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या इनमें विकल्प है ? विधियों में तो उनके अनुरूप फल भो है अतः उनमें समुच्चय है किन्तु उपासनाओं के एक मात्र मुक्ति ही फल बतलाया गया है । बाइसवाँ अधिकरण
उपासनाओं के अङ्क, उन उपासनाओं के आश्रित रहते है अतः जो अंग जिस उपासना के आश्रित रहते हैं, उसकी भाव सत्ता उसी में रहती है ।
तेइसवाँ अधिकरण
refore में नृसिंह की उपासना में, मत्स्यकूर्मादि की स्तुति की गई है वैसे ही भागवत में "नमस्ते रघुवर्याय" आदि स्तुति श्री कृष्ण की की गई है । रूपभेद होते हुए भी सभी भगवदवतार हैं, इसलिए किसी भी अवतार में सभी रूपों की स्तुति उचित ही है ।
चौबीसवाँ अधिकरण
सर्वरूपत्व मानकर जो स्तुति की एकत्रोपासना का समर्थन किया वह नित्य होती है या वैकल्पिक ? इस पर नित्य पक्ष का निराकरण कर वैकल्पिक पक्ष का समर्थन करते हैं । उपासक की इच्छा पर निर्भर है कि वह एक ही रूप में समस्त रूपों की स्तुति करे या न करे ।
चतुर्थ पाद
प्रथम अधिकरण
अब विचार करते हैं कि उत्तर मीमांसा के प्रतिपाद्य बह्म प्राप्ति में पूर्व मीमांसा प्रतिपाद्य कर्मों का उपसंहार सम्भव है या नहीं ? उपसंहार हो सकता है इस पूर्वपक्ष का निराकरण करके सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि ब्रह्म चिन्तन में सर्वात्मभाव की प्रधानता है अतः उसमें स्वतः फलसाधकता है, कर्मकाण्ड की अपेक्षा नहीं है अतः उपसंहार आवश्यक नहीं हैं ।
द्वितीय अधिकरण
भगवत् ज्ञान में कर्मकाण्ड भले ही अपेक्षित न हो किन्तु कर्म स्वरूपोपकारक तो हैं ही ऐसा सिद्धान्त निश्चिय करते हैं । इसी अधिकरण में चाक्रायण उपस्ति की प्रसिद्ध कथा का दृष्टान्त प्रस्तुत कर प्राणात्यय आपत्तिकाल में सर्वान्नभक्षण की अनुमति देते हैं। बिना आपत्ति के जानते हुए भी विहित