द्रादयो यच्चस्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः स्वामिनोऽतिशयेन महत्यभिषेके वर्तमाने इन्द्रादिका
क995
~828~
Page #830
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अजय
प्रत
सूत्रांक [१२१]
स. १२१
१३॥8
दीप अनुक्रम [२४०]
देवाः छत्रचामरकलशधूपकडुच्छुकपुष्पगन्धयावत्पदात् माल्यचूर्णादिपरिग्रहः, हस्तगताः हृष्टतुष्टयावत्पदादानन्दालापको || ५वक्षस्कारे
| ग्राह्या, वज्रशूलपाणयः उपलक्षणादन्यशस्त्रपाणयोऽपि भाब्याः पुरतस्तिष्ठन्ति, अयमर्थः-केच्चन छत्रधारिणः केचन || जन्ममहे न्तिचन्दी-1 या वृत्तिः
चामरोत्क्षेपकाः केचन कलशधारिण इत्यादि, सेवाधर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ तत्र वैरिणामभावात् , केचन | | वज्रपाणयः, केचन शूलपाणय इति, केचन छवाद्यव्यग्रपाणयः प्राञ्जलिकृतास्तिष्ठन्ति, अत्रातिदेशमाह-एवं विजया' 18|| इत्यादि, एवमुक्तप्रकारमभिषेकसूत्रं विजयदेवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञेयं, यावत्पदात् 'अप्पेगइआ पंडगवणं णयोअगं |
णाइमट्टि पविरलपफुसिय॑ रयरेणुविणासणं दिई सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइआ निहयरवं णहरयं भट्टरय | पसंतरयं उवसंतरय करेंति' इति ग्राह्यम् , अत्र व्याख्या प्राग्वत्, वाक्ययोजना खेवं-अपि|ढा), एककाः केचन | देवाः पण्डकवने नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात्तथा प्रविरलप्रस्पृष्टं रजोरेणुविनाशनं दिव्यं सुरभिगन्धोदकघर्ष वर्षन्ति, अप्येककाः पण्डकवनं निहतरजः नष्टरजः भ्रष्टरजः प्रशान्तरजः उपशान्तरजः कुर्वन्ति, अथ सूत्र-अप्येककाः देवाः पण्डकवनं आसिक्कसम्मार्जितोपलिप्तं तथा सिक्तानि जलेन अत एव शुचीनि सम्मृष्टानि कचरापनयेन रथ्यान्तराणिआपणवीथय इवापणवीथयो रथ्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, अयमर्थः-तत्र स्थानस्थानानीतचन्दनादिवस्तूनि । मार्गान्तरेषु तथा राशीकृतानि सन्ति यथा हट्टश्रेणिप्रतिरूपं दधति, यावत्पदात् 'पंडगवर्ण मंचाइमंचकलिअं करेंति,
Jhol४१३॥ | अप्पेगइआ णाणाविहरागऊसिअज्झयपडागमंडिअं करेंति, अप्पेगइआ गोसीसचंदणददरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति,
ececececeaeeeeee
~829~
Page #831
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
18 अप्पेगइआ उवचिअवंदणकलसं अप्पेगइआ चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभार्ग करेंति, अप्पेगइआ आंसत्तोसत्त-1
| विपुलवट्टवग्धारिअमलदामकलावं करेंति, अप्पेगइआ पंचवण्णसरससुरहिमुकपुंजोवयारकलिभं करेंति, अप्पेगइआN || कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकडझंतधूवमघमघतगंधुडुआभिरामं सुगंधवरगंधियं' इति ग्राह्य, पुनः प्रकारान्तरेण देवक
त्यमाह-'अप्पेगइआ हिरण्ण'इत्यादि, अप्येककाः हिरण्यस्य-रूप्यस्य वर्ष-वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, एवं सर्वत्र यो-IS जना कार्या, नवरं सुवर्ण प्रतीतं, रतानि-कर्केतनादीनि वज्राणि-हीरकाः आभरणानि-हारादीनि पत्राणि-दमनकादीनि पुष्पाणि फलानि च प्रतीतानि बीजानि सिद्धार्थादीनि माल्यानि-प्रथितपुष्पाणि गन्धाः-वासाः वर्णों-हिङ्गला-15
दिः यावच्छब्दाद्वस्त्रमिति चूर्णानि-सुगन्धद्रव्यक्षोदाः, तथा अप्येककाः हिरण्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजय18||न्ति शेषदेवेभ्यो ददतीत्यर्थः, एवं यावत्पदात सुवर्णविधि रत्नविधि इत्यादिपदानि ग्राह्याणि चूर्णविधि भाजयन्ति । अथ
सङ्गीतविधिरूपमुत्सवमाह-'अप्पेगइआ चउविहं वज' इत्यादि, अप्येककाश्चतुर्विधं वाचं वादयन्ति, तद्यथा-ततं-वीणा19 | दिकं विततं-पटहादिक, श्रीहेमचन्द्रसूरिपादास्तु विततस्थाने आनद्धमाहुः, धनं-तालप्रभृतिकं शुपिरं-वंशादिकं, अप्येकIS का चतुर्विधं गेयं गायन्ति, तद्यथा-उत्क्षिप्तं-प्रथमतः समारभ्यमाणं पादात्तं-पादवृद्ध वृत्तादिचतुर्भागरूपपादवद्धमिति ASI भावः मंदायमिति-मध्यभागे मूर्च्छनादिगुणोपेततथा मन्द मन्दं घोलनात्मकं, 'रोचितावसान'मिति रोचितं-यथोचि|| तलक्षणोपेततया भावितं सत्यापितमितियावत् अवसानं यस्य तत्तथा, 'रोइअग'मिति पाठे रोचितकमित्यर्थः, स एव,
Atnearesthese
~830~
Page #832
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप
अनुक्रम [२४०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥४१४ ॥
अप्येककाः चतुर्विधं नाव्यं नृत्यन्ति तद्यथा-अञ्चितं द्रुतं आरभटं भसोलमिति, अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा— दार्शन्तिकं प्रातिश्रुतिकं सामान्यतो विनिपातिकं लोकमध्यावसानिकमिति, एते नाव्यविधयोऽभिनय विधयश्च भरतादिसङ्गीतशास्त्रज्ञेभ्योऽवसेयाः, अप्येकका द्वात्रिंशद्विधं अष्टमाङ्गलिक्यादिकं दिव्यं नाव्यविधिमुपदर्शयन्ति, सच | येन क्रमेण भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भावितो - राजप्रश्नीयोपाने दर्शितस्तेन क्रमेणोपदर्श्यते, तत्र | प्रारिप्सितमहानाट्यरूपमङ्गल्य वस्तुनिर्विघ्नसिद्ध्यर्थमादौ मङ्गल्यनाट्यं, तथाहि - स्वस्तिक श्रीवत्सनन्द्यावर्त्तवर्द्धमानकभद्रास| नकलश मत्स्य दर्पण रूपाष्टमाङ्गलिक्यभक्तिचित्रं, अत्राष्टपदानां व्याख्या प्राग्यत्, नवरं तेषां भक्त्या विच्छित्त्या चित्रं-आ| लेखनं तत्तदाकारा विर्भावना यत्र तत्तथा तदुपदर्शयन्तीत्यर्थः, अयमर्थः यथा हि चित्रकर्मणि सर्वे जगद्वर्त्तिनो भावाश्चित्र|बित्वा दर्श्यन्ते तथा तेऽभिनयविषयीकृत्य नाव्येऽपि, अभिनयः - चतुर्भिराङ्गिकवाचिकसास्विकाहार्यभेदैः समुदितैरसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनं, प्रस्तुते चाङ्गिकेन नाट्यकर्तॄणां तत्तन्मङ्गलाकारतयाऽवस्थानं हस्तादिना तत्तदाकारदर्शनं वा वाचिकेन प्रबन्धादौ तत्तन्मङ्गलशब्दोच्चारणं सभासदां मनसि रक्तिपूर्वकं तत्तन्मङ्गलस्वरूपाविर्भावनं मङ्गलनाव्यमि - ति १, अथ द्वितीयं नाट्यं, आवर्त्तप्रत्यावर्त्तश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकपुष्यमाणवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपु|प्पावलिपद्मपत्र सागर तरङ्गवासन्तील तापद्मलताभक्तिचित्रं, तत्र सृष्टिक्रमेण भ्रमद्भ्रमरिकादानैर्नर्त्तनमावर्त्तस्तद्विपरीत| क्रमेण भ्रमरिकादानैर्नर्त्तनं प्रत्यावर्त्तः श्रेण्या-पङ्क्त्या स्वस्तिकाः श्रेणिस्वस्तिकाः, ते चैकपङ्किगता अपि स्युरिति
For Pre & Personalise Cnly
esesseseea
~ 831~
५वक्षस्कारे
जन्ममहे अच्युताभियोगः सू. १२१
॥४१४ ॥
Page #833
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
Receioteeseaeeeeeeeeee
अनुवृत्ताः श्रेणिस्वस्तिकाः प्रश्रेणिस्वस्तिकाः, अत्र प्रशब्दोऽनुवृत्तार्थे यथा प्रशिष्यः प्रपुत्र इत्यादौ, अयमर्थ:-मुख्यस्यै-118 कस्य स्वस्तिकस्य प्रतिशाखं गता अन्ये स्वस्तिका इत्यर्थः, एतेन प्रथमनाट्यगतस्वस्तिकनाट्याद् भेदो दर्शितः, तदभि-8 नयन नत्तेनं, तथा पुण्यमाण:-पुष्टीभवन् तदभिनयेन नृत्यं, यथा हि पुष्टो गच्छन् जल्पन् श्वसिति बहु बहु प्रविद्यति दारुहस्तपायी स्वहस्तावतिमेदस्विनी चालयन् २ सभासदामुपहासपात्रं भवति तथाऽभिनयो यत्र नाट्ये तत्पुष्यमाण-12 नाट्यं, एतदेवोत्तरसूत्रकारो 'अप्पेगइआ पीणेती'ति सूत्रेण स्वयमेव वक्ष्यति, वर्द्धमानकः-स्कन्धाधिरूढः पुरुषस्तदभिनयगर्भित नाव्यं बर्द्धमानकनाव्यं, एतेन प्रथमनायगतवर्द्धमाननाव्यालेदो दर्शितः, मत्स्यानामण्डकं मरस्याण्डकं | मत्स्या हि अण्डाजायन्ते तदाकारकरणेन यज्ञर्तनं तन्मत्स्याण्डकनाट्य, एवं मकराण्डकमपि, न हि यथाकामविकु-19 बिणां देवानां किश्चिदसाध्यं नाय्येन चानभिनेतव्यं येन तदभिनयो न सम्भवतीति, मत्स्यकाण्डपाठे तु मत्स्यकाण्डं| मत्स्यवृन्द, तद्धि सजातीयैः सह मिलितमेव जलाशये चलति, समाचारित्वात् , तथा यत्र नटोऽन्यनटैः सह सङ्गतो रङ्गभूमी प्रविशति ततो वा निर्याति तन्मत्स्यकाण्डनाव्यम् , एवं मकरकाण्डपाठे मकरवृन्दं वाच्यं, तद्धि यथा विकतरूपत्वेनातीय द्रष्टुणां त्रासकृद् भवति तथा यन्नाव्यं तदाकारदर्शनेन भयानकं स्यात् तद्भयानकरसप्रधानं मकरकाण्ड नाम नाटकं, तथा जारनाटक जार:-उपपतिः स च यथा स्त्रीभिः अतिरहस्येव रक्ष्यते तद्वद्यत्र मूलवस्तुतिरोधानासत्तदि-10 न्द्रजालाविभावनेन सभासदा मनस्यन्यदेवावतार्यते तज्जारनामकं नाव्यं, तथा मारनाटकं मार:-कामस्सदुद्दीपकं नाटक
~832~
Page #834
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
श्रीजम्बू-18|| मारनाटकं, शृङ्गाररसप्रधानमित्यर्थः, तथा पुष्पावलिनाव्यं यत्र कुसुमापूर्णसच्छिद्रवंशशलाकादिदर्शनेनाभिनयस्सरपुष्पा
8 वक्षस्कारे द्वीपशा-1 | वलिनाटकं, तथा पद्मपत्रनाम्यं यत्र पद्मपत्रेषु नृत्यन्नटस्तथाविधकरणप्रयत्नविशेषेण वायुरिव लघूभवन् न पद्मपत्रं क्लम-11
जन्ममहे यति नापि त्रोटयति न वक्रीकरोति तत्पनपत्रोपलक्षितं नाट्यं पद्मपत्रनाटकं, तथा सागरतरङ्गाभिनयं नाम नाव्यं यत्र अच्युताया वृतिः
वर्णनीयवस्तुनो वचनचातुर्यवर्णनाद्यैः सागरतरङ्गा अभिनीयन्ते अथवा यत्र तकतक झें झें किटता किटता कुकु इत्या-18| भियोगः ॥४१५॥
सू.१२१ दयस्तालोद्घट्टनार्थकवर्णा बहवोऽस्खलद्गत्या प्रोच्यन्ते तत्सागरतरङ्गनामनाटकं, एवं वसन्तादिऋतुवर्णने वासन्तीलतापद्मलतावर्णनाभिनयं नाटकं, नन्वेवं सत्यभिनेतव्यवस्तूनामानन्त्येन नाट्यानामप्यानन्त्यप्रसङ्गस्तेन द्वात्रिंशत्सङ्ख्याकत्वविरोधः, उच्यते, एषा च सूत्रोक्ता सङ्ख्या, उपलक्षणाच्चान्येऽपि तत्तदभिनयकरणपूर्वक नाट्यभेदा ज्ञेयाः, एवं सर्व-| नाव्येष्वपि ज्ञेयं २, अथ तृतीयं-ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं, तत्र ईहामृगा-चूकाः ऋषभादयः प्रतीता नवरं रुरवश्चमराश्च मृगविशेषाः वनो-वृक्षविशेषस्तस्य लताः ३, अथ चतुर्थ-एकतोवक्रद्विधातोवक्रएकतश्चक्रवालद्विधातश्चक्रवालचक्रार्द्धचक्रवालाभिनयात्मका, एकतोवर्क नाम नटानां ....
||४१५॥ एकस्यां दिशि धनुराकारश्रेण्या नर्तनं, अनेन श्रेणिनाट्याझेदो दर्शितः, एवं द्विधातोवक्र द्वयोः परस्पराभिमुख8 दिशोः धनुराकारश्रेण्या नर्तनं, तथा एकतश्चक्रवालं-एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्त्तनं, एवं
~833~
Page #835
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
18 द्विधातश्चक्रवाल-द्वयोः परस्पराभिमुखदिशो यं, तथा 'चक्रार्द्धचक्रवाल' चक्रस्य-रथाइस्थाई तद्रूपं यच्चक्रवाल18 मण्डलं तदाकारेण नर्शनं अर्द्धमण्डलाकारेणेत्यर्थः, तदभि
नयं नाम नाटक, एकतोवक्रादीनां क्रमेण स्थापना यथा- । ॥ इदं च नटानां नर्सने संस्थानविशेषप्रधानं नाम नाटकं ४, अथ पञ्चम-चन्द्रावलिप्रविभक्तिसूर्यावलिप्रविभक्तिवलयतारा1 सैकमुक्ताकनकरत्नावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकमावलिप्रविभक्तिनामकं, तत्र चन्द्राणामावलिः श्रेणिस्तस्याः प्रविभक्तिः
विच्छित्ती रचनाविशेषस्तदभिनयात्मकं, एवं सूर्यावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकं, तथा वलयादिरशान्तेषु पदेषु आवलि-1
शब्दो योज्यस्तेन वलयावलिप्रविभक्त्यादि, अयमर्थः-पतिस्थितानां रजतस्थालहस्तानां भ्रमरीपरायणानां नटानां नाव्यं, 18 एवं वलयहस्तानां वलयनाव्यं, एवं वर्तुलकहस्तगतानां तारावलिनाट्य, अनयैव युक्त्या तत्सदृशवस्तुदर्शनेन अचिन्त्य
वाद्वा वैक्रियशक्तस्तदस्तुदर्शनेन तत्तदभिनयकरणं तत्तन्नामकं नाव्यं ज्ञेयं, एतच्चावलिकाबद्धमित्यावलिकाप्रविभक्ति-18 नाम नाव्यं ५, अथ षष्ठं चन्द्रसूर्योगमनपविभक्तिकृतमुद्गमनपविभक्ति चन्द्रसूर्ययोरुद्गमनं-उदयनं तत्प्रविभक्ती
रचना तदभिनयगर्भ यथा उदये सूर्यचन्द्रयोर्मण्डलमरुणं प्राच्यां चारुणः प्रकाशस्तथा यत्राभिनीयते तदुद्गमनप्रविIN भक्ति ६, अथ सप्तम-चन्द्रसूर्यागमनाविभक्ति चन्द्रस्य सविमानस्यागमनं-आकाशादवतरणं तस्य प्रविभक्तिर्यत्र ना-1
| व्येऽभिनयेन दर्शनं, एवं सूर्यागमनप्रविभक्ति ७, अथाष्टमं-चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्तियुक्तमावरणप्रविभक्ति, यथा हि |
~834 ~
Page #836
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
या वृतिः ॥४१६॥
दीप अनुक्रम [२४०]
Socence
चन्द्रो घनपटलादिना आब्रियते तथाऽभिनयदर्शनं चन्द्रावरणप्रविभक्ति, एवं सूर्यावरणप्रविभक्त्यपि ८, अथ नवम- ५वक्षस्कारे चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्तियुक्तमस्तमयनप्रविभक्ति यत्र सर्वतः सन्ध्यारागप्रसरणतमःप्रसरणकुमुदसङ्कोचादिना चन्द्रा- जन्ममहे स्तमयनमभिनीयते तच्चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति, एवं सूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यपि, नवरं कमलसङ्कोचोऽत्र वक्तव्यः ९, अथ
अच्युता
भियोगः | दशम-चन्द्रसूर्यनागयक्षभूतराक्षसगन्धर्वमहोरगमण्डलप्रविभक्तियुक्तं मण्डलप्रविभक्ति, तथा बहूनां चन्द्राणां मण्ड
सू.१२१ लाकारेण-चक्रवालरूपेण निदर्शनं चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति, एवं बहूनां सूर्यनागयक्षभूतराक्षसगन्धर्वमहोरगाणां मण्डलाकारेराणाभिनयनं वाच्यं, अनेन चन्द्रमण्डलसूर्यमण्डलयोश्चन्द्रावलिसूर्यावलिनाव्यतो भेदो दर्शितस्तयोराबलिकाप्रविष्टत्वात्१०, | अथैकादश-ऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयगजविलसिताभिनयरूपं द्रुतविलम्बितं नाम नाट्यं, तत्र ऋषभसिंही 18|| प्रतीतो तयोलेलितं-सलीलगतिः तथा हयगजयोर्विलसितं-मन्थरगतिः, एतेन विलम्बितगतिरुक्का उत्तरत्र मत्तपदविशे-118 षणेन द्रुतगतेक्ष्यमाणत्वात् , तथा मत्तयगजयोविलसितं-द्रुतगतिः तदभिनयरूपं गतिप्रधानं द्रुतविलम्बितं नाम नाव्यं ११, अथ द्वादश-शकटोद्धिसागरनागरमविभक्ति, शकटोद्धिः-प्रतीता तस्याः प्रविभक्तिः-सदाकारतया हस्तयोर्षि-21 धानं, एतत्तु नाव्ये प्रलम्बितभुजयोर्योजने प्रणामाद्यभिनये भवतीति, तथा सागरस्य-समुद्रस्य सर्वतः कल्लोलग्रसरणव- ॥१६॥ डवानलज्वालादर्शनतिमिशिलादिमत्स्य विवर्त्तनगम्भीरगर्जिताद्यभिनयनं सागरप्रविभक्ति, तथा नागराणां-नगरवासि-IN लोकानां सविवेकनेपथ्यकरणं क्रीडासचरणं वचनचातुरीदर्शनमित्याद्यभिनयो नागरपविभक्ति तन्नामक नाट्य १२,
~835~
Page #837
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप
अनुक्रम
[२४०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| अथ त्रयोदशं-नन्दाचम्पाप्रविभक्तिनाम नाव्यं, नन्दा-नन्दाभिधानाः शाश्वत्यः पुष्करिण्यस्तासु देवानां जलक्रीडाजलजकुसुमाव चयनमन्तरणमाप्लवनमित्याद्यभिनयनं नन्दाप्रविभक्ति तथा चम्पानाम महाराजधानी उपलक्षणं चैतत् तेन | कोशलाविशालादिराजधानीपरिग्रहः तासां च परिखासौधप्रासादचतुष्पदाद्यभिनयनं चम्पाप्रविभक्ति १३, अथ चतुर्दशं| मत्स्याण्डकमकराण्ड कजारमारप्रविभक्तिनाम नाव्यं, एतत्तु पूर्व व्याख्यातमेव, अत्रैषां चतुर्णामभिनयनं पृथगुक्तं तत्र तु व्यामिश्रितमिति भेदः १४, अथ पञ्चदशं कखगघङ इति कवर्गप्रविभक्तिकं तत्र ककाराकारेणाभिनयदर्शनं ककार| प्रविभक्ति, कोऽर्थः १ - तथा नाम ते नदा नृत्यन्ति यथा ककाराकारोऽभिव्यज्यते एवं खकारगकारघ कारडकारप्रविभक्तयो वाच्याः, एतच्च कवर्गप्रविभक्तिकं नाव्यं, यद्यपि लिपीनां वैचित्र्येण ककाराद्याकारवैचित्र्यात् प्रस्तुतनाट्यस्याप्यनैयत्य| प्रसङ्गस्तथापि कवर्गीय जातीयत्वेन विशेषणान्नात्र दोषः, एवं चकारप्रविभक्तिजातीयमित्यादि बोध्यं, अथवा ककारशदोद्घट्टनेन चचपुटचाचपुटादों कंकांकिकीं इत्यादिवाचिकाभिनयस्य प्रवृत्त्या नाट्यं ककारप्रविभक्ति, एवं कादिङा| न्तानां शब्दानामादातृत्वेन ककारखकारगुकारघकार ङकारप्रविभक्तिकं नाव्यं, एवं चवर्गप्रविभस्म्यादिष्वपि वाच्यं १५, | अथ पोडशं-चछजझञप्रविभक्तिकं १६, अथ सप्तदर्श-टठडढणप्रविभक्तिकं १७, अथाष्टादशं तथदधनप्रविभक्तिकं १८, | अथैकोनविंशतितमं - पफबभमप्रविभक्तिकं १९ अथ विंशतितमं - अशोकान्त्र जम्बूकोशम्बपल्लवप्रविभक्तिकं अशोकादयो| वृक्षविशेषास्तेषां पलवा - नवकिसलयानि ततस्ते यथा मन्दमारुतेरिता नृत्यन्ति तदभिनयात्मकं पल्लवप्रविभक्तिकं नाम
For P&False Cly
~836~
Page #838
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२१]
eaeesea
दीप अनुक्रम [२४०]
श्रीजम्बू- नाट्यं २०, अधकविंशतितम-पद्मनागाशोकचम्पकचूतवनवासन्तीकुन्दातिमुक्तकश्यामलताप्रविभक्तिकं उताप्रविभक्तिकं ५वक्षस्कारे
नाम नाट्यं, इह येषां वनस्पतिकायिकानां स्कन्धप्रदेश विवक्षितोवंगतैकशाखाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं परिस्थूरंश जन्ममहे न्तिचन्द्री-18 न निर्गच्छति ते लता विज्ञेयास्ते च पद्मादय इति पद्मलतादिपदानामर्थः प्राग्वत्, एता यथा मारुतेरिता नृत्यन्ति
अच्युताया वृत्तिः तदभिनयात्मकं लताप्रविभक्तिकनाम नाय २१, अथ द्वाविंशतितम-द्वतनाम नाव्यं, तत्र इतमिति-शीनं गीतवाद्यश-18
भियोगः ॥४१७॥
सू. १२१ ब्दयोर्यमकसमकप्रपातेन पादतलशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् द्रुतं नाय २२, अथ त्रयोविंशतितम-विलम्बितं ||
नाम नाट्य, यत्र विलम्बिते-गीतशब्दे स्वरघोलनाप्रकारेण यतिभेदेन विश्रान्ते तथैव वाद्यशब्देऽपि यतितालरूपेण वाद्यIS| माने तदनुयायिना पादसयारेण नर्त्तनं तद्विलम्बितं नाम नाट्यं २३, अथ चतुर्विंशतितम-द्रुतविलम्बितं नाम नाट्यं
यथोक्तप्रकारद्वयन नर्त्तनं २४, अथ पञ्चविंशतितम-अश्चितं नाव्यं, अश्चित:-पुष्पाचलङ्कारः पूजितस्तदीयं तदभिनय-11 पूर्वकं नाव्यमप्यश्चितमुच्यते, अनेन कौशिकीवृत्तिप्रधानाहा-भिनयपूर्वकं नाट्यं सूचितं २५, अथ पद्दविंशतितमं रिम्भितं नाम नाट्य-तच मृदुपदसञ्चाररूपमिति वृद्धाः, अधवा 'रेभृङ्ग शब्दे' इत्यस्य धातोः क्तप्रत्यये रेभितं-कलस्वरेण गीतोद्भातृत्वं, अनेन वाचिकाभिनययुक्तं भारतीवृत्तिप्रधानं नाट्यमभाणि २६, अथ सप्तविंशतितमं अश्चितरि- ४१७॥
भितं नाम नाव्य-यत्रानन्तरोक्तमभिनयद्वयमवतरति तत् २७, अथाष्टाविंशतितममारभट नाम नाट्य, आरभटा:NRI सोत्साहाः सुभटास्तेषामिदमारभट, अयमर्थः-महाभटानां स्कन्धास्फालनहदयोल्वणनादिका या उद्धतवृत्तिस्तदभिनय-16
~837~
Page #839
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२१]
दीप अनुक्रम [२४०]
मिति, अनेनारभटीवृत्तिप्रधानमाङ्गिकाभिनयपूर्वकं नाट्यमुक्तं ३८, अथैकोनत्रिंशं भसोलं नाम नाव्यं, 'भस भर्त्सनदीप्योरित्यस्य ह्वादिगणस्थस्य धातोर्वभस्ति-दीप्यते इति अचि प्रत्यये भसः-शृङ्गारः पङ्गिरथन्यायेन शृङ्गाररस इत्यर्थः तं अवतीति भसोस्तं रतिभावाभिनयनेन लाति-गृहातीति भसोलो-तटस्ततो धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् भसोलं नाम नाट्य, एतेन शृङ्गाररससात्त्विकभावः सूचितः, इदं च सर्व व्याख्यानमुपलक्षणपरं ज्ञेयं, तेनात्र सर्वे सात्त्विका भावा अभिनयविषयीकार्याः, एतेन साचतीवृत्तिप्रधानं सात्त्विकाभिनयगम्भितं भसोलं नाम नाट्य २९, अथ त्रिंशत्तममारभटभसोलं नाम नाव्यं, इदं चानन्तरोक्ताभिनयद्वयप्रधान ज्ञेयं ३०, अथैकत्रिंशत्तम उत्पातनिपातप्रवृत्तं सकु-14 चितप्रसारित रेचकरेचितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम नाट्यं, उत्पातो-हस्तपादादीनामभिनयगत्योर्ध्वक्षेपणं तेषामेवाधाक्षेपण |६|| निपातस्ताभ्यां यत्प्रवृत्तं प्रवृत्तिमज्जातमित्यर्थः एवं हस्तपादयोरङ्गाहारार्थ सन्कोचनेन सकुचितं प्रसारणेन च प्रसारितं, हा तथा रेचकैः-धमरिकाभिः रेचितं-निष्पन्नं, भ्रान्तो-भ्रमप्राप्तः स इव यत्राद्भुतचरित्रदर्शनेन पर्षजनः सम्भ्रान्तःसाश्चर्यो भवति तत् धान्तसम्भ्रान्तं तदुपचारान्नाव्यमपि भ्रान्तसम्भ्रान्तं ३१, अथ द्वात्रिंशत्तम चरमचरमनामनिव| द्धनामकं, तच सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोकभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणाभिनयात्मक भावितं, इह तु यस्य तीर्थकृतो जन्ममहं
Beeहक
~838~
Page #840
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
श्रीजम्ब- कुर्वस्ति तच्चरिताभिनयात्मकमुपदर्शयन्ति, यद्यष्यत्राञ्चितरिभितारभटभसोलेषु चतुएं मूलभेदेषु गृहीतेषु साभिनयना
५वक्षस्कारे द्वीपशा-व्यमात्रसङ्ग्रहः स्यात् तथापि क्वचिदेकैकेनाभिनयेन क्वचिदभिनयसमुदायेन क्वचिच्चाभिनय विशेषेणान्तरकरणात् सर्व- जन्ममहे न्तिचन्द्री
प्रसिद्धद्वात्रिंशन्नाटकसमयाव्यवहारसंरक्षणार्थ द्वात्रिंश दा दर्शिताः। अथाभिनयशून्यमपि नाटकं भवतीति तत् दर्शयितु- अच्युताया वृत्तिः माह- अप्पेगइआ उपय' इत्यादि, अप्येकका उत्पात:-आकाशे उल्ललनं निपातः-तस्मादवपतनं उत्पातपूर्वो निपातो
भियोग:
सू. १२१ ॥४१८॥
यस्मिन् तदुत्पातनिपातं, एवं निपातोत्पातं, सञ्कुचितप्रसारितं प्राग्वत् , यावत्पदात् 'रिआरिमिति ग्राह्यं, तत्र रिअं. गमन रङ्गभूमेनिष्क्रमणं आरिअ-पुनस्तत्रागमनं, भ्रान्तसम्भ्रान्तं तु अनन्तरोतकत्रिंशत्तमनाटके व्याख्यातमिति ततो ग्राह्य, इदं च पूर्वोक्तचतुर्विधद्वात्रिंशद्विधनाव्येभ्यो विलक्षणं सर्वाभिनयशून्यं गात्रविक्षेपमा विवाहाभ्युदयादावुपयोगि सामान्यतो नर्सनं भरतादिसङ्गीतेषु नृत्तमित्युक्तं । अथोक्तमेव नाट्य प्रकारद्वयन सङ्ग्रहीतुमाह-अप्पेगइआ तंड
ति अप्पेगइआ लासेंति'त्ति, अप्येककास्ताण्डवं नाम नाटकं कुर्वन्ति, तच्चोद्धतैः करणैरङ्गहारैरभिनयैश्च निर्वत्त्य, 18अत एवारभटीवृत्तिप्रधान नाव्यं, अथ यथा बालस्वामिपादानां देवाः कुतूहलमुपदर्शयन्ति तथाह- अप्पेगहआ पीणे-18
ति' इत्यादि, अप्येकका देवाः पीनयन्ति-वं स्थूलीकुर्वन्ति, 'एव'मित्यप्येकका बूत्कारयन्ति-बूत्कारं कुर्वन्ति आस्फोट-IS४१८॥ यन्ति-उपविशन्तः पुताभ्यां भूम्यादिकमानन्ति वल्गन्ति-मल्लवद्वाहुभ्यां परस्परं संप्रलगन्ति सिंहनादं नदन्ति-कुर्व-15 न्ति अप्येककाः सर्वाणि-पीनत्वादीनि क्रमेण कुर्वन्ति, अप्येकका हयहेषितं-हेपारवं कुर्वन्ति, 'एव'मिस्वप्येककाः हस्तिगु-15
000000000000000
दीप अनुक्रम [२४०]
Jaticiandia
~839~
Page #841
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप
अनुक्रम
[२४०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
लुगुलायितं गजवद् गॉर्ज विदधाति रथघनघनायितं रथवत् चीत्कुर्वन्ति, गुलुगुलुघनघन इत्यनुकरणशब्दों, अप्येककाः हयहेपितादीनि त्रीण्यपि कुर्वन्ति, अध्येककाः उच्छोलंति- अग्रतोमुखा चपेटां ददति, अप्येककाः पच्छोलंति - ष्टष्ठतोमुखां | चपेटां ददति, अप्येककाः त्रिपदीं मल इव रङ्गभूमौ त्रिपदीं छिन्दन्ति, पाददद्देरकं - पादेन भूम्यास्फोटनरूपं कुर्वन्ति, भूमिचपेटां ददति-करेण भूमिमाघ्नन्ति, अध्येककाः महता २ शब्देन रावयन्ति-शब्दं कुर्वन्ति, एवमुक्तप्रकारेण संयोगा | अपि-द्वित्रिपद मेलका अपि विभाषितव्याः - भणितव्याः, कोऽर्थः ? - केचित् उच्छोलनादिद्विकमपि कुर्वन्ति, तथा केचित् त्रिकं चतुष्कं पञ्चकं पटं च कुर्वन्ति, अध्येककाः हकारयन्ति-हक्कां ददति एवं पूत्कुर्वन्ति थक्कारयन्ति- थकथकमित्येवं शब्दं कुर्वन्ति अवपतन्ति नीचैः पतन्ति उत्पतन्ति - ऊर्ध्वोभवन्ति तथा परिपतन्ति-तिर्यग्निपतन्ति ज्वलन्ति - ज्वालारूपा | भवन्ति भास्वराग्नितां प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः, तपन्ति मन्दाङ्गाररूपतां प्रतिपद्यन्ते, प्रतपन्ति - दीप्ताङ्गारतां प्रतिपद्यन्ते गर्जन्ति-गर्जारवं कुर्वन्ति विद्युतं कुर्वन्ति वर्षन्ति च, अत्रापि संयोगा भणितव्याः, 'अध्पे देवानां वातस्येवोकलि| का-भ्रमविशेषस्तां कुर्वन्ति, एवं देवानां कहकहक- प्रमोदभरजनितकोलाहलं कुर्वन्ति अप्पे० दुहुदुहुगं कुर्वन्ति अनुकरणमेतत्, अप्पे० अधरलम्बनमुखन्यादाननेत्रस्फाटनादिना विकृतानि -भयानकानि भूतादिरूपाणि विकुर्वित्वा प्रनृत्यन्ति एवमादि विभाषेत यथा विजयदेवस्य कियत्पर्यन्तमित्याह - यावत् सर्वतः समन्तात् आधावति - ईषद्धावंति परिधावन्ति-प्रकर्षेण धावन्ति, यावत्करणात् अध्येगइआ चेलुक्खेवं करेंति, अध्येगइआ बंदणकलसहत्थगया अप्पेगह
For P&Praise Cinly
~840~
Page #842
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२]
वक्षस्कारे जन्ममहे अच्यूताश्रीवादः पन्द्रामिन कश्च मू. १२२
दीप अनुक्रम [२४०]
श्रीजम्बू-18|आ भिंगारहत्वगया एवं एएणं अभिलावेणं आयंसथालपाईवायकरगरयणकरंडगपुप्फचंगेरीजाव लोमहत्थचंगेरीपुष्फ-
द्वीपशा-18पडलगजावलोमहत्वपडलगसीहासणछत्तचामरतिल्लसमुग्गय जाव अंजणसमुग्गय हत्थगया अप्पेगइया देवा धूवकडुच्छु- न्तिचन्द्रीया वृतिः
अहत्थगया हतु जाव हियया' इति ग्राह्य, अत्र व्याख्या-अप्येककाः चेलोरक्षेप-ध्वजोच्छ्रायं कुर्वन्ति, अप्ये-
ककाः वन्दनकलशहस्तगता-मङ्गल्यघटपाणयः अप्येककाः भृङ्गारहस्तगताः, एवमनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेनानन्तरव- ॥४१९॥ सिवात् प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेन अप्येककाः आदर्शहस्तगताः स्थालहस्तगताः यावद्धपकडुच्छुकहस्तगताः
आधावंति परिधावतीत्यन्वयः शेष निगदसिद्धं प्रागुक्ताभिषेकाधिकारगतेन्द्रसूत्रसमानगमत्वात् । अथाभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादसूत्रमाह
तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचइ २ ता करयलपरिग्गहिरं जाव मत्थए अंजलिं कटू जपणं विजएणं बद्धावेइ २ ता ताहिं इटाहिं जाव जयजयसई पउंजति पउँजित्ता जाव पम्हल सुकुमालाए सुरभीए गन्धकासाईए गायाई लहेइ २ सा एवं जाय कापरुक्खगंपिय अलंकिय विभूसिरं करेइ २त्ता जाव णयिहिं बदसेइ २ चा अच्छेहिं सण्हेहिं स्ययामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ सामिस्स पुरओ अमंगलगे आलिहइ, जहा-"दप्पण१ भदासर्ण २ वद्धमाण ३ बरकलस ४ मच्छ ५ सिरिवरछा ६। सोस्थिक्षणम्दावत्ता ८ लिहिआ अट्ठमंगलगा ॥१॥" लिहिण करेइ उबयार, किंते !, पाउलमलिअर्थपगसोगपुन्नागचूअमंजरिणवमालिअबठलतिलयकणवीरकुंदकुशागकोरंटपत्तदमणगवरसुरभिगन्ध
॥४१९॥
esee
Coe
~841~
Page #843
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
----------------- मूल [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
गन्धिस्स फयागहराहिमकरयलपमढविष्पगुफस्स दसवण्णरस कुसुमणिभरस्स तत्थ चित्तं जपणुस्सेहपमाणमित्तं ओशिनिकर करेता चन्दणभरवणवहरवेरु लिभविमलदण्डं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकंदुरानुरुमधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवटि विणिमुक्त वेरुलिअमयं कडुन्छु पग्गहितु पयएणं धूर्व दाऊण जिणवरिदस्स सत्तह पयाई ओसरिता दसंगुलि भंजलि करिन मत्थयमि पयओ अट्ठसयविसुद्धगन्धजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अस्थजुत्तेहिं संथुणइ २त्ता वार्म जाणु अंचेइ २ त्ता जाप करबपरिमाहिले मत्थर अंजलि कटु एवं वयासी-णमोऽत्यु ते सिद्धबुद्धणीरयसमणसामाहिमसमत्तसमजोगिसलगत्तणणिम्भयणीरागदोसणिमामणिसंगणीसहमाणमूरणगुणरयणसीलसागरमणंतमप्पमेय भविभधम्मवरचाउरंतचकवट्टी णमोऽधु ते अरहोतिकटु एवं बन्दइ णभंसइ २ ताणचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे जाच पज्जुवासय, एवं जहा अपचुनस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणिअवं, एवं भवणवइवाणमन्तर जोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेभ २ अभिसिंचंति, सए ण से ईसाणे देविन्ये देवराया पच ईसाणे विउबह २ त्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयर करयलसंपुढेण गिहाइ २ ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे एगे ईसाणे पिटुओ आयवर्त घरेइ दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं फरेन्ति एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिट्ठद, तप णं से सके देविन्दे देवराया आमिओगे देवे सदावेश २ ता एसोवि तह चेव अभिसेआणत्ति देइ तेऽवि तह चेव उवणेम्ति, तए णं से सके देविन्दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउहिसिं चत्ता रि धवलवसमे बिउन्वेइ सेए संखदलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिजे अमिरुवे पडिरूवे, तए णं तेसिं चउण्हं धवलयसभाणं अट्टहिं सिंगहितो अह तोमधाराओ णिग्गच्छन्ति, तए णं ताओ अट्ट सोभधाराओ उद्धं बेहासं उप्पयन्ति २ ता एगओ मिलायन्ति
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
cerseweaternepecterserservemes
~842~
Page #844
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२२]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२४१
-२४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२२ ] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४२०॥
२ता भगवओ तित्थयरस्समुद्धार्णसि निवयंति । तए णं से सके देविन्दे देवराया चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं एअस्तवि सहेद अमिसेओ भाणिभवो जाव णमोऽत्यु ते अरति कट्टु बन्दइ णमंसइ जाब पज्जुवास ( सूत्रं १२२ )
'तए णमित्यादि, ततः सोऽच्युतेन्द्रः सपरिवारः स्वामिनं तेन अनन्तरोक्तस्वरूपेण महता २- अतिशयेन महताऽभिषेकेणाभिषिञ्चति, निगमनसूत्रत्वान्न पौनरुक्तयं, अभिषिच्य च करतलपरिगृहीतं यावत्पदसङ्ग्राह्यं प्राग्वत्, मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन च प्रागुक्तस्वरूपेन वर्द्धयति - आशिषं प्रयुङ्क्ते वर्धयित्वा च ताभिर्विशिष्टगुणोपेताभिरिष्टाभिः श्रोतॄणां वल्लभाभिर्थावत्करणात् 'कंताहिं पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं वग्गूहिं' इति ग्राह्यं, अत्र व्याख्या च प्राग्वत्, वाग्भिर्जय२शब्दं प्रयुङ्क्ते, सम्भ्रमे द्विर्वचनं जयशब्दस्य, अत्र जयेन विजयेन वर्द्धयित्वा पुनर्जय२शब्द| प्रयोगो मंगलवचने पुनरुक्तिर्न दोषायेत्यभिहितः, अथाभिषेकोत्तरकालीनं कर्त्तव्यमाह - 'परंजित्ता' इत्यादि, प्रयुज्य च यावच्छब्दात् 'तप्पढमयाए' इति ग्राह्यं, अत्र व्याख्यातेष्वभिषेकोत्तरकालीन कर्त्तव्येषु प्रथमतया - आद्यत्वेन पक्ष्मल| सुकुमारया सुरभ्या गन्धकाषायिक्या- गन्धकपायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकयेति गम्यं, गात्राणि रुक्षयति, एवमुक्त| प्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवालङ्कृतं वखालङ्कारेण विभूषितं आभरणालङ्कारेण करोति यावत्करणात् 'हित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ २ त्ता नासानीसासवायवोज्यं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगधवलं कणगखचिअंतकम्मं देवदूसजुअलं निअंसावेइ २ त्ता' इति ग्राह्यं, अत्र व्याख्या प्राग्वत्, नवरं देवदूष्ययुगलं परि
For P&Peralise Cinly
~843~
Reesese
S
५वक्षस्कारे
जन्ममहे
अच्युताशीर्वादः शेषेन्द्राभि पंक स.
१२२
1182011
Page #845
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], -----
------------------- मूल [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
धानोत्तरीयरूपं निवासयति-परिधापयतीति कृत्वा च यावत्करणात् 'सुमिणदामं पिणद्धावेइ' इति प्राचं, नाव्यविधिमुपदर्शयति उपदय च अच्छैः श्लक्ष्णैः रजतमयैः अच्छरसतंडुलैः भगवतः स्वामिनःपुरतोऽष्ट अष्टमङ्गलकानि आलिखति, तद्यथा-दप्पणेति पद्यं सुगम, मङ्गलालेखनोत्तरकृत्यमाह-लिहिऊण'त्ति, अनन्तरोक्तान्यष्टमङ्गलानि लिखित्वा करोत्युपचारमित्याचारभ्य कडुच्छुकग्रहणपर्यन्तं सूत्रं चक्ररलपूजाधिकारलिखितव्याख्यातो व्याख्येयं, ततः प्रयतः सन् यथा बालभट्टारकस्य धूपधूमाकुले अक्षिणी न भवतस्तथा प्रयलवान् धूपं दत्त्वा जिनवरेन्द्राय, सूत्रे षष्ठी आर्षत्वात्, अङ्गपूजार्थं प्रत्यासेदुपा मया निरुद्धो भगवदर्शनमार्गोऽतोऽहं मा परेषा दर्शनामृतपानविनकारी स्यामिति सप्ताहानि. पदान्यपसृत्य दशाङ्गुलिकं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा प्रयतो-यथास्थानमुदात्तादिस्वरोच्चारेषु प्रयलवानष्टशतैः-अष्टोत्तरशतप्रमा-11 गविशुद्धेन ग्रन्थेन-पाठेन युक्तैर्महावृत्तः-महाकाव्यैर्यद्वा महाचरित्रैरपुनरुक्त अर्थयुक्त:-चमत्कारिव्यङ्गययुक्तैः संस्तीति || | संस्तुत्य च वाम जानुं अञ्चति-उत्पाटयति, अश्चित्वा च यावत्पदात् 'दाहिणं जाणुंधरणिअलंसि निवाडेई' इति ग्राह्यम्,18
अत्र व्याख्या प्राग्वत्, करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं-वक्ष्यमाणमवादीत्, यदवादीत्तदाह- णमोऽत्थु ते । सिद्धबुद्ध' इत्यादि, नमोऽस्तु ते-तुभ्यं हे सिद्ध एवं बुद्ध इत्यादिपदानि सम्बन्धनीयानि, तत्र हे बुद्ध!-ज्ञाततत्त्व! हे
नीरजाः!-कर्मरजोरहित ! हे श्रमण !-तपस्विन् ! हे समाहित-अनाकुलचित्त ! हे समाप्त! कृतकृत्यत्वात् अथवा सम्यक् प्रकारेणाप्त ! अविसंवादिवचनत्वात् हे समयोगिन् ! कुशलमनोवाकाययोगित्वात् शल्यकर्त्तन निर्भय नीरागद्वेष
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
श्रीजम्बू, 118
~ 844~
Page #846
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ------
-------- मूलं [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२२]
गाथा
श्रीजम्यू-1|| निर्मम निस्सङ्ग-निलेप निःशल्य मानमूरण-मानमर्दन गुणेषु रवं-उत्कृष्ट यच्छीलं-ब्रह्मचर्य तस्य सागर अनन्त अनन्त-18॥
५वक्षस्कार द्वीपशा-1 ज्ञानात्मकत्वात् मकारोऽलाक्षणिकः एवमप्रेऽपि अप्रमेय-प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्य अशरीरजीवस्वरूपस्य छद्मस्थैः परिच्छे-18 न्तिचन्द्रीया वृतिः
॥ तुमशक्यत्वादिति अथवाऽप्रमेय भगवद्गुणानामनन्तत्वेन सङ्ख्यातुमशक्यत्वात् भव्य-मुक्तिगमनयोग्य अत्यासन्नभव- अच्युता
सिद्धित्वात् धर्मेण-धर्मरूपेण वरेण-प्रधानेन भावचक्रत्वात् चतुरन्तेन-चतुर्गत्यन्तकारिणा चक्रेण वर्चत इत्येवंशीलस्तस्य || शीवादः ॥४२१॥ 18 सम्बोधन हे धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तु तुभ्यं अर्हते-जगत्पूज्याय इति कृत्वा-इति संस्तुत्य यन्दते नमस्थतीत्या- पन्द्राभि| दि सूत्रं प्राग्वत् , यच्चान विशेषणवर्णकस्यादी नमोऽस्तु ते इत्युक्त्वा पुनरपि नमोऽस्तु ते इत्युक्तं तन्न पुनरुक्तये प्रत्युत ला-1
कश्च स.
१२२ घवाय यतो जगप्रयप्रतिस्रोतश्चारिणो जगत्रयपतेस्तत्तदसाधारणकैकविशेषणविभावनात् समुद्भूतप्रणामपरिणामेन हरिणा प्रतिविशेषणं नमोऽस्तु ते इति न प्रयुक्तमिति, इमानि च सर्वाणि विशेषणानि भव्यपदवर्जानि भाविनि भूतबदुपचारादन्यथाऽभिषेकसमये जिनानामेतादृश विशेषणानामसम्भवादिति । अथावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लापवादाह-एवं जहार इत्यादि, एवमुक्तविधिना यथाऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा प्राणतेन्द्रस्य यावदीशानेन्द्रस्यापि भणितव्यं, शक्राभिषेकस्य । | सर्वतश्चरमत्वात् , एवं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राः सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येक २8॥४२१॥
अभिषिश्वन्ति । अथावशिष्टशकस्याभिषेकावसर:-'तए ण मित्यादि, ततः-त्रिपष्टीन्द्राभिषेकानन्तरमीशानो देवेन्द्रो देव-18 राजा पञ्चेशानान विकुर्वति-एकः ईशानः पश्चधा भवति, एतदेव विभजति-तत्र एक ईशानो भगवन्तं तीर्थकरं कर-18
ब
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
~845~
Page #847
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----
..................-------- मूलं [१२२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
तलसम्पुटेन गृह्णाति गृहीत्वा च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः एक ईशानः पृष्ठतः आतपत्रं धरति द्वावीशानावुभयोः पार्श्वयोः चामरोक्षेपं कुरुतः एक ईशानः पुरतः शूलपाणिस्तिष्ठति-ऊर्ध्वस्थो भवति । सम्प्रत्यव्यग्रपाणिः शको यदकरोत्तदाह-तए ण'मित्यादि, तत:-ईशानेन्द्रेण भगवतः करसम्पुटे ग्रहणानन्तरं स शको देवेन्द्रो देवराजा आभियोग्यान देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा च एषोऽपि तथैव-अच्युतेन्द्रवदभिषेकविषयकामाज्ञप्तिं ददाति तेऽप्याभि-18 योग्यास्तथैव-अच्युतेन्द्राभियोग्यदेवा इवाभिषेकवस्तूपनयन्ति, अथ शक्रः किं चकारेत्याह-'तए 'मित्यादि, ततःअभिषेकसामग्र्युपनयनानन्तरं स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशि चतुरो धबलवृषभान् विकुर्व-11% न्ति श्वेतान् श्वेतत्वमेव द्रढयति-शङ्खस्य दल-चूर्ण विमलनिर्मल:-अत्यन्तनिर्मलो यो दधिधनो-दधिपिण्डो बद्धं दधी-18] त्यर्थः गोक्षीरफेनः प्रतीतः रजतनिकरोऽपि एतेषामिव प्रकाशो येषां ते तथा तान्, 'पासाईए'त्यादि प्राग्वत, तदनन्तरं1% किमित्याह-'तए ण मिति, ततस्तेषां चतुर्धवलवृषभानामष्टभ्यः शृङ्गेभ्योऽटी तोयधारा निर्गच्छन्ति. ततस्ता अष्टी तो-18 यधारा अचं विहायसि उत्पतन्ति-ऊर्य चलम्ति, उत्पत्य च एकतो मिलन्ति मिलित्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य मूर्भिर निपतन्ति । अथ शक्रः किं कृतवानित्याह-'तए ण' मित्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैर्यावत् सम्परिवृतस्तैः स्वाभाविकवैकुर्विककलदौमहता तीर्थकराभिषेकेणाभिषिञ्चति इत्या-1 | दिसूत्रोक्तोऽभिषेकविधिः शक्रस्याच्युतेन्द्रवदस्तीति लाघवमाह-एतस्यापि तथैवाभिषेको भणितव्यः, कियदन्त इत्याह
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
CARE
~846~
Page #848
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२२]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२४१-२४३]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
॥४२२॥
-
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२२] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
यावन्नमोऽस्तु तेऽर्हते इति कृत्वा वन्दते नमस्यति २ त्वा यावत्पर्युपास्ते इति । अथ कृतकृत्यः शक्रो भगवतो जन्मपुरप्रापणायोपक्रमते
तएण से सके देविंदे देवराया पंच सके विश्व २ चा एगे सक्के भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिरहद्द एगे सके पिटुओ आयवन्तं घरे दुबे का उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति एगे सके वज्रपाणी पुरओ पगड, तए णं से सके चउरासीईए सामाणि साहसी जाब अण्णेहि अ भवणवश्वाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सबिद्धीए जाव णाइअरवेणं ताए उकिट्टाए जेणेव भगवओ तित्थयररस जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्धयरमाया तेणेव उवागच्छ २ ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ २ ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ २ सा ओसोवण पश्चिसाहरइ २ ता एवं महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमूले उबेइ २ चा एवं महं सिरिदामगंडं तवणिजलंबूसगं सुवण्णपयरगमंडिअं णाणामणिरयणविविहारद्धहारउव सोहिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवर वण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे २ हंसुद्देणं अभिरममाणे चिट्ठद्द, तए णं से सके देविंदे देवराया बेसमणं देवं सदावे २ ता एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुपिआ ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीसं सुबण्णकोडीओ बत्तीसं णंदाई बत्तीसं भद्दाई सुभगे सुभगरूव जुब्रणलावणे अ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि २ ता एअमाणतिअं पञ्चपिनाहि, तए णं से बेसमणे देवे सफेणं जाब वि retariesसुणे २ ता जंभर देवे सहावे २ ता एवं वदासि खिप्पामेव भो देवाशुधिआ । बन्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह साहरित्ता एअमाणत्ति पचष्पिणह, तए णं ते जंभगा देवा बेसमणेणं देवेणं
For P&Pale Cly
~ 847 ~
secseerestsentat
पवक्षस्कारे जिनजन्ममहे कृताभिषेकजि
नानयनं स.
१२३
||४२२॥
Page #849
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप अनुक्रम [२४४]
एवं बुत्ता समाणा हट्टतु जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव च भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति २ चा जेणेव वेसमणे देखें सेणेव जाव पञ्चप्पिणति, तए गं से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया जाब पञ्चप्पिणा । तए ण से सको देखिंदे देवराया ३ अमिओगे देवे सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! भगवो तित्थयरस जम्मणणयरंसि सिंघाडगजावमहापहपहेसु मया र सद्देणं उम्पोसेमाणा २ एवं बदह-हंदि सुणतु भवतो बहने भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ अ जे णं देवाणुप्पिा ! तिस्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेर तस्स गं अजगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट उत्तिक घोसणं घोसेह २ चा पत्रमाणत्ति पञ्चप्पिणहत्ति, तए ण ते आमिओगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुगंति २ ता सकस देविंदस्स देवरणो अंतिआओ पडिणिक्खमंति २ खिप्पामेव भगवओं तित्थगरस्स जम्मणणगरसि सिंघाडग जाब एवं बयासी-हंदि सुणतु भवतो बहवे भवणवइ जाय जेणं देवाणुप्पि! तित्थयरस्स जाव फुट्टिहीतित्तिक घोसणगं घोसंति २त्ता पममाणत्ति पञ्चप्पिणंति, तए णं ते महये भवणवइयाणमंतरजोइसवेमाणिआ देवा भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिम फरेंति २ चा जेणेव गंदीसरदीवे तेणेव उवागच्छति २ ता अवाहियाओ महामहिमाओ करेंति २ जामेव दिसि पाउन्भूमा तामेव दिसि पढिगया (सूत्रं १२३)
'तए ण' मित्यादि प्राग्वत् । अथ जम्मनगरप्रापणाय सूत्रं-'तए ण'मित्यादि, ततः स शक्रः पञ्चरूपविकुर्वणानन्तरं . चतुरशीत्या सामानिकसहर्यावत् सम्परिवृतः सर्वा यावन्नादितरवेन तयोत्कृष्टया दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन २
~848~
Page #850
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप
अनुक्रम
[२४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [ १२३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्विचन्द्री - या इति
॥४२३॥
यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च जन्मभवनं यत्रैव च तीर्थकरमाता तत्रैवोपागच्छतीति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकरं मातुः पार्श्वे स्थापयति स्थापयित्वा च तीर्थकरप्रतिविम्बं प्रतिसाहरति प्रतिसंहृत्य चावस्वापिनीं प्रतिसंहरति प्रतिसंहृत्य चैकं महत् क्षोमयोः - दुकूलयोर्युगलं कुण्डलयुगलं (च) भगवतस्तीर्थकरस्योच्छीर्षकभूले स्थापयति, स्थापयित्वा च एकं महान्तं श्रीदाम्नां - शोभावद्विचित्ररत्नमालानां गण्डं-गोलं वृत्ताकारत्वात् काण्डं वा-समूहः श्रीदामगण्डं श्रीदामकाण्डं वा भगवतस्तीर्थकरस्योल्लोचे निक्षिपति अवलम्बयतीति क्रियायोगः, 'तपनीये' त्यादि पदत्रयं प्राग्वत्, नानामणिरत्नानां ये विविधहारार्द्धहारास्तैरुपशोभितः समुदाय: - परिकरो येषां ते तथा, अयमर्थः श्रीमत्यो | रत्नमालास्तथा प्रथयित्वा गोलाकारेण कृता यथा चन्द्रगोपके मध्यझुम्बनकतां प्रापिताः हारार्द्धहाराञ्च परिकरझुम्बनकताम् । उक्तस्वरूपझुम्बनकविधाने प्रयोजनमाह - 'तण्ण' मिति प्राग्वत्, भगवांस्तीर्थकरोऽनिमिषया-निर्निमिषया दृष्ट्या अत्यादरेण प्रेक्षमाणः २ सुखसुखेनाभिरममाणो - रतिं कुर्वस्तिष्ठति । अथ वैश्रमणद्वारा शक्रस्य कृत्यमाह - 'तए ण' मित्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा वैश्रमणं उत्तर दिक्पालं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत् - क्षिप्र मेव भो देवानुप्रिय ! द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी: द्वात्रिंशतं सुवर्णकोटी: द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्तलोहासनानि द्वात्रिंशतं | भद्राणि-भद्रासनानि सुभगानि - शोभनानि सुभगयौवनलावण्यानि रूपाणि-रूपकाणि यत्र तानि तथा, सूत्रे पदव्यत्यय | आर्षत्वात्, चः समुच्चये, भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवने संहर आनयेत्यर्थः संहृत्य च एनामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पय, ततः स वैश्रमणो
For P&False Cnly
~ 849~
CRCRCRCRC
५वक्षस्कारे जिनजन्ममहे कृताभिषेकजिनानयनं सू. १२३
॥४२३॥
Page #851
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप अनुक्रम [२४४]
देवः शक्रेण यावत्पदात् देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुद्दचित्तमाणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' इति ग्राह्य,
विनयेन वचनं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य च जृम्भकान् देवान् तिर्यग्लोके वैतात्यद्वितीयश्रेणिवासित्वेन तिर्यग्लोकगत। निधानादिवेदिनः शब्दयति २ त्वा चैवमवादीत् , शेषमनुवादसूत्रत्वात् सुबोधम् , अथास्मासु स्वस्थानं प्राप्तेषु निःसौ-13
न्दर्याः सौन्दर्याधिके भगवति मा दुष्टा दुष्टदृष्टिं निक्षिपन्त्विति तदुपायार्थमाह-'तए ण'मित्यादि, ततो-वैश्रमणेनाज्ञाप्रत्यर्पणानन्तरं स शकः ३ अभियोगान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानु-18 प्रिया! भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरे शृङ्गाटकयावन्महापधपधेषु महता २ शब्देन उद्घोषयन्तः २ एवं वदत-हन्त !
