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इस पर इतर साधन निरपेक्ष पूर्वमत का निराकरण कर इतर साधन सापेक्ष अक्षर ब्रह्म ज्ञान को परब्रह्म ज्ञान का साधक निर्णय करते हैं। "यमेवैषवृणुते" इत्यादि श्रति स्पष्टतः भगवत्कृपा रूप वरण की अपेक्षा बतला रही है भगवतकृपा से ही हृदय की गुहा में आविर्भूत पुरुपोत्तम के धाम परमव्योम वैकुण्ठ का साक्षात्कार होता है उसी में भगवान का आविर्भाव होता है ज्ञानियों के हृदय में ती परमव्योम का आविर्भाव होता नहीं, अन्यथा उनको भी पुरुषोत्तम प्राप्ति हो जाती। अतः भगवत्साक्षार में अक्षर ज्ञान के साथ प्रभूकृपा भी अपेक्षित है।
उन्नीसवाँ अधिकरण
“यो वै भूभा तत्सुखम्" श्रुति भूमापद से मुक्ति का उल्लेख है अथवा सर्वात्मभाव का ? मुक्ति मानने वाले पूर्वपक्ष का निराकरण कर सिद्धान्ततः सर्वात्मभाव को स्वीकारते है । सर्वात्यभाव की जो सुखरूपता बतलाई गई है-वह दुःख के हेतु संसार में ही भगवद्भाव करने से पुरुषोत्तमानन्द की प्राप्ति की दृष्टि से है। सर्वात्मभाव लौकिक है या अलौकिक ? इस पर लौकिक पक्ष का निराकरण कर सर्वात्मभाव भगवल्लीला में स्थित जीव में ही होता है अतः अलौकिक है इस बात को सिद्धान्ततः स्वीकारते हैं । भरतमुनि के अनुसार लौकिक पुरुष और स्त्री में रसाभास होता है रसानुभूति नहीं वही बात इस भगबद्रस के सम्बन्ध में भी है।
बीसवाँ अधिकरण
मत्स्थ आदि भगवदवतारों की उपासना समान रूप से करनी चाहिए या भिन्न-भिन्न प्रकार से करनी चाहिए ? इस पर पूर्वपक्ष कहता है कि उपास्य रूप से भिन्न होते हुए भी, जब उपासक एक है तो भिन्न प्रकार से किसी अवतार की विशिष्ट और किसी की अविशिष्ट उपासना करने से अवतार की अवज्ञा होगी जो कि लाभ के बजाय हानिकर होगी अतः समान रूप से आराधना करना ही उचित है । इस पर सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि समस्त अवतारों को भिन्न-भिन्न प्रकार से ही उपासना करनी चाहिए क्योंकि शास्यों में उन के भिन्न-भिन्न मंत्र आकार और कार्य का वर्णन किया गया है विभिन्न मंत्रादि की एकत्र उपासना संभव भी नहीं है।
एक्कीसवाँ अधिकरण दर्श पूर्णमास आदि विधियों की तरह समस्त उपासनाओं में समुच्चय है,