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से महत्व है किसको श्रेष्ठ माना जाय ? इस पर सिद्धान्त स्थिर करते हैं किमुमुक्षुओं से इस रहस्य को जानकर भजन करने वाला ही श्रेष्ठ है ।
नवम अधिकरण
आथर्वण गोपाल तापनी उपनिषद में आया है कि-"परब्रह्म तद्यो धारयति रसति, भजति, ध्यायते प्रेमति शृणोति श्रावयति उपदिशत्याचरति सोमृतो भवति" इसपर संशय होता है कि ये सारे साधन अलग अलग अमृतोत्पादक हैं या सब मिलकर हैं ? पूर्वपक्ष समस्त को समवेत रूप से अमृतोत्पादक मानता है, सिद्धान्ततः एक एक को अमृतोत्पादक निश्चित करते हैं।
दशम अधिकरण
जिस जीव में जिस कार्य के साधन का अधिकार भगवान ने दिया है वह जीव उसी कार्य साधन की क्षमता रखता है, उन साधनों में जो धर्म भगवान ने स्थापित (निश्चित) किए हैं वे ही अधिकृत रूप से जीव के आयत्त हैं । इसपर संशय होता है कि
उन धर्मों से मुक्ति होती है या नहीं ? पूर्वपक्ष कहता है कि होती है सिद्धान्त निर्णय करते हैं कि वे अधिकृति नियम मुक्ति साधक नहीं हैं अपितु उन नियमों के भक्तिपूर्वक अनुष्ठान से ही मुक्ति होती है।
एकादश आंधकरण "अक्षरधियां त्वविरोधः "इत्यादि सूत्र पर विचार करते हैं कि गोपाल तापनी के उक्त वचन में भगवद्धर्मों को मुक्ति साधक बतलाया गया है जब कि "तमेवविदित्वा" इत्यादि उपनिषद् में ज्ञान को ही मुक्ति का साधन कहा गया है। श्रुतियाँ दोनों ही समान हैं किसको प्रधान माने ? पूर्वपक्ष वाले कहते हैं कि "भक्त्माभिजानाति" इत्यादि में भक्तिमार्ग में ज्ञान की विशेषता बतलाई गई है अतः ज्ञान से ही मुक्ति होती है ऐसा ही मानना ठीक है। इस ज्ञान को साधना बतलाने वाली श्रुति का तात्पर्य बतलाते हुए पुरुषोद्यम प्राप्ति को ही मुक्ति निश्चित करते हुए भजन को ही उसकी प्राप्ति का साधन निश्चय करते हैं । ज्ञानभार्गीय को अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है भक्तिभार्गीय को पुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है इन दोनों में विलक्षणता है। उनमें भी जो मर्यादाभक्ति के