________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], -----------------
---- मूलं [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [१८], उपांग सूत्र - [७] "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहित वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३१]
दीप अनुक्रम [४४]
ररररररररcer
उसभेणं अरहा कोसलिए संवच्छर साहिलं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए । जप्पभिई प णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पवइए तप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए णिवं बोसट्टकाए चिअत्तदेहे जे केई उक्सग्गा उप्पजंति तं०-दिवा वा जाव पडिलोमा वा अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वेत्तेण वा जाव कसेण वा काए आउट्टेवा अणुलोमा वं देज वा जाव पज्जुवासेज वा ते (उप्पन्न) सके सम्म सहइ जाव अहिआसेइ, तए णं से भगवं समणे जाए ईरिभासमिए जाव पारिद्वावणिआसमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते जाव गुचबंभयारी अकोहे जाव अलोहे संते पसंते उवसंते परिणिब्युड़े छिण्णसोए निरुषलेवे संखमिव' निरंजणे जच्चकणगं व जायस्वे आदरिसपडिभागे इव पागडभावे कुम्मो इव गुत्तिदिए पुक्खरपत्तमिव निरुवलेबे गगणमिव निरालंबणे अणिले इव णिरालए चंदो इव सोमदंसणे सूरो इव तेअंसी विहग इव अपडिवडगामी सागरो इव गंभीरे मंवरो इव अकंपे पुढवीविध सवफासविसहे जीयो विव अप्पडिहयगइति । पत्थि णं तस्स भगवंतस्स फत्यह पडिबंधे, से परिवंधे चउबिहे भवति, संजहा-दघओ खित्तओ कालो भावओ, दवाओ इह खलु माया में पिया मे भाया मे भगिणी मे जाव संगंथसंधुआ मे हिरणं मे सुवणं मे जाव तबगरण मे, अहबा समासो सश्चित्ते वा अचित्ते वा मीसए वा दबजाए सेवं तस्स ण भवद, खित्तओ गामे या णगरे वा अरण्णे वा खेत्ते वा खले वा गेहे वा अंगणे वा एवं तस्स ण भवइ, कालो धोवे वा लवे वा मुहुने वा अहोरचे वा पक्से वा मासे या उकए वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालपढिबंधे एवं तस्स भवइ, भावो कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स ण भवद, से गं भगवं वासावासवर्ज हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए णगरे पंचराइए ववगयहाससोगअरबमयपरित्तासे णिम्ममे जिरहंकारे
PRASReetserCACIOforseetACwREE-
Jistilenition
~ 294 ~