इति प्राग्वत् शृण्वन्तु भवन्तो बह्वो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाश्च देव्यश्च योऽनिर्दिष्टनामा देवानांप्रि18 या! इति सम्बोधनं भवतां मध्ये तीर्थकरस्य मातुर्वोपर्यशुभं मनः प्रधारयति-दुष्टं सङ्कल्पयति तस्य 'आर्यकमञ्ज
रिकेव' आर्यको-वनस्पतिविशेषो यो लोके आजओ इति प्रसिद्धस्तस्य मञ्जरिका इव भूर्द्धा शतधा स्फुटस्वितिकृत्वा18 इत्युक्त्वा घोषणं घोषयत, घोषयित्वा चैतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति, अथ ते यच्चक्रुस्तदाह-तए ण'मित्यादि व्यक्त 18| अनुवादसूत्रत्वात् , अथ निगमनसूत्रमाह-तए णमिति, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा भगवतस्तीर्थकरस्य [81
जन्ममहिमानं कुर्वन्ति, कृत्वा च सिद्धसमीहितकार्याः मङ्गलाई यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागल्या-18 साह्निकामहामहिमा:-अष्टदिननिर्वर्तनीयोत्सवविशेषान् कुर्वन्ति, बहुवचनं चात्र सौधर्मेन्द्रादिभिः प्रत्येक क्रियमाण-18|
Elearina
~850~
Page #852
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----
---- मूलं [१२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
५वक्षस्कारे
प्रत
श्रीजम्बू-
द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
सूत्रांक
[१२३]
।।४२४॥
त्वात् , अत्र यस्येन्द्रस्य यस्मिन् अञ्जनगिरी येषु च दधिमुखगिरिषु तल्लोकपालानां अष्टाहिकाधिकारः स प्राक् ऋष- भदेवनिर्वाणाधिकारे उक्त इति नात्र लिख्यते ॥
इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदंयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकब्बरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजगज्जन्तुजाताभयप्रदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयुगप्रधानोपमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्चरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमञ्जूषानामयां तीर्थकृजन्मा
भिषेकाधिकारवर्णनो नाम पञ्चमो वक्षस्कारः॥५॥
दीप अनुक्रम [२४४]
1॥४२४॥
अत्र पञ्चम-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~851~
Page #853
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], -----
---- मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
e
अथ षष्ठो वक्षस्कारः॥६॥
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप अनुक्रम [२४५]
पृष्टं जम्बूद्वीपान्तर्वर्ति स्वरूपं, सम्प्रति तस्यैव चरमप्रदेशस्वरूपप्रश्नायाहजंधुद्दीवस्स गं भंते ! दीवस्स पदेसा लवणसमुई पुट्ठा?, इंता पुट्ठा, ते णं भंते ! कि जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुहे ?, गोभमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे, एवं लवणसमुदस्सवि पएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणिअव्वा इति । जंबुद्दीवे गं भंते ! जीवा उद्दाइत्ता |
२ लवणसमुद्दे पञ्चायति ?, अस्थगइआ पञ्चायति अत्यंगइआ नो पञ्चायंति, एवं लवणस्सबि जंबुद्दीवे दीवे णेअव्वमिति (सूत्र १२४) । _ 'जंबहीवस्स ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् द्वीपस्य प्रदेशा लवणसमुद्रशब्दसहचाराचरमप्रदेशा इति 18व्याख्येयं अन्यथा जम्बूद्वीपमध्यवर्तिप्रदेशानां लवणसमुद्रस्य संस्पर्शसम्भावनाया अभावात् लवणसमुद्रं स्पृष्टाः
| स्पृष्टवन्तः, कर्तरि तप्रत्ययः, अन्न काकुपाठात् प्रश्नसूत्रावगतिः, भगवानाह-हन्ता ! इति प्रत्यवधारणे । अथ सम्प्रदा-18 | यादिना द्वीपानन्तरीयाः समुद्राः समुद्रानन्तरीया द्वीपाः तेन ये यदनन्तरीयास्ते तत्संस्पर्शिन इति सुज्ञानेऽप्यस्मिन् | प्रष्टव्येऽर्थे यत् प्रश्नविधानं तदुत्तरसूत्रे प्रश्नवीजाधानायेति तदाह-ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा भदन्त ! किं जम्बूद्वीपो द्वीपः18 |उत इति गम्यस्तेन लवणसमुद्रो वा इत्यर्थः, पृच्छतोऽयमाशयः-योन स्पृष्टं तत्किश्चित्तव्यपदेशं लभते किश्चित् %
अथ षष्ठ-वक्षस्कार: आरभ्यते
~852~
Page #854
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], -----
---- मूलं [१२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप अनुक्रम [२४५]
श्रीजम्बू-18 पुनर्न तथा, यथा तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गलिज्येष्ठवेति, तेन जम्बूद्वीपचरमप्रदेशाः लक्मसमुद्रं स्पृष्टाः कथं व्यपदेश्या,
वा वक्षस्कारे अनोत्तर-गौतम ! निपातस्यावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीप एव द्वीपः जम्बूद्वीपसीमावर्तित्वात् न परस्परस्पन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
खलु ते लवणसमुद्रो, जम्बूद्वीपसीमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमप्राप्तत्वात् किन्तु स्वसीमागता एव लवणसमुद्र स्पृष्टास्तेन तटस्थतया संस्पर्शभवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गलिरिव स्वव्यपदेशं लभते, एवमुक्तरीत्या लवणसमुद्र-18||
त्पादौ मू. ॥४२५॥
१२४ स्थापि चरमप्रदेशा जम्बूद्वीपं स्पृष्टा न जम्बूद्वीपः किन्तु लवणसमुद्रो लवणसमुद्रसीमावर्तित्वादित्यादि भणितव्यम् । अनन्तरसूत्रे जम्बूद्वीपलवणोदयोः परस्परमव्यपदेश्यता उक्का, सम्प्रति तयोरेव जीवानां परस्परमुत्पत्याधारता पृच्छयते इत्याह-'जंबुद्दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे जीवा अवद्राय २-मृत्वा २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्तिआगच्छन्ति, अत्रापि काकुपाठात् प्रभावगतिः, भगवानाह-गौतम ! अस्तीति निपातोऽत्र बह्वर्थः, सन्त्येकका जीवा येऽवद्राय २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति सन्त्येकका ये न प्रत्यायान्ति, जीवानां तथा तथा स्वकर्मवशतथा गतिवैचित्र्य| सम्भवात् , एवं लवणसमद्रसूत्रमपि भावनीयम् ॥ सम्प्रति प्रागुक्तानां जम्बूद्वीपमध्यवर्सिपदार्थानां सङ्ग्रहगाथामाह
बंडा १ जोषण २ वासा ३ पन्वय ४ कडा ५ य तित्य ६ सेडीओ ७ । विजय दह ९सलिलाओ १० पिंडए होइ संगहणी ॥ १॥ जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहिं खंडेहि केवइ खंडगणिएणं पं०,१ गो।। णला खंडसर्व संखगणिएणं पण्णते ।
ह ॥४२५॥ जंयुहरीवेणं भंते ! दीये केवइयोअणगणिएणं पण्णते?, गोअमा! सत्तेव य कोडिसया णउआ छप्पण्ण सबसहरसाई। चषणवई च सह
~853~
Page #855
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], ----
-------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
स्सा सयं दिवद्धं च गणिअपयं ॥१॥ जंबुद्दीवे गं भंते ! दीचे कति बासा पण्णता!, गोअमा! सत्त वासा, संजहा-भरहे एस्वए हेमवए हिरण्णवए हरिवासे रम्मगवासे महाविदेहे, जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता केवइआ मंदरा पक्क्या पण्णत्ता केकइमा चित्तकूडा केवइया विचित्तकूडा केवइआ जमगपध्वया केवइआ कंचणपन्वया केवइआ वक्खारा केवइआ दीहवेअद्धा केवइमा बट्टवेअद्धा पण्णता ?, गोधमा ! जंबुद्दीवे छ बासहरपब्बया एगे मंदरे पवए एगे चित्तकूडे एगे विचित्तकूडे दो जमगपन्वया दो कंचणगपव्वयसया वीसं बक्खारपव्वया चोत्तीसं दीहवेअद्धा चत्तारि वट्टवेअद्धा, एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे दुणि अउणत्तरा पब्वयसया भवंतीतिमक्खायंति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ वासहरकूडा केवइमा क्वारकूला केवइमा वेभद्धकूडा केवइआ मंदरकूडा पं० १, गो०! छप्पण्णं वासहरकूडा छण्णउई बक्खारकूडा तिणि छलुत्तरा येअशकूटसया नव मंदरकूडा पण्णत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे चत्तारि सत्तहा कूतसया भवन्तीतिमक्खायं । जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे कति तिस्था पं०?, गो०! तओ तित्था पं० सं०-मागहे वरदामे पभासे, जंबुद्दीवे २ एरवए वासे कति तित्था पं0१, गो०! तो तिस्था पं० २०-मागहे वरदामे पभासे, एवामेव सपुधावरेणं जंबुद्दी० महाविदेहे वासे एगमेगे चक्रवट्टिविजए कति तित्था पं० १, गो. तो तित्था पं०, तं०-मागहे घरदामे पभासे, एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे २ एगे विउत्तरे तित्थसए भक तीतिमक्खायति । जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइमा विजाहरसेढीओ केवइआ आमिओगसेढीओ पं०१, गो० ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसही विजाहरसेढीओ अट्ठसठ्ठी आमिओगसेढीओ पण्णचाओ, एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुहीवे दीवे छत्तीसे सेढिसए भवतीतिमक्खायं, जंबुद्दीवे दीवे केबइआ चकवट्टिविजया केवइआओ रायहाणीओ केवइआओ तिमिसगुहाओ केवइआओसंडप्पवा
390000000000000290902
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~854~
Page #856
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], ---
-------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
श्रीजम्बू वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
eace
वक्षस्कारे खण्डयोजनादिपिण्डः रु. १२५
४२६॥
गाथा:
यगुहाभो केवइआ कयमालया देवा केवइया गट्टमालया देवा केवइआ उसभकूडा पं०१, गो.! जंबुद्दीचे दीवे चोत्तीस चकवट्टिषिजया चोत्तीस रायहाणीओ चोत्तीसं तिमिसगुहाओ चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ चोत्तीसं कयमालया देवा चोत्तीस गढमालया देवा चोसीसं सभकूडा पनवा पं०, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइमा महदहा पं०१, गो०! सोलस महदहा पण्णत्ता, जंयुदीवेणं भंते ! दीवे केवइयाओ महाणईओ वासहरपबहाओ केवइआओ महाणईओ कुंडप्पवहाओ पण्णता ?, गोयमा! जंबुद्दीवे २ चोइस महाणईओ वासहरपव्यहाओ छावत्तरि महाणईओ कुंडप्पबहाओ, एवामेव सपुब्वावरेणं जंबुद्दीचे दीवे णउति महाणईओ भवंतीतिमक्खायं । जंबुद्दीये २ भरहेरवएसु बासेसु कइ महाणइओ पं०१, गोभमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं०-- गंगा सिंधू रत्ता रत्तवई, तत्य णं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे भरह एरवएसु वासेसु छप्पण्णं सलिलासहस्सा भवंतीतिमक्खायंति, जंबुद्दीवे गं भंते ! हेमवयहेरण्णवएसुवासेसु कति महाणईओ पणत्ताओ?, गो०! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओं, तंजहा-रोहिता रोहिअंसा सुवण्णकूला रुप्पकूला, तत्थ गं एगमेगा भहाणई अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे २ हेमवयहेरण्णवएसु वासेसु बारसुत्तरे सलिलास यसहस्से भवतीतिमक्खायं इति । जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे हरिषासरम्मगवासेसु कइ महाणईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! चत्तारि महाणईओ पण्णताओ, संजहा-हरी हरिकंवा नरकंता णारिकता, तत्य णं एगमेगा महाणई छप्पण्णाए २ सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे २ हरिवासरम्मगवासेसु दो चच्वीसा सलिलासयसहस्सा भवंतीतिमक्खाय, जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे महा
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
॥४२६॥
Season
~855~
Page #857
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [६], ---
--.-....................- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
विदेहे वासे कइ महाणईमो पण्णतामो, गोयमा ! दो महाणईओ पण्णत्ताओ, जहा--सीमा य सीमोआ य, तत्थ एगमेगा महाणई पंचहिं २ सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहि समग्गा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, एयामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दस सलिलासयसहस्सा चउसहि च सलिलासहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दक्खिणेणं केवड्या सलिलासयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमामिमुहा लवणसमुदं समप्पंति, ग्रो० ! एने छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिमपञ्चत्विमाभिमुहे लवणसमुदं समप्पेवित्ति, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीये मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमाभिमुहा लवणसमुई समप्येति ?, गो०! एगे ठण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिमपञ्चत्थिमाभिमुहे जाव समप्पेइ, जंबुडीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिलासयसहस्सा पुरस्थाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेंति ?, गो० ! सन्त सलिलासबसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समप्पेति, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिलासयसहस्सा पचत्विमाभिमुहा लवणसमुई समप्पेंति ?, गोअमा! सत्त सलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समप्पैति, एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीचे चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवतीतिमक्खायं इति (सूत्र १२५)
'खंडा जोअण' इत्यादिसङ्ग्रहवाक्यस्य सङ्क्षिप्सत्वेन दुर्बोधत्वात् सूत्रकृदेव प्रश्नोत्तररीत्या विकृणोति, तत्र सूत्रम्-'जबु-18 दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपो भदन्त! द्वीपो भरतप्रमाण-षट्कलाधिकषड्विंशतियोजनाधिकपञ्चशतयोजनानि तदेव मात्रा-11 || परिमाणं येषां तानि तथा एवंविधैः खण्डैः-शकलैः इत्येवंरूपेण खण्डगणितेन-खण्डसङ्ख्यया कियान् प्रज्ञा?, भगवा
easa909200000000000000028
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
toeceneta
बीजम् ७२
~856~
Page #858
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [६], ----
-------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
श्रीजम्बू
नाह-गौतम ! नवत्यधिक खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तः, कोऽर्थः?-भरतप्रमाणैः खण्डैर्नवत्यधिकशतसङ्ख्याकैमिलितैर्ज- विक्षस्कारे
18बदीपः सम्पूर्णलक्षप्रमाणो भवति, तत्र दक्षिणोत्तरतः खण्डमीलना प्राक भरताधिकारवृत्तौ चिन्तितेति न पुनरुच्यते. खण्डयोजन्तिचन्द्री-18 पूर्वपश्चिमतस्तु यद्यपि खण्डगणितविचारणासूत्रे न कृता वनमुखादिभिरेव लक्षपूर्तेरभिधानात् तथापि खण्डगणितवि-11
प.१२५ या वृत्तिःचारे क्रियमाणे भरतप्रमाणानि तावन्त्येव खण्डानि भवन्ति, अथ 'योजने'तिद्वारसूत्रम्-'जंबुद्दीवेण' मित्यादि, जम्बू॥४२७॥
द्वीपो भदन्त ! द्वीपः कियान् योजनगणितेन-समचतुरस्रयोजनप्रमाणखण्डसर्वसाया प्रज्ञप्तः१, भगवानाह-गौतम सप्त कोटिशतानि एवोऽवधारणे च उत्तरत्र सङ्ख्यासमुच्चयार्थः नवतानि-नवतिकोव्यधिकानीति व्याख्येयं प्रस्तावात्, | अन्यथा कोटिशततो द्वितीयस्थाने सत्सु लक्षादिस्थानेषु नवदशकरूपा नवतिर्ने युज्यते गणितशास्त्रविरोधात्, तथा षट्पञ्चाशच्छतसहस्राणि लक्षाणीत्यर्थः चतुर्नवतिश्च सहस्राणि शतं च यई-साई पञ्चाशदधिक योजनानामित्येताथप्रमाणं जम्बूद्वीपस्थ गणितपदं क्षेत्रमित्यर्थः, सूत्रे च योजनसङ्ख्यायाः प्रकान्तत्वात् योजनावधिरेव सह्या | निर्दिष्टा अन्यत्र तु भगवतीवृत्त्यादी साधिकत्वं विवक्षितं, तच्चेदम्-'गाउअमेगं पण्णरस धणुस्सया तह य धणूणि | ॥ पण्णरस । सदिच अंगुलाई जंबुद्दीवस्स गणिअपयं ॥१॥" इति, इयं च व्यक्तैव १ गा० १५१५ प. ६००,
॥४२७॥ 18|| करणं चात्र-'विक्खंभपायगुणिओ अ परिरओ तस्स गणिअपर्य' इति वचनात् जम्दीपपरिधिखिलक्षषोडश। सहन द्विशतसप्तविंशतियोजनादिको जम्बूद्वीपविष्कम्भस्य लक्षरूपस्य पादेन-चतुर्थांशेन पञ्चविंशतिसहस्ररूपेण |||
Da
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
E
nimlil
~857~
Page #859
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [६], ---
-------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
perseer
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
sesecesereeeeeeeeee
| गुणितो जम्बूद्वीपगणितपदमिति, तथाहि-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिनो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके
योजनानां तथा गव्यूतत्रयं अष्टाविंशत्यधिक शतं धनुषां त्रयोदशाङ्गुलानि एक चा ङ्गुलं, यवादयस्तु श्रीजिन| भद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतक्षेत्रविचारसूत्रवृत्त्यादौ न विवक्षिता अतो न तद्विवक्षा क्रियते, तत्र योजनराशौ पञ्च-18
विंशतिसहस्त्रैर्गुणिते सप्तकोटिशतानि नवतिकोटयः षट्पञ्चाशलक्षाः पश्चसप्ततिः सहस्राणि भवन्ति, तथा क्रोशत्रये पञ्चशविंशतिसहस्रगुणिते जातं पञ्चसप्ततिसहस्राणि गव्यूतानां, एषां च योजनानयनार्थं चतुर्भिर्भागे हृते लब्धान्यष्टादश सहस्राणि सप्त शतानि, पश्चाशदधिकानि योजनानां, अस्मिंश्च सहस्रादिके पूर्वराशी प्रक्षिप्ते जातानि ९३ सहस्राणि | शतानि ५० अधिकानि कोट्यादिका सङ्ख्या तु सर्वत्र तथैव, तथा धनुषामष्टाविंश शतं पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुण्यते जाता द्वात्रिंशलक्षा धनुषा ३२००००० अष्टाभिश्च धनुःसहस्रैर्योजनं भवति ततो योजनानयनार्थमष्टाभिः सहस्रैर्भागे 181 | लब्धानि चत्वारि योजनशतानि अस्मिंश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि ९४ सहस्राणि शतं पञ्चाशदधिकं, अङ्गुलान्यपि ॥ त्रयोदश पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि लक्षाणि पञ्चविंशतिसहस्राधिकानि अङ्गुिलमपि पञ्चविंशतिसहस्रर
भ्यस्यते जातान्यर्धाङ्गुलानां पञ्चविंशतिसहस्राणि तेषामढ़ें लब्धान्यङ्गलानां द्वादश सहस्राणि पञ्चशताधिकानि तेषु । पूर्वोक्ताङ्गुलराशौ प्रक्षिप्तेषु जातोऽङ्गुलराशिस्त्रीणि लक्षाणि सप्तत्रिंशत्सहस्राणि पञ्चशताधिकानि एषां धनुरानयनाय पिण्णवत्या भागे हृते लब्धानि धनुषां पश्चत्रिंशच्छतानि पञ्चदशाधिकानि शेष पष्टिरमुलानि, अस्य धनूराशेर्गव्यूतानय
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~858~
Page #860
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], ---
-------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
श्रीजम्बू-18/नाय सहस्रदयेन भागे हते लब्धमेकं गव्यूतं शेष धनुषां पञ्चदश शतानि पञ्चदशाधिकानि, सर्वाग्रेण जातमिद-योजना-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- नां सप्त कोटिशतानि नवतिकोव्यधिकानि षट्पञ्चाशल्लक्षाश्चतुपर्णवतिसहस्राणि शतमेकं पञ्चाशदधिकं तथा गन्यूतमेकं खण्डयोजन्तिचन्द्री-18
धनुषां पञ्चदशशतानि पञ्चदशाधिकानि अङ्गलानां षष्टिरिति । गतं योजनद्वारं, अथ वर्षाणि-'जंबुद्दीने 'मित्यादिनादिपिण्डः या वृत्तिः
व्यकं । अथ पर्वतद्वार-'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि प्रश्नसूत्र व्यक्तं, उत्तरसूत्रे सङ्ख्यामीलनाय किश्चिदुच्यते-षट् वर्षधराः स. १२५ क्षुल्लहिमवदादयः एको मन्दरो मेरुः एकश्चित्रकूट: एकश्च विचित्रकूटः, एतौ च यमलजातकाविव द्वौ गिरी देवकुरुवर्तिनी, द्वौ यमकपर्वती तथैवोत्तरकुरुवर्तिनी, द्वे काञ्चनकपर्वतशते देवकुरूत्तरकुरुवर्तिहददशकोभयकूलयोः प्रत्येक दशरकाञ्चनकसद्भावात् , तथा विंशतिर्वक्षस्कारपर्वताः, तत्र गजदन्ताकारा गन्धमादनादयश्चत्वारः तथा चतुःप्रका-18 रमहाविदेहे प्रत्येक चतुष्करसद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिता यथोक्तसङ्ख्याकाः, तथा चतु
स्त्रिंशद्दीर्घवैताळ्या द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतैरावतयोश्च प्रत्येकमेकैकभावात्, चत्वारो वृत्तवैताट्याः हैमवतादिषु चतुर्पु वर्षेषु । 18 एकैकभावात् , 'एवामेव सपुबावरेणं'ति प्राग्वत् , जंबूद्वीपे द्वीपे एकोनसप्तत्यधिके द्वे पर्वतशते भवतः इत्याख्यातं । 18 मयाऽन्यैश्च तीर्थकृभिः। अथ कूटानि, तत्र सूत्र-जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति वर्षधरकूटानि इत्या-18
॥४२८॥ 18| दिप्रश्नसूत्र व्यक्तं, उत्तरसूत्रे षट्पञ्चाशद्वर्षधरकूटानि, तथाहि-क्षुद्रहिमवतशिखरिणोः प्रत्येकमेकादश २२ महाहिमव
दुक्मिणोः प्रत्येकमष्टौ १६ निषधनीलवतोःप्रत्येकं नव १८ सर्वसङ्ख्यया ५६, वक्षस्कारकूटानि षण्णवतिः, तद्यथा-सर
।
गाथा:
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
saex
~859~
Page #861
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२५ ]
गाथा:
दीप
अनुक्रम [२४६
-२४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
लवक्षस्कारेषु षोडशसु १६ प्रत्येकं चतुष्टयभावात् ६४ गजदन्ताकृतिवक्षस्कारेषु गन्धमादन सौमनसयोः सप्त १४ मा व्यवद्विद्युत्प्रभयोः नव १८ इति उभयमीलने यथोक्तसङ्ख्या, त्रीणि पडुत्तराणि वैताव्यकूटशतानि, तत्र भरतैरावतयोविजयानां च वैताढ्येषु चतुस्त्रिंशति प्रत्येकं नवसम्भवादुक्तसङ्ख्यानयनं, वृत्तवैताढ्येषु च कूटाभावः अत एव वैताव्यसूत्रे न दीर्घपदोपादानं विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वात् अत्र च व्यवच्छेद्यस्याभावादिति, मेरौ नव, तानि च नन्दनवनगतानि ग्राह्याणि न भद्रशाल वनगतानि दिगूहस्तिकूटानि तेषां भूमिप्रतिष्ठितत्वेन स्वतन्त्रकूटत्वादिति, सङ्ग्रहणिगाथायां 'पवयकूडा ये'त्यत्र चोऽनुकसमुच्चये तेन चतुखिंशद् ऋषभकूटानि तथा अष्टौ जम्बूवनगतानि तावन्त्येव शा| ल्मलीवनगतानि भद्रशालवनगतानि च सर्वसङ्ख्ययाऽष्टपञ्चाशत्सङ्ख्याकानि ग्राह्याणि, ननु तर्हि एतद्गाथाविवरणसूत्रे 'चत्तारि सत्तसठ्ठा कूडसया' इत्येवंरूपे सङ्ख्याविरोधः, उच्यते, एषां गिर्यनाधारकत्वेन स्वतन्त्रगिरित्वान्न कूटेषु गणना, | अयमेवाशय ऋषभकूट सङ्ख्या सूत्रपृथक्करणेन सूत्रकृता स्वयमेव दर्शयिष्यते, यच्च प्राक् ऋषभकूटाधिकारे 'कहि णं भंते ! जंबुद्दी उसभकूडे णामं पचए पण्णत्ते' इति सूत्रं, तच्छिलोच्चयमात्रतापरं व्याख्येयमिति सर्वं सम्यकू, अथ तीर्थानि - 'जंबुद्दीवे' इत्यादि, प्रश्नसूत्रे तीर्थानि चक्रिणां स्वस्वक्षेत्र सीमासुरसाधनार्थं महाजलावतारणस्थानानि, उत्तरसूत्रे भरते त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मागधं पूर्वस्यां गङ्गासङ्गमे समुद्रस्य वरदाम दक्षिणस्यां प्रभासं पश्चिमायां सिंधुसंगमे समुद्रस्य एवमैरावतसूत्रमपि भावनीयं, नवरं नद्यौ चात्र रक्कारक्तवत्यौ तयोः समुद्रसङ्गमे मागधप्रभासे
For P&Palle Cnly
~860~
Page #862
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ १२५ ]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२४६
-२४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥४२९॥
वरदामारूयं च तत्र त्यापेक्षया तथैव, विजयसूत्रे चायं विशेष:- विजय सत्कगङ्गादि४ महानदीनां यथार्ह शीताशीतो| दयोः सङ्गमे मागधप्रभासाख्यानि भावनीयानि वरदामाख्यानि तेषां मध्यगतानि भाव्यानि, एवमेव पूर्वापरमीलनेन एकं त्र्युत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातमिति । अथ श्रेणयः - 'जंबुद्दीवे' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे गौतम ! जंबूद्वीपे द्वीपे अष्टषष्टिविद्याधरश्रेणयः- विद्याधरावासभूता वैताढ्यानां पूर्वापरोदध्यादिपरिच्छिन्ना आयतमेखला भवन्ति, चतुस्त्रिंशत्यपि वैताक्ष्येषु दक्षिणत उत्तरतश्च एकैकश्रेणिभावात्, तथैवाष्टषष्टिराभियोग्यश्रेणयः, एवमेव पूर्वापरमी| लनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे पट्त्रिंशं षट्त्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीत्याख्यातं । अथ विजया: - 'जंबुद्दीवेत्ति प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिंशञ्चक्रवर्त्तिविजयाः तत्र द्वात्रिंशन्महा विदेहविजया द्वे च भरतैरावते उभयोरपि चक्रवर्तिविजेतव्यक्षेत्र खण्ड रूपस्य चक्रवर्त्तिविजयशब्दवाच्यस्य सत्त्वात् एवं चतुस्त्रिंशद्राजधान्यश्चतुस्त्रिंशत्तमिस्रागुहाः ताढ्यमेकैकसम्भवात् एवं चतुखिंशत् खण्डप्रपातगुहाः चतुस्त्रिंशत्कृतमालका देवाः चतुस्त्रिंशन्नक्तमालका देवाश्चतुखिंशत् ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्रज्ञताः, प्रतिक्षेत्रं सम्भवतश्चक्रवर्त्तिनो दिग्विजयसूचक नामन्यासार्थमे के क सद्भावात्, यश्चात्र विजयद्वारे प्रक्रान्ते राजधान्यादिप्रश्नोत्तरसूत्रे तद् विजयान्तर्गतत्वेनेति । अथ हदा:- 'जंबुद्दीवे २' इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे षोडश महाहदाः षड् वर्षधराणां शीताशीतादयोश्च प्रत्येकं पञ्च पञ्च । अथ सलिला: - 'जंबुद्दीचे' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो महानद्यो वर्षधरेभ्यः- 'तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति वर्षधरहदेभ्यः प्रवहन्ति-निर्गच्छन्तीति वर्षध
प्रतिवै
For P&Praise Caly
~861~
enesise
| ६ वक्षस्कारे खण्डयोज - नादिपिण्डः
स्. १२५
॥४२९॥
Page #863
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], ---
--------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
रप्रवहाः, अन्यथा कुण्डप्रभवाणामपि वर्षधरनितम्बस्वकुण्डप्रभवत्वेन वर्षधरप्रभवा इति वाच्यं स्यात्, कियत्यः कुण्डप्रभवा-वर्षधरनितम्बवर्तिकुण्डनिर्गताः प्रज्ञप्ता:?, गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश महानद्यो वर्षधरहदप्रभवा भरतगङ्गा-17 दयः प्रतिक्षेत्रं द्विद्विभावात् , कुण्डप्रभवाः षट्सप्ततिर्महानद्यः, तत्र शीताया उदीच्येष्वष्टसु विजयेषु शीतोदाया याम्येप्वष्टसु विजयेषु च एकैकभावेन षोडश गङ्गाः षोडश सिन्धवश्च तथा शीताया याम्येषष्टसु विजयेषु शीतोदाया उदीच्येविष्टसु विजयेषु चैकैकभावेन षोडश रक्ता रक्तावत्यश्च, एवं चतुःषष्टिः द्वादश च प्रागुक्का अन्तर्नयः सर्वमीलने षट्स
तिरिति कुण्डप्रभवानां तु शीताशीतोदापरिवारभूतत्वेनासम्भवदपि महानदीत्वं स्वस्वविजयगतचतुर्दशसहस्रनदी-18 18 परिवारसम्पदुपेतत्वेन भाव्यं, एवमेव सपूर्वापरेण चतुईशषट्सप्ततिरूपसङ्ख्यामीलनेन जम्बूद्वीपे नवतिर्महानद्यो भवन्ती त्या8 ख्यातमिति। अधैतासां चतुर्दशमहानदीना नदीपरिवारसयां समुद्रप्रवेशदिशं चाह-जंबुद्दी' इत्यादि व्यक्तं, नवरं
यद् भरतैरावतयोयुगपद्महणं तत्समानक्षेत्रत्वात् , भरते गङ्गा पूर्वलवणसमुद्रं सिन्धुः पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, 18 ऐरावते च रक्ता पूर्वसमुद्रं रक्तावत्यपरसमुद्रं च, तथा 'जंबुद्दीवेत्ति निगदसिद्धं, नवरं हैमवतहरण्यवतयोः समानयुमिक्षेत्रत्वेन सहोक्तिः, हैमवते रोहिता पूर्व लवणं रोहितांशा पश्चिमं हिरण्यवते सुवर्णकूला पूर्व लवणं रूप्यकूला ||81 पश्चिम एवमेव पूर्वापरमीलनेन जम्बूद्वीपे हैमवतहरण्यवतयोः क्षेत्रयोर्द्वादशसहस्रोत्तरं नदीशतसहस्रं भवत्येवमाख्यातं, अत्र शतसहस्रशब्दसाहचर्यादग्रसङ्ख्यायां द्वादशोत्तराणीत्यत्र सहस्राणि प्रतीयन्ते, अन्यथा (द्वादशाधिकरवे अर्ध-)
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
809080500000000000
~862~
Page #864
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [६], ----
-------- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
श्रीजम्बू- 18 पट्पञ्चाशत्सहस्राणां चतुर्गुणने सजवाशास्त्रबाधः स्यात् , दृश्यते च शब्दसाहचर्यादर्थप्रतिपत्तिर्यथा रामलक्ष्मणावित्यत्र | द्वापणा- रामशब्देन दाशरथिर्लक्ष्मणशब्दसाहचर्यात् प्रतीयते न तु रेणुकासुत इति, तथा 'जंबुद्दीये' इत्यादि, सुबोध, द्वयोर्षयोः
वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
सहोतो हेतुः प्राग्वदेव, हरीति-हरिसलिला पूर्वार्णवगा हरिवर्षे हरिकान्ता चापरार्णवगा रम्यके नरकान्ता पूर्वार्णवगानादिपिण्डः या वृत्तिः
नारीकान्ता चापरार्णवगा सर्वसङ्ख्यया जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्षरम्यकवर्षयोद्धे चतुर्विंशतिसहस्राधिके सलिलाशतसहस्रे भवत सू. १२५ 1॥४३०॥ 12 इति, षट्पञ्चाशत्सहस्राणां चतुर्गुणने एतावत एव लाभात्, अत्रापि सहनपरतया व्याख्यानं प्राग्वत् , तथा जंबुद्दीवे' इत्या-1
|दि व्यक, नवरं शीता शीतोदा चेत्यत्र चकारी द्वयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाओं तेन समपरिवारस्वादिकं ग्राह्य, समुद्रप्रवेशः। शीतायाः पूर्वस्यां शीतोदायास्त्वपरस्यामिति, 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रित्यत्र द्वादशान्तरनद्योऽधिका ग्राह्याः, महा-AS विदेहनदीत्वाविशेषात् , शेषाः कुण्डमभवनद्यश्च शीताशीतोदापरिवारनदीष्वन्तर्गता इति न सूत्रकृता सूत्रे पृथग विवृताः। अथ मेरुतो दक्षिणस्यां कियत्यो नद्य इत्याह-'जंबुद्दीवे दीवे मंदरपत्य' इत्यादि व्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे एक षण्णवतिसहस्राधिकं सलिलाशतसहने, तथाहि-भरते गङ्गायाः सिन्धोश्च चतुर्दश २ सहस्राणि हैमवते रोहिताया रोहितांशायाश्चाटाविंशतिरष्टाविंशतिः सहस्राणि हरिवर्षे हरिसलिलाया हरिकान्तायाश्च षट्पञ्चाशत् २ सहस्राणि सर्वमीलने यथोक्तसङ्ख्या।
॥४३०॥ अथ मेरुत उत्तरवर्तिनीनां सङ्ख्या प्रश्नयितुमाह-'जंबुद्दी' इत्यादि व्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे सर्वसङ्ख्या दक्षिणसूत्रबद् भाव-18 नीया, वर्षाणां नदीनां च नामसु विशेषः स्वयं बोध्यः, ननु मेरुतो दक्षिणोत्तरनदीसङ्ख्यामीलने सपरिवारे उत्तरदक्षिणप्र-IMS
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~863~
Page #865
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
(१८)
वक्षस्कार [६], ---
---....................---- मूलं [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
वहे शीताशीतोदे कथं न मीलिते ?, उच्यते, प्रश्नसूत्रं हि मेरुतो दक्षिणोत्तरदिग्भागवर्तिपूर्वापरसमुद्रप्रवेशरूपविशिष्टार्थ-18 विषयकं तेन न मेरुतः शुद्धपूर्वापरसमुद्रप्रवेशिन्योरनयोर्निर्वचनसूत्रेऽन्तर्भावः, यधाप्रश्नं निर्वचनदानस्य शिष्टव्य-13 |वहारात् । अथ पूर्वाभिमुखाः कियत्यो लवणोदं प्रविशन्तीत्याह-'जंबुद्दीचे दी' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो || नद्यः पूर्वाभिमुखं लवणोदं प्रविशन्ति-कियत्यः पूर्वसमुद्रप्रवेशिन्य इत्यर्थः, इदं च प्रश्नसूत्रं केवलं नदीनां पूर्वदिग्मा-॥९॥
मित्वरूपप्रष्टच्यविषयकं तेन पूर्वस्मात् प्रश्नसूत्राद्विभिद्यते, उत्तरसूत्रे सप्त नदीलक्षाणि अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि यावत् A समुपसर्पन्ति, तद्यथा-पूर्वसूत्रे मेरुतो दक्षिणदिग्वर्त्तिनीनामेकं षण्णवतिसहस्राधिकं लक्षमुक्तं, तदई पूर्वाब्धिगामीत्या
गतान्यष्टानवतिः सहस्राणि एवमुदीच्यनदीनामप्यष्टानवतिः सहस्राणि शीतापरिकरनद्यश्च ५ लक्षाणि द्वात्रिंशरसह. स्राणि च सर्वपिण्डे यथोक्तं मानं । अथ पश्चिमाब्धिगामिनीनां सङ्ख्याप्रश्नार्थमाह-जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, इदं चान|न्तरसूत्रवद्वाच्य, समवायोजनायाः परस्परं निर्विशेषत्वात् , सम्प्रति सर्वसरित्सङ्कलनामाह-एवामेव सपुचावरेण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे पूर्वाधिगामिनीनामपराब्धिगामिनीनां च नदीनां संयोजने चतुर्दश लक्षाणि पटपञ्चाशत्सहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं, ननु इयं सर्वसरित्सङ्ख्या केवलपरिकरनदीनां महानदीसहितानां वा तासां?,18 8 उच्यते, महानदीसहितानामिति सम्भाव्यते, सम्भावनाबीजं तु कच्छविजयगतसिन्धुनदीवर्णनाधिकारे प्रवेशे च 'सर्व-18 सङ्ख्यया आत्मना सह चतुर्दशभिनंदीसहस्त्रैः समन्विता भवती"ति श्रीमलयगिरिकृतबृहतूक्षेत्रविचारवृत्त्यादिवचन-18
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~864~
Page #866
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [६], ----
..--------------------------- मल [१२५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
1 खण्डयोज
श्रीजम्बूद्वीपशा- या वृचिः ॥४३॥
गाथा:
मिति, श्रीरत्नशैखरसूरयस्तु स्वक्षेत्रसमासे "अडसयरि महणईभो बारस अंतरणईज सेसाओ। परिअरणईओं चउदसव को लक्खा छप्पण्णसहसा य ॥१॥"त्ति महानदीनां पृथग्गणनं चक्रुरिति तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्य, नन्वत्र प्रत्येकमष्टाविशतिसहस्रनदीपरिवारा द्वादशान्तरनद्यः सर्वनदीसङ्कलनायां कथं न गणिताः', उच्यते, इयं सर्वसरित्सङ्ख्या चतुर्दश-नादिपिण्डः लक्षादिलक्षणा श्रीरलशेखरसूरिभिः स्वोपज्ञक्षेत्रसमासवृत्ती तथा प्रतिमहानदिपरिवारमीलने स्वस्वक्षेत्रविचारसूत्रे श्रीजि-1 सू. १२५ नभद्रगणिक्षमाश्रमणादिसूत्रकारैः श्रीमलयगिर्यादिभिर्वृत्तिकारश्चान्तरनदीपरिवारासङ्ग्रहेणैवोक्ता, श्रीहरिभद्रसूरि| भिस्तु 'खण्डा जोअणे'त्यादिगाथायाः सङ्घहण्यां चतुरशीतिप्रमाणा कुरुनदीरनन्तर्भाव्य तत्स्थाने इमा एव द्वादश न-81 दीः चतुर्दशभिः२ नदीसहस्रः सह निक्षिष्य यथोक्तसङ्ख्या पृरिता, तद्यथा-"चउदससहस्सगुणिआ अडतीस णईउ विजयमग्निाला । सीआणईइ णिवटंति सीमोआएवि एमेव ॥१॥"कैश्चित्त य एव विजयगतयोगङ्गासिन्थ्योः रक्तारक्त-18 वत्योर्वा अष्टाविंशतिसहस्रनदीलक्षणः परिवारः स एवासन्नतयोपचारेणान्तरनदीनां परिवारतयोक्त इत्यतोऽवसीयते | | यदन्तरनदीपरिवारमाश्रित्य मतवैचित्र्यदर्शनादिना केनापि हेतुना प्रस्तुतसूत्रकारेणापि सर्वनदीसङ्कलनायां ता न | गणिता इति, अत्रापि तत्वं बहुश्रुतगम्यमेव, यदि चान्तरनदीपरिवारनदीसकलनापि क्रियते तदा जम्बूद्वीपे द्विनवति
॥४३१॥ सहस्राधिकाः सप्तदश लक्षा नदीनां भवन्ति, यदुक्तम्-"सुत्ते चउदसलक्खा छप्पण्णसहस्स जंबुदीवम्मि । हुंति उ । सत्तर लक्खा बाणवइसहस्स सलिलाओ॥१॥" इति, एतेषां जम्बूद्वीपप्रज्ञयुक्तार्थानां पिण्डके-मीलके विषयभूते 191
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~865~
Page #867
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२५ ]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२४६
-२४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
इयं सङ्ग्रहणी गाथा भवतीति । अथ जम्बूद्वीपव्यासस्य लक्षप्रमाणताप्रतीत्यर्थं दक्षिणोत्तराभ्यां क्षेत्रयोजनसर्वाग्रमीलनं जिज्ञासूनामुपकाराय दर्श्यते, यथा
१ भरतक्षेत्रप्रमाणं २ क्षुल्लहिमाचल पर्वतप्र० ३ हैमवत क्षेत्रप्र० २१०५ ४ वृद्ध हिमाचल पर्वतप्र०
५ हरिवर्ष क्षेत्रमा
६ निषधपर्वतप्रमाणं
५२६ योजन कला ६ १०५२ योजन कला १२ योजन कला ५ ४२१० योजन कला १० ८४२१ योजन कला १६८४२ योजन कला २
१
११ हैरण्यवतक्षेत्रप्रमाणं २१०५ योजन कला ५ १२ शिखरिपर्वतप्रमाणं १०५२ योजन कला १२ १३ ऐरवतक्षेत्रप्रमाणं ५२६ योजन कला ६ ९९९९६ योजन कला ७६ दक्षिणोत्तरतः सर्वमीलने १००००० लक्षयोजनसर्वाग्रं, अत्र दक्षिणजगतीमूलविष्कम्भो | भरतप्रमाणे उत्तरजगतीसत्कश्च ऐरावतेऽन्तर्भावनीय इति । पूर्वतः पश्चिमतश्चैवं सर्वाग्रमीलनं
औत्तराहं शीतावनमुखं २९२२ योजनविजयपोडशकं ३५४०६ योजन अन्तरनदीप ७५० योजन
७ महाविदेहक्षेत्रप्रमाणं ३३६८४ योजन कला ४ ८ नीलवत्पर्वतप्रमाणं १६८४२ योजन कला २ ९ रम्यकक्षेत्रप्रमाणं ८४२१ योजन कला १ १० रुक्मिपर्वतप्रमाणं ४२१० योजन कला १०
For P&Pase Cnly
~866~
Ry
Page #868
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२४६
-२४९]
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृत्तिः
॥४३२॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्काराष्टकं ४००० योजन मेरुमद्रशालवनं ५४००० योजन औत्तराहं शीता ( तोदा ) मुखवनं २९२२ योजन १००००० अत्र सर्वायं लक्षयोजनप्रमाणं, अत्रापि जगतीसत्कमूलविष्कम्भः स्वस्वदिग्गतमुखवनेऽन्तभवनीय इति । इति सातिशयधर्मदेशनाससमुल्लास विस्मयमानऐंदीयुगीननराधिपतिचक्रवर्त्तिसमानश्री अकबर सुर 'प्राणप्रदत्त पाण्मासिक सर्वजन्तुजाता भयदानशत्रुञ्जयादिकर मोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतियहुमानयुप्रधानोपमानम्प्रतिविजयमानश्रीमत्तपोगच्छाधिराज श्रीहीरविजयसूरीश्वर पदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकल चन्द्रगणिशिष्योपाध्याय श्री शान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बुद्वीपप्रज्ञसिवृत्तौ प्रमेयरत्नमञ्जूषानाम्न्यां जम्बूद्वीपगतपदार्थसङ्ग्रहवर्णनो नाम षष्ठो वक्षस्कारः ॥ ६ ॥
अत्र षष्ठ-वक्षस्कारः परिसमाप्तः
For P&Praise City
~867~
| ६वक्षस्कारे
खण्डयोजः नादिपिण्डसू. १२५
॥४३२॥
Page #869
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----
----------------- मूल [१२६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अथ सप्तमवक्षस्कारः॥७॥
प्रत सूत्रांक [१२६]
Ementceaeesece
गाथा
जम्बूद्वीपे च ज्योतिष्काश्चरन्तीति तदधिकारः सम्प्रतिपाद्यते, तत्र प्रस्तावनार्थमिदं चन्द्रादिसङ्ख्याप्रश्नसूत्रम्जंबुद्दी भते ! दीये कइ चंदा पभासिसु पभासंति पभासिस्संति कइ सूरिआ तवइंसु तति तविस्संति फेवइया णक्यता जोगं जोइंसु जोति जोइस्संति केवइआ महग्गहा चार चरिमु चरति चरिस्संति केवइआओ तारागणकोडाफोडीओ सोभिंसु सोभंति सोभिस्संति ?, गोभमा! दो चंदा पभासिसु ३ दो सूरिआ तवईसु ३ छप्पणं णक्वत्ता जोगं जोईसु ३ छावत्तर महमगहसयं चार परिसु ३ एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवेसहस्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीण ।।१।। ति (सूत्र१२६)
'जंबुद्दीवेण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भगवन! द्वीपे कति चन्द्राःप्रभासितवन्त:-प्रकाशनीयं वस्तु उयोतितवन्तःप्रभास-18 यन्ति-उद्योतयन्ति प्रभासयिष्यन्ति-उद्योतयिष्यन्ति, उद्योतनामकर्मोदयाचन्द्रमण्डलाना, अनुष्णप्रकाशो हि जने उद्योत इति व्यवयिते तेन तथा प्रश्नः, अनादिनिधनेयं जगत्स्थितिरिति जानतः शिष्यस्य कालत्रयनिर्देशेन प्रश्नः.. प्रष्ट व्यं तु चन्द्रादिसङ्ख्या, तथा कति सूर्यास्तापितवन्तः-आत्मव्यतिरिक्तवस्तुनि तापं जनितवन्तः, एवं तापयन्ति तापयिष्यन्ति, आतपनामकर्मोदयाद्रविमण्डलानामुष्णः प्रकाशस्ताप इति लोके व्यवहियते तेन तथा प्रश्नोक्तिः, तथा कियन्ति
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
अथ सप्तम-वक्षस्कार: आरभ्यते
...अथ चन्द्रादि संख्या-विषयक प्रश्नं आरभ्यते
~868~
Page #870
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
--...................--- मूलं [१२६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२६]
श्रीजम्बू- द्वीपशा- न्तचन्द्री- या वृत्तिः ॥४३॥
गाथा
नक्षत्राणि योग-स्वयं नियतमण्डलचारित्वेऽप्यनियतानेकमण्डलचारिभिर्निजमण्डलक्षेत्रमागतैनहैः सह सम्बन्धं युक्तव- वक्षस्कारे न्ति-प्राप्तवन्ति युञ्जन्ति-प्राप्नुवन्ति योश्यन्ति-प्राप्स्यन्ति, तथा कियन्तो महाग्रहा:-अङ्गारकादयश्चारं-मण्डलक्षेत्रपरि
संख्या: भ्रमि चरितवन्तः-अनुभूतवन्तः चरन्ति-अनुभवन्ति चरिष्यन्ति-अनुभविष्यन्ति, यद्यपि समयक्षेत्रवर्तिनां सर्वेषामपि ज्योतिष्काणां गतिश्चार इत्यभिधीयते तथाप्यन्यव्यपदेशविशेषाभावेन वक्रातिचारादिभिर्गतिविशेषगतिमत्त्वेन चैषां सामान्यगतिशब्देन प्रश्नः, तथा कियत्यस्तारागणकोटाकोव्यः शोभितवन्तः-शोभांधृतवन्त्यः शोभन्ते शोभिष्यन्ते, एषां च | चन्द्रादिसूत्रोक्तकारणाभावेन बहुलपक्षादी भास्वरत्वमात्रेण शोभमानत्वादिस्थं प्रश्नाभिलापः, अन सूत्रेऽनुक्तोऽपि वा-13 शब्दो विकल्पद्योतनार्थ प्रतिप्रश्नं बोध्या, भगवानाह-गौतम ! द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते च, जम्बूद्वीपे क्षेत्रे सूर्याक्रान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्र शेषयोर्दिशोश्चन्द्राभ्यां प्रकाश्यमानत्वात्, प्रश्नसूत्रे च प्रभासितवन्त इत्यादौ यो बहुवचनेन निर्देशः स प्रश्नरीतिर्वहुवचनेनैव भवतीति ज्ञापनार्थः, एकाद्यन्यतरनिर्णयस्य तु सिद्धान्तोत्तर-19
काले सम्भवः, एवं सूर्यसूत्रेऽपि भावनीयं, तथा द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ ३ जम्बूद्वीपक्षेत्रमिति शेषः, अस्मिन्नेव क्षेत्रे | 8| चन्द्राकान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्र शेषयोदिशोः सूर्याभ्यां ताप्यमानत्वात् , तथा षट्पञ्चाशनक्षत्राणि एकैकस्य चन्द्रस्य ॥४३३॥
प्रत्येकमष्टाविंशतिनक्षत्रपरिवारात योगं युक्तवन्तीत्यादि प्राग्वत्, तथा षट्सप्तत-षट्सप्तत्युत्तरं महाग्रहशतं एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाशीतेस्रहाणां परिवारभावात् चार चरितवदित्यादि, तथा पद्येन तारामानमाह-तारागणकोटाकोटी
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
~869~
Page #871
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१२६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२६]
गाथा
Ooopera
नामेकं लक्षं त्रयस्त्रिंशच्च सहस्राणि नव च शतानि पञ्चाशानि-पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, प्रतिचन्द्रं तारागणकोटाको-ISH दीनां षट्षष्टिसहस्रनवशताधिकपासप्ततेलभ्यमानत्वादिति । अथ प्रथमोद्दिष्टमपि चन्द्रमुपेक्ष्य बहुवक्तव्यत्वात् प्रथम सूर्यप्ररूपणामाह, तत्रेमानि पञ्चदशानुयोगद्वाराणि-मण्डलसङ्ख्या १ मण्डलक्षेत्रं २ मण्डलान्तरं ३ बिम्बायामविष्क-1, म्भादि ४ मेरुमण्डलक्षेत्रयोरबाधा ५ मण्डलायामादिवृद्धिहानी ६ मुहर्तगतिः ७ दिनरात्रिवृद्धिहानी ८ तापक्षेत्रसंस्थानादि ९ दूरासन्नादिदर्शने लोकप्रतीत्युपपत्तिः १. चारक्षेत्रेऽतीतादिप्रश्नः ११ तत्रैव क्रियाप्रश्नः १२ | ऊर्ध्वादिदिक्षु प्रकाशयोजनसङ्ख्या १३ मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योतिष्कस्वरूपं १४ इन्द्रायभावे स्थितिप्रकल्पः १५॥ तत्र || मण्डलसङ्ख्यायामादिसूत्रम्
कद णं भंते ! सूरमंडला पण्णता', गोअमा! एगे चउरासीए मंडलसए पण्णत्ते इति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइ भोगाहित्ता केवइआ सूरमंडला पण्णता ?, गोभमा ! जंबुद्दीचे २ असीअं जोअणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पण्णही सूरमंडला पण्णता, वणे णं भंते ! समुदे केवइ ओगाहित्ता केवहा सूरमंडला पण्णता ?, गोअमा! लवणे समुदे तिणि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं एगूणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे लवणे अ समुद्दे एगे चुलसीए सूरमंडलसए भवंतीतिमक्खायंति १ (सूत्र १२७) सव्वभंतराओ णं भंते! सूरमंडलाओ केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडले पं०१, गोयमा! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्यबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते २ (सूत्रं १२८) सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स य केवइयं
8890099292028छन
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
सूर्यमण्डल-आदि विषयक प्रश्नानि
~870~
Page #872
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२७
-१३०]
दीप
अनुक्रम
[२५२
-२५५]
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....
श्रीजम्बूद्वीपशा
न्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
||४३४||
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
Ecomonimation
मूलं [१२७-१३०]
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अवाहाए अंतरे पण्णन्ते ?, गोभमा ! दो जोअणाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ (सूत्रं १२९) सुरमंडले णं भंते! केवइअं आयामविसंभेणं केवइअं परिक्खेवेणं केवइअं बाइलेणं पण्णत्ते ?, गोअमा ! अडवालीसं एगसट्टिभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तंति गुणं सविसेसं परिक्खेवेणंचवीस एगसहिभाए जोअणस्स बाइलेणं पण्णत्ते इति ४ ( सूत्रं १३० )
'कइ ण' मित्यादि, कति भदन्त ! सूर्ययोर्दक्षिणोत्तरायणे कुर्वतोर्निजनिम्त्रप्रमाणचक्रवालविष्कम्भानि प्रतिदिन - भ्रमिक्षेत्र लक्षणानि मण्डलानि प्रज्ञप्तानि १, मण्डलत्वं चैषां मण्डलसदृशत्वात् न तु तात्त्विकं मण्डलप्रथमक्षणे यद् व्याप्तं क्षेत्रं तत्समश्रेण्येव यदि पुरःक्षेत्रं व्याप्नुयात् तदा तात्त्विकी मण्डलता स्यात् तथा च सति पूर्वमण्डलादुत्तरमण्डलस्य योजनद्वयमन्तरं न स्यादिति, भगवानाह - गौतम ! एकं चतुरशीतं चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं प्रज्ञप्तं यथा चैभि| श्चारक्षेत्रपूरणं तथा अनन्तरद्वारे प्ररूपयिष्यते । अथैतान्येव क्षेत्रविभागेन द्विधा विभज्योतसङ्ख्यां पुनः प्रश्नयति- 'जंबुदीवे'त्ति जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे कियत्क्षेत्रमवगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञतानि ?, गौतम । जम्बूद्वीपे २ | अशीतं अशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तथा लवणे भदन्त ! समुद्रे कियदवगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! लवणे समुद्रे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि सूत्रेऽल्पत्वाद| विवक्षितानप्यष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् अवगाह्यात्रान्तरे एकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं प्रज्ञतं, अत्र पञ्चपट्या मण्डलैरे कोनाशीत्यधिकं योजनशतं नव चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्यन्ते, जम्बूद्वीपेऽवगाहक्षेत्रं चाशीत्यधिकं योजनशतं
For P&Personal Use Only
~871~
वक्षस्कारे सूर्यमण्ड लादि स १२७-१३०
॥४३४ ॥
Page #873
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१२७-१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२७
-१३०]
तेन शेषा द्वापञ्चाशद्भागाः षट्षष्टितमस्य मण्डलस्य बोध्याः अल्पत्वाच्चात्र न विवक्षिताः, अत्र च पञ्चषष्टिमण्डलाना विषयविभागष्यवस्थायां सङ्ग्रहणीवृत्त्याद्युक्तोऽयं वृद्धसम्प्रदायः-मेरोरेकतो निषधमूर्द्धनि त्रिषष्टिमण्डलानि हरिवर्षजी|वाकोव्यां च दे द्वितीयपायें नीलवन्मूर्ध्नि त्रिषष्टिः रम्यकजीवाकोव्यां च द्वे इति, एवमेव सपूवरेण पश्चषष्टयेकोनविं शत्यधिकशतमण्डलमीलनेन जम्बूद्वीपे लवणे च समुद्रे एक चतुरशीत सूर्यमण्डल शतं भवतीत्याख्यातं मया चान्यैस्तीर्थ-13 | कृद्भिः । गतं मण्डलसवाद्वारम् , अथ मण्डलक्षेत्रद्वार, तत्र सूत्र-'सबभतराओ ण'मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरात्-प्रथमात् ।
सूर्यमण्डलात् भदन्त ! कियत्या अबाधया-कियता अन्तरेण सर्वबाह्य-सर्वेभ्यः परं यतोऽनन्तरं नैकमपीत्यर्थः सूर्यम-31 Aण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! दशोत्तराणि पञ्च योजनशतानि अबाधया-अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपया सर्ववाह्य सूर्यमण्डलं
प्रज्ञप्तम् , अत्रानुक्ता अपि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 'ससिरविणो लवणमि अ जोअण सय तिणि तीस अहिआई'-18॥ इति वचनादधिका ग्राह्याः, अन्यथोक्तसङ्ख्याङ्कानां मण्डलानामनवकाशात्, कथमेतदवसीयते १, उच्यते-सर्वसङ्ख्यया || चतुरशीत्यधिक मण्डलशतं, एकैकस्य च मण्डलस्य विष्कम्भोऽष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, ततश्चतुरशीत्यधिक शतमष्टाचत्वारिंशता गुण्यते, जातान्यष्टाशीतिः शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, एतेषां योजनानयनाथमेकषष्ट्या भागो हियते, हृते च लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकं योजनशतं १४४, शेषमवतिष्ठतेऽष्टचत्वारिंशत् , चतुरशीत्यधिकशतसङ्ख्या81 नां च मण्डलानामपान्तरालानि ज्यशीत्यधिकशतसङ्ख्यानि, सर्वत्रापि ह्यपान्तरालानि रूपोनानि भवन्ति तथा च प्रती-||
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]
JaticomiTS
~872 ~
Page #874
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१२७-१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२७
-१३०]
श्रीजम्बू-१ तमेतत् चतसृणामङ्गुलीनामपान्तरालानि त्रीणीति, एकैकं मण्डलान्तरालं च द्वियोजनाप्रमाण, ततस्त्र्यशीत्यधिक शतं वृक्षस्कारे
द्विकेन गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि पटपष्टचधिकानि ३६६, पूर्वोक्तं च चतुश्चत्वारिंशं शतमत्र प्रक्षिप्यते, ततो सूर न्तिचन्द्री
लादि मू. जातानि पश्चशतानि दशोत्तराणि योजनानि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, अनेन च मण्डलक्षेत्रस्य प्रमाणम-ISI या चिः
भिहितं, मण्डलक्षेत्रं नाम सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यपर्यवसानैव्याप्तमाकाशं, तच्चक्रवालविष्कम्भतोऽ॥४३५॥
वसेयम्। उक्तं मण्डलक्षेत्रद्वारम् , अथ मण्डलान्तरद्वारम्-'सूरमंडल' इत्यादि, भगवन् ! सूर्यमण्डलस्य सूर्यमण्डलस्य च श कियदवाधया-अव्यवधानेनान्तरं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! द्वे योजने अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् , अन्तरशब्देन च विशेषोऽप्युच्यते इति तन्निवृत्त्यर्थमबाधयेत्युक्तं, कोऽर्थः-पूर्वस्मादपरं मण्डलं कियद्दूरे इत्यर्थः, अत्र यथा योजनद्वयमुपपद्यते तथाऽनन्तरमेव मण्डलसङ्ख्याद्वारे दर्शितम् । गतं मण्डलान्तरद्वारं, अथ बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम्-'सूरम-18||
डले ण'मित्यादि, सूर्यमण्डलं णमिति प्राग्वत् भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कियद्वाहत्येन-18 18 उच्चत्वेन प्रज्ञप्तं ?, गौतम ! अष्टचत्वारिंशदागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञप्तं, अयमर्थः-एकयोजनस्पैकष-18
॥४३५॥ |ष्टिभागाः कल्प्यन्ते तद्रूपा येऽष्टचत्वारिंशद्भागास्तावत्प्रमाणावस्यायामविष्कम्भावित्यर्थः, तत्रिगुणं सविशेष-सा-18 धिकं परिक्षेपेण, अष्टचत्वारिंशत्रिगुणिता द्वे योजने द्वाविंशतिरेकषष्टिभागा अधिका योजनस्येत्यर्थः, चतुर्विंशतिरे-९
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]
~873~
Page #875
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१२७-१३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२७
-१३०]
कषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन, विमान विष्कम्भस्यार्द्धभागेनोच्चत्वात् । गतं बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम् , अथ मेरुमण्डलयोरवाधाद्वारं, तत्रादिसूत्रम्
जंबहीवे गंभंते ! दीवे मंदरस्स पवयस्स केवहआए अबाहाए सव्वम्भतरे सूरमंडले पण्णते?, गोअमा! चोआलीसं जोअणसहस्साई अट्टय पीसे जोअणसए अबाहाए सव्वअंतरे सूरमंडले पण्णत्ते, जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स केवइअवाहाए सव्वभंतराणंतरे सूरमंडले पण्णते ?, गो०! चोआलीसं जोअणसहस्साइं अह य बावीसे जोअणसए अडयालीसं च एगसहिभागे जोअणस्स अबाहाए अभंतराणतरे सूरमंडले पं०, जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे मंदररस पव्वयस्स केवइमाए अबाहाए अभंतरतो सूरमंडले पण्णते, ' गो० ! चोआलीसं जोअणसहस्साई अह य पणवीसे ओअणसए पणतीसं च एगसद्विभागे जोअणस्स अबाहाए अभंतरतचे सूरमंडले पण्णत्ते इति, एवं खलु एतेणं उबाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयणतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडलं संकममाणे २ दो दो जोअगाई अडयालीसं च एगसहिभाए जोमणस्स एगभेगे मंडले अवाहावुर्दूि अभिवढेमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइति, जंबुद्दीवे णे भंते ! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरे सूरमंडले पं०१, गोल! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिणि अतीसे जोअणसए अबाहाए सव्ववाहिरे सूरमंडले ५०, जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे मंदरस्स पम्वयस्स केवइआए अयाहाए सम्बबाहिराणंतरे सूरमंडले पण्णते ?, गोभमा ! पणयालीस जोअणसहस्साई तिण्णि अ सत्तावीसे जोअणसए तेरस य एगसहिभाए जोणस्स अबाहाए बाहिराणतरे सूरमंडले पण्णते, अंधुपरीवेणं भंते ! बीवे मंद
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]
eReseseesecceedeoRRB
~874~
Page #876
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३१]
दीप अनुक्रम [२५६]]
श्रीजम्यू
रस्स पव्ययस्स केवइयाए अवाहाए बाहिरतचे सूरमंडले पण्णत्ते ।, गो०! पणयालीसं जोमणसहस्साई तिणि अचवीसे जोद्वीपशा- अणसए छन्त्रीस च एगसद्विभाए जोअणस्स भवाहाए बाहिरतच्चे सूरमंडले पण्णत्ते, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए मेरुमण्डन्तिचन्द्री- तयाणतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोअण्णाई अडयालीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगमेगे लाबाधा या वृत्तिः मंडले अवाहावुद्धि णिबुद्धेमाणे २ सयभंतर मंडलं उक्संकमित्ता चार चरइ ५ (सूत्र १३१)
सू.१३१ ॥४३६॥ जंबुदीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या समाधया सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं
प्रज्ञप्तम्, गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं 1 सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, अत्रोपपत्तिः-मन्दरात् जम्बूद्वीपविष्कम्भः पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, इदं हि मण्डलं
जगतीतो द्वीपदिशि अशीत्यधिकयोजनशतोपसङ्कमे भवति, तेन ४५००० योजनरूपाद् द्वीपविष्कम्भादियति १८० 18 योजनरूपे शोधिते जातं यथोक्तं मानं, एतच्च चक्रवालविष्कम्भेन भवति तेनापरसूर्यसर्वाभ्यन्तरमण्डलस्याप्यनेनैव ॥
करणेनैतावत्येवाबाधा बोद्धव्या, एतेन यदन्यत्र क्षेत्रसमासटीकादो मेरुमवधीकृत्य सामान्यतो मण्डलक्षेत्राबाधापरिमा-18 णद्वारं पृथक् प्ररूपितं तदनेनैव गतार्थ, अस्यैवाभ्यन्तरतो मण्डलक्षेत्रस्य सीमाकारित्वात् , अथ प्रतिमण्डलं सूर्यस्य दूर
|॥४३६॥ दूरगमनादबाधापरिमाणमनियतमित्याह-'जंबुद्दीये ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य कियत्या | अबाधया सर्वाभ्यन्तरादनन्तरं-निरन्तरतया जायमानत्वात् द्वितीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुश्चत्वारिंश-18
~875~
Page #877
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१३१]
braeoes0908
Son20203020200090aeee
द्योजनसहस्राणि अष्ट च योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकानि अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्याबाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्त, पूर्वस्माद्यदत्राधिकं तद्विम्बविष्कम्भादन्तरमानाच समाधेयं, अथ तृतीयमण्डलं पृच्छमाह-जंबुद्दीवेण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'अभंतरं तच मिति अभ्यन्तरतृतीयं, अनेन बाह्यतृतीयमण्डलस्य व्यवच्छेदः, | उत्तरसूत्रे चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्याबाधया अभ्यन्तरतृतीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु द्वितीयमण्डलाबाधापरिमाणे ४४८२२ योजन १६ इत्येवंरूपे प्रस्तुतमण्डलसत्के सान्तरविम्बविष्कम्भे प्रक्षिप्ते जातं यथोक्तं मानम्, एवं प्रतिमण्डलमवाधावृद्धावानीयमानायां मा भूद | ग्रन्थगौरवं तेन तजिज्ञासूनां योधकमतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः एतेनोपायेन-प्रत्यहोरानमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्क्रामन-लवणाभिमुख मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरात्-विवक्षितात् पूर्वस्मात् मण्डलात् तदनन्तरं-विवक्षितमुत्तरमण्डल सङ्क्रामन् २ द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अबाधाया वृद्धिमभिवर्द्धयन् २ सर्ववाह्यमण्डलमुपक्रम्य चार चरति, पञ्चात्रातिदेशरु-18
चिरपि सूत्रकृमण्डलत्रयाभिव्यक्तिमदर्शयत् तत्प्रथम ध्रुवाइदर्शनार्थं द्वितीयं मण्डलाभिवृद्धिदर्शनार्थ तृतीयं पुनस्तद-18 18 भ्यासार्थमिति । अथ पश्चानुपूर्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलादारभ्य मेरुमण्डलयोरबाधां पृच्छन्नाह-जंबुहीवे'त्ति
जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डल प्रशवम्, गौतम | पश्चचत्वारिं-181
दीप अनुक्रम [२५६]]
~876~
Page #878
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३१]
दीप
अनुक्रम [२५६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बुद्वीपशाविचन्द्री
या वृत्तिः
॥४३७॥
शद्योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि त्रिंशदधिकानि अवाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डलं प्रज्ञतं, तत्र मन्दरात् पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि जगती ततो लवणे त्रीणि शतानि त्रिंशदधिकानि, तथा द्वितीयमण्डलपृच्छा-'जंबुद्दीवे' त्ति प्रश्नसूत्रे बाह्यानन्तरं पश्चानुपूर्व्या द्वितीयमित्यर्थः, उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथैव जगती ततस्त्रिंशदधिकत्रिशतयोजनातिक्रमे यत्सूरमण्डलमुक्तं तस्मादन्तरमाने विम्बविष्कम्भमाने च शोधिते जातं यथोकं मानमिति, अथ तृतीयं- 'जंबूदीवे'सि व्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि च शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि पविंशतिं च एकषष्टिभागान् योजनस्येति, अत्र पूर्वमण्डलाङ्कात् सान्तरमण्डलविष्कम्भयोजने २ १ शोधिते जातं यथोक्तं मानं, पूर्वमण्डलाङ्को ध्रुवाङ्कस्तत्र सविम्बविष्कम्भोऽन्तरविष्कम्भः शोध्यस्तत उपपद्यते यथोक्तं मानं, उक्ताव| शिष्टेषु मण्डलेष्वतिदेशमाह - ' एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः एतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण प्रविशन् जम्बूद्वीपमिति गम्यं, सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य एकैकस्मिन मण्डले अवाधावृद्धिं निवर्द्धयन् २ इदं समवायाङ्गवृत्त्यनुसारेणोक्तं यथा वृद्धेरभावो निवृद्धिः निशब्दस्याभावार्थत्वात् निवरा कन्येत्यादिवत् तां कुर्वन्, निवृद्धयन् २ इदं स्थानाङ्कवृत्यनुसारि, सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्यादौ तु निषेष्टयन् २ इत्युक्तमस्ति, अत्र सर्वत्रापि हापयन् २ इत्यर्थः, सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतीति गतमबाधाद्वारम् । अथ मण्डलायामादिवृद्धिहानिद्वारम्
For P&Praise Cinly
~877~
১৩৩১
७वक्षस्कारे मेरुमण्डलाबाधा सू. १३१
॥४३७॥
Page #879
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
emcccccccces
जंयुरी दीवे सबभतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खमेणं केवइ परिक्खेवण पाणते ?, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई उच पत्ताले जोअणसए आयामचिक्खंभेणं तिष्णि य जोअणसयसहस्साई पण्णरस व जोअणसहस्साई एगणणउई चोभणाई किंचिविसेसाहिआई परिक्षेवणं, अग्भंतराणतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्षण पण्णत्ते ?, गोमा? णवणउई जोअणसहस्साई छच्च पणयाले जोअणसए पणतीसं च एगसहिभाए मोअगस्स आयाम विक्खंभेणं तिणि जोमणसयसहस्साई पण्णस्स य जोअण सहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोअणसय परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अम्मतरतचे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं प०१, गो० ! गवणउई जोअणसहस्साई छश्च एकावण्णे जोअणसए णव य एगसविभाए जोअणस्स आयामविक्वंभेणं तिष्णि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसय परिक्षेवणं, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तथाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं उबसंकममाणे २ पंच २ जोभणाई पणतीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिवर्तमाणे २ अट्ठारस २ जोअणाई परिरयबुद्धि अभिवद्धेमाणे २ सम्बबाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार परइ सम्बवाहिरए ण भंते! सूरमंडले फेवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पण्णते', गो! एर्ग जोयणसयसहस्सं छच सट्टे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोअणसवसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई विणि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवणं, बाहिराणंतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पण्णत्ते', गोअमा! एगं जोअणसयसहस्सं छच चउपण्णे जोअणसए छन्वीसं च एगसद्विभागे जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई कोण्णि य सत्ताणउए जोअणसए परिक्खेवेणंति, बाहिरतथे णं भंते ! सूरमंडले केबइअं आयामविक्खंभेणं
~878~
Page #880
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१३]
sraeraeaane
दीप अनुक्रम [२५७]
श्रीजम्बू केवइ परिक्खेवेणं पर्णते ?, गो. एग जोअणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोअणसए बावणं च एगसद्विभाए जोमणस्स आ- शवक्षस्कारे द्वीपशा- यामविक्खंभेणं तिणि जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोणि अ अउणासीए जोअणसए परिक्सवेणं, एवं खलु एएणं । मण्डलान्तिचन्द्री
स्वाएणं पविसमाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे २पंच पंच जोभणाई पणतीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स यामादि या वृत्तिः एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धि णिबुद्धेमाणे २ अवारस २ जोअणाई परिरयवृद्धि णिव्वुलेमाणे २ सयभंसरं मंडळ वसंकमित्ता
म. १३२ ॥४३८॥ चार चरइ ६ (सूत्र १३२)
'जंबुद्दी' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियच्च परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं ?, गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि 8| योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च योजनसहस्राण्येकोननवतिं च योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, तत्रायाम|| विष्कभयोरुत्पत्तिरेव-जम्बूद्वीपविष्कम्भावुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमशीत्यधिकयोजनशतशोधने यथोक्तं मानं, तद्यथाजम्बूद्वीपमानं १००००० अस्मादशीत्यधिकयोजनशते १८० द्विगुणित ३६. शोधिते सति जातं ९९६४० इति, परिक्षेपस्त्वस्यैव राशेः 'विक्खम्भवग्गदहगुणे' त्यादिकरणवशादानेतव्यः, ग्रन्थविस्तरभयानानोपन्यस्यते, यदिवा यदेकतो ॥३८॥ जम्बूद्वीपविष्कम्भादशीत्यधिक योजनशतं यच्चापरतोऽपि तेषां त्रयाणां शतानां षष्टयधिकानां ३६० परिरयः एकादश शतान्यष्टत्रिंशदधिकानि ११३८, एतानि जम्बूद्वीपपरिरयात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्त परिक्षेपमानं भवति, अथ
Sea
~879~
Page #881
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
द्वितीयमण्डले तत्पृच्छा-'अभंतराण'मित्यादि, अन्वययोजना सुगमा, तात्पर्यार्थस्त्वयम्-सर्वाभ्यन्तरानन्तरं च-द्वितीयं । 18| सूर्यमण्डलमायामविष्कम्भाभ्यां नवनवति योजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पश्चत्रिंशतं ||
चैकषष्टिभागान् योजनस्य ९९६४५३१, तथाहि-एकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरानन्तरं मंण्डलं सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्ट
चत्वारिंशत्सङ्ख्यानेकषष्टिभागान् द्वे च योजने अपान्तराले विमुच्य स्थितमपरतोऽपि, ततः पञ्च योजनानि पञ्चत्रि18 शञ्चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्वमण्डलविष्कम्भादस्य मण्डलस्य विष्कम्भे वर्धन्ते, अस्य च सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलस्य
परिक्षेपस्त्रीणि शतसहस्राणि पश्चदश सहस्राण्येकं च शतं सप्तोत्तरं योजनानां ३१५१०७, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंश चैकपष्टिभागा योजनस्य वर्धन्ते, पञ्चानां च योजनानां पञ्चत्रिंशत्सवकभागाधिकानां परिरयः सप्तदश योजनानि अष्टविंशश्चैकषष्टिभागाः समधिकाः योजनस्य परं व्यवहारतो विवक्ष्यन्ते || परिपूर्णानि अष्टादश योजनानि, तानि पूर्वमण्डलपरिक्षेपे यदाधिकानि प्रक्षिप्यन्ते तदा यथोक्तं द्वितीयमण्डलपरिमाणं स्यात्। अथ तृतीयमण्डले तत्पृच्छा-'अभंतरतच्चे णमित्यादि व्यक्तं, नवरमुत्तरसूत्रे नवनवति योजनसहस्राणि पट् च |
एकपश्चाशानि योजनशतानि नव कपष्टिभागान योजनस्याभ्यन्तरतृतीयाख्यं मण्डलमायामविष्कम्भेण, अत्रोपपत्ति:1 पूर्वमण्डलायामविष्कम्भे ९९६४५ योजन। इत्येवंरूपे एतन्मण्डलवृद्धौ ५ योजन प्रक्षिप्तायां यथोक्तं मानं भव
ति, परिक्षेपेण च त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिक योजनशतं, तत्रोपपत्ति:
caetestroesen
जौलम्बू
~880~
Page #882
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], -----
----- मूलं [१३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या इतिः
[१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
श्रीजम्बू
पूर्वमण्डलपरिक्षेप ३१५१०७ योजनरूपे प्रागुक्तयुक्त्याऽऽनीते अष्टादश १८ योजनरूपायां वृद्धौ प्रक्षिप्तायां यथोक्तं मानं वक्षस्कारे द्वीपशा-1 भवति, अत्रोक्तातिरिक्तमण्डलायामादिपरिज्ञानाय लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं खलु एतेण' मित्यादि, एवमुक्तरी-18
मण्डलान्तिचन्द्री-18 त्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोक्तप्रकारेण निष्कामयन् २ सूर्यस्तदनन्तरात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ पञ्च पञ्च
यामादि
स. १३२ योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्यैकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिमभिवर्द्धयन् २ तथा उक्तरीत्यैवाष्टाद-13 ॥४३९॥ 18 श योजनानि परिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन २ सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति । अथ प्रकारान्तरेण प्रस्तुतविचारपरि
ज्ञानाय पश्चानुपूयों पृच्छन्नाह-सवबाहिरए' इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्त, उत्तरसूत्रे एक योजनलक्ष पदपष्टश्चधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां, उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लक्षं उभयोः पार्श्वयोश्च प्रत्येक त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजन
शतानि लवणान्तरमतिक्रम्य परतो वर्तमानत्वादस्य इदमेव मानं, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि त्रीणि 18 च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति किश्चिदूनानि परिक्षेपेण भवन्ति, किश्चिदूनत्वं ।
चात्र परिक्षेपकरणेन स्वयं बोध्यं, संवादश्चात्र विष्कम्भायाममाने लक्षोपरि यानि पष्ट धधिकानि पटू योजनशतान्युका-16 नि तस्य परिरयमानीय तस्य च जम्बूद्वीपपरिरये प्रक्षेपणाद् भवति । अथ द्वितीयमण्डले तत्पृच्छा-'बाहिराणंतरे 8४३९॥ भंते ! सूरमंडले' इत्यादि प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! एक योजनलक्षं पटू चतुःपञ्चाशानि योजनशतानि षड्-॥8॥ |विंशति कषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, संवदति चेदं सर्वबाह्यमण्डलविष्कम्भात् पञ्चत्रिंशदेकपष्टिभा-॥8॥
Jations
~881~
Page #883
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
गाधिकपञ्चयोजनेषु शोधितेष्विति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे च सप्तनवतियोजनशते परिक्षेपेण, 18 कथमुपपद्यते चेदिति वदामः, पूर्वमण्डलपरिरयादष्टादशयोजनशोधने सुस्थमिति । अथ तृतीयमण्डले तत्पृच्छा-'बाहि
रतचे ण'मित्यादि प्रश्नः पूर्ववत्, उत्तरसूत्रे बाह्यतृतीयं एक योजनलक्ष षट् चाटाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वाप-18 चाशतं चैकषष्टिभागान योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, युक्तिश्चात्र-अनन्तरपूर्वमण्डलात् पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकप-18 चयोजन वियोजने साधु भवति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे चैकोनाशीते योजनशते परिक्षेपेण, पूर्व-18 मण्डलपरिधेरष्टादशयोजनशोधने यथोक्तं प्रस्तुतमण्डलस्य परिधिमान, अत्रातिदेशमाह-एवं खलु एएण'मित्यादि, प्राग्वद्वाच्यं, व्याख्यातार्थत्वात् । गतमायामविष्कम्भादिवृद्धिहानिद्वारम्, अनेनैव क्रमेण द्वयोः सूर्ययोः परस्परमबा-18 धाद्वारमप्यभ्यन्तरवाह्यमण्डलादिष्ववसेयम् । सम्प्रति मुहूर्त्तगतिद्वारमू
जया णे भंते ! सूरिए सबभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइ खेतं गच्छइ ?, गो० ! पंच पञ्च जोमणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए एगूणतीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोमणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहिं जोअणसएहिं एगवीसाए अ जोअणस्स सद्विभारहिं सूरिए चक्लुप्फासं हबमागच्छत्ति, से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरसंसि सन्वन्मंतराणंतरं मंडलं नवसंकमित्ता चारं चरइत्ति, जया गं भंते | सूरिए अभंतराणंतर मंडलं उबसंकमिसा चार चरति तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइभ
अथ सूर्यादि मण्डल-विषयक मुहुर्तगति: प्रदर्श्यते
~882~
Page #884
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे 18 महत्नंगति
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू
हीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४४॥
[१३31
दीप अनुक्रम [२५८]
खोतं गच्छइ ?, गोमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए सीआलीसं च सहिभागे जोअणस्स एगमेगेणं मुहुरोणं गच्छा, तया णं इहायस्स मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणासीए जोमणसए सत्ताषण्णाए अ सद्विभाएहिं जोमणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्लुप्फासं हवमागच्छइ, से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरसि अभंतरतवं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते ! सूरिए अभंतरतचं मंडलं उवसंकमिचा चार चरह नया एगमेगेणं मुहुनेणं केवइ खेत्तं गच्छा, गोत्रमा ! पंच पंच जोमणसहस्साई दोणि अ यात्रणे जोभणसए पंच य सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया गं इहगयरस मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं छण्णउइए जोज
हिं तेत्तीसाए सट्ठिभागेहिं जोमणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहिं चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, एवं खलु एतेणं सवाएणं णिक्यममाणे सूरिए तयाणतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस २ सहिभागे जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवडेमाणे अभिवुढेमाणे चुलसीई २ सआई जोभणाई पुरिसच्छायं णिवुद्धमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ । जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं परइ तया गं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवदर्भ खेतं गच्छाइ ?, गोभमा | पंच पंच जोमणसहस्साई तिणि ब पंचुत्तरे जोमणसए पण्णरस य सद्विभाए जोमणस्स एगमेगेणं मुहुचेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगतीसाए जोअणसहस्सेहिं अट्ठहि अ हात्तीसेहिं जोअणसएहिं तीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सूरिए चक्खुष्कासं हव्वमागच्छइत्ति, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से सूरिए दोचे छम्मासे अयमाणे पढमंसि अहोरसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते! सूरिए
॥४४॥
Latin-all
~883~
Page #885
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
बाहिराणतरं मंडल उवसंकभित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं मुहचणं केवह खेतं गच्छइ ?, गोमा ! पंच पंच जोमणसहस्साई तिष्णि अ चउरुत्तरे जोअणसए सत्तावण्णं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुरेणं गच्छइ, तया णं इहगवस्स मणुसस्स एगतीसाए जोअणसहस्सेहिं णवहि अ सोलमुत्तरेहिं जोअणसपहिं इगुणालीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सद्विभागं च एगसट्विधा छेत्ता सट्टीए चुण्णिाभागेहि सूरिए चक्खुप्फास हबमागच्छ इत्ति, से पविसमाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरतचं मंडलं नवसंक मित्ता चार चरइ, जया पं भंते ! सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं पगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ ?, गोमा ! पंच पंच जोमणसहस्साई तिण्णि अ चउरुत्तरे जोअणसए इगुणालीसं च सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुटुत्तेणं गच्छद, क्या थे इहगयस्स मणुयस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए असडिभापहि जोअणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता तेवीसाए चुण्णिाभारहिं सूरिए चक्बुप्फास हव्वमागच्छइत्ति, एवं खलु एएणं ख्वाएणं पविसमाणे सूरिए तयागंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संक्रममाणे २ अट्ठारस २ सद्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले मुटुत्तगई निवड्डेमाणे २ सातिरेगाई पंचासीति २ जोषणाई पुरिसच्छायं अमिवद्धेमाणे २ सबभतरं मंडलं उबसंकमिचा चार चरइ, एस गं दोचे छम्मासे, एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस ण आइने संवच्छरे, एस णं आश्चस्स संवरहरस्स पज्जवसाणे पण्णते, (सूत्र १३३)
'जया णं भंते ! सूरिए सच्चभतरं' इत्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तर मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति इति 18 तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपश्चाशे योजनशते एकोनत्रिंशतं 18||
~884 ~
Page #886
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
श्रीजम्बू- च पष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहर्तेन गच्छति, कथमिदमुपपद्यते चेत्, उच्यते, इह सर्वमपि मण्डलमेकेनाहोरात्रेण यक्षस्कारे द्वीपशा- द्वाभ्या सूर्याभ्या परिसमाप्यते, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्रौ भवतः, द्वयोश्चाहोरात्रयोः पष्टिर्मुह
मुहूर्तगतिः न्तिचन्द्री
सू.१३३ RSस्तितो मण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भागे हते यल्लभ्यते तन्मुहुर्तगतिप्रमाणं, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयस्त्रीणि लक्षा-18 या चि:
|णि पञ्चदश सहस्राण्येकोननवत्यधिकानि योजनानां ३१५०८९, एतेषां षष्टचा भागे हते लब्धं यथोकं मुहर्तगतिप्र-18] ॥४४१| माणं ५२५१३५, अथ विनयावजितमनस्केन प्रज्ञापकेनापृच्छतोऽपि विनेयस्य किश्चिदधिकं प्रज्ञापनीयमित्याह, यत्त-13॥
| दोर्नित्याभिसम्बन्धादनुक्तमपि यच्छब्दगर्मितवाक्यमत्रावतारणीयं तेन यदा सूर्यः एकेन मुहूर्तेन इयत् ५२५१ ३० प्रमाणं गच्छति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलसङ्क्रमणकाले इहगतस्य मनुष्यस्य अत्र जातावेकवचनं ततोऽयमर्थः-इहगतानां | भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्राभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां-त्रिपष्टचधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेक-19 | विंशत्या च योजनस्य षष्टिभागेरुदयमानः सूर्यश्चक्षुःस्पर्श-चक्षुर्विषय हवं-शीघ्रमागच्छति, अब च स्पर्शशब्दो ने|न्द्रियार्थसन्निकर्षपरचक्षुषोऽमाप्यकारित्वेन तदसंभावादिति, कात्रोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते. इह दिवसस्यार्द्धन याव-||
मात्र क्षेत्र व्याप्यते सावति व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते, स एव लोके उदयमान इति व्यवहियते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले ॥४४१॥ दिवसप्रमाणमष्टादश मुहूर्तास्तेपाम नव मुहर्ताः एककस्मिंश्च मुहूर्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् पञ्च योजनसहमाणि द्वे च योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च यष्टिभागान् योजनस्य गच्छति, एतावन्मुहुर्तगतिपरिमाणं |
29000999900000000
दीप अनुक्रम [२५८]
Jaante
~885~
Page #887
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
ReseseceA
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
नवभिर्मुहूतैर्गुण्यते ततो भवति यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमिति, एवं सर्वेष्वपि मण्डलेषु स्वस्खमुहूर्तगतो IS| स्वस्वदिवसार्द्धगतमुहूर्तराशिना गुणितायां दृष्टिपथप्राप्तता भवति, दृष्टिपथप्राप्तता चक्षुःस्पर्शः पुरुषच्छाया इत्येकार्थाः, 18 सा च पूर्वतोऽपरतश्च समप्रमाणैव भवतीति द्विगुणिता तापक्षेत्रमुदयास्तान्तरमित्यादिपर्यायाः, इदं च सर्वबाह्यानन्त
रमण्डलात् पश्चानुपूर्ध्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततम, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि व्यशीत्यधिकशत-18 | तमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवसोऽयमेव च सूर्यसंवत्सरस्य पर्यन्तदिवस उत्तरायणपर्यवसानकत्वात् संवत्सरस्पेति । अथ नवसंवत्सरप्रारम्भप्रकारप्रज्ञापनाय सूत्रं प्रारभ्यते-से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथाभ्यन्तरान्मण्डलानिकामन् ।
जम्बूद्वीपान्तःप्रवेशेऽशीत्यधिकयोजनशतप्रमाणे क्षेत्रे चरमाकाशप्रदेशस्पर्शनानन्तरं द्वितीयसमये द्वितीयमण्डलाभिमुखं | 1 सर्पन्नित्यर्थः, सूर्यो नवं-आगामिकालभाविनं संवत्सरमयमानः २-आददानः प्रथमेऽहोराने सर्वाभ्यन्तरानन्तरं
मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्याद्यः संवत्सरस्यापि च दक्षिणायनादिकत्वात् संवत्सरस्थ, 1 अत्र चाधिकारे समवायाङ्गसूर्यप्रज्ञप्तिचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रादर्श प्रस्तुतसूत्रादर्शेषु च अयमाणे २ इत्यस्य स्थाने अयमीणे
इति पाठो दृश्यते तेन यदि स समूलस्तदा आर्षत्वादिहेतुना साधुरेव, अयमाणे इति तु लक्षणसिद्धः, अर्थस्तूभयत्रापि || | स एवेति, अथात्र गतिप्रश्नाय सूत्रम्-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सर्वोभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं दक्षिणायनापेक्ष-18 18 या आद्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत्क्षेत्रं गच्छति ?, गौतम ! पञ्च पश्च योजनसहस्राणि
~886~
Page #888
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- द्वे चैकपञ्चाशे योजनशते सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते वक्षस्कारे द्वीपशा- अस्मैिश्च मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरं व्यवहारतः परिपूर्ण निश्चय-18 मुहर्तगतिः
मतेन तु किञ्चिदूनं ३१५१०७, ततोस्य प्रागुकयुक्तिवशात् षष्टया भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले महर्तगतिप्रमाणं | या चिः
1५२५१४४, अथवा पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः पूर्णान्यष्टादशयोजनानि वर्धन्ते नि॥४४२॥ श्चयमतेन तु किञ्चिदूनानि, अष्टादशानां योजनानां षष्टचा भागे लब्धा अष्टादश पष्टिभागा योजनस्य ते प्राक्तनमण्ड-15
लगतमुहर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तं तत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणमिति, अत्रापि दृष्टिप-18
थप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-यदा अभ्यन्तरद्वितीये भण्डले सूर्यश्चरति तदा इहगतस्य मनुष्यस्य-जातानेकवचनमि॥ त्यत्र गतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहरेकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन, सूत्रे तृतीयार्थे सप्तमी प्राकृत-13
त्वात्, सक्षपञ्चाशता च पष्टिभागैर्योजनस्य षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा-एकपष्टिखण्डान् कृत्वा एकषष्टिधा गुणयि|स्वेत्यर्थः, तस्य सत्कैरेकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः-भागभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरानन्तरे । द्वितीये मण्डले दिवसप्रमाणं द्वाभ्यामेकपष्टिभागाभ्यां हीना अष्टादश मुहूर्तास्तेषाम. नव मुहर्ता एकेनैकषष्टिभागेन ||nen
हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणाथै नवापि मुहूर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते, तेभ्य एकषष्टिभागोऽपनीयते, ततः शेषा । जाता एकषष्टिभागाः पञ्च शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि ५४८, प्रस्तुतमण्डले मुहूर्तगतिः ५२५१ योजन ४ अर्य च
ब्धoesesepecececeaeedees
~ 887~
Page #889
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
COceaes
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
राशिः पष्टिच्छेद इति योजनराशिं षष्टया गुणयित्वा सवर्ण्यते जातं ३१५१०७, अयमेव राशिः करणविभावनायां मलयगिरीयक्षेत्रसमासवृत्तौ च परिधिराशिरिति कृत्वा दर्शितो लाघवात् भाज्यराशिलब्धस्य भाजकराशिना गुणने मूलराशेरेव लाभात्, एष राशिः पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते जाताः सप्तदश कोट्यः पविंशतिर्लक्षाः अष्ट-18
सप्ततिः सहस्राणि पट् शतानि षट्त्रिंशदधिकानि १७२६७८६५६, अयं च राशिर्भागभागात्मकत्वान्न योजनानि प्रयच्छतीति Kएकषष्टेः षष्टथा गुणिताया यावान् राशिर्भवति तेन भागो ह्रियते, इयं च गणितप्रक्रिया लाघवार्थिका, अन्यथाऽस्य
राशेरेकषष्टया भागे हते पष्टिभागा लभ्यन्ते तेषां च षष्टया भागे हृते योजनानि भवन्तीति गौरवं स्यात्, एकषष्टयां |च पध्या गुणितायां पत्रिंशच्छतानि षष्यधिकानि ३६६०, तैर्भागे हते आगतं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेको-18
नाशीत्यधिक योजनानां ४७१७९, शेष ३४९६, छेदराशेः षष्ट्याऽपवर्त्तना क्रियते जाता एकषष्टिः ६१ तया शेषरा18||शेर्भागो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशत् पष्टिभागाः, एकोनविंशतिश्चैकस्य पष्टिभागस्य सत्काः एकषष्टिभागाः। अथा-181 ४ भ्यन्तरतृतीयमण्डलस्य चार पिपृच्छिपुरायसूत्र सूत्रयति-से णिक्खममाणे सरिए दोसि' इत्यादि, अथ निष्कामन
सूर्यो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रस्तुतायनापेक्षया द्वितीयमण्डल इत्यर्थः अभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्काम्य चारं चरति तदा । एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह-गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च द्विपञ्चाशयोजनशते || पञ्चदश पष्टिभागान योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति,इदं च प्रस्तुतमण्डलपरिरयस्य षट्या भजने संवादमादत्ते, तदा च इह
~888~
Page #890
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[१३३]
SOSS
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्यू-18|गतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्त्रैः षण्णवत्या च योजनैखयस्त्रिंशता च पष्टिभागर्योजनस्य पष्टिभाग चैक स्कारे द्वीपशा-18 एकषष्टिधा छित्त्वा द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्यां सूर्यश्चक्षुःस्पर्श हवं-शीघ्रमागच्छति, तथाहि-अत्र मण्डले दिनप्रमाणम-18|| मुहर्तगतिः
सू. १३३ या चिः I8वादश मुहूर्ताश्चतुर्भिरेकषष्टिभागहीनास्तेपामढ़े च नव द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकर-18
णार्थ नवापि मुहर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते तेभ्यश्च द्वावेकपष्टिभागावपनीयेते शेषाः पश्च शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि ॥४४३॥ 8५४७, प्रस्तुतमण्डले मुहूर्त्तगतिः ५२५२३५ इत्येवंरूपां योजनराशिं षष्ट्या गुणयित्वा सवर्ण्यते जातं ३१५१२५,
अयमेव राशिरन्यैः परिधिराशित्वेन निरूपितः, अस्य च सप्तचत्वारिंशदधिकपञ्चशतैर्गुणने जाताः सप्तदश कोव्यस्त्रयोविंशतिः शतसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषां पष्टिगुणितया एकषष्ट्या ३६६० भागे हृते आगतानि सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि ४७०९६, शेषं विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तराणि २०१५, छेदराशेः षयाऽपवर्त्तनाया जाता एकषष्टिः तया शेषराशेर्भजने लब्धात्रयस्त्रिंशत् षष्टिभागाः शेषौ च । दावेकस्य पष्टिभागस्य सत्काबेकषष्टिभागी ६, इति। सम्प्रति चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-एवं खलु एतेणं उवाएण' मित्यादि, एवं मण्डलश्रयदर्शितरीत्या खलु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्तत्तद्वहिर्मण्डलाभिमुखगमनरूपेण ॥४४॥ | निष्कामन् सूर्यस्तदनन्तरामण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण सङ्कामन २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहर्तगतिमित्यत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तेन मुहूर्तगतौ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान निश्चयतः किञ्चिदू
See
~889~
Page #891
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
नान् अभिवर्द्धयमानः चतुरशीति २ योजनानि शीतानि-किश्चिन्यूनानि पुरिसच्छायमिति-पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततोऽयमर्थः-तस्या र निवर्द्धयन् २-हापयन् २, कोऽर्थः -पूर्व २ मण्डलसत्कपुरुषच्छायातो बाह्यवाह्यमण्डलपुरुषच्छाया किञ्चिन्यूनैश्चतुर| शीत्या योजनहींना इत्यर्थः, सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति, यच्चात्रोक्तं ८४ योजनानि किश्चिन्यूनानि उत्तरोत्तरमण्डलसत्कपुरुषच्छायायां हीयन्ते इति तत्स्थूलत उक्तं, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यं-व्यशीतियोजनानि योविंश-18| तिश्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधाच्छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद् भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्ततावि
ये हानौ ध्रवं, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातु|| मिष्यते तत्तन्मण्डलसङ्ख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभियावत् सर्वबाह्यमण्डले व्यशीताधिकशतेन गुणयित्वा ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते सति यद्भवति तेन हीना पूर्वमण्डलसरकदृष्टिपथप्राप्तता तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातव्या, अथ त्र्यशीतियोजनादिकस्य ।
ध्रुवराशेः कथमुपपत्तिः ?, उच्यते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणे सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिपश्य1धिक योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ४७२६३ १४, एतच्च नवमुहूर्तगम्यं तत एकस्मिन् मुहू कषष्टिभागे |
किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहूर्त्ता एकषट्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि ५४९ तैर्भागे हृते
Sceneseweresteotic
दीप अनुक्रम [२५८]
~890~
Page #892
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
श्रीजम्बू- लब्धानि षडशीतिर्योजनानि पश्च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्यैकषष्टिधाच्छिन्नस्य चतुर्विंशतिर्भागाः ८६७वक्षस्कारे द्वीपशा- इदं च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले एकस्य मुहूत्तैकषष्टिभागस्य गम्यं, अथ द्वितीयमण्डलपरिरयवृद्ध्यङ्कभजनाद्यल्लभ्यते मुहूर्तगतिः तचन्द्री मुह कषष्टिभागेन तच्छोधनार्थमुपक्रम्यते, पूर्वपूर्वमण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादशाष्टा-15 स. १२३ या वृत्तिः
ग दश योजनानि व्यवहारतः परिपूर्णानि वर्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहूर्त॥४४॥ गतिपरिमाणचिन्ताया प्रतिमुहूर्त्तमष्टादश २ षष्टिभागा योजनस्य वर्धन्ते, प्रतिमुहूर्तकषष्टिभागं चाष्टादशैकस्य षष्टि
भागस्य सत्का एकपष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीयमण्डले नवमुहरेकेन मुहकपष्टिभागेनोनर्यावत् क्षेत्र || व्याप्यते तावति स्थितः सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति ततो नव मुहूर्त्ता एकपल्या गुण्यन्ते जातान्यष्टानवतिशतानि चतु:-1 षष्टयधिकानि ९८६४, तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकपष्टचा भागो हियते लब्धमेकपष्ट यधिक शतं पष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशत् पष्टिभागस्य सरका एकपष्टिभागाः १६१४३, तत्र विंशत्यधिकेन पष्टिभागशतेन उग्धे द्वे योजने अवशेषा एक
चत्वारिंशत् षष्टिभागाः एकस्य च पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशत्य|ष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागा इत्येवरूपं प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्च || meen | षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माच्छोध्यन्ते, शोधिते च तस्मिन् स्थिता-1 ॥नि व्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३18
दीप अनुक्रम [२५८]
ececee
sasraederasasa03009999900raorse
~891~
Page #893
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
श
दीप अनुक्रम [२५८]
13 एतावच्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाद् द्वितीयमण्डलगतदृक्पथप्राप्ततापरिमाणे हीनं स्यात्,
एतच्चोत्तरोत्तरमण्डलदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानी ध्रुवं अत एव ध्रुवराशिरित्युच्यते, ततो द्वितीयस्मान्मण्डलादन|न्तरे तृतीये मण्डले एप एव ध्रुवराशिरेकस्य पष्टिभागस्य सत्कैः षट्त्रिंशता भागभागैः सहितो यावान् राशिः स्यात्, तथाहि-त्र्यशीतियोजनानि चतुर्विंशतिः षष्टिभागा योजनस्य सप्तदश च पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति तावान् द्वितीयमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरि| माणं, चतुर्थमण्डले स एव ध्रुवराशिर्वासप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थं हि मण्डलं तृतीयमण्डलापेक्षया द्वितीय, ततः पत्रिंशद् द्वाभ्यां गुणिता द्विसप्ततिः स्यात् तया सहितख्यशीत्यादिको राशिः ८३३४५३ इत्येवंस्वरूपो जाता, अयं |च तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते ततो यथावस्थितं तुर्यमण्डले दृक्पथप्राप्तिमानं, तच्चेदम् ॥ 18 सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दर्शकपष्टि|भागाः, सर्वोन्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया घशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्तिजिज्ञासा तदा पत्रिंशत् ।
वशीत्यधिकशतेन गुण्यते जातानि पश्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२ ततः पष्टिभागानयनार्धमेकषष्ट्या ॥ भागे लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां पञ्चविंशतिरवशिष्टाः एतद् प्रवराशी प्रक्षिप्यते जातं पञ्चाशीतियोजनानि एका-IN
दश षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षडेकषष्टिभागाः ८५६४६१, इह पट्त्रिंशत एवमुत्पत्तिः-पूर्वस्मात् २ || श्रीजम्यू. ७५
9000000000000000002929899
JEscomin
~892 ~
Page #894
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू-
ITA या वृत्तिः ॥४४५॥
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां २ मुहू कषष्टिभागाभ्या हीनः स्यात्, प्रतिमुहूर्त्तकषष्टिभागं चाष्टादशवक्षस्कारे एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागा हीयन्ते, ततः उभयमीलने पत्रिंशत् स्युः, ते चाष्टादश भागाः कलया न्यूना मुहूवेगातः लभ्यन्ते न परिपूर्णाः परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशीत्यधिकशततममण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागाव्यन्ति, एतदपि व्यवहारत उक्तं | परमार्थतः पुनः किञ्चिदधिकमपि त्रुट्यदवसेयम्, ततोऽमी अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पश्चाशीति-18 || योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ इति जातं सर्वबाह्य॥ मण्डलानन्तरार्वाक्तनद्वितीयमण्डलगतदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योज-18 || नानां एकोनचत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६३६ इत्येवंरूपा-1
च्छोध्यते ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाने स्वयमेव वक्ष्यति, तत एवं पुरुष-18| || च्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केषुचिन्मण्डलेषु चतुरशीतिं किञ्चिन्यूनानि उपरितनेषु मण्डलेवधिका-13
॥४४५॥ न्यधिकतराणि उक्तप्रकारेणाभिवर्द्धयन् २ तावदवसेयो यावत्सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, तत्र तु पञ्चाशीति & योजनानि साधिकानि हापयतीत्यर्थः, साधिकन्यशीतिचतुरशीतिपञ्चाशीतियोजनानां सम्भवेऽपि सूत्रे यच्चतुरशीति-| ग्रहणं तद् देहलीप्रदीपन्यायेनोभयपार्श्ववर्त्तिन्योख्यशीतिपञ्चाशीत्योहणार्थमिति । अथोक्ते एव मण्डलक्षेत्रे पश्चानु-IKI
~893~
Page #895
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
दीप
अनुक्रम
[२५८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पूर्व्या सूर्यस्य मुहूर्त्तगत्याद्याह- 'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सवबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्त्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चदश षष्टिभागान् योजनस्य ५३०५ ६ एकैकेन मुहर्त्तेन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते-अस्मिन् मण्डले परिश्यपरिमाणं तिम्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ठ्या भक्ते लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगति परिमाणमिति, अत्र दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह- 'तदा' सर्वबाह्यमण्डल चारचरणकाले इहगतस्य मनुष्यस्येति प्राम्बत् एकत्रिंशता योजन सह सैरष्टभिश्चैकत्रिंशदधिकैर्योजनशतैस्त्रिंशता च पष्टिभागैर्योजनस्य ३१८३१ ३: सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहर्त्तप्रमाणो, दिवसस्यार्जेन यावन्मात्रं क्षेत्रं व्याप्यते तावति स्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहूर्त्तानामद्धे षट्ट मुहूर्त्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं पञ्चयोजन सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य ५३०५ ६५ तत् षडिर्गुण्यते, दिवसार्द्धगुणिताया एव मुहूर्त्तगतेर्दृष्टिपथप्राष्ठताकरणत्वात्, ततो यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्राततापरिमाणं भवति, यद्यप्युपान्त्य मण्डलदृष्टिपथप्राप्तता परिमाणात् पञ्चाशीतिर्योजनानि नव पष्टि| भागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः इत्येवंराशौ शोधिते इदमुपपद्यते एतच प्राग् भावितं तथापि प्रस्तुतमण्डलस्योत्तरायणगतमण्डलानामवधिभूतत्वेनान्यमण्डलकरणनिरपेक्षतया करणान्तरमकारि, इदं च
For P&Pase City
~894~
Page #896
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
दीप
अनुक्रम
[२५८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृतिः
॥४४६ ॥
सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलात् पूर्वानुपूर्व्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततमं प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि यशीत्यधिकशततमस्तेनायं दक्षिणायनस्य चरमो दिवस इत्याद्यभिधातुमाह-'एस णं पढने छम्मासे एस णमित्यादि, एप च दक्षिणायनसत्कत्र्यशीत्यधिकशतदिनरूपो राशिः प्रथमः षण्मासः - अयनरूपः कालविशेषः, पट्सङ्ख्याङ्काः | मासाः पिण्डीभूता यत्रेति व्युत्पत्तेरिदं समाधेयं, अन्यथा प्रथमः पण्मास इत्येकवचनानुपपत्तिरिति, अथवा पाश्यादि | गणान्तः पाठात् स्त्रीत्वाभावे अदन्तद्विगुत्वेऽपि न ङीप्रत्ययस्तेनैव तत्प्रथमं षण्मासं आर्पत्वात् पुंस्त्वं, एतच्च प्रथमस्य प| मासस्य दक्षिणायनरूपस्य पर्यवसानं, अध सर्ववाह्यमण्डलचारानन्तरं सूर्यो द्वितीयं पण्मासं प्राप्नुवन् गृह्णन् इत्यर्थः प्रथमे अहोरात्रे उत्तरायणस्येति गम्यं, वाह्यानन्तरं पश्चानुपूर्व्या द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अथात्र गत्यादि| प्रश्नार्थ सूत्रमाह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यानन्तरमर्वाक्तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चर| ति तदा भगवन् ! एकैकेन मुहर्त्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि च | चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहर्त्तेन गच्छति ५३०४ ६७, तथाहि--अस्मि न् मण्डले परिश्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानां ३१८२९७ ततोऽस्य षष्टचा भागे हृते लब्धं यथोक्तमन्त्र मण्डले मुहूर्त्तगतिप्रमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह- तदा इहगतस्य मनुध्यस्येति प्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहस्रैः षोडशाधिकैः नवभिश्च योजनशतैरे कोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य
For P&Praise City
~895~
७वक्षस्कारे मुहूर्त्तगतिः
सू. १३३
॥४४६ ॥
Page #897
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
दीप
अनुक्रम
[२५८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
एकं च पष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः पष्ट्या चूर्णिकाभागैः ३१९१६ ३३ सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहिअस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहत्कषष्टिभागाभ्यामधिकः तेषां चार्चे षड् मुहूर्त्ताः एकेन मुहत्कषष्टिभागेनाभ्यधिकास्ततः सवर्णनार्थं षडपि मुहर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते तत एकः पष्टिभागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते, ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानां ३६७, ततः प्रस्तुतमण्डले यत्परिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७, इदं च योजनराशिं षष्टया गुणयित्वा सवर्णिता मुहूर्त्तगतिरिति यथा व्यवहियते तथा प्रागुक्तम्, एतदेभिस्त्रिभिः शतैः सापष्ट्याऽधिकैर्गुण्यते जाता एकादश कोट्योऽष्टपष्टिक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि नव शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४९९९, एतस्य एकषष्ट्या गुणितया षष्टया ३६६० भागो हियते लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि ३१९१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३९ न चातो योजनान्यायान्ति ततः षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते लब्धा एकोनचत्वारिंशत् पष्टिभागाः ३९ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः । अथ तृतीयं मण्डलं 'से पविसमाणे' इत्यादि, अथ प्रविशन्- जम्बूद्वीपाभिमुखं चरन् सूर्यः द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरायणसत्के इत्यर्थः बाह्यतृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, तदा किमित्याह - 'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः वाह्यतृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्त्तेन कियत क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह - गौतम ! पच पच योजनसह
For P&Praise Cly
~896~
Page #898
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- साणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य ५३०४३ एकैकेन मुहर्तेन 18 वस्कार
गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८-18 न्तिचन्द्री
सू.१३३ या वृत्तिः
२७९ अस्य च षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणं, अधात्र दृष्टिपथप्राप्तता-तदा इहगतस्य
मनुष्यस्य एकाधिकात्रिंशता सहस्रैरेकोनपञ्चाशता च पष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविं18| शत्या चूर्णिकाभागैः ३२००१४४ ३ सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहर्चप्रमाण-10 IS चतुमिहत्तैकषष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्ध षटू मुहूर्ता द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यामधिकास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थ
षडपि मुहर्ता एकपष्ट या गुण्यंते गुणयित्वा च तत्र द्वावेकपष्टिभागी प्रक्षिप्येते ततो जातानि त्रीणि शतानि अष्टषष्टयधिकानि एकपष्टिभागानां ३६८, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि
वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ एतत् त्रिभिः शतैः अष्टपष्ट वधिकैर्गुण्यते जाता एकादश कोटयः 1 एकसप्ततिः शतसहस्राणि षडिशतिः सहस्राणि षट् शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२, अस्य एकषष्टया
| गुणितया षष्टया ३६६० भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१शेष त्रीणि सहस्राणि द्वादशो-18|॥४४७॥ |त्तराणि ३०१२ तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकषष्टया भागे हृते लब्धा एकोनपश्चाशत् पष्टिभागाः एकस्य पष्टि-18 भागस्य सत्कास्त्रयोविंशतिश्चूर्णिकाभागाः ३३ इति, समवायोजे तु त्रयस्त्रिंशसमवाये 'जया णं सूरिए बाहिराणंतरतचं
~897~
Page #899
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Creace
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
| मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खुफास | हबमागच्छइत्ति एतद्वृत्तौ च इह तु यदुक्कं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्यूनास्तत्र सातिरेकयोजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षि
तेति सम्भाव्यते इति, अथात्रापि चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण खलु-निश्चि-15 र तमेतेनोपायेन-शनैः२ तत्तदनन्तराभ्यन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् तदन-18 न्तरं मण्डलं सङ्ग्रामन् २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र द्वितीया पूर्ववत् मुहूर्चगतिपरिमाणे अष्टादश २ षष्टि-18 भागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किञ्चिदूनान् निवर्द्धयन् २ हापयन्नित्यर्थः, पूर्वमण्डलात् अभ्यन्त-15 राभ्यन्तरमण्डलस्य परिरयमधिकृत्याष्टादशयोजनहीनत्वात् , पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया पूर्ववत् , ततोऽयमर्थःपुरुपच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां नवभिः षष्टिभागैः षष्टया च चूर्णिकाभागैः सातिरेकाणि-समधिकानि पश्चाशीति | योजनान्यभिवर्द्धयन् २ प्रथमद्वितीयादिषु कतिपयेषु मण्डलेषु इयं वृद्धिज्ञेया सर्वमण्डलापेक्षया तु येनैव क्रमेण || सर्वाभ्यन्तरागमण्डलासरतो दृष्टिपथप्राप्ततां हापयन्निर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्ववाह्यान्मण्डलादकतनेषु दृष्टिपथप्राप्तताम-18 भिवर्द्धयन् प्रविशति, तत्र सर्ववाह्यमण्डलादाक्तनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् सर्ववाद्ये मण्डले पञ्चाशीति योजनानि नव षष्टिभागान् योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा भित्त्वा तस्य सत्कान् पष्टिभागान् हाप-16 यति, एतच्च प्रागेव भावितं तस्मात् सर्ववाह्यादाक्तने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमा
esesea
~898~
Page #900
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- |णेऽभिवर्द्धयति तच्च ध्रुवं, ततोर्वाक्तनेषु मण्डलेषु यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्यते तृतीयमण्डलादारभ्य 18| वक्षस्कारे द्वीपशा- तत्तन्मण्डलसङ्ख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्धमण्डलचिन्तायां द्वाभ्यां एवं यावत् । मुहूर्त्तगतिः
सर्वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां दुयशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशि-18 या वृत्तिः
ना सहितं पूर्वश्मण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र मण्डले द्रष्टव्यं, यथा तृतीये मण्डले षट्त्रिंशदेकेन गुण्यते, ॥४४८॥
|'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता पत्रिंशदेव सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं-पञ्चाशीतियोजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः ८५ एतेन पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं एकत्रिंशत् सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामे कोनचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकपष्टिभागाः ३१९१६ इत्येवंरूपसहितं क्रियते कृते च तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति तच्च प्रागेव प्रदर्शितं, चतुर्थे मण्डले पत्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथमाधतापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरि|माणं भवति-द्वात्रिंशत्सहस्राणि षडशीत्यधिकानि योजनानामष्टपञ्चाशत् पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः ४४८॥ 1 एकादर्शकपष्टिभागाः ३२०८६ ५४१ एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताप-18
रिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा षट्त्रिंशद् व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य यशी
2092amoratee999900
~899~
Page #901
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
Sea808
त्यधिकशततमत्वात् , ततो जातानि पञ्चषष्टिः शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२, तेषामेकषष्टया भागे हृते लब्धं ॥ सप्तोत्तर शतं षष्टिभागानां शेषाः पञ्चविंशतिः एतत्पञ्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टि-13 भागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५६०६४ इत्येवंरूपाद् ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् व्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह षट्त्रिंशदेकषष्टिभागाः कलया 8 न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते, एतच्च प्रागेवोपदर्शितं, तच्च कलाया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशीत्यधिकशतत-8 ममण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा लभ्यन्ते ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते ततो जातमिद-18 व्यशीतियोजनानि त्रयोविंशतिःषष्टिभागाः योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ८३३१ एतेन सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिक यो|| जनानां सप्तपञ्चाशत् पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः ४७१७९३४. | इत्येवंरूपसहितं क्रियते ततो यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ठतापरिमाणं भवति, तच्च सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्टयधिके योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ४७२६३३५ एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु । मण्डलेषु सातिरेकाणि पञ्चाशीति योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीति २पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि ध्यशीति योजनानि 8 अभिवर्द्धयन २ तावद् वक्तव्यो यावत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति, इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलं सर्वबाह्या
seeeeeee
~900~
Page #902
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- नन्तरात् मण्डलात् पश्चानुपूर्व्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततम, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि त्र्यशीत्यधिक- ध्वक्षस्कारे
द्वीपशास्तिचन्द्री-18
|शततमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवस इत्यादभिधातुमाह-एस दोचे छम्मासे' इत्यादि, एष द्वितीयः पण्मासः-18 दिनरात्रि
प्रागुक्तयुक्त्या अयनविशेषो ज्ञातव्यः, एतत् द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानं त्र्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रत्वात् , एष8 या वृतिः
मानं सू. आदित्यः संवत्सरः-आदित्यचारोपलक्षितः संवत्सर इति, इत्यनेन नक्षत्रादिसंवत्सरव्युदासः, एतच्चादित्यस्य संवत्सरस्य । ॥४४९॥ पर्यवसानं चरमायनचरमदिवसत्वात् इति समाप्तं मुहर्तगतिद्वारम्, तत्सम्बद्धाच दृष्टिपथवक्तव्यताऽपि ॥ अथाष्टमं|
दिनरात्रिवृद्धिहानिद्वार निरूप्यते
जया णं भंते ! सूरिए सबभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया ण केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गोमा ! तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उनोसए अट्ठारसमुहुरो विवसे भवइ जहण्णिा दुवालसमुहत्ता राई भवर से णिक्खममाणे सूरिए णवं । संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरसि अभंतराणंतर मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार घरद तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गो०! तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि अ एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति, से णिक्खममाणे सूरिए दो
॥४४९॥ चंसि अहोरसि जाव चारं घरइ तया ण केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ, गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवद चाहिं एगहिभागगुहु सेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगसहिभागनुहुचेहि अहिमत्ति, एवं खलु एएणं उवा
200000000000090999999
अथ दिन-रात्रि वृद्धि-हानि प्ररुप्यते
~901~
Page #903
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
एणं निक्षममाणे सूरिए तगाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगविभागमुहुत्तेहिं मंडले दिवसखित्तस्स निम्बुद्धगाणे २ रवणिखिस्स अभिवद्धेमाणे २ सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइति, जया णं सूरिए सबभतराओ मंडलाओ सबबाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार चरइ तथा णं सबभतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिअसणं तिणि छावढे एगसद्विभागगुहुत्तसए दिवसखेत्तरस निम्बुद्धत्ता रयणिखेत्तस्स अमिबुद्धत्ता चार चरइत्ति, जया गं भंते ! सूरिए सव्ववाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार परइ तया गं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गोअमा! तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उफोसिआ अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुते दिवसे भवइत्ति, एस णं पढमे छम्मासे एस णे पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे । से 4बिसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तैसि वाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरा, जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ?, गो० ! अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिनागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमूहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमूहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोमंसि अहोर तसि पाहिरतवं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते | सूरिए वाहिरतचं मंडलं उपसंकमित्ता चार परद तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालियां राई भवइ, गो० ! तया णं अट्ठारसमहुत्ता राई भवइ चाहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए इति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए त. याणतराओ मंडलाओ तयाणतर मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसठिमागमुहुत्तेहिं एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे २ दिवसखेत्तरस अभिबुद्धेमाणे २ सव्वन्भतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं परत्ति, जया ण भंते ! सूरिए सम्वयाहिराओ मंडलाओ
~902~
Page #904
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४५०॥
[१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
सध्वम्भतरं मंडल उपसंकमित्ता चार चरइ तयाण सबबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसौएणं राइदिनसएणं तिणि छाब एगसट्ठिभागनुहुत्तसए रयणिवेत्तरस णिव्युद्धत्ता दिवसखे चस्स अभिववेत्ता चार चरइ, एस गं दोचे छम्मासे दिनरात्रिएस णे तुमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एसणं आइचे संवच्छरे एस णं आइनस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पाणते ८ (सूर्य १३४)
मानं स. 'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा को महान् आलयो-18 व्याप्यक्षेत्ररूपः आश्रयो यस्यासौ किमहालयः कियानित्यर्थः दिवसो भवति, किंमहाळया-कियती रात्रिर्भवति ?, भगपानाह-गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठा प्राप्त:-उत्तमावस्था प्राप्तः आदित्यसंवत्सरसत्कषट्पष्टवधिकत्रिशतदिवसमध्ये यतो॥ नापरः कश्चिदधिक इत्यर्थः अत एवोत्कर्षका उत्कृष्ट इत्यर्थः अष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति, यत्र मण्डले याव-| प्रमाणो दिवसस्तत्र तदपेक्षया अ (शेषा) होरात्रप्रमाणा रात्रिरिति जपन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिः, सर्वस्मिन् क्षेत्रे || | काले वाऽहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तसङ्ग्याकत्यस्य नैयत्यात् , ननु यदा भरतेऽष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसस्तदा विदेहेषु जघ-18
न्या द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिसहि द्वादशमुहूर्तेभ्यः परं रात्रेरतिक्रान्तत्वेन षट् मुहूर्तान यावत्केन कालेन भाव्यं ?, एवं |भरतेऽपि वाच्यम् , उच्यते, अन्न पड्रमुहुर्तगम्यक्षेत्रेऽवशिष्टे सति तत्र सूर्यस्योदयमानत्वेन दिवसेनेति, तच सूर्योदया-18 1॥४५॥
स्तान्तरविचारणेन सन्मण्डलगतदृष्टिपथप्राप्तताविचारणेन च सूपपन्नं, आह-एवं सति सूर्योदयास्तमयने अनियते आ४ पन्ने, भवतु नाम, न चैतदनार्षम् , यदुक्तम्-"जह जह समए समए पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओवि
~903~
Page #905
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
|| नियमा जायइ रयणीइ भावत्थो ॥१॥ एवं च सइ नराणं उदयत्वमशाई होतऽनिययाई । सइ देसकालभेए | कस्सइ किंची य दिस्सए नियमा ॥२॥ सइ चेव य निदिडो रुद्दमुहुत्तो कमेण सबेसि। केसिंचीदाणिपिअ विसयपमाणो रवी जेसि ॥३॥" ति [ यथा यथा समये समये पुरतः संचरति भास्करी गगने तथा तधेतोऽपि नियमात्
जायते रजनीति भावार्थः ॥१॥ एवं च सति नराणामुदयास्तमयने अनियते भवतः। सति देशकालभेदे कस्यापि 18 किंचिद्व्यवहार्यते नियमात् ॥ २ ॥ सकृदेव च निर्दिष्टो रुद्रमुहूर्तः क्रमेण सर्वेषाम् । केपाश्चिदिदानीमपि च
विषयममाणो रविर्येषां भवति ॥ ३ ॥] यत्तु सूर्यप्रज्ञप्सिवृत्तौ सूर्यमण्डलसंस्थित्यधिकारे समचतुरस्रसंस्थितिवर्णनायां युगादौ एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां एकश्चन्द्रो दक्षिणापरस्यां द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां द्वितीयः चन्द्रः | उत्तरपूर्वस्यामित्युक्त तत्तु दक्षिणादिभागेषु मूलोदयापेक्षया इति बोध्यं, अयं च सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्वसंवत्सरस्य चरमो 8|| दिवस इति वक्तुमाह-से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सरमयमानः-प्रामुवन्नाददान | इत्यर्थः, प्रथमे अहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति इति, अथ दिनरात्रिवृदयपवृत्यर्थमाह
'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा भगवन् ! कि1 महालयः-किंप्रमाणो दिवसः किंमहालया-किंप्रमाणारात्रिः, भगवानाह-गौतम! तदा अष्टादशमुहर्चप्रमाणो द्वाभ्यां
मुहकपष्टिभागाभ्यामूनो दिवसो भवति, अत्र सूत्रे प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, द्वादशमुहर्सप्रमाणा द्वाभ्यां मुहर्शक
SE0ctrence
~904 ~
Page #906
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप
अनुक्रम
[२५९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३४]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥४५१ ॥
षष्टिभागाभ्यामधिका रात्रिर्भवति, अत्रोपपत्तिर्यथा - अष्टादशमुहूर्त्ते दिवसे द्वादश ध्रुवमुहर्त्ताः षट् चरमुहूर्त्ताः ते च मण्डलानां त्र्यशीत्यधिकशतेन वर्द्धन्ते चापवर्द्धन्ते, ततोऽत्र त्रैराशिकावतारः- यदि मण्डलानां व्यशीत्यधिकशतेन षट् मुहूर्त्ताः वर्द्धन्ते चापवर्द्धन्ते तदा एकेन मण्डलेन किं वर्द्धते चापवर्द्धते ?, स्थापना यथा १८३ । ६।१ अत्रान्त्यराशिना एककलक्षणेन मध्यराशिः पटुलक्षणो गुण्यते, गुणिते च 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति षडेव स्थितास्ते चादिराशिना भज्यन्ते अल्पत्वाद् भागं न प्रयच्छन्तीति भाग्यभाजकराश्योस्त्रि केणापवर्त्तना कार्या, जात उपरितनो राशिद्विकरूपः अधस्तन एकषष्टिरूपः आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्त्तस्य अतो दिवसेऽपवर्द्धते रात्रौ च वर्द्धते इति, एवमग्रेऽपि करणभावना कार्या । अथाप्रेतनमण्डलगते दिनरात्रि वृद्धिहानी पृच्छन्नाह - ' से शिक्खममाणे' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् सूर्यो दक्षिणायनसत्के द्वितीये अहोरात्रे अत्र यावच्छब्दाद् 'अब्भंतरतचं मंडल उवसंकमित्ता' इति | ज्ञेयं, सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा किंप्रमाणो दिवसः किंप्रमाणा रात्रिर्भवति ?, | गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणो द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्यामित्येवं चतुर्भिर्मुहर्त्ते| कषष्टिभागैरुनो दिवसो भवति द्वादशमुहर्त्ता उक्तप्रकारेणैव चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरधिका रात्रिर्भवति, उक्तातिरिक्त| मण्डलेष्वतिदेशमाह-' एवं खलु एएण' मित्यादि, एवं मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलु निश्चितमेतेन - अनन्तरोकेनोपायेनप्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसत्कमुहूर्त्ते कप ष्टिभागद्वय वृद्धिहानिरूपेण निष्क्रामन्-दक्षिणाभिमुखं गच्छन् सूर्यस्तदनन्तरा
For P&False Cinly
severestse
~905~
अवक्षस्कारे दिनरात्रि
मानं सू.
