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चतुर्थ अधिकरण अब विषय निर्धारण के लिए ब्रह्म स्वरूप पर विचार करते हैं । सर्वप्रथम परस्पर विरुद्ध वाक्यों का निर्णय करते हैं अविरुद्ध स्वगत धर्मों का अग्रिमपाद में विचार करेंगे। जड़ जीव के धर्म के रूप में प्रतीयमान धर्मों का विचार यहां करते हैं। किसी श्रति में जड़जीव धर्मों का उल्लेख है तो कहीं उनका निषेध है । इस पर कोई भाष्यकार प्रकारान्तर से विरोध का परिहार करते हैं । उनके मत को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर भाष्यकार उनकी भूल को उपस्थित करते हुए निश्चित करते है कि स्थान भेद से ब्रह्म का उभय धर्मत्व संभव नहीं है।
पञ्चम अधिकरण
जड़ जीव धर्म परमात्मा में हैं या नहीं ? इस संशय पर पूर्वपक्ष जड़जीव धर्म का अस्तित्व ब्रह्म में मानता है, उसका खण्डनकर कोई उनके अस्तित्व को नकारता है।
षष्ठ अधिकरण भाष्यकार उपयुक्त एकदेशीय मत को दूषित बतलाते हुए सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि-जड़जीव धर्म ब्रह्म में औपाधिक या औपचारिक नहीं है' अपितु स्वाभाविक ही है क्योंकि-ब्रह्म विरुद्ध धर्मों का आश्रय है।
सप्तम अधिकरण "न चक्षुषा गृह्यते"कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षत", नापिवाचा "सर्वे वेदा सत्पदमामनन्ति "अप्राप्य मनसा सह" मनसैवैतदाप्तव्यं" "अस्पर्शमगन्धमरसम् सर्वरूपः सर्वगन्धः सर्वरसः", इत्यादि सर्वथा विरुद्ध स्वरूपावबोधक वाक्यों में एक प्रकार के वाक्यों को ब्रह्म के स्वरूप का अवबोधक माना जाय या दोनों प्रकार के वाक्यों को ? पूर्वपक्ष कहता है कि एक ही प्रकार के वाक्यों को माना जाय दूसरे प्रकार के वाक्यों को औपचारिक माना जाय । इस मत का निरास कर दोनों प्रकार के वाक्यों को प्रामाणिक मानने के पक्ष को सिद्धान्ततः प्रस्तुत करते हैं।
अष्टम अधिकरण इस अधिकरण में भी पूर्वोक्त कथन की प्रकारान्त से पुष्टि करते हैं।