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षष्ठ अधिकरण वाजसनेमी शाख में “स एष नेति नेति" ऐसा उपकम करते हुए "सर्वपाप्मानंतरति" इत्यादि में पापतरणादिरूप भगवत्माहात्म्य बतलाया गया क्यों कि ज्ञान संसार की मुक्ति का हेतु है। उधर अथर्वणोपनिषद में "परवमैतद्यो धारियति" से प्रारम्भ करके "भजति सोमृतो भवति" इत्यादि में भक्ति को मुक्ति का हेतु बतलाया गया। इस सम्बन्ध में संशय केबल इतना ही है कि"स एवं वेद स पाप्मानं तरति" वाक्य से सूचित हो रहा है कि ज्ञानदशा में भी पाप का अस्तित्व रहता है तभी तो पाप से तरने की बात कही गई, क्या भक्ति दशा में भी यही स्थिति रहती है या नहीं ? पूर्वपक्ष रूप से भक्ति दशा में भी पाप के अस्तित्व का समर्थन करते हुए सिद्धान्त रुप से निश्चित करते हैं कि-ज्ञान मार्ग में अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है तथा भक्ति मार्ग पुरुषोत्तम ब्रह्म की प्राप्ति कराता है, अतः भक्ति के पूर्व ही पाप का नाश हो जाता है । पूर्वपक्ष इस पर तर्क प्रस्तुत करता है कि-भक्तिमार्ग में भी गोपियों के लिए जो भागवत में “दुःसह प्रेष्ठ विरह तीव्रताप धुता शुभाः ध्यान प्राप्याच्युताश्लेष निवृत्या क्षीणमंगलाः" इत्यादि में दुष्कृत सुकृत के नाश की चर्चा की गई उससे तो तुम्हारी बात कट जाती है। इसका उत्तर “छन्दत उभय विरोधात्" सूत्र देते हुए कहते हैं कि-भक्ति के पूर्व ही औत्मर्गिक पापनाश हो जाता है, कभी विशेष इच्छा से भी पाप का अपनुदन होता है, उक्त प्रसंग में इच्छा विशेष का ही उल्लेख है। चिकीर्षित लीला के मध्य में जो भक्त आजाते हैं वे न तो औपाधिक स्नेह वाले होते है न सगुण होते हैं न सुकृत आदि उनमें होते हैं इसी भाव को बतलाते हुए उक्त प्रसंग में बतलाया गया कि कुछ गोपियाँ लीला से विपरीत धर्मवाली होकर लीला में उपस्थित होना चाहती थीं जो कि लीला में प्रतिबन्धक था उन्होंने स्वतः ही विपरीत भाव का नाश कर लीला में उपस्थित होने योग्य अपने को बना लिया । अतः भक्ति मार्ग में ऐसा होता है ऐसा सार्वत्रिक मत स्थिर नहीं किया जा सकता। यदि कोई मंत्र से अग्नि का दाहिका शक्ति को प्रतिबद्ध करदे तो अग्नि में दाहिका शक्ति है ही नहीं ऐसा सार्वत्रिक नियम तो स्वीकारा नहीं जा सकता ।
सप्तम अधिकरण
"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेदनिहितं गुहायां परमे--व्योमन्" "तमेवविद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था विद्यतेयनाय" इत्यादि श्रुति ब्रह्मज्ञान होने