१३४
॥४५१॥
Page #907
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
18 मण्डलातदनन्तरं मण्डल सङ्ग्रामन् द्वौ द्वौ मुहूर्त्तकषष्टिभागावेककस्मिन् मण्डले दिवसक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् २-हापयन २
रजनिक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्द्धयन् २, कोऽर्थः ?-मुहर्सेकषष्टिभागवयगम्यं क्षेत्रं दिवसक्षेत्रे हापयन् तावदेव रजनिक्षेत्रे 18 अभिवर्द्धयनिति सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, प्रतिमण्डलं भागद्वयहानिवृद्धी उक्ते, असर्वमण्डलेषु भागानां
हानिवृद्धिसर्वाग्रं वक्तुमाह-'जया ण' मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादित्यत्र यवलोपे पञ्चमी वक्तव्या, तेन । | सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमारभ्य सर्ववाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य 8 ततः परस्माद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः एकेन व्यशीतेन-व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवाना-अहोरात्राणां शतेन त्रीणि षट्पष्टानि-पटपष्टयधिकानि मुहूकषष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्याभिवर्ष कोऽर्थः?-पट्पष्ट यधिकत्रिशतमुहूतेकषष्टिभाग-18 र्यावन्मात्र क्षेत्रं गम्यते तावन्मानं क्षेत्रं हापयित्वा इत्यर्थः, तावदेव क्षेत्र रजनिक्षेत्रस्याभिव_ चारं चरति, अयमर्थ:दक्षिणायनसत्कव्यशीत्यधिकमण्डलेषु प्रत्येक हीयमानभागद्वयस्य व्यशील्यधिकशतगुणनेन षट्पष्टयधिकत्रिशतराशिरुपप-18 यत इति तावदेव रजनिक्षेत्रे वर्द्धते इत्यर्थः, एतदेव पश्चानुपूर्व्या पृच्छति-'जया ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्त-॥र रसूत्रे गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-प्रकृष्टावस्था प्राप्ता अत एवोत्कर्षिका-उत्कृष्टा, यतो नान्या प्रकर्षवती रात्रिरि| त्यर्थः, अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति तदा त्रिंशन्मुहूर्तसङ्ख्यापूरणाय जघन्यको द्वादशमुहर्सप्रमाणो दिवसो भवति, पर त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्य चरम इत्यादि प्रज्ञापनार्थमाह-एस ण' मित्यादि, एतच्च प्रा
Screeseatselecederaceae
~906~
Page #908
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
श्रीजम्बू- गुक्तार्थम् , अथात्र द्वितीय मण्डलं पृच्छन्नाह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्ववाद्यानन्तरं द्वितीय मण्डल- ध्यक्षस्कारे
द्वीपशा-18 मुपसङ्गम्य चार चरति तदा किंप्रमाणो दिवसो भवति, किंप्रमाणा रात्रिर्भवति ?, गौतम ! अष्टादशमुहर्ता द्वाभ्यां || दिनरात्रिन्तिचन्द्री
महकपष्टिभागाभ्यामूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूत्तों द्वाभ्यां मुहत्कषष्टिभागाभ्यामधिको दिवसो भवति, भागयोh-1|| मानसू. या वृत्तिः
१३४ ॥ नाधिकत्वकरणयुक्तिः प्राग्वत्, अथ तृतीयमण्डलप्रश्नायाह-से पविसमाणे' त्ति प्राग्वत्, प्रश्नसूत्रमपि तथैव, उत्तर॥४५२॥18 सूत्रे गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्ता द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्यां इत्येवं चतुर्भि:-चतुः-IS
IS सङ्ख्याकैर्मुहूत्र्तकषष्टिभागैरूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूर्त्तश्च तथैव चतुर्भिर्मुहू कषष्टिभागैरधिको दिवसो भवति, उक्ता॥तिरिक्तेषु मण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवं-मण्डलत्रयदर्शितरीत्या एतेनानन्तरोक्तेनोपायेन प्रतिमण्डलं दि-15
वसरात्रिसत्कमुहकपष्टिभागद्वयवृद्धिहानिरूपेण प्रविशन् जम्बूदीपे मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ द्वौ द्वौ मुहूसेकषष्टिभागौ एकैकस्मिन् मण्डले रजनिक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् २ दिवसक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्धयन २ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अत्रापि सर्वमण्डलेषु भागानां हानिवृद्धिसर्यानं निर्दिश-12
॥५२॥ माह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्ववाह्यात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा सर्वबाह्य मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य तदाक्तनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः एकेन व्यशीत्यधिकेन रानिन्दिवशतेन त्रीणि 81
~907~
Page #909
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप
अनुक्रम [२५९]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
-
मूलं (९३४)
.............................
.... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
अथ तापक्षेत्र द्वारम् प्ररुप्यते
पट्पष्टयधिकानि मुहूर्त्तेक षष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निवर्द्धा २ दिवसक्षेत्रस्य तान्येवाभिवर्द्धा २ चारं चरति एष चाहो| रात्र उत्तरायणस्य चरम इत्यादि निगमयन्नाह - 'एस ण' मित्यादि प्राग्वत् ॥ अथ नवमं तापक्षेत्रद्वारं
जया णं भंते! सूरिए सव्वन्तरं मंडळं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं किंसंठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता ?, गो! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फलं ठाणसंठिआ तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता अंतो संकुआ बाहिं वित्थडा अंतो बट्टा बाहिं बिहुला अंतो अंकमुहसंठिआ बाहिं सगद्बुद्धीमुहसंठिआ उत्तरपासे णं तीसे दो बाहाओ अवट्टिआओ हवंति पणयालीसं २ जोअणसहस्साई आयामेणं, दुबे अणं तीसे बाहाओ अणवद्विआओ हवंति, तंजा सव्वन्तरिआ चैव वाहा सम्ववाहिरिआ चेव बाहा, तीसे णं सव्वभंतरिआ बाहा मंदरपब्वयंतेणं णवजोअणसहस्साइं चत्तारि छलसीए जोअणसए जब य दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, एस णं भंते । परिक्खेबिसेसे कम आहिएति वपुब्ला ?, गोजमा ! जे णं मंदरस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दुसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेव विसेसे आहिपति वदेना, तीसे णं सव्ववाहिरिआ बादा लवणसमुद्दतेणं चउणवई जोअणसहरसाई अहसट्टे जोअण सए चत्तारि अ दसभाए जोअणरस परिक्खेवेणं, से णं भंते! परिक्खेवविसेसे कम आहिएति बएजा ?, गो० ! जेणं जंबुद्दीवरस परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसभागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिपत्ति वा इति । तया णं भंते ! तावखित्ते केवइअं आयामेण पं० १, गो० ! अट्टहन्तारं जोअणसहस्साई तिष्णि अ तेत्तीसे जोअणसए जोअणस्स विभागं च आयामेणं पण्णत्ते, मेरुरल मायारे जाब य लवणस्स रुंदछवभागो | ताबायामो एसो सगडुद्धीसंठिओ नियमा ॥ १ ॥" तया
For P&Pale Cly
~908~
Page #910
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
..............---------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]]
909
श्रीजम्यूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
॥४५३॥
गाथा
गंभंते ! किंसंठिा अंधकारसंठिई पण्णता ?, गोअमा! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिआ अंधकारसंठिई पण्णता, अंतो
(७वक्षस्कार
तापक्षेत्रं संकुभा बाहिं वित्थडा सं चेव जाव तीसे गं सम्वन्भंतरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोअणसहस्साई तिष्णि अ चपीसे जोअण
सू. १३५ सए छच दसभाए जोमणस्स परिक्खेयेणति, से णं भंते! परिक्खेवषिसेसे कओ आहिएतिवएजा, गो०! जे णं मंदरस्स पब्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविससे आहिएति वएज्जा, तीसे पं सम्पबाहिरिआ बाहा लवणसमुईतेणं तेसट्ठी जोअणसहस्साई दोणि य पणयाले जोअणसए छच्च दसभाए जोमणस परिक्खेवेणं, से ण भंते ! परिक्खेवविसेसे को आहिएतिवएज्जा, गो० ! जेणं जंबुद्दीवस्स परिक्खेये तं परिक्खेवं दोहिंगुणेत्ता जाव तं चेव तया ण भंते ! अधयारे केवइए आयामेणं पं०१, गो.! अट्ठहत्तर जोअणसहस्साई तिणि अ तेतीसे जोअणसए तिभागं च आयामेण पं० । जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडल उपसंकमिशा चार चरइ तया णं किंसंठिआ ताबक्खित्तसंठिई पं०१, गो०? उद्धीमुहकलंचुआपुष्फसंठाणसंठिआ पण्णत्ता, तं चेव सव्यं अव्वं णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुल्चवणिों पमाणं तं तावखित्तसंठिईए अव्वं, जं ताव खित्तसंठिईए पुलवणि पमाणं तं अंधयारसंठिईए अब्धति (सूत्र १३५)
'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा किंसंस्थिता-किंसंस्थाना ||४५३॥ | तापक्षेत्रस्य-सूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डस्य संस्थिति:-व्यवस्था प्रज्ञप्ता, सूर्यातपस्य किं संस्थानमितियावत्, भगवानाहगौतम! अवमुख अधोमुखत्वे तस्य वक्ष्यमाणाकारासम्भवात् यत् कलम्बुकापुष्प-नालिकापुष्पं तसंस्थानसंस्थिता
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
ecedeseseesesecscene
~909~
Page #911
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------
..............---------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, इदमेव संस्थानं विशिनष्टि-अन्तः-मेरुदिशि सङ्कुचिता बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्त: मेरुदिशि वृत्ता-अर्द्धवलयाकारा सर्वतो वृत्तमेरुगतान् त्रीन् द्वौ वा दशभागान् अभिव्याप्यास्या व्यवस्थितत्वात् , बहिः-लवणदिशि पृथुला-मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्टयति-अन्तर्मेरुदिशि अङ्क:पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धस्तस्य मुखं-अग्रभागोऽर्द्धवलयाकारस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, बहिः-लवणदिशि शकटस्योद्धिःप्रतीता तस्याः मुख-यतःप्रभृति निश्रेणिकाया फलकानि बध्यन्ते तच्चातिविस्तृतं भवति तत्संस्थाना, अन्तर्वहिर्भागी प्रतीत्य यथाक्रम सङ्कचिता विस्तृता इति भावः आदर्शान्तरे तु 'बाहिं सोथिअमुहसंठि-1
आ' पाठस्तत्र स्वस्तिकः प्रतीतस्तस्य मुखं-अग्रभागस्तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, अथास्याः 18|| आयाममाह-'उभओपासे ण' मित्यादि, उभयपार्थेन-मन्दरस्योभयोः पार्श्वयोः तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्वि-1|| 18 धाव्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन द्वे चाहे-द्वे द्वे पायें अवस्थिते-अवृद्धिहानिस्वभावे सर्वमण्डलेष्वपि नियतपरि
माणे भवतः, अयमर्थ-एका भरतस्थसूर्यकृता दक्षिणपाचे द्वितीया ऐरवतस्थसूर्यकृता उत्तरपाय इति द्विप्रकारा, सा || च पञ्चचत्वारिंशतं २ योजनसहस्राणि आयामेन, मध्यवर्त्तिनो मेरोरारभ्य द्वयोर्दक्षिणोत्तरभागयोः पश्चचत्वारिंशता यो-1|| जनसहस्रैर्व्यवहिते जम्बूद्वीपपर्यन्ते व्यवस्थितत्वात् , एवं पूर्वापरभागयोरपि, यदा तत्र सूयौं तदाऽयमायामो बोध्या, एतच्च सूत्रं जम्बूद्वीपगतायाममपेक्ष्य बोध्यं, लवणसमुद्रे तु त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि
9090020232020009009000
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
lalcinomindeo!
~910~
Page #912
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
--------------------- मूल [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
esea
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
श्रीजम्बू- एकश्च त्रिभागो योजनस्येति, एतच्च एकत्र पिण्डितं अष्टासप्ततिः सहस्राणि योजनानां त्रीणि शतानि इत्यादिकं सूत्रकृ- अक्षस्कारे द्वीपशा- दो वक्ष्यति तत्र सोपपत्तिकं निगदिष्यते तेनात्र पुनरुकभिया नोक्तं । सम्प्रत्यनवस्थितबाहास्वरूपमाह-'दुवे अण' मि-hel तापक्षेत्र न्तिचन्द्री
त्यादि, तस्याः-एकैकस्यास्तापक्षेत्रसंस्थिते द्वे च बाहे अनवस्थिते-अनियतपरिमाणे भवतः, प्रतिमण्डलं यथायोग हीय-18 या वृचिः
मानवर्द्धमानपरिमाणत्वात् , तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या चैवशन्दी प्रत्येकमनवस्थितस्वभावद्योतनाथौं, तत्र या ॥४५॥ मेरुपाचे विष्कम्भमधिकृत्य पाहा सा सर्वाभ्यन्तरा या तु लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तमधिकृत्य वाहा सा सर्वबाह्या,
आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तव्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततयेति, साम्प्रतं सर्वाभ्यन्तरापरिमाणं निर्दिशति-18 । तीसे ण'मित्यादि, तस्या-एकैकस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा थाहा मेरुगिरिसमीपे नव योजनसहस्राणि चत्वा
रि षडशीत्यधिकानि योजनशतानि नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपत्यर्थं प्रश्नमाह-एस ण'मि.
त्यादि, एषः-अनन्तरोक्तप्रमाणः परिक्षेपविशेषो-मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात् एवंप्रमाण आख्यातो नोनोs|| धिको वा इति वदेत् , भगवानाह-गौतम ! यो मन्दरस्य परिक्षेपस्तं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा-दशभिर्विभज्य
एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-दशभिर्भागे हियमाणे सति एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, अयमर्थ:-R॥४५॥ र मेरुणा प्रतिहन्यमानः सूर्यातपो मेरुपरिधि परिक्षिप्य स्थित इति मेरुसमीपेऽभ्यन्तरतापक्षेत्रविष्कम्भचिन्ता, अथैवं ॥
सति सत्रयोविंशतिषट्शताधिकैकत्रिंशत्सहस्रयोजनमानः सर्वोऽपि मेरुपरिधिरस्य तापक्षेत्रस्य विष्कम्भतामापयेत इति ।
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~911~
Page #913
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------
------------------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
चेत् , न, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो दीप्तलेश्याकरवाज्जम्बूद्वीपचक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तचक्रवालक्षेत्रा- ॥५॥ 1 नुसारेण त्रीन दशभागान् प्रकाशयति दशभागानां त्रयाणां मीलने यावत् प्रमाण क्षेत्र तावत्तापयतीत्यर्थः, ननु तहि |
मेरुपरिधेत्रिगुणीकरणं किमर्थं दशभागानां त्रिधागुणनेनैव चरितार्थत्वात् , सत्यं, विनेयानां सुखावबोधाय, भगवतीवृत्तौ तु श्रीअभयदेवसूरिपादा दशभागलब्धं त्रिगुणं चक्रुरिति, अथ दशभिर्भागे को हेतुरिति चेत्, उच्यते, जम्बू-15 द्वीपचक्रवालक्षेत्रस्य त्रयो भागा मेरुदक्षिणपार्षे त्रयस्तस्यैवोत्तरपार्श्वे द्वौ भागौ पूर्वतो द्वौ चापरतः सर्वमीलने दश, तत्र भरतगतः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चरन् श्रीन भागान दाक्षिणात्यान प्रकाशयति, तदानीं च श्रीनौत्तराहाम् ऐरवतगतः तदा द्वौ भागौ पूर्वतो रजनी द्वौ चापरतोऽपि, यथा यथा क्रमेण दाक्षिणात्य औत्तराहो वा सूर्यः सञ्चरति तथा तथा तयोः प्रत्येक तापक्षेत्रमप्रतो वर्द्धते पृष्ठतच हीयते, एवं क्रमेण सञ्चरणशीले तापक्षेत्रे यंदैकः सूर्यः पूर्वस्यां परोऽपरस्यां वर्त्तते तदा पूर्वपश्चिमदिशोः प्रत्येकं त्रीन् भागांस्तापक्षेत्रं द्वौ भागौ दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येक रजनीति, अथ गणितकर्मवि
धानं, तत्र मेरुव्यासः १०००० एषां च वर्गो दश कोट्यः १०००००००० ततो दशभिर्गुणने जातं कोटिशतं ४१००००००००० अस्य वर्गमूलानयने लब्धान्येकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ३१६२३९ 18 एष राशिखिभिर्गुण्यते जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि अष्टौ शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि ७४८६९ एषां दशभिर्भागे 18 लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य । अथ सर्वबाह्यबाहापरि
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
secene
~912~
Page #914
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------
---------------------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
सू.१३५
गाथा
श्रीजम्यू-18|माणमाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वबाह्या लवणसमुद्रस्यान्ते-समीपे चतुर्नवति योजनसह-18| वक्षस्कार द्वीपशा- KI स्राणि अष्टौ च षष्ट्यधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपादकसूत्रमाह-'से णं ||
तापक्षेत्रं भंते ! परिक्खेवे' इत्यादि, स भदन्त ! परिक्षेपविशेषोऽनन्तरोक्तो य इति गम्यं कुत आख्यात इति गौतमो वदेद्, या वृतिः
वदति भगवानाह-गौतम ! यो जम्बूद्वीपपरिक्षेपस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्चित्त्वा-दशभिविभज्य इदमेव 81 ॥४५५॥ पर्यायेणाह-दशभिर्भागे हियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यातो मयाऽन्यैश्चाप्तैरिति यदेत् स्वशिष्येभ्यः, इदमुक्तं भवति
तापक्षेत्रस्य परमविष्कम्भः प्रतिपिपादयिषितव्यः, स च जम्बूद्वीपपर्यन्त इति तत्परिधिः स्थाप्यः योजन ३१६२२७ काक्रोश ३ धनूंषि १२८ अं१३ अर्द्धालं १ एतावता च योजनमेकं किश्चिदनमिति व्यवहारतः पूर्ण विवक्ष्यते-सांश-1
राशितो निरंशराशेगणितस्य सुकरत्वात् , ततो जातं ३१६२२८, एतत् त्रिगुणं क्रियते जातानि नव लक्षाणि अष्टचत्वारिंशरसहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एषां दशभिर्भजने लब्धानि चतुर्नवतिर्योजनसहस्राणि अष्टौ शतानि अष्टपष्ट धधिकानि चत्वारश्च दशभागायोजनस्य, अनापि त्रिगुणकरणादौ युक्तिः प्राग्वत् , नम्वन्यत्र 'रविणो | उदयत्थंतरचउणवाइसहस्स पणसय छवीसा। बायाल सद्विभागा कक्कडसंकतिदिअहमि' ॥१॥ इत्युक्त, अत्रोदयास्तान्तरं ॥४५५) प्रकाशक्षेत्रं तापक्षेत्रमित्येकार्थाः तत्र भेदे कि निबन्धनमिति चेत्, उच्यते, सर्वाभ्यन्तरमण्डलवर्ती सूर्यो मन्दरदिशि जम्बूद्वीपस्य पूर्वतोऽपरतश्चाशीत्यधिकं शतं योजनानामवगाव चारं चरति तेनाशीत्यधिकशतयोजनानि द्विगुणानि ३६०
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
Reace
~913~
Page #915
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------
--------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
अस्य वर्गदशगुणवर्गमूलानयने जातानि ११३८ एतञ्च द्वीपपरिधितः ३१६२२७ रूपात् शोध्यते ततः स्थित
३१५०८९, अस्य दशभिर्भागे आगतं ३१५०८ अवशिष्टभागाः, अनयोरंशच्छेदयोः षडिर्गुणने जातं १४, अथास्य पाराशेस्त्रिगुणने सम्पद्यते यथोकराशिः, तथाहि-९४५२६६ इदं च सूक्ष्मेक्षिकया दर्शितं,न चैतत् स्वमत्युत्मेक्षितमिति
भाव्यं, श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृतसूर्यमंडलविचारेऽत्य सुविचारितत्वात् , प्रस्तुते च स्थूलनयाश्रयणेन द्वीपपर्यन्तमात्रविव-10 पक्षणेन सूत्रोक्तं प्रमाण सम्पद्यते, द्वीपोदधिपरिधेरेव सर्वत्राप्यागमे दशांशकल्पनादिश्रवणात्, अनेन परिधितः परतो
लवणोदषड्भागं यावत् प्राप्यमाणे तापक्षेत्रे तच्चकवालक्षेत्रानुसारेण तत्र विष्कम्भसम्भवात् परमविष्कम्भस्तत्र कथनीय इति निरस्त, अयमेव चतुर्नवतिसहस्रपञ्चशतादियोजनादिको राशिबहुबहुश्रुतैः प्रमाणीकृतः करणसंवादित्वात्, तथाहि-स्वस्वमण्डलपरिधिः षष्टया भक्को मुहूर्त्तगतिं प्रयच्छति, सा च दिवसार्द्धगतमुहूर्तराशिना गुणिता चक्षुःस्पर्श MS सा चोदयतः सूर्यस्याग्रतो यावानस्तमयतश्च पृष्ठतोऽपि तावानिति द्विगुणितः सन् तापक्षेत्रं भवति, एतच्च चक्षुःस्पर्शद्वारे सुव्यक्तं निरूपितमस्ति, इदं च तापक्षेत्रकरणं सर्वबाह्यमण्डलसत्कतापक्षेत्रबाह्यबाहानिरूपणे विभावयिष्यत इति नात्रोदाहियते, यदुक्तं चेत् दशभागान प्रकाशयति इति, तत्र भागः षणमुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणः, कथं ?, सर्वा-1ST भ्यन्तरे मण्डले चरति सूयें दिवसोऽष्टादशमुहूर्त्तमानः नवमुहूर्ताक्रमणीये च क्षेत्रे स्थितः सूर्यो दृश्यो भवति तत एता-1 वत्यमाणं सूर्यात् प्राक् तापक्षेत्रं तावञ्च अपरतोऽपि, इत्थं चाष्टादशमुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणमेकस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं,
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
RECE
~914~
Page #916
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
--------....------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
श्रीजम्बू- तच्च किल दशभागत्रयात्मकं ततो भवत्येकस्मिन् दशभागे षण्मुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणतेति । सम्प्रति सामस्त्येनाया- वक्षस्कारे
द्वीपशा-|| मतस्तापक्षेत्रपरिमाणं पिच्छिषुराह-'तया णमित्यादि, यदा भगवन् ! एतावांस्तापक्षेत्रपरमविष्कम्भ इति गम्यं IITH न्तिचन्द्री| तदा भगवस्तापक्षेत्र सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम ! अष्टसप्ततिं योजन
म. १३५ या वृत्तिः
| सहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि योजनस्यैकस्य त्रिभागं च यावदायामेन प्रज्ञप्त, पञ्चचत्वारिंश॥४५६॥ योजनसहस्राणि द्वीपगतानि, यखिंशयोजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि उपरि च योजन-18
त्रिभागयुक्तानि लवणगतानि, द्वयोः सङ्कलने यथोक्तं मानं, इदं च दक्षिणोत्तरत आयामपरिमाणमवस्थितं न कापि मण्डलचारे विपरिवत्तेति, एनसेवार्थ सामरत्वेन द्रढयति-'मेरुस्स मझयारे' इत्यादि, इह मेरुणा सूर्यप्रकाशः प्रतिहन्यत इत्येकेषां मतं नेत्यपरेषां, तत्राद्यानां मते इयं सम्मतिरूपा गाथा, तस्मिन् पक्षे एवं व्याख्येया-करणं कारो मध्ये कारो मध्यकारः-मध्ये करणं मेरोस्तस्मिन् सति, कोऽर्थः-चक्रवालक्षेत्रत्वात्तापक्षेत्रस्य मेरु मध्ये कृत्वा यावल्लवणस्य रुंदस्य-नि-18 देशस्य भावप्रधानत्वाद्वन्दताया:-विस्तारस्य षड्भाग:-षष्ठो भागः एतावत्प्रमाणः तापस्य-तापक्षेत्रस्यायामः, तत्र मेरोरा-18|| रभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथा लवणविस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः पष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशद्योजनानि एको योजनविभाग इति रूपः तत उभयमीलने यथोक्तप्रमाणः, MS एष च नियमात् शकटोद्धिसंस्थितः, शकटोद्धिसंस्थानोऽन्तः सङ्कुचितो बहिर्विस्तृत इति, अथ येषां मेरुणा न सूर्य
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
sceceaesedesesex
~ 915~
Page #917
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
------------------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
प्रकाशः प्रतिहन्यते इति मतं तेषामर्थान्तरसूचनायेयं गाथा तत्पक्षे चैवं व्याख्येया, मेरोमध्यभागो-मन्दरार्धे यावच्च लवणरुन्दतापडूभागः एतेन मन्दरार्द्धसत्कपञ्चयोजनसहस्राणि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जायते च व्यशीतिसहस्रयोजनानि | त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि एकश्च योजनविभागः ८३३३३३, अनेन च मन्दरगतकन्दरादीनामप्यन्तः प्रकाशः स्यादिति लभ्यते, यत्त्वस्मिन् व्याख्याने श्रीमलयगिरिपादः सूर्यप्रज्ञसिवृत्ती "युक्तं चैतत् सम्भावनया तापक्षे-18 त्रायामपरिमाणमन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पंचचत्वारिंशद्योजनसहस्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिनिष्का-8 मति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्ववाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चार,चरति तदा सर्वधा मन्दरसमीपे । प्रकाशो न प्रामोति, अथ च तदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेणाविशेष परिमाणमये वक्ष्यते, तस्मात्पादलिससूरिव्या| ख्यानमभ्युपगन्तव्यमिती"युक्तं, तत्र तत्रभवस्पादानां गम्भीरमाशयं न विद्या, बाह्यमण्डलस्थेऽपि सूर्ये इयत्ममा- | णस्य तापक्षेत्रायामस्यावस्थितत्वेन प्रतिपादनात्, उक्ता सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः, सम्प्रति प्रकाशपृष्ठल-100 नत्वेन तद्विपर्ययभूतत्वेन च सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽन्धकारसंस्थितिं पृच्छति-'तया णं भन्ते !'इत्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलचरणकाले कर्कसंक्रान्तिदिने किंसंस्थाना अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, यद्यपि प्रकाशतमसोः सहावस्थायित्व
|विरोधात् समानकालीनत्वासंभवः तथापि अवशिष्टेषु चतुर्पु जम्बूद्वीपचक्रवालदशभागेषु सम्भावनया पृच्छत आशश्रीजान, ७७॥ यानोक्तविरोधः, ननु आलोकाभावरूपस्य तमसः संस्थानासंभवेन कुतस्तत्पृच्छीचितीमंचति, उच्यते, नीलं शीतं ।
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
PEREALoC8Recenewesthetise
estate
~916~
Page #918
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------
..............---------- मूलं [१३५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
श्रीजम्बू
बहलं तम इत्यादिपुद्गलधर्माणामभ्रान्तसार्वजनीनव्यवहारसिद्धत्वेनास्य पौद्गलिकत्वे सिद्धे संस्थानस्यापि सिद्धेः, || वक्षस्कारे द्वीपशा- यथा चास्य पौगलिकत्वं तथाऽन्यत्र पूर्वाचार्यैः सुचर्चितत्वान्नात्र विस्तरभिया चर्च्यते इति, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पन्तिचन्द्रीसंस्थानसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृतेत्यादि तदेव-तापक्षेत्रसंस्थित्यधिकारोक्कमेव ॥
सू. १३५ या चिः
ग्राह्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत्तस्या:-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरिका बाहा मन्दरपर्वतान्ते षड् योजनसहस्राणि | ॥४५७॥ K त्रीणि चतुर्विशत्यधिकानि योजनशतानि षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपत्तिं सूत्रकृदेवाह-से ण'
| मिति, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे यो मेरुपरिक्षेपः स त्रयोविंशतिषट्शताधिकैकत्रिंशद्योजनसहस्रमानस्तं परिक्षेपं || द्वाभ्यां गुणयित्वा, सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थे सूर्ये तापक्षेत्रसत्कानां त्रयाणां भागानामपान्तराले रजनिक्षेत्रस्य दशभागद्य२ मानत्वात् दशभिर्विभज्य-दशभिर्भागे ह्रियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यात' इति वदेदेतद्भगवन् ! गौतमः स्वशिष्येभ्यः, तथाहि-३१६२३ एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि त्रिषष्टिसहस्राणि द्वे शते पट्रचत्वारिंशदधिके ६३२४६ | एषां दशभिर्भागे लब्धं यथोक्मानं । अथ बाहामाह--'तीसे ग'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्यबाहा पूर्व
॥४५७॥ | तोऽपरतश्च परम विष्कम्भो लवणसमुद्रान्ते त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि द्धे च पंचचत्वारिंशदधिके योजनशते पटू च दश18 भागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, अत्रोपपत्तिं सूत्रकृदेवाह-से 'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं जम्बूद्वीपपरिक्षेपः ३१६२२८
गत परिक्षेपं प्रागुक्तहेतुना द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिर्भागे हियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत्, अथास्था
989009999wasnasasa
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~917~
Page #919
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [१३५]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२६०
-२६२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३५] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अवस्थितबाहामाह--'तया ण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले अन्धकारं कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! अष्टसप्तति योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि योजनत्रिभागं चैकं, अवस्थिततापक्षेत्रसंस्थित्यायाम इवायमपि बोध्यः, तेन मन्दरार्द्धसत्कपंचसहस्रयोजनान्यधिकानि मन्तव्यानि सूर्यप्रकाशाभावयति क्षेत्रे स्वत एवान्धकारप्रसरणात् कन्दरादौ तथा प्रत्यक्षदर्शनात्, सूत्रेऽविवक्षितान्यपि व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति दर्शितानि । अथ पश्चानुपूर्व्या तापक्षेत्रसंस्थितिं पृच्छति - 'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वत्राह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंसंस्थान संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता १, गौतम ! ऊर्ध्वमुख कलम्बुका पुष्प संस्थान संस्थिता प्रज्ञप्ता, | तदेव-अभ्यन्तरमण्डलगततापक्षेत्र संस्थितिसत्कमेव सर्वमवस्थितानवस्थितवाहादिकं नेतव्यं, नवरमिदं नानात्वं विशेषः यदन्धकार संस्थितेः पूर्व- सर्वाभ्यन्तरमंडलगततापक्षेत्रसंस्थितिप्रकरणे वर्णितं ६३२४५ इत्येवंरूपं प्रमाणं तत्तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं नेतव्यं, द्वीपपरिधिदशभागसत्कभागद्वयप्रमाणत्वात्, यत्तापक्षेत्रसंस्थितेः पूर्ववर्णितम् ९४८६८४ इत्येवंरूपं प्रमाणं तदन्धकारसंस्थितेनेंतव्यं द्वीपपरिधिदश भागसत्कभागत्रयप्रमाणत्वात्, यदत्र तापक्षेत्रस्याल्पत्वं तमसश्वानस्पत्वं तत्र मंदलेश्याकत्वं हेतुरिति एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽभ्यन्तरबाहाविष्कम्भे यत्तापक्षेत्रपरिमाणं ९४८६ 4 इत्येवंरूपं तदत्रान्धकारसंस्थितेर्ज्ञेयं, यच्च तत्रैव विष्कम्भेऽन्धकारसंस्थिते: ६३२४ इत्येवं तापक्षेत्रस्यात्र मन्तव्यं, ननु इदं सर्व बाह्यमंडलसत्कतापक्षेत्रप्ररूपणं, यदि तन्मंडलपरिधौ ३१८३१५ रूपे षष्टिभते लब्धा ५३०५ रूपा मुहूर्त्त -
For Pee & Personality
~918~
Bestiesesentere
॥४॥
Page #920
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
गाथा
दीप
अनुक्रम
[२६०
-२६२]
वक्षस्कार [७],
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ........
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥४५८॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
Ja Emon int
मूलं [१३५] + गाथा
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
गतिः तदा च सर्वजघन्यो दिवसो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणोऽतो द्वादशभिः सा गुण्यते तथा च कृते ६३६६३ इत्येवंरूपो राशिः स्यात्, यदिवोक्तपरिधिर्द्विगुणितो दशभिर्भज्यते तदाप्ययमेव राशिर्द्विधाकरणरीतिलब्धस्तत्किमेतस्मात् सूत्रोकराशिविंभिद्यते ?, उच्यते, सूत्रकारेण द्वीपपरिध्यपेक्षयैव करणरीतेर्दश्यमानत्वान्नात्र दोषः, अभ्यन्तरमण्डले परिधियथा न म्यूनीक्रियते तथा वाह्यमंडले नाधिकीक्रियते तत्र विवक्षैव हेतुरिति ॥ सम्प्रति सूर्याधिकारादेतत्सम्बन्धिनं दूरासन्नादिदर्शनरूपं विचारं वक्तुं दशमं द्वारमाह-
जम्बुद्दीवे णं भन्ते | दीवे सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे अ मूले अ दोसंति मन्ांति अमुद्दत्तंसि मूले अ दूरे अदीसंति अस्थमणमुहुर्त्तसि दूरे अमूले अदीसंति ?, हंता गो० ! तं चैव जाव वीसंति, जम्बुद्दीचे णं भन्ते ! सूरिआ उग्गमणमुहतसि अ मज्झतिअमुहुर्त्तसि अ अत्थमणमुत्तसिअ सम्बत्थ समा उच्च तेगं ?, हंता तं चैव जाव उच्चतेणं, जइ णं भन्ते ! जम्बुदीये दीवे सूरिआ उग्गमणमुत्तंसि अ मं० अत्थ० सङ्घत्यसमा उच्च क्षेणं, कम्हा णं भन्ते ! जम्बुद्दी वे दीवे सूरिया उग्गमणमुडुत्तंसि दूरे अमूले अदीसंति०, गोयमा ! लेसापडिपाएणं उग्गमणमुहुशंसि दूरे अ मूले अदीसंति इति लेसाहितावेणं मज्झतिअमुहुशंसि मूले अ दूरे अदीसंति लेसापडि• घाणं अत्थमणमुहुसंसि दूरे अमूले अदीसंति, एवं खलु गोअमा ! तं चैव जान दीसंति १० (सूत्रं १३६ ) । जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिआ किं तीअं खेलं गच्छेति पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति अणागयं खेतं गच्छन्ति १, गो० ! णो तीअं खेतं गच्छन्ति पष्पणं खेत्तं गच्छन्ति णो अणागयं स्खेत्तं गच्छन्वित्ति, तं भन्ते! किं पुढं गच्छन्ति जाव नियमा छद्दिसिंति, एवं ओभासेंति, तं भन्ते !
अथ सूर्यस्य दूर-आसन्नादि दर्शनरूपं वक्तव्यता लिख्यते
For P&Praise City
~919~
७यक्षस्कारे दूरादिदर्श
नं क्षेत्रम मादि: क्रिया सू. १३६-१३८
॥४५८॥
Page #921
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम [२६३
-२६५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....
मूलं [१३६- १३८]
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
किं पुढं ओभासेंति ? एवं आहारपयाई अब्वाई पुट्टोगाढमणंतरअणुमह आदि विसयाणुपुब्बी अ जाव णिअमा छद्दिसिं, एवं उच्चतिभाति ११ (सूत्रं १३७ ) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिभ्राणं किं तीते खित्ते किरिया कहाइ पडुप्पण्णे० अणागए० १, गो! णो तीए खित्ते किरिआ कजइ पडुप्पण्णे कज्जइ णो अणागए, सा भन्ते! किं पुट्ठा कजइ० १, गोअमा ! पुट्ठा० णो अणापुडा कज्जइ जाव णित्रमा छद्दिसिं ( सूत्रं १३८ )
जम्बूद्वीपे द्वीपे भदन्त ! सूर्यौ उद्गमनमुहूर्त्ते-उदयोपलक्षिते मुहूर्त्ते एवमस्तमनमुहूर्त्ते, सूत्रे यकारलोप आर्यत्यात्, दूरे च द्रष्टृस्थानापेक्षया विप्रकृष्टे मूले च द्रष्टृमतीत्यपेक्षया आसन्ने दृश्यते, द्रष्टारो हि स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशता योज नसहस्रैः समधिकैर्व्यवहितमुद्गमनास्तमनयोः सूर्य पश्यन्ति, आसन्नं पुनर्मन्यन्ते, विप्रकृष्टं सन्तमपि न प्रतिपद्यन्ते, 'मध्यान्तिकमुहूर्त्त' इति मध्यो- मध्यमोऽन्तो-विभागो गमनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्त्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः स चासौ मुहर्त्तश्चेति मध्यान्तिको मध्याहमुहूर्त्त इत्यर्थः, तत्र मूले घासने देशे द्रष्टृस्थानापेक्षया दूरे च - वि प्रकृष्टे देशे द्रष्टृप्रतीत्यपेक्षया सूर्यौ दृश्येते द्रष्टा हि मध्याह्ने उदयास्तमयनदर्शनापेक्षया आसन्नं रविं पश्यति, योजनशताष्टकेनैव तदाऽस्य व्यवहितत्वात् मन्यते पुनरुदयास्तमयनप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितं इति, अत्र सर्वत्र काका प्र नोऽवसेयः, अत्र भगवानाह - तदेव यद्भवताऽनन्तरमेव प्रश्नविषयीकृतं तत्तथैवेत्यर्थः यावद् दृश्यते इति, अत्र चर्मदृशां जायमाना प्रतीतिर्मा ज्ञानदृशां प्रतीत्या सह विसंवदत्विति संवादाय पुनगतमः पृच्छति - 'जम्बुद्दीवे णमित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे उद्गमनमुहूर्त्ते च मध्यान्तिकमुहूर्त्ते च अस्तमयनमुहूर्त्ते च अत्र चशब्दा वाशब्दार्थाः सूर्यो
For P&Praise City
~920~
Page #922
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम
[२६३
-२६५]
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३६- १३८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री
या वृतिः
॥४५९॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
सर्वत्र उक्तकालेषु समौ उच्चत्वेन, अत्रापि काकुपाठात् प्रश्नावगतिः, भगवानाह - तदेव यद्भवता मां प्रति पृष्टं यावदुच्चत्वेनेति, सर्वत्र - उद्गमनमुहूर्त्तादिषु समौ समव्यवधानावुचवेन समभूतलापेक्षयाऽष्टौ योजनशतानीतिकृत्वा, न हि सतीं जनप्रतीतिं वयमपलपाम इति भगवदुक्तमेवानुवदन्नत्र विप्रतिपत्तिबीजं प्रष्टुमाह- 'जइ णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं स्पष्टं, उत्तरसूत्रे गौतम! लेश्यायाः - सूर्यमंडलगततेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वादुद्गमनदेशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः उद्गमनमुहूर्त्ते दूरे च मूले च दृश्यते, लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन स्वभावेन दूरस्थोऽपि सूर्य आसन्नप्रतीतिं जनयति एवमस्तमयन मुहूत्र्त्तेऽपि व्याख्येयं द्वयोः समगमकत्वात्, मध्यान्तिकमुहूर्त्ते तु लेश्याया अभितापेन- प्रतापेन सर्वतस्तेजः प्रतापेनेत्यर्थः, मूले च दूरे च दृश्येते, मध्याह्ने ह्यासन्नोऽपि सूर्यस्तीत्रतेजसा दुर्दर्शत्येन दूरमतीतिं जनयति, | एवमेवासन्नत्वेन दीसलेश्याकत्वं दिनवृद्धिधम्र्म्मादयो भावा दूरतरत्वेन मन्दलेश्याकत्वं दिनहानिशीतादयश्च वाच्याः, उद्गमनास्तमयनादीनि च ज्योतिष्काणां गतिप्रवृत्ततया जायन्ते इति तेषां गमनप्रश्नायैकादर्श द्वारमाह- 'जम्बुदीवे ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे सूर्यो किमतीतं गतिविषयीकृतं क्षेत्रं गच्छतः- अतिक्रामतः उत प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानं गतिविषयीक्रियमाणं उत अनागतं गतिविपयीकरिष्यमाणं एतेन इह च यदाकाशखण्डं सूर्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत्क्षेत्रमुच्यते तेनास्यातीतेत्यादिव्यवहारविषयत्वं नोपपद्यते अनादिनिधनत्वादिति शङ्का निरस्ता, भगवानाह — गौतम ! नोशब्दस्य निषेधार्थत्वान्नातीतं क्षेत्रं गच्छतः, अतीतक्रियाविषयीकृते वर्त्तमानक्रियाया एवासम्भवात् प्रत्युत्पन्नं गच्छतः
Ja Ecutor intematonal
For P&Praise Cinly
~921 ~
৩৩৬
अक्षस्कारे दूरादिदर्शनं क्षेत्र -
नादिः क्रि
या सु. | १३६-१२८
॥४५९॥
Page #923
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम [२६३
-२६५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....
मूलं [१३६- १३८]
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| वर्त्तमानक्रियाविषये वर्त्तमानक्रियायाः सम्भवात्, नो अनागतं अनागतक्रियाविषयेऽपि तदसम्भवात्, अत्र प्रस्तावाद् | गतिविषयं क्षेत्रं कीदृक् स्यादिति प्रष्टुमाह-- 'तं भन्ते । किं पुट्ठे' इत्यादि, अत्र यावत्पदसंग्रहोऽयं पुढं गच्छति, गोअमा ! पुई गच्छेति णो अपुढं गच्छन्ति, तं भन्ते । किं ओगाढं गच्छन्ति अणोगाढं गच्छन्ति ?, गोअमा ! ओगाढं गच्छन्ति, णो अणोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते किं अणंतरोगाढं गच्छन्ति, परंपरोगाढं गच्छन्ति ?, गोअमा ! अनंतरोगाढं गच्छन्ति णो परंपरोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते ! किं अणुं गच्छति बायरं गच्छति ?, गोअमा! अपि गच्छति वायरंपि गच्छति, तं भन्ते किं उद्धं गच्छेति अहे गच्छेति तिरियं गच्छन्ति ?, गोअमा ! उर्द्धपि गच्छन्ति तिरिअंपि गच्छन्ति अहेवि गच्छन्ति, तं भन्ते किं आई गच्छति मज्झे गच्छेति पज्जवसाणे गच्छंति ?, गोअमा ! आईपि गच्छंति मझेवि | गच्छति पजवसाणेवि गच्छति, तं भन्ते । किं सविसयं गच्छति, अविसयं गच्छति ?, गोअमा ! सविसयं गच्छति, णो अविसयं गच्छति, तं भन्ते । किं आणुपुर्वि गच्छति अणाणुपुधिं गच्छति ?, गो० ! आणुपुषिं गच्छेति णो अणापुबिं गच्छति, तं भन्ते । किं एगदिसिं गच्छति छद्दिसिं गच्छति ?, गो० ! नियमा छद्दिसिं गच्छति'त्ति, अत्र व्याख्या| तद् भदन्त ! क्षेत्रं किं स्पृष्टं - सूर्यबिम्बेन सह स्पर्शमागतं गच्छतः अतिक्रामतः उतास्पृष्टं, अत्र पृच्छकस्यायमाशयः - गम्यमानं हि क्षेत्रं किञ्चित्स्पृष्टमतिक्रम्यते यथाऽपवरकक्षेत्रं किंचिच्चास्पृष्टं यथा देहली क्षेत्रमतोऽत्र कः प्रकार इति, भगवा| नाह-स्पृष्टं गच्छतः नास्पृष्टं, अत्र सूर्यबिम्बेन सह स्पर्शनं सूर्यविम्बावगाहक्षेत्राद्वहिरपि सम्भवति स्पर्शनाया अवगाहना
For P&Permalin
~922~
Page #924
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम
[२६३
-२६५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३६- १३८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४६०॥
तोऽधिकविषयत्वात् ततः प्रश्नयति-तद्भदन्त ! स्पृष्टं क्षेत्रं अवगाढं-सूर्यविम्वेनाश्रयीकृतं अधिष्ठितमित्यर्थः उतानवगाढं तेनानाश्रयीकृतं नाधिष्ठितमित्यर्थः, भगवानाह - गौतम ! अवगाढं क्षेत्रं गच्छतः नानवगाढं, आश्रितस्यैव त्यजनयोगात्, अथ यद्भदन्त ! अवगाढं तदनन्तरावगाढं अव्यवधानेनाश्रयीकृतं उत परम्परावगाढं व्यवधानेनाश्रयीकृतं ?, | भगवानाह - गौतम! अनन्तरावगाढं न पुनः परम्परावगाढं, किमुक्तं भवति ? - यस्मिनाकाशखण्डे यो मण्डलावयवो - व्यवधानेनावगाढः स मण्डलावयवस्त मेवाकाशखण्डं गच्छति न पुनरपरमण्डलावयवावगाढं तस्य व्यवहितत्वेन परम्परावगाढत्वात् तच्चाल्पमनल्पमपि स्यादित्याह तद्भदन्त ! अणुं गच्छतः वादरं वा ?, गौतम ! अण्वपि सर्वाभ्यन्तर| मण्डल क्षेत्रापेक्षया बादरमपि सर्ववाह्यमण्डलक्षेत्रापेक्षया, तत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण गमनसम्भवात्, गमनं च ऊर्ध्वाध स्तिर्यग्गतित्रयेऽपि सम्भवेदिति प्रश्नयति-तद्भदन्त ! क्षेत्रमूर्ध्वमधस्तिर्यग्वा गच्छतः १, गौतम ! ऊर्ध्वमपि तिर्यगण्यधोऽपि, ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्त्वं च योजनैकषष्टिभागरूपचतुर्विंशतिभागप्रमाणोत्सेधापेक्षया द्रष्टव्यं, अन्यथा 'जाव नियमा छद्दिसि' इति चरमसूत्रेण सह विरोधः स्यात्, इदं च व्याख्यानं प्रज्ञापनोपाङ्गगतैकादश भाषापदाष्टाविंशतितमाहारपदगतोर्ध्वाधस्तिर्यग्विषयक निर्वचन सूत्रव्याख्यानुसारेण कृतमिति बोध्यं, गमनं च क्रिया सा च बहुसामयिकत्वात्रिका| लनिर्वर्त्तनीया स्यादित्यादिमध्यादिप्रश्नः, तद्भदन्त ! किमादौ गच्छतः किं मध्ये उत पर्यवसाने वा ?, भगवानाह - गौतम! षष्टिमुहूर्तप्रमाणस्य मण्डलसंक्रमकालस्यादावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽपि वा गच्छतः, उक्तप्रकारत्रयेण मंडल
For P&Praise Cinly
~923~
अवक्षस्कारे दूरादिदर्शनं क्षेत्रमादिः क्रि
या सू. १३६-१३८
॥४६०॥
Page #925
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम [२६३
-२६५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३६- १३८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
कालसमापनात्, अथ तद्भदन्त ! स्वविषयं स्वोचितं क्षेत्रं गच्छतः उत अविषयं वा स्वानुचितमित्यर्थः, गौतम ! | स्वविषयं स्पृष्टावगाढनिरन्तरावगाढस्वरूपं गच्छतः न अविषयं - अस्पृष्टानवगाढपरम्परावगाढक्षेत्राणां गमनायोग्यत्वात्, तद्भदन्त ! आनुपूर्व्या क्रमेण यथासन्नं गच्छतः उत अनानुपूर्व्या क्रमेणानासन्नमित्यर्थः, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे, गौतम ! आनुपूर्व्या गच्छतः नानानुपूर्व्या व्यवस्थाहानेः, प्रागुक्तमेव दिक्प्रश्नं व्यक्त्या आह-तद्भदन्त ! किमेकदिग्विषयकं क्षेत्रं गच्छतः यावत् षदिग्विषयकं ?, गौतम ! नियमात् पदिशि, तत्र पूर्वादिषु तिर्यग्दिक्षु उदितः सन् स्फुटमेव गच्छन् दृश्यते, ऊर्ध्वाधोदिग्गमनं च यथोपपद्यते तथा प्राग्दर्शितं । सम्प्रत्येतदतिदेशेनावभासनादि| सूत्राण्याह--' एवं ओभासेंति' इत्यादि, 'एव'मिति गमनसूत्रप्रकारेण अवभासयत :- ईषदुद्योतयतः, यथा स्थूरतरमेव दृश्यते, तमेव प्रकारमीषदर्शयति-तद्भदन्त ! क्षेत्रं स्पृष्टं -सूर्यस्तेजसा व्याप्तं अवभासयतः उतास्पृष्टं ?, भगवानाह -- स्पृष्टं नास्पृष्टं, दीपादिभास्वरद्रव्याणां प्रभाया गृहादिस्पर्श पूर्वक मेवावभासकत्वदर्शनात् एवं स्पृष्टपदरीत्या आहार| पदानि - चतुर्थोपाङ्गगताष्टाविंशतितमपदे आहारग्रहणविषयकानि पदानि द्वाराणि नेतव्यानि तद्यथा--'पुट्ठो' इत्यादि, प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रं, ततोऽवगाढसूत्रं ततोऽणुवादरसूत्रं तत ऊर्ध्वाधःप्रभृतिसूत्रं तत आई इति उपलक्षणमेतत् | आदिमध्यावसानसूत्रं ततो विषयसूत्रं तदनन्तरमानुपूर्वीसूत्रं ततो यावत् नियमात् षड्दिशीति सूत्रं, अत्र यथासम्भवं विपक्षसूत्राण्युपलक्षणाद् ज्ञेयानि अत्र चोर्ध्वादिदिग्भावना सूत्रकृत् स्वयमेव वक्ष्यति, एवमुद्योतयतो-भृशं
Fir P&Permalise City
~924~
Page #926
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः) वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१३६-१३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३६-१३८]
दीप अनुक्रम [२६३-२६५]
श्रीजम्यू- प्रकाशयतः यथा स्थूलमेव दृश्यते, तापयतः-अपनीतशीतं कुरुतः, यथा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते तथा कुरुतः,
तथा कुरुतः, वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रभासयतः-अतितापयोगादविशेषतोऽपनीतशीतं कुरुतो यथा सूक्ष्मतरं दृश्यते, उक्तमेवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेण 8 दूरादिदशेन्तिचन्द्री
४प्रश्नयितुं द्वादशद्वारमाह-'जम्बहीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे द्वयोः सूर्ययोः किमतीते क्षेत्रे-पूर्वोक्त-॥ न धनगया वृतिः 18 स्वरूपे क्रिया-अवभासनादिका क्रियते, कर्मकर्तरिप्रयोगोऽयं तेन भवतीत्यर्थः, प्रत्युत्पन्ने अनागते वा?, भगवानाह-8
मादिः कि॥४६१॥18 गौतम! नोऽतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते, प्रत्युत्पन्ने क्रियते, नो अनागते, व्याख्यानं प्राग्वत्, सा क्रिया भगवन् ! किं
1 या मू.
१३६-२३८ 18| स्पृष्टा क्रियते उतास्पृष्टा क्रियते ?, गौतम! स्पृष्टा तेजसा स्पर्शनं स्पृष्टं भावे क्तप्रत्ययविधानात् तद्योगाद्या सा स्पृष्टा 8| उच्यते, कोऽर्थः?-सूर्यतेजसा क्षेत्रस्पर्शनेऽवभासनमुद्योतनं तापनं प्रभासनं चेत्यादिका क्रिया स्यादिति, अथवा स्पृष्टात्स्पर्शनादिति पञ्चमीपरतया व्याख्येयं न अस्पृष्टात् क्रियते, अत्र यावत्पदात् आहारपदानि ग्राह्याणि, तत्रेयं सूत्रपद्धतिःसे णं भन्ते ! किं ओगाढा अणोगाढा?, ओगाढा णो अणोगाढा, अत्रापि भावे क्तप्रत्ययविधानादवगाढं-अवगाहनं क्षेत्रे तेजःपुद्गलानामवस्थानं तद्योगाद्या साऽवगाढा क्रिया, एममनन्तरावगाढपरम्परावगाढसूत्रं, 'सा णं भन्ते ! अणू किजइ बायरा किजइ, गोअमा! अणूवि बायरावित्ति, सा क्रिया अवभासनादिका किमणुवो बादरा वा क्रियते ?, गौतम! अणुरपि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया बादराऽपि-सर्वबाह्यमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया,
॥४६शा अधिस्तिर्यसूत्रविभावनां सूत्रकृदनन्तरमेव करिष्यति, 'सा णं भन्ते! किं आई किजइ मज्झे किजद पज्जवसाणे
cekee
~925~
Page #927
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३६
-१३८]
दीप
अनुक्रम
[२६३
-२६५]
Education i
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
वक्षस्कार [७],
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
| किइ ?, गोअमा ! आईपि किज्जा मज्झेवि किज्जइ पज्जवसाणेवि किज्जइति गमनसूत्र इवात्रापि भावना, एवं विषयसूत्रमानुपूर्वी सूत्रं षदिक्सूत्रं च ज्ञेयमिति । अथ त्रयोदशद्वारमाह
मूलं [१३६- १३८]
जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिआ केवइअं खेतं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिअं च ?, गोभमा ! एवं जोअणसयं उद्धं तवयन्ति अट्ठारससयजोअणाई आहे तवयन्ति सीआलीसं जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेवढे जोभणसए एगवीसं च सहिभाए जोअणस्स तिरिअं वयन्तिति १३ (सूत्रं १३९) । अंतो णं भन्ते ! माणुसुतरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरिअगगणणक्खसतारारूवा णं भन्ते! देवा किं उद्घोषणा कम्पोचवण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णा चारद्विईआ गइरइआ गइसमावण्णगा ?, गोअमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पश्वयस्स जे चन्दिमसूरिअ जाव तारारूवे ते णं देवा णो उद्घोवषण्णगा णो कप्पोबवण्णगा विमाणो ववण्णगा चारोaaणगाणो चारट्टिईआ गइरइआ गइसमावण्णगा उद्धीमुहकलंबुआ पुप्फसंठाणसंठिएहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावखेहि साहसिहं विहिं बाहिराहिं परिसाहिं महयाहयणट्टगी भवाइ अवंतीस लवाल डिअघण मुइंग पडुप्पवाइ अरबेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा महया किसीहणाय वोलकलकलरवेणं अच्छे पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलपारं मेरुं अणुपरिभति १४ (सूत्रं १४० ) 'जम्बुद्दीवे ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे गौतम! ऊर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः, स्वविमानस्योपरि योज| नशतप्रमाणस्यैव तापक्षेत्रस्य भावात्, अष्टादशशतयोजनान्यधस्तापयतः, कथं ?, सूर्याभ्यामष्टासु योजनशतेष्वधोगतेषु भूतलं, तस्माच्च योजनसहने अधोग्रामाः स्युस्तांश्च यावत्तापनात सप्तचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि इत्यादि प्रमाणं क्षेत्रं
For P&Personal City
~926~
oryg
Page #928
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३९
-१४०]
दीप
अनुक्रम
[२६६
-२६७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३९ - १४०]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री -
वृत्ति:
॥४६२॥
तिर्यक् तापयतः, एतच्च सर्वोत्कृष्टदिवस चक्षुः स्पर्शापेक्षया बोध्यं तिर्यगूदिकथनेन पूर्वपश्चिमयोरेवेदं ग्राह्यं, उत्तरतस्तु १८० म्यून ४५ योजनसहस्राणि याम्यतः पुनद्वीपे १८० योजनानि, लवणे तु योजनानि ३३ सहस्राणि ३ शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागयुतानीति ॥ अथ मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिज्योतिष्कस्वरूपं प्रष्टुं चतुर्दशद्वारमाह - 'अंतो णं भन्ते' इत्यादि, अन्तर्मध्ये भदन्त ! मानुषोत्तरस्य मनुष्येभ्य उत्तरः- अग्रवर्ती एनमवधीकृत्य मनुष्याणामुत्पत्तिविपत्तिसिद्धिसम्पत्तिप्रभृतिभावात् अथवा मनुष्याणामुत्तरो-विद्यादिशक्त्यभावेऽनुकंपनीयो मानुषोत्तरस्तस्य पर्वतस्य ये चन्द्र|सूर्य ग्रहगणनक्षत्रतारारूपज्योतिष्काः ते भदन्त ! अत्रैकस्मिन्नेव प्रश्ने यद्भदन्तेति भगवत्सम्बोधनं पुनञ्चक्रे तत्पृच्छ| कस्य भगवन्नामोच्चारेऽतिप्रीतिमत्त्वात् देवाः किमूर्ध्वोपपन्नाः - सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्ध्व मैवेयकानुतरविमानेषूपपन्ना:- उत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः कल्पोपपन्नाः - सौधर्मादिदेव लोकोत्पन्नाः विमानेषु ज्योतिःसम्बन्धिषु | उपपन्नाः चारो-मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना - आश्रितवन्तः उत चारस्य यथोक्तस्वरूपस्य स्थिति:- अभावो येषां ते चारस्थितिका अपगतचारा इत्यर्थः गतौ रतिः- आसक्तिः प्रीतिर्येषां ते गतिरतिकाः, अनेन गतौ रतिमात्रमुक्तं, सम्प्रति साक्षाद् गतिं प्रश्नयति गतिसमापन्ना - गतियुक्ताः १, भगवानाह - गौतम ! अन्तर्मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्र| सूर्यग्रहण नक्षत्रतारारूपज्योतिष्कास्ते देवा नोर्ध्वोपपन्नाः नो कल्पोपपन्नाः विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः नो चारस्थितिकाः अत एव गतिरतिकाः गतिसमायुक्ताः, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्प संस्थान संस्थितैरिति प्राग्वत्, योजनसाहस्रिकैः अनेकयो
For P&Pealise Cinly
~927~
वक्षस्कारे
ऊर्ध्वादि
तापः ऊ
र्वोत्पन्नत्वादि सू.
१३९-१४०
॥४६२॥
Page #929
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
sercededesee
सूत्रांक
[१३९
-१४०]
दीप अनुक्रम [२६६-२६७]
जनसहस्रप्रमाणैस्तापक्षेत्रैः, अत्रेत्थंभावे तृतीया, तेनेत्थंभूतस्तै मेरे परिवर्तन्त इति क्रियायोगः, कोऽर्थः -उक्तस्वरूपाणि तापक्षेत्राणि कुर्वन्तो जम्बूद्वीपगत मेरुं परितो भ्रमन्ति, तापक्षेत्रविशेषणं चन्द्रसूर्याणामेव, नतु नक्षत्रादीनां, | यथासम्भवं विशेषणानां नियोज्यत्वात् , अर्थतान् साधारण्येन विशेषयन्नाह साहनिकाभिः-अनेकसहनसङ्ख्याकाभिः वैकुर्विकाभिः-विकुक्तिनानारूपधारिणीभिर्बाह्याभिः-आभियोगिककर्मकारिणीभिः, नायगानवादनादिकर्म
प्रवणस्यात्, न तु तृतीयपर्षदूपाभिः, पर्पद्भिः-देवसमूहरूपाभिः कर्तृभूताभिः, बहुवचनं चात्र नाव्यादिगणापेक्षया, || महता प्रकारेणाहतानि-भृशं ताडितानि नाव्ये गीते वादिने च-वादनरूपे त्रिविधेऽपि सङ्गीते इत्यर्थः, तन्त्रीतलतालरू
पत्रुटितानि शेष प्राग्वत् , तथा स्वभावतो गतिरतिकै:-बाह्यपर्षदन्तर्गतैर्देवेगेन गच्छत्सु विमाने घूत्कृष्टो यः सिंहनादो 18| मुच्यते यो च बोलकलकली क्रियेते, तन्त्र बोलो नाम मुखे हस्तं दत्वा महता शब्देन पूरकरणं, कलकलश्च व्याकुल18| शब्दसमूहस्तद्रवेण महता २ समुद्ररयभूतमिव कुर्वाणा मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह-अच्छ-अतीवनिर्मलं जाम्बू.
