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( ५० ) मार्गीय है उन्हें पुरुषोत्तम सायुज्य मिलता है तथा जो पुष्टिस्थ हे उन्हें भजनानन्द का अनुभव प्राप्त होता है।
द्वादश अधिकरण ज्ञानमार्ग में से आत्मत्व रूप से ब्रह्म ज्ञान होता है, क्या भक्तिमार्ग में भी भक्ति से जो पुरुषोत्तम प्राप्ति होती है वह आत्मत्व रूप से ही होती है ? पूर्वपक्ष आत्मत्व रूप से कहता है सिद्धान्ततः इस पक्ष को अस्वीकारते हुए कहते हैं कि भक्तिमार्ग में आत्मत्व रूप से नहीं होती। ज्ञान भजनानन्द का अन्तराय रूप है, ज्ञान से संभाव्य जो आत्मत्वानुभूति होती है वह भी पुरुषोत्तम प्राप्ति में अन्तराय है अतः भगवान उसे नहीं होने देते ।
योदश अधिकरण भक्त जीवों के लिए शम दम आदि साधन विधेय हैं या नहीं? इस पर विधेय पक्ष का निराकरण करते हुए कहते कि विधेय नहीं हैं क्योंकि भक्ति ही सत्य आदि समस्त साधनारूपा है । मुमुक्षु ज्ञानमागौंय इन साधनों को बड़े कष्ट से साधते हैं जो कि भक्त के हृदय में भगवत्प्रादुर्भाव हो जाने से स्वतः सध जाते हैं । भगवद्भक्ति विषयक काम आदि भी मुक्ति साधक होते हैं, घर में ही भगवत्सेवा करने वाले गृही भक्तों की भी मुक्ति हो जाती है ।
चतुर्दश अधिकरण नित्यपालनीय वश्रिम धर्म और भगवद्धर्म दोनों का एक साथ पालन सम्भव नहीं है इनमें से किसी एक का त्याग कर देना उचित है या नहीं ? इस पर पूर्वपक्ष का कथन है कि वर्णाश्रम धर्म तो नित्य पालनीय धर्म हैं उनके त्याग तो प्रश्न ही नहीं उठता उनके न करने से तो शास्त्रों में प्रत्यवाय बतलाया गया है। भगवद्धर्म साधक की क्षमता पर निर्भर हैं. अतः दोनों के पालन में कठिनाई होने पर भगवद्धर्मों का त्याग ही स्वाभाविक है। इस पर सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि "तावत्कर्माणिकुर्वीत" इत्यादि द्युति में, वर्णाश्रमधर्मों से अधिक भगबद्धर्म का महत्व दिखलाया गया है। दोनों के पालन का जब एक कालिक अवसर हो तो बलाबल का विचार कर पहिले भगवद्धर्मों के पालन का प्रयास करना चाहिए फिर अवकाश मिलने पर वर्णाश्रम धर्मों का पालन करना चाहिए ।
पञ्चदश अधिकरण पुरुषोत्तम के ज्ञाता के लिए कोई कर्तव्य कार्य शेष रहता या नहीं ? पूर्वपक्ष