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नवम अधिकरण ब्रह्म के धर्म, ब्रह्म से भिन्न कार्यरूप हैं अथवा ब्रह्म में ही रहते हैं ? इस संशय पर पूर्वपक्ष कहता है कि ब्रह्म के धर्म, प्रपञ्चात्मक जगत की तरह कार्यरूप हैं । इस पक्ष का खण्डन कर ब्राह्म धर्मों को स्वरूपभूत निर्णय करते हैं।
दशम अधिकरण ब्रह्म के सकाश से कोई और उत्कृष्ट फलावाप्ति होती है क्या ? इस संशय पर परमत का निराकरण कर ब्रह्म के सकाश से ब्रह्म को ही फलरूप से प्राप्ति होती है इस सिद्धान्त कर स्थापन ।
ऐकादश अधिकरण फलदाता, भगवान हैं या कोई अन्य देवता है या जीव का अपना कर्म ही फल देता है ? इस संशय पर अन्य देव आदि का निरास कर भगवान के फलदाइत्व को ही सिद्धान्ततः स्वीकारते हैं ।
तृतीय पाद
प्रथम अधिकरण अब ब्रह्मगत धर्मों पर विचार करते हैं । यदि वे समस्त धर्म एक ही वाक्य में होते तो विचारणीय नहीं थे किन्तु वे भिन्न-भिन्न उपासना प्रकरणो में कहीं एक से और कहीं भिन्न रूप से दिखलाए गए हैं, जैसे कि-पञ्चाग्नि विद्या में उन्हें छठे अग्नि के रूप में "तस्याग्नेरिवाग्नि" कहा गया है । छान्दोग्य में उन्हें पांचो अग्नि में ही स्वीकारा गया है। प्राण संवाद में चार प्राणों से भिन्न मुख्य प्राण रूप से बतलाया गया है अथर्वोपनिषद् में गोकुल वृन्दावनचारी गोपाल के रूप में उनका वर्णन है कहीं धनुर्धारी राम के रूप में वर्णन है, कहीं नृसिंह और वामन रूप का वर्णन है। इस पर विचार करते हैं कि उपासना भेद से इनमें ब्रह्म से भेद है अथवा अभेद इस पर भेद पक्ष का निराकरण का शभेद पक्ष का सिद्धांततः विवेचन करते हैं । कहते हैं कि ब्रह्म के अनन्त रूप हैं, जिस रूप को जिस जीव में उपासना करने की क्षमता है तदनुरूप ही वेदों में विभिन्न प्रकार की उपासनाओं का निरूपण किया गया है। जैसे कि एक ही अग्निष्टोम यज्ञ की शाखा भेद से विभिन्न विधायें बतलाई गई हैं।
द्वितीय अधिकरण अन्नमय आदि में आनन्दमय का जीवत्व है या बह्मत्व ? इस पर जीवत्व पक्ष का निरास कर ब्रह्मत्व पक्ष का समर्थन ।