नदमयत्वात् रत्नबहुलत्वाच्च पर्वतराज-पर्वतेन्द्रं 'प्रदक्षिणावर्त्तमण्डल चार मिति प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिचमता चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भयति यस्मिन्नावर्त्तने-मण्डलपरिचमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिणः आवों
| येषां मण्डलानां तानि तथा तेषु यथा चारो भवति तथा क्रियाविशेषणं तेन प्रदक्षिणावर्त्तमण्डल चारं यथा स्यात्तथा श्रीजम्यू. ७८
Notee
~928~
Page #930
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१३९-१४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
कीजम्बूद्वीपशा-18 न्तिचन्द्री
esesed
[१३९-१४०]
यावृत्ति
॥४६३॥
दीप अनुक्रम [२६६-२६७]
मेरु परिवर्तन्ते इति योज्यं, अयमर्थ:-चन्द्रादयः सर्वेऽपि समयक्षेत्रवर्त्तिनो मेरुं परितः प्रदक्षिणावर्त्तमंडल चारेण | वक्षस्कारे
सूर्येन्द्रच्यभ्रमन्तीति । अथ पञ्चदशम द्वारमाह
| वे स्थितिः तेसिणं भन्ते! देवाणं जाहे ईदे चुए भवइ से कह मियाणि पकरेंति ?, गो! ताहे चत्तारि पंच या सामाणिभा देवा तं ठाणं उब- विरहादिच संपजिचा गं विहरति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववष्णे भवइ । इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइ कालं उववाएणं विरहिए', गो०! जह- सू.१४१ पणेणं एगं समयं उकोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए । बहिआ णं भन्ते! माणुसुत्तरस्स पवयस्स जे चंदिम जाव तारारूवातं चेव अवं णाण विमाणोववष्णगा णो चारोववणगा चारठिईआ णो गइरहआ णो गइसमावण्णगा पशिगसंठाणसंठिएहिं जोअणसयसाहस्सिएहिं तावखित्तेहिं सबसाहस्सिाहिं वेउब्विआर्हि वाहिराहि परिसाहिं महयाहयणट्ट जाच भुंजमाणा सुहलेसा मन्दलेसा मन्दासक्लेसा चित्रांतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडाविव ठाणठिआ सव्यओ समन्ता ते पएसे ओभासंति उज्जोवेति पभासेन्तित्ति । तेसि णं भन्ते! देवाणं जाहे इंदे चुए से कह मियाणि पकरेन्ति जाव जहणणं एवं समयं कोसेणं छम्मासा इति १५ (सूत्रं १४१)
'तेसि ण'मित्यादि, तेषां भदन्त ! ज्योतिष्कदेवानां यदा इन्द्रश्यवते तदा ते देवा इदानी-इन्द्रविरहकाले कथं ॥४६॥ प्रकुर्वन्ति ?, भगवानाह-गौतम! तदा चत्वारः पश्च वा सामानिका देवाः संभूय एकबुद्धितया भूखेत्यर्थः तत्स्थानंइन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्ति-तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, कियन्तं कालमिति चेदत आह-यावदन्यस्तत्र इन्द्र
eneroenes
~929~
Page #931
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१४१]
दीप
अनुक्रम [२६८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १४१]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
उपपन्नः-- उत्पन्नो भवति । इदानीमिन्द्रविरहकाले प्रश्नयन्नाह - 'इंदट्ठाणे ण' मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन इन्द्रोत्पादेन विरहितं प्रज्ञसम्?, भगवानाह - गौतम ! जघन्येनैकं समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् यावत्ततः परमवश्यमन्यस्येन्द्रस्योत्पादसम्भवात् इति । सम्प्रति समयक्षेत्रवह्निर्वर्त्तिज्योतिष्काणां स्वरूपं पृच्छति 'बहिआ ण 'मित्यादि, बहिस्ताद् भगवन् ! मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रादयो देवास्ते किमूध्वोपपन्ना इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रे तु नोर्ध्वोपपन्नाः, नापि कल्पोपपन्नाः, किन्तु विमानोपपन्नाः तथा नो चारोपपन्नाः नो चारयुक्ताः, किन्तु चारस्थितिकाः, अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापन्नकाः, पक्केष्टकासंस्थान संस्थितैयोंजनशतसाहस्रिकैस्तापक्षेत्रैस्तान् प्रदेशान् अवभासयन्तीत्यादिक्रियायोगः, पक्केष्टकासंस्थानं चात्र यथा पक्केष्टका आयामतो दीर्घा भवति विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च तेषामपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्वर्त्तिनां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राणि आयामतोऽनेकयोजनलक्षप्रमाणानि विष्कम्भत एकलक्षयोजनप्रमाणानि, इयमत्र भावना - मानुषोत्तरपर्वतात् योजनलक्षार्द्धातिक्रमे करणविभावनोक्तकरणानुसारेण प्रथमा चन्द्रसूर्यपङ्किस्ततो योजनलक्षातिक्रमे द्वितीया पंक्तिस्तेन प्रथमपंक्तिगतचन्द्रसूर्याणामेतावांस्तापक्षेत्रस्यायामः विस्तारश्च, एकसूर्यादपरः सूर्यो लक्षयोजनातिक्रमे तेन लक्षयोजनप्रमाणः, | इयं च भावना प्रथमपत्यपेक्षया बोद्धव्या, एवमग्रेऽपि भाव्यं, 'सय साहस्सिएहिं ' इत्यादि प्राग्वत्, कथंभूता इत्याहसुखलेश्याः, एतच्च विशेषणं चन्द्रान् प्रति, तेन ते नातिशीततेजसः मनुष्यलोके इव शीतकालादौ न एकान्ततः शीतर
For P&Praise City
~930~
Page #932
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४१]
अक्षरकारे सूर्यन्द्रच्यवे स्थितिः | विरहादिच सू.१४१
श्रीजम्यू-18 मय इत्यर्थः, मन्दलेश्या एतच्च सूर्यान् प्रति, तेन ते नात्युष्णतेजसः मनुष्यलोके इव निदाघसमये न एकान्तत उष्ण- द्वीपशा-18| रश्मय इत्यर्थः, एतदेव व्याचष्टे-मन्दातपलेश्या-मन्दा-नात्युष्णस्वभावा आतपरूपा लेश्या-रश्मिसंघातो येषां ते तथा, न्तिचन्द्री
तथा च चित्रान्तरलेश्या:-चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य चित्रमन्तरं सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात, या वृत्तिः
18चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मिस्थात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् , काभिरवभासयन्तीत्याह-अन्योऽन्यसमवगाढाभि:॥४६॥8 परस्परं संश्लिष्टाभिर्लेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराचन्द्रसू
र्याणां च सूचीपंक्त्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पश्चाशद्योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभामिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभामिश्राश्चन्द्रप्रभाः, इत्थं चन्द्रसूर्यप्रभाणां मिश्रीभावः एषां स्थिरत्वदृष्टान्तेन द्योतयति-कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थि
तशिखराणीव स्थानस्थिता:-सदैवैकत्र स्थाने स्थिताः, सर्वतः समन्तात्, तान् प्रदेशान्-स्वस्वप्रत्यासन्नान् अवभा18 सयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्तीत्यादि प्राग्वत्। एपामपीन्द्राभावे व्यवस्था प्रश्रयन्नाद-तेसि णं भन्ते !
देवाण'मित्यादि प्राग्वत् । इति कृता पञ्चदशानुयोगद्वारैः सूर्यप्ररूपणा, अथ चन्द्रवक्तव्यमाह-तत्र सप्तानुयोगद्वा18 राणि, मण्डलसङ्ग्यामरूपणा १ मण्डलक्षेत्रप्ररूपणा २ प्रतिमण्डलमन्तरप्ररूपणा ३ मण्डलायामादिमानं ४ मन्दरम18 धिकृत्य प्रथमादिमण्डलाबाधा ५ सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलायामादि ६ मुहूर्तगतिः । तत्रादौ मण्डलसङ्घवानरूपणां पृच्छति
ececececenesecccesese
दीप अनुक्रम [२६८]
२
॥४६॥
eroenera
~931~
Page #933
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१४२-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४२-१४५]
करणं भन्ते! चंदमण्डला पं०१, गो.! पण्णरस चंदमण्डला पण्णता ! जम्बुद्दीचे णं भन्ते ! दीवे केवइ ओगाहिता केवइआ चन्दमण्डला पं०१, गो०! जम्बुद्दीवे २ असीयं जोअणसयं ओगाहिता पंच चंदमण्डला पण्णत्ता, लवणे णे भन्ते ! पुच्छा, गो०! लवणे णं समुदे तिणि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमण्डला पण्णत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं जम्बुद्दीवे दी। लवणे व समुदे पण्णरस चंदमण्डला भवन्तीतिमक्खायं १. (सूत्रं१४२)। सबभतराओ णं भन्ते ! चंदमंडलाओ णं केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पं०१, गोजमा! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पण्णते २ (सूत्र १४३) चंदमंडलस्स णं भन्ते! चंदमंडलस्स केवइआए अवाहाए अंतरे पं०१, गो.! पणतीसं २ जोअणाई तीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए चंदमंडलस्स चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ (सूत्रं १४४) चंदमंडले णं भन्ते! केवइ आयामविखंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइ बाहलेणं पण्णत्ते ?, गोभमा ! छप्पणं एगसद्धिभाए जोअणस्स आयामविक्खम्भेणं वं तिगुणं सविसेस परिक्खेवणं अट्ठावीसं च एगसहिभाए जोमणस्स पाहणं ४ (सूत्र १४५)
कति भदन्त ! चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । अथैषां मध्ये || 8 कति द्वीपे कति लवणे इति व्यक्त्यर्थ पृच्छति-जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे कियदवगाध कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञ
सानि?, गौतम ! जम्बूद्वीपे २ अशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अथ लवणसमुद्रे भदन्त ! प्रश्नः, गौतम! लवणसमुद्रे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्रान्तरे दश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि,
दीप अनुक्रम [२६९-२७२]
~932 ~
Page #934
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१४२-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४२-१४५]
दीप
श्रीजम्बू- एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि भवन्तीति आख्यातमिति । अथ मण्डलक्षेत्रप्र- ७वक्षस्कारे
द्वषिशा- न्तिचन्द्रीरूपणां प्रश्नयन्नाह-'सबभंतराओ ण'मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरादू भदन्त! चन्द्रमण्डलात् कियत्या अबाधया सर्ववाहा । चन्द्रस्य
मण्डले क्षेत्रचन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं ?, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यान्तैर्यव्याप्तमाकाशं तन्मण्डलक्षेत्र, तत्र च चक्रवालतया विष्कम्भः पञ्च योजनशतानि दशोत्तराणि अष्टचत्वारिंशञ्चैकपष्टिभागा योजनस्य ५१०४६ इदं
| मवाधा ॥४६५॥ च व्याख्यातोऽधिकं बोध्यं, तथाहि-चन्द्रस्य मण्डलानि पञ्चदश चन्द्रबिम्बस्य च विष्कम्भः एकषष्टिभागात्मक-२२-२४५
IS योजनस्य षट्पश्चाशद्भागाः तेन ते ५६ पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते जातं ८४० तत एतेषां योजनानयनार्थ एकषष्ट्या भागे IS हृते लब्धानि त्रयोदश योजनानि शेपाः सप्तचत्वारिंशत् , तथा पञ्चदशानां मण्डलानामन्तराणि चतुर्दश, एकैकस्या-18
न्तरस प्रमाण पञ्चविंशयोजनानि त्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सप्तधाच्छिन्नस्य सत्का18 चत्वारो भागाः, ततः पञ्चत्रिंशचतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि योजनशतानि नवत्यधिकानि येऽपि च त्रिंशदेक-11
पष्टिभागास्तेऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि विंशत्यधिकानि, अयं च राशिरेकषष्टिभागात्मकस्तेन एकपष्टया भागो हियते लब्धानि षट् योजनानि, एषु पूर्वराशौ प्रक्षिप्तेषु जातानि ४९५ योजनानि, शेषाश्चतुःपञ्चाशदे- ४६५॥ कषष्टिभागास्तिष्ठन्ति, ये च एकस्यैकपष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्तेऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्प-101 चाशत् तेषां सप्तभिर्भागे हते लब्धा अष्टावेकपष्टिभागास्तेऽनन्तरोक्तचतुःपञ्चाशति प्रक्षिप्यन्ते जाता द्वाषष्टिः ६२
अनुक्रम [२६९-२७२]
~933~
Page #935
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], ---------
- मूलं [१४२-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४२-१४५]
AS तत्रैकाष्टिभागैर्योजनं लब्धं तच्च योजनराशौ प्रक्षिप्यते एकश्चैकपष्टिभागः शेषः ४९७ योजनक, इदं च मण्डला-19 ISन्तरक्षेत्र, योऽपि च बिम्बक्षेत्रराशिस्त्रयोदशयोजनसप्तचत्वारिंशदेकषष्टिभागात्मकः सोऽपि मण्डलान्तरराशौ प्रक्षिप्यते | || जातं योजनानि ५१०, यश्च पूर्वोद्धरितः एकः एकषष्टिभागः स सप्तचत्वारिंशति प्रक्षिप्यते जातं ४८ एकषष्टिभागार,
ननु पञ्चदशसु मण्डलेषु चतुर्दशान्तरालसम्भवाचतुर्दशभिर्भजन युक्तिमत्, सप्तचरवारो भागा इति कथं सङ्गच्छते?, उच्यते, मण्डलान्तरक्षेत्रराशेः ४९७१ मण्डलान्तरैश्चतुर्दशभिर्भजने लब्धानि ३५ योजनानि, उद्धरितस्य योजनराशेरेकषष्टया गुणने मूलराशिसत्कैकषष्टिभागप्रक्षेपे च जातं ४२८ एषां चतुर्दशभिर्भजने आगतोऽशराशिः ३० शेषा
अष्टौ तेषां चतुर्दशभिर्भागाप्राप्तौ लाघवार्थ द्वाभ्यामपवर्त्तने जातं भाज्यभाजकराश्योः ४ इति सुस्थं ॥ सम्प्रति मण्डपलान्तरप्ररूपणाप्रश्नमाह- चंदमंडलस्स ण'मित्यादि, चन्द्रमण्डलस्य भगन्त! चन्द्रमण्डलस्य कियत्या अबाधया
अन्तरं प्रज्ञप्तम्, गौतम! पञ्चत्रिंशत्पञ्चत्रिंशद्योजनानि त्रिंशञ्चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकच एकपष्टिभार्ग सप्तधा छित्त्वा चतुरचूर्णिकाभागान् , एतच्च चन्द्रमण्डलस्य २ अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्त, अत्र सप्त चत्वारश्चर्णिका यथा | समायान्ति तथाऽनन्तरं व्याख्यातं, सम्प्रति मण्डलायामादिमानद्वारम्-'चन्दमण्डले णं भन्ते ! केवइयं आयाम'। इत्यादि, चन्द्रमण्डलं भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कियद्वाहल्येन-उच्चस्त्वेन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! षट्पञ्चाशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, एकस्य योजनस्य एकपष्टिभागीकृतस्य यावत्प्रमाणा भागा
ORORSecencetrees
दीप अनुक्रम [२६९-२७२]
900000000000000000000000000
Eliminate
~934~
Page #936
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
(१८)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१४२-१४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४२-१४५]
श्रीजम्मू- स्तावत्प्रमाणषट्पञ्चाशदूभागप्रमाणमित्यर्थः, तत्रिगुणं सविशेष-साधिकं परिक्षेपेण करणरीत्या द्वे योजने पश्चपश्चा-18
शिवक्षस्कारे
प्रथमादिद्वीपशा- शद्भागाः साधिका इत्यर्थः, अष्टाविंशतिमेकपष्टिभागान् योजनस्य वाहल्येन । अथ मन्दरमधिकृत्य प्रथमादिम-18 न्तिचन्द्री-18
मण्डलाण्डलाबाधाप्रश्नमाह
बाधाम. या कृतिः
१४६ 11४६६॥
जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए आवाहाए सबभंतरए चन्दमंडले पण्णत्ते?, गोअमा! चोआलीस जोअणसहस्साइं अह य बीसे जोअणसए अबाहाए सम्बन्भन्तरे चन्दमंडले पण्णत्ते, जम्बुद्दीवे.२ मन्दरस्स पव्ययस्स केवइयाए अबाहाए अभंतराणन्तरे चन्दमडले पणते?, गो०! चोआलीसं जोअणसहस्साई अट्ट य छप्पण्णे जोअणसए पणवीसं च एगसद्विभाए जोभणस्स एगद्विभार्ग च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए अबाहाए अभंवराणन्तरे चन्दमंडले पण्णत्ते, जम्बुद्दीचे दीये मन्दरस्स पव्ययस्स केवइआए अबाहाए अभंतरतचे मंडले पं०?, गो०! चोआलीसं जोअणसहस्साई भट्ट य वाणउए जोभणसए एगावण्णं च एगसहिभाए जोमणस्स एगट्ठिभागं च सत्तहा छेता एगं चुण्णिाभाग अबाहाए अभंतरसचे मैडले पणते, एवं' खल एएणं उपाएणं णिक्खममाणे चंदे तयाणन्तरामो मंडलाओ तयाणम्तर मंडल संफममाणे २ छत्तीस छत्तीस जोभणाई पणवीसं चं एगद्विभाए जोअणस्स एगद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मंडले अवाहाए बुद्धि अभिवद्धेमाणे
IS४६६॥ २ सम्बबाहिर मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ । जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयरस केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पं०१, पणयालीसं जोमणसहस्साई तिणि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सम्बबाहिरए चंदमंडले ५०, जम्बुरीवे दीवे मन्दरस्स
दीप अनुक्रम [२६९-२७२]
~935~
Page #937
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६]
पब्वयस्स केवइआए अवाहाए बाहिराणन्तरे चंदमंचले पण्णते?, गो०! पणयालीसं जोअणसहस्साई दोणि अ तेणउए जोभणसए पणतीसं च एगसहिभाए जोअणस्स एगहिभागं च सत्तहा छेत्ता तिष्णि चुण्णिाभाए अबाहार बाहिराणन्तरे चंदमंडले पण्णत्ते, जम्बुहीवे दी मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमहले पं०१, गो०! पणयालीसं जोअणसहस्साई दोण्णि अ सत्तावण्णे जोमणसए णव य एगद्विभाए जोअणस्स एगहिभाग घ सत्तहा छेत्ता छ घुण्णिाभाए भवाहाए बाहिरतचे चंदर्मडले पं० । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणन्तराभो मंडलाओ तयाणंतर मंडल संकममाणे २ छत्तीसं २जोत्रणाई पणवीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स एगद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मंडले अथाहाए बुदि णिज्युहेमाणे २ सधभतरं मंडलं उक्संकमित्ता चार चरइ ५ (सूत्रं १४६) 'जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, जम्बूद्वीपे २ भगवन् ! मन्दरस्थ पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमण्डलं
प्रज्ञप्त, गौतम! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमKण्डलं प्रज्ञप्तमिति, उपपत्तिस्तु प्राक् सूर्यवकव्यतायां दर्शिता, द्वितीयमण्डलाबाधां प्रश्नयनाह-'जम्बुद्दीने २' इत्यादि,
जम्बूद्वीपे २ भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्टौ च षट्पञ्चाशदधिकानि योजनशतानि पञ्चविंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा चतुरश्चणिकाभागान् अबाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं|
Poececemedeceaeecte
दीप अनुक्रम [२७३]
wedese
~ 936~
Page #938
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६]
श्रीजम्यू-18 प्रज्ञप्तं, अत्रोपपत्तिः प्रागुक्तेऽभ्यन्तरमण्डलगतराशौ मण्डलान्तरक्षेत्रमण्डलविष्कम्भराश्योः प्रक्षेपे जायते, तथाहि-18
७वक्षस्कारे द्वीपशा-18 ४४८२० रूपः पूर्वमण्डलयोजनराशिः, अस्मिन् मण्डलान्तरक्षेत्रयोजनानि ३५, तथाऽन्तरसत्कत्रिंशदेकषष्टिभा-18
प्रथमादि
मण्डलान्तिचन्द्री- गानां मण्डलविष्कम्भसत्कषट्पञ्चाशदेकषष्टिभागानां च परस्परमीलने जातं ८६ एकपष्टया भागे चागतं योजनमेकं या वृतिः
बाधा सू. तञ्च पूर्वोक्तायां पञ्चत्रिंशति प्रक्षिप्यते जाता षट्त्रिंशद्योजनानां शेषाः पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाश्चत्वारश्चूर्णिकाभागा ॥४६॥ 18 इति, अथ तृतीयं-'जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे द्वितीयमण्डलसत्कराशी ३६ योजनानि २५
8| एकपष्टिभागाश्चत्वारश्चर्णिकाभागा इत्यस्य प्रक्षेपे जातं यथोक्तं, अथ चतुर्थाविमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खल'इत्यादि,
एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्कामन्-लवणाभिमुख मण्डलानि कुर्वन् चन्द्रस्तदनन्तराद्-विवक्षितात्पूर्वस्मान्मण्डलाद्विवक्षितमुत्तरमण्डलं संक्रामन् २ पत्रिंशद्योजनानि,
अत्र योजनसंख्यागतवीप्सा भागसंख्यापदेष्वपि ग्राह्या, तेन पञ्चविंशति २ एकषष्टिभागान् योजनस्य एकं चैकपष्टिIN भार्ग सप्तधा छित्त्वा चतुरश्चर्णिकाभागान् एकैकस्मिन् मण्डले अबाधाया वृद्धि अभिवर्द्धयन् २ सर्ववाह्यमण्डलमु
पसंक्रम्य चारं चरति, अथ पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलान्मण्डलाबाधा पृच्छमाह-'जम्बुद्दीये'त्ति, ४६७॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अवाधया सर्ववाद्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं १, गौतम ! पश्चचत्वारिंशयोजनसहस्राणि त्रीणि च त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ,
दीप अनुक्रम [२७३]
IN
~937~
Page #939
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६]
अथ द्वितीयमण्डलं पृच्छन्नाह-'जम्बुद्दीये' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबा-1 ह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं ?, गौतम! पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च विनवत्यधिके योजनशते पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागान योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा त्रीश्चूर्णिकाभागानबाधया सर्ववाह्यानन्तरं द्वितीय
चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्त, सर्वबाह्यमण्डलराशेः षट्त्रिंशद्योजनानि पञ्चविंशतिश्च योजनैकषष्टिभागा एकस्यैकषष्टिभागस्य | सरकाश्चत्वारः सप्तभागाः पात्यन्ते जायते यथोक्तराशिः, अथ तृतीयमण्डलपृच्छा-'जम्बुद्दीवे 'इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, | उत्तरसूत्रे पश्चचत्वारिंशयोजनसहस्राणि द्वे च सप्तपञ्चाशदधिके योजनशते नव च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकच एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा षट् चूर्णिकाभागान् अवाधया बाह्यतृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं, उपपत्तिस्तु बाह्यद्वि-10 तीयमण्डलराशेस्तमेव षट्त्रिंशद्योजनादिकं राशिं पातयित्वा यथोक्तं मानमानेतव्यं । अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि व्यक्तम्, नवरं अबाधायाः वृद्धिं निवर्द्धयन् २ हापयन् २ इत्यर्थः ॥ अथ सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलायामाद्याहसबभतरे गं भन्ते! चंदमंडले केवइभ आयामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवेणं पणत्ते?, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई छञ्चचत्ताले जोमणसए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोभणसहस्साई अउणाणउतिं च जोषणाई किंधिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पं०, अब्भन्तराणतरे सा चेव पुच्छा, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई सत्त व बारसुत्तरे अण्णसए
Kotstatemeseksee
दीप अनुक्रम [२७३]
~938~
Page #940
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
।
श्रीजम्बूद्वीपशा-IN न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
वक्षस्कारे मण्डलायामादि
सूत्रांक
सू.१४७
[१४७]
॥४६॥
एगावणं च एगहिभागे जोमणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एग चुण्णिाभार्ग आयामविक्खम्भेणं तिणि अजोयणसयसहस्साई पन्नर सहस्साई तिणि अ एगूणवीसे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं, अन्भन्तरतशे णं जाव पं०१, गो०! णवणउई जोमणसहस्साई सत्त य पचासीए जोअणसए इगतालीसं च एगविभाए जोअणस्स एगहिमागं च सत्तहा छेत्ता दोणि अ चुण्गिभाभाए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई पंच य गुणापण्ये जोअणसए किंचिवि. सेसाहिए परिक्खेवेणंति, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे जाव संकममाणे २ बावत्तरि २ जोअणाई एगावणं च एगट्टिभाए जोअणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुण्णिाभागं एगमेगे मंडले विक्खम्भवुद्धिं अभिवद्धेमाणे २ दो दो तीसाई जोमणसयाई परिरयबुद्धि अभिवद्धेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ । सब्वयाहिरए णे भन्ते । चन्दनडले केवइ आयामविक्खम्भेणं केवाइ परिक्वे णं , पण्णत्ते?, गो०! एग जोवणसयसहस बसहे जोअणसए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोसणसवसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिणि अ पगरसुत्तरे जोअणसए परिक्वेवेणं, बाहिराणन्तरे पुच्छा, गो०! एगं जोअणयसहस्सं पश्च सत्तासीए जो अणसए णव य एगद्विभाए जोअणस्स एगहिभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं तिष्णि अ जोअणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई पंचासीई च जोभणाई परिक्लेवेणं, बाहिरतचे गं भन्ते! चन्दमण्डले० पं०१, गो० एग जोअणसयसहस्सं पंच य बउदमुत्तरे जोअणलए एगूणवीसं च एगसहिभाए जोभणस्स एगद्विभार्ग च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोभणसयसहस्साई सत्तरस सहस्साई अह य पणपणे जोअणसए परिक्खेवेणं, एवं खलु एएणं उबाएणं पविसमाणे चन्दे जाव संकममाणे २ बावरि २ जोभणाई
B00029290902
दीप
अनुक्रम [२७४]
eceneemerce
॥४६८॥
~939~
Page #941
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
एगावणं च एगद्विभाए जोमणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एग चुण्णिाभागं एगमेगे मण्डले बिक्खम्भवृद्धि णिवुद्धमाणे २ दो दो तीसाई जोअणसयाई परिरवबुद्धि णिबुद्धेमाणे २ सव्वभंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ ६ (सूत्रं १४७) सर्वाभ्यन्तरं भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि पटू च चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि च योजनलक्षाणि पश्चदश योजनसहस्राण्येकोननवतिं च योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्त, उपपत्तिस्तुभयत्रापि सूर्यमण्डलाधिकारे दर्शिता, अथ द्वितीयं-'अम्भतराणन्तरे'इत्यादि, अभ्यन्तरानन्तरे सैव पृच्छा या सर्वाभ्यन्तरे मण्डले, उत्तरसूत्रे-गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि सप्त च द्वादशोत्तराणि योजनशतानि एकपञ्चाशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य एक चैकष-10 ष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा एक चूर्णिकाभागमायामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एकतश्चन्द्रमा द्वितीये मण्डले संक्रामन् पतिशद्योजनानि पश्चविंशतिं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकस्य चैकपष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्कान् चतुरो भागान् | विमुच्य संक्रामति अपरतोऽपि तावन्त्येव योजनानि विमुच्य संक्रामति उभयमीलने जातं द्वासप्ततिर्योजनानि एक| पश्चाशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य एकषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्क एको भागो द्वितीयमण्डले विष्कम्भायामचिंतायामधिकरवेन प्राप्यत इति, तच्च पूर्वमण्डलराशौ प्रक्षिप्यते जायते यथोक्तं द्वितीयमण्डलायामविष्कम्भमानं, 13 त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण द्वितीय मण्डलं ||
Sasa
~940~
Page #942
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
श्रीजम्यू- प्रज्ञप्त, उपपत्तिस्तु प्रथममण्डलपरिरये द्वासप्ततियोजनादीनां परिरये त्रिंशदधिकद्वियोजनशतरूपे प्रक्षिके सति यथोक्ता अक्षस्कारे द्वीपशा-INमानं, अथ तृतीयं-अभंतरतचे णमित्यादि, अभ्यन्तरतृतीये चन्द्रमण्डले यावत्पदात् 'चन्दमण्डले केवाइ माया-1
यामादि न्तिचन्द्री- मविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवेण'मिति ग्राह्य, उत्तरसूत्रे गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि सप्त च पश्चाशीत्यधिकानि
18सू.१४७ या त्ति योजनशतानि एकचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा द्वौ च चूर्णिकाभागा-1 ॥४६९॥ थायामविष्कम्भाभ्यां, अथ द्वितीयमण्डलगतराशी द्वासप्तति योजनान्येकपश्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकंच
चूर्णिकाभागं प्रक्षिप्य यथोक्तं मानमानेतव्यं, त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्राणि पञ्च चैकोनपश्चाशदधि18 कानि योजनशतानि किचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इह पूर्वमण्डलपरिरयराशी द्वे योजनशते त्रिंशदधिके प्रक्षिप्योपप-15
त्तिः कार्या, अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु इत्यादि, पूर्ववत् , निष्कामेश्चन्द्रो यावत्पदात् 'तयाणन्तराओ मंडलाओ तयाणन्तरं मण्डल'मितिग्राह्य, संक्रामन् २ द्वासप्तति २ योजनानि योजनसंख्यापदगतायीप्सा भागसंख्या-15 पदेष्वपि माह्या, तेनैकपश्चाशत एकपञ्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा एकमेकं 18 चूर्णिकाभागमेकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिमभिवर्धयन् २ दे दे त्रिंशदधिके योजनशते परिरयवृद्धिमभिवयन् ॥६॥ २ सर्वपाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं परतीति । सम्प्रति पश्चानुपूर्व्या पृच्छति-'सव्ववाहिरए ण'मित्यादि, सर्वबाह्य भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्, गौतम! एक योजनलक्ष षटू षष्टानि
~941~
Page #943
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
दीप
अनुक्रम [२७४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१४७]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पष्टयधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्या, उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो दक्षं उभयोः प्रत्येकं श्रीणि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि उभयमीलने योजनानां षट् शतानि षष्ट्यधिकानीति, त्रीणि च योजनलक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण, अत्रोपपत्तिः जम्बूद्वीपपरिधी षष्ट्यधिकषट्शतपरिधी प्रक्षिसे भवति यथोक्तं मानं, अथ द्वितीयं 'बाहिरराणन्तर' मित्यादि, वाह्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमित्यर्थः पृच्छति प्रश्नालापकस्तथैव, उत्तरसूत्रे | गौतम! एकं योजनलक्षं पश्च सप्ताशीत्यधिकानि योजनशतानि नव चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छिया पट् चूर्णिकाभागान् आयामविष्कम्भाभ्यां अत्रोपपत्तिः पूर्वराशेद्वसप्ततिं योजनान्येकपञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य एक भागमपनीय कर्त्तव्या, त्रीणि योजनलक्षाणि | अष्टादश सहस्राणि पञ्चाशीतिं योजनानि परिक्षेपेण, सर्वबाह्यमण्डलपरिधेद्वे शते त्रिंशदधिके योजनानामपनयने यथोक्तमानं, अथ तृतीयं 'बाहिरतचे णमित्यादि, बाह्यतृतीयं भदन्त ! चन्द्रमण्डलं यावच्छब्दात् सर्व प्रश्नसूत्रं ज्ञेयं, उत्तरसूत्रे - गौतम ! एकं योजन लक्षं पश्च चतुर्दशोत्तराणि योजनशतानि एकोनविंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा छिश्वा पञ्च चूर्णिकाभागान् आयामविष्कम्भाभ्यां अत्र सङ्गतिस्तु द्वितीयमण्डलराशेः द्वासप्तति| योजनादिकं राशिमपनीय कार्या, त्रीणि योजनलक्षाणि सप्तदश सहस्राणि अष्ट च पश्चपञ्चाशदधिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण, उपपत्तिस्तु पूर्वराशेद्वे शते त्रिंशदधिके अपनीय कार्या, अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-- ' एवं खलु'
For P&Praise Cly
~942~
Page #944
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या वृत्तिः
[१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
श्रीजम्बू- इत्यादि, पूर्ववत् , प्रविशंश्चन्द्रो यावत्पदात् 'तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डल'मिति ग्राह्य, संक्रामन् २18 द्वीपशा
द्वासप्तति २ योजनानि एकपञ्चाशतमेकपंचाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एक एकषष्टिभागं च सप्तधा छिस्वा एक-18/चन्द्रमुहर्चन्तिचन्द्री-18|| मेकं चर्णिकाभागमेकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिं निवर्तयन् २ हापयन् २ इत्यर्थः द्वे द्वे त्रिंशदधिके योजनशते
गतिः सू.
१४८ परिरयवृद्धिं निवर्द्धयन् २ हापयन् हापयन्नित्यर्थः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति ॥ अथ मुहूर्तगतिमरूपणा॥४७०॥
जया णं भन्ते! चन्दे सबभन्तरमण्डलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुतेणं केवा खेत्तं गच्छइ १, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई तेवचरि च जोअणाई सत्तत्चरिं च चोआले भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहि. सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहि सएहि छेत्ता इति, तया ण इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहि जोभणपहिं एगवीसाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स चन्दे चक्फास हत्यमागछ । जया पं भन्ते! चन्दे भन्भन्तराणन्तर मण्डल उपसंकमित्ता चार चरख जाव केवइ खेत्तं गच्छही, गोलपंच जोअणसहस्साई सत्तत्तरिं च जोअणाई छत्तीसं च चोअत्तरे भागसए गच्छद, मण्डल तेरसहिं सहस्सेहिं जाव छेत्ता, जया णं भन्ते! चन्दे अश्मंतरतचं मण्डलं उपसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं महत्तेणं केवइ खेसं गच्छद ?, गो०! पंच जोअणसहस्साई असीई च जोअणाई तेरस य भागसहस्साई तिष्णि अ एगूणवीसे भागसए
1४७०॥ गच्छद मण्डलं तेरसहिं जाव छेत्ता इति । एवं खलु एएणं उवाएर्ण णिक्खममाणे चन्दे तयाणन्तराओ जाव संकममाणे २ तिष्णि २ जोभणाई छपणजईप पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुतगई अभिवढेमाणे २ सयबाहिर मण्डलं असंकमित्ता चार
अथ मुहूर्तगति: प्ररुपणा क्रियते
~943~
Page #945
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप अनुक्रम [२७५]
चरह, जया णं भन्ते! चन्दे सव्ववाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ तयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छद !, गो०! पंच जोमणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसय अउणत्तरं च णउए भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहि भागसहस्सेहिं सत्चहि अ जाव छेत्ता इति, तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कातीसाए जोअणसहस्सेहिं अहि अ एगत्तीसेहिं जोअणसपदि चन्दे चक्खुप्कासं हवमागच्छइ, जया णं भन्ते! बाहिराणन्तरं पुच्छा, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई एक च एकवीसं जोमणसयं एकारस य सट्टे भागसहस्से गच्छद मण्डलं तेरसहिं जाव छेत्ता, जया गं भंते ! बाहिरतचं पुच्छा, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई एगं च अठ्ठारसुत्तर जोअणसयं चोदस य पंचुत्तरे भागसए गच्छइ मंडलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिं पणवीसेहिं सरहिं छेत्ता, एवं खलु एएणं उवाएणं जाव संकममाणे २ तिणि २ जोअणाई छण्णउतिं च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुत्तगई णिबुद्धेमाणे २ सव्वम्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ (सूत्र १४८)
'जया ण'मित्यादि, पूर्ववत् , भदन्त ! चन्द्रः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति !, भगवानाह-गौतम! पंच योजनसहस्राणि त्रिसप्ततिं च योजनानि सप्तसप्ततिं च चतुश्चत्वारिंशदधिकानि भागशतानि गच्छति, कस्य सत्का भागा इत्याह-मण्डलं प्रक्रमात् सर्वाभ्यन्तरं त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिश्च शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागैश्छित्त्वा-विभज्यैतत् पंचसहस्रयोजनादिकं गतिपरिमाणमानेतव्यं, तथाहि-प्रथमतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिः योजन ३१५०८९ रूपो द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं १९५३४५६९,
~944 ~
Page #946
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
हीपशा
सूत्रांक
[१४८]
दीप अनुक्रम [२७५]
श्रीजम्बू-१ अस्य राशेः त्रयोदशभिः सहस्त्रैः सप्तभिः शतैः पंचविंशत्यधिकैर्भागे हते लब्धानि पंच योजनसहस्राणि त्रिसप्तत्यधि- वक्षस्कारे
कानि अंशाच सप्तसततिशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५०७३ ५ ननु यदि मण्डलपरिधिस्त्रयोदशसहस्रादि- चन्द्रग्रहत्त न्तिचन्द्री
गतिःस, या प्रति केन भाजकेन रशिना भाज्यस्तहि किमित्येकविंशत्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां मण्डलपरिधिर्गुण्यते ?, उच्यते, चन्द्र
१४८ स्य मण्डलपूरणकालो द्वापष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सत्कास्त्रयोविंशतिरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागा:, अस्य च भावना र ॥४७॥ चन्द्रस्य मुहूर्तभागगत्यवसरे विधास्यते, मुहूर्तानां सवर्णनार्थमेकविंशत्यधिकशतद्वयन गुणने त्रयोविंशत्यंशप्रक्षेपे च ।
जातं १३७२५, अतः समभागानयनार्थ मण्डलस्याप्येकविंशत्यधिकशतद्वयेन गुणनं सङ्गतमेवेति, अयं भावः-यथा ॥ || सूर्यः षष्ट्या मुहूर्तमण्डलं समापयति शीघ्रगतित्वात् लघुविमानगामित्वाञ्च तथा चन्द्रो द्वाषष्ट्या मुहूर्तेखयोविंश-15 | त्येकविंशत्यधिकशतद्वयभागमण्डलं पूरयति मन्दगतित्वाद् गुरुविमानगामित्वाचा, तेन भण्डलपूर्तिकालेन मण्डलपरि-18॥ धिर्भक्तः सन् मुहर्तगतिं प्रयच्छतीति सर्वसम्मतं, आह-एकविंशत्यधिकशतद्वयभागकरणे किं बीजमिति चेद, उच्यते, 1॥
मण्डलकालानयने अस्यैव छेदकराशेः समानयनात्, मण्डलकालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैः॥ || अष्टषष्ट्यधिकः सकलयुगवर्तिभिः अर्धमण्डलैरष्टादश शसानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्या
॥४७॥ मर्द्धमण्डलाभ्यामेकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लम्यन्ते, राशित्रयस्थापना-१७१८१८३०२ जत्राम्येन ||राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेः १८३० रूपस्य गुणने जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि ३१६० तेषा
~945~
Page #947
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [१४८]
(१८)
वक्षस्कार[७],
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
माथेन राशिना १७६८ रूपेण भागे हुते लब्धे द्वे रात्रिन्दिवे, शेष तिष्ठति चतुर्विंशत्यधिकं शतं १२४ तत एक
स्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्त्ता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२० तेषां । AS सप्तदर्शभिः शतैः अष्टपष्ट्यधिकैर्भागे हृते लब्धौ मुहूत्तौं, शेषाः १८४, अथ छेद्यच्छेदकराश्योरष्टकेनापर्त्तने जातः
छेद्यो राशिस्त्रयोविंशतिः छेदकराशिरेकविंशत्यधिकशतद्वयरूप इति । अथास्य दृष्टिपथप्राप्ततामाह--'तया णं इहग-18 यस्स इत्यादि, तदा इहगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रैर्द्धाभ्यां च त्रिपष्ट धधिकाभ्यां योजनशताभ्या| मेकविंशत्या च षष्टिभागोंजनस्य चन्द्रः चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति, अत्रोपपत्तिः सूर्याधिकारे दर्शितापि किश्चिद्वि
शेषाधानाय दयते, यथा सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले जम्बूद्वीपचक्रवालपरिधेर्दशभागीकृतस्य दश त्रिभागान् यावत्ता॥ पक्षेत्र तथास्यापि प्रकाशक्षेत्र तावदेव पूर्वतोऽपरतश्च तस्याटें चक्षुःपथप्राप्ततापरिमाणमायाति, यत्तु षष्टिभागीकृत-18
योजनसस्कैकविंशतिभागाधिकत्वं तत्तु सम्प्रदायगम्यं, अन्यथा चन्द्राधिकारे साधिकद्वापष्टिमुहर्तप्रमाणमण्डलपूर्तिकालस्य छेदराशित्वेन भणनात् सूर्याधिकारे वाच्यस्य षष्टिमुहूर्तप्रमाणमण्डलपूर्तिकालरूपस्य छेदराशेरनुपपद्यमा
नत्वात् । अथ द्वितीयमण्डले मुहूर्तगतिमाह-'जया ण'मित्यादि, यदा भदन्त ! चन्द्रः अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय 18|| मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति यावत्पदात् 'तया णं एगमेगेणं मुहत्तेण'मिति गम्यते, कियत् क्षेत्रं गच्छति', गौतम ! | || पञ्च योजनसहस्राणि सप्तसप्ततिं च योजनानि षट्त्रिंशतं च चतुःसप्तत्यधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयो
दीप अनुक्रम [२७५]
eaeeeeeeeeeeee
imElication.in
~ 946~
Page #948
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
अक्षस्कारे
प्रत
चन्द्रमुहर्त
न्तिचन्द्री
गतिः मू.
सूत्रांक
या चिः
१४८
[१४८]
दीप अनुक्रम [२७५]
श्रीजम्यू- दशभिः सहस्रैः यावत्पदात् 'सत्तहि अपणवीसेहिं सएहि मिति ग्राह्यं, छित्त्वा-विभज्य, एतत् सूत्रं प्राग्भावितार्थमिति नेह द्वीपशा-1 पुनरुच्यते, अनोपपत्तिः द्वितीयचन्द्रमण्डले परिरयपरिमाणं ३१५३१९ एतत् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां
गुण्यते जातं ६९५८५४९९ एषां त्रयोदशभिः सहौः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागे लब्धानि पञ्च योजनसहस्राणि |
सप्तत्यधिकानि ५०७७, शेषं पत्रिंशच्छतानि चतुःसप्त त्यधिकानि भागानां १३७२५१७५, अथ तृतीयं 'जया ण'॥४७२॥11 मित्यादि, यदा भदन्त! चन्द्रः अभ्यन्तरतृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्त्तन कियत् क्षेत्र
गच्छति ?, गौतम! पश्च योजनसहस्राणि अशीतिं च योजनानि त्रयोदश च भागसहस्राणि त्रीणि च एकोनत्रिंशदधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिः सहवैरित्यादि पूर्ववत्, अत्रोपपत्तिर्यथा-अत्र मण्डले परिरयः
३१५५४९ एतद्द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ६९७३६३२९, एषां प्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः 19 शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागे हृते लब्धानि पञ्च सहस्राण्यशीत्यधिकानि ५०८०, शेषं त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शता
ग्यकोनत्रिंशदधिकानि भागानां 1३३६ । अथ चतुर्थादिमण्डलेवतिदेशमाह-एवं खलु एएण'मित्यादि, पूर्ववत् , निष्क्रामन् चन्द्रस्तदनन्तरात् यावतशब्दात् मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ त्रीणि २ योजनानि पण्णवति च 81
॥४७२॥ पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतान्येकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमभिवर्द्धयन् २ सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, || | कथमेतदवसीयत इति चेत्, उच्यते, प्रतिचन्द्रमण्डलं परिरयवृद्धि शते त्रिंशदधिके २३०, अस्य च त्रयोदशस
~947~
Page #949
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
eesese
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप अनुक्रम [२७५]
हस्रादिकेन राशिना भागे हृते लब्धानि त्रीणि योजनानि शेष षण्णवतिः पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि ३ ११७५ । अथ 8 | पश्चानुपूर्ध्या पृच्छति-'जया ण'मित्यादि, यदा भदन्त ! चन्द्रः सर्ववाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन । १ मुहन कियत् क्षेत्रं गच्छति !, गौतम। पञ्च योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमेकोनसप्तति च ॥ नवत्यधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्भागसहस्रः सप्तभिश्च यावच्छब्दात् पञ्चविंशत्यधिक शत-ि18 भज्य, अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिरयपरिमाणं ३१८३१५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ७०३४७६१५ एषां त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः वातैः पञ्चविंशत्यधिकांगे हृते लब्धानि ५१२५ शेष भागा, |११३३५, अथात्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततामाह-'तया णमिति, तदा-सर्वबाह्यमण्डलचरणकाले इहगतानां मनुष्याणा
| मेकत्रिंशता योजनसहरैः अष्टभिश्चैकत्रिंशदधिकैः योजनशतैश्चन्द्रश्चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति, अत्र सूर्याधिकारोक्तं ५ 18'तीसाए सविभाए'इत्यधिक मन्तव्यं, उपपत्तिस्तु प्राग्वत्, अथ द्वितीयं मण्डलं-'जया ण'मित्यादि, यदा भदन्त ! 18 सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमित्यादि प्रश्नः प्राग्वत्, गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि एकं चैकविंशत्यधिकं योजनशतं 18
एकादश च पश्यधिकानि भागसहस्राणि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्यावत्पदात् सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्य-18 18|धिकः छिया, अनोपपत्ति:-अत्र, मण्डले परिरयः ३१८०८५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यो गुण्यते 8
जातं ७०२९६७८५ एषां १३७२५ एभिर्भागे हृते लब्ध ५१२१ शेष । अथ तृतीयं-'जया ण'मित्यादि,
~948~
Page #950
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप
अनुक्रम
[ २७५ ]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१४८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृतिः
॥४७३॥
प्रश्नः प्राग्वत्, गौतम ! पथ योजन सहस्राण्येकं चाष्टादशाधिकं योजनशतं चतुर्दश च पश्चाधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिः सहस्त्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः छित्त्वा अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिरयप्रमाणं | ३१७८५५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ७०२४५९५५ एषां १३७२५ एभिर्भागे हृते | लब्धं ५११८ शेषं भागा । अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह - ' एवं खलु इत्यादि, एतेनोपायेन यावच्छब्दात् | 'पविसमाणे चन्दे तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयणन्तरं मण्डल'मिति ग्राह्यं, संक्रामन् २ त्रीणि योजनानि पण्णवर्ति |च पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिं निवर्द्धयन् २ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, उपपत्तिः पूर्ववत्, अत्र सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यचन्द्रमण्डलयोर्दृष्टिपथप्राप्तता दर्शिता, शेषमण्डलेषु तु सा अश्र ग्रन्थे चन्द्रप्रज्ञप्तिवृहत् क्षेत्रसमासवृत्त्यादिषु च पूर्वैः क्वापि न दर्शिता तेनात्र न दर्श्यत इति । अथ नक्षत्राधिकारः, | तत्राष्टौ द्वाराणि यथा मण्डलसङ्ख्याप्ररूपणा १ मण्डलचारक्षेत्र प्ररूपणा २ अभ्यन्तरादिमण्डलास्थायिनामष्टाविंशतेनंक्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा ३ नक्षत्रविमानानामायामादिनिरूपणं ४ नक्षत्रमण्डलानां मेरुतोऽवाधानिरूपर्ण ५ तेपा| मेवायामादिनिरूपणं ६ मुहूर्त्तगतिप्रमाणनिरूपणं ७ नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलैः समवतारनिरूपणं ८ । तत्रादौ मण्डसमरूपणाप्रश्नमाह
For P&Pase City
~949~
वक्षस्कारे चन्द्रमुहूर्त
गतिः सू. १४८
॥४७३॥
Page #951
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
eesect
सूत्रांक
[१४९]
दीप
कइणं भंते ! णखत्तमण्डला पं०१, गोअमा! अट्र णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता १ । जम्बुद्दीवे दीवे केवइ ओगाहिता केवइआ णक्खत्तमंडला पण्णता ?, गोअमा! जम्बुद्दीचे दीवे असीअं जोअणसयं ओगाहेत्ता एत्थ णं दो णक्खत्तमंडला पण्णता, लवणे णं समुद्र केवइ ओगाहेत्ता केवहा णक्खत्तमंडला पण्णचा?, गो०! लवणे णं समुद्र तिणि तीसे जोभणसए ओगाहित्ता एत्थ ण छ णक्खत्तमंडला पण्णत्ता, एवामेव सपुज्वावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे लवणसमुदे अठु णवत्तमंडला भवंतीतिमक्खायमिति २ । सयभंतराओ णं भंते! णक्खत्तमंडलाओ केतइआए अवाहाए सब्बबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णते?, गोभमा ! पंचसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सब्बबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते इति, णक्खत्तमंडलस्स णं भन्ते । णक्खत्तमंडलस्स य एस णं केवइआएं अवाहाए अंतरे पण्णते?, गोभमा! दो जोषणाई णक्खत्तमंडलस्सै य णखत्तमंडलस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ । णक्खत्तमंडले णं भंते! केवइ आयामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवणं केवइ बाहल्लेणं पण्णत्ते ?, गो०! गाउअं आयामविक्खम्भेणं तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं अद्धगाउ बाहलेणं पण्णते ४ । जम्बुद्दीवे गं भन्ते! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वर्भतरे णक्वत्तमंडले पण्णन्ते ?, गोअमा! चोयालीसं जोअणसहस्साई अट्ठ य वीसे जोअणसए अबाहाए सम्वन्तरे णवत्तमंडले पण्णते इति, जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पठ्वयस्स केवइए अबाहाए सव्ववाहिरए णक्सत्तमंडले पण्णत्ते , गोअमा! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिष्णि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते इति ५ । सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पं० १, गो.! णवणउति जोअणसहस्साई छचचत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोमणसयसहस्साई पण्णरस सहस्साई एगूणणवति च जोमणाई किंचिबिसेसाहिए परि
अनुक्रम [२७६]
0200
tota
Elimited
अथ नक्षत्र-मण्डलस्य संख्यादि प्ररुपणा क्रियते
~ 950~
Page #952
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू द्वीपशा
वक्षस्कारे
प्रत
नक्षत्रमAण्डलादि
र.१४९
न्तिचन्द्रीया वृचिः ॥७४||
सूत्रांक
600cccccc
[१४९]
दीप
क्खेवणं पण्णते, सम्बवाहिरए भते। णक्खत्तमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवहा परिक्षेवणं पण्णते?, गोभमा ! एगं जोमणसयसहस्सं छच्च सढे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई तिणि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवणं, जया ण भंते! णक्खत्वे सबभंतरमंडलं स्वसंकमित्ता चार घरइ तथा गं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छद ?, गोभमा! पंच जोअणसहस्साई दोषण य पणढे जोअणसए अट्ठारस य भागसहस्से दोणि अ तेवढे भागसए गच्छद मंडलं एकवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सडेहिं सपहिं छेचा । जया जे भंते ! णक्खसे सम्बबाहिर मंडलं अवसंकमित्ता चारं घरइ तया गं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ, गोयमा! पंच जोअणसहस्साई तिणि अ एगूणवीसे जोअणसए सोलस य भागसहस्सेहिं तिष्णि अ पण्डे भागसए गच्छइ, मंडलं एगवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सहेहिं सपहि छेत्ता, एते णं भंते! अट्ठ णक्खत्तमंडला कतिहिं चंदमंडलेहिं समोअरंति !, गोभमा ! अहिं चंदमंडलेहि समोअरंति, तंजहापढमे चंदमंडले ततिए छहे सत्तमे अठुमे दसमे इकारसमे पण्णरसमे चंदमंडले, एगमेगेणं भन्ते! मुहुत्तेणं केवहभाई भागसयाई गच्छद?, गो. जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरद तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अट्ठे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणडइए अ सएहि छेत्ता इति । एगमेगेणं भन्ते! मुहुत्तेणं सूरिए केवइआई भागसवाई गच्छद, गोभमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारसतीसे भागसए गच्छद, मंडलं सयसहस्सेहिं अठ्ठाणउतीए अ सहि छेत्ता, एगमेगेण भंते ! मुहुतेणं णक्खत्ते केवइआई भागसयाई गच्छइ!, गो०! जं जं मंडलं नवसंकमित्ता चार चरह तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छह मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणचईए अ सएहिं छेत्ता । (सूत्र १४९)
अनुक्रम [२७६]
IS४७४॥
SO
~951~
Page #953
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
'कइणं भन्ते!' इत्यादि, कति भदन्त! नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञतानि?, गौतमा अष्ट नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अष्टाविंशते-18 रपि नक्षत्राणां प्रतिनियतस्वस्वमण्डलेष्येतावत्स्वेव सञ्चरणात् , यथा चैतेषु सञ्चरणं तथा निरूपयिष्यति, एतदेव क्षेत्रविभा-11 गेन प्रश्नयति-जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्क्षेत्रमवगाह्य कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतंअशीत्यधिक योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे द्वे नक्षत्रमण्डले प्रज्ञप्ते, लवणसमुद्रे कियदवगाह्य कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञसानि?, गौतम! लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे षटू नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अत्रोपसंहारवाक्येनोकसञ्जयां मीलयति-एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे चाष्टी नक्षत्रमण्डलानि भवन्ति इत्याख्यातं, मकारोऽत्रागमिकः । अथ मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा-'सबभन्तरा इत्यादि, सर्वाभ्यन्तरादू भदन्त ! नक्षत्रमण्डलात् किय-15 | त्या अवाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल प्रज्ञप्तम्, गौतम! पञ्चदशोत्तराणि योजनशताम्यवाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज-18 MS, इदं च सूर्य नक्षत्रजात्यपेक्षया बोद्धव्यं, अन्यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थायिनामभिजिदादिद्वादशनक्षत्राणामवस्थितम-15 ISण्डलकत्वेन सर्वेबाह्यमण्डलस्यैवाभावात् , तेनायमर्थः सम्पन्न:-सर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमण्डलजातीयात् सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल-13
जातीयं इयत्या अवाधया प्रज्ञप्तमिति बोध्यं । अथाभ्यन्तरादिमण्डलस्थायिनामष्टाविंशतेनक्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा-1 19॥णक्खत्त'इत्यादि, नक्षत्रमण्डलस्य-नक्षत्रविमानस्य नक्षत्रविमानस्य च भदन्त ! कियत्या अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ।, गीत
माद्वे योजने नक्षत्रविमानस्य नक्षत्रविमानस्य चाबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, अयमर्थ:-अष्टास्वपिमण्डलेषु यत्र २ मण्डले यावश्रीज, ८-16
अनुक्रम [२७६]
0900996e928929
~952 ~
Page #954
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
हन्ति नक्षत्राणां विमानानि तेषामन्तरबोधकमिदं सूत्रं, यथा अभिजिनक्षत्रविमानस्य श्रवणनक्षत्रविमानस्य च परस्परमम्तरं श्रीजम्बू
विमानखच परसरमन्तर ७वक्षस्कारे द्वीपशा-18
। योजने, न तु नक्षत्रसत्कसर्वाभ्यन्तरादिमण्डलानामन्तरसूचकं, अन्यथा नक्षत्रमण्डलानां वक्ष्यमाणचन्द्रमण्डलसमव- नक्षत्रमन्तिचन्द्री-18 तारसूत्रेण सह विरोधात् । अथ नक्षत्रविमानानामायामादिप्ररूपणा-'णक्खत्त' इत्यादि, नक्षत्रमण्डलं भदन्त ! किय-18 ण्डलादि या वृत्तिः 18 दायामविष्कम्भाभ्यां कियत परिक्षेपेण कियदाहस्येन-उच्चैस्त्वेन प्रज्ञतम्, गौतम ! गब्यूतमायामविष्कम्भाभ्यां तनि-18 स. १४९
|| गुणं सविशेष परिक्षेपेण अर्द्धकोशं बाहल्येन प्रज्ञप्तमिति । सम्प्रत्येषामेव मेरुमधिकृत्याबाधाप्ररूपणा-'जम्बुद्दीवेत्ति ॥४७५||
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, गौतम! चतुश्चत्वा
रिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतान्यवाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, उपपत्तिस्तु 18 सूर्याधिकारे निरूपिता, अथ बाह्यमण्डलाबाधां पृच्छति-'जम्बुद्दीवे'त्ति, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 8 18|| कियत्या अबाधया सर्वेबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! पंचचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि श्रीणि च त्रिंशदधिकानि || 18|| योजनशतान्ययाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु प्राग्वत् । अथ एतेषामेवायामादिनिरूपणम्-'सबम-18 वन्तरेण मित्यादि, प्राग्वत्, अथ सर्वबाह्यमण्डलं पृच्छति-सत्वबाहिरए'इत्यादि, प्राग्वत् , मध्यमेषु षट्सु मंडलेषु तु
॥४७५॥ चन्द्रमंडलानुसारेणायामविष्कम्भपरिक्षेपाः परिभाव्याः, अष्टावपि नक्षत्रमंडलानि चन्द्रमंडले समवतरन्तीति भणिष्य18माणत्वात् । अथ मुहूर्तगतिद्वारम्-'जया प'मित्यादि, यदा भदन्त ! नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरमंडलमुपसङ्गम्य चार चरति
~953~
Page #955
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
18| तदैककेन महान कियत्क्षेत्रं गच्छति', नक्षत्रमित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनं, अन्यथाऽभ्यन्तरमंडलगतिचिन्तायां द्वाद-31 |शानामपि नक्षत्राणां संग्रहाय बहुवचनस्यौचित्यात्, गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि खेप पश्चात्यधिके योजनशते 8 अष्टादश च भागसहस्राणि द्वे च विषष्ट्यधिकभागशते गच्छति, मंडलमेकविंशत्या भागसहस्रैर्नवभिक्ष पश्यधिक शतैः | छित्त्वा इति, अबोपपत्ति:-इह नक्षत्रमंडलकाल एकोनषष्टिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य सप्तषष्ट्यधिकत्रिशतभागानां | त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणीति ५९३, अयं च नक्षत्राणां मुहर्तभागो गत्यवसरे भावयिष्यते, इदानीमेतदनुसारेण । मुहर्तगतिश्चिन्त्यते-तत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः तेषु उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनपष्टिम-1 हर्तानां, ततः सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः सप्तपष्याऽधिकैः गुणयित्वा उपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते । जातान्येकविंशतिसहस्राणि नव शतानि पश्यधिकानि २१९६०, अयं च प्रतिमंडल परिधेः छेदकराशिः, तत्र सर्वाभ्य-॥ |न्तरमंडलपरिधिः ३१५०८९, अयं च योजनात्मको राशिर्भागात्मकेन राशिना भजनार्थं त्रिभिः सप्तपष्ट-वधिकैः। शतैः ३६७ गुण्यते, जातं ११५६३७६६३, अस्य राशेरेकविंशत्या सहौः नवभिः शतैः पष्टयधिकैर्भागे हुते लब्धानि १२६५ शेष ११३६३ भागाः, एतावती सर्वाभ्यन्तरमंडलेऽभिजिदादीनां बादशनक्षत्राणां मुहूर्सगतिः । अथ 3 बाह्ये नक्षत्रमंडले मुहूर्तगतिं पृच्छति-'जया 'मित्यादि, बदा भदन्त ! नक्षत्रं सर्वबाह्यं मण्डलं उपसङ्कम्य चार चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति?, अत्राप्वेकवचनं प्राग्वत्, गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि
ccesea
अनुक्रम [२७६]
~954~
Page #956
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१४९ ]
दीप
अनुक्रम
[२७६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १४९ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥४७६ ॥
| चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि षोडश च भागसहस्राणि त्रीणि च पञ्चषष्ट्यधिकानि भागशतानि गच्छति मण्डलमेकविंशत्या भागसह सैर्नवभिश्च षष्ट्यधिकैः शतैः छित्त्वा इति, अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिधिः ३१८३१५, अयं त्रिभिः सप्तषष्ट्यधिकैः शतैः ३६७ गुण्यते जातं ११६८२१६०५, अस्य राशेरेकविंशत्या सहस्रैर्नवभिः शतैः षष्ट्यधिकैः भागे लब्धानि ५३१९ योजनानि शेर्पा ३३३६५ भागाः, एतावती सर्वबाह्ये नक्षत्रमण्डले मृगशीर्षप्रभृतीनामष्टानां नक्षत्राणां मुहूर्त्तगतिः, उक्ता तावत् सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलवर्त्तिनां नक्षत्राणां मुहूर्त्तगतिः, अथ नक्षत्रतारकाणामवस्थितमण्डलकत्वेन प्रतिनियतगतिकत्वेन चावशिष्टेषु षट्सु मण्डलेषु मुहूर्त्तगतिपरिज्ञानं दुष्करमिति तत्कारणभूतं मण्डलपरिज्ञानं कर्त्तुं नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलेषु समवतार प्रश्नमाह - 'एते ण'मित्यादि, एतानि भदन्त ! अष्टौ नक्षत्रमण्डलानि कतिषु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति - अन्तर्भवन्ति, चन्द्रनक्षत्राणां साधारणमण्डलानि कानीत्यर्थः, भगवानाह - गौतमाष्टासु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति तद्यथा-प्रथमे चन्द्रमण्डले प्रथमं नक्षत्रमण्डलं, चारक्षेत्रसञ्चारिणा| मनवस्थितचारिणां च सर्वेषां ज्योतिष्काणां जम्बूद्वीपेऽशीत्यधिक योजनशतमवगाह्येव मण्डलप्रवर्त्तनात्, तृतीये चन्द्रमण्डले द्वितीयं एते च द्वे जम्बूद्वीपे पष्ठे लवणे भाविनि चन्द्रमण्डले तृतीयं तत्रैव भाविनि सप्तमे चतुर्थ अष्टमे पञ्चमं दशमे षष्ठं एकादशे सप्तमं पञ्चदशेऽष्टमं शेषाणि तु द्वितीयादीनि सप्त चन्द्रमण्डलानि नक्षत्रैर्विरहितानि, तत्र प्रथमे चन्द्रमण्डले द्वादश नक्षत्राणि, तद्यथा-अभिजिच्छ्रवणो धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी
Fir P&Permalise City
~955~
वक्षस्कारे क्षण्डलादि
स्. १४९
॥४७६ ॥
Page #957
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी स्वातिश्च, द्वितीये पुनर्वसु मघा च, तृतीये कृत्तिका, चतुर्थे रोहिणी चित्रा च, पञ्चमे विशाखा षष्ठे अनुराधा सप्तमे ज्येष्ठा अष्टमे मृगशिरः आर्द्रा पुष्यः अश्लेषा मूलो हस्तश्च, पूर्वाषाढोतरापाढयोढ़े द्वे तारे अभ्यन्तरतो देदे बाह्यत इति, एवं स्वस्वमण्डलावतारसत्कचन्द्रमण्डलपरिध्यनुसारेण प्रागुक्तरीत्या द्वितीयादीनामपि नक्षत्रमण्डलानां मुहूर्त्तगतिः परिभावनीया, उक्ता प्रतिमण्डलं चन्द्रादीनां योजनात्मिका मुहूर्तगतिः, अथ तेषामेव प्रतिमण्डलं भागात्मिका मुहूर्तगतिं प्रश्नयति-'एगमेगे ण'मित्यादि, एकैकेन भगवन्! मुहूर्तेन चन्द्रः कियन्ति भागशतानि गच्छति', गौतम! यद्यन्मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य सप्तदश शतान्यष्टषष्टिभागैरधिकानि गच्छति, मण्डलपरिक्षेपमेकेन लक्षेणाष्टनवत्या च शतैः छित्त्वा-विभज्य, इयमत्र भावना-इह प्रथमतश्चन्द्रस्य मंडलकालो निरूपणीयस्तदनन्तरं तदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं भावनीयं, तत्र | मंडलकालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैरष्टपश्यधिकैः सकलयुगवर्तिभिरर्द्धमंडलैश्चन्द्रद्वयापेक्षया तु | पूर्णमंडलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमंडलाभ्यामेकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते', राशित्रयस्थापना-१७६८। १८३० । २। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशे| गुणनं जातानि पदविंशच्छतानि पट्यधिकानि ३६६० तेषामादिराशिना भागहरणं लब्धे । रात्रिन्दिवे शेष तिष्ठति | | चतुर्विशत्यधिक शतं १२४ तत्रैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छ-18
अनुक्रम [२७६]
Jaticantroll
~956~
Page #958
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१४९ ]
दीप
अनुक्रम
[२७६]
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १४९ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपचान्तिचन्द्री -
या इचि
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
॥४७७॥
| तानि विंशत्यधिकानि ३७२० तेषां सप्तदशभिः शतैः अष्टषष्ट्यधिकैर्भागे हते लब्धौ द्वौ मुहत्तौं, ततः छेद्यच्छेदकरा| श्योरष्टकेनापवर्त्तना जातः छेद्यो राशिखयोविंशतिः छेदकराशिों शते एकविंशत्यधिके जागतं मुहूर्त्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागास्त्रयोविंशतिः २३३ एतावता कालेन द्वे अर्जे मंडले परिपूर्णे चरति, किमुक्तं भवति ? - एतावता कालेन परिपूर्णमेकं मंडलं चन्द्रश्वरति । तदेवं चन्द्रमण्डलकालप्ररूपणा, अथैतदनुसारेण मुहूर्त्तगतिः, तत्र ये द्वे रात्रिन्दिवे ते मुहर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिर्मुहूर्त्ताः ६० उपरितनयोर्द्वयोः क्षेपे जाता द्वाषष्टिः, एषां सवर्णनार्थं द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितनांशत्रयोविंशतिः प्रक्षिप्यते, जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति, एतदेकमण्डलकालगत मुहूर्त्तसत्कैकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं, ततखैराशिककरणं, यदि त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मंडलभागा एकं शतसहस्रमष्टानवतिशतानि लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना १२७२५ । १०९८०० । १ । इहाथो राशिर्मुहूर्त्तगतैकविंशत्यधिकशतद्वयभागस्वरूपस्ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशिरेकलक्षणो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाम्यां गुण्यते, जाते द्वे शते एकविंशत्यधिके २२१, ताभ्यां मध्यो राशिर्गुण्यते, जाते द्वे कोयी | द्विचत्वारिंशलक्षाः पशपष्टिः सहस्राम्यष्टौ शतानि २४३६५८००, तेषां त्रयोदशभिः सहीः सप्तभिः शतैः पञ्चविंश| वर्मागो ह्रियते ब्धानि दश शतान्यषाधिकानि १७३८, एतावतो भानान् यत्र तत्र का मण्डले चन्द्रो
For P&Pase Cnly
~957~
अक्षरकारे
नक्षत्रम
ण्डलादि
सू. १४९
॥४७७॥
Page #959
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
मुहूसेन गच्छति, अयमर्य:-इष्टाविंशत्या नक्षत्रै लगत्या स्वस्वकालपरिमाणेम क्रमको यावत् . क्षेत्र बुया व्याप्यमाने | | सम्भाव्यते तावदेकमर्द्धमाडलमुपकरप्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमलमण्डलं द्वितीयाष्टाविंशतिनक्षत्रसस्कतत्तद्रा-18 गजमितमित्येवंयमाणबुद्धिपरिकल्पितमेकमण्डल श्छेदो ज्ञातव्यः एक खझ परिपूर्णानि चाष्टानवतिशतानि, कथमेतस्योत्प-18 त्तिरिति चेत्, उच्यते, इह त्रिविधानि नक्षत्राणि, तपथा-समक्षेत्राण्यर्द्धक्षेत्राणि वर्धक्षेत्राणि च, इह यावत्प्रमाणे क्षेत्रम-18 | होरात्रेण गम्यते सूर्येण तावत्प्रमाणे पन्द्रेण सह योग यानि नक्षत्राणि गच्छन्ति तानि समक्षेत्राणि, सम-अहोरात्र-18 प्रमित क्षेत्र येषां तानि समक्षेत्राणीति व्युत्पत्ती, तानि च पञ्चदश, तद्यथा--प्रवणं धमिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्वि-18 नी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मया पूर्वाफाल्गुनी हस्त: चित्रा अनुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति, तथा यानि अर्द्धमहोरात्र-18 प्रमित्तस्य क्षेत्रस्य चन्द्रेण सहयोगमश्चक्ते तान्यर्द्धक्षेत्राणि, अर्ध-अर्द्धप्रमाण क्षेत्रं येषां ताम्यर्द्धक्षेत्राणीति व्युत्पत्तिभावात्, तानि च षट् , तद्यथा-शतभिषक् भरणी आद्रो अश्लेषा स्वातिज्येष्ठेति, तथा द्वितीयमई या तत् घई सार्द्धमित्यर्थः,
बई-ग.नाधिक क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोग्य येषां तानि ब्यक्षेत्राणि, ताम्यपि षट्, तद्यथा-उत्तरभद्रपदोत्तर18 फल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुनर्वसु विशाखा चेति, तत्रेह सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः सप्तपष्टिभागीकृतः परिक
रूप्यते इति समक्षेत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः परिकरुप्यन्ते, अर्द्धक्षेत्राणां त्रयसिंकदर्ड, बर्द्धक्षेत्राणां शतमेकम च, अभिजिन्नक्षत्रस्वैकविंशतिः सवपष्टिभागाः, समक्षेत्राणि नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तपष्टिः पञ्चदशभिर्गुणयते, जातं
Deatscauseszaesesedcacakatara
अनुक्रम [२७६]
~958~
Page #960
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
भीजम्बू- सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अर्द्धक्षेत्राणि पडिति सा स्त्रयस्त्रिंशत् पडूभिर्गुण्यते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, व्यर्द्धक्षे- वक्षस्कारे
द्वीपशा- त्राण्यपि पटू ततः शतमेकम च पडिर्गुणितं जातानि षट् शतानि ध्युत्तराणि ६०३, अभिजिन्नक्षवैकविंशतिः, सर्वसं-18 नक्षत्रमन्तिचन्द्री-18 Kषया जाताग्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावद्भागपरिमाणमेकमर्द्धमंडलमेतावदेव द्वितीयमपीति
ण्डलादि या वृचिः
स्.१४९ || त्रिंशदधिकाम्यष्टादश शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पशिच्छतानि षष्ट्यधिकानि ३६६०, एकैकस्मिन्नहोराने किला 1४७८॥ त्रिंशन्मुहूर्ता इति प्रत्येकमेतेषु षष्ट-वधिकषट्त्रिंशच्छतसङ्ख्येषु भागेषु त्रिंशदूभागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेक
|| शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि १०९८००, तदेवं मंडलच्छेदपरिमाणमभिहितं, ननु यानि नक्षत्राणि यन्मण्डलस्था-18 यीनि तेषां तन्मंडलेषु चन्द्रादियोगयोग्यमंडलभागस्थापनं युक्तिमत् न तु सर्वेष्वपि मंडलेषु सर्वेषां भागकल्पनमिति
चेत , उच्यते, नहि नक्षत्राणां चन्द्रादिभियोगो नियते दिने नियते देशे नियतवेलायामेव भवति किन्स्यनियतदिनादौ । || तेन तत्तन्मंडलेषु तत्तन्नक्षत्रसम्बन्धिसीमाविष्कम्भे चन्द्रादिप्राप्तौ सत्यां योगः सम्पद्यत इति, मंडलच्छेदश्च सीमावि-18|
कम्भादी सप्तयोजनः, अथ सूर्यस्य भागात्मिकां गतिं प्रश्नयन्नाह-एगमेगे णं भन्ते !'इत्यादि, एकैकेन भगवन् ! 8 मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति?, गौतम! यद्यन्मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्य मंडलसम्बन्धिनः४७el
परिक्षेपस्याष्टादश भागशतानि त्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः छित्त्वा, कथमेतदवIS|सीयत इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिककरणात्, तथाहि-पष्ट या मुहूत्रेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मंडलभागाना
अनुक्रम [२७६]
~ 959~
Page #961
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Rememenea
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
लभ्यन्ते ततः एकेन मुहूर्तेन कति भागान् लभामहे, राशित्रयस्थापना-६० । १०९८००।१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात्, ततस्तस्यायेन राशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते, लब्धान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, अथ नक्षत्राणां भागात्मिकां गतिं प्रश्नयनाह-एगमेगे ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, उत्तरसूत्रे ||| तु गौतम! यद्यदात्मीयमात्मीयं प्रतिनियतं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तस्य तस्यात्मीयस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेरष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टनवत्या च शतैः छित्त्वा, || इहापि प्रथमतो मण्डलकालो निरूपणीयस्ततस्तदनुसारेणैव मुहूर्तगतिपरिमाणभावना, तत्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायां | 18 इदं त्रैराशिक-यद्यष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकः सकलयुगवत्तिभिरर्द्धमण्डलैर्द्वितीयाष्टाविंशतिनक्षत्रापेक्षया तु पूर्ण-1
मण्डलैरित्यर्थः अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकेन परिपूर्णेन 18 मण्डलेनेति भावः किं लभामहे?, राशित्रयस्थापना-१८३५। १८३०१२ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि
पत्रिंशच्छतानि पश्यधिकानि १६६०, तत आयेन राशिना १८३५ लक्षणेन भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं १,18 शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५, ततो मुहू नयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि 181 चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५०, तेषामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिर्भागे हते लब्धा 81
अनुक्रम [२७६]
0000000ws
~960~
Page #962
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
श्रीजम् एकोनविशन्मुह २९, तत शेषच्छेद्यच्छेदकराश्योः पाकेनापतना जास उपरितनों राशिखीणि शतानि सप्तोत्त- वक्षस्कारे न्तिचन्द्री-18
राणि ३०७ छेदकराशिस्त्रीणि शतानि सतपट्यधिकानि ३६७, सत आगतमेकं रात्रिन्दिक्मेकस्य च रात्रिन्दिवस्यै- नक्षत्रम
कोनत्रिंशम्भुहर्ताः एकस्य च मुहर्तव सक्षपश्यपिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सोत्तराणि १२९१४ । इदानी- ण्डलादि 18||मेतदनुसारेण मुहूसंगतिपरिमाणं चिन्त्यते, तत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः ३० तेषु उपरितमा एकोनविंशम्मुहर्ताः
सू.१४९ ॥४७॥ प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्तानां ततः सा सवर्णनार्थ त्रिभिः शतैः षष्टवधिकैगुण्यते, गुणयित्वा चोपरितनानि त्रीणि ||
तानि सप्तोसराणि प्रक्षिप्यन्ते जातान्येकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि षष्टयधिकानि १९६०, ततस्त्रैराशिकयदि मुहूर्त्तगतसप्तषष्ट-वधिकत्रिशतभागानामेकविंशत्या सहः नवभिः शतैः षष्टयधिकैरेके शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि ।। मण्डलभागानां लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना-२१९६० । १०९८००।१ अनायो
राशिर्मुहर्तगतसप्तपटवधिकत्रिशतभागरूपस्ततोऽन्त्योऽपि राशिस्त्रिभिः शतैः सप्तपष्ट वधिकैर्गुण्यते जातानि वीण्येच 18 18| शतानि सप्तपष्ट यधिकानि ३६७ तैर्मध्यो राशि ण्यते जाताश्चतन्त्रः कोटयो द्वे लक्षे षण्णवतिः सहस्राणि षट् शतानि 13
४०२५६१००, तेपामाधेन राशिना एकविंशतिसहस्राणि नव शतानि पश्यक्किानि इत्येवंरूपेण भागो हियते, लब्धा-188७९॥ न्यष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि १८३५, एतावती भागाला प्रतिमुहर्त गच्छति, इदं च भागात्मक गतिविचारणं चन्द्रादित्रयस्य क्योत्तर गतिशीलत्वे समयोजन, तथाहि-सर्वेभ्यो नक्षत्राणि शीमगतीनि, मण्डतखोक्तभागी-13
अनुक्रम [२७६]
~961~
Page #963
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप
कृतस्य पञ्चत्रिंशवधिकाटादशशतभागानामेकैकलिन् र आक्रमणात् , तेभ्यो मन्दगतयः सूर्याः, एकैकलिन् मुह त्रिंशदधिकाष्टादशभागानामाकमणात्, तेभ्यश्च मन्दनतयः एकैकलिन मुहूर्ते अष्टपटवधिकसप्तशतभागानामा-18 क्रमणात्, ग्रहास्तु वक्रानुवकादिगतिभाक्तोऽनियतातिकास्तेन न तेषां मण्डलादिचिन्ता नापि गतिमरुपणा, तार-IMS काणामध्यवस्थितमण्डलकत्वाचन्द्रादिभिः सह योगाभावचिन्तनाचन मण्डलादिप्ररूपणा कृता । सम्पति सूर्यखोदू-18॥ || गमनास्लमयने अधिकृत्य बहवो मिथ्याभिनिविष्टबुद्धयो विप्रतिपक्षास्तेन तद्विप्रतिपत्तिमपाकर्तुं प्रश्नमाह
जम्बुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिआ उदीणपाईणमुम्गच्छ पाईणदाहिणमाग/ति १ पाइणदाहिणमुरगाछ दाहिणपडीणमागच्छति २ दाहिणपडीणमुगच्छ पढीणउदीणमागच्छति ३ पडीणजदीणमुग्गच्छ उदीणपाइणमागच्छंति ४१, हंता गोभमा! जहा पंचमसए पढमे उसे जाव पथि उस्सप्पिणी अवदिए ण तत्थ काले पं० समणापसो!, इसा जन्चुरीवपण्णती सूरपण्णती वत्थुसमासेणं सम्पत्ता भवइ ।। जम्बुरीपे गं भंते! दीवे चंदिमा उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छति जहा सूरवत्सम्वया जहा पंचमसयस दसमे उद्देसे जाव अपट्ठिए ण तत्य काले पण्णते समणाउसो !, इसा जम्बुहरीवपण्णत्ती वत्थुसमासेणं सम्मत्ता भवइ । (सूत्र १५०) 'जम्बुद्दीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् , उदीचीनप्राचीनं उदगेय | उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वादुदीचीनप्राचीनं, अत्र स्वार्थे इन् प्रत्ययः,
अनुक्रम [२७६]
Elimited
~962~
Page #964
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ १५० ]
दीप
अनुक्रम
[२७७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १५० ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥४८० ॥
दिगन्तरं क्षेत्र दिगपेक्षयोत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे इत्यर्थः, अत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, उन्नत्य-पूर्वविदेहापेक्षयोदयं प्राप्य प्राचीनदक्षिणे दिगन्तरे प्राग्दक्षिणस्यामाग्नेय कोणे इत्यर्थः आगच्छतः क्रमेणैवास्तं यात इत्यर्थः इह चोद्गमनमस्तमयनं च द्रष्टृलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि - येषामदृश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां, ते तयोरुदयं व्यवहरन्ति, येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ तौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्तीत्यनियताबुदयास्तमयाविति, अत्र काकुपाठात् प्रश्नोऽव| गन्तव्यः, ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्राग्दक्षिणस्यामुद्गत्य दक्षिणप्रतीच्यामागच्छतस्तत्रापि दक्षिणप्रतीच्यामपर विदेहापेक्षयोद्गत्य प्रतीचीनोदीचीने - वायव्यकोणे आगच्छतस्तत्रापि च वायव्यामैरावतादिक्षेत्रापेक्षयोद्गत्योदी चीनप्रतीचीने| ईशानकोणे आगच्छतः, एवं सामान्यतः सूर्ययोरुदयविधिः, विशेषतः पुनरेवं यदेकः सूर्यः आग्नेयकोणे उद्गच्छति तत्रोङ्गतश्च भरतादीनि मेरुदक्षिणदिग्वत्तनि क्षेत्राणि प्रकाशयति तदा परोऽपि वायव्यकोणे उङ्गतो मेरूत्तरदिग्भावीन्यैरावतादीनि क्षेत्राणि प्रकाशयति, भारतश्च सूर्यो मण्डलाम्या भ्रमन् नैर्ऋतकोणे उद्गतः सन्नपरमहाविदेहान् प्रकाशयति, ऐरावतस्तु ऐशान्यामुङ्गतः पूर्वविदेहान् प्रकाशयति, ततः एष पूर्वविदेहप्रकाशको दक्षिणपूर्वस्यां भरता| दिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अपरविदेहप्रकाशकस्त्वपरोत्तरस्यामैरव तादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अत्रैशाम्यादिदिव्यवहारो मेरुतो बोध्यः, अभ्यथा भरतादिजनानां स्वस्वसूर्योदय दिशि पूर्व दिवे आग्नेयादिकोणव्यवहारानुपपत्तेरिति, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह - हन्तेत्यव्ययमभ्युपगमार्थे तेन हे गौतम । इत्थमेव यथा खं प्रश्नयति तथैवेत्यर्थः, अनेन
For P&Praise Cly
~963~
७वक्षस्कारे
सूर्यादेरी
Si
शान्यादाबुद्गमादिः सू. १५०
॥४८० ॥
Page #965
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
च सूर्यस्य तिर्यदिक्षु गतिरुक्ता, न तु 'तत्थ रवी दसजोअण'इत्यादिगाथोक्तस्वस्थानादूचं नाप्यधः, तेन ये मन्यन्ते । 'सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन गत्वा पुनः पूर्वेसमुद्रे उदेती'त्यादि, तम्मतं निषिद्ध मिति । अथ सूत्रकृद् अन्धगौर-1 वभयादतिदेशवाक्यमाह-यथा पञ्चमशते प्रथमे उद्देशके तथा भणितव्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत् णेवत्थि | उस्सप्पिणी नेवऽस्थि ओसप्पिणी अवढिए णं तत्थ काले पण्णत्ते' इति सूत्र, तद्यथा-'जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवइ तया णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरद्धे दिवसे भवइ तया णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स। पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं राई भवइ, हंता गोअमा! जया णं जम्युद्दीषे दीवे दाहिणद्धे दिवसे जाय राई भवइ.15 जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयस्स पुरथिमेणं दिवसे भवइ तया णं पञ्चस्थिमेणवि दिवसे भवइ, जया णं पञ्चत्थिमे णं दिवसे भवइ तथा णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवइ, हन्ता! गोअमा! जया णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयस्स पुरथिमेणं दिवसे जाव राई भवइ, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरद्धेवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं जहणिया
दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, हन्ता गोअमा! जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे जाव दुवालसमुहुत्ता राई भवद । जया Mण भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीये मंदरस्स पवयस्स पुरथिमेणं उक्कोसए अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जाव तया णं जम्बुद्दीवे ||
Saea000000000raseerata
दीप अनुक्रम [२७७]
भीजम्यू.
~964~
Page #966
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप
श्रीजम्बु-18/२ दाहिणेणं जाव राई भवइ, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं वक्षस्क
द्वीपशा-18| उत्त० अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ जया णं उत्तरद्धे अट्ठार. भवर तया णं जम्बुद्दीवे २ मंदर० पुरथिमेणं || मर्यादेरीन्तिचन्द्री-18सातिरेगा दुवालसमुहत्ता राई भवइ, हता! गोअमा! जया णं जम्बुद्दीवे २ जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्बु- शान्यादाया वृत्तिः दीवे २ मंदरस्त पुरस्थिमेणं अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तयाणं पञ्चस्थि०, जया णं पञ्चत्थिमेणं तया णं | बुद्गमादिः १८ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स० उत्तरदाहिणेणं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं एतेणं कमेणं ऊसारेअर्व, सत्तरस-1
सू.१५० मुहत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगतेरसमुहुत्ता राई सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहुत्ता ! राई सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा चोद्दसमुहुत्ता राई पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुप्ता राई पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे साइरेगपण्णरसमुहुत्ता राई चोद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरे
गसोलसमुहत्ता राई भवद तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगसत्तरसमुहुत्ता राई, ॥जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्सरद्धेवि, जया णं उत्तरद्धे
तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरथिमपञ्चत्थिमेणं उक्कोसिआ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ !, हता! गोअमा! एवं चेव उच्चारअर्व जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्बुद्दीवे २ मंदरपुरस्थिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ
॥४८॥ तया णं पञ्चत्थिमेणवि. जया णं पञ्चत्थिमेणवि. तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिआ अडा
अनुक्रम [२७७]]
~965~
Page #967
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
18 रसमुहुत्ता राई भवइ ?, हंता गोअमा! जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्बुद्दीये २ दाहिणद्धे वासाणं पढमे समए ।
पडिवजह तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमे समए पडिवजय, जया णं उत्तरद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ 18 तया णं जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयसि वासाणं पढमे समए पडिवजह?, 18ता गोअमा! जया णं भंते ! जम्बुद्दीवे २ दाहिणजे वासाणं पढमे समए पडिवजाइ तहेब जाव पडिवज्जइ, जया 18 भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स पबयस्स पुरस्थिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं पञ्चत्थिमेणऽवि वासाणं
पढमे समए, जया णं पञ्चत्थिमेणं वासाणं पढमे समए तया णं जाव मंदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणणं अणंतरपच्छाकडसमयसि वासाणं पढ़मे समए पडिवण्णे भवइ, हंता! गोअमा! जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरत्थि| मेणं एवं चेव सर्व उच्चारेअब जाव पडिवण्णे भवइ, एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं तहा आवलि
आएवि भणिअपो, आणापाणूवि थोवेणवि लवेणवि मुहुत्तेणवि अहोरत्तेणवि पक्खेणवि मासेणवि उऊणवि, एएसिं सधेसि जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणिअवो, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे २ हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताणवि गिम्हाणवि भाणिअबो, जाव उत्तर०, एवं एए तिण्णिवि, एतेसि तीसं| आलाचगा भाणिवा, जया णं भंते! जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स दाहिणजे पढमे अयणे पडिवज्जा तया णं उत्तरद्धेवि पढमे अयणे पडिवजइ जहा समएणं अभिलायो तहेच अयणेणवि भाणिअबो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे
Saerao
दीप
अनुक्रम [२७७]]
~966~
Page #968
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप
अयणे पडिवणे भवइ, जहा अयणेणं अभिलायो तहा संवच्छरेणवि भाणिअबो जुएणवि वाससएणवि वाससह-18|| प्रकारे द्वीपशा-8 स्सेणवि वाससयसहस्सेणवि पुवंगेणवि पुणवि तुडिअंगेणवि तुडिएणवि, एवं पुवे २ तुडिए २ अडडे २ अववे 28 सूर्यादेरीन्तिचन्द्री- हहए २ उप्पले २ पउमे २ णलिणे २ अत्थणि उरे २ अउए २णउए अ२ पउए अ२ चूलिए अ२ सीसपहेलिए अ || शान्यादाया वृचिः पलिओवमेणवि सागरोवमेणवि भाणिअबो, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणब्रे पढमा ओसप्पिणी पडिवजह ॥४८२॥
। तया णं उत्तरद्धेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ, जया णं उत्तरद्धे पढमा तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुर-18 धिमपञ्चधिमेणं-वधि ओसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी अवहिए तत्व काले पण्णते समणाउसो!, हंता गोअमा! तं चेव उच्चारेअब जाव समणाउसो!, जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्सप्पिणीएवि भाणिअयो'त्ति || अत्र व्याख्या-अथोक्तक्षेत्रविभागानुसारेण दिवसरात्रिविभागमाह-यदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मेरुतो दक्षिणाढ़ेंदक्षिणभागे दिवसो भवति तदोत्तराद्धेऽपि दिवसो भवति, एकस्य सूर्यस्यैकदिशि मण्डल चारेऽपरस्य सूर्यस्य तत्सम्मुखीनायामेवापरस्यां दिशि मण्डलचारसम्भवात् , इह यद्यपि यथा दक्षिणाढ़े तथोत्तरार्द्ध इत्युकं तथापि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोध्यं, अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् , यतो यदि दक्षिणाः उत्तरार्द्धं च समग्र एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत?, अर्द्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात् , इतश्च दक्षिणा दिशब्देन ॥४८॥ दक्षिणादिभागमात्रमवसेयं, नत्व, तदा च जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च रानिर्भवति, तत्रैक-18॥
अनुक्रम [२७७]]
909a
~967~
Page #969
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ १५० ]
दीप
अनुक्रम
[२७७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १५० ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
स्यापि सूर्यस्याभावात् इत्येवं काक्का प्रश्ने कृते भगवानाह - 'हंता ! गोअमेत्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्धे दिवसो यावद्रात्रिर्भवतीत्यन्तं प्रत्युच्चारणीयं । क्षेत्रपरावृत्त्या दिवसरात्रिविभागं पृच्छन्नाह - यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण दिवसो भवति तदा पश्चिमायामपि दिवसो भवति, प्रागुक्तयुक्तेरेव, यदा च पश्चिमायां दिवसस्तदा मेरोर्दक्षिणोत्तरयो रात्रिः, प्रश्नसूत्रं चैतत्, 'हंता ! गोअमे' त्यादि उत्तरसूत्रं तथैव, उक्तः सामान्यतो दिवसरात्रिविभागः, सम्प्रति तमेव विशेषत आह-यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाऐं उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो | भवतीत्यादिकं सूत्रं प्रायो निगदसिद्धं, तथापि किञ्चिदेतद्वृत्त्यादिगतं लिख्यते-इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्ड| लशतं भवति, तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिर्मण्डलानि भवन्ति, एकोनविंशत्यधिकं च शतं तेषां लवणसमुद्रमध्ये भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा सूर्यो भवति तदाऽष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, यदा सर्ववाये मण्डले सूर्यो भवति तदा सर्वजघन्यो द्वादशमुत्तों दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहसँकपष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्धौ त्र्यशीत्यधिकशततममण्डले पटू मुहूर्त्ता वर्द्धन्त इत्येवमष्टादशमुत्तों दिवसो भवति, अत एव द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्य, 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे'ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले सूर्यो भवति तदा मुहूसैंकषष्टिभागद्वयहीनोऽष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, स चाष्टा दशमुहर्त्तादिवसादनन्तरोऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तर इति व्यपदिष्टः, 'सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राइ'ति तदा द्वाभ्यां मुहर्त्तकपष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमु
For P&Perase Cl
~968~
Page #970
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]]
श्रीजम्प हुर्ता रात्रिर्भवति, यावता भागेन दिनं हीयते तावता रात्रिर्वद्धते, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्येति, 'एवं एएणं कमेणं ति वक्षस्कारे द्वीपशा- एवमित्युपसंहारे एतेनानन्तरोक्तेनोपायेन 'जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे' इत्येतेनेत्यर्थः, 'ऊसारेअवंति सूर्यादेरी| दिनमानं इस्वीकार्य, तदेव दर्शयति-'सत्तरसे त्यादि, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलादारभ्यैकत्रिंशत्तममण्डला ||
शान्यादाया भूचिः
| यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूत्तों दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहर्ता च रात्रिरिति, 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे'त्ति ॥४८॥
मुहूर्त्तकषष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसोऽयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्द्धं भवति, एवमनन्तर-18 मुहतकपाटमा त्वमन्यत्राप्यूह्यं, 'सातिरेगतेरसमुहुत्ता राइ'त्ति मुहूर्त्तकपष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वं, एवं सर्वत्र, 'सोलसमुहुत्ते दिवसे'त्ति, द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले पोडशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे'त्ति द्विनवतितममण्डलार्दै वर्त-18 माने सूर्ये चोदसमुहत्ते दिवसे'त्ति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले 'तेरसमुहुने दिवसे'त्ति सार्द्धद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे
मण्डले 'बारसमुहुत्ते दिवसे'त्ति त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्ये इत्यर्थः ! कालाधिकारादिदमाह-'जया णं भन्ते ! 18 जम्बुद्दीये २ दाहिणद्धे वासाण'मित्यादि, 'वासाण'मिति चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य सम्बन्धी प्रथमः-आद्यः समयः
क्षणः प्रतिपद्यते, सम्पद्यते भवतीत्यर्थः, तदोत्तरार्द्धऽपि वर्षाणां प्रथमः समयो भवति, समकालनैयत्येन दक्षिणाः || ॥४८३॥ | उत्तरार्दै च सूर्ययोश्चारभावात् , यदा चोत्तरार्द्ध वर्षाकालस्य प्रथमः समयः तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य | पूर्वापरयोर्दिशोरनन्तरपुरस्कृते समये अनन्तरो-निर्व्यवधानो दक्षिणावर्षाप्रथमतापेक्षया स चातीतोऽपि स्थादत
~969~
Page #971
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप
आह-पुरस्कृतः-पुरोवर्ती भविष्यन्नित्यर्थः समयः प्रतीतः ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयोऽतस्तत्र, तथा अनन्तरं पश्चातकृते समये पूर्वापरविदेहवांप्रथमसमयापेक्षया योऽनन्तरः पश्चात्कृत:-अतीतः समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोवपाकालप्रथम-| समयो भवतीति, इह यस्मिन् समये दक्षिणाढ़ें उत्तरार्द्धं च वर्षाकालस्य प्रथमः समयः तदनन्तरे अग्रेतने द्वितीये। समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमः समयो भवतीत्येतावन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोः वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चानाविनि समये दक्षिणोत्तरार्द्धयोः वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तत्किमर्थमस्योपादानं ?, उच्यते, इह कमोरक्रमाभ्यां अभिहितोऽर्थः प्रपञ्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्ते-18 षामनुग्रहायैतदुक्तमित्यदोषः। 'एवं जहा समएण'मित्यादि, एवं यथा समयेन वर्षाणामभिलापो भणितस्तथा आव|लिकाया अपि भणितव्यः, स चैवं-'जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवज्जइ तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, जया णं उत्तरद्धे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ तया, णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पवयस्स पुरथिमपञ्चधिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, तया णं जम्बुद्दीये दीवे मन्दरस्स पथयस्स पुरत्धिमपञ्चस्थिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडियजइ ?, हंता गोअमा! जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे बासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ तहेव जाव पडिवज्जइ, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पबयस्स पुरथिमेण वासाणं पढमा आवलिआ पडि
अनुक्रम [२७७]]
~970~
Page #972
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
श्रीजम्बू- वजइ, जया णं पञ्चस्थिमेणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, तया णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स परयस्स उत्तरदाहिणणं वक्षस्कारे द्वीपशा- अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवण्णा भवइ?, हता! गोअमे त्यादि, तदेवोच्चारणीयमित्यर्थः, सूर्यादेरीन्तिचन्द्री एवं आनप्राणादिपदेष्वपि, आवलिकाद्यर्थस्तु प्राग्वत्, 'हेमंताणं'ति शीतकालचतुर्मासानां, 'गिम्हाण'ति ग्रीष्माणां शान्यादा या वृत्तिः || चतुर्मासानां, 'पढमे अयणे'ति दक्षिणायनं श्रावणादित्वात् संवत्सरस्य 'जुएणवि'त्ति युगं पंचसंवत्सरमानं, अत्र।
बुगमादिः 1४८४॥ ||च युगेन सहेत्यतिदेशकरणात् युगस्यापि दक्षिणोत्तरयोः पूर्वसमये प्रतिपत्तिः प्रागपरयोस्तु तदनन्तरे पुरोवर्तिनि ।
समये प्रतिपत्तिः, ज्योतिष्करण्डे तु-सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइणक्खत्ते । सबत्थ पढमसमए जुगस्स || आई विआणाहि ॥१॥" इत्यस्या गाथाया व्याख्याने सर्वत्र भरते ऐरवते महाविदेहेषु च श्रावणमासे बहुलपक्षे-131 कृष्णपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे प्रथमसमये युगस्यादि विजानीहीतीदं वाचनान्तरं ज्ञेयं, यतो ज्योतिष्करण्डसूत्रकर्ता आचार्यों वालभ्यः एष भगवत्यादिसूत्रादर्शस्तु माथुरवाचनानुगत इति न किञ्चिदनुचितं, युक्त्या-18 नुकूल्यं तु न युगपत्प्रतिपत्तिसमये सम्भावयामः, तथाहि-सबे कालविसेसा सूरपमाणेण हुंति नायब्वा' इति वच-S
दीप
अनुक्रम [२७७]]
90996
॥४८॥
१ मारापक्षतिधिकरणादीनां सर्वेषामप्यनन्तरतया भवनाद तत्तत्क्षेत्रविवक्षया समस्परावृत्या मासादीनां भवनं सर्वत्र पोसवेव मासाविषु गुगादिरितिन कोऽपि 18| वाचनान्तरताहेतुः, चन्द्रकर्मसंवत्सराणां प्रतिवर्षे समादिपर्यवसानते न स्तः किंतु युगाद्यन्तयोरेवेति वचन प्रयोजनं हायते ॥
See
~971~
Page #973
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप
नाद् यदि सूर्यचारविशेषेण कालविशेषप्रतिपत्तिर्दक्षिणोत्तरयोराद्यसमये प्रागपरयोरुत्तरसमये तर्हि दक्षिणोत्तरप्रतिपत्ति-13 समये पूर्वकालस्यापर्यवसानं वाच्यं, पूर्वापरविदेहापेक्षयाऽस्त्येव तदिति चेत् सूर्ययोश्चीर्णचरणं अपरं वा सूर्यद्वयं वाच्यं, ॥ ययोश्चारविशेषाद्दक्षिणोत्तरप्रतिपत्तिसमयापेक्षयोत्तरसमये पूर्वापरयोः कालविशेषप्रतिपत्तिरित्यादिको भूयान् परवचनावकाश इत्यलं प्रसङ्गेन, 'पुचंगेणवित्ति पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणं "पुवेणवित्ति पूर्व-पूर्वाश्रमेव चतुरशीति
वर्षलक्षगुणित, एवं चतुरशीतिवर्षलक्षगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति, चतुर्णवत्यधिक चाङ्कशतमन्तिमे स्थाने भवतीति, 18|| 'पढमा ओस्सप्पिणीति अवसर्पिण्या: प्रथमो विभागः प्रथमाऽवसर्पिणी, 'जया णं भन्ते! दाहिणद्धे पढमा ओस-10
प्पिणी पडिवजाइ तया णं उत्तरद्धेवि,' इत्यादि व्यक्तं, नवरं नैवास्त्यवसर्पिणी नैवास्त्युत्सर्पिणी, कुत इत्याह-अवस्थितः-सर्वथा एकस्वरूपस्तत्र कालः प्रज्ञप्तः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, अथ प्रस्तुताधिकारमुपसंहरनाह-'इचेसा| जम्बुद्दीये' इत्यादि, इत्येषा-अनन्सरोकस्वरूपा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः-आद्यद्वीपस्य यथावस्थितस्वरूपनिरूपिका ग्रन्थपद्धतिस्तस्यामस्मिन्नुपाङ्गे इत्यर्थः, सूत्रे च विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , सूर्यप्रज्ञप्ति:-सूर्याधिकारप्रतिबद्धा पदपद्धतिर्वस्तूनां-मण्डलसङ्ख्यादीनां समास:-सूर्यप्रज्ञप्त्यादिमहामन्यापेक्षया संक्षेपस्तेन समाप्ता भवति । अथ चन्द्रवक्तव्यप्रक्षमाह-'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे चन्द्राबुदीचीनप्राचीनदिग्भागे उद्गत्य प्राचीनदक्षिणदिभागे आगच्छतः इत्यादि यथा सूरवक्तव्यता तथा चन्द्रवक्तव्यता, यथा वाशब्दोऽत्र गम्यः पञ्चमशतस्य दशमे उद्दे
अनुक्रम [२७७]]
98089939890
~972 ~
Page #974
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक
[१५०]
दीप
श्रीजम्य-18| शके चन्द्रनानि, कियत्पर्यन्तं सूत्रं ग्राह्यमित्याह-यावदवस्थितः तत्र कालः प्रज्ञप्तः हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! इति, 8 वक्षस्कारे
अत्राप्युपसंजिहीर्घराह-'इथेसा'इत्यादि, व्याख्यानं पूर्ववत्, परं सूर्यप्रज्ञप्तिस्थाने चन्द्रप्रज्ञप्तिर्वाच्या ॥ एतेषां ज्योति-181 संवत्सरन्तिचन्द्री
भेदा:सू. या वृत्तिः काणां चारविशेषात् संवत्सरविशेषाः प्रवर्त्तन्त इति तबेदप्रश्नमाह- .
१५१ कति णं भन्ते ! संवच्छरा पण्णता?, गो०! पंच संवच्छरा पं०, तं०-णक्खत्तसंवच्छरे जुगसंवच्छरे पमाणसंबच्छरे ॥४८॥
लक्खणसंवाछरे सणिच्छरसंवच्छरे । णक्खत्तसंवच्छरे णं भन्ते! कइविहे पण्णत्ते ?, गोअमा! दुवालसविहे पं०, २०साबणे भद्दवए आसोए जाव आसाढे, अं वा बिहप्फई महग्गहे दुवालसहि संघच्छरेहिं सवणक्वत्तमंडलं समाणेइ सेत्तं णक्यत्तसंवच्छरे । जुगसंबच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोअमा! पंचविहे पं०, तंजहा-चंदे चंदे अभिवद्धिए चंदे अभिबद्धिए चेवेति, पढमस्स णं भन्ते ! चन्दसंवच्छरस्स कइ पचा पण्णता?, गो० चोवीसं पव्वा पण्णता, वितिअस्स भन्ते ! चन्दसंबच्छरस्स कइ पवा पण्णत्ता, गो०! चउब्बीसं पवा पण्णता, एवं पुच्छा ततिभस्स, गो०! छब्बीसं पन्ना ५०, च उत्थस्स चन्दसंवच्छरस्स चोवीसं पब्वा, पंचमस्स णं अहिवद्धिअस्स छब्बीस पव्वा य पण्णसा, एवामेव समुज्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुए एगे चउब्बीसे पपसय पण्णत्ते, सेसं जुगसंवच्छरे । पमाणसंवरछरे णं भन्ते ! कतिबिहे पण्णते?, गोभमा!
॥४८५॥ पंचविहे पणते, तंजहा-णक्खत्ते चन्दे उऊ आइचे अमिवद्धिए, सेत्तं पमाणसंवच्छरे इति । लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णते?, गोभमा ! पंच विहे पण्णत्ते, तंजहा—समयं नक्खत्ता जोगं जोति समयं उऊं परिणामति । णभुण्ह णाइसीभो वहूदओ
अनुक्रम [२७७]]
अथ संवत्सराणां नक्षत्र-संवत्सर आदि पञ्चभेदानाम् प्ररुपणा क्रियते
~973~
Page #975
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
होइ णक्खत्ते ॥१॥ ससि समगपुण्णमासि जोपती विसमचारिणक्खता । कडुओ बहुदओ आ तमाहु संबच्छरं चन्दं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमन्ति अणुऊसु दिति पुष्कफलं । वासं न सम्म वासइ तमाहु संवच्छर कर्म ॥३॥ पुढविदगाणं च रस पुप्फफलाणं च देव आइयो । अपेणवि वासेणं सम्म निष्फजए सरसं ॥ ४॥ आइचतेअतविआ खणलब दिवसा उक परिणमन्ति । परेड अणिण्णयले तमाद अभिवद्धिों जाण ॥ ५॥ सणिच्छरसंवच्छरे णं भन्ते! कतिविहे पण्णते?, गोअमा! अट्ठाविसहविहे पण्णते, तंजहा-अभिई सवणे धणिट्ठा सथमिसया दो अ होति भवया । रेवइ अस्सिणि भरणी कत्तिअ तह रोहिणी चेव ॥१॥ जाव उत्तराओ आसाटाओ जं वा सणिच्चरे महगहे तीसाए संवच्छरेहि सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाइ सेत्तं सणिचरसंवच्छरे (सूत्रं १५१)।
तत्र नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रश्चारं चरन् यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्र-1 पर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो मासः, यदिवा चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्र, स च द्वादशगुणो नक्षत्रसंवत्सरः, तथा युगसंवत्सरः पञ्चसंवत्सरात्मक युगं तदेकदेशभूतो वक्ष्यमाणलक्षणच-18
न्द्रादियुगपूरकत्वाद्युगसंवत्सरः, प्रमाण-परिमाणं दिवसादीनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाण2| संवत्सरः, स एव लक्षणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः, यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमथवा 1 द्वादशापि राशीन भुङ्क्ते स शनैश्चरसंवत्सर इति । नामनिरुक्तमुक्त्वाऽथतेषां भेदानाह-णक्खत्त'इत्यादि, नक्षत्र
न
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~974 ~
Page #976
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
संवत्सर
१५१
गाथा:
श्रीजम्यू- संवत्सरो भगवन् ! कतिविधः प्रज्ञप्त?, गौतम! द्वादश विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रावणः भाद्रपदः आश्विनः यावत्प- वक्षस्कारे द्वीपशा- दात् कार्तिकादिसंग्रहः, द्वादश आषाढः, अयं भावः-इह एकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंन्तिचन्द्रीवत्सरः, ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादशसमस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावणभाद्रपदादिनामानस्तेऽप्यवयवे समुदा
भेदाः सू. या वृत्तिः
योपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः, ततः श्रावणादिद्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः, वा इति पक्षान्तरसूचने, अथवा बृहस्पति॥४८॥ महामहो द्वादशभिः संवत्सरः योगमधिकृत्य यत्सर्वं नक्षत्रमण्डलमभिजिदादीन्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिसमापयति
तावान् कालविशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। अथ द्वितीयः 'जुगसंवच्छरे' इत्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे गौतम! युगसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तथाहि-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्धितश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्च, चन्द्रे भवश्चान्द्रः, युगादौ ।
श्रावणमासे बहुलपक्षप्रतिपदः आरभ्य यावत्पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मासः, एकपूर्णिमासीपरा1 वर्तश्चान्द्रो मास इतियावत् , अथवा चन्द्रनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः, स च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरः,
चन्द्रमासनिष्पनत्वादिति, द्वितीयतुर्यावप्येवं व्युत्पत्तितोऽवगन्तव्यौ, तृतीयस्तु युगसंवत्सरोऽभिवड़ितो नाम मुख्यतलखयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरो द्वादश चन्द्रमासप्रमाणः संवत्सर उपजायते, कियता कालेन सम्भवतीत्युच्यते-॥ ॥४८॥ 1 इह युगं चन्द्रचन्द्राभिवद्धितचन्द्राभिवद्धितरूपपञ्चसंवत्सरात्मक सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि ।
पंच वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमासश्चैकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिर्भागा दिनस्य ।
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~975~
Page #977
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
॥ ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चान्द्रमासोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा|
पूर्वाचार्यप्रदर्शितेयं करणगाथा"चंदस्स जो विसेसो आइच्चस्स य हविज मासस्स । तीसइगुणिओ संतो हवइ हु अहि-18 मासगो इको ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-आदित्यसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति 8 | विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् साईत्रिंशदहोरात्ररूपाचन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते ततः स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वापष्टिभागेन न्यूनं तच दिन त्रिंशता गुण्यते जातानि विंशदिनानि एकश्च द्वापष्टिभागविंशता गुणितो जाताः त्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ते त्रिंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशव द्वापष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमास इति भवति सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मा-N सातिक्रमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्ठिः ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशम्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्तं च-"सट्ठीए अइआए हवा हु अहिमासगो जुगद्धमि। बावीसे पचसए हवइ अ बीओ जुगंतमि ॥१॥" अस्याप्यक्षरगमनिका-एकस्मिन् युगे-अनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणां-पक्षाणां षष्ठौ अतीतायां-पष्ठिसङ्ग्येषु पक्षेष्वतिक्रान्तेषु इत्यर्थः एतस्मिन् अवसरे युगाढ़ें-युगाईप्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति, द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशेद्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽतिकान्ते युगस्यान्ते-युगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिक
Entestatemesekesercedees
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
कीजम्बू. ८२
~976~
Page #978
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
श्रीजम्बू
न्तिचन्द्री
गाथा:
मासः पञ्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवर्द्धि तसंवत्सरौ, यद्यपि सूर्यवर्षपंचकात्मके युगे चन्द्रमासद्वयवनक्षत्रमासाधिक्यसम्भ- वक्षस्कारे वस्तथापि नक्षत्रमासस्य लोके व्यवहाराविषयत्वात् , कोऽर्थः-यथा चन्द्रमासो लोके विशेषतो यवनादिभिश्च व्यवहि-18 संवत्सर
यते तथा न नक्षत्रमास इति, एतेषां च नक्षत्रादिसंवत्सराणां मासदिनमानानयनादि प्रमाणसंवत्सराधिकारे वक्ष्यते । या वृत्तिः 18| एते च चन्द्रादयः पञ्च युगसंवत्सराः पर्षभिः पूर्यन्ते इति तानि कति प्रतिवर्ष भवन्तीति पृच्छन्नाह-'पढमस्स ण'-18 ॥४८७॥
मित्यादि, प्रथमस्य-युगादी प्रवृत्तस्य भगवन् ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि-पक्षरूपाणि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम! चतुर्वि|| शतिः पर्वाणि, द्वादशमासात्मके(कत्वेनास्य प्रतिमासं पर्वद्वयसम्भवात् , द्वितीयस्य चतुर्थस्य च प्रश्नसूत्रे एवमेव, I 18|| अभिवर्धितसंवत्सरसूत्रे षड्राविंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदश चन्द्रमासात्मके(कत्वे)न प्रतिमासं पर्वद्वयसम्भवात् , एवम
न्योऽभिवद्धिंतोऽपि, सर्वानमाह-एवमेव पूर्वापरमीलनेन चतुर्विशं पर्वशतं भवतीत्याख्यातम् । अथ तृतीयः- पमाणसंवच्छरे' इत्यादि, प्रमाणसंवत्सरः कतिविधः प्रज्ञप्तः, गौतम ! पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नाक्षत्रं चान्द्रः ऋतुसंवत्सरः
आदित्यः अभिवधितच, अत्र नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धिताख्याः स्वरूपतः प्रागभिहिताः, ऋतवो-लोकप्रसिद्धा वसन्तादयः । 18 तद्व्यवहारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, ग्रन्थान्तरे चास्य नाम सावनसंवत्सरः कर्मसंवत्सर इ(च)ति, आदित्यचारेण ।
S४८७॥ दक्षिणोत्तरायणाभ्यां निष्पन्नः आदित्यसंवत्सरः। प्रमाणप्रधानत्वादस्य संवत्सरस्य प्रमाणमेवाभिधीयते, तस्य च मास-18 प्रमाणाधीनत्वादादी मासप्रमाणं, तथाहि-इह किल चन्द्रचन्द्राभिर्वर्द्धितचन्द्राभिवतिनामकसंवत्सरपंचकप्रमाणे युगे
Area
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~977~
Page #979
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [१५१]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२७८
-२८४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १५१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
| अहोरात्रराशित्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो भवति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वाऽयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकं युगे च पंच दक्षिणायनानि पंच चोत्तरायणानि इति सर्वसङ्ख्यया दशायनानि, ततख्यशीत्यधिकं दिनशतं दशकेन गुण्यते इत्यागच्छति यथोक्तो दिनराशिः, एवंप्रमाणं दिनराशि स्थापयित्वा नक्षत्रचन्द्रऋत्वादिमासानां दिनानयनार्थं यथाक्रमं सप्तषष्टचे कषष्टिषष्टिद्वाषष्टिलक्षणैर्भागहारैर्भागं हरेत्, ततो यथोक्तं नक्षत्रादि| मासचतुष्कगतदिनपरिमाणमागच्छति, तथाहि--युगदिनराशि १८३० रूपः अस्य सप्तषष्टिर्युगे मासा इति सप्तषष्टचा भागो हियते, यलब्धं तन्नक्षत्रमासमानं, तथाऽस्यैव युगदिनराशेः १८३० रूपत्व एकषष्टिर्युगे ऋतुमासा इति एकषष्ट्या भागहरणे लब्धं ऋतुमासमानं, तथा युगे सूर्यमासाः षष्टिरिति ध्रुवराशेः १८३० रूपस्य पष्टथा भागहारे यल्लब्धं तत्सूर्यमासमानं, तथाऽभिवर्द्धिते वर्षे तृतीये पंचमे वा त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति तद्वर्षं द्वादशभागीक्रियते तत एकैको भागोऽभिवर्द्धितमास इत्युच्यते, इह किलाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रयोदशचन्द्रमासमानस्य दिनप्रमाणं त्र्यशीत्यधिकानि श्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागाः, कथमिति चेत्, उच्यते- चन्द्रमासमानं दिन २९ ३३ एतद्रूपं त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि सप्तसप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि दिनानां, षोडशोत्तराणि चत्वारि शतानि चांशानां ते च दिनस्य द्वाषष्टिभागास्ततो दिनानयनार्थ द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि षड् दिनानि तानि च पूर्वोक्तदिनेषु मील्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, ततो वर्षे द्वादश मासा ( इति मासा ) नयनाय
For P&Pase Cnly
~978~
Page #980
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५१]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२७८
-२८४]
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १५१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥४८८||
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
| द्वादशभिर्भागो हियते उच्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च द्वादशानां भागं न प्रयच्छन्ति | तेन यदि एकादश चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागमीलनार्थं द्वापष्ट्या गुण्यन्ते तदा पूर्णो राशिर्न त्रुय्यति शेषस्य विद्यमानत्वात् तेन सूक्ष्मेक्षिकार्थ द्विगुणीकृतया द्वापष्ट्या चतुर्विशत्यधिकशतरूपया एकादश गुण्यन्ते जातं १३६४ चतुचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा अपि सवर्णनार्थं द्विगुणीक्रियन्ते कृत्वा च मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं १४५२, एषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां एतावदभिवर्द्धितमासप्रमाणं एतेषां क्रमेणाङ्कस्थापना यथा - इदं च नाक्षत्रादिमासमानं, वर्षे द्वादश मासा इति द्वादशगुणं स्वस्ववर्षमानं जनयन्ति, स्थापना यथा -
दिन. २७ २९ ३० ३० ३१
भाग, २१ ३२ ० ३० ० ६२. ६२ ०
१२१ ६० १२४
नक्षत्र: चन्द्रः ऋतुः सूर्यः अभिव०
०
दिन
भाग
०
~979~
३२७ ३५४ ५१ - १२ ६७ ६७
For P&Praise Cinly
३६० ३६६ ३८३ ० ४४
0 ६२
नाक्षत्रादिसंवत्सरमानं स एष प्रमाण संवत्सर इति निगमनवाक्यं, एषां च मध्ये ऋतुमासऋतुसंवत्सरावेव लोकैः | पुत्रवृद्धिकलान्तरवृद्ध्यादिषु व्यवहियेते, निरंशकत्वेन सुबोधत्वात् यदाह - "कम्मो निरंसयाए मासो ववहारकारगो
०
अक्षरकारे संवत्सरभेदाः सू. १५१
४८८॥
Page #981
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
coercedeseseseseseemesesement
लोए । सेसार संसयाए ववहारे दुकरा घेत्तुं ॥१॥" अत्र व्याख्या-आदित्यादिसंवत्सरमासानां मध्ये कर्मसंवत्सर-18 सम्बन्धी मासो निरंशतया पूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणतया लोकव्यवहारकारकः स्यात् , शेषास्तु सूर्यादयो व्यवहारे ग्रहीतुं । दुष्कराः सांशतया न व्यवहारपथमवतरन्तीति, निरंशता चैवं-पष्टिः पलानि घटिका ते च द्वे मुहूर्तः ते च त्रिंशदहोरात्रः ते च पञ्चदश पक्षः तौ द्वौ मासः ते च द्वादश संवत्सर इति, शाखवेदिभिस्तु सर्वेऽपि मासाः स्वस्वकार्येषु नियोजिताः, तथाहि-अत्र नक्षत्रमासप्रयोजनं सम्प्रदायगम्यं । “वैशाखे श्रावणे मार्गे, पौषे फाल्गुन एव हि । कुर्वीत वास्तुप्रारम्भ, न तु शेषेषु सप्तम् ॥१॥” इत्यादौ चन्द्रमासस्य प्रयोजन, ऋतुमासस्य तु पूर्वमुक्त, 'जीवे सिंहस्थे । धन्विमीनस्थितेऽकें, विष्णी निद्राणे चाधिमासे न लग्नं' इत्यादौ तु सूर्यमासाभिवतिमासयोरिति, पूर्व नक्षत्रसंवत्स-1 रादयः स्वरूपतो निरूपिताः अत्र तु दिनमानानयनादिप्रमाणकरणेन विशेषेण निरूपिता इति न पौनरुक्त्यं विभाव्यम् , निशीथभाष्यकाराशयेन 'नक्षत्रचन्द्रर्तुसूर्याभिवर्द्धितरूपकं मासपञ्चकं तद्द्वादशगुणः संवत्सर' इति संवत्सरप-18 अकमेव युक्तिमत् , अन्यथा उद्देशाधिकारे नक्षत्रसंवत्सरोद्देशकरणं युगसंवत्सराधिकारे चन्द्राभिवर्द्धितयोरुद्देशकरणं पुनः प्रमाणसंवत्सराधिकारे तेषामेव प्रमाणकरणमित्यादिकं गुरवे गौरवाय भवति, यत्तु स्थानानचन्द्रप्रज्ञस्यादावत्र | चोपाङ्गे इत्थं संवत्सरपञ्चकवर्णनं तद् बहुश्रुतगम्यम्, अथ लक्षणसंवत्सरप्रश्नमाह-लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते । इत्यादि, लक्षणसंवत्सरो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः, गौतम! पंचविधः प्रज्ञप्तः, नक्षत्राविभेदात्, तद्यथा-समक-11
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
seRCH
~ 980~
Page #982
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
| समतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि योग-कार्तिकीपूर्णिमास्यादितिथिभिः सह सम्बन्धं योजयन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, इदमुक्त वक्षस्कारे
| भवति-यानि नक्षत्राणि यासु तिथिपूत्सर्गतो भवन्ति-यथा कार्तिक्या कृत्तिकास्तानि तास्वेव यत्र भवन्ति, यथोक्तम्- संवत्सरन्तिचन्द्री- "जेट्ठो वच्चइ मूलेण, सावणो धणिवाहिं । अद्दासु अ मग्गसिरो, सेसा नक्खत्तनामिआ मास ॥१॥"त्ति, तथा यत्र
भेदा: म. या चिः18
समतयैव ऋतवः परिणमन्ति न विषमतया, कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्त ः रूपौय्याः अनन्तरं शिशिरतुरित्येवमवत-18 ॥४८॥ रन्तीति भावः, यश्च संवत्सरो नात्युष्णः नातिशीतः तथा च बहूदकः स च भवति लक्षणतो निष्पन्न इति नक्षत्रचा
। रलक्षणलक्षितत्वात् नक्षत्रसंवत्सर इति, अत्र गाथाच्छन्दसि प्रथमाढ़ें मात्राया आधिक्यमध्यात्वादस्य न दुष्ट, न ||
ह्यार्षाणि छन्दांसि सर्वाणि व्यक्त्या वक्तुं शक्यानि, किश्च यथादर्शनमनुसतव्यानि, एवमन्यत्रापि ज्ञेयमिति । अथ चन्द्रः'ससि समग'इत्यादि, विभक्तिलोपात् शशिना समकं योगमुपगतानि विषमचारीणि-मासविसदृशनामकानि नक्षत्राणि
तां तां पौर्णमासीं-मासान्ततिथिं योजयन्ति-परिसमापयन्ति यस्मिन्निति गम्यं, यश्च कटुक:-शीतासपरोगादिदोषब-18 18| हुलतया परिणामदारुणो बहूदकः, चस्स दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , तमाहुमहर्षयश्चान्द्र-चन्द्रसम्बन्धिनं चन्द्रानुरोधात् ||
तत्र मासानां परिसमाप्तेः, न माससदृशनामकनक्षत्रानुरोधतः। अथ कर्माख्या-'विसम'मित्यादि, यस्मिन् संवत्सरे ॥४८९॥ वनस्पतयो विषम-विषमकालं प्रवालिनः परिणमन्ति-प्रवाला:-पल्लवायुरास्तधुकतया परिणमन्ति, तथा अनृतुष्वपिस्वस्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं च फलं च ददति, अकाले पल्लवान् अकाले पुष्पफलानि दधते इत्यर्थः तथा वर्ष-वृष्टिं न ॥
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
Serecene
~981~
Page #983
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
ae626
गाथा:
सम्यगू वर्षति-करोति मेघ इति तमाहुः-संवत्सरं कर्माख्यं । अथ सौर:-'पुढविइत्यादि, पृथिव्या उदकस्य च तथा पुष्पाणां फलानां च रसमादित्यः-आदित्यसंवत्सरो ददाति, तथा अल्पेनापि-स्तोकेनापि वर्षेण-वृष्ट्या शस्य निष्पद्यतेअन्तर्भूतण्यर्थत्वात् शस्यं निष्पादयति, किमुक्तं भवति?-यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसम्पर्कादतीव सरसा | भवति उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमति पुष्पानां च-मधूकादिसम्बन्धिनां फलानां च-आम्रफलादीनां रसः प्रचुरो भवति, स्तोकेनापि वर्षेण धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वर्षय उपदिशन्ति । अथाभिवर्द्धित:-'आइच'इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे क्षणलवदिवसा ऋतव आदित्यतेजसा कृत्वा अतीवतप्ताः परिणमन्ति, यश्च | सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीहि यथा तं संवत्सरमभिवर्द्धितमाहुः पूर्वर्षय
इति । सम्प्रति शनैश्चरसंवत्सरप्रश्नमाह-सणिच्छर इत्यादि, शनैश्चरसंवत्सरो भदन्त! कतिविधः प्रज्ञप्तः१, गौतम! 18 अष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजिच्छनैश्चरसंवत्सरः श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः धनिष्ठाशनैश्चरसंवत्सरः शतभिप-1 18| क्शनैश्चरसंवत्सरः पूर्वभद्रपदाश०सं० उत्तरभद्रपदाशनैश्चरसंवत्सरः रेवतीशनैश्चरसं० अश्विनीशनैश्चरसंवत्सरः भरणी-18
शनैश्चरसंवत्सरः कृत्तिकाशनैश्चरसंवत्सरः रोहिणीश०सं० यावत्पदात् मृगशिरःशनैश्चरसंवत्सर इत्यादि ग्राह्य, अन्ते । चोत्तराषाढाशनैश्चरसंवत्सरः, तत्र यस्मिन् संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सोऽभिजिच्छन-18 श्वरसंवत्सरः श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं सर्वत्र भावनीयं, अथवा शनै
00000000000000000000000000
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~ 982 ~
Page #984
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५१]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२७८
-२८४]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृत्तिः
॥४९० ॥
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...
১৩°°°
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
Juma intentional
मूलं [१५१] + गाथा:
.... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
-
| श्वरो महाग्रहस्त्रिंशता संक्त्सरैः सर्वनक्षत्रमण्डलमभिजिदादिकं समापयति एतावान् कालविशेषः त्रिंशद्वर्षप्रमाणः शनैश्चरसंवत्सर इति । उक्ताः संवत्सराः, अथैतेषु कति मासा भवन्तीति पृच्छन्नाह
एगमेगस्स णं भन्ते ! संवच्छरस्स कइ मासा पण्णत्ता ?, गोअमा ! दुबालस मासा पण्णत्ता, तेसि णं दुविहा णामा पं० वं०लोइआ लोउत्तरिआ य, तत्थ छोइआ णामा इमे, वं० - सावणे भद्दवए जाव आसाढे, लोउत्तरिआ णामा इमे, वंजहा - अभिनंदिए पट्टे अ, विजए पीवद्धणे । सेअंसे य सिवे वेष, सिसिरे अ सहेमवं ॥ १ ॥ णवमे वसंतमासे, इसमे कुसुमसंभवे । एकारसे निवाहे अ, वणबिरोद्दे अ बारसमे ॥ २ ॥ एगमेगस्स णं भन्ते ! मासस्स कति पक्खा पण्णत्ता ?, गोअमा ! दो पक्खा पण्णत्ता, तं०- बहुलपक्खे अपले अ । एगमेगस्स णं भन्ते ! पक्खस्स कइ दिवसा पण्णत्ता ?, गोजमा ! पण्णरस दिव पण्णत्ता, सं०--पडिवादिवसे बितिआदिवसे जान पण्णरसीदिवसे, एतेसि णं भंते! पण्णरसण्डं दिवसाणं कइ णामघेज्जा पण्णत्ता ?, गोजमा ! पण्णरस नामभेजा पण्णत्ता, तं०-- पुष्वंगे सिद्धमणोरमे अ तत्तो मणोरहे चैव। जसभद्दे अ जसधरे ह
समिद्धेम ॥ १ ॥ इंदमुद्धाभिसिते अ सोमणस घणंजए अ बोद्धव्वे ॥ अत्थसिद्धे अभिजाए अञ्चसणे सर्वजए चैव ॥ २ ॥ अग्गवेसे उसमे दिवसाणं होंति णामभेजा ॥ एवेसि णं भंते! पण्परसहं दिवसानं कति तिही पण्णत्ता ?, गो० 1 roणरस तिही पण्णत्ता, सं०-नंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्वस्स पंचमी । पुणरवि णंदे भरे जर तुच्छे पुण्णे पक्त्रस्स दसमी । पुणरवि गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी, एवं ते विगुणा तिहीओ सबेसि दिवसाणंति । एगमेगस्स णं भंते! प्रक्वस्स कई ईओ पण्णत्ताओ ?, गोअमा! पण्णस्स राईओ पण्णत्ताओ, सं०- पढिवाराई जाय पण्णरसीराई, एआसि णं
अथ संवत्सरस्य मास पक्ष - दिनानाम् नामानि प्रदर्श्यते
For P&P Cy
~983 ~
७वक्षस्कारे मासपक्षा
दिनामानि
सू. १५२
॥४९० ॥
wy w
Page #985
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५२]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[ २८५
-२९८]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
-
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....
मूलं [१५२] + गाथा:
.... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
..........
-
भंते! पण्णरसं राईणं कइ नामधेया पण्णत्ता ?, गो० ! पण्णरस नामभेजा पण्णत्ता, संजहा— उत्तमा व सुणक्खन्ता, एकाचा जसोहरा । सोमणसा चैव तहा, सिरिसंभूआ य बोद्धव्या ॥ १ ॥ विमया य वैजयन्ति जयंति अपराजिभा य इच्छा य । समाहारा चैव तहा तेआ य तहा अईते ॥ २ ॥ देवानंदा गिरई रयणीणं णामधिनाई ॥ पयासि णं भंते ! पण्णरसण्डं राईणं कइ तिही पं० १, गो० ! पण्णरस तिही पं० सं०-उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुद्दणामा, पुणरवि उपवई भोगवई जसव सव्वसिद्धा सुहणामा, पुणरबि उसावई भोगवई जसवई सव्यसिद्धा मुहणामा, एवं तिगुणा एते तिहीओ सव्वेसिं राईणं, एगमेगस्स णं भंते! अहोरत्तरस कइ मुहुत्ता पण्णत्ता ?, गोअमा ! तीसं मुहुत्ता पं० तं०- रुदे सेए मिचे वाउ सुबीए तहेव अभिचंदे । माहिद बलव बंभे बहुसचे पेव ईसाणे || १॥ तद्वे अ भाविअप्पा बेसमणे वारुणे अ आनंदे । बिजए अ वीससेणे पायावचे उसमे अ || २ || गंधन अग्गिवेसे सयवसहे आयवे व अममे अ । अणवं भोमे वसहे सव्वट्टे रक्खसे चेव || २ || (सूत्रं १५२)
एकैकस्य भदन्त ! संवत्सरस्य कति मासाः प्रज्ञष्ठाः १, गौतम ! द्वादश मासाः प्रज्ञष्ठा:, तेषां द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञष्ठानि, तद्यथा-लौकिकानि लोकोत्तराणि च तत्र लोक:- प्रवचनबाह्यो जनस्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्सम्बन्धीनि लौकिकानि लोकः प्रागुक्त एव तस्मात्सम्यग्ज्ञानादिगुणयुक्तत्वेन उत्तराः - प्रधानाः लोकोत्तराः - जैनास्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्सम्बन्धीनि लोकोत्तराणि, अत्र वृद्धिविधानस्य वैकल्पिकत्वेन यथाश्रुतरूपसिद्धिः, तत्र लौकिकानि नामान्यमूनि तद्यथाश्रावण भाद्रपदः यावत्करणात् आश्वयुजः कार्त्तिको मार्गशीर्षः पौधो मापः फाल्गुनक्षेत्रः वैशाखो ज्येष्ठ आषाढ इति,
~984 ~
Page #986
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
श्रीजम्मू-18|| लोकोत्तराणि नामान्यमूनि, तद्यथा-प्रथमः श्रावणोऽभिनन्दितो द्वितीयः प्रतिष्ठितस्तृतीयो विजयः चतुर्थः प्रीतिवर्जनः ॥ध्यक्षस्कारे द्वीपशा- पञ्चमः श्रेयान् षष्ठः शिवः सप्तमः शिशिरः अष्टमः हिमवान् , सूत्रे च पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमवता |
मासपक्षा
दिनामानि न्तिचन्द्री- सह शिशिर इत्यागतं शिशिरः हिमांश्चेति नवमो वसन्तमासः दशमः कुसुमसम्भवः एकादशो निदाघः द्वादशो वन-18 या वृतिः
सू.१५२ विरोह इति, अन सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ती अभिनन्दितस्थाने अभिनन्दः वनविरोहस्थाने तु वनविरोधी इति । अथ प्रतिमासं || ॥४९॥ कति पक्षा इति प्रश्नयन्नाह-एगमेगस्स इत्यादि, एकैकस्य भदन्त! मासस्य कति पक्षाः प्रज्ञप्ता:?, गौतम! द्वौ पक्षौ8
प्रज्ञप्ती, तद्यथा-कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धकारबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः ॥ शुक्लपक्षो यत्र स एव चन्द्रविमानमावृत्तं मुञ्चति तेन ज्योत्स्नाधवलिततया शुक्ल: पक्षः स शुक्लपक्षः, द्वौ चकारी तुल्य-12 ताद्योतनार्थ तेन द्वावपि पक्षी सदृशतिथिनामको सदृशसङ्ख्याको भवत इति । अथानयोदिवससयां पृच्छन्नाचष्टे'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य पक्षस्य कृष्णशुक्लान्यतरस्य भदन्त ! कति दिवसाः प्रज्ञप्ताः?, यद्यपि दिवसशब्दोs-1 होरात्रे रूढस्तथापि सूर्यप्रकाशवतः कालविशेषस्यात्र ग्रहणं, रात्रिविभागप्रश्नसूत्रस्याने विधास्यमानत्वात् , गीतम! पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, एतच्च कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रैव पूर्णाना पश्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात्तद्यधा-प्रतिप-10 दिवसः प्रतिपद्यते पक्षस्याद्यतया इति प्रतिपत् प्रथमो दिवस इत्यर्थः, तथा द्वितीया द्वितीयो दिवसो यावत्करणात् तृतीया । तृतीयो दिवस इत्यादिग्रहः अन्ते पञ्चदशी पञ्चदशो दिवसः, एतेषां भदन्त ! पञ्चदशानां दिवसानां कति! नामधेयानि ।
दीप अनुक्रम [२८५
128
-२९८]
~985~
Page #987
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमः पूर्वाङ्गो द्वितीयः सिद्धमनोरमस्तृतीयः मनोहरः
चतुर्थों यशोभद्रः पञ्चमो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्द्धाभिषिकोऽष्टमः सौमनसो नवमो धनञ्जयः । दशमोऽर्थसिद्धः एकादशोऽभिजातो द्वादशोऽत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्म पञ्चदश उपशम इति दिव18 सानां भवन्ति नामधेयानि इति। सम्प्रत्येषां दिवसानां पञ्चदश तिथीः पिपृच्छिषुराह-एतेसि ण'मित्यादि, एतेषा-अन-15
न्तरोक्तानां पञ्चदशानां दिवसानां भदन्त! कति तिथयः प्रज्ञप्ताः?, गौतम! पञ्चदश तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दो ॥३|| भद्रो जयस्तुच्छोऽन्यत्र रिक्तः पूर्णः, अत्र तिथिशब्दस्य पुंसि निर्दिष्टतया नन्दादिशब्दानामपि पुंसि निर्देशः, ज्योति
| करण्डकसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्यादी तु नन्दा भद्रा जया इत्यादिखीलिङ्गनिर्देशन संस्कारो दृश्यते, सच पूर्णः पञ्चदश तिथ्या-1 IS|| मकस्य पक्षस्य पञ्चमी इति रूढः, एतेन पञ्चमीतः परेषां षट्यादितिथीना नन्दादिक्रमेणैव पुनरावृत्तिर्दर्शिता, तथैव ॥
सूत्रे आह-पुनरपि नन्दः भद्रः जयः तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य दशमी, अनेन द्वितीया आवृत्तिः पर्यवसिता, पुनरपि । नन्दः भद्रः जयः तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य पञ्चदशी, उक्कमर्थं निगमयति-एवमुक्तरीत्या आवृत्तित्रयरूपया एते अनन्तरोक्ता नन्दाद्याः पंच त्रिगुणाः पञ्चदशसंख्याकास्तिथयः सर्वेषां-पश्चदशानामपि दिवसानां भवन्ति, एताश्च दिव-1 सतिथय उच्यन्ते, आह-दिवसतिथ्योः कः प्रतिविशेषो येन तिथिप्रश्नसूत्रस्य पृथग्विधानं १, उच्यते, सूर्यचारकृतो दिवसः स च प्रत्यक्षसिद्ध एव, चन्द्रचारकृता तिथिः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, पूर्वपूर्णिमापर्यवसानं प्रारभ्य द्वाप
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
~986~
Page #988
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
श्रीजम्बू-टिभागीकृतस्य चन्द्रमण्डलस्य सदानावरणीयौ द्वौ भागौ वर्जयित्वा शेषस्य षष्टिभागात्मकस्य चतुर्भागात्मकः पंचदशो वक्षस्कारे
द्वीपशा- भागो यावता कालेन ध्रुवराहुविमानेन आवृतो भवति अमावास्यान्ते च स एव प्रकटितो भवति तावान् कालविशे- मासपक्षान्तिचन्द्रीपस्तिथिः। अथ रात्रिवक्तन्यप्रश्नमाह--'एगमेगस्स'इत्यादि, एकैकस्य भदन्त ! पक्षस्य कति रात्रयोऽनन्तरोक्कदिव
दिनामानि या वृत्तिः
सू.१५२ 15 सानामेव परमांशरूपाः प्रज्ञप्ताः१, गौतम! पञ्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपद्रात्रिः यावरकरणाद् द्वितीयादिरा॥४९२॥ त्रिपरिग्रहः, एवं पंचदशीराविरिति । 'एआसि ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, उत्तरसूत्रे गौतम! पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञ-IST
प्लानि, तद्यथा-उत्तमा प्रतिपन्नात्रिः सुनक्षत्रा द्वितीयारात्रिः एलापत्या तृतीया यशोधरा चतुर्थी सौमनसा पञ्चमी श्रीसम्भूता षष्ठी विजया सप्तमी वैजयन्ती अष्टमी जयन्ती नवमी अपराजिता दशमी इच्छा एकादशी समाहारा द्वादशी
तेजास्त्रयोदशी अतितेजाश्चतुर्दशी देवानन्दा पंचदशी निरत्यपि पंचदश्या नामान्तरं, इमानि रजनीनां नामधेयानि ।। Ka यथा अहोरात्राणां दिवसरात्रिविभागेन संज्ञान्तराणि कथितानि तथा दिवसतिधिसंज्ञान्तराणि प्रागुक्कानि, अथ
रात्रितिथिसंज्ञान्तराणि प्रश्नयनाह-एतासि इत्यादि, एतासां भदन्त ! पञ्चदशानां रात्रीणां कति तिथयः प्रज्ञप्ता || गौतम! पश्च तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती नन्दातिथिरात्रिः, द्वितीया भोगवती भद्रातिथिरात्रिः तृतीया ॥४९२॥
यशोमती जयातिथिरात्रिः चतुर्थी सर्वसिद्धा तुच्छातिथिरात्रिः, पञ्चमी शुभनामा पूर्णतिथिरात्रिः, पुनरपि षष्ठी M उप्रवती नन्दातिथिरात्रिः भोगवती भद्रातिथिः सप्तमी रात्रिः यशोमती जयातिश्विरष्टमी रात्रिः सर्वसिद्धा तुच्छा-1
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
~987~
Page #989
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१५२] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
तिथिर्नवमी रात्रिः शुभनामा पूर्णातिथिदशमी रात्रिः, पुनरपि उग्रवती नन्दातिथिरेकादशी रात्रिः भोगवती भद्रा|| तिथिर्वादशी रात्रिः यशोमती जयातिथिस्त्रयोदशी रात्रिः सर्वसिद्धा तुच्छा तिथिश्चतुर्दशी रात्रिः शुभनामा पूर्णातिथिः
पञ्चदशी रात्रिरिति, यथा नन्दादिपञ्चतिथीनां त्रिरावृत्त्या पंचदश (दिन) तिथयो भवन्ति तथोग्रवतीप्रभृतीनां त्रिरावृत्त्या पंचदश रात्रितिथयो भवन्तीति । अथैकस्याहोरात्रस्य मुहूर्त्तानि गणयितुं पृच्छति-'एगमेगस्स ण'मित्यादि, एकैकस्य | | भदन्त! अहोरात्रस्य कति मुहर्ताः प्रज्ञप्ताः?, गौतम! त्रिंशन्मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमो रुद्रः द्वितीयः श्रेयान् । तृतीयो मित्रः चतुर्थो वायुः पंचमः सुपीतः षष्ठोऽभिचन्द्रः सप्तमो माहेन्द्रः अष्टमो बलवान् नवमो ब्रह्मा दशमो बहु| सत्यः एकादश ऐशानः द्वादशस्त्वष्टा त्रयोदशो भावितात्मा चतुर्दशो वैश्रमणः पंचदशो वारुणः षोडश आनन्दः। इस सप्तदशो विजयः अष्टादशो विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विंशतितम उपशमः एकविंशतितमो गन्धर्षः।
द्वाविंशतितमोऽग्निवेश्यः त्रयोविंशतितमः शतवृषभः चतुर्विंशतितमः आतपवान् पंचविंशतितमोऽममः षड्विंशति| तम ऋणवान् सप्तविंशतितमो भौमः अष्टाविंशतितमो वृषभः एकोनत्रिंशत्तमः सर्वार्थः त्रिंशत्तमो राक्षसः॥ अथ तिथिप्रतिबद्धत्वात्करणानां तत्स्वरूपप्रश्नमाहकति णं भन्ते। करणा पण्णत्ता, गोअमा! एकारस करणा पण्णचा, तंजहा-बवं बालवं कोलवं थीविलोमण गराइ वणिज विट्ठी सधणी चउप्पयं नाग किंग्छ, एतेसिणं भन्ते! एकारसहं करणाणं कति करणा चरा कति करणा थिरा पण्णता,
Restastrsestaesertatveeeceaer
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
श्रीजम्बू.८३
अथ 'करण' संबंधी वक्तव्यता प्रस्तूयते
~988~
Page #990
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक [१५३]
वक्षस्कारे करणाधि| काररसू.
१५३
न्तिचन्द्री
या वृत्तिः ॥४९३॥
मत करणा परा पत्तारि करणा चिरा पण्णता, तंजहा-बवं बालवं कोलवं बिविलोअर्ण गरादि वणिज विडी. एते सत्त करणा चरा, बत्तारिकरणा विरा पं० सं०-सउणी चउप्पयं णार्ग किंस्थुग्ध, एते णं चत्तारि करणा थिरा पण्णता, एते भन्ते ! परा थिरावा कया भवन्ति', गोलमा! सुकपक्खस्स पडिवाए राओ थवे करणे भवइ, वितियाए दिवा बालवे करणे भवह, रामो कोलवे करणे भवइ, ततिआए दिया थीविलोअणं करणं भवइ, राओ गराइ करणं भवइ, पउत्थीए विषा वणिज राओ विट्ठी, पंचमीए दिवा बवं राओ बालवं, छवीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, सप्तमीए दिवा गराइराभो वणिक अटमीए दिवा थिट्री रामो बवं नवमीए दिवा बालवं राओ कोलवं दसमीए दिया धीविलोअणं राओ गराई एकारसीए दिवा वणिज रामो विट्ठी पारसीए दिया बवं राजो बालवं तेरसीए दिया कोलवं राओ थीविलोअणं चउसीए दिवा गराति करणं राओ वणिजे पुण्णिमाए दिवा विट्ठीकरणं राओ ववं करणं भवइ, बहुलपक्खस्स पडिवाए दिवा बालवं राओ कोलवं वितिआए दिवा थीविलोमण रामओ गरादि ततिआए दिवा वणिज राओ विट्ठी चउत्थीए दिवा बर्व राओ बालवं पंचमीए दिवा कोलवं रामो थीविलोअणं छडीए दिवा गराई राओ वणि सत्तमीए विवा विट्ठी राओ वर्ष अहमीए विवा बालब रामओ कोलप णवमीए दिषा वीविलोभण रामओ गराई दसमीए दिवा वणि रामओ विट्ठी एकारसीए दिवा पर्व राओ वालवं पारसीए दिया कोलवं रामो थीविलोभणं तेरसीए दिवा गराई रामओ वणिज चउदसीए दिवा विठ्ठी राओ सउणी अमावासाए दिवा चउप्पयं रामओ णार्ग सुकपक्खस्स पाडिवए दिवा कित्थुग्धं करणं भवइ (सूत्र १५३) • 'कति णं भन्ते !'इत्यादि, कति भदन्त ! करणानि प्रजातानि?, गौतम! एकादश करणानि प्रज्ञप्तानि, तथथा-वर्ष
93800000
Poeae
दीप अनुक्रम [२९९]]
ese
॥४९३॥
~ 989~
Page #991
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५३]
दीप
अनुक्रम
[२९९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१५३]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
वालवं कौलवं स्त्रीविलोचनं अन्यत्रास्य स्थाने तैतिलमिति गरादि अन्यत्र गरं वणिजं विष्टिः शकुनिः चतुष्पदं नागं किंस्तुनमिति । एतेषां च चरस्थिरत्वादिव्यक्तिप्रश्नमाह-'एतेसि णं' इत्यादि, एतेषां भदन्त ! एकादशानां करणानां मध्ये कति करणानि चराणि कति करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि १, चकारोऽत्र गम्यः, भगवानाह - गौतम ! सप्त करणानि चराणि अनियततिथिभावित्वात् चत्वारि करणानि स्थिराणि नियततिथिभावित्वात्, तद्यथा-ववादीनि सूत्रोक्तानि ज्ञेयानि, एतानि सप्त करणानि चराणि इत्येतन्निगमनवाक्यं चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - शकुन्यादीनि सूत्रोकानि, एतानि चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञतानि इति तु निगमनवाक्यं, प्रारम्भकनिगमनवाक्यद्वयभेदेन नात्र पुनरुक्तिः ॥ एतेषां स्थाननियमं प्रष्टुमाह- 'एतेसि ण' भित्यादि, सर्वे चैतन्निगदसिद्धम्, नवरं दिनरात्रिविभागेन यत्पृथकथनं तत्करणानां तिथ्यर्द्धप्रमाणत्वात्, कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ शकुनिः अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं रात्रौ नागं शुक्लपक्षप्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं चेति चत्वारि स्थिराणि, आस्वेव तिथिषु भवन्तीत्यर्थः । अथ यद्यपि सर्वस्यापि कालस्य सदा परिवर्तनस्वभावत्वेनाद्यन्ताभावाद्वक्ष्यमाणसूत्रारम्भोऽनुपपन्नस्तथाप्यस्त्येव कालविशेषस्याद्यन्तविचारः अतीतः पूर्वः संवत्सरः सम्प्रतिपन्नश्चोत्तरः संवत्सर इत्यादिव्यवहारस्याध्यक्षसिद्धत्वात् तेन कालविशेषाणामादिं पृच्छति-किमाइआ णं भन्ते ! संवच्छरा किमाइआ अयणा किमाइआ उऊ किमाइआ मासा किमाइआ पक्या किमाइआ अहोरचा किमाइस मुहुदा किमाइआ करणा किमाइआ णक्खत्ता पण्णता ?, गोअमा । चंदाइआ संवच्छरा दक्खिणाइया अयणा पाउसाइआ
For P&Praise City
~990~
Page #992
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
दीप
अनुक्रम
[ ३००]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१५४ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥४९४॥
ss सावणाइआ मासा बहुलाइमा पक्खा दिवसाइआ अहोरता रोदाइआ मुहुसा बालवाइ करणा अभिजिआइआ पण्णचा समणाउसो ! इति । पंचसंगच्छरिए णं भन्ते ! जुगे केवइआ अयणा केवइमा उऊ एवं मासा पक्खा अहोरत्ता केवइआ मुहुत्ता पण्णत्ता ?, गो० ! पंचसंगच्छरिए णं जुगे दस अयणा तीसं उऊ सठ्ठी मासा एगे वीसुतरे पक्खसए अट्ठारसतीसा अहोरत्तसया चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्सा जब सया पण्णत्ता (सूत्रं १५४ )
'कमाइआ ण 'मित्यादि, कश्चन्द्रादिपंचकान्तर्वर्त्ती आदिः प्रथमो येषां ते किमादिकाः संवत्सराः, इदं च प्रश्नसूत्रं चन्द्रादिसंवत्सरापेक्षया ज्ञेयं, अन्यथा परिपूर्णसूर्य संवत्सरपंचकात्मकस्य युगस्य कः आदिः कश्वरम इति प्रश्नावकाशोऽपि न स्यात्, किं-दक्षिणोत्तरायणयोरन्यतरदादिर्ययोस्ते किमादिके अयने, बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् कः प्रावृडादीनामन्यतर आदौ येषां ते किमादिकाः ऋतवः कः श्रावणादिमध्यवर्ती आदिर्येषां ते किमादिका मासाः, | एवं किमादिको पक्षी किमादिका अहोरात्राः किमादिकानि करणानि किमादिकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नसूत्रं, | भगवानाह - गौतम ! चन्द्र आदिर्येषां ते चन्द्रादिकाः संवत्सराः, चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धित चन्द्राभिवर्द्धितनामक संवत्सरपं| चकात्मकस्य युगस्य प्रवृत्तौ प्रथमतोऽस्यैव प्रवर्त्तनात्, न त्वभिवर्द्धितस्य तस्य युगे त्रिंशम्मासातिक्रमे सद्भावादिति, ननु युगस्यादौ वर्त्तमानत्वात् चन्द्रसंवत्सरः संवत्सराणामादिरुतस्तर्हि युगस्यादित्वं कथं ?, उच्यते, युगे प्रतिपद्यमाने सर्वे कालविशेषाः सुषमसुषमादयः प्रतिपद्यन्ते युगे पर्यवस्यति ते पर्यवस्यन्ति, अन्यच्च सकलज्योतिश्चारमूलस्य
For P&Pase Cnly
~991~
७वक्षस्कारे संवत्सराद्याद्यधि
कारः सू. १५४
॥४९४॥
Page #993
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----
---- मूलं [१५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५४]
दीप अनुक्रम [३००]
शसूर्यदक्षिणायनस्य चन्द्रोत्तरायणस्य च युगपत् प्रवृत्तिर्युगस्यादावेव सोऽपि चन्द्रायणस्याभिजिद्योगप्रथमसमय एव सूरा
यणस्य तु पुष्यस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु व्यतीतेषु तेन सिद्धं युगस्यादित्वमिति, तथा दक्षिणायन-संवत्सरस्य प्रथमे पण्मासास्तदादिर्ययोस्ते तथा, आदित्वं चास्य युगप्रारम्भे प्रथमतः प्रवृत्तत्वात् , एतच्च सूर्यायनापेक्षं वचनं, चन्द्राय-11
नापेक्षया तु उत्तरायणस्यादिता वक्तव्या स्यात्, युगारम्भे चन्द्रस्योत्तरायणप्रवृत्तत्त्वात् , प्रावृऋतु:-आषाढश्रावण19 रूपमासद्वयात्मक आदिर्येषां ते प्रावृडादिका ऋतवः, युगादौ ऋत्वेकदेशस्य श्रावणमासस्य प्रवर्त्तमानत्वात् , एवं श्रावIणादिका मासाः प्रागुक्तहेतोरेव, बहुलपक्षादिको पक्षी श्रावणबहुलपक्ष एव युगादिप्रवृत्तेः, दिवसादिका अहोरात्राः,18
| मेरुतो दक्षिणोत्तरयोः सूर्योदय एव युगप्रतिपत्तेः, भरतैरवतापेक्षया इदं वचनं, विदेहापेक्षया तु रात्रौ तत्प्रवृत्तेः, तथा | रुद्रखिंशतो मुहर्तानां मध्ये प्रथमः स आदिर्येषां ते तथा प्रातस्तस्यैव प्रवृत्तेः, तथा बालवादिकानि करणानि, बहुलप्रतिपद्दिवसे तस्यैव सम्भवात् , तथाऽभिजिदादिकानि नक्षत्राणि, तत एवारभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्त्तमानत्वात्, तथाहि-उत्तराषाढानक्षत्रचरमसमयपाश्चात्ये युगस्यान्तः ततोऽभिनवयुगस्यादिनक्षत्रमभिजिदेवेति, हे श्रमण! हे आयु-1
मन् !, अन्ते च सम्बोधनं शिष्यस्य पुनः प्रश्नविषयकोद्यमविधापनार्थ अत एवोल्लसन्मना युगे युगेऽयनादिप्रमाणं 8. पृच्छति-पंचसंयच्छरिए णं भन्ते ! जगे' इत्यादि, पञ्च संवत्सरा सौरा मानमस्येति पञ्चसंवत्सरिकं युगं, अनेन नोत्तर-18
सूत्रेण दश अयना इत्यादिकेन विरोधः, चन्द्रसंवत्सरोपयोगिनां चन्द्रायणानां तु चतुर्विंशदधिकशतस्य सम्भवात् , तत्र
करकन
~992 ~
Page #994
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
दीप
अनुक्रम [ ३०० ]
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १५४ ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री
या प्रचिः
।।४९५॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
| भदन्त ! कत्ययनानि प्रज्ञप्तानि ?, कियन्त ऋतवः, एवमिति सौत्रं पदं एवं सर्वत्र योजना कार्येत्यर्थाभिव्यञ्जकं, तेन | कियन्तो मासाः पक्षाः अहोरात्राः कियन्तो मुहूर्त्ता प्रज्ञताः १, भगवानाह गौतम ! पञ्चसंवत्सरिके युगे दश अयनानि, प्रतिवर्षमयनद्वयसम्भवात् एवं त्रिंशदृतवः प्रत्ययनं ऋतुत्रयसम्भवात्, अत्र सूर्यसंवत्सरषष्ठांश एकषष्टिदिनमानः सूर्यऋतुरेव न तु ऋतुसंवत्सरषष्ठांशः पष्ठिदिनप्रमाणो लौकिकर्तुः तथा च सति पष्टिर्मासा इत्युत्तरसूत्रं विरुणद्धि, तथा षष्टिर्मासाः सौराः प्रतिऋतु मासद्वयसम्भवात्, एकविंशत्युत्तरं पक्षशतं, प्रतिमासं पक्षद्वयसम्भवात्, अष्टादश शतानि | त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां प्रत्ययनं १८३ अहोरात्रास्ते च दशगुणाः १८३०, मुहूर्त्ताश्च चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि नव व | शतानि प्रत्यहोरात्रं त्रिंशन्मुहर्त्ता इति युगाहोरात्राणां १८३० सङ्ख्याङ्कानां त्रिंशता गुणने उतसङ्ख्यासम्भवात् ॥ उक्तं चन्द्रसूर्यादीनां गत्यादिस्वरूपम्, अथ योगादीन दशार्थान् विवक्षुर्द्वारगाथामाह
जोगा १ देवय २ तारमा ३ गोत ४ संठाण ५ चंद्रविजोगा ६ । कुल ७ पुण्णिम अवमंसा य ८ सण्णिवाए ९ अ णेता य १० ॥ १॥ कति णं भन्ते ! णक्खता पं० १, गो० अट्ठावीसं णक्खता पं० सं०-अभिई १ सवणो २ धणिट्ठा ३ सवमिसवा ४ भदवया ५ उत्तरभदवया ६ रेबई ७ अस्सिणी ८ भरणी ९ कतिमा १० रोहिणी ११ मिअसिर १२ अदा १३ पुण्वसू १४ पूसो १५ अस्सेसा १६ मघा १७ पुवफग्गुणि ९८ उत्तरफग्गुणि १९ हत्यो २० चित्ता २१ साई २२ विसाहा २३ अणुशहा २४ जिट्ठा २५ मूलं २६ पुश्वासाढा २७ उत्तरासाठा २८ इति । (सूत्रं १५५ )
योग एवं करणस्य नामानि प्रदर्श्यते
For P&Praise City
~993~
७वक्षस्कारे नक्षत्राधिकारः स्. १५५
||४९५||
Page #995
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५५]]
गाथा
R 'जोगो देवय' इत्यादि, योगोऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणा किं नक्षत्रं चन्द्रेण सह दक्षिणयोगि किं नक्षत्रमुत्तरयोगि इत्यादिको
दिग्योगः १ देवताः-नक्षत्रदेवताः २ ताराग्रं-नक्षत्राणां तारापरिमाणं ३ गोत्राणि नक्षत्राणां ४ संस्थानानि नक्षत्राणा ॥1५ चन्द्ररवियोगो-नक्षत्राणां चन्द्रेण रविणा च सह योगः ६, कुलानि-कुलसंझकानि नक्षत्राणि उपलक्षणावुपकुलानि
कुलोपकुलानि च ७ कति पूर्णिमाः कति अमावास्याश्च ८ सन्निपातः-एतासामेव पूर्णिमामावास्यानां परस्परापेक्षया नक्षत्राणां सम्बन्धः ९, चः समुच्चये, नेता-मासस्य परिसमापकत्रिचतुरादिनक्षत्रगणः १०, चः समुच्चये, छायाद्वारं तु नेतृद्वारानुयायित्वेन न पृथक्कृतमिति ॥ अथ चन्द्रस्य नक्षत्रैः सह दक्षिणादिदिग्योगो भवति तेन प्रथमतो नक्षत्रपरिपाटीमाह-'कति णं भन्ते !' इत्यादि, अत्र शब्दसंस्कारा इमे, अभिजित् १ श्रवणः२ धमिष्ठा ३ शतभिषक् ४ पूर्वभद्रपदा ५ उत्तरभद्रपदा ६ रेवती ७ अश्विनी ८ भरणी ९ कृत्तिका १० रोहिणी ११ मृगशिरः १२ आो १३ पुनर्वसु १४ पुष्यः १५ अश्लेषा १६ मघा १७ पूर्वाफाल्गुनी १८ उत्तराफाल्गुनी १९ हस्तः २० चित्रा २१ स्वातिः २२ विशाखा २३ अनुराधा २४ ज्येष्ठा २५ मूलं २६ पूर्वाषाढा २७ उत्तराषाढा २६, अयं च नक्षत्रावलिकाक्रमोऽश्विन्यादिकं कृत्तिकादिकं या लौकिकं क्रममुलल्य यजिनप्रवचने दर्शितः स युगादौ चन्द्रेण सहाभिजिद्योगस्य प्रथम प्रवृत्तत्वात् , न चात्र बहि मूलोऽभंतरे अभिई' इति वचनादभिजितः सर्वतोऽभ्यन्तरस्थायित्वेन नक्षत्रावलिकाक्रमेण पूर्वमुपन्यास इति वाच्यं, नक्षत्रक्रमनियमे चन्द्रयोगक्रमस्यैव कारणत्वात् न तु सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलस्थायित्वस्य अन्यथा षष्ठादिमण्ड
9000rneasansaccosasooseasad
Sesecenesesesesesesesesesesee
दीप अनुक्रम [३०१-३०२]
~994 ~
Page #996
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५५] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५५]]
गाथा
श्रीजम्बलस्थायिनां कृत्तिकादीनां भरण्यनन्तरमुपन्यासो न स्यात् , अथ यद्यभिजितः प्रारभ्य नक्षत्रावलिकाक्रमः क्रियते तर्हि Tara द्वीपशा- सप्तविंशतिनक्षत्राणामिव कथमस्य व्यवहारासिद्धत्वं', उच्यते, अस्य चन्द्रेण सह योगकाल स्याल्पीयस्त्वेन नक्षत्रान्तरानु
जनक्षत्रान्तरानु- दक्षिणादिन्तिचन्द्री- प्रविष्टतया विवक्षणात्, यदुक्तं समवायाङ्गे सप्तविंशतितमे समवाये-"जम्बुद्दीवे दीवे अभिईवजेहिं सत्तावीसाए णक्ख- योगाधिया वृत्तिः
ताहिं सैववहारे वट्टई" एतद्भुत्तिर्यथा-"जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादी अभिजिजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैः व्यवहारः कार: मू. ॥४९॥ प्रवर्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढाचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति," ॥ अथ प्रथमोद्दिष्टं योगद्वारमाह
एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्यत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणेणं जो जोएंति कयरे णक्खता जे गं सया चंदरस उत्तरेणं जो जोएंति कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमपि जोगं जोएंति कयरे णखत्ता जे णं चंदस्स वाहिणपि पमपि जो जोएंति कबरे णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स पमई जो जोऐति', गो! एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तरथ जे ते णक्खत्ता जे गं सवा चंदस्स दाहिणेणं जो जोएंति ते गं छ, तंजहा-संठाण १ अह २ पुस्सो ३ ऽसिलेस ४ हत्यो ५ सहेव मूलो अ६ । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पेत णक्सत्ता ॥ १॥ तत्थ पंजे ते णक्यता जे ण सया चन्दस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ते गं बारस, तं०-अभिई सवणो पणिवा सयमिसया पुचभवया उत्तरभदवया रेवइ अस्सिणी भरणी
॥४९६॥ पुषाफग्गुणी खत्तराफग्गुणी साई, तरथ गंजे ते नक्सत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणोवि उत्तरमोवि पमपि जोग जोएंति ते णं सत्त, तंजहा-कत्तिा, रोहिणी पुणवसू मघा चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्व णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणोवि पम.
दीप अनुक्रम [३०१-३०२]
all
~995~
Page #997
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५६ ]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[ ३०३
-३०५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१५६] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
दंषि जोगं जोएंति, ताओ णं दुबे आसाढाओ सबाहिरए मंडले जोगं जोअंसु वा ३, तत्थ णं जे से णक्खत्ते जेणं सया चन्दस्स पम जोएइ सा णं एगा जेट्ठा इति । (सूत्रं १५६ )
'एतेसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कतराणि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन| दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योगं योजयन्ति ?-- सम्बन्धं कुर्वन्ति १ तथा कतराणि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्योत्तरस्यां | दिशि व्यवस्थितानि योगं योजयन्ति २ तथा कतराणि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामप्युत्तरस्यामपि प्रमर्द्दमपि| नक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनरूपं योगं योजयन्ति, केषां नक्षत्रविमानानां मध्येन चन्द्रो गच्छतीत्यर्थः ३ तथा कतराणि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि प्रमर्द्दमपि योगं योजयन्ति ४ तथा कतरनक्षत्रं यत् सदा चन्द्रस्य प्रमर्द्द योगं योजयति १ ५, भगवानाह - गौतम ! एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां दिविचारं ब्रूम इति शेषः, तत्र । यानि तानीति भाषामात्रे नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां योगं योजयन्ति तानि षट् तयथा— संस्थानंमृगशिरः १ आर्द्रा २ पुष्यः ३ अश्लेषा ४ हस्तः ५ तथैव मूलश्च ६ वहिस्तात् ब्राह्ममण्डलस्य-चंद्र सत्कपश्चदशम| ण्डलस्य भवन्ति, कोऽर्थः ? - समग्रचारक्षेत्रप्रान्तवर्तित्वादिमानि दक्षिणदिग्व्यवस्थायीनि चंद्रश्च द्वीपतो मण्डलेषु चरन् २ तेषामुत्तरस्थायीति दक्षिणदिग्योगः, ननु 'बहि मूलोऽन्तरे अभिई' इति वचनात् मूलस्यैव बहिश्वरत्वं तथाऽभिजित एवाभ्यन्तरचरत्वं तर्हि कथमत्र पडित्युक्तानि, वक्ष्यमाणेऽनन्तरसूत्रे च द्वादशाभ्यन्तरत इति वक्ष्यते ?, उच्यते, मृगशिर
For P&Permalise City
~996 ~
Page #998
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१५६ ]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[ ३०३
-३०५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१५६ ] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृतिः
॥४९७॥
आदीनां षण्णां समानेऽपि बहिश्चारित्वे मूलस्यैव सर्वतो बहिश्वरत्वं तेन वहिमूलो इत्युक्तं, तथा अनम्सरोत्तरसूत्रे वक्ष्यमा | णानां द्वादशानामप्यभ्यन्तरमण्डलचारित्वे समानेऽपि अभिजित एव सर्वतोऽभ्यन्तरवर्तित्वात् 'अध्यंतरे अभिई' इति, तत्र यानि तानीति प्राग्वत् नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्योत्तरस्यां योगं योजयन्ति तानि द्वादश, तद्यथा - अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी स्वातिः, यदा चैतैः सह चंद्रस्य योगस्तदा स्वभावाच्चन्द्रः शेषेष्वेव मण्डलेषु स्यात्, यथा च भिन्नमण्डलस्थायिना चन्द्रेण सह भिन्नमण्डलस्थायिनक्षत्राणां योगस्तथा मण्डलविभागकरणाधिकारे प्रतिपादितं यतः सदैवैतान्युत्तरदिगवस्थितान्येव चन्द्रेण सह योगमायान्तीति, यत्तु समवायाज्ञे 'अभिजिआइआ णं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोरंति, अभिई सवणो जाव भरणी' इत्युक्तं तनयमसमवायानुरोधेनाभिजिन्नक्षत्रमादौ कृत्वा निरन्तरयोगित्वेन नवानामेव विवक्षिसत्वात् उत्तरयोगिनामपि पूर्व फाल्गुन्युत्तरफाल्गुनीस्वातीनां कृत्तिकारोहिणीमृगशिरः प्रमुखनक्षत्रयोगानन्तरमेव योगसम्भवात्, तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि उत्तरेणापि प्रमर्द्दमपि योगं योजयन्ति अपि सर्वत्र परस्परसमुच्चयार्थः तानि सप्त, तद्यथा- कृत्तिका रोहिणी पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा, एतेषां च त्रिधापि योग इत्यर्थः, यत्तु स्थानाशेऽष्टमाध्ययने समवायाऽष्टमसमवाये च- 'अ णक्खत्ता चंद्रेण सद्धिं पम जोगं जोति कतिआ रोहिणी पुनवसु महा चित्ता विसाहा अणुराहा जेडा" इति, तत्राष्टसङ्ख्यानुरोधेनैकस्यैव प्रमर्दयोगस्य
For P&Pernalise Caly
~997 ~
कारे
दक्षिणा दियोगाधि
कारः सू. १५६
॥४९७॥
Page #999
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], -----
--...................--- मूलं [१५६] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५६]
गाथा
eeeeeeeeeee Presesesese
। विवक्षितत्वेन ज्येष्ठापि सङ्गृहीता, यत्तु लोकश्रीटीकाकृता उभययोगीतिपदं व्याख्यानयता एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि
चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते कदाचिझेदमपि उपयान्तीति, तच्च वक्ष्यमाणज्येष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न प्रमाणं, तथा तत्र ये ते नक्षत्रे सदा चन्द्रस्य दक्षिणतोऽपि प्रमर्दमपि च योगं योजयतस्ते द्वे आषादे-पूर्वाषाढोत्तराषाढारूपे, ते हि प्रत्येक चतुस्तारे, तत्र द्वे द्वे तारे सर्ववाह्यस्य पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो दे द्वे बहिः, ततो ये द्वे द्वे तारे | अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्येन चन्द्रो गच्छति इति तदपेक्षया प्रमर्दै योगं युंक्त इत्युच्यते, ये तु दे दे तारे बहिस्ते चन्द्रस्य
पञ्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतः सदा दक्षिणदिग्ब्यवस्थिते ततस्तदपेक्षया दक्षिणेन योगं युंक इत्युक्त, अनेन पाषाशाढाद्वयमपि प्रमर्दयोगिनक्षत्रगणमध्ये कथं नोक्तमिति वदतो निरासः, अनयोर्दक्षिणदिग्योगविशिष्टप्रमर्दयोगस्य सम्भ-15
वादिति, सम्प्रत्येतयोरेव प्रमर्दयोगभावनार्थ किञ्चिदाह-ते च नक्षत्रे सदा सर्वबाह्ये मण्डले व्यवस्थिते चन्द्रेण सह सह योगमयुक्तां युंक्तो योश्यते इति, तथा यत्तन्नक्षत्रं यत् सदा चन्द्रस्य प्रमर्द-प्रमर्दरूपं योगं युनकि एका सा ज्येष्ठा । अथ देवताद्वारमाह
एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्खताणं अमिई णक्खत्ते किंदेवयाए पष्णते?, गो०! बम्हदेवया पण्णत्ते, सपणे णक्षत्ते विण्हु8. देवयाए पण्णते, धणिट्ठा वसुदेवया पण्णता, एए णं कमेणं अश्या अणुपरिवाडी इमाओ देवयाओ-वम्हा विण्हु वसू वरुणे अय
अभिवद्धी पूसे आसे जमे अग्गी पयायई सोमे रहे अदिती वहस्सई सप्पे पिउ भगे अजम सविआ तहा बाउ इंदुग्गी मित्तो इंदे
दीप अनुक्रम [३०३-३०५]
Cersearceaeseseeeeeedcenses
अथ अष्टाविंशति-नक्षत्राण्या: देवताया: नामानि प्रदर्श्यते
~998~
Page #1000
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार[७],
------------------------ मल [१५७-१५८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५७
-१५८]
गाथा:
श्रीजम्बू-18
निर्द आत विस्सा य, एवं णक्खत्ताणं एआ परिवाडी अवा जाव उत्तरासाढा किदेवया पण्णता ?, गोभमा ! विस्सदेवया पण्णता शिवक्षस्कारे द्वीपशा-
(सूत्र १५७) एतेसिणं भन्ते! अहावीसाए णक्खत्ताण अभिईणक्खत्ते कतितारे पण्णते, गोअमा! तितारे ५०, एवं मन्या जस्स नक्षत्रदेवाः न्तिचन्द्री
जहभाओ ताराओ, इमं च तारगं-तिगतिगपंचगसयदुग दुगवत्तीसगतिगं तह तिनं च । छप्पंचगतिगएकगपंचगतिग तारागुं सू. या वृत्तिः
छक्कागं चेव ॥१॥ सत्तगदुगदुग पंचग एकेकग पंच चउतिनं चेव । एकारसग चउकं चउकी चेव तारगं ॥२॥ इति (सूत्र १५८) ॥४९८॥ 'एतेसि ण'मित्यादि, एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये भदन्त ! अभिजिन्नक्षत्र को देवताऽस्येति किंदेवताक प्रज्ञ
सम्?, अत्र बहुव्रीही कः प्रत्ययः, देवता चात्र स्वामी अधिप इतियावत् यत् तुष्ट्या नक्षत्रं तुष्टं भवति अतुष्ट्या चातुष्टं, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, ननु नक्षत्राण्येव देवरूपाणि तर्हि किं तेषु देवानामाधिपत्यं ?, उच्यते, पूर्वभवार्जिततपस्तारतम्येन तत्फलस्यापि तारतम्यदर्शनात्, मनुष्येष्विव देवेष्वपि सेव्यसेवकभावस्य स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् , यदाह-"सक्कस्स देविंदस्स | देवरण्णो सोमस्स महारण्णो इमे देवा आणाउववायवयणणिद्देसे चिठंति, तंजहा-सोमकाइआ सोमदेवकाइआ विजु-IS कुमारा विज्जुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउकुमारीओ चंदा सूरा गहा णक्खत्ता तारारूवा जे आवण्णे तहप्पगारा सधे ते तब्भत्तिआ तब्भारिआ सकस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारणो आणावयणणिहेसे चिह- ४९८॥ ती" ति, भगवानाह-गौतम! ब्रह्मदेवताकं प्रज्ञप्तम् , अत्राशयज्ञो गुरुः सूत्रेऽदृश्यमानत्वात् गूढान्यपि शिष्यप्रश्नानि निर्व-18 चनसूत्रेणैव समाधत्ते, श्रवणं नक्षत्रं विष्णुदेवताकं प्रज्ञप्त, धनिष्ठा वसुदेवता प्रज्ञप्ता, एतेनोकवक्ष्यमाणेन क्रमेण नेतव्या
दीप अनुक्रम [३०६
-३०९]
~999~
Page #1001
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ------
------..........--- मलं [१५७-१५८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७
-१५८]
गाथा:
1 पाठं प्रापणीया भणितव्या इत्यर्थः अनुपरिपाटि-अभिजिदादिनक्षत्रपरिपाट्यनुसारेण देवतानाम्नामावलिका, इमाश्च || 1| देवतास्ता:-मा १ विष्णुः २ वसुः ३ वरुणः४ अजः ५ अभिवृद्धिः ६ अन्यत्राहिर्बुध इति, पूषा-पूषनामको देवो न 8 || तु सूर्यपर्यायतेन रेवत्येव पौष्णमिति प्रसिद्धं, अश्वनामको देवविशेषः ८ यमः ९ अग्निः १० प्रजापतिरिति ब्रह्मना-18 मको देवा, अयं च ब्रह्मणः पर्यायान् सहते, तेन ब्राहयमित्यादि प्रसिद्धम् ११ सोम:-चन्द्रस्तेन सौम्यं चान्द्रमसमि-18 त्यादि प्रसिद्धम् १२ रुद्रः-शिवस्तेन रौद्री कालिनीति प्रसिद्धं १३ अदितिः देव विशेषः १४ बृहस्पतिः प्रसिद्धः १५ || सर्पः १६ पितृनामा १७ भगनामा देवविशेषः १८ अर्यमा-अर्यमनामको देवविशेषः १९ सविता-सूर्यः २० स्वष्टा| त्वष्ट्रनामको देवस्तेन त्वाष्ट्री चित्रा इति प्रसिज २१ वायुः २२ इन्द्राग्नी २५ तेन विशाखा द्विदेवतमिति प्रसिद्ध, || | मित्रो-मित्रनामको देवः २४ इन्द्रः २५ नैर्ऋत:-राक्षसस्तेन मूलः आम्रप इति प्रसिद्ध २६ आपो-जलनामा देवस्तेन
पूर्वाषाढा तोयमिति प्रसिद्ध २७ विश्वे देवाखयोदश २८, सूत्रालापकान्तस्थितश्चकारः समुच्चये, एवमभिजित्सूत्रद-।। |र्शितप्रश्नोत्तररीत्या नक्षत्राणां देवा इत्यधिकारतो गम्यम् । एतया-ब्रह्मविष्णुवरुणादिरूपया परिपाट्या न तु परतीर्थि
कप्रयुक्तअश्वयमदहनकमलजादिरूपया नेतच्या-परिसमाप्तिं प्रापणीया यावदुत्तराषाढा किंदेवता प्रज्ञप्ता, गौतम
|| विश्वदेवता प्रज्ञप्तेति । अथ तारासयाद्वारमाह-एतेसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽ-181 श्रीनम्बू. ४ भिजिन्नक्षत्रं कति तारा अस्येति कतितारं प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह-गौतम! तिम्रस्तारा अस्येति त्रितारं प्रज्ञप्तम् , तारा
Befoerseseseseseemedeceaeeeee
accaeeeeeeeese
दीप अनुक्रम [३०६-३०९]
~ 1000 ~
Page #1002
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ------
-------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७
-१५८]
गाथा:
-13 चात्र ज्योतिष्कविमानानि, अधिकारान्नक्षत्रजातीयज्योतिष्कानां विमानानीत्यर्थः, न तु पञ्चमजातीयज्योतिष्कास्तारकाः, वक्षस्कारे द्वीपशा-18| नहिं तासां द्वित्रादिविमानैरेकं नक्षत्रमिति व्यवहारः सम्यक्, अन्यजातीयेन समुदायेनान्यजातीयः समुदायीति विरो-नक्षत्रदेवार न्तिचन्द्री1 धात्, विरोधश्चात्र नक्षत्राणां विमानानि महान्ति तारकाणां च विमानानि लघूनि, तथा जम्बूद्वीपे एकशशिनस्तारकाणां |||
तारागुंस. या इचिः
| |१५७-२५८ || कोटाकोटीनां षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पश्चसप्ततिश्चेति या सख्या साऽप्यतिशयीत नक्षत्रसङ्ख्या चाष्टाविं॥४९९॥
शतिरूपा मूलत एव समुच्छियेत, ननु तर्हि एतेषां विमानानां केऽधिपाः', उच्यते, अभिजिदादिर्नक्षत्र एव, यथा कश्चित् महर्द्धिको गृहद्वयादिपतिर्भवति, एवममिजिन्नक्षत्रन्यायेन नेतव्या यस्य नक्षत्रस्य यावत्यस्तारा, इदं च तत्ता-181 राम्र-तारासङ्ख्यापरिमाणं, यथा त्रिकमभिजितः १ त्रिकं श्रवणस्य २ पश्चकं धनिष्ठायाः ३ शतं शतभिषजः ४ द्विकं | पूर्वभद्रपदायाः ५ द्विकमुत्तरभद्रपदायाः ६ द्वात्रिंशद्रेवत्याः ७ त्रिकमश्विन्याः ८ तथा त्रिकं भरण्याः ९, चः समुच्चये, षट् कृत्तिकायाः १० पञ्चकं रोहिण्याः ११ त्रिकं मृगशिरस:१२ एक आर्द्रायाः १३ पञ्चकं पुनर्वस्वोः, यदन्यत्र चतुष्कमाहुस्तन्मतान्तरं १४ त्रिकं पुष्यस्य १५ षटुमश्लेषायाः १६ चैवेति समुच्चये सप्तकं मघायाः १७ द्विकं पूर्वफाल्गुन्याः १८ द्विकमुत्तरफाल्गुन्याः १९ पञ्चकं हस्तस्य २० एकश्चित्रायाः२१ एककः खातेः २२ पश्च विशाखायाः २३ ॥४९९॥ चत्वारः अनुराधायाः २४ त्रिकं ज्येष्ठायाः २५ चैवशब्दः पूर्ववत् एकादशकं मूलस्य २६ चतुष्कं पूर्वाषाढायाः २७ चतुष्कमुत्तराषाढायाः २८ चैवेति तथैव ताराममिति, तारासङ्ख्याकथनप्रयोजनं च यन्नक्षत्रं यावत्तारासंख्यापरि
ecccccccccccccesesear
9200cacaon20000000000000000
दीप अनुक्रम [३०६
-३०९]
~ 1001 ~
Page #1003
--------------------------------------------------------------------------
________________
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
आगम (१८)
वक्षस्कार[७],
........--------- मलं [१५७-१५८] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७
-१५८]
गाथा:
माणकं भवति तत्संख्याकां तिथिं शुभकार्ये वर्जयेत्, शतभिषग्रेवत्योस्तु क्रमेण शतस्य द्वात्रिंशतम तिथिभिर्भागे हते यदवशिष्ट तत्प्रमाणा तिथिवर्जनीयेति । अथ गोत्रद्वारम्-इह नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसम्भवः, यस इदं गोत्रस्य। स्वरूपं लोके प्रसिद्धिमुपागमत्-प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानस्तदपत्यसन्तानो गोत्रं, यथा गर्गस्यापत्यसन्तानो गर्गाभिधानो गोत्रमिति, न चैवस्वरूपं नक्षत्राणां गोत्रं सम्भवति, तेषामौषपातिकत्वात्, तत इत्थं गोत्रसम्भवो द्रष्टव्यो-यस्मिन्नक्षत्रे शुभैरशुभैवों ग्रहः समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रम शुभमशुभं वा भवति तत्तस्य गोत्र, ततः प्रश्नोपपत्तिः, तत्सूत्रम्एतेसि णं भन्ते ! अट्ठावीसाए णक्खताण अभिई गक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, गो०। मोगालायणसगोते, गाधा-मोग्गलायण १ संखायणे २ अ तह अग्गभाव ३ कण्णिले ४ । ततो अ जाउकण्णे ५ वर्णजए ६ चेव बोद्धव्वे ॥ १॥ पुस्सायणे ७ अ अस्सायणे अ८ भगवेसे ९ अ अग्गिवेसे १० अ । गोअम ११ भारहाए १२ लोहिये १३ व वासिढे १४ ॥२॥ ओमज्जायण १५ मंडब्बायणे १६ अ पिंगायणे १७ अ गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दम्मा २१ य चामरच्छाय २२ सुंगा य २३ ।। ३ ॥ गोवलावण २४ तेगिच्छायणे २५ अ कच्चायणे २६ हवाइ मूले। ततो समझिायण २७ बग्यायो गोत्ताई २८॥४॥ एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अमिईणक्खत्ते किसंठिए पष्णते?, गोत्रमा! गोसीसावलिसंठिए पं०, गाहा-गोसीसावलि १ काहार २ सउणि ३ पुप्फोबयार ४ वावी य ५-६ । णावा ७ आसक्खंधग ८ भग ९एरघरए १० असगबुद्धी ११ ॥१॥ मिगसीसावलि १२ रुहिरबिंदु १३ तुल्ल १४ वद्धमाणग १५ पडागा १६ । पागारे १७ पलिके १८
FO90093900939300300938362
दीप अनुक्रम [३०६-३०९]
अथ अष्टाविंशति-नक्षत्राण्या: गोत्राणि-नामानि प्रदर्श्यते
~ 1002~
Page #1004
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५९]
गाथा:
श्रीजम्बू- १९ हत्थे २० मुहफुल्लए २१ चेव ॥ २॥ खोलग २२ दामणि २३ एगावली २४ अ गयदंत २५ विच्छुप्रअले य २६ । गय- ध्यक्षस्कारे द्वीपशा- विकमे २७ अ तत्तों सीहनिसीही अ २८ संठाणा ॥ ३ ॥ (सूत्र १५९)
नक्षत्रगोत्रिचन्द्री'एतेसि ण' मित्यादि, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये भदन्त! अभिजिनक्षत्रं किंगोत्रं प्रज्ञप्तम्, गौतम! मौद्ग
वसंस्थाने या वृत्तिः
म.१५९ ल्यायनैः-मौद्गल्यगोत्रीयैः सगोत्रं-समानगोत्रं मौद्गल्यायनगोत्रमित्यर्थः, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, अथाऽभिजितः प्रारभ्य। ॥५०॥ लाघवार्थमत्र गाथा इति, ताश्चेमा:-'मोग्गलायण'मित्यादि, मौद्गल्यायनं १ सात्यायनं २ तथा अग्रभाव ३
| 'कण्णिल'मित्यत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कण्णिलायनमिति गाह्यं ४, ततश्च जातुकर्ण ५ धनञ्जय ६६ चैवशन्दः समुच्चये बोद्धव्यम् पुष्यायनं ७ चः समुच्चये आश्वायनं च ८ भार्गवेशं च १ अग्निवेश्यं च १० गौतम | ११ भारद्वाज १२ लौहित्य चैवेति अत्रापि पूर्ववदुपचारे लौहित्यायनं १३ वासिष्टं ,१४ अवमज्जायनं १५ माण्डव्यायनं च १६ पिङ्गायनं च १७ गोवल्लमित्यत्रापि पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात गोवल्लायनं १८ काश्यपं १९18
कौशिकं २० दार्भायनं २१ चामरच्छायनं २२ शुङ्गायनं २३ त्रिवेषु णकारलोपः प्राकृतशैलीप्रभवो गाथावन्धानुलो-18 ॥ म्याय, गोलव्यायनं २४ चिकित्सायनं २५ कात्यायनं भवति मूले २६ ततश्च वझियायणनामक वाचव्यायनं २७ च्यामा-III ५००॥
पत्यं २८ चेति गोत्राणि । अथ संस्थानद्वारम्-'एतेसि णमित्यादि, एतेषा भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां अभिजि-181 नक्षत्रं कस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, प्रज्ञप्तम्, गौतम! गोशीर्ष तस्यावली-तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिस्त
दीप अनुक्रम [३१०-३१८]
~ 1003~
Page #1005
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१५९] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५९]
गाथा:
समसंस्थानं प्रज्ञप्तम् , एवं शेषनक्षत्रसंस्थानानि ज्ञेयानि, तानीमानि-अभिजितो गौशीर्षावलिसंस्थानं श्रवणस्य कासारसंस्थानं धनिष्ठायाः शकुनिपजरसंस्थानं शतभिषजः पुष्पोपचारसंस्थानं पूर्वभद्रपदायाः अर्द्धवापीसंस्थानं उत्तरभद्र-18 पदाया अप्यर्द्धवापीसंस्थानं एतदर्द्धवापीद्वयमीलनेन परिपूर्णा वापी भवति तेन सूत्रे वापीत्युक्तं, अतः संस्थानानां न | संख्यान्यूनता विचारणीया, रेवत्या नौसंस्थानं, अश्विन्याः अश्वस्कन्धसंस्थानं, भरण्याः भगसंस्थान, कृत्तिकायाः
क्षुराधारसंस्थानं, रोहिण्याः शकटोद्धिसंस्थानं, मृगशिरसः मृगशीर्षसंस्थान, आर्द्राया रुधिरबिन्दुसंस्थान, पुनर्वस्वोः तुला18| संस्थानं, पुष्यस्य सुप्रतिष्ठितवर्धमानकसंस्थान, अश्लेषायाः पताकासंस्थान, मघायाः प्राकारसंस्थानं, पूर्वफल्गुन्या || अद्धेपल्या संस्थानं उत्तरफल्गुन्या अप्यर्द्धपल्या संस्थानं, अत्रापि अर्द्धपल्याङ्कद्धयमीलनेन परिपूर्णः पल्ययो भवति ॥ तेन संख्यान्यूनता न, हस्तस्य हस्तसंस्थान, चित्रायाः मुखमण्डनसुवर्णपुष्पसंस्थानं, स्वातेः कीलकसंस्थान, विशाखायाः ॥5॥ दामनि:-पशुरजुसंस्थानं, अनुराधाया एकावलिसंस्थान, ज्येष्ठायाः गजदन्तसंस्थानं मूलस्य वृश्चिकलांगूलसंस्थान, पूर्वो-IIS पाढायाः गजविक्रमसंस्थान, उत्तराषाढायाः सिंहनिषीदनसंस्थानं इति संस्थानानि । अथ चन्द्ररवियोगद्वारम्
एतेसि णं भन्ते! अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं अमिणक्खचे कतिमुहते चन्देण सविजोगं जोएइ, गोअमा णव मुहुत्ते सत्ताबीसं च सत्तहिभाए मुहुत्तस्स चन्देण सद्धिं जोगं जोपड, एवं इमाहिं गाहाहिं अणुगन्तवं- अनिइस्स चन्दजोगो सत्ताखिंडिओ अहोरत्तो। ते हुँति णव मुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ अ॥१॥ सयभिसया भरणीभी अदा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एते छण्ण
9080500000
दीप अनुक्रम [३१०-३१८]
~ 1004 ~
Page #1006
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
(१८)
वक्षस्कार [७], ----
..---------------------- मल [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्म
प्रत सूत्रांक [१६०]
॥५०१॥
गाथा:
क्खता पण्णरसमुहुत्तसंजोगा ॥२॥ तिण्णेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एएण्णक्खत्ता पणयालमुदत्तसंजोगा अवक्षस्कारे द्वीपथा
॥ ३ ॥ अवसेसा णवत्ता पण्णरसवि हुंति तीसइ हुत्ता । चन्दंमि एस जोगो णक्खत्ताणं मुंणेअव्वो ॥४॥ एतेसि णं भन्ते ! नक्षत्रन्तिचन्द्री- अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्यत्ते कति अहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ, गो०! चत्तारि अहोरसे छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि
न्द्रसूर्ययोया इचिः जोगं जोएड, एवं इमाहि गाहाहिं अवं-अभिई छच मुहुत्ते चत्तारि अ केवले अहोरत्ते । सूरेण समं गच्छद एत्तो सेसाण वो
गकाल: पछामि ॥१॥ सयभिसया भरणीओ अहा अस्सेस साइ जेट्ठा य । वञ्चति मुहुत्ते इकवीस छच्चेवऽहोरचे ॥२॥ तिण्णेच
सू.१६. उत्तराई पुणध्वसू रोहिणी बिसाहा य । वच्चंति मुहुत्ते तिणि चेव वीसं अहोरत्ते ॥ ३॥ अवसेसा णक्खता पण्णरसवि सूरस
हगया जंति । बारस चेव मुढचे तेरस य समे अहोरत्ते ॥ ४ ॥ (सूत्र १६०)। ___ 'एतेसि ण'मित्यादि, एतेषां च भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्र कति महान चन्द्रेण सा योग योजयति, सम्बन्धं करोतीत्यर्थः, गौतम! नव मुहूर्त्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशति सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण || सार्द्ध योग योजयति, कथमेतदवसीयते !, उच्यते, इहाभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यकविंशतिभागान् ।
चन्द्रेण सह योगमुपैति, ते च एकविंशतिरपि भागा मुहूर्त्तगतभागकरणार्थ अहोरात्रे विशन्मुहर्ता इति त्रिंशता गुण्य-|| ||न्ते जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३० एषां सप्तषश्या भागे हृते लब्धा नव मुहर्ता एकस्य मुहर्तस्य सप्तविंशतिः ॥९॥
५०१॥ सप्तषष्टिभागा ९१७ अयं च सर्वजघन्यः चन्द्रस्य नक्षत्रयोगकालः, यत्तु श्रीअभयदेयसरिपादैः समवाया) नवमस
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
~ 1005~
Page #1007
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
गाथा:
|| मवाये वृत्तौ नव मुहूर्तान् चतुर्विंशतिं च द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य षषष्टिभागान् । MR यावदस्य चन्द्रयोग उक्तस्तत्तु पूर्णिमाऽमावास्यापरिसमाप्तिकालभाविनक्षत्रपरिज्ञानोपाये उक्कात् पटूपष्टिसंहाः पञ्च || 18|च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिच्छिन्नस्यैकः सप्तषष्टिभाग इत्येवंरूपाद् भवरावोर्नक्षत्रशोधनाधिकारे।
सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः दुःशोधा इति सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः सवर्णनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते जातं १६७४ एषां , AR| सप्तपध्या भागे हते आगतं २५, 'एव'मिति यथाऽभिजित एकविंशतिभागेभ्यः समधिकनवमुहर्तरूपो योगकाल || | आनीतस्तथाप्रकारेणेत्यर्थः, इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिगोथाभिरवगन्तव्यं, चन्द्रयोगकालमानमिति गम्यं, तद्यथा-अभिजि-|| तश्चन्द्रयोगः सप्तपष्टिखण्डीकृतोऽहोरात्रः कल्प्यते, ते पूर्वोक्ता एकविंशतिभागाः पूर्वोक्तेन करणेन नव मुहर्ताः सप्तविं-॥ शतिश्च कला भवन्ति, तथा शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्ठा, चः समुच्चये, एतानि पटू नक्षत्राणि पश्चदश | मुहर्त्तान् यावत् चन्द्रेण सह संयोगः-सम्बन्धो येषां तानि तथा, तद्यथा-एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टि-18 ९ खण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशद्भागान् यावञ्चन्द्रेण सह योगो भवति ततो मुहर्तगतसप्तषष्टिभा
गकरणार्थं वयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नव शतानि नवतानि-नवत्यधिकानि ९९० यदपि चाई तदपि 8 त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्ते जातः पूर्वराशि:8 सहस्रं पञ्चोत्तरं १००५, अस्य सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ता इति, तथा तिन उत्तरा:-उत्तरफल्गुनी उ-8
000000000000000000000000000
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
Bese
~1006~
Page #1008
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६०
गाथा:
श्रीजम्पू-18त्तराषाढा उत्तरभद्रपदा इत्येवंरूपाः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा, चः समुच्चये, एतानि एवकारस्य भिन्नक्रमत्वादेतान्येवेति वक्षस्कारे द्वीपशा-18 योज्यं, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , षट् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावश्चन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि नक्षत्रूचन्तिचन्द्री-8 तथा, तद्यथा-अत्रापि पण्णां नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कानां भागानां शतमेकमेकस्य च भाग-18|
न्द्रसूर्ययो
गकाल पाच स्यार्द्ध चन्द्रेण सह योगस्तत्रैषां भागानां मुहूर्तगतभागकरणार्थ शतं प्रथमतस्त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रीणि सहस्राणि ॥५०॥ पञ्चदशोत्तराणि ३०१५ एतेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता इति, तथा अवशेषाणि-उक्तातिरि
कानि नक्षत्राणि श्रवणो धनिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघा पूर्वाफाल्गुनी हस्तश्चित्रा नुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्तानीति-त्रिंशन्मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमथुवते, तद्यथा-एषां पञ्चदशानां नक्षत्राणां चन्द्रेण सह सम्पूर्णमहोरात्रं यावद्योगस्ततो मुहूर्तगतभागकरणार्थं सप्तषष्टिः त्रिंशता गुण्यते जाते द्वे सहने दशोत्तरे २०१० एषां च सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रिंशन्मुहूर्ता इति, चन्द्रे-चन्द्रविषये एष:
अनन्तरोक्तो योगो नक्षत्राणां ज्ञातव्य इति, 'एतानि चाभिजिदर्जानि क्रमेणार्द्धक्षेत्रब्यर्द्धक्षेत्रसमक्षेत्रसंज्ञकानि सिद्धान्ते IS रूढानि, एषां किल चिरन्तनज्योतिःशास्त्रेष्वेवं भुक्तिरासीत् नतु यथाऽधुना सर्वाण्यप्येकदिनभोगानी'ति श्रीमदावश्य- ५०२॥ 18| कबृहदृत्तिटिप्पनके, एषां चोपयोगः "दुन्नि उ दिवद्धखिते दन्भमथा पुत्तला उ कायवा। समखित्तंमि अ इको अवद्ध18 खित्ते न काययो ॥१॥” इत्यादि । उक्तश्चन्द्रयोगः, अथ रवियोगः- एतेसि णं भन्ते!' इत्यादि, एतेषां भदन्त !
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
poeceneheaeeeeeeeacher
~1007~
Page #1009
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
गाथा:
IS अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्र कति अहोरात्रान् सूर्येण सार्द्ध योग योजयति !, गौतम! चतुरोऽहोरात्राने
षट् च मुहूर्तान, सूर्येण सार्द्ध योग योजयति, कथमिति चेत्, उच्यते, यन्नक्षत्रमहोरात्रस्य यावतः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह समवतिष्ठते तन्नक्षत्रं तावतः एकविंशत्यादीनित्यर्थः पञ्चभागान्-रात्रिन्दिवस्य पञ्चमांशरूपान्, तैः पञ्चभिरेक रात्रिन्दिवं भवतीत्यर्थः, सूर्येण समं व्रजति, इदमत्र हृदयं-यस्य नक्षत्रस्य यावंतः सप्तपष्टिभागाश्चन्द्रयोगयोग्यास्ते पञ्च-1॥ II भिर्भज्यन्ते, लब्धं तत्पश्चमभागात्मकमहोरात्रं, शेष त्रिंशता गुणयित्वा पञ्चभिर्भग्यते लब्धं मुहूर्ताः, उक्तं च-"ज रिक्वं ॥ Rell जावइए वच्चइ चन्देण भागसत्तही। तं पणभागे राईदिअस्स सूरेण तावइए ॥१॥"त्ति, तद्यथा-अभिजिन्नक्षत्रमेक
विंशति सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्तते ततः एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तनमवसेयम्, एक-131 विंशतेश्च पञ्चभिर्भागे हते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः, एकः पञ्चमभागोऽवतिष्ठते स मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यते ।
जातात्रिंशत्तस्याः पञ्चभिर्भागे हते लब्धाः षट् मुहूर्ता इति, एवमभिजिन्यायेन शेषनक्षत्राणां सूर्ययोगकालप्ररूपणं | 181 इमाभिवेक्ष्यमाणाभिगोंथाभिर्नेतन्यं, तत्राभिजिन्नक्षत्रं षण्मुहूर्तान् चतुरश्च केवलान्-परिपूर्णान् अहोरात्रान् सूर्येण सम.
गच्छति, अत्रोपपत्तिः प्रथमत एव कृता, अथ ऊर्ध्व शेषाणां नक्षत्राणां सूर्येण समं योगान् कालपरिमाणमधिकृत्ये|ति गम्यं वक्ष्यामि, तथाहि-शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्ठा चेत्येतानि षट् नक्षत्राणि प्रत्येक सूर्येण समं व्रजन्ति मुहूर्तानेकविंशति षट् चाहोरात्रानिति, तद्यथा-एतानि नक्षत्राणि चन्द्रेण सम सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशत्
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
~1008~
Page #1010
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१६०]
गकालः
गाथा:
श्रीजम्मू-18 संख्यान सप्तषष्टिभागान् व्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजन्तीति प्रत्येक प्रागुक्तकरण-18
वक्षस्कारे प्रामाण्यात् त्रयस्त्रिंशतश्च पञ्चभिर्भागे लब्धाः षट् अहोरात्राः शेषाः सा खयः पञ्चभागास्ते सवर्णनाया जाताः सप्त
| नक्षत्रूच8 ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जाते वे शते दशोत्तरे २१० तेषां परिपूर्णमुहूर्तानयनाय दशभिर्भागो हियते लब्धा 8 या वृधि:
एकविंशतिर्मुहूर्ता इति, तथा तिन उत्तराः-उत्तरभद्रपदा उत्तरफाल्गुनी उत्तराषाढा इत्वेवंरूपाः पुनर्वसू रोहिणी वि॥५०॥ शाखा च एतानि षट् नक्षत्राणि सूर्येण समं ब्रजन्ति मुहूर्तान् त्रीण्येव विंशतिं चाहोरात्रानिति, तद्यथा-एतानि षट् ।
नक्षत्राणि चन्द्रेण समं सप्तषष्टिभागानां शतमेकमेकस्य च भागस्या मेकं प्रत्येकं व्रजन्ति, ततः एतावतः पञ्चभागाशनहोरात्रस्य सूर्येण समं ब्रजनमवगन्तव्यम् , तेन शतस्य पञ्चभिर्भागे हुते लब्धा विंशतिरहोरात्राः, यद तत् त्रिंशता
गुण्यते जातास्त्रिंशत् तस्या दशभिर्भागे हृते लब्धास्त्रयो मुहूर्ता इति, तथा अवशेषाणि-श्रवणधनिष्ठापूर्वभद्रपदारेवत्यश्विनीकृत्तिकामृगशिरःपुष्यमघापूर्वफल्गुनीहस्तचित्राअनुराधामूलपूर्वाषाढारूपाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्येण सहगतानि यान्ति द्वादशैव मुहूर्तान् त्रयोदश च समान्-परिपूर्णानहोरानानिति, तद्यथा-एतानि परिपूर्णान् सप्तपष्टिभागान् । चन्द्रेण समं ब्रजन्ति, ततः सूर्येण सह तानि पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सप्तषष्टिसंख्यान गच्छन्ति, सप्तषष्टेच पञ्चभि-15 ॥५०३॥ भांगे हते लब्धास्त्रयोदश अहोरात्राः शेषौ द्वौ भागौ तौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः तस्याः पञ्चभिर्भागे हते लब्धा द्वादश मुहूर्ता इति, अत्र च प्रसङ्गसङ्गत्या सूर्ययोगदर्शनतश्चन्द्रयोगपरिमाणं यथा जायते तथा दर्यते ज्योतिष्कर-ग
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
Rececececccesceae
~ 1009~
Page #1011
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६०] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
Bosa9096
गाथा:
IN ण्डोतं-'णक्खत्तसूरजोगो मुहुत्तरासीकओ अ पञ्चगुणा । सत्तद्वीऍ विभत्तो लडो चन्दस्स सो जोगो॥१॥' नक्षत्राणां-18
अर्थक्षेत्रादीनां यः सर्येण सह योगःस मुहर्तराशीक्रियते कृत्वा च पञ्चभिर्गुण्यते ततः सप्तषट्या भागे हते सति यलब्ध स चन्द्रस्य योगः, इयमत्र भावना-कोऽपि शिष्यः पृच्छति, यत्र सूर्यः षट् दिवसान एकविंशतिं च मुहूर्तान् अवति-|| छते तत्र चन्द्रः कियन्तं कालं तिष्ठतीति, तत्र मुहूर्तराशिकरणार्थ षट् दिवसास्त्रिंशता गुप्यन्ते गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं सहस्रं १००५, तस्य
सप्तपट्या भागे हते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, एतावान क्षेत्राणां प्रत्येकं चन्द्रेण समं योगः, एवं समक्षेत्राणां व्यर्द्धक्षे॥ वाणामभिजितश्च चन्द्रेण समं योगो ज्ञेय इति । अथ कुलद्वारम्
कति णं भन्ते! कुला कति उपकुला कति कुलोवकुला पण्णता?, गो०! बारस कुला वारस उपकुला चत्तारि कुलोचकुला पण्णता, बारस कुला, तंजहा-धणिट्ठाकुलं १ उत्तरभदवयाकुल र अस्सिणीकुलं ३ कत्तियाकुलं ४ मिगसिरकुलं ५ पुस्सो कुलं ६ मघाकुलं ७ उत्तरफागुणीकुलं ८ चित्ताकुलं ९ विसाहाकुलं १० मूलो कुलं ११ उत्तरासाटाकुलं १२ । मासाणं परिणामा होति कुला उपकुला उ हेडिमगा। होति पुण कुलोवकुला अभीभिसय अब अणुराहा ॥ १॥ वारस उनकुला सं०-सवणो उपकुलं १ पुष्षभदवया उवकुलं रेवई उवकुलं भरणीउबकुलं रोहिणीउवकुलं पुणबसू उवकुलं अस्सेसा उपकुलं पुब्वफग्गुणी उवकुलं हत्थो उवकुलं साई उपकुलं जेट्टा उवकुलं पुव्वासाढा उवकुलं । चत्तारि कुलोवकुला, तंजहा-अभिई कुलोचकुला सयमिसया कुलोवकुला
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
COMA
'कुल-उपकुल-कुलोपकुल' प्ररुपणा
~ 1010~
Page #1012
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
वक्षस्कारे AS कुलादिपू
र्णिमामावाखाम १६१
॥९०४॥
अहा फुलोबकुला अणुराहा कुलोवकुला । कति णं भन्ते ! पुणिमाओ कति अमावासाओ पण्णत्ताओ?, गोअमा! वारस पण्णिमाओ वारस अमावासाओ पं०, ०-साविट्ठी पोडवई आसोई कत्तिगी मम्गसिरी पोसी माही फग्गुणी चेत्ती वइसाही जेवामूली आसादी, साविहिणि भन्ते! पुणिमासि कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ?, गो०! तिणि णक्खत्ता जोगं जोएंति, सं०-अभिई सवणो धणिवा ३। पोहवईणि भंते ! पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति ?, गोमा ! तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-सथमिसया पुब्वभवया उत्तरभदयया, अस्सोइणि भंते! पुण्णिम कति णक्खत्ता जोगं जोएंति १, गोभमा! दो जोएंति सं०-रेवई अस्सिणी अ, कत्तिइण्णं दो-भरणी कत्तिा य, मग्गसिरिणं दो-रोहिणी मगासिरं च, पोर्सि तिण्णि-अद्दा पुणबसू पुस्सो, माधिof दो-अस्सेसा मघा य, फग्गुणि णं दो-पुवाफग्गुणी य उत्तराफरगुणी य, चेत्तिण्णं दो-हत्थो चित्ता य, बिसाहिण दो-साई विसाहा च, जेवामूलिण्णं तिण्णि-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिणं दो-पुज्जासाढा उत्तरासादा । साविट्टिणं भन्ते ! पुणिमं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएर कुलोवकुलं जोएइ ?, गो०! कुल वा जोएइ उवकुलं वा जोपइ कुलोचकुलं वा जोपड, कुलं जोएमाणे धणिहा णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जोएमाणे सवणे णखत्ते जोएइ कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ, साविठ्ठीपणं पुण्णिमासि णं कुलं वा जोएइ जाव कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुता कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविही पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तब्वं सिआ, पोद्दवदिण्णं भंते ! पुणिमं किं कुलं जोएइ ३ पुच्छा, गो! कुलं वा उपकुलं वा कुलोबकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरभवया णक्खत्ते जोपद उ० पुवमायया० कुलोव० सयभिसया० णक्खत्ते जोपद, पोढवइण्णं पुणिम कुलं वा जोण्ड जाव कुलोवकुलं बा जोएड कुलेण वा जुत्ता जाव कुलोबकुलेण वा जुत्ता पोहबई पुण्णमासी
esese
॥५०४॥
~ 1011~
Page #1013
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
जुत्तत्तिवत्त सिया, अस्सोइण्णं भन्ते! पुच्छा, गोकुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ णो लब्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणखत्ते जोएइ उबकुलं जोएमाणे रेवइणक्खत्ते जोरइ, अस्सोइण्णं पुष्णिम कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ कुलेण का जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्तिवत्तव्वं सिआ, कत्तिइण्णं भंते! पुण्णिमं किं कुलं ३ पुच्छा, गो! कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएर णो कुलोबकुलं जोपद, कुलं जोएमाणे कतिभाणक्खत्ते जोएइ उव० भरणी कत्तिइण्णं जाव बत्तव्यं, मग्गसिरिणं भंते ! पुणिर्म किं कुलं तं चेव दो जोएर णो भवइ कुलोवलं, कुलं जोएमाणे मग्गसिरणक्खत्ते जोएन उ० रोहिणी मग्गसिरणं पुणिमं जाव वत्तवं सिआ इति । एवं सेसिआभोऽवि जाय आसादि, पोसिं जेवामूलिं च कुलं वा उ० कुलोवकुलं या, सेसिआणं कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं ण भण्णइ । साविद्विष्णं भते! अमावासं कति णक्खता जोएंति ?, गो! दो णक्सत्ता जोयंति, तं०-अस्सेसा य महा य, पोहबइण्णं भंते ! अमावासं कति णवत्ता जोएंति ?, गोअमा! दो पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी अ, अस्सोइण्णं भंते ! दो-हत्थे चिसा य, कतिइण्णं दो-साई विसाहा य, मग्गसिरिणं तिण्णि-अणुराहा जेट्ठा मूलो अ, पोसिणि दो-पुब्बासाढा उत्तरासाढा, माहिणं तिष्णि-अभिई सत्रणो धणिडा, फग्गुणि तिण्णि-सयभिसया पुत्रभवया उत्तरभद्दवया, चेत्तिण्णं दो-रेवई अस्सिणी अ, वइसाहिणं दो-भरणी कत्तिा य, जेट्टामूलि दो-रोहिणी मग्गसिरं च, आसाढिपणं तिण्णि-अदा पुणब्वसू पुस्सो इति । साविडिण्णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवकुल जोएइ, गो०! कुलं वा जोइए आपकुलं या जोएइणो लम्भइ कुलोवकुलं, कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उपकुलंजोएमाणे अरसेसाणक्खत्ते जोएइ, साविद्विगं अमावासं फुलं वा जोएड उपकुलं वा जोएइ, कुलेग वा जुत्ता उबकुलेग वा जुत्ता साविट्ठीअमावासा जुत्तत्ति
3202929200202000
श्रीजम्मू. ८५
~ 1012~
Page #1014
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
sesekeeses
र्णिमामा
श्रीजम्बू- वत्तव्य सिजा, पोवईण्णं भंते ! अमावास तं व दो जोएइ कुलं वा जोएर सबकुलं०, कुलं जोएमाणे उत्तराफरगुणीणक्खत्ते शिवक्षस्कारे
जोएर उन० पुरुषाफरगुणी, पोहवइणं अमावासं जाय बत्तन्वं सिआ, मग्गसिरिणं तं व कुलं मूले णक्खत्ते जोएड उ० जेट्ठा कुलादिपू
कुलोबकुल अणुराहा जाव जुत्तत्तिवत्तव्यं सिआ, एवं माहीए फग्गुणीए आसाढीए कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं या, अवसेसिआण या वृत्तिः कुलं वा उपकुलं वा जोएइ ।। जया णं भन्ते ! साविट्टी पुणिमा भवइ तया णं माही अमावासा भवइ ?, जया णं भन्ते ! माही
वाखाःसू.
१६१ ।।५०५।।
पुणिमा भवइ तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ ?, हता! गो०! जया साविट्ठी तं चैव वत्तव, जया णं भन्ते ! पोट्ठबई पुणिमा भवइ तया णं फरगुणी अमावासा भवइ जया णं फग्गुणी पुणिमा भवइ तथा णं पोट्ठबई अमावासा भवद, हता! गोभमा ! तंव, एवं एतेणं अभिलावेणं इमामो पुणिमाओ अमावासाओ अत्राओ-अस्सिणी पुणिमा चेत्ती अमावासा कत्तिगी पुण्णिमा वइसाही अमावासा मम्गसिरी पुण्णिमा जेट्ठामूली अमावासा पोसी पुण्णिमा आसाढी अमावासा (सूत्र १६१) 'कति णं भन्ते ! कुला'इत्यादि, कति भदन्त ! कुलानि-कुलसंज्ञकानि नक्षत्राणि तथा कति उपकुलानि तथा कति कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि?, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशःप्राकृतत्वात् , भगवानाह-गौतम! द्वादश कुलानि द्वादश उपकुलानि चत्वारि |
कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि, तत्र द्वादश कुलानि, तद्यथा-धनिष्ठा कुलं उत्तरभद्रपदा कुलं अश्विनी कुलं कृत्तिका कुल ॥५०५॥ 18 मृगशिरः कुलं पुष्यः कुलं मघा कुलं उत्तरफल्गुनी कुलं चित्रा कुलं विशाखा कुल मूलः कुलं उत्तराषाढा कुलं, अथ किं कुला
| दीनां लक्षणं , उच्यते-मासानां परिणामानि-परिसमापकानि भवन्ति कुलानि, कोऽर्थः -इह यैर्नक्षत्रैःप्रायो मासानां ||
Searceaerseas
~ 1013~
Page #1015
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
M! परिसमाप्तय उपजायन्ते माससदृशनामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि, तद्यथा-श्राविष्ठो मासः प्रायः
श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमाप्तिमुपैति भाद्रपदः उत्तरभद्रपदया अश्वयुक् अश्विन्या इति, अविष्ठादीनि प्रायो
मासपरिसमापकानि माससह शनामानि, प्रायोग्रहणादुपकुलादिभिरपि नक्षत्रमांसपरिसमाप्तिर्जायते इत्यसूचि, कुला-1 18नामधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि उपकुलानि कुलानां समीपमुपकुलं तत्र वर्तन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुप-10 18 कुलानीति व्युत्पत्तेः, यानि कुलानामुपकुलानां चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि, अभिजिदादीनि द्वादशोपकुलानि,
| तद्यथा-श्रवणः उपकुलं पूर्वभद्रपदा उपकुलं रेवती उपकुलं भरणी उपकुलं रोहिणी उपकुल. पुनर्वसू उपकुलं अश्लेषा | 18| उपकुलं पूर्वाफाल्गुनी उपकुलं हस्तः उपकुलं स्वातिः उपकुलं ज्येष्ठा उपकुलं पूर्वाषाढा उपकुलं, चत्वारि कुलोपकुलानि 18 तद्यथा-अभिजित् कुलोपकुलं शतभिषक् कुलोपकुलं आर्द्रा कुलोपकुलं अनुराधा कुलोपकुलं, कुलादिसंज्ञाप्रयोजनं तु
'पुर्वेषु जाता दातारः, संग्रामे स्थायिनां जयः। अन्येषु त्वन्यसेवार्ता, यायिनां च सदा जयः ॥१॥ इत्यादि । अथ | पूर्णिमामावास्याद्वारम्-'कति णं भन्ते !'इत्यादि, कति भदन्त ! पूर्णिमा:-परिस्फुटषोडशकलाकचन्द्रोपेतकालवि| शेषरूपाः, पूर्णेन चन्द्रेण निर्वृत्ता इति व्युत्पत्तेः 'भावादिमः' (श्रीसिद्ध० ६-४-२१) इतीममत्यये रूपसिद्धिः, तथा 18 | कति अमावास्या:-एककालावच्छेदेनैकस्मिन्नक्षत्रे चन्द्रसूर्यावस्थानाधारकालविशेषरूपाः, अमा-सह चन्द्रसूयौं बसतो-18 ऽस्यामिति व्युत्पत्तेः, औणादिकेऽप्रत्यये स्त्रीलिङ्गे डीप्रत्यये च रूपसिद्धिः, प्रज्ञप्ताः, गौतम! जातिभेदमधिकृत्य द्वादश !
eseseseseseseeeeeeeeee
~ 1014~
Page #1016
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----
------------------------ मुलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा
Sasasee
॥ पूर्णिमाः द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-श्रविष्ठा-धनिष्ठा तस्यां भवा श्राविष्ठी-श्रावणमासभाविनी प्रौष्ठपदा-18 वक्षस्कारे
| उत्तरभद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी-भाद्रपदभाविनी अश्वयुग्-अश्विनी तस्यां भवा आश्वयुजी-आश्विनेयमासभाविनी, कुलादिपून्तिचन्द्री
एवं कार्तिकी मार्गशीपी पौषी माघी फाल्गुनी चैत्री वैशाखी ज्येष्ठामूली आषाढी इति, प्रश्नसूत्रे पूर्णिमामावास्ययो-र्णिमामाया वृत्तिः अदेन निर्देशेऽपि उत्तरसूत्रे यदभेदेन निर्देशस्तन्नामैक्यदर्शनार्थ, तेनामावास्या अपि श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी आश्वयु जी इत्या
16 वासाः मू. ॥५०६॥ 18|| दिभिर्व्यपदेश्याः, ननु श्राविष्ठी पूर्णिमा अविष्ठायोगाद्भवति, अमावास्या तु श्राविष्ठी न तथा, अस्या अश्लेषामघा
योगस्य भणिष्यमाणत्वात् , उच्यते, श्राविष्ठी पूर्णिमा अस्वेति श्राविष्ठः-श्रावणमास: तस्येयं श्राविष्ठी श्रावणमासभा-10 विनीत्यर्थः, एवं प्रौष्ठपद्यादिप्यमावास्यासु वाच्यं । सम्प्रति यैनक्षत्रैरेकैका पौर्णिमासी परिसमाप्यते तानि पिपृच्छिषुराह'सावहिणं भन्ते !' इत्यादि, श्राविष्ठी पौर्णमासी भदन्त ! कति नक्षत्राणि योगं योजयन्ति-योगं कुर्वन्ति ?, कति नक्ष-18 बाणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि योगं योजयन्ति, त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, इह श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठीं पौर्णमासी परिसमापयतः, पञ्चस्वपि युगभाविनीषु पूर्णिमासु काप्यभिजितः परिसमापकादर्शनात्, केवलम
H ॥५७६॥ भिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्तं, किच-सामान्यत इदं श्राविष्ठीसमापकनक्षत्रदर्शन ज्ञेयं, पञ्चस्वपि श्राविष्ठीषु पूर्णिमासु का पूर्णिमा किं नक्षत्रं कियत्सु मुहूर्तेषु कियत्सु भागेषु कि यत्सु प्रतिभागेषु च गतेषु ।
Serectersecticencercee
aoad20s
~1015~
Page #1017
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
गम्येषु च परिसमापयतीति सूक्ष्मेक्षिकादर्शनार्थ त्विदं प्रवचनप्रसिद्धं करणं भावनीयं- 'नाउमिह अमावासं जइ इच्छसि कंमि होइ रिक्खमि ? । अवहारं ठावेजा तत्तिअरूबेहिं संगुणिए ॥ १ ॥' याममावास्यामिह युगे ज्ञातुमिच्छसि यथा कस्मिनक्षत्रे वर्त्तमाना परिसमाप्ता भवतीति यावद्रूपैर्यावत्यो अमावस्या अतिक्रान्तास्तावत्या सङ्ख्यया इत्यर्थः, वक्ष्य|माणस्वरूपमवधार्यते - प्रथमतया स्थाप्यते इत्यवधार्थी - ध्रुवराशिः तमवधार्यराशि पट्टिकादी स्थापयित्वा सङ्गणयेत्, अथ किंप्रमाणोऽसावधार्यराशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्थमाह- 'छावट्ठी य मुहुत्ता विसट्टिभागा य पंच पडिपुण्णा । बासट्टिभागसत्तद्विगो अ एको हवड़ भागो ॥ २ ॥ पट्षष्टिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च परिपूर्णा द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भाग इत्येतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथमेतावत्प्रमाणस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेत पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्यायाः लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १२४ । ५२ अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकलक्षणो गुण्यते जाता दश तेषां च चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्द्विकेनापवर्त्तना जात उपरितनश्छेद्यो राशिः पश्चक रूपोऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः लब्धाः पञ्च द्वाषष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्त्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टा| दशभित्रिंशदधिकैः शतैः सप्तषष्टिभागरूपैः गुण्यन्ते जातानि एकनवतिः शतानि पञ्चाशदधिकानि ९१५०, छेदराशिरपि द्वाषष्टिप्रमाणः सप्तषष्ट्या गुण्यते जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४ उपरितनराशिर्मु
For P&Praise City
~1016~
Page #1018
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
णिमामा
श्रीजम्यू- नयनाय भूयस्त्रिंशता गुण्यते, जाते हे लक्षे चतुःसप्ततिसहस्राणि पचं शतानि २७४५००, तेषा चतुष्पंचाशदधि- वक्षस्कारे
द्वीपशा- कैकचत्वारिंशच्छतैर्भागहरणं लब्धाः षट्षष्टिर्मुहूर्ताः ६६ शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि ३३६ । कुलादिपून्तिचन्द्री
ततो द्वापष्टिभागानयनाथै तानि षष्ट्या गुण्यन्ते जातानि विंशतिसहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २०८३२, या वृचिः
वाखा:मू. तेषामनन्तरोक्तच्छेदराशिना ४१५४ भागो हियते लब्धाः पंच द्वापष्टिभागाः ५ शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिः ततश्चास्या ५०७॥ द्वाषष्टया अपवर्तना क्रियते जात एकः छेदराशेरपि द्वाषष्टयाऽपवर्त्तनाया जाता सवषष्टिः, तत आगतं षट्षष्टिर्मुहूर्ता
एकस्य च मुहर्तस्य पंच परिपूर्णा द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधाय-18 | राशिप्रमाणं, सम्प्रति शेषविधिमाह-एअमवहाररासिं इच्छअमावाससंगुणं कुज्जा । णक्खत्ताणं इत्तो सोहणगविहिं। || निसामेह ॥३॥' एनं-अनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिच्छामावास्यासंगुण-याममावास्यां ज्ञातुमिच्छति तत्संगुणितं ॥॥ कुर्यात्, अत ऊध्वं च नक्षत्राणि शोधनीयानि ततोऽत ऊर्च नक्षत्राणां शोधनकविधि-शोधनप्रकारं वक्ष्यमाणं निशा-१ मयत-आकर्णयत । तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-'बावीसं च मुहुत्ता छायालीसं बिसविभागा य । एवं पुणव-19
५०७|| ॥६|| सुस्स य सोहेअब हवइ पुण्णं ॥४॥' द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एतत्-18
एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति शोद्धव्यं, कधमेवंप्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, । यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकं पातिक्रम्य कति पर्यायास्तेनैकेन पर्वणार
~ 1017~
Page #1019
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
लभ्यन्ते ?, राशित्रयस्थापना १२४-५-१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जाताः पश्चैव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात्, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पञ्च चतुर्विंशत्यधि-18 कशतभागा, ततो नक्षत्रानयनाय एतेऽष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयितव्या इति गुणकाररा| शिच्छेदराश्योर्द्विकेनापवर्तना जातो गुणकारराशिः नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ छेदराशिषिष्टिः, तत्र पञ्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यंते जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५ छेदराशिपष्टिलक्षणः सप्तषष्ट या गुण्यते जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तथा पुष्यस्य त्रयोविंशतिभागाः प्राक्त-10 नयुगधरमपर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुर्दश शतानि पइविंशत्यधिकानि १४२६,
तानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशत्प्रमाणात् शोध्यन्ते, शेष तिष्ठति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपश्चाशद1धिकानि ३१४९,एतानि मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि
|९४४७० तेषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहुर्ताः शेष तिष्ठ-18 ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि ३०८२, एतानि द्वापष्टिभागानयनाथं द्वाषट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं एक-1, नवतिसहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१०८४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते लब्धाः षट्चत्वारिंशत् मुहूत्र्तस्य है। द्वापष्टिभागाः एषा पुनर्वसुनक्षत्रशोधनकनिष्पत्तिः। अथ शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-बावत्तरं सर्य फग्गुणीण बाणउ-181
~ 1018~
Page #1020
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू- वे विसाहासु । चत्तारि अ बायाला सोझा तह उत्तरासाढा ॥५॥' द्वासप्तत-द्वासप्तत्यधिकं शतं फल्गुनीनां-1|| वक्षस्कारे द्वीपशा- उत्तरफल्गुनीनां शोध्यं, किमुक्तं भवति ?-द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीनि उत्तरफल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि कुलादिपू
चन्द्रा शोध्यन्ते, एवमुत्तरत्रापि भावार्थो भावनीयः, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वे शते द्विनवत्य-18-णिमामाया वृत्तिः HI| धिके २९२, अथानन्तरमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राण्यधिकृत्य शोध्यानि-चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२॥४॥
वास्याः मू. ५०८॥ 'ए पुणवसुस्स य बिसद्विभागसहिअं तु सोहणगं । एत्तो अभिईआई बीअं बोच्छामि सोहणगं ॥६॥ एतद्-अन
स्तरोत शोधनकं सकलमपि पुनर्वसुसस्कद्वापष्टिभागसहितमवसेयं, एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविंशतिर्महास्ते 21 | सर्वेऽपि उत्तरस्मिन् २ शोधनके अन्तःप्रविष्टा वर्तन्ते न तु द्वापष्टिभागास्ततो यत् यत् शोधनकं शोध्यते तत्र तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः उपरितनाः शोधनीया इति, एतच्च पुनर्वसुप्रभृति उत्तराषाढापर्यन्तं प्रथम
शोधनकं, अत ऊर्ध्वमभिजितमादिं कृत्वा द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'अभिइस्स नवर ॥|| मुहुत्ता बिसद्विभागा य होति चउवीसं । छावट्ठी य समत्ता भागा सत्तहिछे अकया ॥७॥ इगुण? पोडक्या तिसु चेष
नवोत्तरेसु रोहिणिआ। तिसु णवणवएसु भवे पुणवसू फग्गुणीओ अ॥८॥ पंचेव इगुणवन्नं सयाई इगुणत्तराई। ॥५०८॥ छच्चेव । सोज्झाणि विसाहासु मूले सत्तेव चोआला ॥९॥ अढसय इगूणवीसा सोहणर्ग उत्तराण साढाणं । चउवीसं खलु भागा छावडी चुण्णिआओ अ॥१०॥ अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहूर्ता एकस्य च मुहर्तस्य सत्का
~ 1019~
Page #1021
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
शतावशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभाग व सप्तपष्टिच्छेदकृताः परिपूर्णाः षट्षष्टिभागाः, तथा एकोनषष्ट-एकोन-1 पष्टयधिकं शतं प्रोष्ठपदानां-उत्तरभद्रपदानां शोधनकं, किमुक्तं भवति ! एकोनपश्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदापर्यन्तानि | नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावनीयं, तवा त्रिषु नवोत्तरेषु रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धयन्ति, तथा त्रिषु नवनवतेषु-1 नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्र ज्ञातं शुक्ष्यति, तथा एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राच्यफाल्गुन्युत्तरफल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु एकोनसप्तत्यधिकानि | षट् शतानि ६६९ शोध्यानि, मूलपर्यन्ते नक्षत्र जाते सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४ शोध्यानि, उत्तराषाढा-K नां-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकै अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, सर्वेष्यपि च शोधनकेषु उपरि १ अभिजितो नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहर्तस्य द्वापष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः पटूपष्टिच चूर्णिकाभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य | सप्तपष्टिभागाः शोधनीयाः, 'एआई सोहइत्ता जं सेसं तं हवइ णक्खत्तं । इत्थं करेइ उडवइ सूरेण समं अमावास ४॥ ११॥ एतानि-अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्र, एतस्मिंश्च
नक्षत्रे करोति सूर्येण समं उटुपतिरमावास्यामिति करणगाथासमूहाक्षरार्थः, भावना त्वियं-केनापि पृच्छचते-युगस्यादी 18 प्रथमा अमावास्या केन नक्षत्रेणोपेता समाप्तिमुपैतीति ?, तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः पट्पष्टिर्मुहुर्ताः पञ्च द्वाप18ष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषधिभाग इत्येवंरूपो भियते, धृत्वा चैकेन गुण्यते, प्रथमायाः अमावा
Droesences
Seeeeeee
।
~ 1020~
Page #1022
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपarविचन्द्री या पृचिः
॥५०९॥
स्थायाः पृष्टत्वात्, 'एकेन गुणितं तदेव भवती'ति जातस्तावानेव राशिः ततस्तस्माद् द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा इत्येवंरूपं पुनर्वसु शोध्यते, तत्र षट्षष्टिमुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एकं मुहर्त्तमपकृष्य तस्य द्वाषष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च ते द्वाषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिः तेभ्यः षट्चत्वारिंशच्छुद्धाः शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्त्तेभ्यस्त्रिंशता मुहूर्त्तेः पुष्यः शुद्धः, पश्चात् त्रयोदश मुहूर्त्ताः, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त्त प्रमाणं, तत इदमागतं - अश्लेषानक्षत्रस्यैकस्मिन् मुहर्त्ते एकस्य च मुहर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिघाच्छिन्नस्य षट्षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमामावास्यासनाप्तिमुपगच्छतीति, एवं सर्वास्वप्यमावास्यासु करणं भावनीयम् । अत्र पूर्णिमाप्रक्रमे यदमावास्याकरणमुक्तं तत्करणगाथानुरोधेन युगादावमावस्यायाः प्राथम्येन क्रमप्राप्तत्वेन च । अथ प्रस्तुतं पूर्णिमाकरणं 'इच्छापूष्णिमगुणिओ अबहारो सोऽत्थ होइ कायवो। तं चैव य सोहणगं अभिईआई तु कायवं ॥ १ ॥ सुमि अ सोहणगे जं सेसं तं हवेज णक्खतं । तत्थ य करेइ उदुवइ पडिपुण्णं पुष्णिमं विमलं ॥ २ ॥ यथा पूर्वममावास्या | चन्द्रनक्षेत्रपरिज्ञानार्थमवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि -- पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्र परिज्ञानविधौ ईप्सितपूर्णिमासीगुणित: यां पूर्णमासीं ज्ञातुमिच्छसि तत्सङ्ख्यया गुणितः कर्तव्यः, गुणिते च सति तदेव पूर्वोक्तं शोधनकं कर्तव्यं, केवलमभिजिदादिकं न तु पुनर्वसुप्रभृतिकं, शुद्धे च शोधन के यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवेन्नक्षत्रं पौर्णमासीयुक्तं, तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति
For P&False Cly
~1021~
वक्षस्कारे कुलादिपू
र्णिमामा
वास्याः सू. १६१
॥५०९ ॥
Page #1023
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| उडुपति:-चन्द्रमा: परिपूर्णा पूर्णमासी विमलामिति करणगाथाद्वयाक्षरार्थः, भावना त्वियं-कोऽपि पृच्छति-युग-III IN स्यादौ प्रथमा पौर्णमासी कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे समाप्तिमुपगच्छतीति, तत्र षट्षष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च |
द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्यैकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंरूपोऽवधार्थराशिर्धियते, स प्रथमायां पौर्णमास्यां किल पृष्ट-18
मित्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवति' ततस्तस्मादभिजितो नव मुहर्ता एकस्य च महतस्य चतुर्विंशतिषि-11 ||ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोधनकं शोधनीयम् , तत्र च षषष्टेर्नष मुहूर्ताः | | शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत तेभ्यः एको मुहूर्तो गृहीत्वा द्वापष्टिभागीकृतः ते च द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे || प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तपष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशत्तेभ्यः एक रूपमादाय सप्तप-18 ष्टिभागीक्रियते ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाता अष्टषष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः । शस्थितौ पश्चाद् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहूतः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्महूर्ताः षड्विंशतिः, तत इदमागतं
धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसंख्येषु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चष-12 IS|ष्टिसंख्येषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी समाप्तिमियत्ति, एवं पञ्चानां युगभाविनीनां श्राविष्ठीनां पूर्णिमानां 12 1 क्वचित् श्रवणेन कचिद् धनिष्ठया च परिसमाप्तिर्भावनीया । तथा प्रौष्ठपदीमिति-भाद्रपदी भदन्त ! पौर्णमासी कति
नक्षत्राणि योगं योजयन्ति !, भगवानाह-गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि योजयन्ति, तद्यथा-शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तर
~1022~
Page #1024
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥५१०॥
भद्रपदा, आसां पञ्चानामपि युगभाविनीनामुतनक्षत्राणां मध्ये अन्यतरेण परिसमापनात्, आश्वयुज भदन्त ! पौर्णमासीं कति नक्षत्राणि योजयन्ति ?, गौतम ! द्वे योजयतः - रेवती अश्विनी च, इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि कांचिदाम्ययुज पौर्णमासीं परिसमापयति परं तत्प्रोष्ठपदीमपि लोके च प्रोष्ठपद्यामेव तस्य प्राधान्यं तन्नाम्ना तस्याः अभिधानाद् अतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः, अतो द्वे समापयत इत्युक्तं, आसां बह्वीनां युगभाविनीनामु कनक्षत्रयोर्मध्येऽ| न्यतरेण परिसमापनात्, तथा कार्त्तिकीं पौर्णमासीं द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-भरणी कृत्तिका च, इहाप्यम्विनीनक्षत्रं कांचित् कार्त्तिकीं पौर्णमासी परिसमायति परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधानमितीह न विवक्षितमित्यदोषः, अतोऽत्रापि द्वे इत्युक्तं, आसां बह्वीनां युगभाविनीनां उक्तनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात्, तथा मार्गशीर्षी पौर्णमासीं द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-रोहिणी मृगशिरश्च, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां उकनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात्, तथा पौषी पौर्णमासीं त्रीणि नक्षत्राणि, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुण्यश्च, आसां युगमध्येऽधिकमाससम्भवेन षण्णामपि युगभाविनीनां | उक्तनक्षत्राणां मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात्, तथा माघ पौर्णमासीं द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-अश्लेग मघा चशब्दात् पूर्वफल्गुनीपुष्यी ग्राह्यौ, तेनासां युगभाविनीनां पञ्चानामपि मध्ये काशिदश्लेवा काञ्चिन्मघा काश्चित् पूर्वफल्गुनी कांचित्पुष्यश्च | परिसमापयति, तथा फाल्गुनी पौर्णमासीं द्वे नक्षत्रे, तद्यथा- पूर्व फल्गुनी उत्तर फल्गुनी च, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां उक्तयोर्नक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा चैत्री पौर्णमासीं द्वे नक्षत्रे, तद्यथा - हस्तः चित्रा च, आसां
For P&Praise City
~1023~
अवक्षस्कारे कुलादिपूर्णिमामा
वास्याः सू. १६१
॥५१०॥
Page #1025
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्री. ८६
पंचानामपि युगभाविनीनामुक्तयोर्नक्षत्रयोर्मध्येऽन्तरेण समापनात्, तथा वैशाखीं द्वे, तद्यथा - स्वातिविंशाखा च शब्दादनुराधा, इदं हि अनुराधानक्षत्रं विशाखातः परं विशाखा चास्यां पूर्णिमास्यां प्रधाना ततः परस्यामेव पौर्ण| माश्यां तत्साक्षादुपात्तं नेहेति अतो द्वे इत्युक्तं, आसां बह्वीनां युगभाविनीनां उक्तनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा ज्येष्ठामूली पौर्णमासीं त्रीणि, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलं च, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां उक्तनक्षत्राणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा आषाढी पौर्णमासीं द्वे, तद्यथा पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, आसां युगान्ते अधिकमा| ससम्भवेन पण्णामपि युगभाविनीनां उक्तनक्षयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात् । सम्प्रति कुलद्वारप्रतिपादनेन स्वतः सिद्धामपि कुलादियोजनां मन्दमतिशिष्यवोधनाय प्रश्नयन्नाह - 'साविट्ठिण्ण' मित्यादि, श्रविष्ठीं भदन्त ! किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति १, भगवानाह - गौतम ! कुलं वा युनक्ति वाशब्दः समुच्चये ततः कुलमपि युनक्तीत्यर्थः, एवमुपकुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जत् घनिष्ठा नक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुल (तया) प्रसिद्धस्य सतः श्राविष्ट्यां पौर्णमास्यां भावात्, उपकुलं युञ्जत् श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युञ्जत् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां | श्राविष्ठयां पूर्णिमास्यां द्वादश मुहूत्र्त्तेषु किञ्चित्समधिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणसहचरत्वात् स्वयमपि | तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयति इति विवक्षितत्वाद्युनक्तीत्युक्तं, सम्प्रत्युपसंहारमाहयत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविष्ठयाः पौर्णमास्या योजनाऽस्ति ततः श्राविष्ठीं पौर्णमासीं कुलं वा युनक्ति उपकुलं
For P&Pase Cinly
~ 1024 ~
1
Page #1026
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू-18वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्तीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्ता सती AS वक्षस्कारे द्वीपशा- श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । तथा 'पोहबदिण्णं भन्ते ! इत्यादि, ISI कुलादिपू
॥ | पौष्ठपदी पौर्णमासी भदन्त! किं कुलं वा युनक्तीत्यादि पृच्छा, गौतम! कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा युनक्ति, या वृत्तिः
वास्याः || तत्र कुलं युञ्जत् उत्तरभद्रपदानक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् पूर्वभद्रपदानक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युद्धत् शत-18
१६१ | भिषक् नक्षत्रं युनक्ति, उपसंहारमाह-यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः प्रौष्ठपद्याः पौर्णमास्याः योजनाऽस्ति ततः प्रौष्ठ-18|| पदी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्तीति वक्तव्यं स्यात् इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्ता सती प्रौष्ठपदी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् इति । तथा 'अस्सोइण्ण मिति आश्वयुञ्जी भदन्तेति पृच्छा, गौतम ! कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति
नो लभते कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् अश्विनीनक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् रेवतीनक्षत्रं युनक्ति, उपसंहारमाह|| यत एवं द्वाभ्यां कुलादिभ्यां आश्वयुज्याः पौर्णमास्या योजनास्ति तत आश्वयुजी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं
वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा उपकुलेन वा युक्ता सती ॥५११॥ 18 आश्वयुजी पौर्णमासी युक्तेति वक्तव्यं स्यात् इति, तथा कार्तिकी भदन्त ! पौर्णमासी किं कुलमित्यादि पृच्छा, 81 18 गौतम! कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति न कुलोपकुलं युनक्ति, तत्र कुलं युञ्जत् कृत्तिकानक्षत्र युनक्ति उपकुलं
~ 1025~
Page #1027
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
युञ्जत् भरणीनक्षत्रं युनक्ति कार्तिकीमित्याद्युपसंहारवाक्यं प्राग्वत् इति, मार्गशीर्षी भदन्त ! पौर्णमासी किकुलं तदे-॥! वेति द्वे युक्तः, कोऽर्थः ?-कुलमुपकुलं वा युनक्ति न भवति कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् मृगशिरो नक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् रोहिणी, मार्गशीषी पौर्णमासीमित्याद्युपसंहारवाक्यं प्राग्वत्, अथ लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं सेसिआओ'इत्यादि, एवं शेषिका अपि-पौष्याद्यास्तावद्वक्तव्याः यावदापाढीपूर्णिमा इत्यर्थः, पौषी ज्येष्ठामूली च पूर्णिमा
कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनकि, शेषिकायां-माध्यादीनां कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा ४ युनक्ति, कुलोपकुलं न भण्यते, तदभावादिति । अथामावास्याः-'साविटिपणं इत्यादि, श्राविष्ठीं-श्रावणमासभाविनी 18 अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?-यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य श्राविष्ठीं अमावास्यां परिसमापयन्ति ?, भगवानाह-18
गौतम! द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-अश्लेषा मघा, इह व्यवहारनयमतेन यस्मिनक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्यातिने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे अमावास्या भवति, यस्मिंश्च नक्षत्रे अमावास्या तत आरभ्य परतः पञ्चदशे चतु-18 देशे वा नक्षत्रे पौर्णमासी, तत्र श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां चोक्ता ततोऽमावास्यायामष्यस्यां अश्लेषा मघा चोक्ता, लोके च तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानायामपि प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतो अमावास्याऽभूत् ततः सकलोऽप्यहोरात्रोऽमावास्येति व्यवहियते, ततो मघानक्षत्रमप्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यते इति न कश्चिद्विरोधः, परमार्थतः पुनरिमाममावास्यां इमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-पुनर्वम् ।
SO99930 అనిపించిన
JaEAKING
~ 1026~
Page #1028
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
पुष्योऽश्लेषा च, अस्यां पञ्चानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, करणं चात्र प्रागुक्तं, तथा वक्षस्कारे
प्रौष्ठपदी भदन्त ! अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति?, गौतम! द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-पूर्वफल्गुनी उत्तर- कुलादिपून्तिचन्द्री- फल्गुनी चशब्दान्मघा ग्राह्या, अस्थास्तु भाद्रपदपूर्णिमावर्तिशतभिषको व्यवहारतोऽपि करणरीत्या निश्चयतश्चा- र्णिमामाया वृत्तिः 18 गणने पंचदशत्वात् , आसां पंचानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनाच्च, करणं च पूर्ववत्,
वास्थाः .
१६१ ॥५१२॥ तथा आश्वयुजीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति?, गौतम! द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-हस्तश्चित्रा च, इदमपि व्यय
हारतः निश्चयतस्तु आश्वयुजीममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि समापयन्ति, तद्यथा-उत्तरफल्गुनी हस्तश्चित्रा च, यच्च पूर्वमाश्वयुज्यां पूर्णिमायामुत्तरभद्रपदा प्रागुक्तहेतोने विवक्षिता परं निश्चयतः सा आयातीति तस्याः पंचदशत्वादुत्तरफल्गुन्यत्र गृहीता, आसां च पंचानां युगभाविनीना नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात् भावना प्राग्वत् , तथा कार्तिकी अमावास्यां द्वे नक्षत्रे युक्तः, तयथा-स्वातिर्विशाखा च, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु त्रीणि स्वातिवि-18 शाखा चित्रा च, अस्यामपि पूर्णिमायां अश्विन्यनुरोधेन चित्रोक्ता, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां 8 | मध्येऽन्यतरेण समापनादिति, तथा मार्गशीषी त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलश्च, एतदपि |
॥५१२॥ व्यवहारतो निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि अमावास्या परिसमापयन्ति, तद्यथा-विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा च। आसां पंचानां युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा पौषीममावास्यां द्वे नक्षत्रे युक्त:-पूर्वा-18
~ 1027~
Page #1029
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
पाढा उत्तराषाढा च एतदपि व्यवहारत उक्तं निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढाच, आसां युगमध्येऽधिकमास सम्भवेन पण्णामपीत्यादि पूर्ववत्, तथा माघीममावास्यां त्रीणि-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, एतत् पूर्णिमावत्र्त्तिभ्यामश्लेषामघाभ्यामभिजितः षोडशत्वेन व्यवहारातीतत्वेऽपि श्रवणसम्बद्धत्वात् पंचदशत्वं समाधेयम्, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतः पुनस्त्रीणि उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणश्च, आसां पंचानामपीत्यादि पूर्ववत्, | तथा फल्गुनीं त्रीणि तद्यथा - शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्त्रीणि तद्यथा - धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा च, आसां पंचानामपीत्यादि तथैव तथा चैत्रीं द्वे नक्षत्रे - रेवती आश्विनी च, एतदपि व्यवहारतः | निश्चयतस्तु त्रीणि तद्यथा- पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती च, आसामपीत्यादि तथैव, तथा ( वैशाखी द्वे नक्षत्रेभरणी कृत्तिका च, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु त्रीणि तद्यथा-रेवती अश्विनी भरणी च, आसामपीत्यादि तथैव ) ज्येष्ठामूलीं द्वे-रोहिणी मृगशिरश्च, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु इमे द्वे नक्षत्रे - रोहिणी कृत्तिका च, आसामपीत्यादि पूर्ववत्, तथा आषाढ़ीं त्रीणि नक्षत्राणि आर्द्रा पुनर्वसू पुष्यः, एतदपि व्यवहारतः परमार्थतस्तु इमानि त्रीणि नक्षत्राणि - मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसू च, आसां युगान्तेऽधिकमास सम्भवेन पण्णामपि [पञ्चानां] तथैवेति, अत्र सर्वत्र नक्षत्रगणना| मध्ये यत्राभिजिदन्तर्भवति तत्र न गण्यं, स्तोककालत्वात्, यत उक्तं समवायाङ्गे - "जम्बुद्दीवे २ अभिईवजेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारो वट्टइति । अथामावास्यासु कुलादियोजनाप्रश्नमाह - 'साविडिष्ण' मित्यादि, श्राविष्ठ
For P&False Cnly
~1028~
Page #1030
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू- भदन्त ! अमावास्यां किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति ?, भगवानाह-गौतम! कुलं वा युनक्ति । वक्षस्कारे
द्वीपथा- उपकुलं वा युनक्ति वाशब्दः समुच्चये, नो लभते कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् श्राविष्ठीममावास्यां मघानक्षत्रं युनकि, कुलादिषन्तिचन्द्री
एतच प्रागुक्तयुक्त्या व्यवहारत उक्तं परमार्थतः पुनः कुलं युञ्जत् पुष्य नक्षत्रं युनक्तीति, एतच्च प्रागेवोक्तम्, एवमु-18 या चिः
वाखा:सू. पत्तरसूत्रमपि व्यवहारमधिकृत्य यथायोगं परिभावनीयमिति, उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्र युनक्ति, अथोपसंहारमाह-18
१६१ ॥५१३॥ । यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलाभ्यां श्राविष्ठया अमावास्यायाश्चन्द्रयोगः समस्ति, न तु कुलोपकुलेन, ततः श्राविष्ठीम-18
मावास्यां कुलमपि युनक्ति उपकुलमपि युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्का उपकुलेन वा युक्ता सती
श्राविष्टी अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्, तथा प्रौष्ठपदी भदन्त ! अमावास्यामित्यादि तदेव प्रश्नसूत्रं, उत्तरसूत्रे द्वे | कुलोपकुले युक्तः नो युनक्ति कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् उत्तरफल्गुनीनक्षत्रं युनक्ति उपकुलं युञ्जत् पूर्वफल्गुनी-18
नक्षत्र युनक्ति, उपसंहारसूत्र तथैव, मार्गशीर्षी तदेव प्रश्नसूत्रं किं कुल जोएईत्यादि, तत्र कुलं युंजत् मूलनक्षत्रं युनक्ति ॥७॥ उपकुलं युंजत् ज्येष्ठानक्षत्रं कुलोपकुलं युंजत् अनुराधानक्षत्रं युनक्ति, यावत्करणादुपसंहारसूत्रं युक्तेति वक्तव्यं स्यात्,
एवं माध्याः फाल्गुन्याः आषाव्याश्च कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा, अवशेषिकाणां कुलं वा उपकुलं वा युनक्कीति ||॥५१३॥ 18| वाच्यम् । अथ सन्निपातद्वारम्-तत्र सन्निपातो नाम पूर्णिमानक्षत्रात् अमावास्यायाममावास्यानक्षत्राथ पूर्णिमायां ।
नक्षत्रस्य नियमेन सम्बन्धस्तस्य सूत्रम्-'जया णं भन्ते'इत्यादि, यदा भदन्त ! श्राविष्ठी-श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा
~1029~
Page #1031
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भवति तदा तस्या अर्वाक्तनी अमावास्या माघी - मघा नक्षत्रयुक्ता भवति यदा तु माघी - मधानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्ठी- श्रविष्ठायुक्ता भवतीति, काक्का प्रश्नः, भगवानाह - हन्तेति भवति, तत्र गौतम ! यदा श्रविष्ठीत्यादि तदेव वक्तव्यं, प्रश्नेन समानोत्तरत्वात्, अयमर्थः - इह व्यवहारनयमतेन यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्य अर्वाक्तने पंचदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततो यदा श्राविष्ठी श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अर्वाक्तनी अमावास्या माघी - मघानक्षत्रयुक्ता भवति, श्रविष्ठानक्षत्रादारभ्य मघानक्षत्रस्य पूर्व चतुर्दशत्यात्, अत्र सूर्यप्रज्ञसिचन्द्रप्रज्ञसिवृत्योस्तु मघानक्षत्रादारभ्य श्रविष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशस्यादिति पाठस्तेनात्र विचार्य, एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा भदन्त ! माघी मधानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा श्राविष्ठी- श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पाश्चात्या अमावास्या भवति, मघानक्षत्रादारभ्य पूर्व अविष्ठानक्षत्रस्य पंचदशत्वात् इदं च माघमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा भदन्त ! प्रौष्ठपदी - उत्तरभद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या जमावास्या उत्तरफल्गुनी नक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभद्रपदात् आरभ्य पूर्वमुत्तरफल्गुनीनक्षत्रस्य पञ्चदशश्वात्, एतच्च भाद्रपदमासमधिकृत्यावसेयं, यदा चोत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अमावास्या प्रोष्ठपदी - उत्तरभद्रपदोपेता भवति, उत्तरफल्गुनीमारभ्य पूर्वमुत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात् इदं च फाल्गुनमासमधिकृत्योकं, एवमेतेनाभिलापेन इमाः पूर्णिमा अमावास्याश्च नेतव्याः, यदा आश्विनी अम्बिनीनक्षत्रोपेता भवति तदा पाश्चात्यानन्तरा
Ja Ecu intematonal
For P&P Cy
~1030~
Page #1032
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६१] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
|| अमावास्या चैत्री-चित्रानक्षयुक्ता भवति, अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात्, एतच्च व्यवहारनय-18 | वक्षस्कारे द्वीपशा- मधिकृत्योक्तमवसेयं निश्चयत एकस्वामप्यश्वयुग्मासभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रासम्भवात् , एतच प्रागेव दर्शितं,8 कुलादिपून्तिचन्द्री-यदा च चैत्री-चित्रानक्षोपेता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या आश्विनी-अश्विनीनक्षत्रयुक्ता भवति,
र्णिमामाया वृतिः एतदपि व्यवहारतः निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याममावास्यायां अधिनीनक्षत्रस्यासम्भवात्, एतदपि सूत्र-18
वास्था सू.
१६१ ॥५१॥ माश्विनचैत्रमासावधिकृत्य प्रवृत्त, यदा च कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा वैशाखी-विशाखा
| नक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, कृत्तिकातोऽर्थात विशाखायाः पञ्चदशत्वात् , यदा वैशाखी-विशाखानक्षत्रयुक्ता पौर्ण-12 मासी भवति तदा ततोऽनन्तरा पाश्चात्याऽमावास्या कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपेता भवति, विशाखातः पूर्व कृत्तिकायाः चतुर्दशत्वात् , एतच्च कार्तिकवैशाखमासावधिकृत्योकं, यदा च मार्गशीर्षी-मृगशिरोयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा ॥
ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठामूलनक्षत्रोपेता अमावास्या, यदा ज्येष्ठामूली पौर्णमासी तदा मार्गशीर्षी अमावास्या, एतच मार्ग18 शीर्षज्येष्ठमासावधिकृत्य भावनीयं, यदा पौषी-पुष्यनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी तदा आषाढी-पूर्वापाढानक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, यदा पूर्वाषाढानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पुष्य नक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, एतच्च पौषापाढ
॥५१४॥ मासावधिकृत्योकं, उक्कानि मासार्द्धमासपरिसमापकानि नक्षत्राणि । सम्प्रति स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया मासपरिसमापक नक्षत्रवृन्दमाह, तत्र प्रथमतो वर्षाकालाहोरात्रपरिसमापकनक्षत्रसूत्रम्
| अथ वर्षाकाळ-अहोरात्र-आदि परिसमापनक नक्षत्रसूत्रम् प्ररुप्यते
~1031~
Page #1033
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
-
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६२] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... .... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
...........
वासा पढमं मासं कति णक्खत्ता र्णेति ?, गो० ! चत्तारि णक्खत्ता ति तं० उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिट्ठा, उत्तराचाढा उस अहोरते इ, अभिई सत्त अहोरचे णेइ, सवणो अट्ठऽहोरचे णेइ घणिट्ठा एवं अहोरतं णेइ, तंसि च णं मासंसि वरंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरिअदृइ, तस्स णं मासस्स परिमदिवसे दो पदा चत्तारि अ अंगुठा पोरिसी भवइ । वासाणं भन्ते ! दोषं मासं कइ णक्खता ति ?, गो० ! चत्तारि धनिट्ठा सबभिसया पुवभदवया उत्तराभद्दवया, धणिद्वा णं चउद्दस अहो रते इ सयमसया सत्त अहोरचे णेइ पुवाभदवया अड अहोरते णेइ उत्तराभद्दवया एगं, तंसि च णं मासंसि अहंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ, तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अट्ठ य अंगुला पोरिसी भवइ । वासाणं भन्ते ! तइअं मासं कइ णक्खत्ता ति ?, गो० ! तिष्णि णक्खत्ता ति वं०-उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी, उत्तरभवया चउदस राईदिए इ रेवई पण्णरस अस्सिणी एगं, तंसि च णं मासंसि दुबालसंगुळपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्त चरिमे दिवसे लेहडाई विणि पयाई पोरिसी भवइ । वासाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति पाक्खत्ता णेति ?, गो०! तिणि- अस्सिणी भरणी कतिभा, अस्सिणी चउदस भरणी पन्नरस कत्तिआ एगं, तंसि च णं मासंसि सोलसंगुळपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टह तस्स णं मासस्स चरमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमन्ताणं भन्ते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ति ?, गो० ! तिणि- कत्तिआ रोहिणी मिगसिरं, कत्तिला चउद्दस रोहिणी पण्णरस मिगसिरं एवं अहोरत्तं णे, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टर, वरस गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अ य अंगुलाई पोरिसी भवइ, हेमंताणं भन्ते! दोषं मासं कति णक्खत्ता ति ?, गोअमां! चचारि णक्खन्ता पति, तंजा
For P&Praise Cly
~
~ 1032~
wyw
Page #1034
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
--...................--- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशा-18 न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥५१५॥
वक्षस्कारे माससमापकनक्षत्रबृन्द स. १६२
मिअसिरं अहा पुणव्वसू पुस्सो, मिअसिरं चउहस राइंदिआई णेइ अहा अट्ठ णेइ पुणव्वसू सत्त राइंदिआई पुस्सो एग राइंदिअं णेइ, तया णं चउबीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टर, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे संसि च णं दिवसंसि लेहहाई चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ, हेमन्ताण भंते ! तचं मासं कति णक्खत्ता ऐति ?, गोअमा! तिषिण-पुस्सो असिलेसा महा, पुस्लो चोइस राइंदिआई णेइ असिलेसा पण्णरस महा एक, तया ण वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टर, तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अटुंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमंताण भन्ते ! चउत्थं मास कति णक्वत्ता गति', गोजमा! तिणि ण, तं०-महा पुन्वाफल्गुणी उत्तरफागुणी, महा चउस राइविभाई णेइ पुण्याफागुणी पण्णरस राईदिआई इ उत्तराफग्गुणी एर्ग राईदिलं गेइ, तया णं सोलसंगुळपोरिसीए छायाए सूरिए अशुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पथाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवद । गिम्हाणं भन्ते ! पढम मासं कति णक्खचा ऐति ?, गोअमा! तिणि णक्खत्ता गति-उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता, उत्तराफरगुणी चउद्दस राइविभाई णेइ हत्थो पण्णरस राइंदिआई द चिसा एवं राइंदिइ, तयाणे दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिभइह तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहवाई तिष्णि पयाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! दोचं मासं कति णक्षत्ता णेति , गोअमा! तिण्णि णक्खत्ता ति, तं०-चित्ता साई दिसाहा, चित्ता चउद्दस राइंदिआई णेइ साई पण्णरस गइंदिआई णेइ विसाहा एग राइंदिरं गेइ, तया णं अहंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि चणं दिवसंसि दो पयाई अद्वंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं मन्ते । तच्च मास कति णक्सत्ता ऐति ?, गो०! चत्तारि णक्खता
Feed desesesesses
॥५१॥
~1033~
Page #1035
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
.........................--- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Deceaee
गति, तंजहा-विसाहाऽणुराहा जेवामूलो, चिसाहा पउद्दस राईदिआई गेइ अणुराहा अट्ट राइदिआई णे जेवा सत्त राईदिआई णेइ मूलो एक राइंदिरं, तया णं चतरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअर, तस्स ण मासस्स जे से चरिमे दिवसे संसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारि अ अंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते! चउत्थं मास कति णक्खत्ता ऐति ?, गोभमा ! सिण्णि णक्खत्ता ऐति, त०-मूलो पुण्यासाढा उत्तरासाढा, मूलो चउद्दस राइंदिआई णेइ पुब्वासाढा पण्णरस राइंदिआई गेइ उत्तरासाढा एग राइंदिणेइ, तया णं बट्टाए समच उरंससंठाणसंठिआए णग्गोहपरिमण्डलाए सकायमणुरंगिआए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई दो पयाई पोरिसी भवइ । एतेसि गं पुववण्णिआणं पयाणं इमा संगहणी, तं०-जोगो देवयतारग्गगोंत्तसंठाण चन्दरविजोगो । कुलपुण्णिमभवमंसा जेआ छाया व बोद्धव्वा ॥ १॥ (सूत्रं १६२)
वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथममासं-श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति ?, द्विकर्मकत्वादस्य समाप्तिमिति गम्यते, कोऽर्थः-वक्ष्यमाणसङ्ग्यायस्वस्वदिनेषु इमानि नक्षत्राणि यदा अस्तमयन्ति तदा श्रावणमासेऽहोरावसमाप्तिरित्यर्थः, तेनैतानि रात्रिपरिसमापकत्वाद्रात्रिनक्षत्राण्युच्यन्ते, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजिच्छ्रवणो धनिष्ठा च, तत्रोत्तरापाढा | | प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्राक्षयति,
ESERecenese
~ 1034 ~
Page #1036
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
sec
श्रीजम्यू-1 एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गतास्ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्र || वक्षस्कारे द्वीपशा- धनिष्ठानक्षत्रं नयति, एवं श्रावणमासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, अस्य च नेतृद्वारस्य प्रयोजनं रात्रिज्ञानादौ"जं ने माससमान्तिचन्द्री
पकनक्षत्र|जया रत्तिं णक्खत्तं तंमि णहचउभागे। संपत्ते विरमेजा सज्झायपओसकालम्मि ॥१॥" इत्यादौ, तदनुरोधेन च या वृत्तिः
| दिनमानज्ञानायाह-तस्मिंश्च श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या तथा कथञ्च-श ॥५१६॥
नापि परावर्त्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्तेषु चतुरङ्गलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, अत्र चायं विशेष:-यस्यां । सङ्क्रान्तौ यावद्दिनरात्रिमानं तच्चतुर्थोऽशः पौरुषी यामः प्रहर इतियावत्, आषाढपूर्णिमायां च द्विपदप्रमाणा पौरुषी |
तस्यां च श्रावणसरकचतुरङ्गलप्रक्षेपे चतुरङ्गुलाधिका पौरुषी भवति, माने मेयोपचारादभेदनिर्देशः, तेन चतुरङ्गुलाधि18| कपीरुष्या छाययेति विशेषणविशेष्यभावः, एतदेवाह-तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे वे पदे चत्वारि चाकुलानि पौरुषी
भवति, अथ द्वितीय मासं पृच्छति-'बासाण'मित्यादि, वर्षाणां-वर्षाकालस्य भदन्त ! द्वितीय भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति', अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद् भावनीयः, गौतम! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा II शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा च, तत्र धनिष्ठा आद्यान चतुर्दश अहोरात्रान् नयति तदनन्तरं शतभिषक् सप्ताहोरा-IImaan त्रान् नयति ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वभद्रपदा नयति तदनन्तरमेकमहोरात्रमुत्तरभद्रपदा नयति, एवमेनं भाद्रपदमार्स || चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिंश्च मासेऽष्टाङ्गुलपौरुष्या-अष्टाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते, अत्र भावा
~1035~
Page #1037
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
र्थः प्राग्वद् भावनीयः, एतदेवाह-तस्य भाद्रपदमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे अष्ट चाङ्गुलानि पौरुषी भवति, अथ तृतीयं | पृच्छति-'वासाणं भन्ते "त्ति, इत्यादि, वर्षाणां भदन्त ! तृतीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति !, गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि
उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी च, तत्रोत्तरभद्रपदा चतुर्दश रात्रिन्दिवान् नयति. रेवती पञ्चदश रात्रिन्दिवान् नयति. IS | अश्विनी एक रात्रिन्दिवं नयति, एवं तृतीय मासं त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिंश्च मासे द्वादशाङ्गलपौरुष्या-द्वाद-18 शामुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे रेखा-18
पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति. किमक्तं भवति -परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी। IS भवति, अथ चतुर्थ पृच्छत्ति-'वासाण'मित्यादि, वर्षाणां-वर्षाकालस्य भदन्त! चतुर्थ कार्तिकलक्षणं मार्स कति नक्ष
त्राणि नयन्ति?, गौतम! त्रीणि-अश्विनी भरणी कृत्तिका च, तत्राश्विनी चतुर्दशाहोरात्रान् भरणी पञ्चदशाहोरात्रान् । कृत्तिका एकमहोरात्रं नयति, तस्मिंश्च मासे षोडशांगुलपौरुष्या-पोडशांगुलाधिकपीरुप्या छायया सूर्योऽनुपरायत्तेते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे त्रीणि पदानि चत्वारि चांगुलानि पौरुषी भवति । गतो वर्षाकालः। अथ हेमन्तकालं पृच्छति-हेमन्ताण'मित्यादि, हेमन्तानां-हेमन्तकालस्य भदन्त! प्रथम भार्गशीर्षलक्षणं मासं || कति नक्षत्राणि नयन्ति, गौतम! त्रीणि न०-कृत्तिका रोहिणी मृगशिरश्च, तत्र कृत्तिका चतुर्दशाहोरात्रान् रोहिणी || पश्चदशाहोरात्रान् मृगशिर एकमहोरात्रं नयति, तस्मिंश्च मासे विंशत्यकुलपौरुष्या-विंशत्यगुलाधिकपीरुच्या छायया |
2030aorae380038283929202
Recems
SA993
श्रीजम्यू. ८७
~10364
Page #1038
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
..................-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
या वृत्तिः
18 वृन्दं सू.
श्रीजम्बू- सूर्योऽनुपरावर्त्तते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य यश्चरमो दिवसस्तस्मिन् दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट वक्षस्कार द्वपिशा- चांगुलानि पौरुषी भवतीति, अथ द्वितीयं पृच्छति-'हेमन्ताणं भन्ते 'इत्यादि, हेमन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीयं पौष-।।
माससमान्तिचन्द्री-1
पकनक्षत्रनामक मास कति नक्षत्राणि नयन्ति?, गौतम! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसू पुण्यश्च, तत्र
मृगशिरश्चतुर्दश रानिन्दिवानयति, आर्द्रा अष्टौ नय, पुनर्वसू सप्त रात्रिन्दिवान, पुष्यः एक रात्रिन्दिवं नयति, ॥५१७॥ । तदा चतुर्विंशत्यकुलपौरुष्या-चतुर्विंशत्यमुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते, भावार्थः पूर्ववत् , तस्य मासस्य ।
चरमे दिवसे रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति, किमुक्तं भवति? परिपूर्णानि चत्वारि । 18| पदानि पौरुषी भवति, अथ तृतीयं पृच्छति-'हेमन्ताण मित्यादि, एतत् सुगर्म, अथ चतुर्थं पृच्छति-हेमन्ताणं भन्ते !
चउत्थं'इत्यादि, सुगम। अतीतो हेमन्तः, अथ ग्रीष्मं पृच्छति-गिम्हाणं भन्ते! पढम'इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते ।।
दो'इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते! तचं मासं'इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते! चउत्थं इत्यादि, चत्वार्यपि इमानि । 18 ग्रीष्मकालसूत्राणि सुबोधानि, प्रायः प्राक्तनसूत्रानुसारित्वात्, नवरं तस्मिंश्चापाढे मासे प्रकाश्यवस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया | 8|| समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यगोधपरिमण्डलया उपलक्ष-11
181॥५१७॥ णमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया, आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो। | दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे
Seceaeee
3900080939000000000000
~ 1037~
Page #1039
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६२ ] + गाथा
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
मण्डले वर्त्तमाने सूर्ये, ततो यत् प्रकाश्यं वस्तु यत्संस्थानं भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते, तत उक्तम्-वृत्तस्य वृत्तया इत्यादि, एतदेवाह - 'स्वकायमनुरङ्गिन्या' स्वस्य स्वकीयस्य छायानिबन्धनस्य वस्तुनः कायः शरीरं स्वकायस्तमनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीला अनुरङ्गिनी 'द्विषद्महे 'त्यादिना' (श्रीसिद्ध ५-२-४० युजरखद्विप ० ) घिनञ्प्रत्ययस्तया स्वकायमनुरङ्गिन्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्त्तते, एतदुक्तं भवति-आषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य | प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डल सङ्कान्त्या तथा कथंचनापि सूर्यः परावर्त्तते यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति शेषं सुगमं, इदं च पौरुपीप्रमाणं व्यवहारत उक्तं, निश्वयतः सार्द्धंस्त्रिंशताऽहोरात्रैश्चतुरंगुला वृद्धिर्हानिर्वा वेदितव्या, तथा च निश्चयतः पौरुषी प्रमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रसिद्धाः करणगाथा: - 'पत्रे पण्णरसगुणे तिहिसहिए पोरिसीइ आणयणे । छलसीअसियविभत्ते जं लद्धं तं विआ नाहि ॥ १ ॥ जइ होइ बिसमलद्धं दक्खिणमयणं ठविज्ज नायवं । अह हवइ समं लद्धं नावचं उत्तरं अयणं ॥ २ ॥ अयणगए तिहिरासी चउग्गुणे पवपायभइयंमि । जं लद्धमंगुठाणि य खयवुडी पोरिसीए उ ॥ ३ ॥ दक्खिणबुडी दुपया अंगुठाणं तु होइ नायवा । उत्तरअयणे हाणी कायवा चउहि पायाहिं ॥ ४ ॥ साबणबहुलपडिवया दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ। चत्तारि अंगुलाई मासेणं वद्धए तत्तो ॥ ५ ॥ इकत्तीस इभागा तिहिए पुण अंगुलस्त चत्तारि । दक्खिणअयणे बुद्धी जाव य चत्तारि उ पयाई ॥ ६ ॥ उत्तरअयणे हाणी चउहिं पायाहिं जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए
~1038~
Page #1040
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
..................-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्यू
बुद्धिखया हुँति नायवा ॥७॥ वुड्डी वा हाणी वा जावइआ पोरिसीइ दिट्ठा उ । तत्तो दिवसगएणं जं लद्धं त खु अय-18 द्वीपशा
णगयं ॥८॥' अत्र व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पोरुपीपरिमाणं ज्ञातुमिच्यते ततः पूर्वं युगादित 81 न्तिचन्द्री- आरभ्य यानि पर्वाणि अतिक्रान्तानि तानि थ्रियन्ते धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेः याः पकनक्षत्रया वृत्तिः प्रागतिक्रान्तास्तिथयस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते कृत्वा च पडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते, इहकस्मिन् अयने न्दं ग. ॥५१॥
ध्यशीत्यधिकमण्डल शतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादिताना तिथीनां पडशीत्यधिक शतं भवति ततस्तेन भागे हते यल्लब्ध तति- १६२ जानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः, तत्र यदि लब्धं विषमं भवति यथा एककस्त्रिकः पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यतवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यं, अथ भवति लब्धं समं यथा द्विकश्चतुष्कः पट्कः अष्टको दशको वा तदा तत्पर्यन्तवति । उत्तरायणमवसेयं, तदेवमुक्तो दक्षिणोत्तरायणपरिज्ञानोपायः, सम्प्रति षडशीत्यधिकेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते यदिवाश भागासम्भवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह-'अयणगए' इत्यादि, यः पूर्व भागे हते भागासम्भवे वा शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते स चतुर्भिर्गुण्यते गुणयित्वा च 'पर्वपादेन' युगमध्ये यानि सङ्ख्यया पर्वाणि चतुर्विंशत्यधिकशतस
बानि तेषां पादेन-चतुर्थेनांशेनैकत्रिंशता इत्यर्थः, (भागो हियते) तया भागे हृते यल्लब्धं तान्यङ्गुलानि चकारादा-|| ISश लांशाश्च पौरुष्याः क्षयवृक्ष्योतिब्यानि, दक्षिणायने पदध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ उत्तरायणे पदधुवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः,
अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य कथमुत्पत्तिरिति, उच्यते, यदि पडशीत्यधिकेन चतुर्विशत्यङ्गलानि क्षये वृद्धी
~ 1039~
Page #1041
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
eesesesesebedeo
वा प्राप्यन्ते ततः एकस्यां तिथौ का वृद्धिः क्षयो वा १, राशित्रयस्थापना १८६।२४।१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तत आधेन राशिना पडशीत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततः छेधच्छेद-15 कराश्योः षटकेनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिश्चतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत् लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिशद्भागाः क्षये वृद्धी वेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशद् भागहार इति, इह यादग्धं तान्यङ्गुलानि क्षये वृद्धौ वा | ज्ञातव्यानीत्युकं, तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ कस्मिन् वा अयने किंप्रमाणध्रुवराशौ क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह-'दक्षिणबुही इत्यादि, दक्षिणायने द्विपदात्-पदद्वयस्योपरि अंगुलानां वृद्धिर्ज्ञातव्या, उत्तरायणे चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गलानां हानिः, तत्र युगमध्ये प्रथम संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयति-19 'सावणे'त्यादि, गाथाद्वयं, युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासबहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा-पदद्वयप्रमाणा ध्रुवार भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथि क्रमेण तावदर्द्धते यावन्मासेन-सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकत्रिंशत्तिथिभिरित्यर्थः चत्वारि अङ्गुलानि वढन्ते, कथमेतदवसीयते?-यथा मासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्यत आह-'एकतीसे'त्यादि, यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागा पद्धन्ते, है एतच्च प्रागेव भावितं, परिपूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्र
esercenesesed
~ 1040~
Page #1042
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
..................-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
माणेन एकविंशतिथ्यात्मकेनेत्युक्तं, तदेवमुक्ता वृद्धिः, सम्प्रति हानिमाह-'उत्तरे'त्यादि, युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघ- वक्षस्कारे द्वीपशा-18 मासे बहुलपक्षे सप्तम्या आरभ्य चतुर्थ्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशद्भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदु
माससमान्तिचन्द्री-18|त्तरायणपर्यन्ते द्वौ पादौ पौरुषीति । एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः, द्वितीये संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे त्रयोद-1
| पकनक्षत्र18 शीमादी कृत्वा वृद्धिः, माघमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा क्षयः, तृतीये संवत्सरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धेश
रादिः माघमासे बहुल पक्षे प्रतिपत् क्षयस्यादिः, चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्यादिः, पश्चमे संवत्सरे श्रावणे मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी वृद्धेरादिः, माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षय-12
स्यादिः, एतच करणगाथानुपात्तमपि पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्याख्यानादवसितं । सम्प्रत्युपसंहारमाह-एवं तु'इत्यादि, ॥२॥ एवमुक्केन प्रकारेण पौरुष्यां-पौरुषीविषये वृद्धिक्षयौ यथाक्रम दक्षिणायनेषत्तरायणेषु वेदितथ्यी, तदेवमक्षरार्थमधिकृत्य ||
व्याख्याताः करणगाथाः। सम्प्रत्यस्य करणस्य भावना क्रियते, कोऽपि पृच्छति-युगादितः आरभ्य पश्चाशीतितमे | पर्वणि पश्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति?, तत्र चतुरशीतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्टमिति पञ्च,॥ चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि द्वादश शतानि पश्यधिकानि १२६० एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते ||
जातानि १२६५ तेषां षडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि सप्तममयनं । वर्त्तते, तद्गतं च शेषमेकोनपञ्चाशदधिकं शतं तिष्ठति १४९ ततश्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि
~1041~
Page #1043
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
|| ५९६ तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धाः एकोनविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशांगुलानि पाद इत्येकोनविंशतेः ।
द्वादशभिः, पदं लब्धं, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्तांगुलानि, पष्ठं चायनमुत्तरायणं तद् गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्तते, ISI ततः पदमेक सप्त चांगुलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्तांगुलानि, ये च सप्त एक-18॥ त्रिंशद्भागाः शेषीभूता वर्तन्ते तान् यवान् कुर्मः, तत्राष्टौ यवा अंगुले इति ते सप्ताष्टभिर्गुण्यन्ते जातानि पट्पञ्चाशत् | ५६ तस्या एकत्रिंशता भागे हुते लब्ध एको यवः शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, आगतं पश्चाशीतितमे पर्वणि पक्षम्यां त्रीणि पदानि सप्तांगुलानि एको यवः एकस्य च ययस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्धागा इत्येतावती || पौरुपीति, तथा अपरः कोऽपि पृच्छति-सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी ?, तत्र पण्णवतिधियते, | तस्याश्चाधस्तात्पच, पण्णवतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४० तेषां मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते जातानि चतुर्दश शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धानि सप्त अयनानि शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं १४३ तश्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि पञ्च शतानि द्विसप्सत्यधिकानि ५७२ तेषामेकत्रिंशता भागो हियते लब्धान्यष्टादशांगुलानि १८ तेषां मध्ये द्वादशभिरंगुलैः पदमिति 18 लब्धमेकं पदं षट् अंगुलानि उपरि चांशा उद्धरिताश्चतुर्दश १४ ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतं 8 ११२ तस्यैकत्रिंशता भागे हते लब्धासयो यवाः शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायना-18॥
Saeesesence
~ 1042~
Page #1044
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
..........................-- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
न्यतिकान्तानि अष्टम चायनमुत्तरायणं उत्तरायणे च पदचतुष्टयेरूपाद् ध्रुवराशेहानिर्वतव्या तत एकं पदं सप्तांगु-18| को द्वीपशा- लानि त्रयो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात् पात्यते, शेष तिष्ठति द्वे पदे चत्वा- माससमान्तिचन्द्री-12 यगुलानि चत्वारो यवाः एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागाः, एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे ॥ पकनक्षत्रया वृचिः पर्वणि पञ्चम्यां तिथी पौरुषीति, एवं सर्वत्र भावनीयं । सम्प्रति पौरुषीपरिमाणतोऽयनगतपरिमाणज्ञापनार्थमियं करण- न्द सू.
१६२ गाथा-बुही वेत्यादि, पौरुष्यां यावती वृद्धिर्हानिर्वा दृष्टा ततः सकाशादिवसगतेन प्रवर्त्तमानेन च त्रैराशिककरणा|| नुसारेण यातनं तत् अयनगतं-अयनस्य तावत्प्रमाणं गतं वेदितव्यं, एष करणगाथाक्षरार्थः, भावना खियम्-तत्र दक्षि
णायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गुलानि वृद्धौ दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति-किं गतं दक्षिणायनस्य ?, अत्र वैराशिककर्मावतारो-यदि चतुर्भिरङ्गुलस्य एकत्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते ततश्चतुर्भिरंगुलैः कति तिथीर्लभामहे १, राशित्रय-1॥ स्थापना- ॥११४ अत्रान्त्यो राशिरंगुलरूप एकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिकं १२४ शतं । तेन मध्यो राशिगुण्यते जातं तदेव चतुर्विशत्यधिक शतं १२४ तस्य चतुष्करूपेणादिराशिना भागो हियते लब्धा
एकत्रिंशत्तिथयः, आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरंगुला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पदचतु-13५२०॥ || ष्टयादङ्गलाष्टकहीनं पौरुष्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छति-किं गतमुत्तरायणस्य 1, अत्रापि बैराशिक-यदि चतुर्भिरेगुलस्य | 1 एकत्रिंशदागरेका तिथिर्लभ्यते ततोऽष्टभिरंगुलैहीनः कति तिथयो लभ्यन्ते', राशित्रयस्थापना १८ । अत्रात्यो ।
~1043~
Page #1045
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
-------- मूलं [१६२] + गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
राशिरेकत्रिंशदागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जाते द्वे शते अष्टचत्वारिंशदधिके २४८ ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो || | गुण्यते जाते ते एव द्वे शते अपचत्वारिंशदधिके २४८ तयोराधन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणं लब्धा द्वापष्टिः ६२, आगतमुत्तरायणे द्वाषष्टितमायां तिथौ अष्टावंगुलानि पौरुष्या हीनानीति । अथोपसंहारवाक्यमाह-'एतेसि ण'-131 मित्यादि, एतेषामनन्तरोक्तानां पूर्ववर्णितानां पदानामियं-वक्ष्यमाणा संग्रहणीगाथा, तद्यथा-'जोगो देवय तारग्ग' इत्यादि, प्राग्व्याख्यातस्वरूपा, अस्या निगमनार्थ पुनरुपन्यासस्तेन न पुनरुक्तिर्भावनीयेति, यत्तु पूर्वमुद्देशसमये सन्निपातद्वारं सूत्रे साक्षादुपात्तं सम्प्रति च छायाद्वारं तद्विचित्रत्वात् सूत्रकाराणां प्रवृत्तेः, पूर्णिमामावास्याद्वारे सन्निपात-||
द्वारमन्त वितं छायाद्वारं च नेतृद्वारानुयोग्यपि भिन्नस्वरूपतया पृथक्त्वेन विवक्षितमिति ध्येयम् । अथास्मिन्नेवा18धिकारे पोडशभिद्वारैरर्थान्तरप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह
हिदि ससिपरिवारो मन्दरध्वाधा तहेव लोगते । धरणितलाओं अवाधा अंतो बाहिं च उद्धमुहे ॥ १॥ संठाणं च पमाणं वहति सीहगई इद्धिमन्ता य । सारंतरऽग्गमहिसी तुद्धिा पहु ठिई अ अप्पचहू ॥२॥ अस्थि णं भन्ते ! चंदिमसूरिमाणं हिडिपि तारारूवा अणुपि तुलावि समेवि तारारूवा अणुंपि तुल्लाचि उप्पिपि तारारूवा अणुपि तुलाबि , हता! गो०1 चेव उच्चारेभवं, से केणतुणं भन्ते ! एवं धुषह-अस्थि गं० जहा जहा णं तेसिं देवाणं तवनियमभचेराणि ऊसिआई भवसि तहा वहा ण तेसिणं देवाण एवं पण्णायए तंजहा-अणुते वा तुलत्ते वा, जहा जहा गं तेसि देवाणं तवनियममंभराणि णो कसिआइ भवंति सहा तहा
एeceaee
~ 1044 ~
Page #1046
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], .....--.
-------- मूलं [१६२R-१६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
दीपशा
अंतेसि देवाणं एवं (णो) पण्णायए, तं० अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा (सूत्र १६२) एगमेगस्स भन्ते ! चन्दस्स केवइआ महम्गहा परिवारो 18 वक्षस्कारे
केवइआ णक्खत्ता परिवारो केवइया तारागणकोडाकोडीओ पण्णताओ?, गो० अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो अठ्ठावीस णक्खत्ता अणुत्वादिन्तिचन्द्री
परिवार परिवारो छावहिसहस्साई णव सया पण्णत्तरा तारागणकोडाकोडीजो पण्णता (सूत्र १६३) मन्दरस्स णं भन्ते! पवयस्स केवइआए या वृतिः अबाहाए जोइसं चार चरइ ?, गो० इकारसहिं इकवीसेहिं जोअणसएहिं अबाहाए जोइसं चार चरइ, लोगताओणं भन्ते ! केवइ
अबाधाम्.
१६२-१६४ ॥५२१॥ आए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते?, गो. एकारस एकारसेहिं जोअणसएहि अवाहाए जोइसे पण्णत्ते। धरणितलाओ णं भन्ते !, सत्तहिं
उएहिं जोमणसएहिं जोइसे चार चरइत्ति, एवं सूरविमाणे अट्ठहिं सपहि, चंदविमाणे अहिं असीएहिं, उवरिले तारारूवे नवहिं जोअणसएहिं चार चरइ । जोइसस्स णं भन्ते! हेडिल्लाओ तलाओ केवइआए अबाहाए सूरविमाणे चार चरइ ?, गो. वसहि जोअणेहिं अबाहाए चारं चरइ, एवं चन्दविमाणे गउईए जोअणेहिं चार चरइ, उवरिल्ले तारारूवे वसुत्तरे जोभणसए चार चरइ, सूरविमाणाओ चन्दविमाणे असीईए जोमणेहिं चार चरह, सूरविमाणाओ जोअणसए उबरिले तारारुवे चार चरइ, चन्दविमाणाओ वीसाए जोअणेहिं उवरिले णं तारारूवे चारं चरइ (सूत्र १६४)
अधः चन्द्रसूर्ययोस्तारामण्डलं उपलक्षणात् समपंको उपरि च अणुं समं वेत्यादि वक्तव्यं १, शशिपरिवारो वक्तव्यः | ॥५२॥ 8२ ज्योतिश्चक्रस्य मन्दरतोऽबाधा वक्तव्या ३ तथैव लोकान्तज्योतिश्चक्रयोरबाधा ४ धरणितलात् ज्योतिश्चक्रस्याबाधा
५ किश्च-नक्षत्रमन्तः-चारक्षेत्रस्याभ्यन्तरे किं बहिः किं चोर्ध्व किश्चाधश्चरतीति वक्तव्यं ६ ज्योतिष्कविमानानां संस्थान ।
.अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू० १६२' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १६२R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~1045~
Page #1047
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
--------- मूलं [१६२R-१६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Eccccercedesesesectroeseces
वक्तव्यं ७ एषामेव प्रमाणं वक्तव्य ८चन्द्रादीनां विमानानि कियन्तो वहन्तीति वक्तव्यं ९ एषां मध्ये के शीघ्रग-18 तयः के मन्दगतय इति वक्तव्यं १०, एषां मध्ये केऽल्पर्द्धयो महर्द्धयश्चेति वक्तव्यं ११ ताराणां परस्परमन्तरं वक्तव्यं । १२ अनमहिष्यो वक्तव्याः १३, तुटिकेन-अभ्यन्तरपपरसत्कस्त्रीजनेन सह प्रभुः-भोगं कर्तुं समर्थश्चन्द्रादिर्नवा इति वक्तव्यं १४ स्थितिरायुषो वक्तव्या १५ ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वं वक्तव्यं १६ इति । अथ प्रथम द्वारं पिपृच्छिषुराह-18 'अस्थि ण'मित्यादि, अस्त्येतद् भगवन् ! चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिडिंपित्ति क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपः तारा विमानाधिष्ठातारो देवा द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि-हीना अपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि-सहशा अपि । भवन्ति, अधिकत्वं तु स्वस्वेन्द्रेभ्यः परिवारदेवानां न सम्भवतीति न पृष्टं, तथा समेऽपीति चन्द्रादिविमानैः क्षेत्रापेक्षया समा:-समश्रेणिस्थिता अपि तारारूपा:-ताराविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि केचित्तुल्या अपि भवन्ति, तथा चन्द्रादिविमानानां क्षेत्रापेक्षया उपरि-उपरिस्थितास्तारारूपा:-ताराविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि केचित्तुल्या अपि भवन्ति, अत्र काकुपाठात् प्रश्नावगमः, एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-गौतम! हन्तेति यदेव पृष्टं तत्सर्व तथै-18 वास्ति अतस्तदेवोच्चारणीयं, अत्रार्थे हेतुप्रश्नायाह-अथ केनार्थेन भगवन्नेवमुच्यते-'अस्थि ण'मित्यादिना, तदेव सूत्रमनुस्मरणीयं, अनोत्तरमाह-यथा यथा तेषां-तारारूपविमानाधिष्ठातॄणां देवानां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याण्यु-12
MAKELAENatok
~10464
Page #1048
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६२२- १६४] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
||५२२ ||
| च्छ्रितानि - उत्कटानि भवन्ति, तत्र तपः - अनशनादि द्वादशविधं नियमः - शौचादिः ब्रह्मचर्य - मैथुनविरतिः, अत्र च | शेपत्र तानामनुपदर्शनमुस्कटमतधारिणां ज्योतिष्केषु उत्पादासम्भवात्, उच्छ्रितानीत्युपलक्षणं तेन यथा यथा अनुच्छ्रि तानीत्यपि बोध्यं, अन्यथोत्तरसूत्रे वक्ष्यमाणमशुत्वं नोपपद्येत, यच्छन्दगम्भितवाक्यस्य तच्छब्दगभितवाक्यसापे| क्षत्वादुत्तरवाक्यमाह तथा तथा तेषां देवानामेवं प्रज्ञायते ज्ञायते इति, तद्यथा - अणुखं वा तुल्यत्वं वा, न चैतदनुचितं दृश्यते हि मनुष्यलोकेऽपि केचिज्जन्मान्तरोपचित तथा विधपुण्यप्राग्भारा राजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञा सह | तुल्यविभवा इति, अत्र व्यतिरेकमाह-यथा यथा तेषां देवानां ताराविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवार्जितान्युच्छ्रितानि तपोनियमब्रह्मचर्याणि न भवेयुस्तथा तथा तेषां देवानां नो एवं प्रज्ञायते - अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा अभियोगिककर्मोदयेना| तिनिकृष्टत्वात्, अयमर्थः - अकामनिर्जरादियोगाद्देवत्वप्राप्तावपि देवर्डेरलाभेन चन्द्रसूर्येभ्यो द्युतिविभवाद्यपेक्षयाऽणुत्वमपि न सम्भवेत्, कुतस्तमां तेषां तैस्सह तुल्यत्वमिति । अथ द्वितीयं द्वारं प्रश्नयति- ' एगमेगस्स णं भन्ते !' इत्यादि, एकैकस्य भदन्त ! चन्द्रस्य कियन्तो महाग्रहाः परिवारः तथा कियन्ति नक्षत्राणि परिवारः तथा कियत्यस्तारागणकोटाकोव्यः परिवारभूताः प्रज्ञताः १, भगवानाह - गौतम ! अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवारोऽष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि परिवारः षट्ष|ष्टिसहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तारागणकोटाकोटीनां परिवारभूतानि प्रज्ञप्तानि, यद्यप्यत्र एते चन्द्रस्यैव परिवारतयोक्तास्तथापि सूर्यस्यापीद्रत्वादेते एव परिवारतयाऽवगन्तव्याः, समवायाने जीवाभिगमसूत्रवृत्त्यादी तथा
For P&False Cly
अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू० १६२' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया '१६२ R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~ 1047~
७वक्षस्कारे अणुत्वादिपरिवार:
अबाधा सू. १६२-१६४
||५२२॥
Page #1049
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६२R-१६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
दर्शनात् , अथ तृतीयं द्वारं पृच्छति-'मन्दरस्स णं भन्ते!' इत्यादि, मन्दरस्य भदन्त ! पर्वतस्य कियत्याऽबाधया-अपा|न्तरालेन ज्योतिश्चकं चार चरति ?, भगवानाह-गौतम! जगत्स्वभावात् एकादशभिरेकविंशत्यधिकयोंजनशतैरित्येवंरूपयाऽबाधया ज्योतिष चारं चरति, किमुक्तं भवति?-मेरुतश्चक्रवालेनैकविंशत्यधिकान्येकादशयोजनशतानि मुक्त्वा चलं ज्योतिश्चक्रं तारारूपं चारं चरति, प्रक्रमाजम्बूद्वीपगतमवसेब, अन्यथा लवणसमुद्रादिज्योतिश्चक्रस्य मेरुतो दूरवतित्वेन उक्तप्रमाणासम्भवः, पूर्व तु सूर्यचन्द्रवक्तव्यताधिकारे अबाधाद्वारे सूर्यचन्द्रयोरेव मेरुतोऽबाधा उक्ता साम्प्रतं । | तारापटलस्यैति न पूर्वापरविरोध इति । अथ स्थिरं ज्योतिश्चक्रमलोकतः कियत्या अबाधया अर्वाक् अवतिष्ठत इति पिपृ-1 च्छिषुश्चतुर्थ द्वारमाह-'लोगन्ताओ 'मित्यादि, लोकान्ततो-अलोकादितोऽर्वाक् कियत्या अबाधया प्रक्रमात् स्थिर ज्योतिश्चक्र प्रज्ञप्तं?, भगवानाह-गौतम! जगत्स्वभावात् एकादशभिरेकादशाधिकर्योजनशतैरबाधया ज्योतिष प्रज्ञप्त, प्रक्रमात स्थिर बोध्यम् , चरज्योतिश्चक्रस्य तत्राभावादिति । अथ पञ्चमं द्वारं पृच्छति-धरणितलाओं णं भन्ते' इत्यनेन तत्सूत्रैकदेशेन परिपूर्ण प्रश्नसूत्रं बोध्यं, तच 'धरणितलाओ णं भन्ते ! उद्धं उप्पइत्ता केवइआए अबाहाए । | हिडिले जोइसे चारं चरइ, गोअमा!' इत्यन्त, वस्त्वेकदेशस्य वस्तुस्कन्धस्मारकत्वनियमात्, तत्रायमर्थ:-धरणित| लात-समयप्रसिद्धात् समभूतलभूभागा मुत्पत्य कियत्याऽवाधया अधस्तनं ज्योतिष तारापटलं चार चरति, भगवा-13 नाह-गौतम! सप्तभिर्नवतैः-नवत्यधिकयोंजनशतैरित्येवंरूपया अबाधया अधस्तनं ज्योतिश्चक्र चारं चरति, अथ सूयर्यादि
tartaIIS
~1048~
Page #1050
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६२R-१६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्ब- विषयमबाधास्वरूप संक्षिप्य भगवान् स्वयमेवाह-एवं सूरविमाणे अहहिं सएहिं चन्द'इत्यादि, एवमुक्तन्यायेन यथा वक्षस्कारे द्वीपशा- समभूमिभागादधस्तनं ज्योतिश्चक्रं नवत्यधिकसप्तयोजनशतैस्तथा समभूमिभागादेव सूर्यविमानमष्टभिर्योजनशतैश्चन्द्रवि-13
अणुत्वादिन्तिचन्द्री-18 मानमशीत्यधिकरष्टभियोजनशतैः उपरितनं तारारूपं नवभिोजनशतैश्चारं चरति । अथ ज्योतिश्चक्रचारक्षेत्रापेक्षया
परिवार या वृचिः
अबाधासू. अबाधाप्रश्नमाह-'जोइसस्स ण'मित्यादि, ज्योतिश्चक्रस्य दशोत्तरयोजनशतवाहल्यस्याधस्तनात् तलात् कियत्या अबा॥५२३|| धया सर्यविमानं चार घरति ?, गौतम! दशभियोजनैरित्येवंरूपया अवाधया सूर्यविमानं चारं चरति, अत्र च सूत्रे ||
समभूभागादूर्व नवत्यधिकसप्तयोजनातिक्रमेण ज्योतिश्चक्रबाहल्यमूलभूत आकाशप्रदेशप्रतरः सोऽवधिमन्तव्यः, एवं चन्द्रादिसूत्रेऽपि, एवं चन्द्रविमानं नवत्या योजनैरित्येवंरूपया अबाधया चारं चरति, तथोपरितनं तारारूपं दशाधिके 18 योजनशते ज्योतिश्चक्रवाहल्यप्रान्ते इत्यर्थः चारं चरति, अथ गतार्थमपि शिष्यव्युत्पादनाय सूर्यादीनां परस्परमन्तरं सूत्रकृदाह-'सूरविमाणाओ' इत्यादि, सूर्यविमानात् चन्द्रविमानं अशीत्या योजनैश्चारं चरति, सूर्यविमानात् योजन-18 शतेऽतिक्रान्ते उपरितनं तारापटलं चार चरति, चन्द्रविमानात् विंशत्या योजनैरुपरितनं तारापटलं चार चरति, अत्र सूचामात्रत्वात् सूत्रेऽनुक्तापि ग्रहाणां नक्षत्राणां च क्षेत्रविभागव्यवस्था मतान्तराश्रिता संग्रहणिवृत्त्यादौ दर्शिता लि
॥५२३॥ ख्यते-'शतानि सप्त गत्वोचं, योजनानां भुवस्तलात् । नवतिं च स्थितास्ताराः, सर्वाधस्तान्नभस्तले ॥१॥ तारकापटलाद् गत्वा, योजनानि दशोपरि । सूराणां पटलं तस्मादशीति शीतरोचिषाम् ।। २ ॥ चत्वारि तु ततो गत्वा, नक्षत्र
caceeeeeeeeeee
eserveseseiserceaesentactseoes
~ 1049~
Page #1051
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],
--------- मूलं [१६२R-१६४] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
पटलं स्थितम् । गत्वा ततोऽपि चत्वारि, बुधाना पटलं भवेत् ॥३॥ शुक्राणां च गुरूणां च, भीमानां मन्दसंजिनाम् । त्रीणि त्रीणि च गत्वोय, क्रमेण पटलं स्थितम् ॥ ४॥' इति ॥ अथ षष्ठं द्वारं पृच्छन्नाह
जम्मुदीचे णं दीये अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते सबभतरिहं चार चरइ?, कयरे णक्यते सव्यवाहिर चार चरइ ?, कयरे सम्वहिडिर्ष चार चरइ, कयरे सब्बरवरिहं चार चरह, गो०! अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरं चार चरड, मलो सब्बबाहिर चारं चरइ, भरणी सव्वहिडिल्लगं साई सव्वुवरिलगं चारं चरइ । चन्दविमाणे णं भन्ते! किंसंठिए पण्णते?, गो०! अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए सम्बफालिआमए अन्भुग्गयमुसिए एवं सब्वाइं अव्वाई, चन्दविमाणे णं भन्ते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं बाहलेग, गो०छप्पणं खलु भाए विच्छिण्णं चन्दमंडलं होइ । अट्ठावीसं भाए बाहवं तस्स पोद्वयं ॥ १॥ अडयालीसं भाए विच्छिणं सूरमण्डलं होइ । चउवीसं खलु भाए वाहतं तस्स बोद्धव्वं ॥२॥ दो कोसे अ गहाणं णक्खत्ताणं तु हबइ तस्सद्धं । तस्सद्धं ताराणं तस्सद्धं चेव बाहहं ॥ ३॥ (सूत्रं १६५)
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपेऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कतरन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तर-सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वा-18 भ्यन्तरः तं, अनेन द्वितीयादिमण्डलचारव्युदासः, चार चरति ?, तथा कतरन्नक्षत्रं सर्वबाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलि-8 काया बहिवारं परति-भ्रमति, तथा कतरन्नक्षत्रं सर्वेभ्योऽधस्तनं चारं चरति, तथा कतरनक्षत्रं सर्वेषां नक्षत्राणामु-|| परितन चारं चरति, सर्वेभ्यो नक्षत्रेभ्य उपरिचारीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति,
।
Estatisersesentatreet
~1050~
Page #1052
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू
यद्यपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारीण्यभिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि तथापीदं शेषैकादशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि वक्षस्कारे द्वीपशा-18|| स्थितं सत् चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्युक्तं, तथा मूलो-मूलनक्षत्रं सर्वबाह्यं चार चरति, यद्यपि पञ्चदशमण्ड- अभ्यन्तर
||8||लाहिशारीणि मृगशिराप्रभतीनि षड़ नक्षत्राणि पूर्वाषाढोत्तरापाढयोश्चतुर्णा तारकाणां मध्ये द्वे द्वे च तारे उक्तानि || संस्थानविया वृत्तिः 18| तथाप्येतदपरवहिश्वारिनक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिश्चारीत्युक्तं, तथा भरणीनक्षत्रं सर्वाधस्तनास्तारादि
चार चरति, तथा स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितनं चारं चरति, अयं भावः-दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो I8/नक्षत्राणा क्षेत्रविभागश्चतुर्योजनप्रमाणस्तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः क्रमेणाधस्तनोपरितनभागी ज्ञेयी, हरिभद्रसूरयस्तु "अध-18||
स्तने ज्योतिष्कतले भरण्यादिकं नक्षत्रमुपरितने च ज्योतिष्कतले स्वात्यादिकमस्तीत्याहु"रिति । अथ सप्तमं द्वारं पृच्छति-8 'चन्दविमाणे 'मित्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त! किंसंस्थितं-किंसंस्थानं प्रज्ञप्तम्?, गौतम! उत्तानीकृतार्द्धकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं सर्वस्फटिकमयं 'अभ्युद्गतोत्सृत'मित्यनेन विजयद्वारपुरस्थप्रकण्ठकगतप्रासादवर्णकः सर्वोऽपि | विमानप्रकरणात् क्लीवेकवचनपूर्वको वाच्यः, एवं चन्द्रविमानन्यायेन सर्वाणि सूर्यादिज्योतिष्कविमानानि नेतव्यानि || संस्थाननैयत्यबुद्धिं प्रापणीयानि, ननु यदि सर्वाण्यपि ज्योतिष्कविमानान्यीकृतकपित्याकाराणि ततश्चन्द्रसूर्यविमाना- ५२२॥
न्यतिस्थूलत्वादुदयकालेऽस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिभ्रमन्ति कस्मात्तथाविधानानि नोपलभ्यन्ते ?, यस्तु शिरस IN उपरि वर्तमानानां तेषामधस्थायिजनेषु वर्तुलतया प्रतिभासः अर्द्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागा.
999
~1051~
Page #1053
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
------...--------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
३ दर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानत्वात् सोऽपि न सम्यग्भावमश्चति पूर्णवृत्तस्यापि तथा दर्शनात् , उच्यते, इहाईकपिस्थाकाराणि न सामस्त्येन विमानानि प्रतिपत्तव्यानि किन्तु विमानानां पीठानि, तेषा पीठानामुपरि चन्द्रादीनां प्रासादास्ते च प्रासादास्तथा कथंचनापि व्यवस्थिता यथा पीठैः सह भूयान् वर्तुल आकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते ततो न कश्चिद्दोषः । अथाष्टमं द्वारं पृच्छति-'चन्दविमाणे ण'मित्यादि, चन्द्रविमान णमिति प्राग्वत्, भदन्त! कियदायामविष्कम्भेन कियाहल्येन-उच्चस्त्वेन प्रज्ञप्तं ?, उपलक्षणात् सूर्यादि-18 विमानमपि प्रश्चितं द्रष्टव्यं, अन पद्येनोत्तरसूत्रमाह-गौतम ! खल्बितिपदं निश्चयेऽलङ्कारे वा षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागान् योजनस्य विस्तीर्ण चन्दमण्डलं भवति, अयमर्थः-एकस्य प्रमाणांगुलयोजनस्यैकषष्टिभागीकृतस्य षट्पञ्चाशता भागैः समु| दितावत्प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणोऽस्य विस्तार इत्यर्थः, वृत्तवस्तुनः सहशायामविष्कम्भरथात्, एवमेवोत्तरसूत्र, 31
तेनायामोऽपि तावानेव, परिक्षेपस्तु स्वयमभ्युह्यः, वृत्तस्य सविशेषत्रिगुणः परिधिरिति प्रसिद्धेः, बाहल्यं चाष्टाविंश|| तिभागान् यावत्तस्य बोद्धव्यं, षट्पञ्चाशदागानामढे एतावत एव लाभात्, सर्वेषामपि ज्योतिष्क(काणां)विमानानां | KRI (नि) स्वस्वव्यासप्रमाणात् अर्द्धप्रमाणवाहल्यानीति वचनात् , तथा अष्टचत्वारिंशतं भागान् विस्तीर्ण सूर्यमण्डलं भवति,
चत्वारिंशद्(चतुर्विशति)भागान् यावद् बाहल्यं तस्य बोद्धव्यं, तथा द्वौ कोशौ च ग्रहाणां तदेवार्द्ध योजनमित्यर्थः ४ तथा नक्षत्राणां तु भवति तस्थाई-एक कोशमित्यर्थः, तस्याई क्रोशार्द्धमित्यर्थः ताराणां विमानानि विस्तीर्णानि,
ecepepeheaeese
estrsestaeeectstateatiserseene
~1052~
Page #1054
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६५] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे चन्द्रादिविमानवाहकाः मू. १६६
श्रीजम्मू-1 ग्रहादिविमानाना मध्ये यस्य यो व्यासस्तस्य तदर्द्ध बाहल्यं भवति, यथा क्रोशद्वयस्थाई क्रोशो ग्रहविमानवाहल्यं, द्वीपशा
क्रोशाई नक्षत्रविमानबाहल्यं, क्रोशतुर्याशस्ताराविमानबाहल्यमिति, एतच्चोत्कृष्टस्थितिकतारादेवविमानमाश्रित्यो, न्तिचन्द्री
वायत्पुनर्जघन्यस्थितिकतारादेवविमानं तस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चधनुःशतानि उच्चत्वपरिमाणमर्द्धतृतीयानि धनु:या वृचिः
धनु- | शतानीति तत्त्वार्थभाष्ये । अथ नवमं द्वारं प्रश्नविषयीकुर्वन्नाह॥५२५॥
चन्दविमाणेणं भन्ते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहति ?, गोअमा! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहतीति । चन्दविमाणस्स णं पुरस्थिमे णं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं चिरलठ्ठपउठ्ठवट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंबिअमुहाणं रतुप्पलपत्तमउयसूमालतालुजीहाणं महुगुलिअपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुण्णबिउलखंधाणं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्यवरवण्णकेसरसडोवसोहिआणं ऊसिअसुनमियसुजायअप्फोडिअलंगूलाणं बइरामयणक्खाणं बइरामयदाढाणं वइरामयदन्ताणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुआणं तवणिजोत्तगसुजोइआणं कामगमार्ण पीइगमाण मणोगमार्ण मणोरमाणं अमिमगईर्ण अमिभवलपीरिअपुरिसकारपरकमाणं मया अफोडिअसीहणायबोलकलकलरवेणं महुरेण मणहरेण पूरेता अंबर दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारीणं पुरथिमिल्छ बाहं वहति । चंद्रविमाणस्स णं दाहिणणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुअलसुडिअपीवरवरचइरसोंडवट्टिअदित्तसुरत्तपउमप्पगासाणं अब्भुण्णयमुहाणं तवणिजविसालकण्णचंचलचलंतविमलुज्जलाणं महुवष्णमिसंतणिद्धपत्तलनिम्मलतिवण्णमणिरयणलो
Seceserweceaestcerseasesesed
ecestatesedteeseseser
॥५२५॥
| अथ चन्द्रादि विमान-वाहका: प्रदर्श्यते
~1053~
Page #1055
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
भणाणं अम्भुगायमउलमल्लिआधवलसरिससंठिअणिवणदढकसिणफालिआमयसुजायदन्तमुसलोक्सोमिआणं कंचणकोसीपविद्वदन्तगविमलमणिरयणरुइलपेरंतचित्तरूवगविराइआण तवणिजबिसालतिलगष्पमुहपरिमण्डिआणं नानामणिरयणमुद्धगेविजबद्धगलयवरभूसणाणं बेरुलिअविचित्तदण्डनिम्मलवइरामयतिक्खलहअंकुसकुंभजुअलयंत्तरोडिआणं तवणिजसुबद्धकच्छप्पिअबल्लुद्धराणं विमलघणमण्डलवइरामयलालाललियतालणं णाणामणिरयणघण्टपासगरजतामयबद्धलज्जुलंबिअघंटाजुअलगहुरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवाहि असुजायलक्षणपसस्थरमणिज्जवालगत्तपरिपुंछणाणं उवचिअपडिपुण्णकुम्मचलणलहुविकमाणं अंकमयणक्याणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुभाणं तवणिजजोत्तगसुजोइआण कामगमाणं पीइगमाण मणोगमाणं मणोरमाण अमिमगईणं अमिभवलपीरिअपुरिसकारपरकमाणं महयागंभीरगुलगुलाइतरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता पत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूबधारीणं देवाणं दक्खिणिलं वाई परिवहंतित्ति । चन्दविमाणस्स गं पञ्चत्यिमेणं सेआणं सुभगाणं सुष्पमाणं चलचवलककुहसालीणं घणनिचिअसुबद्धलक्खणुग्णयईसिआणयवसभोहाणं चंकमिअललिअपुलिअचलचवलगविअगईणं सन्नतपासाथ संगतपासाणं सुजायपासाणं पीवरवाहिजसुसंठिअकडीणं ओलंबपलंबलक्षणपमाणजुत्तरमणिजवालगण्डाणं समखुरवालिधाणाणं समलिहिअसिंगतिक्खग्गसंगवाणं तणुसहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं उवचिअर्मसलविसालपटिपुष्णसंधपएससुंदराणं हलिअभिसंतकडक्पसुनिरिक्खणाणं जुत्तपमाणपहाणलक्षणपसत्थरमणिजगग्गरगल्लसोभिआणं घरघरगसुसहबद्धकंठपरिमण्डिआणं णाणामणिकणगरयणघण्टिवेगरिछगसुक्यमालिआणं वरघण्टागलयमालुजलसिरिधराणं पउमुप्पलसगलसुरभिमालाविभूसिआणं बहरखुराण विविहविक्खुराणं फालिआमयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुआणं तवणिजजोत्तगसुजोइआर्ण कामगमाणं पीइंगमाणं
290000000000000000000000000
Rese
~10544
Page #1056
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
ne
श्रीजम्बू-8 द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
e
॥५२६॥
मणोगमाणं मणोरमाणं अमिअगईणं अभिभबलवीरिअपुरिसकारपरकमाणं महयागजिमगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेण
वक्षस्कारे पूरता अंबरं दिसाओ अ सोभयंती चत्तारि देवसाहस्सीओ वसहरूवधारीणं देवाणं पञ्चस्थिमिलं वाई परिवहतित्ति । चन्दविमा- चन्द्रादिणस्स गं उत्तरेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलमडलमल्लिअच्छाणं चंचुचिअललिअपुलिअचलचवलचंचलगईणं
विमानवालंघणवम्गणधावणधोरणतिवइजाणसिक्खिअगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं सन्नयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं पीवर- हकाः सू. वट्टिअसुसंठिअकडीणं ओलम्बपलबलक्षणपमाणजुत्तरमणिजबालपुच्छाणं तणुसुहुमसुजायणिकलोमच्छविहराणं मिठविसयसुहमलक्खणपसत्यविच्छिण्णकेसरवालिहराणं ललंतथासगललाङवरभूसणाणं मुहमण्डगओचूलगचामरथासगपरिमण्डिअकडीणं तवणिजखुराणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुआर्ण तवणिज जोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं जाव मणोरमाणं अमिअगईणं अमिअबलवीरिअपुरिसकारपरकमाणं मयाबहेसिअकिलकिलाइअरवेणं मणहरेण पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हय. रूवधारीणं देवाणं उत्तरिहं बाहं परिवहतित्ति । गाहा--सोलसदेवसहस्सा हवंति चंदेसु चेव सूरेसु । अद्वेव सहस्साई एककमी गहविमाणे ॥ १॥ बचारि सहस्साई णक्खत्तंमि अहवति इक्केि । दो चेव सहस्साई तारारूवेकमेकमि ॥२॥ एवं सूरविमाणाण जाव तारारूवविमाणाणं, णवरं एस देवसंघाएत्ति ( सूत्र १६६)।
॥५२६॥ चन्द्रविमानं भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ?, गौतम! षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, एकैकस्यां दिशि ] चतुश्चतुःसहस्राणां सद्भावात्, इयमत्र भावना-इह चन्द्रादीनां विमानानि तथा जगत्स्वभावात् निरालम्बनानि वहमा-15॥
909000000000
verseaserwec
laEcHG
~1055~
Page #1057
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
A नान्यवतिष्ठन्ते, केवलं ये आभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयाना वा | देवानां निजमहिमातिशयदर्शनार्थमात्मानं बहुमन्यमानाः प्रमोदभृतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थित्वा २ केचित् ॥ सिंहरूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचिदुपभरूपाणि केचित्तुरङ्गमरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुपपन्नं, तथाहि-यथेह कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां
वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य सम्मत इति निजमाहात्म्यातिशयदर्शनार्थं सर्वमपि स्वोचितं कर्म || 18|| प्रमुदितः करोति तथा आभियोगिका अपि देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाज: समानजातीयानां हीनजाती-|| ४ यानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इत्येवं निजमाहत्म्या
तिशयदर्शनार्थमात्मानं बहुमन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्तीति । अथैषामेव षोडशसहस्राणां व्यक्ति-18 | माह-'चन्दविमाण'इत्यादि, चन्द्र विमानस्य पूर्वस्या-यद्यपि जङ्गमस्वभावेन ज्योतिष्काणां सूर्योदयाङ्कितैव पूर्वा न संभवति ||४|| चारानुसारेण परापरदिपरावर्तसम्भवात् तथापि जिगमिषितदिशं गच्छतोऽभिमुखा दिक् पूर्वेति व्यवहियते, यथा 8 क्षुतदिक, सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि पौरस्त्यां वाहां-पूर्वपार्श्व वहन्तीति सम्बन्धः, तेषामेव विशे-18 पायाह-'सेआण'मित्यादि, श्वेताना-श्वेतवर्णानां तथा सुभगाना-सौभाग्यवतां जनप्रियाणामित्यर्थः, तथा सुप्रभाणां-|| | मुष्ठु-शोभना प्रभा-दीप्तिर्येषां ते तथा तेषां, तथा शशतलं-शंखमध्यभागो विमलनिर्मला-अत्यन्तनिर्मलो यो दधि-18
Daesese eceaseases
~1056~
Page #1058
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६६ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
||५२७||
धनः- स्त्यानीकृतं दधि गोक्षीरफेनः प्रसिद्धः, रजतनिकरो - रूप्यराशिस्तेषामिव प्रकाशः- तेजःप्रसारो येषा ते तथा तेषां, तथा स्थिरौ-दृढौ उष्टी-कान्ती प्रकोष्ठकों- कलाचिके येषां ते तथा, तथा वृत्ताः- वर्चुलाः पीवराः -पुष्टाः सुश्लिष्टाःअविवराः विशिष्टाः - तीक्ष्णा भेदिका या दंष्ट्रास्ताभिर्विडम्बितं विवृतं मुखं येषां ते तथा, प्रायो हि सिंहजातीया दादाभिर्व्यात्तमुखा एव भवन्तीति, अथवा विडम्बितं धातूनामनेकार्थत्वात् शोभितं मुखं येषां ते तथा, ततः कर्मधारयस्तेषां तथा रक्तोत्पलपत्रवत् मृदुमुकुमाले - अतिकोमले तालुजिह्वे येषां ते तथा तेषां तथा मधुगुटिका-घनीभूतक्षौद्रपिण्डस्तद्वत्पिङ्गले अक्षिणी येषां ते तथा तेषां प्रायो हि हिंस्रजीवानां चक्षूंषि पीतवर्णानीति, तथा पीवरे - उपचिते वरे-प्रधाने ऊरू-जंघे येषां ते तथा, परिपूर्णः अत एव विपुलो - विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां तथा मृदवो विशदाः - स्पष्टाः सूक्ष्माः प्रतलाः लक्षणैः प्रशस्ताः वरवर्णाः| प्रधानवर्णाः यी केसरसटा:- स्कन्धकेसरच्छटास्ताभिरुपशोभितानां तथा उच्छ्रितं-ऊर्ध्वकृतं सुनमितं- सुष्ठु अधोमुखी| कृतं सुजातं -शोभनतया जातमास्फोटितं च-भूमावास्फालितं लाङ्गूलं यैस्तथा तेषां तथा वज्रमयनखानां तैलादित्वाद् द्वित्त्वं वज्रमयदंष्ट्राणां वज्रमयदंतानां त्रयाणामध्यवयवानामभङ्गुरत्वोपदर्शनार्थं वज्रोपमानं, तथा तपनीयमय जिह्वानां तथा तपनीयमयतालुकानां तथा तपनीयं योनकं प्रतीतं सुयोजितं येषु ते तथा तेषां कामेन - स्वेच्छया गमो - गमनं येषां ते तथा तेषां यत्र जिगमिषन्ति तत्र गच्छन्तीत्यर्थः, अत्र 'युवर्णवृद्दवशरणगमृद्रह' ( श्रीसिद्ध० ५ -३ - २८७ )
For P&Praise City
~ 1057 ~
७वक्षस्कारे
चन्द्रादि
विमानवा
हकाः सू. १६६
॥५२७||
Page #1059
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
eactice
R
इत्यनेनाल्प्रत्ययः, तथा प्रीति:-चित्तोलासस्तेन गमो-गमनं येषां ते तथा तेषां, तथा मनोवद् गमो-गमनं वेगवत्त्वेन येषां ते तथा तेषां, तथा मनोरमाणां मनोहराणां तथा अमितगतीनां-बहुतरगतीनामित्यर्थः, तथा अमितबलेत्यादिपदानि प्राग्वत् , तथा महता आस्फोटितसिंहनादयोलकलकलरवेण मधुरेण मनोहरेण पूरयन्ति-शब्दाद्वैतं विदधाना|नि अम्बर-नभोमण्डलं दिशश्च-पूर्वाधाः शोभयन्ति-शोभयमानानीति विशेषणद्वयं सहस्राणीति विशेष्येण सह योज्यं ।। | अथ द्वितीयवाहावाहकानाह-चंदविमाण' इत्यादि, चन्द्रविमानस्य दक्षिणस्या-जिगमिपितदिशो दक्षिणे पार्षे गजरूप-IN धारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि दाक्षिणात्यां बाहां परिवहन्तीत्यन्वयः, एषां विशेषणायाह-'सेआण'मित्यादि । विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, तथा वज्रमयं कुम्भयुगलं येषां ते तथा सुस्थिता-सुसंस्थाना पीवरा-पुष्टा वरा वज्रमयी।
शुण्डा वर्तिता-वृत्ता पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् तस्यां दीप्तानि सुरक्तानि यानि पद्मानि-बिन्दुजालरूपाणि तेशं प्रका|| शो-व्यक्तभावो येषां ते तथा, पालकाप्यशास्त्रे हि तारुण्ये हस्तिदेहे जायमाना रक्तविन्दवः पद्मानीति व्यवड़ियन्ते । | इति, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां, तथा अभ्युनतमुखानां पुरत उन्नतत्वात् तथा तपनीयमयावन्तररुणत्वेन विशालीइतरजीवकर्णापेक्षया विस्तीणों चञ्चलौ-सहजचापल्ययुक्तौ अत एव चलन्तौ-इतस्ततो दोलायमानौ विमलौ-आगन्तुकमलरहितौ उज्वली-भद्रजातीयहस्त्यवयवत्वेन बहिःस्वेतवणों करें येषां ते तथा तेषां, अत्र पदव्यत्ययः प्राग्वत्, तथा मधुवर्णे-क्षौद्रसदृशे 'भिसंति'त्ति भासमाने स्निग्धे पत्रले-पक्ष्मवती निर्मले छायादिदोषरहिते त्रिवर्णे-रक्तपी
~1058~
Page #1060
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६६ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
।।५२८ ॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
तश्वेतवर्णाश्रये मणिरलमये लोचने येषां ते तथा तेषां तथा अभ्युद्गतानि - अत्युन्नतानि मुकुलमल्लिकेव - कोरकावस्थ | विचकिलकुसुमवद् धवलानि तथा सदृशं समं संस्थानं येषां तानि तथा, निर्व्रणानि व्रणवर्जितानि दृढानि कृत्स्नस्फ टिकमयानि सर्वात्मना स्फटिकमयानीत्यर्थः सुजातानि - जन्मदोषरहितानि दन्तमुसलानि तैरुपशोभितानां, तथा विमलमणिरलमयानि रुचिराणि पर्यन्तचित्ररूपकाणि अर्थात् कोशीमुखवर्त्तीनीत्यर्थः तैर्विराजिता या काञ्चनकोशी पोलिकेति प्रसिद्धा तस्यां प्रविष्टा दन्ताम्रा अग्रदन्ता येषां ते तथा तेषां पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तथा तपनीयम| यानि विशालानि तिलकप्रमुखाणि यानि मुखाभरणानि आदिशब्दाद्रलशुण्डिकाचामरादिपरिग्रहस्तैः परिमण्डितानां, | तथा नानामणिरलमयो मूर्द्धा येषां ते तथा ग्रैवेयेन सह बद्धानि गलकवरभूषणानि - कण्ठाभरणानि घण्टादीनि येषां ते तथा ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां तथा कुम्भयुगलान्तरे - कुम्भद्वयमध्ये उदितः- उदयं प्राप्तः तत्र स्थित इत्यर्थः, तथा वैडूर्यमयो विचित्रदण्डो यस्मिन् स तथा, निर्मलवज्रमय स्तीक्ष्णो लष्टो - मनोहरोऽङ्कुशो येषां ते तथा तेषां तथा तपनीयमयी सुबद्धा कक्षा - हृदयरज्जुर्येषा ते तथा, दर्पिता -- सञ्जातदपस्ते तथा, बलोद्धुरा - बलोत्कटास्ते तथा, | ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलने २ कर्मधारयस्तेषां तथा विमलं तथा घनं मण्डलं यस्य तत् तथा, वज्रमयलालाभिर्ललितंश्रुतिसुखं ताडनं यस्य तत् तथा, नानामणिरत्नमय्यः पार्श्वगाः पार्श्ववर्त्तिन्यो घण्टा अर्थाघुघण्टा यस्य तत् तथा एवंविधं रजतमयी तिर्यग्वद्धा या रज्जुस्तस्यां लम्बितं यद् घण्टायुगलं तस्य यो मधुरस्वरः तेन मनोहराणां, तथा
Ja Eco intematend
Fir P&Permalise City
~ 1059~
वक्षस्कारे
चन्द्रादिविमानवा
हकाः सू.
१६६
||५२८||
Page #1061
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
आलीनं-सुश्लिष्टं निर्भरभरकेशत्वात् प्रमाणयुक्त-चरणावधि लम्बमानत्वात् वर्तितं-वर्तुलं सुजाता-लक्षणप्रशस्ता रमणीया-मनोहरा वाला यस्य तत् एवंविधं गात्रपरिपुञ्छनं-पुच्छं येषां ते तथा तेषां, तिर्यशो हि पुच्छेनैव गात्र प्रमार्ज-11 यन्तीति, तथा उपचिता-मांसलाः परिपूर्णाः-पूर्णावयवास्तथा कूर्मवदुन्नताश्चरणास्तैले घुलाघवोपेतः-शीघ्रतर इत्यर्थः । विक्रमः-पादविक्षेपो येषां ते तथा तेषां, तथा अङ्करत्नमयनखानां तवणिज्जजीहाणमित्यादि नव पदानि प्राग्वत् , महता-बहुव्यापिना गम्भीर:-अतिमन्द्रो गुलुगुलायितरवो-हितशब्दस्तेन मधुरेण मनोहरेण अम्बरं पूरयन्ति दिशश्च शोभयन्तीत्यादि प्राग्वत् । अथ तृतीयवाहावाहकानाह-'चन्दबिमाणस्स ण'मित्यादि, चन्द्रविमानस्य पश्चिमायांजिगमिपितदिशः पृष्ठभागे वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि पश्चिमां बाहां परिवहन्तीत्यर्थः, श्वेताना सुभगानामित्यादि प्राग्वत्, चलचपलं-इतस्ततो दोलायमानत्वेनास्थिरत्वादतिचपलं ककुद-अंसकूट तेन शालिना-15 शोभायमानानां तथा घनवद्-अयोधनवनिचिताना-निर्भरभृतशरीराणामत एव सुबद्धाना-अश्लथानां लक्षणोन्नतानाप्रशस्तलक्षणानां तथा ईपदानतं-किञ्चिन्नम्रभावमुपागतं वृषभौष्ठं-वृषभी-प्रधानौ लक्षणोपेतत्वेनोष्ठौ यत्र तत्, समर्थ-18
विशेषणेन विशेष्यं लभ्यत इति मुखं येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदचतुष्टयकर्मधारयस्तेषां, तथा चंक्रमितं-कुटिल18 गमनं ललितं-बिलासबद्गमनं पुलितं-गतिविशेषः स याफाशक्रमणरूपः एषरूपा चलचपला-अत्यन्तचपला गर्विता H गतिर्येषां ते तथा सन्नतपार्थानां अधोऽधःपार्थचोरवनतत्वात् तथा सङ्गतपार्थाना-देहप्रमाणोचितपाश्चानां तथा
Sasasasasasa99
Jatrim
~1060~
Page #1062
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६६ ] + गाथा:
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [१८] उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशा
न्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥५२९॥
| सुजातपार्श्वानां सुनिष्पन्नपार्श्वानां तथा पीवरा-पुष्टा वचिंता - वृत्ता सुसंस्थिता सुसंस्थाना कटिर्येषा ते तथा तेषा, तथा | अवलम्बानि - अवलंबन स्थानानि तेषु प्रालम्बानि-लम्बायमानानि लक्षणैः प्रमाणेन च यथोचितेन युक्तानि रमणीयानि | बालगण्डानि चामराणि येषां ते तथा तेषां तथा समाः - परस्परं सदृशाः खुराः प्रतीताः वालिधानं पुण्ठं च येषां ते तथा तेषां तथा 'समलिखितानि' समानि परस्परं सदृशानि लिखितानीवोत्कीर्णानीवेत्यर्थः तीक्ष्णाग्राणि सङ्गतानि| यथोचितप्रमाणानि शृङ्गाणि येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तथा तनुसूक्ष्माणि - अत्यन्तसूक्ष्माणि सुजातानि - सुनिष्पन्नानि स्निग्धानि लोमानि तेषां या छविस्तां धरन्ति ते तथा उपचितः - पुष्टोत एवं मांसलो विशालो धूर्वहनसमर्थत्वात् परिपूर्णोऽव्यङ्गत्वात् यः स्कन्धप्रदेशस्तेन सुन्दराणां, तथा वैडूर्य्यमयानि 'भिसंतकडक्ख'त्ति भासमानकटाक्षाणि - शोभमानार्द्धप्रेक्षितानि सुनिरीक्षणानि - सुलोचनानि येषां ते तथा तेषां तथा युक्तप्रमाणो यथोचित - | मानोपेतः प्रधानलक्षणः प्रतीतः प्रशस्तरमणीयः- अतिरमणीयो गग्गरकः- परिधानविशेषो लोकप्रसिद्धस्तेन शोभित| गलानां पदव्यत्ययः प्राग्वत्, तथा घरघरकाः- कण्ठाभरविशेषः सुशब्दा बद्धा यत्र स चासौं कण्ठश्च तेन परिमण्डितानां, तथा नानाप्रकारमणिकनकरलमय्यो या घण्टिकाः - क्षुद्रघण्टाः किङ्किण्य इत्यर्थस्तासां वैकक्षिकास्तिर्यग्वक्षसि स्था| पितत्वेन सुकृताः- सुष्ठु रचिता मालिकाः श्रेणयो येषां ते तथा तेषां तथा वरघण्टिकाः-उक्तघंटिकातो विशिष्टतरत्वेन प्रधानघण्टा गले येषां ते वरघण्टागलकाः तथा मालया उज्ज्वलास्ते तथा ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां तथा पुष्पा
Fir P&Pale City
~1061~
७वक्षस्कारे चन्द्रादिविमानवा
हकाः खू. १६६
॥५२९॥
Page #1063
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| लजारमेव विशेषेणाह-पद्मानि-सूर्यविकासीनि उत्पलानि-चन्द्रविकासीनि सकलानि-अखण्डितानि सरभीणि तेषां
मालास्ताभिर्विभूषितानां पदव्यत्ययः प्राग्वत् , तथा बज्ररत्नमयाः खुराः प्रतीता येषां ते तथा तेषां विविधाः मणिकनकादिमयस्येन नानाप्रकारा विखुरा-उक्तखुरेभ्य ऊध्र्ववर्तित्वेन विकृष्टाः खुरा येषां ते तथा तेषां, तथा स्फटिकमयदन्तानां तथा तपनीयमयजिह्वानां तथा तपनीयमयतालुकानां तथा तपनीययोक्रके सुयोजितानां तथा 'कामगमाण'मित्यादिपट पदानि प्राग्वत्, महता-गम्भीरेण गर्जितरवेण-भाङ्कारशब्दरूपेणेत्यादि प्राग्वदिति । अथ चतर्थनाहावाहकानाहचन्द्रविमाणस्स णमित्यादि, चन्द्रविमानस्योत्तरस्यां जिगमिपितदिश उत्तरपार्थे वामपार्षे इत्यर्थः, हयरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि उत्सरां बाहां परिवहन्तीति सम्बन्धः, श्वेतानामित्यादि प्राग्वत्, तथा तरो-वेगो बलं वातथा मलि मलि धारणे ततश्च तरोधारको वेगादिधारको हायन:-संवत्सरो येषां ते तरोमल्लिहायना यौवनवन्त इत्यर्थः अतस्तेषां वरतुरामाणामित्यादियोगः, तथा हरिमेलको-वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकुलं-कुडजल तथा मलिका-विवकिलस्त
दक्षिणी येषां ते तथा तेषां शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, तथा 'चंचुचिय'त्ति प्राकृतत्वेन चंचुरित-कुटिलगमनं अथवा चंचुः-110 181शकचंचुस्तद्वदक्रतयेत्यर्थः उचित-उच्चताकरणं पादस्योच्चितं वा--उत्पादनं पादस्यैव चंचूचितं च तत् ललितं च-वि
लासय गतिः पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्धः एवंरूपा तथा चलयतीति चलो-वायुः कम्पनत्वात् तद्वचपलचञ्चलाअतीवचपला गतिर्येषां ते तथा तेषां, तथा लंघनंग देरतिक्रमणं वल्गनं-उस्कूईनं धावन-शीघ्रमृजुगमनं धोरण-गति-18
sesesesese
~10624
Page #1064
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......
श्रीजम्बुद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥५३० ॥
मूलं [ १६६ ] + गाथा:
आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति " मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
चातुर्यं त्रिपदी भूमी पदत्रयन्यासः जयिनीव गमनान्तरजयवती जविनी या वेगवती शिक्षिता - अभ्यस्ता गतियैस्ते तथा तेषां तथा ललन्ति - दोलायमानानि 'लाम'त्ति प्राकृतत्वाद्रम्याणि गल्लातानि - कण्ठे न्यस्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषां तथा सन्नतपावनामित्यादि पञ्च पदानि प्राग्वत्, नवरं बालप्रधानानि पुच्छानि वालपुच्छान्यर्थाच्चामराणीत्यर्थः, तथा 'तणुमुहुमे'त्ति पदं प्राग्वत् तथा मृद्धी विशदा- उज्ज्वला अथवा परस्परमसम्मिलिता प्रतिरोमकूपमेकैकसम्भवात् सूक्ष्मा-तम्बी लक्षणप्रशस्ता विस्तीर्णा या केसरपालि:-स्कन्ध केशश्रेणिस्तां घरंति ये ते तथा तेषां तथा ललन्तःसुवद्धत्वेन सुशोभाका ये स्थासका दर्पणाकारा आभरणविशेवशस्त एवं ललाटवरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, तथा मुखमण्डकं च-मुखाभरणं अवचूलाश्च प्रलम्बमानगुच्छाः चामराणि च स्थासकाश्च प्रतीता एषां द्वन्द्वस्तत एते यथास्थाने नियोजिता येषां सन्ति ते तथा, अवादित्वादप्रत्यये रूपसिद्धिः, परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां तथा तपनीयखुराणां तथा तपनीयजिह्वानामित्यादि नव पदानि प्राग्वत्, तथा महता - बहुव्यापिना हयहेषितरूपो यः किलकिलायितरवः - सानन्दशब्द स्तेनेत्यादि प्राग्वत्, एव च चतुर्ष्वपि विमानवाहाबाहक सिंहादिवर्णकसूत्रेषु कियन्ति पदानि प्रस्तुतोपाङ्गसूत्रादर्शगतपाठा (न) नुसारीण्यपि श्रीजीवाभिगमोपाङ्गसूत्रादर्शपाठानुसारेण व्याख्यातानि, न च तत्र वाचनाभेदात् पाठभेदः सम्भवतीति वाच्यं यतः श्रीमलयगिरिपादेजयाभिगमवृत्तावेव "क्वचित् सिंहादीनां वर्णनं दृश्यते तद्बहुषु पुस्तकेषु न दृष्टमित्युपेक्षितं, अवश्यं चेत्तद्व्याख्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपटीका
For P&False City
~1063~
वक्षस्कारे चन्द्रादिविमानवा
हकाः सू.
१६६
॥५३०॥
Page #1065
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----
-------- मूलं [१६६] + गाथा: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
930000
परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तद्व्याख्यानस्य कृतत्वादि"त्यतिदेशविषयीकृतत्वेन द्वयोः सूत्रयोः सदृशपाठकत्वमेव ।। | सम्भाव्यत इति, यत्तु जीवाभिगमपाठदृष्टान्यपि 'मिअमाइअपीणरइअपासाण'मित्यादिपदानि न व्याख्यातानि तत् |प्रस्तुतसूत्रे सर्वथा अदृष्टत्वात् , यानि च पदानि प्रस्तुतसूत्रादर्शपाठे दृष्टानि सान्येव जीवाभिगमपाठानुसारेण सङ्गतपाठी-113 कृत्य व्याख्यातानीत्यर्थः । अथ चन्द्रवक्तव्यस्य सूर्यादिवक्तव्यविषयेऽतिदेशे चन्द्रादीनां सिंहादिसङ्ख्यासंग्रहणिगाथे चाह गाहा-"सोलस देवसहस्सा"इत्यादि, अत्र सङ्गतिप्राधान्याद् व्याख्यानस्य दृश्यमानप्रस्तुतसूत्रादर्शेषु पुरस्थितोऽपि प्रथम एवं सूरषिमाणाण'मित्याद्यालापको व्याख्येयो, यथा एवं-चन्द्रविमानवाहकानुसारेण सूर्यविमानानामपि वाहका वर्णनीयाः यावत्तारारूपाणामपि विमानवाहका वर्णनीयाः यावत्पदाद् अहविमानानां नक्षत्रविमानानां च विमानवाहका 18 वर्णनीयाः, नवरं एष देवसंघातः, अयमर्थ:-सर्वेषां ज्योतिष्काणां विमानवाहकवर्णनसूत्रं सममेव तेषां सजवाभेदस्तु | व्याख्यास्यमानगाथाभ्यामवगन्तव्यः, ते चेमे वक्ष्यमाणे गाहा इति-गाथे-'सोलसे'त्यादि, षोडशदेवसहस्राणि भवन्ति चन्द्रविमाने पैवेति समुच्चये तथा सूर्यविमानेऽपि पोडश देवसहस्राणि, बहुवचनं चात्र प्राकृतत्वात्, तथा अष्टी देव-1 सहस्राण्ये कैकस्मिन् ग्रहविमाने तथा चत्वारि सहस्राणि नक्षत्रे चैकैकस्मिन् भवन्ति, तथा द्वे चैव सहने तारारूपविमाने एकैकस्मिन्निति । अथ दशमद्वारप्रश्नमाह
एतेसि णं भन्ते! चंदिमसूरिअगहगणनक्खत्ततारारूवाणं कयरे सब्बसिग्घगई कयरे सबसिग्धतराए चेन?, गोअमा! चन्देहितो
अथ चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्काणाम् शीघ्र-शीघ्रतरगत्य: वर्ण्यते
~10644
Page #1066
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६७ - १६९]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥५३१॥
सूरा सव्वसिग्घगई सुरेहिंतो गहा सिग्धगई गहिंतो णक्खत्ता सिम्यगई णक्खत्तेहिंतो तारारूवा सिग्धगई, सब्बप्पाई चंदा सव्वसिग्धगई तारारूवा इति (सूत्रं १६७ ) । एतेसि णं भन्ते । बंदिमसूरिअगहणक्खतारारूवाणं कयरे सव्यमहि दिना कयरे सव्यप्पडिआ ?, गो० ! तारारूहिंतो णक्खत्ता महिद्धिआ णक्खत्तेहिंतो गहा महिदिआ गद्देहिंतो सूरिआ महिद्धिआ सूरेहिंतो चन्दा महिद्धि सम्वपिद्धि तारावा सव्वमहिद्धि चन्दा (सूत्रं १६८) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे ताराए अ ताराए म केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ?, गोअमा। दुबिहे बाधाइए अ निव्वाघाइए अ, निव्यापाइए जगेणं पंचधणुसवाई उकोसेणं दो गाऊआई, वाघाइए जहणेणं दोण्णि छाबडे जोअणसए उकोसेणं वारस जोअणसहस्साइं दोणि अ बायाले जोअणसर तारारूवरस २ अबाहाए अंतरे पण्णत्ते (सूत्रं १६९ ) ।
'एतेसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त । चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरः 'सर्वशीघ्रगतिः' सर्वेभ्यश्चन्द्रादि| भ्यश्चरज्योतिष्केभ्यः शीघ्रगतिः, इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया, कतरश्च सर्वशीघ्रगतितरकः, अत्र द्वयोः प्रकृष्टे तरप्, | इदं च सर्वबाह्य मण्डलापेक्षयोक्तं, अभ्यन्तरमण्डलापेक्षया सर्वबाह्यमण्डलस्य गतिप्रकर्षस्य सुप्रसिद्धत्वात्, प्रज्ञप्त इति गम्यं भगवानाह - गौतम ! चन्द्रेभ्यः सूर्याः सर्वशीघ्रगतयः, सूर्येभ्यः ग्रहाः शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रेभ्यस्तारारूपाणि शीघ्रगतीनि, मुहूर्त्तगतौ विचार्यमाणायां परेषां परेषां गतिप्रकर्षस्यागमसिद्धत्वात्, अत एव सर्वेभ्योऽल्पा- मन्दा गतिर्येषां ते तथा एवंविधाश्चन्द्रास्तथा सर्वेभ्यः शीघ्रगतीनि तारारूपाणीति । अथैकादशद्वारं
For P&Pase Cnly
~1065~
७वक्षस्कारे
ज्योतिष्क
गतिऋद्धितारान्तराणि सू. १६७-१६९
॥ ५३१ ॥
Page #1067
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं वृत्तिः)
वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१६७-१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
यति-पतेसि 'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे सर्वमहर्द्धिकाः कतरे च चकारोऽत्र गम्यः सर्वाल्पर्धिकाः १, भगवानाह-गौतम! तारारूपेभ्यो नक्षत्राणि महर्दिकानि नक्षत्रेभ्यो ग्रहा महर्द्धिकाः डेश्यः सूर्या महर्द्धिकाः सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः, अत एव सर्वाल्पर्धिकास्तारारूपाः सर्वमहर्द्धि काश्चन्द्राः, इयमत्र
विना-गतिविचारणायां ये येभ्यः शीघ्रा उक्तास्ते तेभ्यःऋद्धिविचारणायामुत्क्रमतो महर्डिका ज्ञेया इति । अथ द्वादशIS द्वारप्रश्नमाह-'जम्बुद्दीये ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे तारायास्तारायाश्च कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवाISना-गौतम! द्विविध-व्याघातिक नियोंघातिकं च, तत्र व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तत्र भवं व्याघातिकं, निया
पातिक व्यापातिकान्निर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यन्नियाघातिक तज्जघन्यतः पञ्चधनुःशतानि उत्कृष्टतो वे गव्यूते, ॥ एतच जगत्स्वाभाव्यादेवावगन्तव्यं, यच व्याघातिक तज्जघन्यतो वे योजनशते षषष्ट्यधिके, एतच्च निषधकूटादिकम-18॥ पापेक्ष्य वेदितव्यं, तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽप्युञ्चेश्चत्वारि योजनशतानि तस्य चोपरि पञ्चयोजनशतोच्चानि कूटानि |
तानि च मूले पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि उपरि अर्द्धतृतीये द्वे योजनशते तेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाजगत्स्वाभाच्यादष्टावष्टौं योजनान्यबाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति ततो जघन्यतो व्यापातिकमन्तरं द्वे योजनशते षट्पट्यधिक भवतः, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहस्राणि द्वे18 योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, एतच्च मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, तथाहि-मेरी दायोजनसहस्राणि मेरोषोभयतोऽबाधया ।
500000000000000000000000
Ektmodial
~10664
Page #1068
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१६७-१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्ब- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया वृतिः
वक्षस्कारे अग्रमहिप्यो गुहाच स्थितिःसू. I १६७-१७०
॥५३२॥
एकादशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि, ततः सर्वसङ्ख्यामीलने भवन्ति द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, एवं तारारूपस्य तारारूपस्य अन्तरं प्रज्ञप्तमिति । अथ त्रयोदशं द्वारं प्रश्नयनाह-.
चन्दस्स णं भंते ! जोइसिदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोत्रमा ! चत्तारि अग्गमहिसीभो पण्णताओ, तं.चन्दपमा दोसिणामा अधिमाली पर्भकरा, तओणं एगमेगा देवी चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवारो पण्णत्तो, पभू णं ताओ एग- भेगा देवी अ देवीसहस्स बिउधित्तए, एवामेव सपुछावरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए । पहू ण भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुहिएणं सद्धिं महयाहयणगीभवाइअ जाव दिवाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए?, गोअमा! णो इणले समढे, से केणद्वेणं जाव विहरित्तए ?, गो.! चंदस्स णं जोइसिंदस्स. चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे वइरामएमु गोलबट्टसमुग्गएम थहूईओ जिणसकहाओ सन्निखिताओ चिट्ठति ताओ ण चंदस्स अण्णेसि च यहूर्ण देवाण य देवीण य अपणिजाओ जाव पजुबासणिजाओ, से तेणवेणं गोयमा । णो पभूत्ति, पभू ण चंदे सभाए सुहम्माए चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परिभारिद्धीए, णो चेव णं मेहुणवत्ति, विजया १ वैजयंती २ जयंती ३ अपराजिआ ४ सव्वेसिं गहाईणं एआओ भग्गमहिसीओ, छावत्तरस्तवी गहसयरस एआओ अग्गम हिसीओ वत्तव्याओ, इमाहि गाहाहिंति-इंगाला १ विआलए २ खोहिके ३ सणिच्छरे चेव । आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कगगसणामा य पंचेव ११ ॥१॥ सोमे १२ सहिए १३ आसणेय १४ कजोवए १५ अ
॥५३॥
| चन्द्रादि ज्योतिष्काणाम् अग्रमहिष्याया: वर्णनं क्रियते
~1067~
Page #1069
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति”
-
उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६८२+१७० ]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
कब्बुरए १६ । अयकरए १७ दुंदुभए संखसनामेवि तिष्णेव || २ || एवं भाशियग्वं जाव भावकेउरस अग्गमहिसीओत्ति ।। (सूत्रं १६८) चंदविमाणे णं भंते! देवाणं केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गो० ! जहणणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओवमं बाससयसहस्समम्भहि, चंद्रविमाणे णं देवीणं जहणेणं भागपलिओ उ० अद्धपलियोवमं पण्णासाए वासस हस्ते हि मम हि अं सूरविमाणे देवाणं च भागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिओषमं वाससहस्समम्भहियं सूरविमाणे देवीणं जहणणेणं चउभागपलिओमंउकोसेणं अद्धपलिओयमं पंचहि वाससएहिं जन्महियं गविमाणे देवाणं जहणणं चभागपलिओनं उफोसेगं पलिओ मं विमाणे देवीणं जणेणं उभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं णक्खत्तविमाणे देवाणं जहणणेणं च भागपलिओ मं उक्कोसेणं अद्वपलिणोवमं णक्वत्तविमाणे देवीणं जण्णेणं चउदभागपलिजोषमं उकोसेणं साहिअं चउटभागपलिओ मं, ताराविमाणे देवाणं जहणेणं अट्ठभागपलिओ मं उक्कोसेणं च भागपलिओ मं ताराविमाणदेवीनं जणेणं अनुभागपलिओनं उको सेणं साइरेगं अनुभागपलिओनं (सूत्रं १७० )
'चन्दरस णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, उत्तरसूत्रे चतस्रोऽग्रमहिन्यः, तद्यथा चन्द्रप्रभा 'दोसिणाभ'त्ति ज्योत्स्नाभा अर्चिर्माली प्रभङ्गरा, ततश्च चतुः सङ्ख्या कथनानन्तरं परिवारो वक्तव्य इत्यर्थः एकैकस्या देव्याश्चत्वारि २ देवीसहस्राणि | परिवारः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति ?- एकैका अग्रमहिषी चतुर्णी २ देवीसहस्राणां पट्टराज्ञी, अथ विकुर्वणासामर्थ्यमाह - प्रभुः समर्था णमिति वाक्यालङ्कारे 'ताओ 'ति वचनव्यत्ययात् सा इत्थंभूता अग्रमहिषी परिचारणावसरे तथा-
For P&Praise Cly
अत्र मूल- संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू० १६८' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १६८ R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~1068~
Page #1070
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
------------ मूलं [१६८R+१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू-१९ विधां ज्योतिष्कराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्यान्यमात्मसमानरूपं देवीसहस्रं विकुर्वितुं, स्वाभाविकानि पुनरेवं-उक्तप्रकारे- वक्षस्कारे द्वीपशा-1णव, सपूर्वापरमीलनेन षोडशदेवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, चतस्रोऽयमहिष्य एकैका चात्मना सह चतुश्चतुर्दे-18 अग्रमहिन्तिचन्द्र- वीसहस्रपरिवारा, ततः सर्वसङ्कलने भवन्ति षोडश देवीसहस्राणि, इह यथा चमरेन्द्रादितुडिकवक्तव्यताधिकारे स्वस्व-16
प्यो ग्रहाच
| स्थितिः सू. शाच परिवारसङ्ख्यानुसारेण विकुर्वणीयसङ्ख्या उक्का तथैव जीवाभिगमादौ चन्द्रदेवानामपि चतु:चतुःसहस्रस्वपरिवारानुसारेण 8
१७० ॥५३३॥ चतुश्चतुर्देवीसहस्रविकुर्वणा दृश्यते अत्र तु न तथेति मतान्तरमवसेयं प्रस्तुतसूत्रादर्शलेखकवैगुण्यं वा ज्ञेयमिति, 18
'सेत्तं तुडिए'इति, तदेतत् चन्द्रदेवस्य तुटिक-अन्तःपुरं, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-"तुटिकमन्तःपुरमुपदिश्यते" इति । अथ चतुर्दशं द्वारं प्रश्नयति-पडू ण'मित्यादि, प्रभुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिपेन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंसके विमाने | चन्द्रायां राजधान्यां सुधर्मायां सभायां तुटिकेनेति-अन्तःपुरेण सार्द्ध 'महया'इत्यादि प्राग्वत् विहर्समित्यन्वयः, अत्र काकुपाठात् प्रश्नसूत्रमवगन्तव्यं, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यावत्करणात् णो पभू चंदे जोइसिंदे जोइसराया चन्दव.सए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं महयाहयगीअवाइअणट्ट जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे' इति ग्राह्यं विहर्तुमिति, अत्रोत्तरसूत्रमाह-गौतम! ११५३३॥ चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य चन्द्रावतंसके विमाने चन्द्रायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां माणवकनानि चैत्यस्तम्भे-चैत्यवत् पूज्यः स्तम्भः चैत्यस्तम्भस्तस्मिन् वज्रमयेषु गोलवद्वृत्तेषु समुद्गकेषु-सम्पुटरूपभाण्डेषु वयो जिनसकथा-जिन
ट
~ 1069~
Page #1071
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------
---------- मूलं [१६८R+१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
seakcerstoceaesesea
| सक्थीनि सन्निक्षिप्ता:-स्थापितास्तिष्ठन्ति ताश्च णमिति प्राग्वत् चन्द्रस्य अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चार्चनीयाचन्दनादिना यावत्करणादू वन्दनीयाः स्तुतिभिर्नेमस्यनीयाः प्रणामतः पूजनीयाः पुष्पैः सत्कारणीया वस्त्रादिभिः सम्माननीयाः प्रतिपत्तिविशेषैरिति ग्राह्य, पर्युपासनीयाः कल्याणमित्यादिबुद्ध्या, अथ तेनार्थेन एवमुच्यते-गौतम! न प्रभारिति. जिनेयिव जिनसक्थिध्वपि तेषां बहुमानपरत्वेनाशातनाभीरुत्वादिति, अधैवं सति कल्पातीतदेवानामिवास्थापि अप्रविचारता उत नेत्याशङ्कामपाकमाह-'पभू णमिति, प्रभुश्चन्द्रसभायां सुधर्मायां चतुर्भिः सामानिकसहस्रः एवमित्युक्तप्रकारेण यावत्करणात् चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिरित्यादिकः सर्वोऽप्यालापको वाच्यः, दिव्यान भोगाहीं ये भोगा:-ब्दादयस्तान् भुजानो विहर्तुमिति, अत्रैव विशेषमाह-केवलं-नवरं परिवारः-परिकरस्तस्य ऋद्धिःसम्पत्तत्तया. एते सर्वेऽपि मम परिचारकाः अहं चैषां स्वामीत्येवं निजस्फातिविशेषदर्शनाभिनायेणेति भावः, नैव च मैथुनप्रत्ययं-सुरतनिमित्तं यथा भवत्येवं भोगभोगान् भुजानो विहर्तुं प्रभुरिति । अथ प्रस्तुतोपाङ्गादशेष्वदृष्टमपि । जीवाभिगमाधुपाङ्गादर्शदृष्टं सूर्याप्रमहिषीवक्तव्यमुपदयते, 'सूरस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोअमा! चत्तारि अग्गमहिसीओ पं०, तंजहा-सूरप्पभा आयवाभा अधिमालि पभंकरा एवं अवसेसं जहा चन्दस्त णवरं सूरव.सए विमाणे सूरंसि सीहासणंसी ति व्यक्तम् । अथ ग्रहादीनामग्रमहिषीवक्तव्यमाह-विजया इत्यादि, ग्रहादीनामादिशब्दात् नक्षत्रतारकापरिग्रहः सर्वेषामपि विजया वैजयन्तीत्यादिचतुर्भिर्नामभिरेवाग्रमहिप्यो ज्ञेयाः,
esereA
R
~ 1070~
Page #1072
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
----------- मूलं [१६८R+१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
वक्षस्कारे
श्रीजम्यु-
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥५३४॥
यो ग्रहाथ
ependeceaeew
उक्कमेव विशिष्य आह–'छायत्तर'इत्यादि, षट्सप्तत्यधिकस्य ग्रहशतस्यापि जम्बूद्वीपवर्तिचन्द्रद्वयपरिवारभूतानां ग्रहाणां द्विगुणिताया अष्टाशीतेरित्यर्थः, एता-अनन्तरोक्ता विजयाद्या अग्रमहिन्यो वक्तव्याः इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिगा-18 थाभिरुक्तनामभिः इति गम्यं, इदं च ग्रहशतस्य विशेषणं बोध्य, अत्र सूत्रादर्श प्रथमदृष्टमपि नक्षत्रदैवतसूत्रमुपेक्ष्य । क्रमप्राधान्याद् व्याख्यानस्येति प्रथममष्टाशीतिमहनामसूत्रं व्याख्यायते-'इंगालए'इत्यादि, अङ्गारकः १ विकालकः २ लोहिताङ्क: ३ दानेश्वरः ४ आधुनिकः५ प्राधुनिकः ६ कनकेन सह एकदेशेन समान नाम येषां ते कनकसमाननामानस्ते पञ्चैव प्रागुक्तसङ्ख्यापरिपाच्या योजनीयाः, तद्यथा-कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानकः १० कणसन्तानकः ११ 'सोमे'त्यादि सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कर्बुरकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः |१८ शंखसमाननामानो नाम्नि शंखशब्दाङ्किता इत्यर्थः ते त्रयः, तद्यथा-शंखः १९ शंखनाभः२० शंखवर्णाभ: २१ एवं उकेन प्रकारेण भणितव्यं, प्रत्येकमग्रमहिषीसंख्याकथनाय अष्टाशीतेनहाणां नामसंग्राहकगाथाकदम्बकमिति शेषः, यावत् भावकेतोर्महस्याग्रमहिष्यः, यावत्करणात् इदं द्रष्टव्यं-तिण्णेव कंसनामा णीले रुप्पि अहवंति चत्तारि । भाव| तिलपुष्फवण्णे दग दगवण्णे य कायर्वधे य॥३॥ इंदम्गिधूमकेऊ हरिपिंगलए बुहे अ सुके अ । बहस्सइराहु अगत्थी माणवगे कामफासे अ॥४॥ धुरए पमुहे वियडे विसंधि कप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ॥५॥ सोस्थि सोवस्थिभए बद्धमाणग तहा पलंबे अ । णिचालोए णिचुज्जोए सयंपभे चेत्र ओभासे ॥६॥ सेयं
॥५३४॥
~ 1071~
Page #1073
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार[७], -------
------------------ मूलं [१६८R+१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
See
18| करखेमकर आभंकर पर्भकरे अ णाययो । अरए विरए अ तहा असोग तह वीतसोगे य ॥७॥ विमल चित्तत्थ विवत्थे
विसाल तह साल सुबए चेव । अनियट्टी एगजडी अ होइ बिजडी य बोद्धये ॥८॥ कर करिअ राय अग्गल बोद्धचे पुष्फ-18 |भावकेऊ अ । अट्ठासीई गहा खलु णायवा आणुपुबीए॥९॥अत्र व्याख्या-कंसशब्दोपलक्षितं नाम येषां ते कंसनामानः ते त्रय एव, तद्यथा-कंसः २२ कंसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ नीले रुप्ये च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसंभवात् सर्वसंख्यया भवन्ति चत्वारस्तद्यथा-नीलः २५. नीलावभासः २६ रुप्पी २७ रुप्यावभासः २८ भास इति नामद्वयोपलक्षणं तद्यथा-भस्म २९ भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णः ३३ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कायः ३५ वन्ध्यः ३६ चः समुच्चये इंद्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९ पिङ्गलकः ४० बुधः ४१ तथैव, एवमग्रेऽपि, शुक्रः ४२ बृह| स्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ धुरकः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसन्धिकल्पः M५१ तथा प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिकः ५८ सीवस्तिकः ५९
वर्धमानकः ६० तथा प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ | क्षेमङ्करः ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ षोडव्यः अरजाः ७० बिरजाः ७१ तथा अशोकः ७२ तथा वीतशोकः ७३ विमलः ७४ विततः ७५ विवस्त्रः ७६ विशालः ७७ शालः ७८ सुव्रतः ७९ अनिवृत्तिः ८० एकजटी ८१ भवति द्विजटी ८२ योद्धव्यः करः ८३ करिकः ८४ राजा ८५ अर्गलः ८६ बोद्धव्यः पुष्पकेतुः ८७ भावकेतुः ८८ इति अष्टा
~1072~
Page #1074
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
------------ मूलं [१६८R+१७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
यावृत्तिः
श्रीजम्प-18| शीतिम्रहाः खलु ज्ञातव्या आनुपूर्येति । अथ 'सवेसिं गहाईण मित्यादिपदेन सूचिताना नक्षत्राणामधिदैवतद्वारा नाम-12 ७वक्षस्कार द्वीपशा-8 प्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह
नक्षत्राधिन्तिचन्द्री
छातारः बह्या विष्ट अ बसू वरुणे अय बुड्ढी पूस आस जमे । अग्गि पयावइ सोमे रुदे अदिती वहस्सई सप्पे ॥१॥ पिठ भर्गअजमसवि18||आ तवा पाक तहेव इंदग्गी । मित्ते इंदे निरुई आऊ विस्सा य बोडवे ॥२॥ इति (सूत्र १७१) ॥५३५॥ ब्रह्मा अभिजित् १ विष्णुः श्रवणः २ वसुर्धनिष्ठा ३ वरुणः शतभिषक् ४ अजः पूर्वभाद्रपदा ५ वृद्धिरित्यत्र पदैकदेशे
पदसमुदायोपचारात् अभिवृद्धिरुत्तरभाद्रपदा ६ अन्यत्राहिधून इति, पूषा रेवती ७ अश्वोऽश्विनी ८ यमो भरणि ९|
अग्निः कृत्तिका १० प्रजापती रोहिणी ११ सोमो मृगशिरः १२ रुद्र आर्द्रा १३ अदितिः पुनर्वसुः १४ बृहस्पतिः पुष्यः 10१५ सर्पोऽश्लेषा १६ पिता मघा १७ भगःपूर्वफाल्गुनी १८ अर्यमा उत्तराफाल्गुनी १९ सविता हस्तः २० त्वष्टा चित्रा | 10२१ वायुः स्वातिः २२ इंद्राग्नी विशाखा २३ मित्रोऽनुराधा २४ इन्द्रो ज्येष्ठा २५ निक्रतिमूलं २६ आपः पूर्वाषाढा 18 २७ विश्वे उत्तराषाढा २८ चेति नक्षत्राणि बोद्धव्यानि, ननु स्वस्वामिभावसम्बन्धप्रतिपादकभावमन्तरेण कथं देव-18 18|| तानामभिर्नक्षत्रनामानि संपोरन् ?, उच्यते, अधिष्ठातरि अधिष्ठेयस्योपचारात् भवति, एतेषां चाष्टाविंशतेरपि नक्ष-18॥५३५।। 18 त्राणां विजयादिनामभिरेव पूर्वोक्ताश्चतस्रोऽयमहिष्यो वक्तव्या इति । तारकाणां च सपश्चसप्ततिसहस्राधिकषट्पष्टिको-18
| टाकोटीप्रमाणत्वेन बहुसंख्याकतया नामव्यवहारस्यासंव्यवहार्यत्वेन चोपेक्षा, परमेषामप्येता एव चतस्रोऽप्रमहिष्यो
अथ नक्षत्राणां अधिदेवताया: नामानि दर्श्यते
~ 1073~
Page #1075
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----
---- मूलं [१७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
| बोध्या इति । अथ पञ्चदर्श द्वार प्रश्नविषयीकर्तुमाह-'चन्दविमाणे णं भंते !' इत्यादि, प्रायः सुगम, नवरं चतुर्भागपल्योपमस्थिति:-चतुर्भागमात्रं पल्योपमं चतुर्भागपल्योपममिति विशेषणसमासः पल्योपमचतुर्भाग इत्यर्थः प्राकृतत्वात् पूरणप्रत्ययलोपः, एवमप्रेऽष्टभागपल्योपमादावपि बोध्यं, चन्द्रविमाने हि चन्द्रदेवः सामानिकाच आत्मरक्षकादयश्च परिवसन्ति तेन चन्द्रसामानिकापेक्षया उत्कृष्टमायुर्योध्यं, तेषामेवोत्कृष्टायुःसंभवात् , जघन्य चात्मरक्षकादिदेवा-18 पेक्षयेति, एवं सूर्यविमानादिसूनेष्वपि भाव्यम् । अथ सूर्यायुःसूत्रम्-'सूरविमाणे इत्यादि, व्यक्तं, अथ ग्रहादीनां स्थितिसूत्राणि 'गहविमाणे' इत्यादि, एतानि त्रीण्यपि सूत्राणि निगदसिद्धानीति । पोडशं द्वारं पृच्छति
एतेसि ण भन्ते! चंदिमसूरिअगहणक्यत्ततारारूवाणं कवरे२ हिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुला वा विसेसाहिआ बा ?, गो०! चंदिमसू. रिआ दुचे तुल्ला सम्वत्थोवा णक्खत्ता संखेजगुणा गहा संखेनगुणा तारारूवा संखेजगुणा इति (सूत्र. १७२) जम्बुद्दीवेणं भन्ते ! दीवे जहण्णपए वा नकोसपए वा केवइआ तित्थयरा सम्वग्गेण पं०१, गो०! जहण्णपए चत्वारि उकोसपए चोत्तीसं तित्ययरा सम्वग्गेणं पण्णत्ता । जम्बुद्दीये भंते ! दीवे केवइआ जहष्णपए वा उकोसपए वा चकवट्टी सनग्गेण पं०?, गो.! जहण्णपदे चत्तारि उकोसपदे तीसं चकयट्टी सबग्गेणं पण्णता इति, बलदेवा तत्तिा चेव जत्तिा चकवट्टी, वासुदेवावि तत्तिया चेवत्ति । जम्बुद्दीवे दीवे केवइआ निहिरयणा सबग्गेण पं०१, गो.! तिष्णि छलुत्तरा णिहिरयणसया सम्बग्गेणं पं०, जम्बुद्दीवे २ केवइआ णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हग्यमागच्छंति ?, गोक! जहष्णपए छत्तीसं उकोसपए दोण्णि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए
RE
eseseeteneecence
24940
~1074~
Page #1076
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -------
-- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
न्तिचन्द्री
श्रीजम्बूद्वीपशाया वृत्तिः ॥५३६॥
अक्षस्कारे चन्द्राबल्पबहुतं जिनादि
१७२-१७३
हामागच्छंति, जम्बुरीवे २ केवइआ पंचिंदिअरयणसया सव्वम्गेणं पण्णता?, गो०! दो दसुत्तरा पंचिंदिअरयणसया सम्बग्गेणं पण्णत्ता, जम्बुहरीवे २ जहष्णपदे वा उच्छोसपदे वा केवइआ पंचिंदिअरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति ?, गो०! जहण्णपए अट्ठावीसं पक्कोसपए दोणि दसुत्तरा पंचिदिअरयणसया परिभोगत्ताए हब्बमागच्छंति, जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दीवे केवइआ एगिदिअरयणसया सव्वग्गेणं पं०१, गो०! दो दसुत्तरा एनिदिअरयणसया सव्वग्गेणं पं०, जम्बुद्दीवे णे भन्ते ! दीवे केवइमा एगिदिभरयणसया परिभोगत्ताए हम्वमागच्छन्ति', गो०! जहण्णपए अट्ठावीसं उकोसेणं दोणि दसुत्तरा एनिदिअरयणसया परिभोगत्ताए हलमागच्छंति (सूत्र १७३)
'एतेसिण'मित्यादि, एतेषां-अनन्तरोक्तानां प्रत्यक्षप्रमाणगोचराणां वा भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽल्पा:-स्तोकाः वा विकल्पसमुच्चयार्थे कतरे कतरेभ्यो बहुका वा कतरे कतरेभ्यस्तुल्या वा, अत्र विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, कतरे कतरेभ्यो विशेषा वेति, गौतम! चन्द्रसूर्या एते दयेऽपि परस्परं तुल्याः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसङ्ख्याकत्वात् , शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सर्वेऽपि स्तोकाः, तेभ्यो नक्षत्राणि सङ्-18 ख्येयगुणानि अष्टाविंशतिगुणत्वात् , 'तेभ्योऽपि ग्रहाः सख्येयगुणाः सातिरेकत्रिगुणत्वात्, तेभ्योऽपि तारारूपाणि || सङ्ख्येयगुणानि प्रभूतकोटाकोटीगुणत्वादिति, व्याख्यातं षोडशमल्पबहुत्वद्वारं, तेन सम्पूर्ण संग्रहणीगाथाद्वयच्या-18 ख्यानमिति । अथ जम्बूद्वीपे जघन्योत्कृष्टपदाभ्यां तीर्थकरान् पिपृच्छिषुराह-'जम्बुद्दीवेणं भन्ते! दीवे जहण्णपए'
५३६॥
~ 1075~
Page #1077
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
-- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
1 इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे जघन्यपदे सर्वस्तोके स्थाने वा उत्कृष्टपदे सर्वोत्कृष्ट स्थाने वा विचार्यमाणे इति शेषः ।
कियन्तस्तीर्थकराः सर्वाग्रेण-सर्वसंख्यया केवलिदृष्टमात्रया इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः, गौतम! जघन्यपदे चत्वारः प्राप्यन्ते, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहे शीतामहानद्या द्विभागीकृते दक्षिणोत्तरदिग्भागयोरेकैकस्य सद्भावात् द्वौ अपरविदेहेऽपि शीतोदया महानद्या द्विभागीकृते तथैव द्वौ जिनेन्द्री मिलिताश्चत्वारः, भरतैरावतयोस्तु एकान्तसुषमादावभाव एव, उत्कृष्टपदे चतुस्त्रिंशत्तीर्थकराः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः, तथाहि-महाविदेहे प्रतिविजयं भरतैरावतयोश्चैकैकस्य सम्भव इति सर्वमीलने चतुस्त्रिंशत्, एषां हि भगवतां स्वस्वक्षेत्रवर्तिभिश्चक्रिभिरर्द्धचक्रिभिश्च सहानवस्थानलक्षणविरोधासम्भवात्,
एतच्च विहरमानजिनापेक्षया बोज्य, न तु जन्मापेक्षया, तच्चिन्तायां तूत्कृष्टपदे चतुर्विंशतस्तीर्थकराणामसम्भवादिति ।। IS अथात्रैव जघन्योत्कृष्टपदाभ्यां चक्रिणः पृच्छति-'जम्बुद्दीवे'इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे कियन्तो जघन्यपदे |
वा उत्कृष्टपदे वा चक्रवर्तिनः प्रज्ञप्ता:१, भगवानाह-गौतम! जघन्यपदे चत्वारः उपपत्तिस्तु तीर्थराणामिव, उत्कृ-II IS टपदे त्रिंशश्चक्रवर्तिनः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ता, कथमिति चेत्, उच्यते, द्वात्रिंशद्विजयेषु वासुदेवस्वामिकान्यतरविजयच|तुष्कवर्जितविजयसत्काऽष्टाविंशतिः भरतैरावतयोस्तु द्वाविति पूर्वापरमीलितात्रिंशत्, यदा महाविदेहे उत्कृष्टपदेड
टाविंशतिश्चक्रिणःप्राप्यन्ते तदा नियमाच्चतुर्णामर्द्धचक्रिणां सम्भवेन तन्निरुद्धक्षेत्रेषु चक्रिणामसम्भवात् , चक्रिणामर्द्धचA क्रिणां च सहानवस्थानलक्षणविरोधादिति, अथात्र तथैव बलदेवानर्द्धचक्रिणश्चाह-बलदेवा तत्तिा ' इत्यादि, बलदेवा
~ 1076~
Page #1078
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------
-- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
द्वीपशा
श्रीजम्बू- अपि तावन्त एवोत्कृष्टपदे जघन्यपदे च यावन्तश्चक्रवर्तिनः, वासुदेवा अपि तावन्त एव बलदेवंसहचारित्वात् , कोऽर्थः ?- वक्षस्कारे
॥ यदा चक्रवर्तिनः उत्कृष्टपदे त्रिंशद् तदा अवश्यं बलदेववासुदेवा जघन्यपदे चत्वारः तेषां चतुर्णामवश्यं भावात् , || चन्द्राबन्तिचन्द्री
ल्पबहुत्वं यदा च बलदेवा वासुदेवा उत्कृष्टपदे त्रिंशत् तदा चक्रिणो जघन्यपदे चत्वारः तेषामपि चतुर्णामवश्यं भावात्, या चिः
जिनादितेनैतेषां परस्परं सहानवस्थानलक्षणविरोधभावेनान्यतराश्रितक्षेत्रे तदन्यतरस्याभाव इति । अथैते निधिपतयो
संख्या मू. ॥५३७॥18॥ भवन्तीति जम्यूद्वीपे निधिसन्ख्या प्रष्टुमाह-'जम्बुद्दीचे दीये' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति निधिरलानि-IS | १७२-१७३
| उत्कृष्टनिधानानि यानि गङ्गादिनदीमुखस्थानि चक्रवर्ती हस्तगतपरिपूर्णषट्खण्डदिग्विजयव्यावृत्तोऽष्टमतपःकरणा-18| IS नन्तरं स्वसाकरोति तानि सर्वाग्रेण-सर्वसत्यया प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि पडुत्तराणि निधिरत्न
शतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि, तपथा-नवसयाकानि निधानानि चतुर्विंशता गुण्यन्त इति यथोक्तसङ्कवेति, इयं । |च सत्तामाश्रित्य प्ररूपणा कृता, अथ निधिपतीनां कति निधानानि विवक्षितकाले भोग्यानि भवन्तीति प्रश्न-18| माह-'जम्बुद्दीचे दीवे'इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति निधिरजशतानि परिभोग्यतया उत्पन्ने प्रयोजने चक्रवर्तिभियापार्यमाणत्वेन हयमिति-शीनं चक्रवर्त्यभिलापोत्पत्त्यनन्तरं निर्विलम्बमित्यर्थः आगच्छन्ति ?, भगवानाह-गौतम! | ५३७॥ जघन्यपदे षट्त्रिंशत् जघन्यपदभाविनां चक्रवर्त्तिनां नवनिधानानि चतुर्गुणितानि यथोक्तसञ्जयाप्रदानीति, उत्कृष्टपदे तु द्वे सप्तत्यधिके निधिरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छतः, उत्कृष्टपदभाविनां चक्रिणां त्रिंशतो नव नव निधानानि ।
800000000000000
~1077~
Page #1079
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----
-- मूलं [१७२-१७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
॥ भवन्तीति नव त्रिंशता गुण्यन्त इत्युपपद्यते यथोक्तसंख्येति । अथ जम्बूद्वीपवर्तिचक्रवत्तिरनसंख्या पिपृच्छिषुराह-18॥ 11'जम्युहीवे'त्ति, जम्बूद्वीपे २ भदन्त! कियन्ति पञ्चेन्द्रियरत्नानि-सेनापत्यादीनि सप्त तेषां शतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञ
सानि?, भगवानाह-गौतम! द्वे दशोत्तरे पश्शेन्द्रियरत्नशते सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ते, तद्यथा-उत्कृष्टपदभाविनां त्रिंशतश्चक्रिणां प्रत्येक सप्तपञ्चन्द्रियरत्नसद्भावेन सप्तसंख्या त्रिंशता गुण्यते भवति यथोक्तं मानं, ननु निधिसर्वाग्रपृच्छायां चतुस्त्रिंशता गुणनं पञ्चेन्द्रियरत्नसर्वाप्रपृच्छायां तु किमिति त्रिंशता गुणनं ?, उच्यते, चतुर्यु वासुदेवविजयेषु तदा
तेषामनुपलम्भात्, निधीनां तु नियतभावत्वेन सर्वदाऽप्युपलब्धेः, तेन रनसर्वानसूत्रे रत्नपरिभोगसूत्रे च न कश्चित्र है| संख्याकृतो विशेष इति, अथ रत्नपरिभोगप्रश्नसूत्रमाह-'जम्बुहीवे इत्यादि, प्रायो व्याख्यातत्वाद व्यक, अथैकेन्द्रि-1 1 यरलानि प्रश्नयितुमाह-'जम्बुद्दीवे'त्ति व्यक्तं, नवरं एकेन्द्रियरत्नानि चक्रिणां चक्रादीनि तेषां शतानीति । अथैकेन्द्रि-k यरलपरिभोगसूत्रं पृच्छमाह-'जम्बुद्दी' त्ति व्यक्तं ॥ अथ जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भादीनि पृच्छन्नाह
जम्मुदीवे गं भन्ते ! दीवे केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइ उबेहेणं केवइ उद्धं उच्चत्तेणं केवइ सबग्गेणं पं०१, गो० ! जम्बुदीये २ एग जोषणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोअणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि अ सत्तावीसे जोअणसए तिष्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहि परिक्खेवणं पं०, एग जोअणसहरसं उबेहेणं णवणउति जोअणसहस्साई साइरेगाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगं जोअणसयसहस्सं सवमोणं पण्णत्ते । (सूत्रं १७४)
Pos90ses
अथ जम्बूद्वीपस्य आयाम-विष्कंभ आदि प्रदर्श्यते
~ 1078~
Page #1080
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
-- मूलं [१७४-१७६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बूजम्बरीवेज भन्ते । दीये कि सासए असासए', गोअमा! सिम सासए सिअ असासए, से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुबइ-सिन
वक्षस्कारे सासए सिअ असासए,गो०! दबट्ठयाए सासए वणपनवेहिं गंधक रस०कासपजवेहिं असासए, से तेणद्वेणं गो! एवं वह
द्वीपोद्वेधान्तिचन्द्री- सिम सासए सिभ असासए । जम्बुद्दीवे गं भन्ते! दीवे कालो केबचिरं होइ?, गोअमा। ण कयाविणासि ण कयावि
|दि शाश्वया वृत्तिः णत्यि ण कयापि ण भविस्सइ, भुषि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे णिइए सासए अन्बए भवहिए णिचे जम्बुद्दीवे दीवे पण्णते
| तत्वादि इति (सूत्र १७५) जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दीवे किं पुढविपरिणाम आउपरिणामे जीवपरिणामे पोग्गलपरिणामे ?, गोभमा ! १५३८॥
परिणामा-- पुढविपरिणामेवि आउपरिणामेवि जीवपरिणामेवि पुग्गलपरिणामेवि । जम्बुद्दीवेणं भन्ते ! दीवे सव्वपाणा सध्वजीवा सबभूभा
दि . सव्वसत्ता पुढविकाइअत्ताए आउकाइअत्ताए तेउकाइअत्तार वाउकाइअचाए वणस्सइकाइअत्ताए उनवण्णपुब्बा ?, हंता गो!
(१७४-१७६ असई अदुवा अर्णवखुत्तो (सूत्रं १७६)।
'जम्बुद्दीवे'त्ति, अत्र सूत्रे विष्कम्भायामपरिक्षेपाः प्राग्व्याख्याताः, पुनः प्रश्नविषयीकरणं तु उद्वेषादिक्षेत्रधर्मप्रश्नकरणप्रस्तावाद्विस्मरणशीलविनेयजनस्मरणरूपोपकारायेति, तेन उद्वेधादिसूत्रे जम्बूद्वीपं द्वीपं अत्र द्वीपशब्दस्य क्लीवत्व३ निर्देशः क्लीवेऽपि वर्तमानत्वात् कियदुद्वेधेन-उण्डत्वेन भूमिप्रविष्टत्वेनेत्यर्थः कियदूर्वोच्चत्वेन-भूनिर्गतोच्चत्वेनेत्यर्थः ।
॥५३८ IS|| कियञ्च सर्वाग्रेण-उण्डत्वोच्चत्वमीलनेन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! विष्कम्भायामपरिक्षेपविषयं निर्वचनसूत्रं प्राग्वत्
| उद्वेधादिनिर्वचनसूत्रे तु एकं योजनसहनमुद्वेधेन सातिरेकाणि नवनवति योजनसहत्राणि ऊर्बोच्चत्वेन सातिरेक योज-गई
छeosecacaon
~ 1079~
Page #1081
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १७४- १७६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
नशतसहस्रं सर्वाप्रेण प्रज्ञष्ठम्, ननु ऊण्डत्वव्यवहारो जलाशयादी उच्चत्वव्यवहारस्तु पर्वतविमानादौ प्रसिद्धः द्वीपे तु स किं १, व्यवहाराविषयत्वादिति, उच्यते, समभूतलादारभ्य रत्नप्रभायामधः सहस्रयोजनानि यावद् गमनेऽधोग्रा| मविजयादिषु जम्बूद्वीपव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वेनोण्डत्वव्यवहारः सुप्रसिद्ध एव तथा जम्बूद्वीपोत्पन्नानां तीर्थकृतां जम्बूद्वीपमेरोः पण्डगवनेऽभिषेकशि ठायामभिषिच्यमानत्वात् जम्बूद्वीपव्यपदेशपूर्वकमभिषेकस्य जायमानत्वेनो चत्वव्यवहारोऽप्यागमे सुप्रसिद्ध एवेति । अथास्यैव शाश्वतभावादिकं प्रश्नयन्नाह - 'जम्बुद्दीवे णमित्यादि, इदं च यथा प्राकू | पद्मवरवेदिकाधिकारे व्याख्यातं तथाऽत्र जम्बूद्वीपव्यपदेशेन बोध्यमिति, एवं च शाश्वताशाश्वतो घटो निरन्वयविनश्वरो दृष्टः किमसावपि तद्वत् उत नेत्याह-'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, इदमपि प्राक् पद्मबरवेदिकाधिकारे व्याख्यातमिति । अथ किंपरिणामोऽसौ द्वीप इति पिपृच्छिपुराह- 'जम्बुद्दीवे णं भन्ते !' इत्यादि, जम्बूद्वीपो भदन्त ! द्वीपः किं | पृथिवी परिणाम:--पृथिवीपिण्डमयः किमप्परिणाम :- जलपिण्डमयः, एतादृशौ च स्कन्धायचित्तरजः स्कन्धादिवदजीवप|रिणामावपि भवत इत्याशङ्कयाह- किं जीवपरिणामः - जीवमयः, घटादिरजीव परिणामोऽपि भवतीत्याशङ्कयाह- किं पुन| लपरिणाम:- पुद्गलस्कन्धनिष्पन्नः केवलपुद्गलपिण्डमय इत्यर्थः तेजसस्त्वेकान्त सुषमादावनुत्पन्नत्वेन एकान्तदुष्प| मादौ तु विध्वस्तत्वेन जम्बूद्वीपेऽस्य तत्परिणामेऽङ्गीक्रियमाणे कादाचित्कत्वप्रसङ्गः वायोस्त्वतिचलत्वेन तत्परिणामे | द्वीपस्यापि चलत्वापत्तिरिति तयोः स्वत एव सन्देहाविषयत्वेन न प्रश्नसूत्रे उपन्यासः, भगवानाह - गौतम ! पृथिवी
For P&Praise City
~ 1080 ~
००००
Page #1082
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१९७४- १७६]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥५३९॥
परिणामोऽपि पर्वतादिमत्त्वात् अप्परिणामोऽपि नदीहदादिमत्त्वात् जीवपरिणामोऽपि मुखवनादिषु वनस्पत्यादिमत्त्वात्, यद्यपि स्वसमये पृथिव्यपकाय परिणामत्वग्रहणेनैव जीवपरिणामत्वं सिद्धं तथापि लोके तयोर्जीवत्वस्याव्यवहारात् पृथग्ग्रहणं, वनस्पत्यादीनां तु जीवत्वव्यवहारः स्वपरसम्मत इति, पुद्गलपरिणामोऽपि मूर्त्तत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, कोऽर्थः १-जम्बूद्वीपो हि स्कन्धरूपः पदार्थः, स चावयवैः समुदितैरेव भवति, समुदायरूपत्वात् समुदायिन | इति । अथ यदि चायं जीवपरिणामस्तर्हि सर्वे जीवा अत्रोत्पन्नपूर्वा उत नेत्याशङ्कयाह - 'जम्बुद्दीवे णं भन्ते !" इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्वे प्राणाः- द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सर्वे जीवाः- पञ्चेन्द्रियाः सर्वे भूताः - तरवः सर्वे सत्त्वाः - पृथि व्यप्तेजोवायुकायिकाः, अनेन च सांव्यवहारिकराशिविषयक एवायं प्रश्नः, अनादिनिगोदनिर्गतानामेव प्राणजीवादिरूपविशेषपर्यायप्रतिपत्तेः पृथिवीकायिकतया अपकायिकतया तेजस्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया उपपन्न पूर्वा:- उत्पन्न पूर्वाः १, भगवानाह - 'हंता गोअमा!" एवं गौतम ! यथैव प्रश्नसूत्रं तथैव प्रत्युच्चारणीयं पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पतिकायिकतथा उपपन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्यानादित्वात् न पुनः सर्वे प्राणादयो जीवविशेषा युगपदुत्पन्नाः सकलजीवानामेकका जम्बूद्वीपे पृथिव्यादिभावेनोत्पादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः, न चैतदस्ति, तथा जगत्स्वभावादिति, कियन्तो वारानुत्पन्ना इत्याह- असकृद् - अनेकशः अथवा अनन्तकृत्वः - अनन्तवारान् संसारस्यानादित्वादिति । अथ जम्बूद्वीपेतिनाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं जिज्ञासिषुः पृच्छति
For P&Praise Cnly
अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् शिर्षक-स्थाने 'सू० १७७-१७८' मुद्रितं, तत् अशुद्धं, अत्र सू० १७४-१७६' एव वर्तते
~ 1081~
७वक्षस्कारे द्वीपनामहेतुः उपसंहारः सू. १७७-१७८
॥५३९॥
Page #1083
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
- मूलं [१७७-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुबइ जम्बुद्दीवे २१, गो०! जम्युहीवे दीये तस्थ २ देसे सहिं २ बहवे जम्यूरक्या जम्बूवणा जम्यूव
संवा णिचं कुसुमिआ जाव पिंटिममंजरिव.सगधरा सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति, जम्मूप सुदसणाए अणाढिएणामं देवे महिद्वौए जाब पलिओबमट्ठिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं बुचइ जम्बुद्दीचे दीवे इति । (सूत्र १७७) नए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभहे चेइए बहूर्ण समणाणं बहूर्ण समणीणं बहूणं सावयाणं बहूर्ण सावियाणं बहूर्ण देवाणं यहूर्ण देवीणं मजागए एवमाइक्खा एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परुवेइ जम्बूदीवपण्णत्ती णामत्ति अजो! अजायणे अटुं च ऐवं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुजो २ उवदंसेइत्तिबेमि (सूत्रं १७८)॥ इति श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रं समाप्तम् । प्रथाम०४१४६ ॥ 'से केणटेणं भन्ते! एवं बुबह-जम्बुद्दीवे दीवे इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त। एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीपः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे २ तत्र तत्र देशे तस्य देशस्य २ तत्र तत्र प्रदेशे बहवो जम्बूवृक्षाः एकैकरूपाः विरल| स्थितत्वात् तथा बहूनि जम्बूवनानि-जम्बूवृक्षा एवं समूहभावेन स्थिताः अविरलस्थितत्वात् 'एकजातीयतरुसमूहो वन मिति वचनात् , तथा बहवो जम्बूवनखण्डा:-जम्बूवृक्षसमूहा एव विजातीयतरुमिश्रिताः, 'अनेकजातीयतरुसमूहो। वनखण्ड' इति वचनात् , तत्रापि जम्बूवृक्षाणामेव प्राधान्य मिति प्रस्तुते वर्णकसाफल्यं, अन्यथा अपरवृक्षाणां वनखण्डैनिमित्तभूतैर्जम्बूद्वीपपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेऽसाङ्गत्यात् , ते च कथंभूता इत्याह-नित्यं-सर्वकालं कुसुमिताः यावत्पदात् 'णिश्चं ||३||
माइया णिचं लवामा णिचं थवइआ जाव णिचं कुसुमिअमाइअलवइअथवइभगुलइअगोच्छइअजमलिअजुवलिअशविणमिअसुविभत्त' इति ग्राह्यम् , एतद्व्याख्यानं प्राग्वनखण्डवर्णके कृतमिति ततो ज्ञेयं, उक्तवर्णकोपेताश्च वृक्षाः
389
~ 1082 ~
Page #1084
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----
-- मूलं [१७७-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्बू- श्रिया अतीव उपशोभमानास्तिष्ठन्ति, इदं च नित्यकुसुमितत्वादिकं जम्बूवृक्षाणामुत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया बोध्यं, अन्यथैषां वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रावृट्कालभाविपुष्पफलोदयवत्त्वेन प्रत्यक्षबाधात् , एतेन च जम्बूवृक्षबहुलो द्वीपो जम्बूद्वीप इत्याबेदितं भवति, अथवा
द्वीपनामविचन्द्रीजम्ब्बा सुदर्शनाभिधानायामनादृतनामा-पूर्व जम्बूवृक्षाधिकारे व्याख्यातनामा देवो महर्द्धिको यावत्करणात् 'महज्जु
॥ हेतु: उपथा वृत्ति:
संहारः . ईए' इत्यादि ग्राह्य, पल्योपमस्थितिकः परिवसति, अथ तेनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-स्वाधिपत्यनाहतनामदेवाश्रय॥५४॥ भूतया जम्योपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीप इति, सूकदेशो ह्यपरं सूत्रैकदेशं स्मारयतीति 'भदुत्तरं च णं जम्बुद्दीवस्स Iसासए णामधेज्जे पण्णत्ते जण्ण कयाइ ण आसी ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ जाव णिचे' इति ज्ञेयम् ,
जीवाभिगमादर्श तथादर्शनात्, एतेन किमाकारभावप्रत्यवतारो जम्बूद्वीप इति चतुर्थः प्रश्नो नियूंढ इति । अथ प्रस्तुततीर्थद्वादशाङ्गीसूत्रसंसूत्रणाविश्वकर्मा श्रीसुधर्मस्वामी स्वस्मिन् गुरुत्वाभिमान परिजिहीर्घः प्रस्तुतग्रन्धनामोपदर्श-III |नपूर्वकं निगमनवाक्यमाह-तए ण'मित्यादि, शाश्वतत्वाच्छाश्वतनामकत्वाच सद्पोऽयं जम्बूद्वीपरूपो भावः, सन्तं हि || भावं नापलपन्ति वीतरागास्ततः श्रमणो भगवान् महावीरो मिथिलायां नगर्या माणिभद्रे चैत्ये बहूनां श्रमणानां बहूनां | श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणां बहूनां देवानां बहूनां देवीनां मध्यगतो न पुनरेकान्ते एकतरस्य कस्य-18
18॥५४०॥ चित् पुरतः एवं-यथोक्तमुक्तानुसारेणेत्यर्थः आख्याति-प्रथमतो वाच्यमात्रकथनेन एवं भाषते-विशेषवचनकथनतः18 एवं प्रज्ञापयति-व्यकपर्यायवचनतः एवं प्ररूपयत्युपपत्तितः, आख्येवस्याभिधानमाह-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम षष्ठो
~ 1083~
Page #1085
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----
- मूलं [१७७-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
93800300
पाङ्गमिति शेषः, एतच्च ग्रन्थाग्रेण साधिकैकचत्वारिंशच्छतश्लोकमानं, यत्तु श्रीमलयगिरिपादैः सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितीयप्राभृतप्राभृते 'एवामेव सपुवावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे चउद्दस सलिलासयसहस्साई छप्पण्णं च सलिलासहस्साई भवंती. | तिमक्खाय'मित्यंतं श्लोकसहनचतुष्टयमानमुक्तं, ज्योतिषकाधिकारसूत्रमीलनेन च सप्तचत्वारिंशच्छताधिकमपि, तत्त
यावत्पदसंग्रहेण जन्माधिकारबृहद्वाचनाप्रक्षेपेण च तावत्परिमाणं सम्भाव्यत इति बोध्यं । अत्र गुणान् विभावयन्नाह| 'अजो अज्झयणे अठं च हेउं च पसिणं च'इत्यादि, आरात्-सर्वपापाद् दूरं यातः आर्य:-श्रीवर्द्धमानस्वामी अत एव || सर्वसावद्यवर्जकत्वेन 'सावयं निरर्थकं तुच्छार्थकं च न बेवादिति वक्तृप्रामाण्येन वचनप्रामाण्यमावेदितं भवति, अथवा श्रीसुधर्मस्वामिसम्बोधनं श्रीजम्बूस्वामिनं प्रति हे आर्य ! इति, अध्ययने-प्रस्तुतजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनामके स्वतन्त्राध्ययने । न तु शखपरिज्ञादिवत् श्रुतस्कन्धाद्यन्तर्गते अर्थ च चाः परस्परं समुच्चयार्थाः हेतुं च प्रशं च कारणं च व्याकरणं च। भूयो भूयो-विस्मरणशीलश्रोत्रनुग्रहार्थं वारंवार प्रकाशनेन अथवा प्रतिवस्तु नामार्थादिप्रकाशनेनोपदर्शयतीति सम्बन्धः || अनेन गुरुपारतन्यमभिहितं, तत्रार्थो जम्बूद्वीपादिपदानामन्वर्थः, स यथा 'से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुच्चइ-जम्बुद्दीवे दीवे', गोअमा! जम्बुद्दीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे जम्बूरुक्खा जम्बूवणा जम्बूवणसंडा णिचं कुसुमिआ | जाव पिंडिममंजरिवटेंसगधरा सिरीए अईव २ उवसोभेमाणा चिट्ठति, जम्यूए अ सुदसणाए अणादिए णामं देवे महिडीए जाव पलिभोवमहिईए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं बुधइ-जम्बुद्दीवे २' इति, तथा हेतुः-निमित्तं स
cerseces
laEcINE
~ 1084 ~
Page #1086
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------
- मूलं [१७७-१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Hen
जिम्ब- यथा 'पभूणे भरते। चंदे जोइसिंदे जोइसराया चन्दव.सए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सहम्माए तडिएणं अक्षस्कार दीपशा- सद्धिं महयाहयणगीअवाइअ जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, गोअमा! णो इणढे समढे' इत्यत्राभि- द्वीपनामधातव्यार्थस्य से केणटेणं जाव विहरित्तए, गोअमा! चन्दस्स जोइसिंदस्स० चन्दवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणीए |
हेतुः उप
॥ संहार: सू. सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु बहुईओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिट्ठति, ॥७७-१७ ताओणं चन्दस्स अन्नेसिं च बहूर्ण देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ, से तेणठेणं गोअमा
णोपभूति, इदं सूत्रं हेतुप्रतिपादकम् , तथा प्रश्नः-शिष्यपृष्टस्यार्थस्य प्रतिपादनरूपः, यथा लोकेऽप्युच्यते-अनेन प्रश्नानि || सम्यक् कथितानि, अन्यथा सर्वथा सर्वभावविदो भगवतः प्रष्टव्यार्थाभावेन कुतः प्रश्नसम्भव इति, यथा-'कहिणं
भन्ते । जम्बहीवे दीये केमहालए णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे किंसंठिए णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे किमायारभावप-18 डोआरे णं भन्ते ! जम्बुद्दीने दीये पण्णत्ते, गोअमा! अयण्णं जम्बुद्दीवे दीवे सपदीवसमुदाणं सधभतरए सबखुड्डाए बट्टे तेल्लापूअसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णिआसंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एग जोअणसयसहस्सं ॥३॥ आयामविक्खंभेणं तिपिण जोअणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि अ सत्तावीसे जोअणसए तिषिण अ कोसे
५४॥ अट्ठावीसं च घणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहि परिक्खेवणं पण्णत्ते' इति, तथा करण-अपवादो 18| विशेषवचन मितियावत, तच नवरंपदगभितसूत्रवाच्यं, यथा-'कहिणं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासे पण्णते?,
~ 1085~
Page #1087
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १७७-१७८]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
गोअमा ! सिहरिस्त उत्तरेणं उत्तरलवणसमुद्दस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुद्दस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स
| पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जच्चैव वत्तवया भरहस्स सच्चैव | सबा निरवसेसा अवा सभोअवणा सणिक्खमणा सपरिणिबाणा' इत्यतिदेशसूत्रे णवरं एरावओ चक्कवट्टी देवे एरावए से तेणद्वेणं एरावए वासे' इति, तथा व्याकरणं-अपृष्टोत्तररूपं, तद्यथा— जया णं भन्ते ! सूरिए सवन्तरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ?, गोअमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए एगूणतीसं च सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' इत्यन्तसूत्रे 'तया णं इहगयस्स | मणूसस्स सीभालीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ तेवद्वेहिं जोयणसएहिं एगवीसाए अ जोअणस्स सद्विभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ' इत्येवंरूपेण सूत्रेण सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तता शिष्येणापृष्टापि परोपकारैकप्रवृत्तेन भगवता स्वयं व्याकृतेति, इति ब्रवीमीति सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति ब्रूते अहमिति ब्रवीमि कोऽर्थः १-गुरुसम्प्रदायागतमिदं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनामकमध्ययनं नतु मया स्वबुद्ध्योत्प्रेक्षितमिति, उपदर्शयतीत्यत्र वर्त्तमान निर्देशस्त्रिकाल भावि ध्वर्हत्सु जम्बूद्वीपप्रशस्युपाङ्ग विषयकार्थप्रणेतृत्वरूपविधिदर्शनार्थं, अत्र च ग्रन्थपर्यवसाने श्रीमन्महावीरनामकथनं चरममङ्गलमिति ॥
For P&Pase Cnly
अत्र सप्तम वक्षस्कारः परिसमाप्तः
~1086~
Page #1088
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------
----- मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
धीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
वक्षस्कारे द्वीपनामहेतु: उपसंहार:सू. १७७-१७८
इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकन्धरसुरत्राणप्रदत्तषाण्मासिकसवेंजन्तुजाताभयदानशत्रुजपादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिवहुमानयुगप्रधानोपमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती रखमषानामयां ज्योतिष्काधिकारवर्णनो नाम सप्तमो वक्षस्कारः समासः, तत्समाप्तौ च
समाप्तेयं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्गवृत्तिः॥
॥५४२||
boerseocaceaesesercedesesesese
॥५४२॥
आगमसूत्र-१८ [उपांगसूत्र-७] 'जम्बदवीपप्रज्ञप्ति' परिसमाप्त:
~1087~
Page #1089
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ---------
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रशस्तिः । श्रेयाश्रीप्रतिभूप्रभूततपसा यो मोहराज रिपुं, दध्वंसे सहसा नितो गतमलं ज्ञानं च यः केवलम् । यो जुष्टश्च सदा त्रिविष्टपसदा वृन्दैस्तथा तथ्यवार, यस्तीर्थाधिपतिः श्रियं स ददतां श्रीवीरदेवः सताम् ॥१॥
अर्हत्स्विवात्र निखिलेषु गणाधिपेषु, वामेयदेव इव यो विदितो जगत्याम् । भादेयतामदधदद्भुतलब्धिधाम, श्रीगौतमोऽस्तु सम (मम) पूरितसिद्धिकामः ॥२॥ यं पञ्चमं प्रथमतोऽपि रतोपयेमे, श्रीवीरपट्टपटुलक्ष्मिसरोरुहाक्षी। रुद्राङ्कितेषु गणभृत्सु सुधर्मनामा, भूयादयं सुभगतानिधिरिष्टसिद्ध्यै ॥ ३॥ तस्य प्रभोः स्थविरवृन्दपरम्परायां, तत्तल्लसत्कुलगणावलिसम्भवायाम् ।। आतः क्रमाद् चटगणेन्द्रतपस्विसूरेः, श्रीमांस्तपागण इति प्रथितः पृथिव्याम् ॥४॥ पद्मावतीवचनतोऽभ्युदयं विभाव्य, यत्सूरये स्तवनसप्तशती स्वकीयाम् ।
सूरिर्जिनप्रभ उपप्रददे प्रथायै, सोऽयं सतां तपगणो न कथं प्रशस्वः ॥५॥ तत्रानेके बभूवुःसुविहितगुरवः श्रीजगचन्द्रमुख्याः, दोषायां वा दिवा वा सदसि रहसि वा स्वक्रियास्वेकभावाः।
~ 1088~
Page #1090
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-],----------------
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीजम्मू
प्रशान
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
ecene ceaeA
आदिकोडैरियोथी चिकिलभरगता दुष्प्रमादावमन्ना, यैरुद्दधे वितन्द्रैः स्वपरहितकृते सक्रिया सरिक्रया ॥६॥
अदुष्यं वैदुष्यं चरणगुणवैदुष्यसहितं, प्रमादाद्वैमुख्य प्रवचन विधेः सरकथकता ।
गुणीयो यस्येत्थं न खलदुर्वाक्यविषयः, क्रमादासीदस्मिन् परमगुरुरानन्दविमलः ॥७॥ अन्तर्वाद्यमिति द्विधापि कुमतं श्रद्धावतां स्वागतं, निःश्रद्धैस्तु यथाशयं प्रकटितं विच्छिन्दतोऽस्य प्रभोः। बाह्यध्वान्तविभेदिनो दिनमणेः साम्यं न रम्यं न वा, ध्वान्तद्वैतभिदोऽपि मन्दिरमणेः संरक्षतोऽधस्तमः॥८॥
स्वगच्छे स्वसिंश्च प्रथयति तरां स्म प्रथमतस्तथा साधोश्चर्या ध्रुवसमय एंव प्रभुरसी । यथा सैतत्पट्टाधिपतिपुरुषे संयतगणे, क्रमाद्गुर्ची गुीं प्रजनितयशस्काऽनुववृते ॥९॥ तत्पभूषणमणिः सुगुरुप्तधर्मबीजप्रवर्द्धनपटुर्भरतक्षमायाम्। सूरीश्वरो विजयदानगुरुर्बभूव, के वादिनो विजयदा न बभूवुरस्य ? ॥१०॥ नालीकनीरनिधिनिर्जरसिन्धुसेवां, चक्रुश्चतुर्मुखचतुर्भुजचन्द्रचूडाः।
यस्य प्रतापपरितापभृतो न भीता, एते जडाश्रयिण इत्यपधादतोऽपि ॥ ११॥ तत्पर गुरुहीरहीरविजयो विभ्राजयामासिवान, जाग्रद्भाग्यनिधिः प्रियागमविधिश्चारित्रिणां चावधिः।। यं सम्प्राप्य जगत्रयैकसुभगं मुक्तो मियो मत्सरः, श्रीवाग्भ्यामिव दीर्घकालजनितो ज्ञानक्रियाभ्यामपि ॥ १२॥
॥५४३॥
~ 1089~
Page #1091
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-], ---------
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
सौभाग्य यस्य नानो नृपसदसि गुणिवादितायां प्रसिद्धेः, सौभाग्यं देशनाया अकवरनृपतिः पादयोः पादुका । सौभाग्यं यस्य पाणेरुपपदविजयः सेनसूरीश्वरोऽसौ, सौभाग्यं दर्शनस्य त्वहमहमिकया स्वान्यलोकोपपातः ॥१३॥ इदानीं तत्पट्टे गुरुविजयसेनो विजयते, कलौ काले मूर्तः सुविहितजनाचारनिचयः। विरेजे राजन्वान् शशधरगणो येन विभुना, गुणग्रामो यस्माद् भवति विनयेनैव सुभगः॥१४॥ खलास्तेजोराशिं चरणगुणराशिं सुविहिता, विनेयाश्चिद्राशिं प्रतिवचनराशिं कुमतिनः । कविः की राशिं वरविनयराशिं च गुरवो, विदुः स्थाने जाने शुचिसुकृतराशिं पुनरमुम् ॥१५॥
गुरोरस्य श्रुत्वा श्रवणमधुरं चारु चरितं, स्वगन्धर्वोद्गीतं शुचिगुणगणोपार्जनभवम् ।। चमत्कारोत्कर्षात् ससलिलसहस्रानिमिषद्दक्, पटक्केदक्लेशं सुबहु सहते गिर्यसहनः ॥१६॥ तेषां गणे गुणवतां धुरि गण्यमानः, श्रीवाचकः सकलचन्द्रगुरुर्बभूव ।। मेधाविषु प्रथमतः प्रथमानकीर्तिः, स्फूर्तिर्यदीयकविकर्मणि सुप्रसिद्धा ॥१७॥ पुनः पुनः संस्मृतिमीयुषीणां, प्रतिक्रियेयं यदुपक्रियाणाम् ।
पुनः पुनर्लोचनसान्द्रभावः, पुनः पुनर्निःश्वसनस्वभावः ॥ १८॥ तेषां शिष्याणुनेयं गुरुजनविहितानुग्रहादेव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः स्वपरहितकृते शान्तिचन्द्रेण चके।
~ 1090~
Page #1092
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [--],
मूलं [-]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [१८], उपांग सूत्र [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः
भीजम्बूडीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥५४४॥
वर्षे श्रीविक्रमार्काद्विधुशरशरभूवक्रधात्री १६५१ प्रमाणे, राज्ये प्राज्ये श्रिया श्रीअकबरनृपतेः पुण्यकारुण्यसिन्धोः १९ अस्योपाङ्गस्य गाम्भीर्यान्मदीयमतिमान्द्यतः । सम्प्रदायव्यपायाच्च, पूर्ववृत्तिनिवृत्तितः ॥ २० ॥t विरुद्धमागमादिभ्यो, यदत्र लिखितं मया । धीलोचनैस्तदालोच्य शोध्यं सानुग्रहैर्मयि ॥ २१ ॥ युग्मम् ॥ तुष्यन्तु साधवः सर्वे, मा रुध्यन्तु खला मयि । नमस्करोमि निःशेषान् प्रीत्या भीत्या क्रमादिमान् ॥ २२ ॥ गम्भीरमिदमुपानं यथामति विवृण्वता विशदमतिना । यदवापि मया कुशलं कुशलमतिस्तेन भवतु जनः ॥ २३ ॥ अये यावलीलोकसि नभसि नक्षत्रकुसुमव्रजं राज्ञः श्यामाभिगमसमये पूरिततरम् ।
मृजाकारः सूर्यः करबहुकरेणापनयति, ध्रुवा तावद्भूयादियमखिललोकैः परिचिता ॥ २५ ॥ अथ शोधनसमयगता पुरोऽनुसन्धीयते प्रशस्तिरियम् । तपगणसाम्राज्यरमां श्रयति श्रीविजयसेनगुरौ ॥ २६ ॥ यत्सौभाग्यमनुत्तरं गुणगणो येषां वचोगोचरातीतः कोऽप्यभवत् पुरापि विनयाधारः ( सदा पूजितः । हित्वा येन पतिंवरावदपरान् यानेव सच्चातुरीयुक्ताचार्यपदव्युदाररचिता सौवश्रियेऽशिश्रियत् ॥ २७ ॥ यद्रूपं मदनं सदा विमदनं निर्माति रम्यश्रिया, यरकीर्त्तिश्च पदातिकं वितनुते कान्त्या निशानायकम् । चित्र सचिनुते च चेतसि सतां यद्देशनावाकू सुधादेश्या शासनदीशिकृच्च सतपो यद् ध्यानमत्यद्भुतम् ॥ २८ ॥ ते श्री अकबरमहीधरदत्तमान- विख्यातिमद्विजयसेनगणाधिपानाम् ।
For P&False Cinly
~ 1091 ~
प्रशस्तिः.
॥५४४॥
Page #1093
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-].-----..........---.
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
नन्दन्ति पट्टयुवराजपदं दधानाः, श्रीसूरयो विजयदेवयतिप्रधानाः ॥२९॥ श्रीविजयसेनसूरी-श्वरगणनायकनिदेशकरणचणाः।
चत्वारोऽस्या वृत्तेः शुद्धिकृते सङ्गता निपुणाः॥३०॥ तथाहिश्रीसूरेविजयादिदानसुगुरोः श्रीहीरसूरेरपि, प्राप्ता वाङमयतत्त्वमद्भुततरं ये सम्प्रदायागतम् । ये जैनागमसिन्धुतारणविधी सत्कर्णधारायिता, ये ख्याताः क्षितिमण्डले च गणितग्रन्थज्ञरेखाभूतः॥३१॥
लुम्पाकमुख्यकुमतैकतमःप्रपञ्चे, रोचिष्णुचण्डरुचयः प्रतिभासमानाः।
श्रीवाचका विमलहवराभिधानास्तेऽत्रादिमा गुणगणेषु कृतावधानाः ॥ १२॥ तथा-ये संविद्यधुरन्धराः समभवन्नावालकालादपि, प्रज्ञावत्स्वपि ये च बन्धुरतराः प्रापुः प्रसिद्धि पराम् । श्रीवीरे गणधारिगीतम इव श्रीहीरसूरी गुरी, ये राजद्विनयास्तदातनसुधाभानोः पटुर्वावसुधाम् ॥३॥
सत्तलक्षणविशालजिनागमादिशास्त्रावगाहनकलाकुशलाद्वितीयाः ।
श्रीसोमयुगविजयवाचकनामधेयास्ते सद्गुणैरपि परैर्भुवमप्रमेयाः ॥ ३४ ॥ || किच-ये वैरङ्गिकतादिकवरगुणः सम्पाप्तसद्गौरवाः, सर्वादेवगिरः कलावपि युगे साम्नायजैनागमाः।
जर्जुः श्रीवरवानरर्षिविबुधास्तच्छिष्यमुख्याश्च ये, किं तन्मूर्तिरिवापरेत्यभिमतास्तैस्तैर्गुणैधीमताम् ॥ ३५ ॥
awa
JaEhringal
~1092~
Page #1094
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ---------
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
Secesese
द्वापशा न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥५४५॥
ceaeeee
प्रज्ञागुणगुरुगेहं परिभाषितभूरिशास्त्रवरतत्त्वाः । श्रीआनन्दविजयविबुधपुङ्गवास्ते तृतीयास्तु ॥३६॥ अपि च-येऽद्वैतस्मृतयः कुशाग्रधिषणाः सलक्षणाम्भोधराश्छन्दोऽलंकृतिकाव्यवाङ्मयमहाभ्यास शं विश्नुताः।
सिद्धान्तोपनिषत्प्रकाशनपरा विज्ञावतंसायितास्तत्तन्नूतनशास्त्रशुद्धिकरणे पारीणतां संश्रिताः ॥ ३७॥ श्रीकल्याणविजयवरवाचकशिध्येषु मुख्यतां प्राप्ताः । श्रीलाभविजयविबुधास्ते तुर्या इह बहृद्युक्ताः ॥ २८॥ एतेषां प्रतिभाविशेषविलसत्तीथे प्रथामागते, नानाशाखविचारचारुसलिलापूर्णे चतुर्णामपि। स्नाता वाचकवाच्यदूषणमलान्मुक्ता सुवर्णाशिता, सत्यश्रीरजनिष्ठ शिष्टजनताकाम्यैव वृत्तिः कनी ॥ ३९ ॥ श्रीमद्विक्रमभूपतोऽम्बरंगुणमाखपडदाक्षायणीमाणेशाङ्कितवत्सरे (१६६०)ऽतिरुचिरे पुष्येन्दुभूवासरे।। राधे शुद्धतिथी तथा रसमिते श्रीराजधन्ये पुरे, पार्षे श्रीविजयादिसेनसुगुरोः शुद्धा समग्राऽभवत् ॥४०॥
श्रीशान्तिचन्द्राभिधवाचकेन्द्रशिष्येष्वनेकेषु मणीयमानाः।
ध्वस्तान्तरध्वान्तजिनेन्द्रचन्द्रराद्धान्तरम्यस्मृतिलब्धमानाः॥४१॥ अस्थामनेकशी लिखनशुद्धिगणनादिविधिषु साहाय्यम् । गुरुभक्ताः कृतवन्तः श्रीमन्तसेजचन्द्रबुधाः ॥ ४२ ॥ देवादिन्द्रातिथितां गतेविदंवृत्तिसूत्रधारेषु । तन्मन्निनिजमनीपाविशेषमिव वीक्षितुं व्यक्तम् ॥ ४॥ तेषामन्तिपदामखिलशिष्यसमुदायमुख्यतां दधताम् । गुरुकार्ये धुर्याणां पण्डितवररलचन्द्राणाम् ॥ ४४ ॥
॥५४५॥
~1093~
Page #1095
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].-----...........----
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
श्रीतपगणपूर्वागिरिसूरी। श्रीविजयसेनसूरिवरैः । निजहस्तेन वितीर्णा प्रवर्त्तनायै प्रसादपरैः ॥४५॥ बहुभिश्च सम्मतेयं कृता तदा विदितसमयतत्त्वार्थैः । श्रीविजयदेवसूरिश्रीवाचकमुख्यगीतार्थैः ॥ ४६॥ रसानीच प्रमेयानि, नानाशाखखनीनि चेत् । भूयांसि लिप्सवो यूयं, विज्ञरलवणिग्वराः॥४७॥ श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेरुपाङ्गस्य सविस्तरा । प्रमेयरत्नमञ्जूषा, वृत्तिरेषा तदेक्ष्यताम् ॥४८॥ युग्मम् । श्रीशान्तिचन्द्रवाचकशिष्यवरो विबुधरनचन्द्रगणिः । अस्या बहादर्शानलीलिखद् भक्तियुक्तमनाः ॥४९॥ वाच्यमाना श्रूयमाणा, गीतार्थैः श्रावकोत्तमैः । शोध्यमाना लेख्यमाना, जीयासुस्ते चिरं भुवि ॥५०॥
तच्छिष्यो धनचन्द्रः स्फुरदुरुधीलिंपिकलाविधिवितन्द्रः । अकरोत्प्रथमादर्श सूत्रार्थविवेचने चतुरः ॥५१॥ इति श्रीशान्तिचन्द्रगणिवाचकविरचितायाः अमेयरत्नमंजूषानाच्याः श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तेः प्रशस्तिः सम्पूर्णा ॥
~1094~
Page #1096
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [-].-----..........----
------ मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
9 श्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमजम्बूदीपप्रज्ञप्तिनामकमुपागम् ।
अष्ठि देवचन्द्र लालभाइ जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्क: ५४
ROKOKOKOKOKOOOOOOO
इयं मूल संपादने मुद्रितं अन्तिम-पृष्ठं वर्तते
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र १८) “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” परिसमाप्त:
~ 1095~
Page #1097
--------------------------------------------------------------------------
________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 18 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्चा "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्र” [मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~ 1096~